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एकादश अध्याय
ऊन या ऊनी वस्त्र का व्यापार उक्त कर्म में नहीं गिना जाता। क्योंकि, ऊत आदि के व्यापार में महाहिंसा नहीं होती । किन्तु दासियों का व्यापार करने में महा हिंसा एवं महारंभ होता है । उन का जीवन परतन्त्र हो जाने से उन्हें वहुत कष्ट उठाना पड़ता है । शक्ति से. अधिक श्रम करना होता है, फिर न तो पूरा खाना मिलता है और न. पहनने को सुन्दर एवं स्वच्छ वस्त्र ही उपलब्ध हो पाते हैं। काम करते. हुए मालक की फटकार एवं इण्डों की मार सहनो होती है। इसके प्रतिरिक्त, यदि वह दासी सुन्दर हुई तो उसके शरीर के साथ खिलभी किया जाता है, उसे अपनी वासना का शिकार बनाया जाता है । इस तरह दुराचार बढ़ता है। अस्तु, श्रावक को ऐसा व्यापार नहीं करना चाहिए ।
वाड़
वर्तमान युग में दास-दासियों का व्यापार ता कानून से बन्द है । इसलिए कोई व्यक्ति नहीं करता । परन्तु वेश्यालय चलाने तथा वेश्या. वृत्ति की दलाली का कार्य आज भी चालू है । ऐसा कार्य भी श्रावक के लिए सर्वथा त्याज्य हैं ।
भारतवर्ष में कुछ वर्ष पहले कन्या को बेचने का रिवाज खूब ज़ोरों से चल रहा था । पूँजीपतियों को जब तीसरा या चौथा विवाह करना होता था, तब ग़रीब की कन्या ढूंढते थे और कन्या के मां-बाप या संरक्षक को रुपए देकर उस से विवाह कर लेते थे या यों कहिए कि वे कन्या को खरीद लेते थे । श्राजकल कन्या को बेचने का रिवाज तो पहले से कम हो गया है, परन्तु लड़कों को वेचने का रिवाज खूब ज़ोरों से चल पड़ा है। बड़े-बड़े पूंजीपति अपने लड़के के विवाह के लिए हजारों रुपए के दहेज़ की मांग करते हुए नहीं हिचकिचाते । वे एक तरह से अपने लड़के को नीलाम की बोली पर चढ़ा देते हैं, जो