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एकादश अध्याय
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सामायिक की साधना द्रव्य और भाव से दो प्रकार की बताई गई है। सामायिक करने के स्थान का रजोहरण या प्रमार्जनिका से प्रमार्जन करके खादी का आसन बिछा कर बनियान, कमीज, कोट आदि उतार कर, चादर चढ़ कर तथा मुखवस्त्रिका लगा कर ४८ मिष्ट तक माला फेरने या धार्मिक क्रिया करना द्रव्य सामायिक है । और उस समय हरी सब्जी, कच्चे पानी प्रादि का स्पर्श तथा वहिन को पुरुष का तथा पुरुष को भी वहिन का स्पर्श नहीं करना, इधरउधर की फालतू बातें नहीं करना आदि वाह्य रूप भी द्रव्य सामायिक है । भाव सामायिक में भाव शब्द मानसिक विचारों का परिचायक : है । द्रव्य सामायिक में वचन और शरीर को सावद्य प्रवृत्ति से हटाकर धार्मिक साधना में लगाया जाता है और भाव सामायिक में मन के योग को सावद्य प्रवृत्ति से हटा कर समभाव की माघना में लगाने का विधान है। राग-द्वेष, काम-क्रोध के प्रवाह में प्रवहमान मन को, विचारों को समभाव की ओर मोड़ने का नाम भाव सामायिक है । वचन और शरीर के योग से मन का योग अधिक सूक्ष्म है । शरीर एवं वचन योग पर कन्ट्रोल करना सहज है, परन्तु मन की गति को, वेग को रोकना कठिन है । और जब तक मानसिक चिन्तन की धारा में परिवर्तन नहीं आता, तब तक सामायिक की साधना लाभदायक नहीं होती या यो कहिए उससे श्रात्मा का अभ्युदय नहीं होता । प्रत्येकक्रिया तभी फलवती होती है, जब द्रव्यं साधना के साथ भाव साधना की गति ठीक रहती है। भाव शून्य क्रिया से विशेष लाभ नहीं होता ! इसलिए भाव सामायिक का स्थान सर्वोपरि है ।
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प्रश्न- भाव सामायिक ही वास्तविक और शुद्ध सामायिक है ।
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उसके अभाव में द्रव्य सामायिक का कोई महत्व नहीं है ।
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