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एकादश अध्याय
देशावकाशिक व्रत जो छठे और सातवें व्रत में दिशा-विदिशाओं में आवागमन के क्षेत्र की तथा उपभोग-परिभोग के साधनों की मर्यादा की है, उसमें से · प्रतिदिन आवश्यकताओं का संकोच करते रहने का नाम देशावकाशिक व्रत है। जैसे किसी व्यक्ति ने पूर्व दिशा में एक हजार मील तक जाने की मर्यादा रखी है । परन्तु वह प्रति दिन इतना रास्ता तय नहीं करता। इसलिए वह प्रतिदिन अपनी आवश्यकता के अनुसार दो,चार या दस-बीस मील की मर्यादा रखकर शेष का उस दिन के लिए त्याग कर दे। इसी तरह उपभोग-परिभोग के साधनों में भी प्रतिदिन .. संकोच करे । आजकल श्रावक के लिए प्रतिदिन १४ नियम चिन्तन करने और स्वीकार करने की जो परम्परा है वह इसी व्रत का रूपांतर है । पृथ्वी, पानी आदि सचित पदार्थों, स्वाद के लिए तैयार किए गए अनेक तरह के द्रव्य, दूध-दही-घी आदि विगह आदि १४ प्रकार . . के नियम है, इनमें पदार्थों की एवं स्वादों की मर्यादा की जाती है। आवश्यकताओं को हमेशा घटाने का ध्यान रखा जाता है। इसी तरह यह व्रतं प्रतिदिन ज़रूरतों को कम करने की, पदार्थों में रही हुई . ममता एवं तृष्णा को संकोचने की शिक्षा देता है।
उपरोक्त परिभाषा के अतिरिक्त ५ अणुव्रतों में काल की मर्यादा को नियत करके श्राश्रव का त्याग करना भी देशावकाशिक व्रत कहलाता है । कोई व्यक्ति पौषध व्रत नहीं रख सकता है, वह एक दिन-रात के लिए ५ आश्रव का त्याग करके, माहार-पानी करते हुए २४ घण्टे साधना में संलय रहता है तथा कोई व्यक्ति तीन आहार का त्याग कर देता है, केवल पानी पीकर सावध योग में प्रवृत्त होने का त्याग कर देता है, तो उसे भी देशावकाशिक व्रत कहते हैं। प्रथम