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एकादश अध्याय
२४ सयण विहि- पलंग, कुर्सी, बिछौना आदि की मर्यादा करना । २५- सचित्त-विहि- सचित्त पदार्थों को खाने की मर्यादा करना । . २६ - दव्व विहि- सचित्त प्रचित्त जो पदार्थ खाने के लिए रखें हैं उनमें से कितने एक पदार्थों का स्वाद लेना । जितने पदार्थ खाए जाते हैं वे सब अलग-अलग द्रव्य गिने जाते हैं । जैसे तीन-चार सब्जियों को अलगअलग स्वाद ले कर खाना, ये ३-४ द्रव्य गिने जाते हैं और उन सब को • मिला कर एक स्वाद बना कर खाना एक द्रव्य कहलाता है । इस तरह द्रव्य की मर्यादा करना । इन सभी बोलों की मर्यादा करने का नाम उपभोग - परिभोग-परिमाण - व्रत है * ।
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दिक् परिमाण व्रत की तरह यह व्रत भी जीवन के विस्तार को संकोचने में सहायक रूप है। छहों दिशाओं में जितनी मर्यादा रखी है, उस में भोगोपभोग के लिए कोई सीमा नहीं है । इस से भोगोपभोग को अभिलाषा - प्राकांक्षा निरन्तर बनी रहती है और संग्रह की भावना भी मन्द नहीं पड़नी । परिणामतः जीवन संयमित नहीं हो पाता, क्योंकि भोगोपभोग के साधनों के संग्रह को बढ़ाने के लिए अनेक तरह के अनैतिक कार्य करने होते हैं तथा रात-दिन साधनों को संग्रह करने एवं संग्रहित पदार्थों को सुरक्षित रखने की चिन्ता बनी रहती है, मन सदा संकल्प-विकल्पों में लगा रहता है । अस्तु, जीवन को शांत, संयमित एवं हल्का बनाने के लिए उपभोग- परिभोग- परिमाण व्रत अत्यधिक उपयोगी है। अपनी रखी हुई दिशा-विदिशाम्रों में भी वह भोगोपभोग के साधनों को सोमिन कर लेता है । इस से मन में तृष्णा कम हो जाती है और अपनी आवश्यकताओंों को कम कर देने से जीवन भी अधिक वोझिल नहीं रहता और न उसे अनैतिक तरीक़ों को वरतना
उपासक दशांग सूत्र
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