________________
०७..
एकादश अध्याय ५-तुच्छ-औपधि भक्षण- ऐसे पदार्थों का उपभोग नहीं करना, जिनमें खाद्य भाग कम हो और फेंकने योग्य भाग अधिक हों। .. उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत का दूसरा विभाग कर्म विभाग है। कर्म का अर्थ है- आजीविका-व्यापार है । उपभोग-परिभोग के साधनों को संग्रहित करने के लिए व्यापार एवं उद्योग धन्धा करना ज़रूरी है। क्योंकि खाने-पीने, पहनने-मोढ़ने आदि का सामान एव भोगोपभोग के सारे साधन प्राप्त करने के लिए पैसे की आवश्यकता होती और पैसा व्यापार, कृषि एवं अन्य औद्योगिक कामों से प्राप्त किया जाता है । अस्तु, श्रावक को उपभोग-परिभोग के साधनों को प्राप्त करने के लिए १५ प्रकार के महापाप एवं महारंभ के उद्योगधन्धों एवं व्यापारों से बच कर रहना चाहिए। इन्हें आगम में १५ कर्मादान कहा गया है । ये जानने एवं सर्वथा त्यागने योग्य है। इनका नाम निर्देश पूर्वक अर्थ विचार इस प्रकार है..... कर्मादान
- १-इंगाल-कम्मे- कोयले के व्यापार करना। बड़े-बड़े वृक्षों ' को काट कर उन के कोयले बनाए जाते हैं या खान में से खोद कर निकाले जाते हैं। उक्त कार्य में महा हिंसा होती है । पैसे के स्वार्थ के लिए हरे भरे वृक्षों को काट कर प्रकृति के सौंदर्य को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया जाता है। इसका मनुष्य के स्वास्थ्य एवं वायु मण्डल पर भी . बुरा असर पड़ता है । मनुष्य को शुद्ध हवा कम मिलने लगती है और . . हरे-भरे वृक्षों की कमी होने से आस-पास के प्रदेश में वर्षा में भी कमी हो जाती है। और खदान -खान में काम करते समय छोटे-मोटे जीवों
की तो क्या मनुष्यों तक को मृत्यु हो जाती है, अतः श्रावक को ऐसा - · महारंभ का व्यापार-धन्धा नहीं करना चाहिए। . . . . . . . .