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दशम अध्याय
अपने शरीर का भी ख्याल नहीं रहता। वह मां- बहिन और श्रीरंत के सम्बन्ध को भी भूल जाता है । उसकी वाणी का विवेक समाप्त हो 'जाता है । इस तरह मदिरा मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने देती । वह 'उसकी बुद्धि को सोचने-समझने की शक्ति को, विवेक को समाप्त कर देती है, उसके बल को क्षीण करती है । उसे धर्म-कर्म से दूर हटाती है ।
मदिरा में श्रासक्त व्यक्ति अपने आत्म- गुणों को भूल जाता है । उसका खान-पान एवं रहन-सहन बदल जाता है । उसके मन-मस्तिष्क में रात-दिन शैतानी छाई रहती हैं । और शैतानियत की भावना को पूरा करने के लिए वह अनेक पापों की ओर प्रवृत्त होता है । दुनिया “का कोई ऐसा पाप नहीं, जिस में वह प्रवृत्त होने से चूकता हो । - एक दुर्व्यसन के कारण अनेकों दुर्व्यसव उसे आ घेरते हैं। क्योंकि मदिरा मादक वस्तु है । उसका सेवन करने पर शरीर में मादकता छा जाती है और साथ में खुश्की भी बढ़ जाता है । खुश्की को दूर करने के लिए उसे तर पदार्थ खाने होते हैं । प्रत्येक मादक- नशीली वस्तु का सेवन करने के बाद सरस श्राहार खाना आवश्यक होता है । अन्यथा वह नशा सारे शरीर को जला देता है। शराब ही नहीं; अफीम, भांग, गाँजा, सुल्फा आदि तमाम नशेले पदार्थ गर्म एवं खुश्क "होते हैं और ज्ञान-तन्तुनों को क्षीण करने वाले होते हैं । इसलिए मनुष्य को नशे मात्र से बचकर रहना चाहिए। उनकी खुश्की को दूर करने के लिये नशेवाज़ व्यक्ति पौष्टिक पदार्थ खाते हैं । कई लोग मांस-प्रण्डा एवं दूध-मलाई- मक्खन आदि पदार्थों का इस्तेमाल करते हैं। इससे मन में विकार जगता है, कामेच्छा बढ़ती है और उसे पूरा करने के लिये मनुष्य इधर-उधर ठोकरें खाता फिरता है, वेश्यालयों
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