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एकादश अध्याय
शत्रु नहीं मानता । उसके लिए कुल्हाड़ी से काटने वाला और चन्दन से पूजा-अर्चना करने वाला दोनों बराबर हैं । वह न मारने वाले पर द्वेष भाव रखता है और न पूजा करने वाले पर अनुराग । वह दोनों पर समभाव रखता है और दोनों के कल्याण की कामना करता है। कवि ने कितना सुन्दर कहा है• कुल्हाड़ी से कोई काटे कोई आ फूल बरसाएं,
खुशी से दें दुआ यकस, अजब सारे चलन ही हैं। जगत के तारने वाले जगत में सन्त जन ही हैं।
अतः साधु किसी भी स्थिति परिस्थिति में किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करता और न किसी से हिंसा करवाता है तथा न हिंसा के कार्य का समर्थन ही करता है। परन्तु गृहस्थ-श्रावक के लिए इतना त्याग कर सकना कठिन ही नहीं, असंभव है। अपने एवं अपने परिवार के रहने, खाने,पहनने आदि आवश्यक समस्याओं की पूर्ति के लिए उसे मजबूरन प्रारम्भ-हिंसा करना होता है और उन साधनों को जुटाने के लिए उद्योग-धंधा भी करना होता है । और अपने परिवार एवं देश पर आक्रमण करने वाले से उन की सुरक्षा के लिए उसे अपने शत्रु से युद्ध-संघर्ष भी करना होता है। इस तरह वह चाहते हुए भी प्रारम्भा, उद्योगी और विरोधी हिंसा से पूर्णतः नहीं बच सकता। परन्तु वह संकल्पी हिंसा से सदा बचा रहता है। वह जान-बूझ कर निरर्थक किसी भी प्राणी को नहीं सताता। इस तरह श्रावक अहिंसा अणुव्रत में किसी भी निरपराधी त्रस जीव को जान-बूझ कर निरपेक्ष भाव से मारने और सताने का त्याग करता है। वह मन, वचन और शरीर से किसी भी त्रस जीव को संकल्प-पूर्वक न मारता है, न सता. वा है भोर न दूसरे व्यक्ति को ऐसा करने के लिए कहता है और न