________________
----n.nhnAnnnnnnn.
•rrrrrr
४.६५ ................ एकादश अध्याय ...
यह शान्टिक अन्तर दोनों परम्पराओं को अहिंसा-सम्बन्धी मान्य ता पर आधारित है। "परस्परोपग्रहो जीवानाम् "में जीवों का सहयोग लेते हुए भी उनके साथ जो मैत्री भावना निभाने की बात मिलती है. वह "जीवो जीवस्य जीवनम् " शब्दों में नहीं मिलती। व्यक्ति यह समझ लेता है कि जीव ही जीव का जोवन है। यदि अपने .
काम के लिए किसी का प्राण ले. भी लिया तो कोई हानि नहीं, क्योंकि __ इसके विना जीवन चलता नहीं। परन्तु जैन प्रत्येक प्राणी का सहयोग - लेते समय उसके सुख-आराम का ख्याल रखता है। वह यह सोचता हैं। ____ कि दोनों के सहयोग पर ही दोनों का जीवन आधारित है। अतः सह
योग इतना ही लिया जाए कि मेरा भी काम चलः जाए और उक्त प्राणों को भी किसी तरह की हानि न पहुंचे। अतः दूध निकालतें' समय वह इस बात का ख्याल रखता हैं कि दूध निकालने के बाद स्तनों में इतना दूध बचा रहे कि जिससे बछड़ा अपना पेट भर सके । इसके अतिरिक्त,उस के खाने की एवं रहने के स्थान की सफाई की एवं वहाँ हवा-गर्मी प्रादि की ठीक व्यवस्था करता है। इसी तरह वह ऊंट, घोड़ा, बैल आदि पशुओं पर उन की शक्ति से अधिक वोझ नहीं लादता और दिन में कुछ घण्टे उन्हें पाराम भी. देता है । अस्तु, इस तरह पशुओं की सेवा-शुश्रूषा करके, उन के ' आराम का ख्याल रखते हुए. उन से यथाशक्ति काम लेना हिंसा नहीं है । क्योंकि हर स्थिति में वह पहले उनके सुख, आराम एवं स्वार्थ का ध्यान रखेगा, बाद में अपने स्वार्थ का । अत: जिस व्यक्ति के जीवन में अपना स्वार्थ गौण है वहाँ अहिंसा है और जहां अपना स्वार्थ प्रधान और दूसरे का गौण है वहां हिंसा है। काम लेना मात्र हिंसा नहीं, परन्तु अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए उसकी शक्ति से अधिक काम लेना तथा उसके सुख, हित एवं आरामः का ख्याल नं रख कर अपने ही मतलब को.