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४८.५.
एकादश अध्याय
तृप्ति एवं सन्तुष्टि न हो कर लालसा या भोग-पिपासा अधिक बढ़ती है। कृष्ण ने भी अर्जुन से यही बात कही कि हे अर्जुन ! इन्द्रिय एवं विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले ये सब भोग विषयी पुरुषों को भ्रम से सुख-रूप प्रतीत होते हैं, परन्तु वास्तव में के दुःख के ही कारण हैं और आदि - प्रन्त' वाले हैं, अनित्य हैं । इसलिए बुद्धिमान पुरुष इनमें . रमण नहीं करता । प्रतः हम यह कह सकते हैं कि संभोग प्रवृत्ति वासना को और तीव्र बनाती है एतदर्थ वह सदोष एवं त्याज्यं है ।
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दूसरी बात यह है कि स्त्री-पुरुष संसर्ग से या अप्राकृतिक ढंग से -मैथुन क्रिया करने से लाखों सन्नी पञ्चेन्द्रिय जीवों की हिंसा होती है। मैथुन प्रवृत्ति को प्राकृतिक कह कर उसे निर्दोष मानना या कहना भारी भूल है। वैज्ञानिक भो इस बात से सहमत हैं, मैथुन प्रवृत्ति के समय गिरने वाले वीर्य एवं रज में लाखों सजीव जीवाणु होते हैं ।" भगबती सूत्र में इसका विस्तार से विवेचन किया गया है। । मानव के क्षणिक प्रमोद प्रमोद में लाखों-करोड़ों पञ्चेन्द्रिय प्राणियों की जीवन-लीला समाप्त हो जाती है, सम्मूच्छिम जीवों की हिंसा की तो बात ही अलग है । यही कारण है कि अहिंसा पर अधिक भार देने वाले जैनधर्म ने मैथुन प्रवृत्ति को सदोष माना है ।
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विषय-वासना से सर्वथा विरक्त हो जाने का नाम ब्रह्मचर्य है । मन, वचन और शरीर से विषय-वासना की ओर न प्रवृत्त होना, न दूसरे की प्रेरित करना तथा न वैषयिक सुखों का चिन्तन करना स उन्हें अच्छा समझना। इस तरह मन, वचन और शरीर से वैषयिक प्रवृत्ति, प्रेरणा एवं चिन्तन का परित्याग करना साधारण काम नहीं
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गीता, अध्याय ५ श्लोक २२
भगवती सूत्र, शतक २, उद्देश्यक २, सूत्र १०६
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