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दशम अध्याय
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- न उसके जीवन में साहस एवं वीरता ही आ पाती है । हां, इस वृत्ति से जीवन में क्रूरता एवं निर्दयता अवश्य आती है, वीरता नहीं । वीरता और क्रूरता एक नहीं, अलग-अलग है । वीरता श्रात्मा की आन्तरिक शक्ति है और क्रूरता आत्मा का दोष है, विकार है । वीरता दूसरे को समाप्त करना नहीं चाहती। वह किसी को मिटाती नहीं, बल्कि बनाती है । वह नाश करती है- किसी प्राणी का नहीं वल्कि अन्यायों का अत्याचारों का, दुर्वृत्तियों का । वीर व्यक्ति सदा प्रत्येक प्राणी के जीवन का आदर-सम्मान करता है । वह किसी को समाप्त करने की नहीं सोचता । उसके हृदय में दया, करुणा का झरना बहता रहता है । परन्तु क्रूर व्यक्ति में दया का अभाव रहता है । वह अपने से कमजोर व्यक्ति-प्राणी को समाप्त करने के लिए सदा तैयार 'रहता है। उसकी तलवार कमजोरों की गरदनों पर चलती है। ताक़त वर के सामने वह भी घुटने टेक देता है, क्षमा की, दया की भीख मांगने लगता है । अत: शिकार वोरता नहीं, कायरता है, हद दर्जे का नैतिक पतन है ।
निरपराधी प्राणियों को मार कर शिकारी अपने जीवन को पाप से बोझिल बनाता है । और परिणाम स्वरूप वह मर कर नरक में उत्पन्न होता है। जहां परमाधामी देव उसे पापों का दण्ड देते हैं । जिस तरह वाण एवं गोलियों से वह पशु-पक्षियों का वध करता था, उसी तरह वे देव उस व्यक्ति के शरीर को तीक्ष्ण बाणों एवं गोलियों से उसके शरीर का छेदन-भेदन करते हैं और उसी के मांस को काटकाट कर उसे खिलाते हैं । इस तरह उसे अनेक तरह की वेदना सहनी पड़ती है। नरक में उसे एक क्षण के लिए भी आराम नहीं मिलता । अतः मनुष्य को चाहिए कि किसी भी
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व्यक्ति के प्राणों का
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