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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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- वृक्षम संरकुत द्वितीयान्त एक बचत का रूप है । इसका प्राकृत रूप बच्छ होता है । इसमें सूत्र-संस्था १-१२६ से 'र' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २-३ से 'ब' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति २-८९ है प्राप्त छ' को द्वित्व '' की राप्ति; २-१० में टल गर्न सके स्थान पर 'च' को प्राप्ति; ३-५ से हितीया विभक्ति का एक वचन में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और 1-२३ सं 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर पच्छ सप सिद्ध हो जाता है।
गिरिम संस्कृत द्वितीयान्त एक वचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप गिरि होता है । इसमें उपरोक्त भी के समान ही मूत्र- सस्या ३-५ और १-२३ से सानिका की प्राप्ति होकर गिरि रूप सिद्ध हो जाता है।
पश्य संरकृत आज्ञार्थक लकार के द्वितीय पुरुष के एक वचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप ऐच्छ होता है । इसमें सब-संख्या ४-१८१ से मुल संस्कृत पातु 'ह' के स्थानीय रूप 'पश्य ' के स्थान पर प्राकृत में 'पेन्छ' मावेश को प्राप्ति, ४-२३९ से प्राप्त हलन्त धातु 'पेम्छ' में विकरण प्ररपथ 'अ' को प्राप्ति और ३.१७५ से आज्ञार्थक लकार के द्वितीय पुरुष के एक वचन में प्राकृत में 'प्ररपय लोप' को प्राप्ति होकर पेच्छ क्रियापद-रूप सिद्ध हो जाता है।
बने संस्कृत सप्तम्यन्त एक वचम का रूप है। इसमें प्राकृत रूप वणम्मि और वर्गमि होते है। इनमें पुत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर '' को प्राप्ति; ३-११ से सप्तमी विभक्ति में एक वचन में ६' प्रत्यय के स्थान पर संयुक्त 'म्मि' और १-२३ से 'म्मि' में स्थित हलन्त 'म' के स्थान पर पकल्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्ति होकर कम से शेनों रुप 'वणम्मि' और 'वर्णमि सिद्ध हो जाते हैं। १-२३ ।।
वास्वरे मश्च ॥ १-२४ ॥
अन्त्य मकारस्य स्वरे परेऽनुस्वारो वा भत्रति ! पक्षे लुगपवादो मस्य मकारश्च भवति । चन्दे उसमें अजिनं । उसभमजियं च बन्दे ।। बहुलाधिकाराद् अन्यस्यापि व्यअनस्य मकारः ।। साक्षात् । सक्खं ।। यत् । जं ।। तत् । तं ॥ विष्वक् । बीसु॥ पृथक पिहं । सम्यक् । मम्म इहं । इहर्ष । बालेदु अं । इत्यादि।
अर्थ-यदि किसी पत्र के अन्त में रहे हए हलात 'म् के पाचाल कोई स्थर रहा हा हो तो उस पवात हलन्त 'म' का वैकल्पिक रूप से अनुस्वार होसा है । वैकल्पिक पक्ष होने से यदि उस हलन्त 'म्' का अनुवार नहीं होता है तो ऐसी स्थिति में सूत्र-संरूपा ५-११ से 'म' के लिये प्राप्तव्य लोप-वस्पा का भी अभार ही रहेगा; इसमें कारण यह है कि आगै 'स्वर' रहा हुआ है। तकनुसार उक्त हलन्त 'म'को स्थिति 'म' रूप में हो कायम रहकर उस हलन्त 'म' में आगे रहे घए 'स्वर' की संधि हो जाती है। जो पदान्त हलन्त 'म्' के लिये प्रारतस्य लोप-प्रक्रिया के प्रति यह अपवाब-रूप स्थिति मानना । जैसे:-ये प्रवभम् अजितम् = पन्चे उसमें