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સરસ્વતિહેન મણલાલ શાહ * पिगोदग हिन्दी व्याख्या सहित me TIME [३१
रुप पाउस' को प्राकृत में पुल्लिगत्व की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पाउसो रूप सिद्ध हो जाता है । १-१९।।
अायुरप्सरसोर्वा ॥ १-२०॥ एतयोरन्स्य व्यंजनस्य सो वा भवति ।। दीहाउसो दीहाऊ । अच्छरसा अच्छरा॥
अर्थ:-संस्कृत शब्द 'आयुष' और 'अप्सरस्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन '' और 'म्' के स्थान पर प्राकृत रूपातर में कल्पिक रूप से 'स' की प्राप्ति होती है । जैसे:-दीर्घायुष = बोहाउसो अथवा दोहाम और अप्सरस् = अच्छरसा और अच्छरा ।
दीर्घायु संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप बीहाउसो और दोहाज होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संश्या २-७९ से'' का लोप; १-१८७२ 'ए' के स्थान पर 'ह' को पाप्ति; १-१७७ से 'य' का लोफ; ५-२० से अन्त्य हलन्त त्यम्जन 'ए' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति और 4-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग रूप 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप दीहाउसी सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप-( दोघायुष् ) दोहाऊ में सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; t-1८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह.' की प्राप्ति; १-१७७ से 'र' का लोप; १-११ से अन्स्य व्यञ्जन 'ए' का लोप और ३-१९ से प्रचमा विभक्ति के एक वचन में उकारात पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्स्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'क' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप-दीहाऊ भी सिद्ध हो जाता है।
अप्सरन संस्कृत स्प है। इसके प्राकृत रूप अच्छरसा और अछरा होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में प्रत्रसंख्या २-२१ से संयुक्त व्यञ्जन 'स' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ छ' को प्राप्ति; ३-९० से प्राप्त पूर्व छ' के स्थान पर 'च' की प्रापित १-२० से अस्म सन्त व्यवन 'स' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति और ३-३१ की वृत्ति से प्राप्त रूप 'प्रच्छरस' में स्त्रीलिंग अर्थक 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम कृप अच्छरसा सिद्ध हो जाता है ।
सीय-रूप-(अप्सरस - ) अछरा में 'अच्छरस्' तक की सानिका उपरोक्त रूप के समान १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप और ३-३१ की वृति से प्राप्त रूप 'अछछर' मेस्त्रीलिंग-अयंक 'अ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर द्वितीय रूप अच्छरा सिद्ध हो जाता है । १-२० ॥
ककुभो हः॥ १--२१ ॥ ककुभ शब्दस्यान्त्य व्यञ्जनस्य हो भवति ।। कउहा ।।
अर्थ-संस्कृत शब्द 'ककुभ्' में स्थित अन्स्य हलम्त स्यम्जन 'भ' के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में 'ह को प्राप्ति होती है । जैसे-कुभ - कजहा ।