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मुलाचार प्रदीप ]
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। प्रथम अधिकार अग्धां चान्यं च कुर्वन्तं, मनसा नानुमन्यते । शधांगेन यतिः शौच, पावप्रक्षालनादिभिः ॥६६॥ जीवा प्रकायिका येऽत्र, ये चाप्कार्य समाश्रिताः । अप कायांगिसमारम्भात्स्फुटं तेषां परिक्षयः ॥ तस्मावपां समारम्भो, द्विधावायकायमानसः । यावज्जीवं मनाक् योग्यो नाबाहिषधारिणाम् ।
अर्थ-दीदार कौन, पादपकर बादि के सदरा उन जीवों को बाधा देनेवाले अन्य पुरुषोंको मन-वचन-कायसे कभी अनुमोदना नहीं करनी चाहिये ।६६-६७।
क्योंकि जलकायिक जीवोंसे भरे हुए जलका समारंभ करने से (जलको काम में लाने से) जलकायिक जीव और जल काय के आश्रय रहने वाले जीवों का नाश अवश्य ही होता है । इसलिये अरहंत के भेदको धारण करने वाले मुनियों को मन, घवन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से जीवन पर्यन्त बोनों प्रकार के जलका समारंभ कभी नहीं करना चाहिये ॥६॥ न श्रदधातियोऽनतान्, प्राणिनोपकायतामिताम् । स भवेद् दीर्घसंसारं, लिंगस्मोपि कुमार्गगः ॥ ज्ञात्वेति अल कायाना, कार्या हिंसा न जातुञ्चित् । शौचादि कारणैर्दझे, मनोवाक्काय कर्मभिः ।।
अर्थ-जो मुनि अपकाय में प्राप्त हुए इन जीवों का श्रद्धान नहीं करता है, वह कुमार्गगामी बहुत्त दिन तक संसारमें परिभ्रमण करता है । इसलिये चतुर मुनियों को शौचादि कार्यों में जलकायिक जीवों की हिंसा, मन-वचन-कायसे कभी नहीं करनी चाहिये ॥६९-७०॥
(अग्निकायिक जीत्रों का रक्षण) ज्यालागाराचि शुद्धाग्यादितजः कायिकारमनाम् । शीतज्वरादिले जाते, मति कार्य न संपतः ।।
अर्थ-मुनियों को शीतज्वरादि के उत्पन्न होने पर भी ज्वाला, अंगार, अग्नि की शिखा, शुद्ध अग्नि प्रादि तेजस्कायिक जीव सहित अग्नि को कभी काम में नहीं लाना चाहिये ॥७॥ विध्यापन कराई :, प्रजालम र निराधनम् । संघठनं क्वचिद्धातं, प्रच्छादनं कदर्शनम् ॥७२॥
अर्थ-मुनियों को अपने हाथ से, या अन्य किसी उपाय से न तो अग्नि को बुझाना चाहिये, न जलाना चाहिये, न उसका घात करना चाहिये ॥७२॥ अघश्योछा चतुरिक्ष, निलोऽखिलान् । भस्मसात् कुरुते जोवान्, षड्विधान् स्वोष्णनापतः ।।
अर्थ-यह अग्नि अपनी उध्यता के संताप से ऊपर, नीचे चारों विदिशाओं