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मूलाचार प्रदीप ]
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[ षष्ठम अधिकार विषय संरक्षणानन्द रौद्रध्यान का स्वरूपमवीया वस्तुसदायरामानाविसम्पथः । यो हरेतं दुरास्मान हन्मि पोषयोगतः ॥२०३१।। इतिस्ववस्तुरक्षायांसंकल्पकरणहृदि । बुधियां तत्समस्तं विषयसंरक्षणाभिषम् ॥२०३२।।
अर्थ--"ये पदार्थ, यह राज्य, यह सेना, यह स्त्रो और यह सम्पत्ति सब मेरी है जो छात्मा इसे हरण करेगा उसे मैं अपने पुरुषार्थ से मारूगा" इसप्रकार दुर्बुद्धि लोग अपने पदार्थों की रक्षा करने के लिये अपने हृदय में संकल्प करते हैं, वह 'सव विषयसंरक्षणानंय नामका रौद्रध्यान कहलाता है ।।२०३१-२०३२।।
रौद्रध्यान के ध्यानादि के भेद से चार प्रकार एवं उनका लक्षणध्यानं ध्येयंभवेद्ध्याताफलमस्याठात्मनाम् । ध्यानमध्यवसानं च रोनं वाणिस्तकायजम् ।।३३॥ ध्येयंलोकत्रयोन तं रौद्रवस्तुकदम्बकम् । रौद्रस्तोत्रकषायीस्याध्यातास्याद्रक्तलोचनः ।।२०३४।। अनन्तदुःखसन्तामति मरकप्रदम् । बसागरपर्यंतफलमस्यबुरामनाम् ॥२०३५।।
अर्थ-इस रौद्रध्यान के भी ध्यान, ध्येय, ध्याता और फल के भेद से चार भेद होते हैं । मूर्ख लोगों के रुद्ररूप मन-वचन-कायसे जो चितवन होता है उसको रौद्रध्यान कहते हैं । तीनों लोकों में उत्पन्न हुये रौद्र पदार्थों के समूह ही इसके ध्येय है तथा तीव्र कषाय और लाल नेत्रों को धारण करनेवाला रौद्र परिणामी जीव इसका ध्याता होता है । उन दुष्टों को अत्यन्त दुःख और संताप से भरे हुए नरक में अनेक सागर पयंत डाल रखना इसका फल है ।।२०३३-२०३५॥
रौद्रध्यान की सामग्री और उसके स्वामी का कथनउस्कृष्टाशुभलेश्यात्रयावलाधानमस्य च । भाव मौयिकोनिद्यः क्षायोपमिकाथवा ॥२०३६।। यशपंचप्रमादाधिष्ठानं कषायजम्मणम् । अन्तर्मुहूर्तकालयच चतुर्विधरय नान्यया ॥२०३७।। प्राविमे च गुणस्थानेत्रतदुत्कृष्टमंजसा । जघन्य पंचमेस्यावद्वित्रचतुर्थे च मध्यमम् ।।२०३८।।
अर्थ- इस ध्यानमें उत्कृष्ट अशुभ लेश्याएं होती हैं। इसका समय अंतर्मुहूर्त है, भाव निंद्य औदायक है अथवा क्षायोपमिक है, पन्द्रह प्रमाद ही इनका आधार है, कषायों से यह उत्पन्न होता है । इसप्रकार इन चारों प्रकार के रौद्रध्यान को सामग्री है । पहले गुणस्थान में उत्कृष्ट और पंचम गुणस्थान में जघन्य होता है और दूसरे तीसरे चौथे में मध्यम होता है ।।२०३६-२०३८॥
रौद्रध्यान से उत्पन्न दोष और इसे त्यागने की प्रेरणारौद्रकर्मम सैकर्मभावमिवन्धनम् । रौद्रतुःखकर रोगतिवरौद्रयोगमम् ।।२०३६।।