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मूलाचार प्रदीप]
( ४०६)
[ दशम अधिकार द्वीप के समीप पहुंची हुई क्षपक रूपी नाव बिना निर्यापकाचार्य के अपने प्रमाद से हो संसाररूपी समुद्र में डूब जाती है इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है, इसलिये बुद्धिमान मुनियों को समाधिभरण धारण करने के लिये निर्यापकाचार्य अवश्य तलाश कर लेना चाहिये ॥२६५३-६६५५।।
आचार्य परीक्षा करके प्रागन्तुक साधु को स्वीकार करते हैंप्राचार्यः सोऽपि तं युक्त्या प्रपरीक्ष्यपरार्थकृत् । स्वीकुर्यात्स्थगणपृष्टबोत्तमार्षसाधनोद्यतम् ।।५।।
अर्थ-तदनंतर परोपकार करने में तत्पर वे आचार्य भी युक्तिपूर्वक उसकी परीक्षा करते हैं फिर अपने गण को पूछकर मोक्ष के सापन में लगे हुए उन मुनि को अपने पास रहने की स्वीकारता देते हैं ॥२६५६॥
मुनि एकान्त में दोषों की आलोचना करता हैततोसोक्षपको नया रकान्तेसूरिसन्निधौ । ऋमित्तःस्वशुसमयकुबालोधर्मस्फुटम् ।।२६५७।।
अर्थ-तदनंतर सरल हृदय को धारण करनेवाला वाह क्षपक भी किसी एकांत में प्राचार्य के समीप नमस्कार कर बैठता है और अपने आत्मा को शुद्धि के लिये स्पष्ट रीति से अपने दोषों की आलोचना करता है ॥२६५७।।
रस्मय में लगे दोषों की आलोचना करेंमूलोप्तरगुरणादीनारमयाम मातुषित् । प्रतीचाराः कृताः स्वेन कारिता ये परेण च ।।२६५८।। हृदनुमानिता ये तानत्रिशुद्धपासकलानमलान् । त्यस्वालोचमदोषान् स सर्वान् पूरि निवेदयेत् ।।
__ अर्थ-मूलगुण वा उत्तरगुणों में वा रत्नत्रय में कभी भी जो अतिचार लगाये हों, वा दूसरों से लगवाये हों वा हृश्य से उनकी अनुमोदना की हो उन सबको पालोचना के समस्त दोषोंसे रहित होकर मन-बचम-कायकी शुद्धतापूर्वक प्राचार्य से निवेदन कर देना चाहिये ।।२६५८:२६५६।।
___ बालक बत् मायाचारी आदि दूषण रहित पासोचना करें--- अनुतिर्यमा पालो प्रयास्यस्यानोगतम् । याथालव्येन चानामन् वात्र्या पाध्यादिकं वयः ।। मायाभिमानलज्माबीसत्यवत्वानिमलिस्तमा । यथाणासान् तथा बोवान् भाषतेसरिसनिषौ ।६१।।
अर्थ-जिसप्रकार सरल बुद्धिको धारण करनेवाला मालक कहने योग्य पान कहने योग्य वचनों को नहीं जानता हुआ यथार्थ रीतिसे अपने मनकी बात बतला देता है उसोप्रकार शुद्ध बुद्धि को धारण करनेवाले उन मुनियों को भी मायाचारी अभिमान