Book Title: Mulachar Pradip
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 536
________________ मनाया प्रदीप ४१) द्वादश प्रधिकार संभिमभोजबूरामबाबमस्मोनदाना: । प्रारहाणवल्समध्ये बसविस्वमेवहि ॥३२०७॥ सन्तुबिस्वबिपनाम महामारपूरणी महानिमित्तमातामा ३२०८।। HEATRESTINYWHAT TU TIMo सपासपुरपेकंजसा पुरा । बादित्वमद्धिभेदाःस्युवंटरव्दादशाप्यमी ॥३२०६।। . . ... ... . .। ... अर्थ-केवलज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, अधिशान, श्रीजधुद्धि, कोष्ठभुद्धि, पाशासारि, सभिन्नश्रोत्र, दूरास्वादन, दूरस्पर्शन, दूरदर्शन, दूरध्राण, दूरश्रवण, वशपूवित्व वा चतुर्दशपवित्व, समस्त पदार्थो के जानने की सामर्थ्य, अष्टांग महा निमित्त की पूर्णता, प्रज्ञाश्रमणत्व, प्रत्येक बुद्धता और श्रेष्ठ बावित्व इसप्रकार अठारह अतिशयों का प्राप्त होना बुद्धिवृद्धि के मेद हैं ॥३२०६-३२०६॥ क्रिया ऋमि का प्रथम भेद व रूप चारण ऋद्धि के भेद-- चारणस्वंतथाकारागामित्वं ध्योमगामिमाम् । द्विधानियषिरत्रेति सत्र चारणाः पराः ।।३२१०।। जलजंघाभिधास्तन्तुपुष्पपत्राल्पाचारणाः । बीजरिषफलाप्राग्निशिखाच परिगामिन: ॥३२११॥ अलमादाय वाप्याविष्वप्कायिकविराधनाम् । अकुर्वन्तोममाग्नमाविष कार्यायपाययोः ।।३२१२।। वअन्स्पुटारनिक्षेपाम्यां खिलागिरक्षकाः । महाकायचित्तास्ते भवन्ति जलधारणाः । ३२१३॥ भूमेहपरिचाकाशेषतुरंगुससम्मिते। स्वजंधोक्षेपनिक्षेपाम्यांयान्तिबहुपासमाम् ।।३२१४॥ विहारकर्मणे ये ले योगिनोअंघचारिणः । एवमन्येपिविशेसातत्वाविचारणाः पराः ॥३२१५।। अर्थ-चारण ऋद्धि और आकाशगामी द्धि ये दो प्रकार की क्रियाऋद्धियां आकाशगामी मुनियोंके होती हैं । अब आगे धारण ऋद्धियों का विशेष रीति से लिखते हैं। जलचारण, जंधाचारण, तंतुम्चारण, पुष्पचारण, पत्रचारण, बीजधारण, श्रेणीचारण, फलधारण, अग्निशिखाचारण आदि धारण ऋद्धिके अनेक मेद हैं । जो मुनि अपने कार्य के लिये बावड़ी, सरोवर आदि जल में जलकायिक जीवों की रंचमात्र भी विराघना न करते हुए पृथ्वी के समान उस जल पर पैरों को उठाते रखते हुए चलते हैं, ऐसे समस्त जोषों को रक्षा करनेवाले और हृदय में महा करुणा धारण करनेवाले वे मुनिराज जलचारण ऋद्धि को धारण करनेवाले कहलाते हैं। जो मुनि भूमि से चार अंगुल ऊपर आकाश में अपनी जंघाओं को उठाते रखते हुए विहार करते हैं और इसीप्रकार अनेक योजन चले जाते हैं उन मुनियोंको जंघाचारण ऋद्धिधारी कहते हैं। इसीप्रकार तंतुचारण, पुष्प, फल, चारण आदि चारण ऋद्धियोंके मेव समझ लेने चाहिये ॥३२१०-३२१॥ आकाशगामिनी ऋद्धि का स्वरूप-- पर्यकासनयुक्ता मा मिषष्णा वा सुधारणाः । कायोत्सर्गस्थिताः पादोद्वारनिक्षेपणेन वा ॥२१॥

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