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मूलाचार प्रदीप ]
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[ द्वादश अधिकार
बनाया है और न अपना कवित्व के अभिमान को दिखलाने की इच्छा से बनाया है । किंतु केवल दूसरों का उपकार करने के लिये और अपने धर्म की वृद्धि के लिये मैंने यह ग्रंथ बनाया है ।।३२३४।।
पूज्य सरस्वती से क्षमा याचनायस्मिन्प्रम्यवरे सुमार्ग कप के किचिन्मयो मात्रामात चिखला नापमादादिभिः। आचारांग मसं विरुद्ध यदासर्वक्षमत्वान्वतं पूज्ये भारति तीर्थनाथमुत्खजे दोषमदीयं भूषि । ३२३५||
अर्थ- हे माता सरस्वती, हे तीर्थंकर के मुख कमल से उत्पन्न हुई देवो ! मैंने सुमार्ग को दिखलाने वाले इस श्रेष्ठ ग्रंथ में अपने पूर्ण अज्ञान वा प्रमाविक से श्राचारांग शास्त्र के frea कहा हो वा मात्रा संधि पद आदि कुछ कम कहा हो उस मेरे दोष को हे पूज्य सरस्वती तू क्षमा कर ।। ३२३५ ।।
ग्रन्थ के पठन-पाठन का फल -
hroffदोवरशास्त्रं धर्मरत्नमिथिमात्महिताय ।
आदिमांगजमिम निरवद्यं ते विबुध्ययतिमार्गसमग्रम् ।। ३२३६ ।। तब तो खरा दिवसोत्यं प्राप्यशक्रपवअंशुभवीजम् ।
चक्रिराजविभवं च निहत्य कृत्स्नकर्म किलयाप्तिशिवस्तम् ।।३२३७॥ पाठयन्ति निपुणा यमिनः शिवाय शुद्ध यथार्थसहितं वरशास्त्रमेतत् । ते ज्ञानदानजनिता तधर्मतः यु लग्ध्वा बिलागम मिह त्रिजगच्छरण्याः ।। ३२३८ ॥
अर्थ - यह मूलाधार प्रदीप नाम का शास्त्र धर्मरूप रत्नों का निधि है, पहले आचारांग अंग से उत्पन्न हुआ है और निर्दोष है । इसलिये जो बुद्धिमान पुरुष अपना हित करने के लिये इसको पढ़ते हैं वे मुनियों के समस्त मार्ग को जानकर और यथार्थ रीति से उसको श्राचरण कर स्वर्गमें उत्पन्न होते हैं तथा यहाँके सुखों को प्राप्त कर वा वहां के इन्द्रपद के सुखों को प्राप्त कर बचे हुए पुण्य कर्म से चक्रवर्ती की विभूति को प्राप्त करते हैं । तथा अंत में समस्त कर्मों को नाश कर मोक्ष में जा विराजमान होते हैं। जो चतुर मुनि मोक्ष प्राप्त करने के लिये इस शास्त्र को यथार्थं अर्थ सहित शुद्ध रीति से पढ़ाते हैं वे ज्ञानदान से उत्पन्न हुए अद्भुत धर्म के प्रभाव से समस्त श्रागम के पारगामी होकर तोनों लोकों को शरणभूत हो जाते हैं, अर्थात् अरहंत वा सिद्ध हो जाते हैं ।।३२३६-३२३८।।