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मूलाचार प्रदीप]
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[ द्वादश अधिकार होती है ॥३२३०॥
__ तपश्चरण करने की प्रेरणामत्वेति शिवसिद्धयर्थ कुर्वन्तुसत्तपोन्यहम् । विश्वविजनशक्त्या भवभीताः शिवाधिनः ।।३२३१॥
अर्थ-यही समझकर संसार से भयभीत हुए और मोक्ष की इच्छा करनेवाले मुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये समस्त ऋड़ियों को प्रगट करनेवाला यह श्रेष्ठ तपश्चरण अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिदिन करते रहना चाहिये ।।३२३१॥
____ऋद्धिधारी मुनिराज की वन्दना, स्तुतिइतिविमलमहर्षासंकृता ये महान्तः सकलगुरणसमुद्राः विश्वपूज्याऋषोन्याः । शिवगतिसुखकामा वंदिताः संस्तुतास्ते ममनिखिल निजामुक्तिसिद्धय प्रदय : १३२३२।
अर्थ-इसप्रकार जो मुनि निर्मल महा ऋद्धियोंसे सुशोभित हैं, जो सर्वोत्कृष्ट हैं, समस्त गुणों के समुद्र हैं, तीनों लोकों में पूज्य हैं, ऋषिराज हैं और मोक्ष गति के सुखों की इच्छा करनेवाले हैं, उनकी मैं वंदना एवं स्तुति करता हूं । वे मुनिराज मोक्ष प्राप्त करने के लिये मुझे अपनी समस्त ऋद्धियों को प्राप्त करें ॥३२३२॥
ग्रन्थ की प्रामाणिकता एवं महिमा-- मूलाचारादिशास्त्रान्वरगरिणदितानसं विलोक्या येतो, वै मूलाचारप्रदोपाभिषममतसमं मानतीयमयात्र । सम्यक्त्वाचारदीपंजगतिसुयमिनाधर्मभोलंबुषार्थ्य,
मेतत्स्वाण्यावहान्यदरितचयहरपसारं च चक्रे ।।३२३३।। अर्थ-मैंने श्रेष्ठ प्राचार्यों के द्वारा कहे हुए मूलाचार मादि अनेक शास्त्रोंको वेखकर तथा उनका सार लेकर अपने और अन्य जीवों के पाप नाश करने के लिये अमृत के समान यह मूलाचार प्रदीप नामका सारभूत अंथ मुनियों के लिये बनाया है । यह ग्रंथ ज्ञानका तीर्थ है, श्रेष्ठ आचारों को दिलाने वाला दीपक है, धर्म का बीज है, विद्वानों के द्वारा पूज्य है और पापों के समूह को नाश करनेवाला है ॥३२३३।।
ग्रन्थ रचना का कारणम कोसिपूजादिफलाभवांच्छया नवा कवित्वाभिमानकाक्षया । पंथः कृतः किन्तुपरार्थसिद्धये स्वधर्मवृत्यै भुषि केवलंभया ।।३२३४।। अर्थ-यह ग्रंथ मैंने न तो अपनी कोति वा पूजा प्रावि के लाभ की इच्छा से