Book Title: Mulachar Pradip
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलकीर्ति आचार्य परिचय संस्कृत भाषा एवं साहित्य के विकास में जैनाचार्यों एवं सन्तों का महत्वपूर्ण योगदान रहा । है। यद्यपि भगवान महावीर ने अपना दिव्य सन्देश अर्धमागधी भाषा में दिया था और उनके परिनिर्वाण के पश्चात एक हजार वर्ष से भी अधिक समय देश में प्राकृत भाषा का बच्चस्व रहा और । उसमें अपार साहित्य लिखा गया, लेकिन जब जंनाचार्यों ने देश के बुद्धिजीवियों की रुचि संस्कृत को पोर अधिक देखो तथा संस्कृत भाषा का विद्वान् ही पंडितों को श्रेणो में समझा जाने लगा तो उन्होंने संस्कृत भाषा को अपनाने में अपना पूर्ण समर्थन दिया और अपनी लेखनी द्वारा संस्कृत में सभी विषयों के विकास पर इतना अधिक लिखा कि अभी तक पूर्ण रूप से उसका इतिहास भी नहीं लिखा जा सका। उन्होंने काव्य लिखे. पुराण लिले, कथा एवं नाटक लिखे । आध्यात्मिक एवं सिद्धान्त ग्रंथों की रचना की। वर्शन एवं न्याय पर शीर्षस्थ ग्रंथों की रचना करके संस्कृत साहित्य के इतिहास में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया। यही नहीं प्रायुर्वेद, ज्योतिष, मन्त्र शास्त्र, गणित जैसे विषयों पर भी उन्होंने अनेक ग्रन्थों को रचना की। संस्कृत भाषा में अन्य निर्माण का उनका यह कम गत डेढ़ हजार वर्षों से उसी प्रवाध गति से चल रहा है। प्राचार्य समन्तभद्र, प्राचार्य सिद्धसेन, प्राचार्य पूज्यपाद, प्राचार्य रविषेरण, प्राचार्य प्रकलंकदेव, प्राचार्य जिनसेन, विद्यानन्द एवं प्रमतचन्द्र जसे महान प्राचार्यों पर किसे हर्ष नहीं होगा ? इसी तरह प्राचार्य गुणभन्न, वादोभसिंह, महावीराचार्य. प्राचार्य शुभचन्द्र, हस्तिमल्ल, असे प्राचार्यों ने संस्कृत भाषा में अपार साहित्य लिख कर संस्कृत साहित्य के यश एवं गौरव को द्विगुरिगत किया। १४ वीं शताब्दी में ही देश में भट्टारक संस्था ने लोकप्रियता प्राप्त की। ये भट्टारक स्वयं ही प्राचार्य, उपाध्याय एवं सर्वसाघु के रूप में सर्वत्र समादृत थे। इन्होंने अपने ५०० वर्षों के युग में न केवल जैन धर्म को ही सर्वत्र प्रभावना को किन्तु अपनो महान विद्वत्ता से संस्कृत साहित्य को अनोखो सेवा को और देश को अपने त्याग एवं ज्ञान से एक नवीन दिशा प्रदान की। इन भट्टारकों में भट्टारफ सफलकीति का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है । [ २० ] Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे ऐसे हो सम्त शिरोमणि हैं जिनकी रचनायें राजस्थान के शास्त्र भण्डारों का गौरव हा रही हैं। इस प्रदेश का ऐसा कोई पम्यागार नहीं जिसमें उनको कम से कम तीन चार कृतियां संग्रहीत मही हो। वे साहित्य गगन के ऐसे महान तपस्वी सन्त हैं जिनकी विद्वत्ता पर देश का सम्पूर्ण विद्वत् समाज गर्व कर सकता है। वे साहित्य गगन के सर्य हैं और अपनी काव्य प्रतिमा से गत ७०० वर्षों में सभी को पालोकित कर रखा है । उन्होंने संस्कृत एवं राजस्थानों में से चार नहीं, पचासों रचनायें बिल की भौर काध्य, पुराण, चरिस, कथा, अध्यात्म, सुभाषित मादि विविध विषयों पर अधिकार पूर्वक लिम्ला । गुजरात, बागड़, मेवाह एवं दहाहक प्रवेश में जिनके पचासों शिष्य प्रशिष्यों ने उनकी लियों को प्रतिलिपियां करके यहां के शार अगहारों को मोभा में अभिसद्धि पी! और गत ५०० यों से जिमको कृतियों का स्वाध्याय एवं पठन पाठन का समाज में सर्वाधिक प्रचार रहा है । जिनमें किसने ही पुराण एवं चरित्र प्रन्यों को हिन्दी टोकायें हो चको है तथा अभी तक भी यही क्रम चालू है। ऐसे महाकवि का संस्कृत साहित्य के इतिहास में कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलना निसन्देह विचारणीय है। "राजस्थान के जन सन्त व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व" पुस्तक में सर्व प्रथम लेखक ने भट्टारक सकलकोसि पर जब विस्तृत प्रकाश डाला तो विद्वानों का इस मोर मान गया और उदयपुर विश्वविद्यालय से स० विहारीलालजी जैन ने भट्टारक सकलकीति पर एक शोष प्रबन्ध लिख कर उनके जीवन एवं कर्तृत्व पर गहरी खोज की और बहुत ही सुन्दर रोति से उनका मूल्यांकन प्रस्तुत किया। प्रसन्नता का विषय है कि उदयपुर विश्वविद्यालय ने शोध प्रबन्ध को स्वोकत करके श्री बिहारीलाल जैन को पी. एच. लो. की उपाधि से सम्मानित भी कर दिया है। डा० अंन ने सकलफीति को प्रायु एवं जीवन के सम्बन्ध में कुछ नवीन तथ्य उपस्थित किये हैं। लेकिन सफलफोति के विशाल साहित्य को देखते हुए अभी उनका और भी विस्तृत मूल्यांकन होना शेष है। अभी तक शिमों ने सब के रूप में उनके साहित्य का नामोल्लेख किया है तथा उनका सामान्य परिचय पाठकों समा उपस्थित किया है। किन्तु उनको प्रत्येक कृति हो अपूर्व कृति है जिसमें सभी प्रकार को हाल सामग्री उपलब्ध होती है। उन्होंने काय लिखे. पुराण लिखे एवं कथा साहित्य लिखा और जन साधारए में उन्हें लोकप्रिय बनाया। उन्होंने संस्कृत में ही नहीं, राजस्थानी भाषा में भी लिखा। समें भट्टारक सकल कीति के महान् व्यक्तित्व को देखा एवं परखा जा सकता है । जीवन परिचय भट्टारक सकलकीति का जन्म संवत् १४४३ ( सन १३८६ ) में हुआ था। इनके पिता का नाम करमसिंह एवं माता का नाम शोभा था। ये अपहिलपुर पट्टण के रहने वाले थे। इनको जाति = -- १. साहित्य शोध विभाग श्री नि. प. क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा प्रकाशित । -- [ २१ ] - - Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हूमड़ थी। "होनहार विश्वान के होत चीकने पास" कहावत के अनुसार गर्भाधारण करने के पाचात् इनकी माता ने एक सुन्दर स्वप्न देखा और उसका फल पूछने पर करमसिंह मे इस प्रकार "तजि वयण सुरणीसार, कुमर तुम्ह होइसिइए। निर्मल गंगानोर, चन्दन नन्दन तुम्ह तणए ॥६॥ जलनिथि गहिर गम्भीर खीरोपम सोहामणुए। ते जिहि तरण प्रकारा जग उद्योलन जस किरणि ।।१०।" बालक का नाम पूनसिंह अथवा पूर्णासह रखा गया । एक पट्टावलि में इनका नाम पदर्थ भी दिया हुआ है। द्वितीया के चन्द्रमा के समान वह बालक दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा। उसका वर्ण पाजहंस के समान शुभ्र या तथा शरीर बसोस लक्षणों से युक्त था। पांच वर्ष के होने पर पूर्णसिंह को पढ़ने बैठा दिया गया। बालक कुशाग्र बुद्धि का पा इसलिये शोन हो उसने सभी ग्रन्थों का अध्ययन पर लिया। विद्यार्थी अवस्था में भी इनका प्रहंद भक्ति की प्रोर अधिक ध्यान रहता था तथा वे समा, सत्य, शौच एवं ब्रह्मचर्य प्रावि धर्मों को जोवन में उतारने का प्रयास करते रहते थे । गाहस्थ्य जोवन के प्रति विरक्ति देख कर माता-पिता ने उनका १४ वर्षको अवस्था में ही विवाह कर दिया, लेकिन विवाह बंधन में बांधने के पश्चात् भी उनका मन संसार में नहीं लगा और वे उदासीन रहने लगे। पुत्र को गतिविधियां देखकर माता-पिता ने उन्हें बहुत समझाया लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिलो। पुत्र एवं माता-पिता के मध्य बहुत दिनों तक वाद-विवाद चलता रहा। पूर्णसिंह के कुछ समझ में नहीं पाता और वे बार-बार साघु जीवन धारण करने को जनसे स्वीकृति मांगते रहते। अन्त में पुत्र की विजय हुई और पूर्णसिंह ने २६ वें वर्ष में अपार सम्पत्ति को तिलांजलि देकर साघु जोवन अपना लिया। वे प्रात्म-कल्याण के साथ-साथ पत्कल्याण को मोर चल पड़े। "भट्टारक सकल कीति नु रास" के अनुसार उनकी इस समय केवल १८ वर्ष की प्राय यो। उस समय भट्टारक १. हरषी सुणोय सुवाणि पालइ प्रम्य करि सुपर । भोऊद पिताल प्रमाणि पूरा दिन पुत्र जनमोउ ।। न्याति माहि मुहुतपंत हंड़ हरषि नमाणिइये । करमसिंह वितपन्न उपययंत इम काणीए ॥ ३॥ शाभित रस परवागि, भूलि सरीस्य सुन्दरीय । सील स्यगारित पगि पेख प्रत्यक्ष पुरंपरीम ॥४॥ -सफलफोति रास [ २२ ] Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्द का मुख्य केन्द्र नैरगवां ( उदयपुर ) था और वे प्रागम ग्रन्थों के पारगामी विद्वान् माने जाते थे। इसलिये ये भी नेरगयां चले गये और उनके शिष्य बन कर अध्ययन करने लगे । यह उनके साधु + जीवन की प्रथम पद यात्रा थी। वहां ये प्राठ वर्ष रहे और प्राकृत एवं संस्कृत के प्रभ्थों का गम्भीर अध्ययन किया। उनके समं को समझा और भविष्य में सत् साहित्य का प्रचार-प्रसार ही अपना जीवन का एक उद्देश्य बना लिया । ३४ वें वर्ष में उन्होंने प्राचार्य पदवी प्रहरण की और नाम सकलकीर्ति रखा गया। I बिहार -- सकलकोति का वास्तविक साधु जीवन संवत् १४७७ से प्रारम्भ होकर संवत् १४६६ तक रहा। इन २२ वर्षों में इन्होंने मुख्य रूप से राजस्थान के उदयपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ प्रादि राज्यों एवं मुजरात प्रान्त के राजस्थान के समीपस्थ प्रवेशों में खूब विहार किया । उस समय जन साधारण के जीवन में धर्म के प्रति काफी शिथिलता था गई थी। साधु-सन्तों के बिहार का प्रभाव था। अनी न सां स्वाध्याय के प्रति रुचि रही थी और न उन्हें सरल भाषा में साहित्य ही उपलब्ध होता था। इसलिये सर्वप्रथम सकलकीर्ति ने उन प्रवेशों में बिहार किया और सारे समाज को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया। इसी उद्द ेश्य से उन्होंने कितने ही यात्रासंध का नेतृत्व किया। सर्व प्रथम उन्होंने गिरनार की संघ के साथ मात्रा प्रारम्भ को । फिर वे चंपानेर को ओर यात्रा करने निकले। वहां से धाने के पश्चात् हूमड जातीय रतना के साथ मांगीतुंगी की यात्रा के लिये प्रस्थान किया। इसके पश्चात् उन्होंने अन्य तीर्थों को वन्दना को जिससे देश में धार्मिक चेतना फिर से जाग्रत होने लगी । प्रतिष्ठानों का आयोजन - तीर्थ यात्रा के पश्चात् सकसकीति ने नव मन्दिर निर्माण एवं प्रतिष्ठाएं करवाने का कार्य हाथ में लिया। उन्होंने अपने जीवन में १४ विभव प्रतिष्ठानों का संचालन किया। इस कार्य में योग देने वालों में संघपति नरवाल एवं उनकी पत्नी बहुरानी का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। गलियाकोट में संघपति मूलराज में इन्हों के उपदेश से "चतुविशति जिन बिम" की स्थापना की थी । नागदा जाति के श्रावक संघपति ठाकुरसिंह ने भी कितनी हो बिम्ब प्रतिष्ठानों में योग दिया। भट्टारक सकलकोति द्वारा संवत् १४६०, १४६२, १४६७ आदि संवतों में प्रतिष्ठापित मूर्तियां उदयपुर, डूंगरपुर एवं सागवाड़ा श्रादि स्थानों के जैन मन्दिरों में मिलती हैं। प्रतिष्ठा महोत्सवों के इन पायोजनों से तत्कालीन समाज में जो जन जाग्रति उत्पन्न हुई थी, उसने देश में जैन धर्म एवं संस्कृति के प्रचार-प्रसार में अपना पूरा योग दिया । [२३] Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व एवं पांडित्य महारक सकलकोति असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने जिन-जिन परम्परामों में नोक रखी, उनका बाद में खूब विकास हुआ। वे गम्भीर अध्ययन युक्त सन्त थे। प्राकृत एवं संस्कृत।। भाषाओं पर इनका पूर्ण अधिकार था। ब्रह्म जिनदास एवं भ० भुवनकोति जैसे विद्वानों का इनका शिष्य होना हो इनके प्रबल पाण्डित्य का सूचक है। इनकी यारणी में जादू था इसलिए जहां भी इनका बिहार हो जाता था वहीं इनके सैंकड़ों भक्त बन जाते थे। वे स्वयं तो योग्यतम विद्वान थे ही, किन्तु इन्होंने अपने सिष्यों को भी अपने ही समान विद्वान बनाया। ब्रह्म जिनदास ने अपने प्रन्थों में भट्टारक लकलकोति को महाकवि, निबराज शुद्ध चरित्रधारी एवं तपोनिषि प्राधि उपाधियों से सम्बो। वित किया है। ___ भट्टारक सफल मूषण ने अपने उपदेश रत्नमाला को प्रशस्ति में कहा है कि सकसकीति जन जन का चित्त स्वतः ही अपनी प्रोर प्राकृष्ट कर लेते थे। ये पुण्यभूति स्वरूप में तथा अनेक पुराण प्रन्यों में रचयिता श्रे इसी तरह भट्टारक शुभचन्द्र ने सालकोलिको पुराण एवं काव्यों का प्रसिद्ध नेता कहा है। इनके अतिरिक्त इनके माव होने वाले प्रायः सभी भट्टारकों ने सकलकीति के व्यक्तित्व एवं विद्वता की। भारी प्रशंसा की है। ये भट्टारक थे किन्तु मुमि नाम से भी अपमे मापको सम्बोधित करते थे। पन्ध कुमार चरित्र प्रन्थ को पुहिपका में इन्होंने अपने आपको मुमि सकसकीति नाम से परिचय दिया है। ये स्वयं भी नग्न अवस्था में रहते थे और इसलिये ये निर्मथकार अथवा निन्यराम के नाम से भी अपने शिष्यों द्वारा सम्बोधित किये गये हैं। इन्होंने बागड़ प्रदेश में जहां भट्टारकों का कोई -- -- १. सतो भवत्तस्य जगत्प्रसिद्धः पट्टे मनोशे सकलादिकीतिः । महाकविः शुद्धधरित्रधारी निग्रन्थ राजा प्रगति प्रतापी । -बम्बू स्वामी चरित्र २. तपट्ट पंकेविकासभावान् बभूव निर्मथवरः प्रतायो । महाकवित्वादिकला प्रवीणः सपोनिधिः श्री सकलादिकीतिः ।। ---हरिवंश पुराण तसवारी अनमित्तहारी पुराणमुरुयोप्सम-शास्त्रकारी । भट्टारक श्रीसकालादिकोतिः प्रसिद्धनामानि पुण्यतिः ॥२१६|| -उपदेशारत्नमाला-सफल भूषण - -- -- २४ ] Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभाव नहीं था। संवत् १४९२ में गलियाकोट में एक भट्टारक गावो की स्थापना की और अपने प्रापको सरस्वती गच्छ एवं बलात्कारगण को परम्परा का भट्टारक घोषित किया । ये उत्कष्ट सपस्वी ये तथा अपने जीवन में इन्होंने किसने ही व्रतों का पालन किया था। सालकीति ने जनता को जो कुछ चरित्र सम्बन्धी उपदेश दिया था, पहिले उसे अपने जीवन में उतारा । २२ वर्ष के एक छोटे से समय में ३५ से अधिक प्रन्थों की रचना, विविध ग्रामों एवं मगरों में विहार, भारत के राजस्थान, उत्तरप्रदेश, गुजरात, मध्यप्रदेश प्रावि प्रदेशों के सोपों को परयात्रा एवं विविध व्रतों का पालन केवल सफलफोति जैसे महा विधान एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व बाते साधु से ही सम्पन्न हो सकते थे। इस प्रकार ये बडा, मान एवं चारित्र से विभूषित उत्कृष्ट एवं प्राकर्षक व्यक्तित्व वाले साधु थे। मृत्यु एक पट्टापलि के अनुसार भट्टारक सकसकोति ५६ वर्ष तक जीवित रहे। संवत् १VEL में महसाना नगर में उनका स्वर्गवास हुमा । पं० परमानम्वनो शास्त्री ने भी प्रशस्ति साह में इनकी मत्यु संवत् १४६८ में महसाना (गुजरात) में होना लिखा है। डा. ज्योतिप्रसाद खन एवं डा. प्रेमसागर भी इसी संवत को सही मानते हैं। लेकिन डा० ज्योति प्रसाद इनका पूरा जीवन १ बर्ष स्वीकार करते हैं जो पब लेखक को प्राप्त विभिन्न पट्टावलियों के अनुसार यह सही नहीं जान पड़ता। सकलकोति रास में उनकी विस्तृत जीवन गापा है। उसमें स्पष्ट रूप से संवत् १४४ को अन्म एवं संवत् १४६८ में स्वर्गवास होने को स्वीकार किया है। तत्कालीन सामाजिक अवस्था भट्टारक सकलकीति के समय देश को सामाजिक स्थिति मच्छी नहीं थी। समाज में सामाजिक एवं पार्मिक बेतमा का प्रभाष था। शिक्षा को बहुत कमी पी। माधुमों का प्रभाव पा । भट्टारकों के नग्न रहने को प्रपा पी। स्वयं भट्टारक सकलकीति भी नग्न रहते थे। लोगों में धार्मिक श्रया बहत थी। तीर्थ यात्रा बड़े-बड़े संषों में होती थी। उनका नेतृत्व करने वाले साधु होते में। तीर्थ यात्रायें बहुत लम्बी होती पी तथा यहां से सकुशल लौटने पर बड़े-बड़े उत्सव एवं समारोह किये जाते थे। भट्टारकों ने पंच-कल्याणक प्रतिष्ठानों एवं अन्य धार्मिक समारोहकरने को मच्छी प्रमा डाल दी थी। इनके सघ में मुनि, प्रायिका, धावक प्रावि सभी होते थे। साधुनों में मान प्राप्ति की काफी अभिलाषा होती थी, तथा संघ के सभी साधुओं को पढ़ाया जाता था। अन्य रचना करने का भी खूब प्रचार हो गया या । भट्टारक गण मी खूब प्रम्य रचना करते थे। वे प्रायः अपने पंप भावकों [ २५ ] । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के मारह से मिबद्ध करते रहते थे। बत उपवास की समाप्ति पर श्रावकों द्वारा हम ग्रन्थों को प्रतियां विभिन्न ग्रंथ भण्डारों को भेंट स्वरूप दे दी जाती थी । भट्टारकों के साथ हस्तलिखित ग्रन्थों के वस्ते के बस्ते होते थे। समाज में स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं थी और न उनके पढ़ने-लिखने का साधन या। व्रतोद्यापन पर उनके प्राग्रहसे अन्यों को स्वाध्यायार्थ प्रतिलिपि कराई जाती थी और उन्हें साधुसन्तों को पढ़ने के लिये दे दिया जाता था। साहित्य सेवा साहित्य सेवा में सफलकोति का जबरबस मोग रहा। कभी-कभी तो ऐसा मालूम होने लगता है जैसे राम्होंने अपने साधु जीवन के प्रत्येक क्षण का उपयोग किया हो । संस्कृत, प्राकृत एवं राजस्थानी भाषा पर इनका पूर्ण अधिकार था। वे सहज रूप में हो काव्य रचना करते थे। इसलिये उनके मुख से जो भी धाश्य निकलता था वही काव्य रूप में परिवर्तित हो जाता था। साहित्य रचना को परम्परा सकलकोलि ने ऐसी आलो कि राजस्थान के बागड़ एवं गुजरात प्रदेश में होने वाले अनेक साधु सन्तों ने साहित्य की सब सेषा की तथा स्वाध्याय के प्रति जन-साधारण को भावना को जाग्रत किया। इन्होंने अपने प्रन्तिम २२ वर्ष के जीवन में २७ से अधिक संस्कृत रचनाएं एवं - राजस्थानी रचनाएं निबद्ध की थी। राजस्थान में ग्रंथ भण्डारों की जो प्रभी खोज हुई है उनमें हमें अभी तक निम्न रचनाएं उपलब्ध हो सकी हैं। संस्कृत को रखनाएं १. मूलाचार प्रदीप, २, प्रश्नोत्तरोपासकाचार, ३. प्रादिपुराण, ४. उत्तरपुराण, ५. शातिमाथ परित्र. ६. पर्ख मान चरित्न, ७. मल्लिनाथ धरित्र, ८ यशोधर चरित्र, ६. धन्यकुमार चरित, १०. सुकुमाल चरित्र, ११. सुदर्शन चरित्र, १२ सभाषिलावली, १३ पार्श्वनाथ चरित्र. १४, व्रतकथा कोष, १५. नेमिजिन चरित्र, १६.कर्मविपाक, १७. तरवार्थसार दीपक, १८. सिद्धान्तसार दोपक, १६. भागमसार, २०. परमात्मराज स्तोत्र, २१. सारचतुविशतिका, २२. श्रीपालीरित्र, २३. जम्मूस्वामी चरित्र, २४. द्वादशानुप्रेक्षा । पूजर ग्रन्थ २५. अष्टाह्निका पूजा, २६ सोलहकारण पूजा, २७. गरगपरवलय पूषा । राजस्थानी कृतियां १. पाराषना प्रतिबोधसार, २. नेमीश्वर गोष, ३. मुक्तावलि गीत, ४. पमोकार फल गीत, ५. सोलहकारण रास, ६. सारशिखामणि रास, ७. शान्तिनाय फागु। [ २६. ] Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्त कृतियों के अतिरिक्त प्रभो और भी रचनाएं हो सकती हैं जिनको अभी खोज होना बाकी है। भट्टारक सकलकीति को संस्कृत भाषा के समान राजस्थानी भाषा में मो कोई बड़ी रचना frent afहये, क्योंकि इनके प्रमुख शिष्य ब्र० जिनदास ने इन्हीं की प्रेरणा एवं उपदेश से राज्यस्थानी भाषा में ५० से भी अधिक रचनाएं निबद्ध की हैं। उक्त संस्कृत कृतियों के अतिरिक्त पंचपरमेष्ठी पूजा द्वादशानुप्रेक्षा एवं सारचतुविशतिका श्रादि और भी कृतियां हैं जो राजस्थान के शास्त्र भंडारों में उपलब्ध होती हैं। ये सभी कृतियां जंन समाज में लोकप्रिय रही हैं तथा उनका पठन-पाठन भी खूब रहा है । भट्टारक सकलकोसि की उक्त संस्कृत रचनाओं में कवि का पाण्डित्य स्पष्ट रूप से झलकता है । उनके काव्यों में उसी तरह की शैली, अलंकार, रस एवं छन्दों को परियोजना उपलब्ध होती है जो धन्य भारतीय संस्कृत काव्यों में मिलती है। उनके चरित काव्यों के पढ़ने से प्रा रवास्वादन मिलता है । चरित काव्यों के नायक सठशलाका के लोकोत्तर महापुरुष हैं जो अतिशय पुण्यवान हैं. जिनका सम्पूर्ण जीवन प्रत्यधिक पावन है। सभी काव्य शान्तरस पर्यवसानी हैं। काव्य ज्ञान के समान भट्टारककीत सिके थे। उनका मूलाधार प्रदोष, प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, सिद्धान्तसार दीपक एव तत्त्वार्थसार दीपक तथा कर्मविपाक जैसी रचनाएं उनके अगाध ज्ञान के परिचायक है। इसमें जैन सिद्धान्त आचार -शास्त्र एवं तस्वचर्चा के उन गूढ रहस्यों का निचोड़ है जो एक महान विद्वान् थपनी रचनाओंों में भर सकता है । इसी तरह सद्भाषितावलि उनके सर्वागज्ञान का प्रतीक है- जिसमें सकलकीति ने जगत के प्राणियों को सुन्दर शिक्षाएं भी प्रदान की हैं, जिससे वे अपना श्रात्म-कल्याण करने की घोर असर हो सके । वास्तव में वे सभी विषयों के पारगामी विद्वान् थे। ऐसे सन्त विद्वान को पाकर कौन देश गौरवान्वित नहीं होगा ? राजस्थानी रचनाएं - सलकीर्ति ने हिन्दी में बहुत ही कम रचना निबद्ध की है। इसका प्रमुख कारण सम्भवतः इनका संस्कृत भाषा की मोर अत्यधिक प्रेम था। इसके अतिरिक्त जो भी इनकी हिन्दी रचनाएं मिली हैं वे सभी लघु रचनाएं हैं जो केवल भाषा अध्ययन की दृष्टि से ही उल्लेखनीय कही जा सकती हैं । सकलकीति का अधिकांश जीवन राजस्थान में व्यतीत हुआ था। इनकी रचनाओंों में राजस्थानी भाषा की स्पष्ट छाप दिखलाई देती है। इस प्रकार भट्टारक सकलकीति ने संस्कृत भाषा में ३० प्रम्थों की रचना करके मां भारती को अपूर्व सेवा की और देश में संस्कृत के पठन-पाठन का जबरदस्त प्रचार किया । [२७] Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना "मूलाचार प्रदीप" प्रम्य के बारह अधिकारों का संक्षिप्त सारात्मक अथवा विशिष्ट अंश : प्राचार्य सकलकोति नै १२ अधिकारों में मुनियों के मूलगुण एवं उत्तरगुणों का बहुत सुबोध एवं रहस्यात्मक वर्णन किया। __ प्रथम ही प्राचार्य श्री ने ३८ श्लोकों में नमस्कार रूप मंगलाचरण किया। मापने मंगलाचरण में पंच परमेष्ठो के गुणों का क्रमिक एवं बहुत सुन्दर ढंग से वर्णन किया। पाठक गरा स्वयं अनुभव करेंगे कि इसी प्रकार से अरहन्तादिक के गुणों का स्मरण करें तो चित्त की एकाग्रता के साथसाथ ध्यान की सिद्धि भी हो सकती है। पुनः आचार्य महोदय ने शास्त्र रचना की प्रतिज्ञा करते हुए २८ मूल गुणों का बहुत हो सरल भाषा में वर्णन किया है। महिला महावत-(१) २६४ गापामों में आचार्य श्री ने अहिंसा महायत के पालन हेतु जीवों को काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणा, कुल, योनियों को समझने की प्रेरणा दी है । (२) पंच स्थावरों का स्वरूप निर्देश करते हुए प्राणियों को पृथ्वीमायादि के अस्तित्व का श्रद्धान करने की प्रेरणा दी है। (३) इन जीवों के अस्तित्व का श्रद्धान नहीं करने वाले जीवों को. दीर्घ संसारी, पापी, मिथ्यावृष्टि, कुमार्गगामी, संसार में डूबने वाला, जिन धर्म से बाहर आदि शब्दों के द्वारा तिरस्कृत किया है । (४) आचार्यों ने जिनलिंगधारी मुनिराज को, पृथ्वीकायादिक जीवों की रक्षा के लिये निम्न बातों का निर्देश किया है (म) पृथ्वीकायादिक की विराधना से विरत मुनिराज अपने हाथ-पैर की अंगुली से, खपरादि से पृथ्वी को नहीं बोदते । (ब) शौचादिक कार्यों में भी त्रियोग से जलकायिक जीवों की हिंसा नहीं करते। (स) शरीर में शीत ज्वर आदि के उत्पन्न होने पर भी ज्वाला, अंगार, अग्नि को शिखा मादि तेजफायिक युक्त अग्नि को कभी काम में नहीं लेते । [ २ ] Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ f६) अधिक दाह होने पर भी वस्त्र से, वस्त्र के कोने से, पंखे से, पत्र से. दूसरों के द्वारा भी घायु नहीं करवाना चाहिए। अधिक उष्णता से पीड़ित होने पर भी वायुकायिक जीवों को नाच करने वाली वायु अपने मुख से नहीं निकालना चाहिये। (५} हाथ-पैर आदि के द्वारा अनन्त जीवों का नाश करने वाली वनस्पति को विराधना नहीं करनी चाहिये। अहिंसा महावत को ५ भावना में वचन गुप्ति के स्थान पर ऐषणा समिति का वाचन किया है और चार भावनामों का वर्णन तत्त्वार्थ सूत्र के सदृश्य हो किया है । सत्य महानत १. सत्य महावत के स्वरूप का निर्देश करते हुए आचार्य ने अर्हत मुद्राधारी मुनिराज को निर्मल, कल्याणकारो, वैराग्य की स्थिरता वाले गुरण को वृद्धि करने वाले शुभ वचन हो बोलने की प्रेरणा दा है। २. पागमानुकूल वचन नहीं बोलने के समय मौन ही धारण करने की प्रेरणा दी है एवं असत्य के दूषण बताते हुए आचार्य कहते हैं कि विष खा लेना, विष्टा सा लेना तो अच्छा है परन्तु असत्य बोलना कभी अच्छा नहीं है। ३, अनेक गुणों से सम्पन्न मुनि मसत्य भाषण से चाण्डाल के समान नि समझा जाता है। ४. तत्त्वार्थ के सदृश्य ही सत्य महापत की भावना भाने की प्रेरणा दी है। प्रचौर्य महाव्रत-[१] अचौर्य महावत का वर्णन करते हुए आचार्य श्री ने कण्ठगत प्राण होने पर भी बिना दिया हुअा द्रध्य एवं संयम को हानि करने वाला द्रव्य लेने का निषेध किया । [२] पंच परमेष्ठी की जिस द्रव्य से पूजा को है, उस निर्माल्य द्रव्य को कभी नहीं लेना चाहिये। [३] निर्माल्य द्रव्य लेने वाले को नरक में आने से कोई नहीं बचा सकता। [४] दन्त शुद्धि करने के लिए भो आचार्य महावतधारी के लिये बिना दिये तृण भी न ग्रहण करने का आदेश दिया है । अचार्य महावत को शुद्ध रखने वाली भावनाओं का बहुत रहस्यात्मक वर्णन किया है जो कि तत्वार्थ सूत्र से विदृश्य है-(क) याचना नहीं करना (ख) किसी को कुछ अाशा नहीं देना (ग) किसी पदार्य में ममत्व नहीं रखना । (घ) निर्दोष पदार्थ का सेवन करना (ङ) साधर्मी पुरुषों के साष पास्त्रानुकल वर्ताव करना । विशेष अत्यन्त गम्भीरता से विचारा जाय तो तत्त्वार्थ सूत्र में कथित भावनाओं का सार प्राचार्य ने अपने शब्दों में किया है। ब्रह्मचर्य महाव्रत - इस महानत का वर्णम तो बहुत ही सुन्दर ढंग से किया गया है। १. ब्रह्मचारी को स्त्री संसर्ग ही कलंक का कारण है। ऐसा मानकर ब्रह्मचारी को कोमन बिछौने एवं प्रासन पर बैठने का निषेध किया है। २. स्त्री का मुख देखना मात्र ही अनेक मनर्ष का कारण है तो साक्षात् स्त्री संसर्ग कलत का कारण क्यों नहीं होगा। ३. ब्रह्मचारियों को स्थो के अङ्गार कसा, [ २६ ] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्यादि को देखने का भी कठोर रूप से निषेध किया है। ४. स्त्री के संसर्ग से योगी भ्रष्ट होकर नरक में जाता है। ५. ब्रह्मचर्य की पोच भावना में चार भावनामों का सो तत्त्वार्थ सूत्र के सदृश्य ही वर्णन किया गया है । ६. परन्तु पांचवीं भावना में शरीर संस्कार के स्थान पर प्राचार्य महोदय ने स्त्री के रहने, सोने, उठने, 'बैठने प्रायि के स्थान का भी सदा के लिये त्याग करना बताया है। परिग्रह त्याग महावत-इस महादत का आचार्य श्री ने पाकिचन्य महादत के नाम से वर्णन किया । १. चेतन, अधेतन, बाह्य, अभ्यन्तर परिग्रह में मूछ के त्याग की प्रेरणा देते हुए आचार्य ने पाकिञ्चन व्रत का बहुत अच्छा वर्णन किया है। २. ज्ञान, संयम, शौच के उपकरण के असावा आचार्य ने सम्पूर्ण परिग्रह के त्याग की प्रेरणा दी है। ३. वसतिकादि में भी स्वामित्व रखने को परिग्रह बताकर मृनिधर्म के अयोग्य पदार्थ को एक बाल के अग्रभाग का करोड़यां भाग भी नहीं ग्रहण करने की प्रेरणा दी है। ४. तत्त्वार्थ सूत्र के सादृश्य ही परिग्रह महाअत को शुद्ध रखने के लिए ५ भावनाओं को प्रेरणा दी है । ५. महादत को परिभाषा करते हुए आचार्य कहते हैं कि महापुरुष जिसको धारण करते हैं एवं महान् पद मोक्ष को प्रदान करने वाला महाबल के नाम को सार्थक सिद्ध किया है। इस प्रकार की प्ररूपणा करते हुए प्रथम अधिकार को पूर्ण किया। द्वितीय अधिकार ईर्या समिति-३३६ श्लोक में आचार्य श्री ने पांच समितियों का विस्तृत वर्णन किया है। प्राचार्य बताते हैं कि-१. बिना प्रयोजन किसी भी गांव या घर में मुनिराज को नहीं जाना चाहिए । २. कितना व कैसा भी अं कार्य आ जान पर भी सूर्यास्त व सूर्योदय के पूर्व मुनिराज को गमन नहीं करना चाहिये । ३. सेंकड़ों कार्य होने पर भी मुनिराज चातुर्मास में न तो स्वयं गमन करे न यती को हो बाहर भेजें। ४. प्रयोजन के निमित्त से भी गमनागमन कार्यों में पाप देने वाली सम्मति नहीं देना चाहिये । यहां आ, वहां जा, यहां बैठ, इस कार्य को कर, भोजन कर इस प्रकार कहना भी पाप का कारण है। ५. दयावान मुनिराज को हिलते हुए काष्ठ, पाषाण पर पंर देकर गमन नहीं करना चाहिये । ६. मार्ग में खड़े रहकर भी बात करने का निषेध किया तो चलते हुए वार्तालाप का निषेध तो नियम से ही समझ लेना चाहिये । भाषा समिति--भाषा समिति के वर्णन में प्राचार्य महोदय ने १. आत्म प्रशसा, विकया. इंसी, निन्दा, चुगली आदि के वचन बोलने का निषेध करते हुए त्याग पूर्वक धर्म मार्ग में प्रवृति करवाने वाले सारभूत, परिमित वचन बोलने को ही भाषा समिति कहा है। २. सत्य के दस भेदों का स्वरूप बहुत हो मुन्दर रूप से बतलाया है। पुनः ६ प्रकार की प्रमुभयादि भाषाओं का कथन किया [ ३० ] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + है। ३. जो सदा काल मौन धारण करने में असमर्थ हो उसे सत्य व अनुमय भाषा बोलने की प्रेरणा दी है। ४. दस प्रकार को निंद्य भाषाओं के त्याग की प्रेरणा दी है। ५. व्रती पुरुष को ब्रह्मचर्य का घात करने वाली स्त्री आदि विकथा भी कभी नहीं करना चाहिये । ६. धर्म कथा के अलावा किसी भी प्रकार की कथा त्यागियों को न तो करनी ही चाहिये, न सुनना ही चाहिये । ७. वधकारी वचनों को कहने का निषेध किया है। ८. संघ के दोष का कथन भी पाप का कारण बताते हुए और भी अनेकों दोषों का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। ऐषणा समिति-१. ठण्डा, गर्म जैसा शुद्ध प्रासुक भोजन श्रावक के यहां मिले वैसा ही ले लेना ऐषणा समिति है। २. भोजन के ४६ दोषों को ८ भेदों में गर्भित कर संक्षेप में भेदों का कथन किया । ३. अन्य आचार सार के कथनानुसार आचार्य श्री ने ऐषणा समिति के दोषों का कथन किया । जो पानी बहुत देर पहले गरम किया हो और ठण्डा हो गया हो ऐसा जल संयमियों को नहीं लेना चाहिये । आगे आचार्य श्री ने ६ कारणों से आहार ग्रहण करे व ६ कारणों से माहार का त्याग करने की प्रेरणा दी है। ४. दस प्रकार के अशन दोष में छठ दायक दोष में वेश्या टो. दासी हो. अजिका हो या लाल वस्त्र पहनने वाली हो ऐसी स्त्री दान देथे अथवा मुनि लेवे तो दायक दोष उत्पन्न होता है। ( ४४६ गाया ) ५. तदनन्तर १४ मल दोषों का वर्णन करते हुए उत्तम, मध्यम, जघन्य मलों का भेद दर्शाया है। ६. शुद्ध भोजन की खोज करके आहार लेने वाले मुनि अधः कर्म दोषों से दूषित नहीं होते। भोजन चर्या के काल का कथन करते हुए धनी, निर्धन का भेद नहीं करना चाहिये । ७. पुन: ५ प्रकार की गोचर बृत्ति का कथन किया है एवं भोजन के कालादि ३२ प्रकार के अन्तराय का कथन किया है। स्वाद को छोड़कर भोजन करना चाहिये । ८. थकान आदि की अपेक्षा के बिना श्रावकों के घर में नहीं बैठना चाहिये। ९. मुनियों को कभी दिन में नहीं सोना चाहिये एवं १०. विकथादि करने, धर्म ध्यान के दुर्लभ काल को व्यर्थ व्यतीत नहीं करना चाहिये । मावान निक्षेपण समिति—१. इस समिति के कथन में आचार्य श्री ने ज्ञान, संयम एवं शौचोपकरण को अच्छी तरह देख-भाल कर रखने एवं उठाने की प्रेरणा दी है। २. पाटा संस्तर आदि को हिलाना-चलाना नहीं चाहिये क्योंकि ऐसा करने से जीवों की विराधना होती है । ३. नहीं हिलने वाले संस्तरादि पर बैटना व सोना चाहिये । ४. दुःप्रतिलेखना के त्याग की प्रेरणा देते हुए आचार्य श्री ने अच्छी तरह पहले देखकर फिर सावधानी पूर्वक पिच्छी से मार्जन करने की प्रेरणा दी है । ५. जो मुनि आदान निक्षेपण समिति का पालन करते हैं, उन्हीं के अहिंसा महाव्रत पूर्ण रीति से पालन होता है। ६. जो इस समिति का पालन नहीं करता है वह मुनि शिथिलाचारी व जीवों की विराधना करने वाला होता है । ७. अन्त में आचार्य मुनिराज को आदेश देते हैं कि तुम इस भनेक गुणों की खानि मादान निक्षेपण समिति का पालन करो। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है प्रतिष्ठापन समिति-१. जो प्रदेश दृष्टि के अगोचर हैं उस स्थान पर किसी भी प्रकार के मल के निक्षेपण का निषेध किया है । २. संयमियों को नाक एवं कफ के मल को डालकर उसके ऊपर वालू डाल देना चाहिये । ३. दिवाल को पिच्छी से मार्जन करके खुजाल आदि करना चाहिये । ४. क्योंकि बिना यत्नाचार से मल-मूत्रादि के त्याग करने वाले के स जीवों का मो घात होता है तो स्पावर जीवों की तो बात ही क्या । अत: मोक्ष की इच्छा करने वाले को इस प्रतिष्ठापन समिति का पालन अवश्य करना चाहिये । ५. जो इन पांचों समितियों का पालन करने में शिथिलता करते हैं, बे निन्दनीय एवं प्रमादी हैं। उनके अहिंसादि सब मत नष्ट हो जाते हैं एवं उन्हें अनन्त संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है। पाठकगण स्वयं इस शास्त्र के पठन से अनुभव करेंगे कि आचार्यों ने कितना रहस्यात्मक वर्णम किया है। तृतीय अधिकार आचार्यों ने ४३८ श्लोकोंमें ५ इंद्रिय निरोध एवं षट् प्रावश्यकों का विस्तृत वर्णन किया। चक्ष इंद्रिय निरोष-१. चक्ष इन्द्रिय निरोध नामक मूलगुण का वर्णन बहुत ही सारगर्भित किया है। २. मोक्षार्थी को चित्त मोहित करने वाले वस्त्र अथवा वस्त्र के किनारे भी नहीं देखना चाहिये । ३. मुनियों को भोगोपभोग के पवित्र पदार्थों को भी नहीं देखना चाहिये। ४. राजा. सामंत भादि की सेना को देखना भी रौद्रध्यान का कारण है। ५. सम्यग्दृष्टियों को कुदेवादि एवं छः अनायतन को भी नहीं देखना चाहिये । ६. प्रारमशुद्धि के लिये राग को उत्पन्न करने वाले नगर आदि को भी नहीं देखना चाहिये । ७. कदाचित् राग की वृद्धि कारक पदार्थ दिख भी जाय तो दृष्टि नीची कर लेना चाहिये । ८. इंद्रिय को नहीं जीतने वाले के मन की अपलता से ब्रह्मचर्य भी नहीं टिक सकता है। अत: मोक्ष पुरुषार्थ की सिद्धि के लिये पक्ष इंद्रिय का निरोध करमा चाहिये । श्रोत इन्द्रिय निरोष-श्रोत इन्द्रिय के कथन में १.माचार्य श्री कहते हैं कि मोक्षार्थों को ६ प्रकार के स्वरों को राग पूर्वक नहीं सुनना चाहिये। २. श्रृंगार रस आदि को बढ़ाने वाले शास्त्र को भी नहीं सुनना चाहिये । ३. विक्रथा, परनिन्दा, कुकाव्य को सुनने से बुद्धि विपरीत होती है एवं सम्यग्दर्शन भी छूट जाता है । ४. राग-द्वेष को उत्पन्न करने वाले शब्दों को नहीं सुनना चाहिये। प्राण इग्निध निरोप-धारण इन्द्रिय निरोध करने के लिये १. मोक्षार्थी को सुगन्धित पदार्थों में राग एवं दुर्गंधित पदार्थों में द्वेष नहीं करना चाहिये। मिला इंद्रिय निरोष-१. बिह्वा इन्द्रिय का निरोध उसी के होता है जो जिह्वा को मनोज लगने वाले षट्रस मिश्रित पदार्थों में गृढता धारण नहीं करते । २. जो मूर्ष मुनि राग-द्वेष पूर्वक पाहार करते हैं, उनके पग-पग पर कर्म बंध होता है। ३. जो यति, राक्षणी एवं सर्पिणी के [ ३२ ] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समान जिह्वा इन्द्रिय को जीतने में असमर्थ हैं वे वाम रूपी योद्धा को कभी नहीं जीत सकते । आचार्य श्री ने मिष्ट रस की इच्छा रखने वाले साधुओं को कड़े शब्दों में भर्त्सना दो है । स्पर्शन इन्द्रिय निरोष-आचार्य श्री ने स्पर्श इंद्रिय के १. विजेता को कोमल आसन, विद्यौना पर मोना, बठना एवं कोमल रेशमी वस्त्रों का स्पर्श करना भी ब्रह्मचर्य नाशक मानक र त्याग करने की प्रेरणा दी है। २. ग्रीष्म ऋतु में अनायास शीत का एवं शीत ऋतु में अनायास धूप आदि का संयोग हो जाने पर भी इन्द्रिय विजेता मुनिराज को राग-द्वेष नहीं करना चाहिये । ३. प्राचार्य श्री ने स्पर्शन एवं रसना इन्द्रिय को कामेन्द्रिय एवं सेष इन्द्रियों को भोगेन्द्रिय रूप कहा है। ४. इंद्रियों के अनेक दोष बतलाते हुए इनके आधीन न होने की प्रेरणा दी है। इस प्रकार ११२ श्लोकों में इन्द्रियों का स्वरूप एवं इन्द्रिय विजेता के अनेक गुणों का विशद यर्णन किया है। विशेष-आचार्य ने इन इन्द्रियों के निरोधों का वर्णन पश्चात् आनुपूर्वी कम से किया है। षट् प्रावश्यक: सामायिक-अनुवाल प्रतिकूल १. परिस्थितियों में राग-द्वेष का परित्याग ही सामायिक है । ६ प्रकार से सामायिक के भेदों का कपन करते हुए ऋतु परिवर्तन में राग-द्वष करने का निषेध किया है और २. कांटों से भरे वन में कैष एवं बगीचे में राग करने का निषेध किया है। ३. छह प्रकार की गामायिक में भाव सामायिक को मुख्य बताया है। ४. अजितनाथ भगवान से पाश्वनाथ भगवान तक के २२ तीर्थङ्करों ने सामायिक संयम का ही उपदेश दिया है। ५. आदि व अन्त के तीर्थकरों ने मन्द बुद्धि एवं वक्रबुद्धि वाले जीवों को सामायिक व छेोपस्थापना दोनों संयम का उपदेश दिया है । ६. सामायिक की महिमा यताते हुए आचार्य श्री कहते हैं जो कर्म करोड़ों वर्षों के तप से नष्ट नहीं होते वह सामायिक के बल से प्राधे क्षरण में नष्ट हो जाते हैं । ७. अभव्य जीव भी प्रय सामायिक के प्रभाव से ऊध्वं अवेयक तक जाता है । ८. प्रथम चक्रवर्ती दिन भर के पापों को शुद्ध सामायिक के द्वारा ही नष्ट करते थे। इस प्रकार पाठक गण स्वयं अनुभव करेंगे कि आचार्य श्री ने सामायिक का स्वरूप व महिमा का वर्णन कितना सुबोध एवं अपूर्व शैली से किया है । स्तधन-१. नामादि के भेद से स्लवन भी ६ प्रकार के हैं। प्रत्येक स्तवन का विस्तृत वर्णन किया है। २. अन्त में स्तुति की महिमा का वर्णन करते हुए स्तुति का फल रत्नत्रय की प्राप्ति करने की इच्छा की है, रलत्रय प्राप्ति की इच्छा निदान नहीं है। ३. जिनेन्द्र भगवान ने कार्य सिद्धि के लिए रत्नत्रय आदि की इच्छा को अनुभय भाषा कहा है । ४. पंच परमेष्ठी प्रादि के गुणों में उत्पन्न हआ स्वाभाविक अनुराग को प्रशस्त अनुराग कहते हैं। ५. यह राग रत्नत्रय को उत्पन्न करने वाला है। आचार्य श्री ने स्तुति का स्वरूप एवं उसकी महिमा का बहुत ही मनोज वर्णन किया है। [ ३३ ] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दना - १. किसी एक तीर्थंकर आदि की स्तुति करना हो वन्दना श्रावश्यक है। इसका भी नामादिक के भेद से ६ प्रकार का वर्णन किया है। २. वन्दना में कृतिकर्म, चितिकर्म, पूजाकर्म, विनयकर्म इन ४ कर्मों से वन्दना की जाती है । इन चार कर्मों का आचार्य ने बड़ी सरल भाषा में वर्णन किया है । ३. विनय के ५ भेद किये हैं- (क) लोकानुवृत्ति ( ख ) अर्थनिमित्तिक ( ग ) कामहेतुक (ध) भय और (ङ) मोक्ष संज्ञक, ये पांच भेद किये हैं। प्रत्येक के स्वरूप का वर्णन करते हुए चार विनय को है बताया है एवं ४. सर्वोत्कृष्ट मोक्ष विनय धारण करने की प्रेरणा देते हुए इसका विस्तृत वर्णन किया है । ५. आगे आचार्य कृतिकर्म का वर्णन करते हुए कम कौन-कौनसी भक्ति करना चाहिये इसका बढ़ा सुन्दर उल्लेख किया है । ६ पुनः बन्दना के अनादसादि ३२ दोषों का वर्णन करते हुए उन दोषों का त्याग करने की प्रेरणा दी है। चतुर्थ अधिकार १. श्राचार्य देव ने चतुर्थ श्रध्याय में प्रतिक्रमण आदि तीन शेष आवश्यक एवं लोचादि साल विशेष गुणों का ३३१ श्लोकों में वर्णन किया है। प्रतिक्रमण - प्रथम हो मंगलाचरण के पश्चात् प्रतिक्रमण का स्वरूप एवं नामादि के भेद से उसके छः भेदों का परिभाषा सहित वर्णन किया । ३. पुनः उसम प्रतिक्रमण के सात भेद किये (१) प्रतिक्रामक (२) प्रतिक्रमण एवं (३) प्रतिक्रमितब्य के तीन भेदों का भी सुन्दर वर्णन किया हैं । ४. व्रतों की शुद्धि के लिये अन्तःकरण शुद्ध करके आलोचना करनी चाहिये | इसके देवसिक आदि सात भेदों का कथन किया है । ५. व्रतों की शुद्धि के लिये निन्दा गर्दा एवं शौक पूर्वक प्रति*मरण करना चाहिये । ६ अन्तरंग शुद्धि का कारण भाव प्रतिक्रमण ही है । ७. स्वभाव सरल वा कुटिल बुद्धि वाले शिष्य होने से प्रथम एवं अन्तिम तीर्थङ्कर ने पूर्ण प्रतिक्रमण करने की प्रेरणा दो है परन्तु मध्य के २२ तीर्थकरों के शिष्य बुद्धिमान एवं प्रमाद रहित थे अतः उन्होंने प्रमाद से जिस व्रत में दूषण लगे उतना ही प्रतिक्रमण करने की आज्ञा दी है। 5. आचार्य श्री ने प्रतिक्रमण को विस्तृत महिमा बता कर आत्मार्थियों को आलोचना पूर्वक प्रतिक्रमण करने को आज्ञा दी है । प्रत्यास्थान - १. तपश्चरण के लिये योग्य अथवा अयोग्य पदार्थों का त्याग करना ही प्रत्याख्यान है । २. निक्षेपों के भेद से प्रत्याख्यान छः प्रकार का होता है । ३. नामादि प्रत्याख्यान का स्वरूप बहुत सरल एवं स्पष्ट रूप से किया है । (१) प्रत्याख्यापक ( २ ) प्रत्याख्यान (३) प्रत्याख्यातव्यं इन तीनों का स्वरूप बताया है । ४. जो कि प्रत्याख्यान करने वाले को जानना नितान्त आवश्यक है । पुनः अनागत आदि प्रत्याख्यान के दस भेदों का कथन करते हुए तपश्चरण को वृद्धि के लिये इनका पालन करने की प्रेरणा दी। ५. किसा द्रव्य से मिले हुए जल को पोने से उपवास : [ ३४ ] そ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्डित होता है। वेला तेला आदि में जो पानी का त्याग न कर सके तो उसे उपए जल ग्रहण करना चाहिये । ६. मुनि को प्राणों का अन्त याने पर भी एक बार भोजन के पश्चात् जलादि महश नहीं करना चाहिये । ७. प्रत्याख्यान में चार प्रकार की शुद्धि रखने की प्रेरणा एवं उसका स्वरूप का पारना है १ ८. मारियमों हो पा करोड़ों उपसर्ग आने पर भी प्रत्याख्यान को भंग नहीं करना चाहिये । ६. अन्त में प्रत्याख्यान के पालन करने के गुण एवं उसको भंग करने के दूषण का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है। कायोत्सर्ग-१. आचार्य श्री कायोत्सर्ग का स्वरूप बताकर इसको अनन्त वीर्य का उत्पन्न करने वाला बतलाया है। २. नामादिक निक्षेप से भी छह भेद किय एवं इनका स्वरूप निर्देश किया है। (१) उस्थितोत्थित (२) उस्थितोपविष्ट (३) उपविष्टोथिस (४) उपविष्टोपविष्ट के भेद से कायोसर्ग के चार भेद किये हैं। ३. दो को शुभ व दो को अशुभ ध्यान बतलाते हुए अशुभ ध्यान के त्याग की प्रेरणा दी है। ४. पुन: कायोत्सर्ग करने वाले के निद्राजयी आदि अनेक मुरणों का वर्णन किया है। ५. चतुर पुरुष व्रतादिक में दोष लगने पर कायोत्सर्ग करते हैं। ६. पुनः कायोत्सर्ग के फल का वर्णन करते हुए आत्माथियों को कायोत्सर्ग करने को प्रेरणा दी है। ७. उत्कृष्ट एवं जघन्य कायोस्सर्ग के काल का वर्णन करते हुए प्रतिक्रमणादि में कितने कायोत्सर्म करना चाहिये उसका ऋमिक वर्णन किया। ८. बत्तीस दोषों से रहित धर्म ध्यानादि पूर्वक किया हुआ कायोत्सर्ग अनेक ऋद्धिरों का कारण होता है। ९, पुन: घोटकादि बत्तीस दोषों का स्वरूप सहित वर्णन किया एवं इन दोषों के स्याग की प्रेरणा दी। समर्थ अथवा असमर्थ सभी को कार्य सिद्धि के लिये कायोत्सर्ग करना चाहिये । १०. अन्त में प्राचार्य देव ने कायोत्सर्ग की महिमा का बहुत सुन्दर वर्णन किया। भावश्यक नाम की सार्थकता बताते हुए आवश्यकों की महिमा बताई है। ११. जो मुनि स्वाध्याय के लोभ से समस्त आवश्यक पूर्ण रूप से नहीं करता अथवा कम करता है उस पर मूर्खता सवार हो जाती है एवं उसके उभय लोक का सुख नष्ट हो जाता है। १२. अनेक उदाहरणों के द्वारा बिना आवश्यकों के कार्य सिद्धि का निषेध किया है अन्त में त्रियोग की शुद्धि पूर्वक प्रावश्यकों के पालने की प्रेरणा दी है। १३. मुनिराजों के १३ क्रियाओं में निषिद्धका एवं प्रासिका इन दो को ही मुख्य करके प्राचार्य श्री ने स्वरूप निर्देश किया है। १४. जिस मुनि के त्रियोग चंचल है, कषाय एवं ममत्व नहीं घटा है उसके निषिद्धिका शब्द नाम मात्र के लिये कहा है। १५ भोगादिक एवं ख्याति यादि की इच्छा रखने वाले के लिये आसिका शब्द नाम मात्र के लिये ही होता है । केशलौंच मूल गुरण का स्वरूप-१. बिना कलेश के बालों को उखाड़ना मुनियों का केशभौंच नामका मूलगुण है । २. केशलौंच का उत्तमादि कासों की अपेक्षा वर्णन करते हुए आचार्य कहते है कि करोड़ों रोग हो जाने पर भी ५ महिने में केशलोंध नहीं करना चाहिये । ३. केशलोंच करने से साभ एवं मुण्डन करवाने से हानि का स्पष्ट वर्णन किया है। [ ३५ ] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचेलकरव मूलगुण-१. प्राचार्य श्री अचेलकत्व मूलगुण का स्वरूप निर्देश करते हुए बताते हैं कि जिमलिंग वीर पुरुष ही धारण करते हैं । विकारों को नष्ट करने में असमर्थ कायर पुरुष धारण नहीं कर सकते । २जो मुनि ब्रह्मचर्य वस्त्र से सुरक्षित हैं वे ही वास्तविक नग्न हैं। ३, कोपिन मात्र माचररए भी चिंता, व्याकुलता एवं अनेक अशुभ ध्यान का कारण है। अस्मान प्रत का स्वरूप-१. आचार्य देव कहते हैं कि आत्म शुद्धता के लिये स्नानादि का त्याग करना एवं पसीनादि से युक्त शरीर धारण करना अस्नान नामक बल है। २. पुनः स्नान त्याग से लाभ एवं स्नान करने से हानि का वर्णन करते हुए अस्नान व्रत को धारण करने की प्रेरणा दी है। ३. जिसका अन्तःकरण पापों से मलिन है ऐसे मिथ्यावृष्टि की स्नान से शुद्धि नहीं होती है । भूमिशयन मलगुरण का स्वरूप-१. इस मूलगुण के स्वरूप का वर्णन करते हुए भूमिशयम से लाभ और कोमल शय्या पर सोने से हानि का वर्णन किया। २. कोमल शय्या पर सोने से ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाता है। ३. कटिन आसन पर बैठने एवं सोने से निद्रा पर विजय होती है। समस्त पाप एवं अनर्थों का समुद्र इस निद्रा को अन्न-पान की मात्रा अत्यन्त कम करके इसको जीतना चाहिये। ४ जो निद्रा रूपी पिशाचनी को जीतने में असमर्थ है उसको ध्यान की सिद्धि नहीं होती है। ५. भुनियों को मेगादिक के होने पर भी दिन में निद्रा नहीं लेना चाहिये । ६. रात्रि के मध्य भाग में अन्तमुहूर्त तक हो निद्रा लेनी चाहिये। ७. कण्ठगत प्राण होने पर भी रात्रि के पहले एवं अन्तिम भाग (पहर ) में निद्रा नहीं लेना चाहिये । ८. अन्त में भूमिवायन नामक मूलगुण की महिमा बताकर इसे धारण करने की प्रेरणा दी है। प्रदन्त धोधन मूलगुण-१. वैराग्य वृद्धि के लिये नखादि से दांतों के इकट्ठे मल को दूर नहीं करना ही अदन्त धावन मूलगुण है। २. दन्तधावन में हानि एवं प्रदन्त धावन में लाभ का वर्णन किया । ३. मुख प्रक्षालादि का दूर से त्याग करने की प्रेरणा दी है। ४. अन्त में अदन्तधावन मुलगुण को महिमा बतलाते हुए आचार्य ने उसको पालन करने की प्रेरणा दी है। स्थिति भोजन नामक मूलगुरण-१. स्थिति भोजन नामक मूल गुण के स्वरूप का निर्देश करते हुए स्थिति भोजन करने से लाभ एवं बैठकर भोजन करने से हानि का निवेश किया है। २. करोड़ों व्याधियां होने पर भी एवं प्राणों का नाश होने पर भी मुनिराज को बैठकर भोजन नहीं करने की प्ररणा दी है। ३. मुनिराज को बैठकर कभी जल पानादि का ग्रहण नहीं करना चाहिये । ४. तीर्थङ्कर देंव १ वर्ष के उपवास के पश्चात् भी खड़े-खड़े ही माहार लेते हैं ऐसा कहते हुए अन्त में स्थिति भोजन की महिमा बतलाकर उसे पालन करने की प्रेरणा दी है। [ ३६ ] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . एक मुक्त मामक मूलगुण--१. इसके स्वरूप को बतलाते हुए आचार्यों ने कहा है कि मुनिरोमा सूर्योदय के ३ धड़ो पश्चात् एवं सूर्यास्त के ३ घड़ो पहले तक योग्य काल में एक, दो अथवा तीन बहुर्व के भीतर तक आहार लेते हैं, ये एक भुक्त नामक मूलगुण है। २. पुन: प्राचार्य एक भक्त भोजन के पहरण से लाभ एवं इस मूलगुण के भंग होने से हानि का निर्देश किया है। ३. मुनि को तीव्र अपरादि के होने पर भी दूसरी बार जल ग्रहण नहीं करने की प्रेरणा दी है। ४. इस प्रकार मूलगुणों को महिमा बताते हुए कण्ठगत प्राण होने पर भी इसको भंग नहीं करने की प्रेरणा दी है । ५. उत्तरसुणों के लिए मूर्ख मुनि मूलगुणों का घात करते हैं वे मुक्ति कपी फल को प्राप्त नहीं कर सकते। ६. पुनः प्राचार्य ने उपसर्गादिक आने पर भी स्वप्न में भी मूलगुणों को नहीं छोड़ने की प्रेरणा दी है एवं अतिचारादिक नहीं लगाना चाहिये। ७. पुनः अतिचारादिक के स्वरूप का निर्देश करते हुये मूलगुण के फस को बतलाकर इस अधिकार को पूर्ण किया। पंचम अधिकार १. दर्शनाचार-सम्पूर्ण जगत में जिनकी कीति फैल रही है ऐसे सकलकीति प्राचार्य ने पञ्याचार के वर्णन में २५२ श्लोकों द्वारा दर्शनाचार का वर्णन किया। २. पञ्चपरमेष्ठी को नमस्कार करके, कारण पूर्वक पंचाचार के निरूपण करने की प्रतिज्ञा की। ३. तदनन्तर पञ्चाचार के भेदों का नामोल्लेख गारो माद, सब प्रतिनं सुधि का कारण दर्शनाचार को कहा है। ४. तदनन्तर सम्यग्दर्शन के भेद एवं उनके स्वरूप का निर्देश किया। पुन: भाचार्य देव ने. शास्त्र, गुरु एवं धर्मका बहुत मार्मिक शब्दों में वर्णन किया है । ५. जिनेन्द्र देव के बताये हुए धर्मका श्रद्धानादिक करते हैं उन्हीं के सम्यग्दर्शन होता है । ६. पुनः जिन सप्त तत्वों के श्रद्धान से निर्मल सम्यग्दर्शन होता है, उनका विस्तृत वर्णन किया है । ७. जीव तत्व-जीव तत्व के स्वरूप निर्देश में संसारी जीवों का पञ्च स्थावरादि एवं स जीवों का वर्णन किया है । पुनः जीवों की योनि एवं कुल भेदों का कथन किया है। प्राचार्य श्री ने व्यवहार एवं निश्चयनय से जीवों का स्वरूप निर्देश करके अजीव तत्व का वर्णन किया । . अजीव तत्व-अजीप तत्व के निर्देश में पुद्गल द्रव्य के स्कन्धादिक भेद से चार भेद किये । पुनः पुद्गलादि द्रव्यों के उपकार आदि का कथन किया है। ९. प्रास्त्रव तस्व-आनय तत्व के भेद प्रभेदों का वर्णन किया । जो मुनि ध्यानादि द्वारा भास्रव को रोकने में असमर्थ हैं, उनके यम नियमादि सब व्यर्थ हैं। जो मुनि कर्मों के आसव को रोकने में असमर्थ हैं थे कर्मरूपी दुर्जय शत्रुओं को कैसे जीत सकते हैं। १०. बंध तस्व-बंध सरव का कथन करते हुये आचार्य कहते हैं जो मुनि महा तपश्चरण करके ध्यान रूपी शस्त्र से कर्म बन्ध को नाश करने में असमर्प है वह मुक्त नहीं हो सकता, वह तो संसार रूपी वन में भ्रमण करता ही रहता [ ३७ ] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। ११. संबर सस्व-कर्मों के प्रास्रव को रोकने वाला जो प्रात्मा का शुद्ध परिणाम है वही भाव संबर है। १३ प्रकार के चारित्रादि भाव संवर के कारण हैं । जो मुनि योगों का निग्रह करके संबर करता है, उसी का जन्म व दीक्षादिक सार्थक है। संवर रहित मुनि का तपादिक भूसी कूटने के समान व्यर्थ, क्लेशकारी है। १२. निर्जरा तस्व-निर्जरा तत्व का स्वरूप एवं भेदों का कथन किया है। रत्नत्रयादि के द्वारा मोक्ष को प्रदान करने वाली कर्मों की निर्गरा करने की प्रेरणा दी है। १३. मोक्ष तस्व-द्रव्य मोक्ष एवं भाव मोक्ष का कथन करके सिद्धों के सुख का वर्णन किया। पुनः प्रयत्न पूर्वक मोक्ष सुख प्राप्त करनेकी प्रेरणा दी है । पुण्य पापका वर्णन करके पुण्यादि प्रकृतियों की संख्या बतलायी है। १४. सम्यग्दर्शन के आठ अङ्गों का स्वरूप निर्देश किया। १५. कुलपवंतादि का भूभाग चलाय यमान हो जाये परन्तु जिनेन्द्र भगवान का वचन चलायमान अथवा अन्यथा नहीं हो सकता । १६. सम्यग्दर्शन को विशुद्ध रखने के लिये सप्त तत्वों के विषय में शंकादि के त्याग की प्रेरणा दी है । १७. दूराकांक्षा का दूर करना हो निःकांक्षित अङ्ग है । १८. पुनः द्रव्य भाव चिकित्सा का स्वरूप निर्देश किया । इस प्रकार से नि:काक्षित अङ्गों का सरलतम शब्दों में स्वरूप निर्देश किया है । १९. माड अंर्गों को महिमा बताकर प्राचार्य श्री ने उन अंगों को प्रसन्नता पूर्वक धारण करने को प्रेरणा दी है। २.. लीव सूदता का स्वरूप बताकर उन्हें त्यागने की प्रेरणा दी है । २१. पुनः मास मदों के स्वरूप को बताकर जातिमादि के मद करने को विरर्थकता बताई है। २२. कण्ठगत प्रास होने पर भी बुद्धिमानों को जाल्याविक का मन नहीं करना चाहिये। २३. पुन: नरक के कारणभूत सह अनायतनों के त्याग को प्रेरणा दी है। शङ्कादिक दोषों के भी त्याग की प्रेरणा दी है । २४. आचार्य ने सम्यग्दर्शन की महिमा बहुत अच्छे रूप से करके मोक्षार्थी को सम्यग्दर्शन के सन्मुख किया है। २५. सम्यग्दर्शन से युक्त प्रारम्भ करने वाला गृहस्थ श्रेष्ठ है एवं सम्यग्दर्शन से रहित तपस्वी साधु निंद्य होता है । २६. इस प्रकार सम्यग्दर्शन से युक्त नरक में निवास करना अच्छा है परन्तु इसके विना स्वमं में निवास करना शोभा नहीं देता है। २७. इस कार सम्यग्दर्शन धारी जीव कहां-कहां उत्पन्न नहीं होते, इसका वर्णन कर सम्यग्दर्शन की महिमा कहकर दर्शनाचार का वर्णन करने वाला पांचवां अधिकार पूर्ण किया। छठा अधिकार १. आचार्य श्री ने ५२६ श्लोकों में रोष ४ पंचाचार का विस्तृत वर्णन किया है । २. मंगलाचरण के प्राचान उत्तम जान की परिभाषा सारसभिव शब्दों में की है। मानाचार के पाठ मे बताकर सिद्धारत शास्त्र के पहने योग्य काल का वर्णन किया है। ३. सदनन्तर काल शुद्धि पूर्वक स्वाध्याय से साभ एवं प्रकाल में स्वाध्याय से शाग्नि का वर्णन किया। ४. पारमाधियों को द्रष्यादिक शुचिपूर्वक Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय करने की प्रेरणा दी है। ५. किन शास्त्रों को काम शुद्धि पूर्वक पढ़ना चाहिये। ६. पंकसंग्रह. गोम्मटसारादि अन्य अन्य काल में भी पढ़े जा सकते हैं। दिनमाचार-सिद्धान्त शास्त्रों के परने के पूर्व एवं अन्त में उपवास अथवा पांच कामोत्सर्ग करने का कथन किया है । ७. उपक्षाचार के वर्णन में अन्य समाप्ति तक विकार एवं पौष्टिकता रहित आहार ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार ज्ञानाचार के पाठों अलों का वर्णन शास्त्र स्वाध्याय करने से पाठकगण समझ लेवें, विस्तार भय से नहीं लिखा । ८. ज्ञान से केवलज्ञान प्राप्त होता है। अत: विनयादिक के साथ ज्ञान के अभ्यास करने की प्रेरणा दी । ६. प्राचार्य श्री ने भनेको उदाहरणों के द्वारा कानालार की महत्ता प्रकट करके मोक्षार्थी को आगम अभ्यास को प्रेरणा दी। चारित्राचार-१. १ कोटि से पांचों पापों का त्याग करना महानत है एवं रात्रिचर्या के दूषण बताकर छठं रात्रि भोजन त्याम ब्रतको रक्षा की प्रेरणा दी है । २. तदनन्तर तीन गुप्तियों का सरल सुबोध एवं विस्तृत वर्णन करके उसे पालने की प्रेरणा दी। ३. अप्रशस्त प्रणिधान को त्याग कर प्रशस्त प्रसिधान को धारण करने की प्रेरणा दी है। ४. जो मुनि ध्यान एवं आगम रूपी अमृत समुद्र में अपने मन को जैसे-जैसे लगाते वैसे-वसे मनोगस्ति की पूर्णता होती है। जो मुति अपने चंचल मन को बाह्य विषयों से रोकने में असमर्थ है उसके अन्य गुप्ति कैसे हो सकती है ? ६. मनोगुप्ति पालन करने के फल को बताकर उसे पालने की प्रेरणा दी है। ७. वाम्गुप्ति को पालने बाले मुनि को या तो नित्य मौन रहना चाहिये या शिष्यों को आगम पढ़ाना चाहिये अथवा करुणाबुद्धि से सज्जनों का अनुग्रह करने के लिये कभी-कभी धर्मोपदेश देना चाहिये । 5. मुनियों को प्राण त्याग का समय पाने पर भी व्रतादिक की निर्मलता एवं कारितजन्य प्राण घात के दोषों की निवृत्ति के लिये "तुम आओ, जाओ, प्रसन्न बैठो, यह कार्य शीघ्र करो" ऐसे वचन कभी नहीं बोलने चाहिये । ६. मौन व्रत ध्यान को प्रकट करने में दीपक के समान है। इत्यादिक रूप से मौन व्रत की महिमा बताकर उसे पालन करने की प्रेरणा दी है। १०. शरीर की चंचलता से अनेक प्रकार को हामि होती है । ११. ध्यान उत्पन्न करने में माता के समान काय गुप्ति पालन करने की प्रेरणा दी है। १२. अन्त में चारित्र की महिमा बताकर आचार्य देव कहते हैं कि चारित्रके अभाव में उत्कृष्ट सम्यग्दर्शन, उत्कृष्ट ज्ञान मोक्ष प्राप्त कराने में समर्थ नहीं। १३. ज्ञान दर्शन को धारण करने वाला मुनि यदि चारित्र से भ्रष्ट है शिथिल है तो वह भी लङ्गड़े की भांति मोक्ष मार्ग में कभी गमन नहीं कर सकता । १४. प्रतः पारित की महिमा समझकर प्राणों के त्याग के समय भी सर्वोत्कृष्ट चारित्र को मलिन नहीं करने की प्रेरणा दी है। सपाचार-१. तपाचार का स्वरूप एवं उसके भेदों का शमम ही निर्वेक्ष किया है । २. अमपान तप के साकाँम. निराकाण दो भेद बताये । पुनः साकांस तपके ऋतकावली एवं निसकांश अप के भक्त प्रत्याख्यान सरहादिक बनेक भेद किये हैं। ३. जिनेन्द्र देव में [ ३६ ] MA Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य तपश्चरण उसे ही कहा है जिससे अभ्यन्तर तप को वृद्धि करने वाले ध्यान, मध्ययन तप की वृद्धि हो । ४. प्राचार्य देव ने बाह्य तप की महिमा बताकर मोक्ष प्राप्ति के लिये समस्त शक्ति लगा. कर बाह्य तप करने की प्रेरणा दी है। ५. जो दूसरों को दिखाई न दे एवं अज्ञानीजन जिसे धारण नहीं कर सके वही श्रेष्ठ अभ्यन्तर लप है । प्राचार्य देय ने तपश्चरण का सारभूत वैय्यावृत्ति तप है । पुनः (१) प्रायश्चित तप-१. प्रायश्चित्त तप के आलोचनादिक इस भेदों का निर्देश करके उनका पथक-पृथक स्वरूप निर्देश किया । २. प्राकम्पितादि दोषों को दूर करके आलोचना करने की प्रेरणा दी है। ३. प्राचार्य कैसे साधु को व्रतादिक में दूषण लगने पर कमा-कैसा प्रायश्चित्त देते हैं इसका बहुत अच्छा स्पष्टीकरण किया है। ४. पुनः व्रतों में दूषण लगने पर प्रायश्चित्त लेने में लाभ एवं नहीं लेने से हानि का वर्णन करके आत्मार्थियों को प्रायश्चित्त लेने की प्रेरणा दी है। (२) विनम तप १. विनय तप के पांच भेदों का वर्णन विस्तार सहित करके मुमुक्ष जीवों को विनय करने की प्रेरणा दी है। २. उपचार विनय के प्रत्यक्षादिक भेद से छह प्रकार की होती है। ३. पुनः शारीरिक विनय के सात भेदों का वर्णन किया है। अन्त में धिनय तप की महत्ता एवं उसको धारण करने का बड़ा ही रोचक वर्णन किया । (३) वैयावृत्त्य तप-१. अशुभ ध्यान को नप्त करने के लिये एवं श्रेष्ठ ध्यानादि की सिद्धि के लिये आचार्यादिक को सेवा, सुश्रूषा करना वैयावृत्त्य तप है। २ प्राचार्य श्री नै १० प्रकार के मुनि का स्वरूप बतलाकर १० प्रकार की वैयावृत्त्य का स्वरूप निर्देश किया है। ३. वैय्यावृत्त्य करने वाले के निर्विचिकित्सा अङ्ग का पालन एवं तीर्थंकर प्रकृति आदि श्रेष्ठ पुण्य बन्ध होता है प्रतः आत्मार्थियों को वैय्यावृत्ति करनी चाहिये। (४) स्वाध्याय तप-१. आचार्य श्री ने स्वाध्याय का स्वरूप व उसके भेदों का वर्णन करके स्वाध्याय की महिमा बताकर स्वाध्याय करने की प्रेरणा दी है। २. समस्त तपाचार में स्वाध्याय के समान न तो तप हुमा है और न आगे होगा। ३. क्योंकि स्वाध्याय से इन्द्रिय निरोध, तीन गुप्ति , का पालन, संवर, निजंग, मोक्ष की प्राप्ति रूप अनेक लाभ होते हैं । (५) कायोत्सर्ग तप-१. कायोत्सर्ग का वर्णन पहले षट् आवश्यकों में कायोत्सर्ग नामके छठे यावश्यक में विस्तृत वर्णन किया गया है। (६) ध्यान तप - १. समस्त चितवन को रोककर एकाग्रचित्त से द्रव्यों के समूह का चिन्तवन करना ही ध्यान है। २. ध्यान के प्रशस्त एवं प्रशस्त भेद प्रभेद करके आचार्य श्री ने उनका अच्छा ! वर्णन किया। ३. बार्तध्यान प्रथम गुणस्थान में उत्कृष्ट एवं छठे गुणस्थान में जधन्य होता है। ४. उसी प्रकार रौद्रध्यान प्रथम गुणस्थान में उत्कृष्ट एवं पंचम गुणस्थान में जघन्य होता है। [ ४. ] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा ५. रौद्रध्यान की सामग्री प्रमाद एवं कषायें हैं । आचार्य श्री ने अपाय विचयादि धर्मध्यान के परिभाषाओं सहित इस भेदों का कथन किया है । ६. यहां अनित्यादि बारह भावनाओं के चिन्तवन करने को संस्थान विचय धर्म ध्यान बताया है । ७. ध्यानादि के भेद से धर्मध्यान ४ प्रकार का है। ६. बुद्धिमान तथा एकान्तवास में सदा सन्तुष्ट रहने बाला आत्मा धर्म ध्यान का ध्याता होता है । ६. इसी प्रकार शुक्लध्यान आदि का बहुत सुन्दर ढंग से वर्णन करके अन्त में तप की महिमा को बसाकर साधक को तपाचार पालन करने की प्रेरणा दी है। १०. इन्द्रिय लम्पटो. शक्तिहीन जो मनुष्य तपश्चरण नहीं करते उनकी बड़े कठोर शब्दों में आलोचना की है। कोर्याधार-१ बल वीर्य आदि को प्रकट करके जो संयमाचार का पालन करते हैं वह ही वीर्याचार है। २ बल एवं वीर्य शब्दों को परिभाषा का कथन करके प्राणी संयम एवं इन्द्रिय संयम के भेद करके प्राण संयम के २७ भेदों का परिभाषाओं सहित कथन किया, अन्त में पंचाचार की महिमा बताकर उसको पालन करने की प्रेरणा दी। ३. इस प्रकार ५२६ श्लोकों में अन्तिम चार प्राचारों का विस्तृत वर्णन करके यह छठा अधिकार पूर्ण किया। की ती सातवां अधिकार THEME य १ प्राचार्य श्री ने १६६ श्लोकों में मुनियों के समाचार का वर्णन किया। मंगलाचरण करके समाचार का स्वरूप एवं प्रौधिक व पदविभागिक के भेद से समाचार के दो भेद किये हैं। २. भोषिक समाचार नाकारमादि १८ मेमों का स्वरूप पूर्वक वर्णन किया है। ३. पुन: उपसम्पत् समाचार के विनयादिक के ५ भेद का स्वरूप निर्देश किया। ४. तदनन्तर सूत्र उपसम्पत के तीन भेदों का स्वरूप घताया एवं पदविभागी समाचार का स्वरूप निर्देश किया। ५. पानम अभ्यास के लिये यदि दूसरे संघ में जाना हो तो अपने गुरू से शिष्य ३ बार, ५ बार, ७ बार पूछता है । ६. संघ से निकलना हो तो किसी मुनि को अकेला कभी नहीं निकलना चाहिये । ७. पुनः अहिता एवं हितार्थाधित विहार के इस प्रकार दो भेद किये । १. कैसे गुणों वाला मुनि एकल विहारी हो सकता है एवं कैसे माचार वाला मुनि एकल विहार न करें। ६. एकल विहार करने से ५ प्रकार की हानि व अनेक दोषों का वर्णन करके एकल विहार करने का निषेध किया है । १०. शिष्य को आगमादिक के अध्ययन हेतु कैसे संघ ( गुरुकुल ) में निवास करना चाहिये । ११. पंचम काल में एकन विहार करने का निषेध क्यों किया, इसका प्राचार्य ने अच्छे हेतुओं के द्वारा समाधान किया है। प्राचार्य श्री ने अनेक हेतुओं से एकल विहार करने का निषेध किया है। १२. पुनः प्राचार्य के गुणों का निर्देश बहुत ही सुन्दर ढंग से किया है। १३. अभ्यागत मुनि प्राचार्य संघ में आता है तो वे परस्पर में किस प्रकार वात्सल्य भाव से व्यवहारिक कर्तव्य निभाते हैं। [ ४१ ] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १४. तीन दिन तक किस प्रकार स्वाध्याय, आहार विहारादि चर्या की परीक्षा करते हैं। तीन दिन पश्चात् अरगन्तुक साधु का नाम, गुरू, दीक्षादिक का काल पूछकर फिर विधि पूर्वक श्र तादिक का पठन-पाठन का प्रादेश देते हैं । १५. अगर भागन्तुक साधु के व्रताचार शुद्ध नहीं है तो उनको शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त देते हैं अगर प्रायश्चित्त स्वीकार नहीं करता तो उसे संघ में नहीं रखते हैं । १६. इस प्रकार पाठकगण स्वयं अनुभव करेंगे कि आचार्य कितने अनुभवी एवं व्यवहार कुशल होते हैं। १७. पुनः आगन्तुक साधु किस प्रकार द्रव्यादिक की शुद्धि पूर्वक अत अभ्यास करते हैं। यदि नहीं करते हैं तो क्या हानि होती है, इसका वर्णन किया है। १८. आगन्तुक साधु को स्वगण के समान ही परगण के आचार्य से पूछकर सब कार्य करना चाहिये। १६. मुनि को अर्जिकादि स्त्रियों के साथ बात-चीत करना भी अनेक दोष उत्पन्न करने वाला है। अतः बिना प्रयोजन इनसे बातचीत नहीं करना चाहिये । २०. अकेले मुनि से अकेली आयिका प्रश्न करे तो व्रतों को शुद्धि के लिये मुनि को उत्तर नहीं देना चाहिये। २१. तरुण मुनि एवं तरुण अर्जिका बातचीत करे तो ५ प्रकार के दोष लगते हैं। २२. अजिका के आश्रम में मुनि को स्वाध्यायादि क्रिया करने का निषेध किया। उसी प्रकार अजिका को भी मुनि के आश्रम में स्वाध्यायादि क्रिया नहीं करना चाहिये । २३. आर्यिका को प्रतिक्रमण नादि करवाने वाले आचार्य के गुणों का निर्देश किया है एवं मुनियों के योग्य समाचारों को आर्यिकानों को भी पालन करना चाहिये । २४. प्रायिकाओं को वृक्ष-मूलादि योग धारण करने का निषेध किया । २५. पुनः प्रापिकाओं के विशेष समाचार का निर्देश करते हुए मायापारी लोभादि से रहित, लज्जादि गुणों सहित एक-दूसरों की परस्पर रक्षा करते हुए रहना चाहिये । २६. शरीर पर पसीने से धूल या नाकादि का मल लगा हो तो इससे कोई हानि नहीं परन्तु अपने शरीरका संस्कार तो कभी नहीं करना चाहिये । २७. उन्हें अनुप्रेक्षादि के चिन्तवनादि शुभ ध्यान में ही समय बिताना चाहिये। २८. मायिकाओं के दो तीन अथवा अधिक दस-बीस प्रायिकाओं के साथ रहना चाहिये। २६. अकेली आयिका को किसी भी समय विहार या गमन नहीं करना चाहिये। ३०. भिक्षादि के लिये भी ५-७ वृद्ध मायिकाओं के बीच में अथवा कुछ आगे-पोछे चलने की प्रेरणा दी है। ३१. आर्यिका आचार्य बन्दनादि के योग्य समय में जाती है तो आचार्य से ५ हाय, उपाध्याय से ६ हाथ, साधु से ७ हाथ दूर बैठकर गवासन से भक्तिपूर्वक नमस्कार करती है । इस प्रकार आचार्य श्री ने मुनियों के समाचार का वर्णन करते हुए सातवां अध्याय पूर्ण किया। आठवां अधिकार १. प्राचार्य श्री ने १७३ फ्लोफों में मुनियों की भावना का वर्णन किया है। २. पंच परमेष्ठी एवं सरस्वती देवी आदि को नमस्कार रूप मंगलाचरण करके मुनियों की भावना के कथन की [ ४२ ] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Edit: ... . - - - प्रतिज्ञा की है। ३. मुनियों की भावना को जो सा पूर्वक सुनते हैं वे भव्य जीव स्वर्ण के समान शुद्ध होते हैं। ४. मुनियों के लिये दस शुद्धियों का कथन किया । (१) लिग शुद्धि-१. संसार शरीर आदि का स्वरूप समझकर धनादि का मोह त्याग कर विशुद्ध जो जिन लिंग धारण करते हैं उनके लिंग शुद्धि होती है। २. जो शरीर का संस्कार नहीं करते. जिनका शरीर मल से युक्त होने पर भी जो कम मत से सदा दूर रहते हैं । ३. त्रियोगी की शुद्धता पूर्वक द्वादशांग रूपी अमृत से भरे हुए सर्वोत्कृष्ट धर्म तीर्थ का चिन्तवन करते हैं। ४. जो काम भोग से सदा विरक्त हैं एवं जिन मुद्रा के धारी हैं। ५. जो प्रमाद रहित होकर चरित्राचरण का पालन एवं दस धर्मों को धारण करते हैं। ६. इस प्रकार उपरोक्त अनेक निर्मल उपायों से अपने भुद्ध आचरणों का पालन करते उनके लिंग शुद्धि मानी गयी है । (२) व्रत शुद्धि-१. जो बुद्धिमान मुनि अष्ट प्रवचन मातृकानोंसे युक्त पंच महानतोंका पालन करते हैं उनके व्रत शुद्धि है। २. जो मुनि परिग्रह से रहित हैं फिर भी रत्नत्रय परिग्रह को धारण करते हैं। ३. मुनियों के अयोग्य बाल के अग्रभाग के करोड़वें भाग परिग्रह को भी स्वप्न में भी इच्छा नहीं करते हैं। ४. जो अत्यन्त संतोषी है। ५. सदा मौन धारण करते हैं। ६. सूर्यास्त के पश्चात् विहार नहीं करते हैं । ७. बालक के समान निर्विकार दिगम्बर शरीर को धारण करते हैं। ८. इसप्रकार जो व्रतों को निर्मल पालन करते हैं उन महामुनि के व्रत शुद्धि होती है। (३) बसतिका शुदि- १. जो धीर-वीर विशाल हृदय वाले मुनि ध्यान की सिद्धि के लिये गुफादि एकान्त स्थान में निवास करते हैं उनके वसतिका शुद्धि होती है। २. ऐसे मुनि गांव में एक दिन एवं नगर में पांच दिन रहते हैं । ३. एकल विहारी, निर्भीक वनों में निवास करते हैं। ४. शरीर से ममत्व धारण नहीं करते हैं। वववृषभनारायसंहनन को धारण करने वाले वे मुनिराज श्रेष्ठ ध्यानादि की सिद्धि के लिये सैकड़ों उपसर्ग आ जाने पर अथवा परीषहों के प्रा जाने पर भयानक जीवों से घोर दुष्कर वन में ही निवास करते हैं । ५. सिंहाविक को भी शब्दों को सुनकर रंचमात्र भी चलायमान नहीं होते हैं उन्हीं के वसतिका शुद्धि होती है । (४) बिहार शुशि-१. स्वतन्त्र विहार करनेवाले भुनिराज सूर्योदय के बाद एवं सूर्यास्त होने के पहले धर्म प्रवृत्ति के लिये ईर्यापय से गमन करते हैं। उनके उत्तम विहार शुद्धि होती है। २. जो मुनि जीवों की योनि आदि का ज्ञान करके उनकी नवकोटिसे कभी विराधना नहीं करते । ३. वे अपने हाथों में डण्डा प्रादि हिंसा के उपकरणों को कभी नहीं रखते हैं। ४. घर में काटा या तीक्ष्ण पत्थर के टुकड़े की धार से छिद जाय उसकी पीड़ा होने पर भी कभी क्लेश नहीं करते हैं। ५. मात्मा के चतुर्गति भ्रमण का निरन्तर चिन्तवन करके जो निराकुल चित्त एवं वैराग्यभाव से मागम का चिन्त [ ४३ ] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन करते हैं । ६. सुन्दर, प्रसुन्दर स्थान में विहार करते हुए स्त्रियांदिक को देखने में अन्ध, कुतीर्थों के लिये लङ्गड़े, विकथा करने के लिये मूगे, शरीर से निस्पृह एवं मुक्ति को सिद्ध करने की तीव लालसा है, ऐसे अनेक प्रकार के गुणों से युक्त मुनि के विहार शुद्धि होती है। (१) भिक्षा शुद्धि-१. शरीर की स्थितिके लिये उपवासादिक के पारण के दिन योग्य घर में नव कोटि से शुद्ध माहार भिक्षावृत्ति से लेते हैं उनके भिक्षा शुद्धि होती है। २. यथालन्ध सरस, नीरस जैसा शुद्ध आहार मिलता है उसे बिना स्वाद से ग्रहण कर लेते हैं । ३, अशुभ माहार के मिलने पर खेद खिन्न एवं शुभ साहार के मिलने पर वे सन्तुष्ट नहीं होते । अशुद्ध पाहार का दूर से ही त्याग करते हैं। ४. शुद्ध आहार लेने पर भी प्रतिक्रमण करते हैं ऐसे अनेक गुणों से युक्त मुनि के भिक्षाशुद्धि होती है। (६) मान शुद्धि-१. अभिमान से रहित कालादि शुद्धि पूर्वक एकाग्रचित्त से अङ्ग पूर्वी का पठन-पाठन करते हैं उनके ज्ञान शुद्धि होती है । २. जो मुनि अनेक प्रकार की ऋद्धियां एवं मति आदि बार ज्ञान से युक्त हैं जो सदा ! ध्यान में लीन हैं। ३. त्रियोग शुद्धि पूर्वक जो सदा समस्त प्रङ्गों को पढ़ते पढ़ाते हैं, उनका चिन्तवन करते हैं, किंचित् भी प्रसिद्धि एवं बड़प्पन की इच्छा नहीं करते ऐसे उपरोक्त कहे अनेक उपाय करते हैं उन्हीं मुनि के ज्ञान शुद्धि होती है। (७) उम्झन शद्धि-१. शरीर में प्रक्षालन आदि संस्कार भी स्त्रियों में स्नेह उत्पन्न करने बाला है, अत्यन्त अशुभ मोहरूपी शत्रु को उत्पन्न करने वाला है। इस प्रकार जो परिग्रह में किसी समय भी मोह उत्पन्न नहीं करते। उनके उज्झन शुद्धि होती है। २. शरीर के संस्कार से रहित मैकड़ों रोगों के माने पर उनके प्रतिकार रहित जो शरीर भोग एवं बन्धुवर्ग के पारमार्थिक स्वरूप को विचार कर उनमें स्नेह नहीं करते उन्हीं के उज्झन शुद्धि होती है। (८) वाक्य शुद्धि-१. जो मुनि धर्म की सिद्धि के लिये एकान्तमत से रहित अनेकान्तमयी हित-मित प्रिय वचन बोनले, उनकै बाक्यप्शुद्धि होती है। २. धर्म से विरुद्ध वचन पूछने या विना पूछे कभी नहीं बोलते 1 ३, अनेक प्रकार के अनर्थ देखते एवं सुनते हैं एव सार-प्रसार पदार्थ को जानते हैं फिर भी वे गूगे के समान बने रह कर किसी की निंदा स्तुति नहीं करते हैं । ४. पाप की खानि विकथाओं को वे मुनि कभी नहीं करते। ५. वे मुनिराज संवेग वैराग्य को उत्पन्न करने वाली महापुरुषों की श्रेष्ठ कथाओं को कहते हैं उन्हीं के वाक्य शुद्धि होती है । (e) तप शुद्धि-१. जो व्रत गुप्ति आदि से सुशोभित हैं प्रमाद रहित अपनी शक्ति के अनुसार बारह प्रकार के तपों को ज्ञानपूर्वक करते, उनकं तप शुद्धि होती है । २. शरीर से असक्त [ ४४ ] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर भी धैर्य बल को धारण करने वाले बेला, तेला. महिने दो महिने आदि के उपन्नास-को धारण करते हैं। ३. पारणे के दिन वृत्तिपरिसंख्यान तप धारण करते हैं 1 ४ नीरस आहार करते हैं। ५. शीत-उष्ण की बाधा को जीतते हैं। ६. अनेक प्रकार के योग धारण करते हैं। ७. परीषह सहने में रंचमात्र खेद नहीं करते हैं. इस प्रकार से घोर उग्र तप करते हैं. उनके तप शुद्धि होती है । (१०) ध्यान शुद्धि-१. पातं रौद्रध्यान का त्यागकर पर्वतों की गुफा में बैठकर एकाग्रचित से धर्म ध्यानादि धारण करते हैं। २. उनके कर्मरूपी वन को जलाने में ज्वाला के समान ध्यान शुद्धि होती है। ३. मन रूपो दुर्घर हाथी विषम वन में घूमता रहता है। इसको ध्यान रूपो अंकुश से वश करते हैं। ४. आचार्य श्री ने श्रेष्ठ ध्यान को एक नगर की उपमा देकर उसका सुन्दर वर्णन किया। ५. इस ध्यान रूपी नगर के स्वामी मुनि कसे बाणों से शत्रुओं को जीतते हैं। ६. कम शत्रुओं को जीतकर कैसा साम्राज्य प्राप्त करते हैं; इसका वर्णन किया। ७. आगे मुनि के श्रमण, साधु पादि नामों की सार्थकता का वर्णन किया। ८ अन्त में दस प्रकार की शुद्धियों की महिमा एवं फल को बताकर सम्पूर्ण भावनायें एवं आत्म शुद्धि की प्राप्ति की भावना की है। नवा अधिकार १. प्राचार्य श्री ने १५२ श्लोकों द्वारा समयसार नामक नौवें अध्याय का कथन किया। २. प्रथम मंगलाचरण करके समस्त ग्रन्थों ( अधिकार ) एवं चार पाराधनाओं में सारभूल यहाँ समयसार की महिमा का कथन किया। ३. जो द्रव्यादिक शुद्धि का आश्रय करके सम्यग्दर्शन ज्ञान पूर्वक जो चारित्र धारण करने का प्रयत्न करता है वह मुनि शीघ्र मोक्ष प्राप्त करता है । ४. बिता चारित्र के कोई शुद्ध नहीं हो सकता । ५. पुनः मुनि को भिक्षावृत्ति धारण करने की, जितेन्द्रिय बनने को, लोक व्यवहार से दूर रहने आदि अनेक प्रकार की शिक्षा दी है। ६. ज्ञान, ध्यान और संयम का कार्य निर्देश करते हुए इन तीनों का संयोग हो मोक्ष का कारण है ऐसा निर्देश किया। ७. पुनः व्रतादिक के लिये सम्यग्दर्शन ही मूल है । ८, मुनिको ज्ञानको अपेक्षा चारित्रको प्रधान मानने की प्रेरणा दी है। चार जिन फल्प-१. पूर्ण रूप से नग्नता धारण करना। २. वैराग्य को बढ़ाने वाला केशनींच करना। ३. संस्कारों से रहित शरीर में निर्ममता धारण करना। ४. प्रतिलेखन के लिये पोली धारण करना ये चार लिंग कल्प कहे हैं । ५. पुनः मयूर पिच्छ की पीछीके पांच गुणों का वर्णन किया है। ६. जो मुनि बिना शुद्ध किये पाहार ग्रहण कर लेता है उसको प्रायश्चित रूप पुनः दीक्षा देना चाहिये । ७. जो मुनि कीर्ति आदि के लिये मूल गुणों को भंग करता है उसके प्रभावकार आदि योग व्यर्थ है। ८. बिना शुद्ध आहार करने के अनेकों दोषों का वर्णन किया है । ६.जो अध:कम नामके दोष से दूषित पाहार करते हैं । उनके तपादिक व्यर्थ हैं। १०. जो मुनि पंच पापों से नहीं डरते एवं म [ ४५ ] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रियोंग से अन्न के पकवाने आदि की अनुमोदना में प्रवर्तते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं । ११. निर्दोष आहार प्रतिदिन कर लेना अच्छा है परन्तु मासोपवास के पारणे के दिन भी सदोष पाहार लेना अच्छा नहीं। १२. पुनः आचार्य श्री ने बाह्य एवं अभ्यन्तर जुगुप्सा का वर्णन किया । १३. जहां रागद्वेष उत्पन्न हो, व्रतों का भंग हो, ध्यान-अध्ययनादि में विघ्न उपस्थित ऐसे क्षेत्रों को मुनियों को छोड़ देना चाहिये । १४. मातम की हानि हो, दीहालो काले तिला लोगों का निवास न हो। १५. जहां स्त्री राज्य करती हो ऐसे क्षेत्रों में मुनि को कभी नहीं रहना चाहिथे । १६. मुनि को कायोत्सर्ग स्वाध्याय प्रादि के लिये भी प्रायिका के आश्रम में एक क्षण भी नहीं ठहरना चाहिये क्योंकि स्त्रियों के संसर्ग से उभय प्रकार की जुगुप्सा प्रकट होती है । १७. जो मुनि नोच पुरुषों की संगति करता है वह क्रोधादि भनेक दूषणों से युक्त हो जाता है । १६. ऐसे मुनि की सदाचारी कभी संगति नहीं करें। १९. पहले आचार्य का शिष्य न बन करके आचार्य पद धारण करने के लिये घूमला है उसे धोंघाचार्य दंभाचारी समझना चाहिये। २०. मुनि को मैं बहुत दिनों का दीक्षित हूं ऐसा अहंकार नहीं करना चाहिये। २१. ध्यान अध्ययन में लीन मुनि संवर रूपी जहाज पर चढ़कर शीघ्र संसार से पार हो जाते हैं। २२. पुनः प्राचार्य श्री ने निद्रा को राक्षसी के समान अनेक दोषों को उत्पन्न करने वाली बताकर उसे जीतने की प्रेरणा दी है। २३. मुनिराज समुद्र के समान कषाय, इन्द्रिय सुखों को फेंक (दूर ) करके एकामचित्त से प्रात्मा का ध्यान करते हैं । २४. कषायों के अभाव को ही चारित्र कहते हैं। २५. जो मुनि कषायों के वशीभूत है वह असंयमी, कुमार्गगामी और मिथ्यादृष्टि है। २६. गण मैं शिष्यादिक का मोह उत्पन्न हो जाता है अतः समाधि के समय मुनि को अपने गण में नहीं रहना चाहिये। २७. मुनिराज को अनन्त संसार को बढ़ाने वाली चार-चार अंगुल प्रमाण जिह्वा इन्द्रिय एवं कामेन्द्रिय को वैराग्य रूपी मन्त्र से कील देना चाहिये। स्त्रियों का संसर्ग चारित्र से भ्रष्ट करने वाला है । अत: मुनिराज को जिस स्त्री के हाथ-पैर कटे हुए हो और नाक, कान भी कटे हुये हो ऐसो स्त्री यदि सौ वर्ष को भी हो तो भी यतियों को दूर से ही त्याग कर देना चाहिये 1 २८. पुनः दस ब्रह्मषयं को घात करने के कारणों का निर्देश किया है। दसवां अधिकार १. आचार्य श्री ने १८७ श्लोकों में प्रत्याख्यान संस्तर नामक अधिकार का वर्णन किया। मंगलाचरण करके आचार्य श्री न भिक्षादि पड़े जाने पर सन्यास ग्रहण करने की प्रेरणा दी है। २. सन्यास ग्रहण करने वाले को प्रथम क्षमा मांगनी चाहिये एवं संबको क्षमा कर देना चाहिये । ३. स्वगरण का त्याग करके परगण में प्रवेश करना चाहिये । ४ पुनः अपने दोषों की आलोचना करके समाधि के लिये निर्यापक आचार्य बनाना चाहिये । ५. पुनः निर्यापकाचार्य आगमानुसार मृत्यु के Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावीचीभरणादि १७ भेदों का स्वरूप पूर्वक कथन करते हैं। ६. पार आराधना करने वाले को दुर्गति के कारण अणुभ मरण का त्याग करना चाहिये । ७. शिष्य के द्वारा देव दुर्गति का स्वरूप एवं उनमें जाने वाले जीवों का स्वरूप पूछने पर बहुत स्पष्ट शब्दों में वर्णन किया है । ८. कैसे प्राचरण करने वाले मुनि संसार में भटके हैं एवं कैसे आचरण बाले मुनि संसार से पार होते हैं उसका वर्णन किया । ६ निर्यापकाचार्य भपक को अनेक प्रकार से दुर्गति आदि का स्वरूप बताकर बाल-बाल मरण से विरक्त करके पंडित मरण को प्रेरणा देते हैं । १०. तदनन्तर सपक चार आराधना की शुद्धि को प्रारम्भ करता है। चार आराधना एवं क्षमादि गुणों को धारण कर काया एवं कषाय का सल्लेखना करता है। ११. समस्त गुणों का अाधार एवं सारभूत मात्मा का आप्रय लेकर समस्त दोषों की निंदा गर्दा करके ३३ आसादना को नहीं लगाने की प्रतिज्ञा करता है। १२. आचार्य भएक को उपवासादि तप के द्वारा शरीर को कुश करने की प्रेरणा देते हैं। १३. अन्नादि के त्याग का क्रम बताकर धारण करने योग्य १० प्रकार के मुण्डन के स्वरूप का वर्णन करते हैं। १४. मोक्षदायनी दीक्षा भी इन्हीं बस मुण्डन से सफल मानी जाती है । १५. क्षपक को नरकादिक दुःखों का एवं संसार के दुःखों का चितवन करना चाहिये । १६ क्षपक को प्रशस्त ध्यान की सिद्धि के लिये परमेष्ठी वाचक पदों का चितवन करने की औरणा दी है। १५. गादिक आने पर किस प्रकार चिन्तवन कर अपने मन को स्थिर रखता है इसका बहुत सुन्दर वर्णन किया है । १८. यद्यपि क्षपक निरीहवृत्ति का धारक होता है फिर भी महा लोभ के लिए उद्यम करता है । १६. एक उत्तमति, पञ्चमति के फल की याचना करता है । २०. इस प्रकार प्रात्मा का ध्यान पंच परमेष्ठी पाचक पदों का चिन्तवन एवं निर्यापकाचार्य के मुख से निकले मारभूत धर्म के अक्षरों को सुनते हुए प्रशस्त ध्यान पूर्वक प्राणों का त्याग करता है । २०. समाधि के फल का निर्देश कर असे धारण करने की प्रेरणा देते हैं । २१. अन्त में आराधना की महिमा बताकर आचार्य देव ने आराधना की प्राप्ति के लिये नमस्कार किया है। म ग्यारहवां अधिकार १. प्राचार्य श्री ने १८८ श्लोकों द्वारा शील गुण एवं दस लक्षण धर्म का निरूपण किया है । २. प्रथम मंगलाचरण किया पश्चातु ३ योग, ३ करण, ४ संज्ञा, ५ इन्द्रियां, १० प्रकार के पृथ्वीकाय जोद मौर १० प्रकारके उत्तम क्षमादि धर्म, इन सब योगादिकको परस्परमें गुणा कर देने से १५,००० भेद शील के होते हैं । ३. आचार्य श्री ने सरल सुबोध भाषा में योगादि का स्वरूप बताकर इनके त्याग से ब्रह्मचर्य होता है 1 ४. शील पालन करने वालों का एक दिन जीना अच्छा परन्तु बिना शील के सैकड़ों, करोड़ों बर्ष जीना भी व्यर्थ है। ५. तदनन्तर अनेक प्रकार से शील की महिमा बतलाकर [ ४ ] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील पालने की प्रेरणा दी है। ६. हिंसादिक के २१ भेद, अतिक्रमणादिक के ४ भेद, पृथ्वीकायादिक के १.. भेद, ब्रह्मचर्य विराधना के दस दोष, आलोचना के दस दोष इन सब हिंसादिक को परस्पर गुणा करने से मुनि के ८४ लाख उत्तरगुण होते हैं। ७. प्राचार्य श्री ने हिसादिक का स्वरूप बताकर इनके त्यागने की प्रेरणा दी है। 5. उत्तर गुणों की महिमा बताकर इनको पालने की प्रेरणा दी है। ६. दशधमं-ये मुनियों के लिये सुख के समूत्र एवं मुक्ति नगर गमन के लिये मार्ग में पाथेय हैं । उत्तम क्षमा--१. आचार्य श्री ने क्षमा का स्वरूप बताकर क्रोधादिक के निमित्त आने पर किस प्रकार का चिन्तवन कर एवं क्षमा धारण कर दुष्ट दुर्वचनादि को सहना चाहिये । २ कोई मारे तो भी मुनिराज किस प्रकार का चिन्तवन कर क्षमा धारण करते हैं । ३. मुनिराज विचार करते हैं कि मैंने पहले अनेक कष्ट सहन करके जो उपशमरूप परिणामोंका अभ्यास किया वह व्यर्थ हो ४. इसप्रकार क्रोध नहीं करने से अनेक गुण एवं क्रोध करने से हानियों का वर्णन प्रसिद्ध महापुरुषों का उदाहरण देकर किया एवं नित्य ही क्षमा धारण करने की प्रेरणा दी। उसम माध-१. ज्ञान के आठ कारणों की उत्तमता प्राप्त होने पर भी कोमल योम को धारण कर मद का त्याग करना मार्दव धर्म है। २. मार्दव धर्म की महिमा बताकर उसे पालन करने की प्रेरणा दी है। उत्तम प्रार्थव-१. सरल बुद्धि को धारण कर मन में जो कार्य जिस रूप से चिन्तयन किया, उमको उसी रूप से कहना एवं करना उत्तम मार्जव धर्म का लक्षण है। २. मन, वचन, काय की सरलता से अवती भोगभूमि के जीव स्वर्ग में एवं बिल्ली, मगरमच्छादि मायाचारी जीव दुर्गति में उत्पन्न होते हैं। ३. मायाचारी से उत्पन्न अनेक हानियों का वर्णन करके प्रार्जव धर्म धारण करने की प्रेरणा दी है। सत्य प्रम-१. सिद्धान्त को जानने वाले मुमि तत्वों के अर्थ से सुशोभित यथार्थ, सारभूत वचन, भाषा समिति का अवलम्वन लेकर कहते हैं यह सत्य धर्म का लक्षण है। शौध धर्म-१.जो मुनि इन्द्रियों के विषयों की आसक्ति त्यागकर मन में समस्त पदार्थों के प्रति निस्पृहता धारण करते हैं एवं लोभ को जीतकर शौच गुण को धारण करते हैं उन्हीं के शौच गुण होता है। २. लोभ चार प्रकार बताया है-(क) जीवित रहने का लोभ (ब) आरोग्य रहने का लोभ (ग) पञ्चेन्द्रिय का लोभ (घ) भोगोपभोग सामग्री का लोभ । इन लोभों को त्याग करने की प्रेरणा दी। संयम धर्म-१. त्रियोग की शुद्धि पूर्वक ५ इन्द्रिय, एक मन का निरोध एवं षट् काय के जीवों की विराधना नहीं करते, वही जिनेन्द्र देव कथित संयम है । २. आचार्य श्री ने उपेक्षा संयम [ ४८ ] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ए त संयम दामादे सेट पीकिये हैं एवं ३. उनके स्वरूप का कपन किया है। ४. सामायिक आदि के भेद से उत्कृष्ट संयम ५ प्रकार का है। ५. आचार्य श्री ने प्रत्येक का स्पष्ट वर्णन किया है । ६. संयम के विना तप, ध्यान एवं प्रतादिक सब व्यर्थ है। उत्तम तम-पांचों इन्द्रियों के विषयों में अपनी समस्त इच्छामों का निरोध करना तप है । उत्सम त्याग-१. त्रियोगों से दोनों प्रकार के परिग्रहों में पूछा एवं ममत्वका त्याम कर देना त्याग है। २. ज्ञान दानादिक के भेद से त्याग के चार भेय किये हैं। उत्तम प्राकिंचन धर्म-१. जो निस्पृह मुनि त्रियोग की शुद्धता पूर्वक शरीर, परिग्रह और इन्द्रियों के सुख में ममत्व का त्याग करना आकिंचन धर्म है। उत्सम ब्रह्मचर्य धर्म-१. राग-द्वेष को त्याग करने वाले जो पुरुष अपने मनरूपी नेत्रों से समस्त स्त्रियों को माता के समान देखते हैं उनके सर्वोत्कृष्ट ब्रह्मचर्य होता है । इसप्रकार आचार्य श्री ने दस धर्मों की महिमा का वर्णन करके उसको धारण करने की प्रेरणा दी है। बारहवां अधिकार १. आचार्य श्री ने २३१ श्लोकों में अनुप्रेक्षा, परीषह एवं ऋद्धियों का वर्णन किया है । प्रथम अनुप्रेक्षा के चिन्तवन करने वाले मुनिराज को नमस्कार रूप मङ्गमाचरण किया है। (१) अनिस्य भावना-१. इन्द्र चक्रवत्ति प्रादि पद क्षणभंगुर हैं । २. चंचल स्त्री सांकल के समान बन्धन में डालने वाली है। ३. कुटुम्ब विडम्बना मात्र है। ४. पुत्र जाल के समान बांधने वाले हैं। ५. घर का निवास कारागार के समान है। ६. इस प्रकार अनेक प्रकार से जगत् को अनित्यता बताफर प्रारमार्थी को रत्नत्रय धारण कर अनिस्य शरीरादि से नित्य मोक्ष को सिद्ध कर लेने की प्रेरणा दी है। (२) मशरण भावता-१. जीव को जब यम रूपी शत्रु पकड़ लेता है तब उससे बचाने वाला शरणभूत तीन लोक में कोई नहीं दिखाई देता । अतः परहन्तादिक ही शरणभूत है ऐसा जानकर उनकी शरण लेनी चाहिये । (a) संसार भावना--१. पञ्च परावर्तनका स्वरूप सरल भाषा में समझाया है । २. मिथ्यास्वादि अशुभ भावों से कर्मों का उदय झाता है। ३. उससे संसार में महान दुःखों को उठाता है। ४. इस प्रकार प्रात्मार्थी को रत्नत्रय द्वारा श्रीघ्र मोक्ष सिद्ध कर लेना चाहिये । (४) एकत्व भावना-१. जीव अकेला कर्म बन्ध करता है। अकेला ही सुख-दुःख को भोगता है। २. अनेक भोगोपभोग सामग्री से पोषित ये शरीर भी गोष के एक पेंच भी साफ नहीं [ ४६ J - - - - - - - - Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है। ३. आत्मार्थों को मोक्ष रूप एकट्य पद प्राप्त करने के लिये एकाव भावना का चितवन करना चाहिये। (x) अन्यत्व भावना-१. जहां मरने पर शरीर साक्षात् भिन्न दिखाई देता है। २. स्त्री भादि समस्त कटुम्ब वर्ग भी भिन्न ही हैं, रत्नत्रय को छोड़कर कोई पदार्थ मेरा नहीं है। इसप्रकार मात्मा को अन्तरङ्ग में ही शरीर से भिन्न समझकर घिसवन करना चाहिये । (६) अशुधि भावना-१. नरकादि गप्ति में अशुचिमय शरीर को प्राप्त करता है तथा जो भोग स्त्रियों की अपवित्र मोनि से उत्पन्न हो तो भला ये भोग अशुचिमय क्यों नहीं होंगे । अतः विरक्त पुरुषों को अपवित्र शरीर से पवित्र मोक्ष को सिद्ध करना चाहिये ।। आम ना411---1 अन अनुष्यों ने धर्म रूपी जहाज को छोड़ दिया है। २. वे निरंतरा कर्मों का पासव' करसे रहने से सैकड़ों दुःखों से भरे संसार समुद्र में सूबते हैं । (८) संवर भावना-१. कर्मों के आसय का निरोध करना ही सवर है । २. क्षमादि भावों से कषायादि दुर्भावों को रोकने का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। 18) निर्जरा भावमा-१. चारित्र रूपी गुण को धारण करनेसे तपश्चरण के द्वारा मोक्ष को देने वाली निर्जरा होती है। २. जिस प्रकार अग्नि के द्वारा स्वर्ण पाषाण युक्ति पूर्वक शुद्ध करने से शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार तप रूपी अग्नि से संघर, निर्जरा करने वाला भव्य जीव अत्यन्त शुद्ध हो जाता है। (१०) लोक भावना-१. आचार्य श्री ने लोक भावना का वर्णन करते हुए उध्वं, मध्य और अधोलोक का स्वरूप समझकर सम्यग्दर्शनादिक धारण कर शीघ्र मोह का नाश कर मोक्ष प्राप्त करने की प्रेरणा दी है। (११) बोधि संभ-१. प्राचार्य श्री ने मनुष्य जन्म, आर्य क्षेत्र उसम कुलादि प्रतेक मोक्ष पुरुषार्थ की सामग्री को दुर्लभता बताई है। २. अन्त में सबसे दुर्लभ समाधिमरण है ऐसा कथन करके रत्नत्रय को धारण कर मोक्षादि का प्राप्त करना ही बोधि का फल कहा है। (१२) धर्म भाषमा--१. धर्म की इच्छा रखने वाले को मुक्ति एवं मुक्ति को प्रदान करानेवाले धर्म को पालन करने की प्रेरणा दी है । २. आचार्य श्री ने बारह भावना की महिमा बताकर उसे सदा चिन्सवन करने की प्रेरणा दी है। परोषठ-१. मुनिराज चारित्रमार्ग अथवा भोक्ष मार्ग से ध्युत न होने के लिये सदा परीषह सहन करते हैं । २. पारार्य श्री ने संसार में भ्रमण करते हुए पराधीमसावश ओ वेदना सहन की [ ५० ] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANSE उसका चितवन करके क्षुधा, तृषा, वेदना को सहन करने की प्रेरणा दी है। ३. मुनिराज ध्यान रूपी अग्नि से शीत वेदना को जीतते हैं । ४. आचार्य श्री ने अनेक प्रकार के चिन्तबन द्वारा मुनि परीवहीं को जीतते हैं । ५. इसका बहुत ही सुन्दर हृदयबाही वर्णन किया है । ६. कौनसे कर्म के उदय से कौनकौन सा परीषह होता है एवं कौन-कौन से गुणस्थान में कितने परोषह होते हैं इसका वर्णन किया । ७. प्राचार्य श्री ने मुनि को कर्मोदय से प्राप्त परीषहों को कर्म नाश करनेके लिये ध्यानादि द्वारा सहन करने की प्रेरणा दी है। ८. परीषहजय से लाभ एवं परीषह नहीं जीतने से हानि का बड़ा मुन्दर वर्णन किया ऋद्धिया-१. सम्पूर्ण ऋद्धियां तपश्चरण की शुद्धता के प्रभाबसे प्रकट होतो है । २. तदनंतर ऋद्धियों के बुद्धि ऋद्धि आदि भाट भेद किये हैं। ३. बुद्धि ऋद्धि के १८, क्रिया ऋद्धि के २० (चारण ऋद्धि के भेद) विक्रिया ऋद्धि के ११. तप ऋद्धि के ७, बल ऋद्धि के ३, रस ऋद्धि के ६. क्षेत्रऋषि के २ इस प्रकार आचार्य श्री ने ८ ऋद्धियोंके भेदों का स्वरूप पूर्वक वर्णन किया । ४. जो मुनि त्रियोग की शुद्धता पूर्वक बिना किसी आकांक्षा के पाप रहित श्रेष्ठ तपश्चरण करते हैं उनके स्वत: ये ऋद्धियां प्रकट होता है । ५. जो मुनि दीक्षा धारण करके तपश्चरण नहीं करते उनके अनेक प्रकार के रोग होते हैं । ६. आचार्य श्री ने पुनः श्रेष्ठ तपश्चरण करने की प्रेरणा दी। ७. प्राचार्य श्री लिखते हैं हैं कि मूलाचार आदि अनेक शास्त्रों का सार लेकर मुनि के लिये इस सद ग्रन्थ की रचना को है। यह ग्रन्थ श्रेष्ठ प्राचारों को दिखाने वाला दीपक है. अत: इस ग्रन्थ का मूलाचार प्रदीप नाम सार्थक है। इसप्रकार अन्त में भी अहेन्तादिक की वन्दना करके रत्नत्रय आदि पदकी श्रेष्ठ याचना को है। इस प्रकार पाठकगण आद्योपांत इस ग्रन्थ को पढ़कर स्वयं अनुभव करेंगे कि आचार्य को भर हन्तादिकके प्रति कितना बहुमाल था कि प्रत्येक अधिकार के आदि एवं अन्त में उनके गुणों का स्मरण पूर्वक नमस्कार किया। मुनि धर्म का सांगोपांग वर्णन किया । प्रत्येक प्रकरण का हृदयगामो वर्णन करके उसकी महत्ता दर्शाकर आत्मार्थी को उसके पालन की प्रेरणा दी है। यह प्राय मुनि एवं प्रावक धोनों को ही मात्मोत्थान में सहकारी है क्योंकि मुनि एवं श्रावक दोनों एक नदो के दो किनारे हैं। एक किनारे के नष्ट होने पर नदी अपने आप में नदी नहीं रहती है। उसी प्रकार प्रावक मुनि भी एक दूसरे के पूरक हैं। मुनि के अभाव में धावक को, मोक्षमार्ग को कौन बतायेगा । श्रावकों के अभाव में मुनि की साधना में निमित्तभूल पाहारादिक क्रिया भी निर्वाध रूप से इस काल में होन संहनन के कारण नहीं हो सकती। अत: पाठकों से अनुरोध है कि पुनः पुनः इस ग्रन्धराज का स्वाध्याय कार अपनी प्रात्म परिणति को निर्मल बनावें। इत्यलम्! विशेष :---१. समयाभाव के कारण हमें इस ग्रन्थ को मूल प्रतियों की प्राप्ति नहीं होने से मूल श्लोकों का संशोधन नहीं हो सका। कई ग्लोक छूटे हुए हैं, कहीं अधूरे भी हैं । इस ग्रन्थ के [ ५१ ] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक अधिकार के अन्त में दिये गये श्लोकों के योग के अनुसार श्लोकों का योग ३२४८ ही आता है जबकि प्राचार्य स्वयं इस ग्रन्थ के अन्त में एक श्लोक के द्वारा सम्पूर्ण श्लोकों का योग ३३६५ श्लोक बताते हैं। इन पलोकों के अनुसार कुल ११७ प्रलोकों का अन्तर है। इसके विषय में अनुवादक पं. लासारामजी साहब शास्त्री ने भी कुछ निर्देश नहीं दिया है। हम भी समयाभाव के कारण इसका स्पष्टीकरण नहीं कर पाये हैं इसका हमें खद है। २. पाठक वृन्द इस ग्रन्थ का अध्ययन करते समय, प्रेस की भूल के कारण, श्लोक संख्या १०.३ से १७५० तक के ७४७ श्लोकों में जो क्रम की गलती हुई है उसे सुधार कर पढ़ने का कष्ट करें। [ ५२ ] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ঘূক্তি ॥ पृष्ठ पंक्ति प्रशुद्ध | पृष्ठ पंक्ति पर ४ ५ ऋषभदेव । वृषभसेन २७ तादीनिरिध्य कृतादीनि निलम १ २ मोर खूब वृद्धि की है और खूब वृद्धि की है | २८ १. पालामंगिनाम् ज्यालोपमागिनाम तथा मैंने भी जिसकी २६ १ धुरभाक् दुःखमा पूणा स्तुति और १ संबसाहरा सबलाहारा वृद्धि की है | २५ देखने उत्पश्च देखने से उत्पक्ष ७३ पाचारांगों को माचारों को | ३३ २४ मोक्तम्या मोक्तम्पा २ पृथ्वी कायिक जीब पृथ्वीकामिक जीव ३७ २ कोधड़ से संसार के कीचड़ से संसार के भेदको भेषको प्राणी पपाय सूब प्रानो पाए पौर ॥ ४ को कमी जाते है प्रशुभ ध्यानको ११ १७ अपने पर्यन्त अपने जीवन पर्यन्त खामि ऐसे बाह परिणहरूपी कीचड़ १३ १२ भई भुषा महंत मुना में मवश्व कुष १४ ७ तसमाद तस्मात् जाते है। १४ १७ दया पालन पया पालनो ३८-३६ २६ त्यामबहावत स्थाम महानत की १५ १७ मोर और सम्परवीन पांच भावना कसे सम्यमान सम्यरचारित्र है,परिसह त्याग २ विना बिना महावन १२सान मानि ३९ ३ ५ पाकिस्तान पांचवें पाकिस्पन १७ १३ करिव दुःसहा कचिद इस ३९ ७ के लिये सूर्य के समान के लिये समान है पाप कमी २४ १८ नृणाम् नृपाद पन्धकार को दूर २५ । घटने झूटने करने के लिये सूर्य २५ ५ पूजा हा पूजा के प्रय समान है २५ सिंद करते हैं अपना |३६ १३ द्रव्य भी १३ सिद्ध करते है प्रध्य भी सम्जनों होगों लोकों के २६ १ दांत, शुभ दात शुश स्वामी तीकर २५ २६मागमः शुद्धाय परको सिर करते है [ ५३ ] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा नोची जगह पर बैठी हो, बायक नामका पाप उत्पन्न करनेवाला वोष उत्पन्न होता है द्रव्यं अडिकाहरतालादि निंदा पृष्ठ पत्ति शुद्ध ३६ १६ नामको ४१ १३ से ४२ २६ यहाँ जा २१ काम २४ स्वरतर्यासमिति ४४ २७ जनपवाभिधम् ४५ १७ मुख्य वर्णन ४६ २४ सध्या सत्य ४८ १४ एतएष ५. १. पथा ५१ २० पुल ५२ ६ कार्यो २१ समस्त शीतता ५५ १ उद्यम १७ कारणम् ५८ २८ य यर ६० ३ यहा ५१ १५ क्षेत्र है तथा अगुव | पृष्ठ पंक्ति शुद्ध माम को ६६ १३ बैठी हो, सेर्या ६५ १५ वायक दोष उत्पन्न । कहां जा होता है काय स्पनत्वेर्यासमिति ६६ २१ दव्यं अनपपाभिरधम् ७. ११हिकाहारतानादि मुख्यमन ७१ २५ निदा सरवासत्य ७३ ३ निर्मल अतएव २१ २५.२५ गुणरत्न यमा ५३ २० लोम ८३ २८ स्पशोद कार्य ८३ २८ स्वस्थ सभसा शांतता ६५ २३ एवोदशम्म पद्गम ८६ २६ अधर्म कारणाम् १०२ २४ परमयस्ना छापरीषं च यत् १.३ २१ मत्यन्त शुभ गृहात स्था व्यक्त पौर योगिमिः अव्यक्त के भेद २७ शभेलरो भनीवर अर्थात ममुक्य वा गौड़ के १०१ १२ जसा दोभेव है इसप्रकार १०५ १६ श्लोक नं. ६५२ मूलप्रति में नहीं है सास्कृष्ट लोभ नाम का १.१ स्प षु वेगातट १७ देते हैं। लपता है यह दोष | १११ २१ विषय महापाप उत्पन्न १३३ र मोर करने वाला है। ११५ ३ निजित वारीपा साधुभ्यो निर्जन गुणरूपी रल लाम स्पशेव स्वस्य एवोदरा मषःकर्म परमपनाछोत्ररोध प्रत्यन्त प्राशुभ पौगिभिः शुभेतरी जैसा ६५३ मूल में नहीं यात्री ६२ ६२ ६४ ६४ ६६ ५ कमेत १३ भाषिक ११ लोभ बेणासाह ५ सगता है सर्वोत्कृष्ट हैं स्पषु देती है मोर मतोऽनिजित साना ६७ १२ साभ्याम् Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति शुस | पृष्ठ पंक्ति शुद्ध प्रमुख ११३ २१ मोते हैं बोला है २.३ ४ सदोषारहन्तुम सर्वदोषापरिहन्छन् ११४ २.हो जाती है हो जाता है २०३ ५-विश्वानि.मो. मगधारा छन्द में ११४ २१ मही जातने नहीं जीतने बोले ११६ १८ इन्द्रियजन्य इन्द्रियजम दाता २१६..एकद्वित्रमुहताना एकदिभिमुहूतांना १२८ २३ प्रतिमा को प्रतिमा को २१८ - सवत्रा हो समंत्रा हो १३.१७मातम उत्तम क्षमा २१६ ४ महानतसभित्था- महायतसमित्या१३३ १७ साधकानिस साधकानिश वस्वादि वश्यादि २१६ २२ तेलोक लोक १३६ २४ पुरुषार्थों को सिद्धि पुस्तायों को सिद्ध १३७५ योबिमिः योगिभिः २१६ २३ ज्ञान शानं २२२ १९ मुक में हत्वों में १३६१ कामहेतुकभय पूह में, तत्वों में कामहेतुक, भय २२३ १२ जयते जायते १४० कहलाती हैं ফরা ই २२४ २ जनतस्वपवायमः अंग तत्व पदार्थभ्यः १४४ २ सिरि भक्ति सिद्ध भक्ति २२० १० पवप्रक्षालन पाद प्रशासन १४४ ६ सिद्धयेत्य सिसत्य २२८१५ सालका प्रकाश ज्वामाका प्रकाश १४४ २१ अनस प्रतिष्ठा प्रबल प्रतिमानों की प्रतिष्ठा २३१ ८ निकोतस्य निगोब तस्य १४४ २६ भक्कि २३१ १५ नियोत निगोद १४६ ९ सिद्धान्त के जानकार बोकर के निर्वाण २३४ १४ नय बीमा भप से जीयों माचार्य के मरण २३४ १७ मुखदुखादिमोगिनः सुखदुःखादिभोमिनः १४६ १६ भक्तपः भक्तयः २३७ २१ धनादिक ध्यामादिक १४६ १३ कल्याण के कल्याण २३८ ४ बध्यते १५१ ७ मात्राय माचार्य २३८ र बघ १५२ . समाप्ति की प्रारम्भ करने २३८ १७ कारण मात्मा कारणों से प्रारमा १५८ २६ निगूोपि नियोपि. २३८ २७ तलवार से अब तक तसवार से २३६ १० महन महान् १७५ ४ रखने लिये रखने के लिये २३९ २४ तपोक्लात् ढपोजना ११७ २२ ममत्व सर्वथा ममत्व का सर्वमा २३१ २५ बद्धते बढ़ते १९१ १२ झिम भित्र भिन्न-भिन्न २४१ ८ नायका माषिका १९३ २६ प्रणिहिंसावतस्तेया प्राणिहिंसानतस्तेया | २४१ २५ कमयो महान् कर्मयो महान गुरवः [ ५५ ] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशुख सर्वतो नुनी , पुरुषों २ पृष्ठ पंक्ति शुख | पृष्ठ परिस गुट मशुद्ध २४२ ६ प्रभाव प्रमाण ३०४ २५ सबतो २४३ ७ मनुष्यगतिप्रायोग्या- मनुष्यगतिमायोग्या- ३०६ २१ अपना प्रात्मा प्रपनी पात्मा नुपूर्वी ३०४२ दुषेः सुधैः २४ २४ माचार्यते पापयंसे ३१. संयोग के संयोग के लिये २५. १२ तपश्चरण का तपश्चरम का मद ३१५ २२ मुद्गलाना पुदगलानी नहीं करते थे यही ३१५ १८ मधीन माधीन समझकर प्रसरता ] पूर्वक तपके मदको १६ ६ नीम नीम काजी छोड़ देना चाहिये ३१० १६ मारतहतक: मन्तमुहूतंक: २५३ ४ प्रास्त्रशुभम् प्राक्तीशुभम् ३१५ सक्दन्दासिगं सर्वचन्दातिग २१३ १८ सम्पन्दन महात्म्य सम्यग्दर्शन के ११९ २० बितायावीचारेण । विसकाम्यावीचारेगा माहात्म्य ३२० ६ संयोगी सयोगी २५७ १२ जान जाय आना जाय ३२५ ८ पूत्रों २६२ १६ शास्त्रों ३२५ १६ रसहारोषधाप रसाहारोपधार्थ २६८ २१ मोहायिक मोहादिक ३२६ . प्राणिसंगम प्राणी संयम २७० - गस्ति गुप्ति ३२६ २६ सम्मूछन सम्मन्छन २७० ११ सर्वथा सर्वदा ३२७ ९ अचलात्मनाम् बंधनात्मनाम् २७१ ७-८ इस संसार में एक इस संसार में एक । ३३० २२ सनिमत्रण सनिमंत्रण मनोगप्ति का परम मनोगुप्ति का ही | ३३१ ८ उपसम्पद उवसम्पद पालन करना चाहिये पालन करना चाहिये २७६ १६ निमन निर्मल ३३४ ९ काय सिद्धये कार्य सिद्धये २७८ १९ इहोजितः बहोजितः ३३६ ७ युष्मस्पद प्रसादेन युष्मत्पाद प्रसादेन २८१ २३ मममोंदर्य प्रमोदयं १४१ ८ को। वृद्धि की बुद्धि २८२ २५ गः या ३४२ १८ सचिनावित्तमिश्र सचिताचित्तमिदं २५३ ४ यतक्षः चतर १४४ ५ प्रति पादि २५६१ दश स्मकम् देशात्मकम् ३४६ २३ अवकाश मावास २८७ १३ प्राकृतिक प्राकतिका २४८ २१ ग्रहीतु गृहीतु २९३ २८ प्रतिबदनां सहाबिलम् प्रतिबन्दना ३५६ ८ गच्छवियायिनः जगच्छद्धिदायिनः सहाशिल ३६१ २४ वसतिका शुद्ध असतिका सुद्धि ३०४ ५ लोक लोम | ३६२ २० वा पहुंच जाते हैं मान पहुंचाते हैं - ३६६ ३ ३ ३३६३३६: ३ [ ५६ ] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध पृष्ठ पंक्ति शुद्ध ३६२ २८ सहिखोपकरण ३६३ ।। उद्योग ३६३ २२ निममत्वाय सर्वहिसोपकरण उद्यम निर्भमत्वाय | पृष्ठ पंक्ति शुद्ध | ३९८ २४ निर्विकल्पक ३९९ १ माक्षमार्ग २९९ २४ सगोत्थ ४००१४ चतुरगुल ४०२ : वासी ०२ १७ करता ४०५ १३ इर्या ४०.२० बनना वेला ३६४ १५ वेमा ३६४ २६ साहस्थो २६५ ४ हपाशात ३६६ १६ जा पाहार ३६७ २३ प्रसिद्ध निर्विकल्प मोक्षमार्ग संगोत्थ चतुरंगुल बालो पौर स्त्री भारता है ईया बनाना सदयस्पो समाजात जो पाहार प्रसिद्धि है अमृत के प्रों का प्रसिरि की अपाय बालो समारी ३६८ १ है पनत के ३६८ ६ पर्यों को ३६८ १३ प्रसिद्ध ३६६ १२ ऐसे ही ऐसे ३६६ १५ पात हानये ३७० २ सेवम नहीं ३७. + शुक श्रोणित ३७१ ८ पापयोजे ३७१ १३ छद्धिरूलबाह्या ३७१ १९ वयले सारं ३७७७ लिये की ३७६ ५ जिनज्ञा ३७६७ पचक्ष ऐसे पाप हानये सेवन ही णूक शोणित बन्यम् सी हप्ती ब्राषि तस्थावरा पाप बीज छुद्धिरूज्झमाह्या अमतेसारं लिये जिनाज्ञा पंचाक्ष ४.९ ३ प्रवश्य ४०९ २३ वालो ४११६ संसार ४१४ २ वर्ष ४१६ ४ इसी ४१६ १५. हंसी ४१७ २६ बाधि ४१. ५ बिसस्थावरा ४२. ३ ज्ञानाराधना ४२१ १७ पामेंगादयो भावा ४२२२ मूलने ४२३ २ प्रासादनामों का २३ १. मुनि का ४९८ १० मूल कारण ४३०३ जाने ४३४१ प्रमाद से ४६७ १६ पृथ्वप ४३८ २५ सपन के ४३९ २४ प्रतिकाए मेक ४. ७ इकाईस प्रामाराधना की शेषामंगाइयोभावा मुलेन मासादानों को मुनि को मात्र मूलकारण ३७१ २५ शत्र ३.३ २६ जानकार जानकर सकता है ३८४ २६ सकती है ३८७ १२ वह वह जाने देवा प्रासाद में বৃন্মথ सेवा के मतिकरण मेव ३८७ १३ रसवेगा रखेगा ३९८ ७ परिनतनम परिवर्तनम् इकतीस [ ५७ । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पृष्ठ पंक्ति शुद्ध प्रशुद्ध अशुद्ध प्रकुर्वते मुक्तिपूरी ४७२ ४ मोह ४७६ ३ वाले की क्षमा मोह के कारण वाले को दुर्लभ ध्यानारचलेन षष बंधन वध परिषह रत्नखानी पृष्ठ पति शुद्ध ४. १३ प्रकुषते ४४३ २६ मुक्तिपणे ४४४१८ असा ४४४ १८ रस्मस्वनी ४४७४ मत ४४६ २७ भाम ४४९ ६ शरीरबागातजसेन । ४५० १. शुभकरा ४५२ ७ बम लक्षणम् ४४२ १४ मृशुचिते ४१६ २५ मतिचार ४६१ २५ इच्छदया ४६२ ९ समादि लक्षा ४६५ ६ संकल ४६१ १४ जीवात्सचेन्द्रिमा भाक्रान्त आमम् शरीरंचागस्तंजसेन शुभेकरा धर्म लक्षणम् मृदुमिसे अतिचार का बग्छुखया अमादि लक्षण सोकल जीवात्पचेन्द्रिया ४५१ २३ ध्यानचनेन्न ४८४ १३ बध बंधन ४८४ १३ बच परिषह ४.९ १७ यव ४९० १ हसी ४९१ ५ सभिल ४६२ ५ विऋिषद्धि ४९२ १० मन्तघान ४६४ १३ प्राप्त करें ४९५ १८ रत्नों का YEE २२ तोयनाथा हसो संमिन विक्रिर्याद्ध अन्तर्धान प्रदान करें रत्नों की तीर्थनाथा । ५८ 1 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका पृष्ठ 1 Gan ८-१८ २६-२४ ३४-18 ३१.४. प्रथम प्रषिकार विषय पलोकसंख्या मङ्गलाचरण प्रतिज्ञा मूलंगुण का वर्णन महाव्रत का लक्षण पहिसा महावत ५३-१२१ सत्य महावत पचौर्य महाङ्गत १६१-१७६ ब्रह्मचर्य महावत १५०-२२६ पाकिचन्य महाप्रत २३०-२१२ प्रथम अध्याय का पसंहार २६३-२६४ दूसरा प्राधिकार मङ्गलाचरण समितिका लक्षण और भेद २६६-२६८ ईया समिति २६६-२८४ भाषा समिति २५-३४८ ऐषना समिति ऐषणा के मा प्रकार के योग ३५१-३४% ४६ दोषों का वर्णन २१६-४६४ भोजन स्वागहण करने हेतु ४६७-४८६ मुनि के ग्रहण योग्य मोजन ४५७-४८८ १४ पलों का वर्णन ४९ पाहारचर्या सम्बन्धित विशेष पन ४६५-५७) ४१-४ ५५-७२ ७१-७६ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ १४-१५ ६५-१६ ९७-100 १०४-१०७ १०७.१०६ १०९-११६ ११७-१२७ श्लोक संख्या पादान निक्षेपण समिति ५७४-५६५ प्रतिष्ठापन समिति ५६६-५६७ समितियों को महिमा ५८.६०१ तीसरा अधिकार मङ्गलाचरण प्रतिज्ञा पक्ष त्रिपका निरोध ५.४६२२ श्रोत्र इन्द्रिय का निरोध नाणेन्द्रिय का निरोष ६३७-६४५ जिह्वा इन्द्रिय का निरोष स्पर्श इन्द्रिय का निरोध ६६२-६७५ पांचों इन्द्रियों का स्वरूप ६७५-७१३ मावश्यकों का स्वरूप भौर भेव ७१४-७१५ सामायिक मावश्यक ७१६-७७९ स्तवन मावायक ७७९-८३१ वन्दना मावश्यक १२-०४५ बन्दनांतर्गल कृतिकर्म, चितिकर्म पूजाकम, विनयकम, लोकानुवृत्ति ८४९-५ विनय के मेव १५२-६५७ मोज विनय के भेद ५५६-८७१ कृतिकर्म ७२-६५३ पार्श्वस्थ मादि त्याज्य मुनियों का ९५४-९५० मुनियों की वादना कब करना चाहिये ९५१-६६५ बन्धना के बत्तीस पोष उपसंहार १०३८ चौथा अधिकार मङ्गलाचरण प्रतिषमण १०४०-१०६५ प्रत्यास्थान प्रत्यास्याम के भेद १११६-११४६ १६-१७ १३७-१३० १३८-१३४ १९९-१४२ १४२-१५४ १५५-१५९ १५६-१६१ १६१-१६७ १६९ १६६ १७७-१. १५-१६ कसमककामवाफमाकमाणकामक्षकक्षाकवाक्याक्षणापरायणकाosarorappपकमक्कमक Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AttishthamesharekkathamshutrudediaidehatisambeddedbabDA b eddasette पृष्ठ १५५-१६५ १६५-२.. २००-२३ २-३-२.४ २०६-२०७ २०७-२०१ २०६-२१ २१५-२१३ २१३-२१४ २१४-११६ २१६-१७ २१७-२२. विषय श्लोक संख्या कायोत्सर्ग पोर उसके भेद ११५.-१२११ कायोत्सर्ग के ३२दोषों के नाम १२१२-१२४६ पावश्यक की महिमा १२४७-१२६३ १३ क्रियामों में सारभूत किया १२६४-१२७. के मालोचका स्वरूप १२७१-१२८. अचेलकर का स्वरूप १२८१-१२ उपसंगार १२८९-१३०० प्रश्नान मूम्चगुण भूमिशयन मूलमुण १३१४-१३२४ मन्त पावन मूलग स्थिति भोजन मूलगुण १३३२-१६४४ एक मत मूलगुण मूलगुण की महिमा १३५१-१३७० पांचवां प्रधिकार १३७१-११७ प्रतिज्ञा १३७६-१३७७ पंचाचार के मेव १३७८-१३७६ दर्शनाचार सम्यग्दर्शन के भेष १३८१-१३९२ सच्चे देव, शास्त्र, गुरु का स्वरूप तत्वों का स्वरूप १४..-१४२९ सभ्यग्दर्शन के अंगों का वर्णन १४३०-१४६५ सम्यग्दर्शन के मलों का स्वरूप १४१६-१४८८ निमल सम्यग्दर्शन की महिमा १४-१-१६२२ छठा अधिकार मङ्गलाचरण और प्रतिज्ञा १९२१-१६२३ मानाचारका स्वरूप बम भेद १६२४-१६७९ शानापार को महिमा 1९८०-१६६६ चारित्राचार का स्वरूप चारित्राचार के भेद राषिर्या का निश्रेष १६१६-१७०४ २२१ २२१ २२३ २२२ २२२-२२४ २२४-२२५ २२५-२४३ २४३-२४६ २४८-२५१ २५२-२५६ २१७-२६४ २६६-२६७ Rpoयायकापक्काम्याक्कककककककककककककककककककककाकामकृषकक्कका Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ பக்ககக்கக்கம்பக்கடக்கக்க்க்கார்த்திக்கக்கக்கக்க்க்க்க்க்க்க்காதிங்க்கக்கல்விக்கக்கடிக்க विषय पृष्ठ २६७ २५७-२७० २५०-२५१ २७१-२७२ २७२-२५३ लोक संख्या समितिभेद गुप्ति के मेद, मनोगुप्ति का स्वरूप १७०७-१७२६ ममोमुप्ति की महिमा व फल १७२७-१५३२ पचनगुप्ति का स्वरूप १७३.३-१७४३ मोम की महिमा १७४४-१७४६ बचनगुप्ति की महिमा कायप्ति का स्वरूप १७५१-१७५७ निगुप्ति की महिमा १७५८-१७६१ मट प्रवचनमातृका का स्वरूप १७६२-१७६७ पारित्रकी महिमा १७६०-१७६१ सपाचारका स्वरूप उसके भेष १७५२-१७८७ अनशन तपका स्वरूप व उसमेव १७८८-१७९७ भनाइप की महिमा २५२५-१ भवमोदयं तप का स्वरूप १८.१.१८०४ प्रथमौदर्य तप की महिमा १८०५-१९०६ मुशिपरिसंस्थान बम का स्वरूप १७-१८०८ वृतिपरिसंख्यान तप का फल १५.१-१०१० रस परित्याग का स्वरूप १८११-१८१६ रस परित्याग का फल १८१७-१८१८ विविक्त शय्यामन तप का स्वरूप १८१९-१८२० विविक्त शय्यासन तप का फलं १८२१-१८२२ काय कमेक तप का स्वरूप १८२३-१८२४ काय कलेत तर का फल १८२५-१८२६ बाह्य तप का स्वरूप १०२७-१८३. माभ्यन्तर सप का स्वरूप १८३१-१८३२ माभ्यार तप के भेद १८३३-१९३४ प्रायश्चित तपकर स्वरूप रसके भेद १८३५-१८३७ बालोचना का स्वरूप १८३८-१८१९ मालोचना के १० दोष १८४०-14६१ प्रायश्चित्त लेने में प्रमादका मिषेष १९६२-१८६६ प्रतिक्रमणाविका स्वरूप १८७०-१९१. विनय पौर उमके भेवों का स्वरूप १९११-१९६७ २७३-२७५ २७५ २७५-२७६ २७६-२५८ २७८-२७९ २७६-२८. - २८१-२८१ २१-२२ २८२ २८२ २०२-२८३ २८३ २८३-२८४ २८४ २४ २५४ २८ २५४ २८४-२८५ २९५ २५५ २८५-२०६ २०६-२९१ २६१-२९७ २९७-३०४ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Madrasdarkstabinedakstabstrokekshekashtami t teddhnetishekasikashAstittentimate पृष्ठ ३०४-३.६ ३.६-10 कककककका ३०५ ३.९-३२१ ३२१-१२२ ३२२-३२५ ३२५-३२८ ३२८-३२६ विषय श्लोक संख्या वैवावृत्य तपका स्वरूप व उसके भेद १९६८-१९८४ स्वाध्याय तप और उसके मेव १९८५-१९९२ स्वाध्याय नप का फस १९९३-१९१७ कायोत्सर्ग का स्वरूप १६१८-१६६६ ध्यान का स्वरूप व उसका फल २०.०-२०६२ ध्यान की महिमा २०९३-२०१० तप की महिमा २.९९-२१२१ धीयांचार का स्वरूप २१२२-२१२४ पंचम भेद २१२५-२१४४ पंचाचार की महिमा व फल २१४५-२१४८ सासषा प्रषिकार मङ्गलाचरण २१४९ समाचार नोति और उसके भेद २१५२ पौषिक समाचार के भेद २१५४-२३६३ पर विभागी समाचार के लक्षण २१९४-२१६७ एकल बिहारी का निषेध २१९८-२१४१ भागन्तुक मुनि कीपरगण में कैसी प्रवृत्ति करें। २२४२-२२६९ मारिका समाचार नीति २२१-२३१४ समाचार की महिमा २३१५-२३१७ पाठयां प्राधिकार AAP कामसमभकमकाकाहाकका ३४१-३५. २५०-३५४ मङ्गलाचरण प्रतिज्ञा मुमियों की भावना का फल यस प्रकार की शुद्धिमाम लिंग गुडि का स्वरूप प्रत शुद्धिका स्वरूप बमतिका शुविकास उत्तम बिहार बुद्धि का स्वरूप मिक्षा मुखिका सम्म जान दुद्धि का सप २३१५-२३२. २३२१-२३२२ २३२३-२१२४ २५२५-२३२६ २३२७-२३३७ २३३८-२३४५ ३५७ ३५७-३५८ ३५६-३६. २३६३-२३८२ २३५३-२३६५ २३६-२४१० ३६१-३६४ ३६४-३९७ १६७-३६८ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Laduatarnaked.hdsuhsndasdahodaderbodabdhd hrukaddadeshsthsbhshobhahbadiburbtetdhdbabitbeat पृष्ठ ३६८-३७१ ३७१-३७३ ३७३-३७६ ३८०-३२१ विषय श्लोक ख्या इम शुद्धि का स्वरूप २४११-२४२८ वाक्य शुदि का रूप २४२९-२४४ तप शुद्धि का स्वरूप २४४५-२४६२ ध्यान शुद्धि का स्वरूप दशों शुद्धियों की महिमा २४३५-२४९. नया अधिकार मङ्गलाचरण २४९१ प्रतिज्ञा २४५२-२४९३ समयसार की भावना २४६४-२५१० जिन लिग के चित्र निर्देश २५११-२५२० मयूर पिच्छी के गुण २१२१-२५२२ प्रतिलेखन के गुण २५२३-२५२५ हिमा का निषेध २५२-२५३८ पष.जन्य पाहार का नि २५३६-२५४९ मुनियों का विशेष माचरण २५५०-२५५७ स्वाध्याय २५२५-२५९० निद्रा के दौर २५५१-२५९२ इयान २५६३-२६०० समाधिमरण में स्वगण का निषेष २६०१-२६०१ इन्द्रिय के वधा का निध २६०७-२६१७. ब्रह्मवयं पात के १० कारण २६१८-२६२१ अमण का स्वरूप २६२२-२६२४ वसांप्रधिकार ३८२ ३५२ ३०२-२५६ ३८६-३०६ ३५६-३८७ ३८७-३८८ ३२८-३८६ ३६९-३६१ ३६-३६७ ३६७ ३६२-३९१ ३६E-100 ४००-४०१ ४०२ मङ्गलाचरण समाधिमरण की विधि मरण के मेद और उनका स्वरूप कषाय सहलेखमा की विधि ापक का चितवन अपकीर को कैसे कृपा करें पण्डितमरण कर फल पाराबमाको महिमा २६४४-२११४ २६६५-२७१४ २७३५-२७४० २७४१-२७५४ २७५५-२०२६ २८२७-२८२८ २८२६ ४०७ ४०७-४१० ४१०-४२० ४२०-४२१ ४२१-४२३ ४२३-४३४ ४३४ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANDAuthsthanARMATHAARAAdhhh ottkDAMADhitalsketa ४३६.४३८ ४४२-४४३ ४४३-४४ ४४-४४ we ४९.४१ ४५१-४५२ ४५२-४५३ काका विषय लोक संख्या ग्यारहवां अधिकार मंगलाचरण २८३. शील का स्वरूप और उसके भेद २०३१-२५५१ उत्तर गुणों का स्वरूप और उसके भेद सील पौर गुणों की महिमा २८७९-२६५ धर्म का स्वरूप और उसके भेद २८८६-२५० उत्तम क्षमा का रूप २००९-२९१६ समा की महिमा क्रोध से हानि २६२५-२९२५ सभा धारण करने की प्रेरणा २९२६-२६३३ मार्दक धर्म का स्वरूप २६३४.२९४३ पार्जव धर्म का स्वरूप २६४४-२९५० सत्य धर्म का लक्षण और धारण करने का फल २६५१-२९५६ शौच धर्म का लक्षण २१५७-२१६३ सयम बर्मका लक्षण २९६४-२६६५ सयम पम के भेद २९६६-२९८८ तप का स्वरूप और उसके भेद २६८१-२६६. त्याग धर्म का स्वरूप पौर उसके भेष १९९१-२१२४ माकिंचन धर्म २९५६.३००५ सस्कृष्ट ब्रह्मचर्य का लक्षण ३००६-३.. धर्म की महिमा ३०१०-३०१७ बारहवां प्रधिकार मङ्गलाचरण पन्ना का स्वरूप पौर चमके अनित्य अनुप्रेक्षा का स्वरूप ३०१२-३.२६ मशरण अनुप्रेक्षा का स्वरूप ३०१०-६०३७ संसार मनुप्रेक्षा का स्वरूप ३०३७-३०४१ ४५३-४५० ४५५ ४५५ ४५५-४५० ४५८-४९ ४५६ ४६१-४६२ ४६२-४१३ ४६४-४६५ ४६५-४६६ ४६६-४६ TRUT पकमायाकमककल्याएकाकालकमकाकरवायास्मसकारतका काकाकाकाका Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ பாதுகாக்கா காக்கா சாதுக்கான ४६-४६९ ४६६-४७० ४७०-४७१ ४७१-४७३ १७३-४७४ ४७४-४७५ ४७७-४७८ ४७८-७६ ४७९ विषय प्रलोक संख्या एकत्व भावना का स्वरूप ३.५०-३०५७ मन्यता मावना का स्वरूप ३०५८-३०६२ मशुधि भावना का स्वरूप ३०६३-३०७२ प्रारम भावमा का स्वरूप ३०४३-३५ संबर ममुभेक्षा का स्वरूप ३०८६-३.९३ निर्जरा प्रेक्षा का स्वरूप ३०१४-३१०१ लोक पनुप्रेक्षा का स्वरूप ३१०२-३१०७ बोषि दुर्लभ भावना ३१.८-१९७ अनुमा को महिमा ३०१-३०२२ परोषहों का स्वरूप पोर उसके भेद ३०२५-३०२६ कैसे चिन्तबन से मुनिराज परीषहों को जीतते है ३०२७-३१७६ किस कर्म से कोनमी परीषह होती है ३१७८-३१०२ परीषट्ठों का विशेष कथन ३१८५-३२०२ ऋदियोंका स्वरूप पौर उनके मेद ३२०३-३२२७ कड़ियों की महिमा ३२२८-३२३२ अन्य की प्रामाणिकला ३२३३-३२३५ ग्रंथ के पठन-पाठन का फल ३२३६-३२३८ अन्य के लिबने लिखनाने का फल १२३९ तोहरादिक देव की स्तुति ३२४.-३२४७ शास्त्र के श्लोक संस्थाका प्रमाण ३२४८ ४७६-४ ककककककककमान Y ४८८-४९० ४९३.४९४ ४६४-४६५ ४१६ ४९६-४९८ HAMALAUttaitatunateA ddha Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 श्री वीतरागाय नमः श्री बचाव, कीत्ति विरचित -: मूलाचार प्रदीप : ( भाषा टीका सहित ) मंगलाचरण संस्कृत प्राचार्यकृत- श्रीमंत मुक्ति भर्त्तारं वृषभं वृषनायकं । धर्म-तीर्थकरं येष्ठं वंदेऽनंतगुणार्णवम् ॥३१ ॥ । भाषा टीकाकार कृत मंगलाचरण परमेष्ठी पांचों भ्रू, जिनवाणी उर लाय। मूलाचार प्रतीप की, टीका लिखू बनाय ॥ अर्थ -- जो भगवान श्री वृषभदेव स्वामी अंतरंग, बहिरंग लक्ष्मी से सुशोभित हैं, जो मुक्तिरूपी स्त्री के स्वामी हैं, धर्म के नायक हैं, धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति करने वाले हैं, इस युगके तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर हैं और अनंतगुरणों के समुद्र हैं, ऐसे भगवान् वृषभदेव की वंदना करता हूँ । आचारांग बभाषे यी, यत्नाचार मिरूपकम् । ब्रावो चतुर्थकालस्यात्राद्य, मोक्षाप्तये सताम् ।। तमादितीर्थंकर्त्तारं यमाचार्यपरायणम् । श्राचार शुद्धये स्तौमि घर्मती प्रवत्तं कम् || ३ || अर्थ —- सज्जन पुरुषों को इस भरतक्षेत्र में श्राज भी मोक्ष प्राप्त करने के लिये इस चतुर्थ कालके प्रारंभ में ही जिन्होंने मुनियों के आचरणों को निरूपण किया था तथा जो मुनियों के प्राचरण पालन करने में स्वयं तत्पर हुए थे और जिन्होंने इस युग में धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति की है, ऐसे प्रथम तीर्थंकर भगवान् वृषभदेव की मैं आचार्य ( सकलकीति ) अपने प्राचरण शुद्ध करने के लिये स्तुति करता हूं ॥२-३॥ येन प्रकाशितं लोकेऽस्मिन्नाचारांग मूजितम् । हीयमानमपि स्थास्यति, यावदंतिमं दिनम् ॥४॥ कालस्य पंचमस्यावो, तं नौम्याचारपारगम् । श्री बद्ध माननामानं मिथ्याज्ञानतमोपहम् ॥ ५॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप [ प्रथम अधिकार अर्थ-जो भगवान् वर्धमान स्वामो मिथ्याज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने के लिये सूर्यके समान हैं और जिन्होंने इस संसारमें प्रत्यंत देदीप्यमान प्राचारांग को प्रकाशित किया है तथा उन वर्धमान स्वामी का कहा हुआ जो प्राचारांग इस पंचम कालमें दिनों दिन घटता हुया भी इस पंचभकाल के अंत तक बराबर बना रहेगा ऐसे प्राचार्राग को निरूपरण करने वाले और प्राचार पालन करने में पारंगत भगवान् वर्षमान स्वामी को मैं नमस्कार करता हूं ॥४-५॥ शेषा ये तीर्थकार, प्राचारांगप्रत्तिनः। प्राचारभूषिता बंधारित्र जगत् स्वामिभिः स्तुताः ।। अजिताथा जिनापीमाः, विश्वभहितोताः । संतु से मे स्वमूत्याप्त्य, वंचिता संस्तुता मया ।। अर्थ-भगवान अजितनाथ से लेकर भगवान पार्श्वनाथ तक मध्यके तीर्थकर भी आचारांग की प्रवृत्ति करने वाले हैं, प्राचार से विभूषित हैं, तीनों लोकों के स्वामी जिनको वंदना करते हैं। स्तुति करते हैं तथा जो समस्त भव्यजीवों के हित करने में उद्यत रहते हैं और मैंने भी जिनकी वंदना और स्तुति की है, ऐसे वे तीर्थकर परमदेव अपनी अनंत चतुष्टयरूपी विभूति मुझे भी प्रदान करें ॥६-७।। विदेहे पूर्व संजे यः, प्रवत यति मुक्तये । अद्यापि भग्यजीवाला, माचारोग सुवृत्सवम् ॥८॥ तस्मै तीर्थकृते श्री सीमंधर स्वामिने नमः । लब्गुणाय जिनेन्द्राय, ह्यानन्सगुरपसिंधवे ॥६॥ अर्थ-जो भगवान् सीमंधर स्वामी पूर्व विदेह क्षेत्रमें भव्य जीवों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये आज भी निर्मल चरित्र को बतलाने वाले प्राचारांग को प्रवृत्ति कर रहे हैं, जो अनंत गुणों के समुद्र हैं और जिनेन्द्र हैं ऐसे भगवान् सीमंधर स्वामीको उनके गुण प्राप्त करने के लिये मैं नमस्कार करता हूँ ॥६॥ येऽत्राधिक सहोपद्वय सन्ति जिनाधिपाः । प्राचारत्तिनः पुसा, दिव्येन ध्वनिना भुघि ॥१०॥ प्राचारभूषणा अन्तातीताः कालत्रयोद्भवाः । वंद्याः स्तुत्याः सुरेन्द्रायस्ले ये सन्त्वस्य सिद्धये ॥ अर्थ-इस ढाई द्वीपमें भूत, भविष्यत्, वर्तमान तीनों कालों में होनेवाले जिन तीर्थकर वा सामान्य केलियों ने अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा इस संसार में भव्य जीवों के लिये प्राचारांग को प्रवृत्ति की है, जो प्राचार से विभुषित हैं और इन्द्रादिकदेव भी जिनकी वंदना और स्तुति सदा किया करते हैं, ऐसे अनंत तीर्थंकर वा सामान्य केवली भगवान मेरे इस कार्य की सिद्धि करें ॥१०-११॥ प्राचारांगोक्तमार्गमाराध्य रत्नत्रयं द्विषा। सपसाहत्य कर्माणि, घेऽनिर्धारणमद्भतम् ॥१२॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूदाचार प्रदीप [प्रथम अधिकार प्राचारफलमाप्तांस्तान्, सिद्वान् लोकाग्रवासिनः। दिव्याष्टगुणशर्माधीन, वंदेऽनतान् शिवाप्तये॥ अर्थ-जिन्होंने प्राचारांगमें कही हुई विधिके व्यवहार और निश्चय वोनों प्रकारके रत्नत्रय का पाराघन कर, तपश्चरणके द्वारा समस्त कर्मोका नाश किया है और इसप्रकार अदभत मोक्षपद प्राप्त किया है तथा जो इसप्रकार प्राचार पालन करने के फलको प्राप्त हुये हैं, जो लोक शिखरपर विराजमान हैं और दिव्य पाठ गुण रूपी कल्याणके समुद्र हैं ऐसे अनंत सिद्धों को मैं मोक्ष प्राप्त कराने के लिये पंदना करता हूं ॥१२-१३।। प्राचति स्वयं साक्षात पंचाधारं मुखाकरम् । प्राचारशास्त्रयुक्त्या ये, शिष्याणा सारयति च ॥ स्वर्गमुक्त्या दिसौख्याय, सूरयो विश्ववन्दिलाः । तेषां पादाम्बुजान नौमि, पंचाचारविशुद्धये ॥१५॥ अर्थ-जो प्राचार्य, सुखको खान हैं, ऐसे पांचों प्राचारों को स्वयं साक्षात पालन करते हैं, जो प्राचार शास्त्रों से सदा सुशोभित रहते हैं, जो शिष्यों को स्वर्गमोक्षके सुख प्राप्त कराने के लिये, उन्हीं पंचाचारों को उन शिज्योंसे सदा पालन कराते हैं और समस्त संसार जिन्हें वंदना करता है ऐसे प्राचार्य परमेष्ठी के चरण कमलों को मैं अपने पंचाचारकी विशुद्धिके लिये सदा नमस्कार करता हूं ॥१४-१५॥ आचारप्रमुखांगानि, निष्प्रमावाः पठन्ति थे। पाठन्ति विनेयानां, मानायागान हानये ॥१६॥ पाठकास्त्रिजगवंद्याः महामति विशारदाः। विश्ववीपाश्च ये तेषां, क्रमाजानंगहेतवे ।।१७।। अर्थ-जो उपाध्याय अपना ज्ञान बढ़ाने के लिये या अज्ञान को दूर करनेके लिये प्रमाद रहित होकर प्राचारांग आदि अंगों को सदा पढ़ते रहते हैं और शिष्यों को पड़ाते रहते हैं तथा जो तीनों लोकों के द्वारा वंदनीय हैं, महाबुद्धि को धारण करनेसे जो अत्यंत चतुर हैं, और जो संसारके समस्त पदार्थों का स्वरूप दिखलाने के लिये दीपक के समान हैं, ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी के घरण कमलों का मैं उन समस्त अंगों की प्राप्ति के लिये प्राश्रय लेता हूं ॥१६-१७॥ ज्ञानाचाराविस गास् त्रिकालयोगधारिणः । उग्रवीप्तमहाघोर, तपोलंकृतविग्रहाः ॥१८॥ साधयो ये त्रिलोकार्या, निष्प्रमाबाः जितेन्द्रियाः । गुहाप्रचाविकृतावासास्तेभ्यः सुसपसे नमः ।। अर्थ-जो साधु आचार आदि समस्त अंगों को जानते हैं, जो तीनों काल योग धारण करते हैं, जिनका शरीर उग्रतप, दीप्ततप, महातप और घोरतप प्रादि तपों से अलंकृत है, जो तीनों लोकोंके द्वारा पूज्य हैं, प्रमादरहित हैं, जितेन्द्रिय है और जो Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ] ( ४ ) [ प्रथम अधिकार गुफा वा पर्वतों में निवास करते हैं, उन साधु परमेष्ठियों के लिये मैं तपश्चरण की प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूं ।। १८-१६॥ प्रारंभ तुकालस्य, रचितं पेन धीमता । श्राधारांगं शिवाप्तये व वृषभसेन गणेशिना ||२०|| गुरोस्तदर्थमादाय तं सप्त विभूषितम् । चतुर्ज्ञानपरं स्तौमि, कवोन् सद्गुणाप्तये ॥२१॥ अर्थ -- जिन श्री ऋषभदेव महाचतुर गणधर ने चौथे कालके प्रारम्भ में मोक्ष प्राप्त करने कराने के लिए अपने गुरु भगवान् वृषभदेव से उस अंग का अर्थ लेकर श्राचारांग की रचना की है, तथा जो सप्त ऋद्धियों से विभूषित हैं और चारों ज्ञानों को धारण करने वाले हैं ऐसे कवियों के इन्द्र भगवान् वृषभसेन गरगधर की मैं उनके गुरणों की प्राप्ति के लिए स्तुति करता हूं ॥ २०-२१।। पदरूपेण येनाचारांगं रचितं परम् । श्राचारवृत्तयेनावारनिषेधाश्च योगिनाम् ।। २२ ।। तस्यां वर्ततेऽद्यापि स्थास्यत्यग्रं न संशयः । स्तुवेऽहं सं गणाधीशं गौतमं गुणवारिधिम् ।।२३।। अर्थ - जिन भगवान् गौतम गणधर ने मुनियों के प्राचार की प्रवृत्ति करने के लिये तथा अनाचार का निषेध करने के लिये पद रूपसे श्राचारांग को उत्कृष्ट रचना की है तथा उसी आचारांग का अंश आज भी विद्यमान है और भागे भी ग्रवश्य निःसंदेह बना रहेगा ऐसे गुणोंके समुद्र भगवान् गौतम गणधर को मैं स्तुति करता हूं ।।२२-२३ ।। शेषा पराधराः, आचारांगादि रचने क्षमाः । चतुर्झना खिलार्थज्ञा, ये महाचार मृदिताः ||२४|| मोक्षमागं प्रणेतारो महान्तो मुक्तिगामिनः । तान् सर्वान् शिरसा वंदे, तत्समस्त गुप्तये ॥ अर्थ -- बाकी के जितने गणधर हैं जो कि श्राचारांगारिक की रचना करने में समर्थ हैं; जो अपने चारों ज्ञानोंसे समस्त पदार्थों के जानकार हैं, जो महा आचारों से विभूषित हैं । मोक्षमार्ग को निरूपण करने वाले हैं, जो महापुरुष हैं और मोक्षगामी हैं, ऐसे समस्त गणधरों को मैं उन्हके समस्त गुण प्राप्त करने के लिये मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ ।। २४-२५ ।। यत्प्रसादेन मेश्रामृत्, रागवूरा महामतिः । समर्थानेकशास्त्राणां रचने शुभदाना ||२६|| सा जिनेन्द्र मुखोपन्ना भारती पूजिता स्तुता । वदिता श्री गणेशा, मया चास्तु विदे मम ॥ अर्थ - भगवान् जिनेन्द्रदेव के मुखसे उत्पन्न हुई जिस सरस्वती के प्रसाद से मेरी यह महाबुद्धि रागरहित होकर अनेक शास्त्रों की रचना करनेमें समर्थ हुई है तथा Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदोप] [प्रथम अधिकार जो शुभ देनेवाली है, पाप रहित है, गणघरदेवों ने जिसकी पूजा को है, स्तुति की है और खूब वृद्धि की है, ऐसी सरस्वती देवी मेरे शुद्ध आत्माको प्राप्ति करो ॥२६-२७॥ अंग पूर्व प्रकोर्णादीनामाचाराद्यर्थसूचकान् । त्रिजगद्दोपकान् सर्वान् तदर्थाप्रय भजेन्वहम् ॥२८॥ अर्थ-इसप्रकार अंग, पूर्व और प्रकीर्ण प्रावि में कहे हये प्राचार प्रादि के अर्थ को सूचित करनेवाले और तीनों जगत् के पदार्थों को प्रकाशित करनेवाले जितने भी महापुरुष हैं उन सबको मैं उन अंगपूर्व और प्रकोरगंक का अर्थ जानने के लिये प्रति दिन सेवा करता हूं ॥२८॥ सुधर्म सूरिजम्बू स्वामिनी केवललोचनौ। शुद्धाचारोन्धितौ नौमि, स्वाचारांगररूपको ॥२६॥ अर्थ-केवल ज्ञानरूपी नेत्रोंको धारण करनेवाले, शुद्धाचार को पालन करने थाले और अपने प्राचारांग को निरूपण करनेवाले सुधर्मा गणधर और जम्बू स्वामी को भी मैं नमस्कार करता हूं ॥२६॥ विष्णुश्च नंविमित्राख्योऽपराजितो मुनीश्वरः । गोवर्द्धनो मुमुक्षुश्च भद्रबाहर्जगन्तुतः ॥३०॥ श्रुतकेवलिनोऽत्री, पंचाचारादि देशिनः । परमाचार सम्पन्नाः, कीतिताः संतु में घिदे ।।३।। __ अर्थ-(१) विष्णु (२) नंदिमित्र (३) मुनिराज अपराजित (४) मोक्ष को इच्छा करने वाले गोवर्द्धन और समस्त संसार जिनको नमस्कार करता है ऐसे भद्रबाहु ये पांच इस पंचम कालमें श्रुतकेवली हुये हैं। ये पांचों हो श्रुतकेवली पंचाचार का उपदेश देनेवाले हैं और परमोत्कृष्ट आचार को पालन करनेवाले हैं, इसलिए मैं उनकी स्तुति करता हूं जिससे कि मुझे शुद्ध आत्माको प्राप्ति हो ॥३०-३१।। _ विशाखाचार्यमुख्या मे, सूरयो बहवो भुधि । प्राचाररांगादिशास्त्रमाः, दध स्ते मे स्तुलाः श्रुतम् ।। अर्थ- इस संसार में विशाखाचार्य को आदि लेकर और भी अनेक आचार्य हुये हैं जो कि आचारांगादि शास्त्रों के जानकार हैं; उनको मैं स्तुति करता हूं; वे सब मुझे श्रुतज्ञानको प्रदान करें ॥३२॥ कवीता शादिनो ये श्री कुदकुवावि सूरयः । तान् स्तुवे सत्कवित्वाय, स्वावारश्रुतसूचकान् । ___ अर्थ-आचार प्ररूपक श्रुतज्ञान को निरूपण करनेवाले और भी जो कविराज या वादी मुनि हुये हैं अथवा कुबकुदादिक आचार्य हुये हैं उन सबको मैं श्रेष्ठ कवित्व प्राप्त करने के लिये स्तुति करता हूं ॥३३।। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ६ ) [ प्रथम अधिकार वाह्यातप्रथमि कान् दिग्वस्त्रालंकृतान् परान् । मदीयांश्च गुरुप्रोमि, विश्वाम् गुरुगुप्तये || अर्थ - जो बाह्य और अंतरंग परिग्रहसे सर्वथा रहित हैं, जो दिशारूपो वस्त्रों से ही सुशोभित हैं अर्थात् दिगम्बर हैं और इसलिये जो उत्कृष्ट हैं ऐसे अपने समस्त गुरुओं के लिये भी मैं उनके श्रेष्ठ गुण प्राप्त करने के लिये नमस्कार करता हूं ||३४|| इति तद्विघ्नान्यै छ, मांगल्यार्थ प्रसिद्धये । स्तुता ये वंदिता ग्रंथारम्भेऽच्छ तयोगिनः ||३५|| इष्ट इष्टाप्नये संतु कुवंतु मंगलं ते ये, विश्वमांगल्य कारिणः ।। ३६ । १ अर्थ -- इसप्रकार ग्रंथके प्रारम्भ में इसकी रचना में होनेवाले विघ्नों को दूर करने के लिये तथा मंगलमय पदार्थों को प्राप्ति के लिये जिन अरहंत, शास्त्र और सुनियों की वंदना को हैं; या उनकी स्तुति की है, ऐसे वे समस्त संसार में मंगल करने वाले देव, शास्त्र, गुरु, हृष्ट या पंचपरमेष्ठी मुझे इष्ट की प्राप्ति करें । अर्थात् मेरे ग्रंथको पूर्ण करें; उसमें होने वाले विघ्नों को नष्ट करें, और मेरे लिये मंगल करें । ।। ३५-३६।। : इष्टवान् प्रणम्येति, विशायार्थान् परान् शुभान् । मूला चाराधि सग्रंथानामाचार प्रवतंये ३७ महाग्रंथं करिष्येऽहं श्री मूलाधार दोपकम् । हिताय मे यतीनां व, शुद्धाधारार्थ बेशकम् ||३८|| अर्थ - इसप्रकार मैं अपने इष्ट देवों को नमस्कार कर तथा शुभ और श्रेष्ठ अर्थों को जानकर, मूलाचार आदि श्रेष्ठ ग्रंथों में कहे हुये आचारों को प्रवृत्ति करने के लिये तथा अपना और मुनियों का हित करने के लिए, शुद्धाचार के स्वरूप का निरूपण करने वाले 'मूलाधार - प्रदीपक' नामके महाग्रंथ की मैं रचना करता हूं ॥३७-३८ ।। प्राचाशंग का वर्णन - श्राचागं पवष्टादशसहस्रपदास्थितम् । श्रुतकेवलिभिः प्रोक्तम्, हार्थगम्भीरमधिवत् ||३६|| अर्थ - आचारांग नामके श्रंग में, अठारह हजार पद हैं। वह श्रुतके वलियों के द्वारा कहा हुआ है तथा समुद्र के समान अर्थों से महा गंभीर है ॥ ३६॥ शत षोडश कोटद्यामा, चतुस्त्रिशच्च कोटयः । यशोति स्वलक्षाण्यष्टसप्तति शतान्यपि ॥ ४० भ्रष्टाशीतिश्च दर्जा, इति संख्या जिनोदिता । आगमेक्षर संख्याभिः पदेकस्य न चाग्यथा ॥ अर्थ - भगवान् जिनेन्द्रदेव ने अपने कहे हुए आगम में एक-एक पदके अक्षरों की संख्या सोलह अरब, चौंतीस करोड, तिरासी लाख सात हजार, आठ सो, अट्ठासी बतलाई है ।।४०-४१॥ 7 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] [ प्रथम अधिकार एतदंगमहाग्रंयं, समस्ताचारदीपकम् । मया प्रोक्तम् कथं शक्यं, कविना स्वल्पबुद्धिना ॥४२।। तथापि पूर्ववर्यादि, प्रणाभाजितपुण्यतः। स्तोक मारं करिष्यामि, ग्रंथमाचारसूचकम् ।।४।। अर्थ-समस्त आचारांगों को प्रकाशित करने वाले दीपक के समान यह आचारांग नामका बड़ा ग्रंथ है । यह इतना बड़ा महापंथ भला अत्यंत थोड़ी सी बुद्धि को धारण करने वाले मुझ ऐसे कविसे कैसे कहा जा सकता है ।।४२॥ तथापि पहिले के आचार्यों को प्रणाम करने से उत्पन्न हुए पुण्य के प्रभाव से आचार को सूचित करने थाले बहुत ही स्मल्म और भारत की रचना मैं करूंगा ॥४३॥ तस्यादौ ये जिनः प्रोक्ता, प्रष्टाविंशति संख्यकाः । परा मूलगुणाः साराः, भूलभूताः भुयोगिनाम् ।। गुणानां चात्र दोक्षाया, प्राचारस्य पिशवंकरान् । सान् प्रवक्ष्ये स्वशरमाहं, मर्यान् सर्वार्थसाधकान् ॥ ____ अर्थ- इस ग्रंथके प्रारंभ में भगवान जिनेन्द्रदेव के कहे हुए और श्रेष्ठ मुनियों के मूलभूत २८ मूलगुणों को कहूंगा; ये मूलगुण सर्वोत्कृष्ट हैं, मुनियों के गुण वीक्षा और आचार को मंगल करने वाले हैं और समस्त अर्थों की सिद्धि करने वाले हैं उन्हीं सबको मैं अपनी शक्ति के अनुसार कहूंमा ॥४४-४५॥ २८ मूलगुणों का संक्षिप्त में वरणनमहावतानि पंचव, परा समिसयस्तथा। पंचेन्द्रियनिरोषारच, लोचनावश्यकानि षट् ॥६॥ अचेलत्वं, ततोऽस्नानम् अराशयनमेवाह । अदन्तघर्षणं रागदूरं च स्मिति भोजनम् ॥४७॥ एकभक्त समासेनामी, सन्मूलगुणावृषः । विज्ञेयाः कर्महंतारः, शिवशर्मसुखाकराः ।।४।। पुनरेतान् प्रवक्ष्यामि, विस्तरेण पृथक पृथक् । विस्ताररुचि शिष्याणामनुग्रहायसिसये ॥४६॥ अर्थ-५ महावत, ५ समिति, ५ इंद्रियों का निरोध, ६ अावश्यक, (१) केशलोंच (२) नग्नत्व धारण करना (३) स्नान नहीं करना (४) दंत-धावन नहीं करना (५) रागरहित खड़े होकर भोजन करना (६) दिन में एकबार हो भोजन करना और (७) भूमिपर शयन करना ये संक्षेप में २८ मूलगुण हैं। ये समस्त मूलगुण कर्मों को नाश करनेवाले हैं और मोक्षके सुख तथा सिद्धों में होनेवाले समस्त गुणों को देनेवाले हैं । विद्वानों को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए ॥४६-४८॥ 'पुनरेतान प्रवक्ष्यामि' के अन्तर्गत प्रतिज्ञा-कथन । अर्थ-विस्तार के साथ समझने वाले शिष्यों का उपकार करने के लिए तथा सिद्ध अवस्था प्राप्त करने के लिए आगे हम इनका अलग-२ स्वरूप विस्तार के साथ कहते हैं ।।४६॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाचार प्रदीप ] प्रथम अधिवार । महाव्रतों को परिभाषाहिंसाया अनुतास्तेयादब्रह्मतः परिग्रहात् । फरस्नामनोवचः कार्यः, कृतकारितमानसः ॥५०॥ सर्वया विरतिर्या च क्रियते मुनिपुंगवः । महानतानि तान्यत्र, कथ्यन्ते योगिनां जिनैः ।।५१ ।। अर्थ-श्रेष्ठ मुनिराज अपने मन, बचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से जो (१) हिसा (२) झट (३) चोरी (४) कुशील और (५) परिग्रह इन ५ पापों का पूर्ण रूपसे सर्वथा त्याग कर देते हैं उनको भगवान् जिनेन्द्रदेव मुनियों के महावत कहते हैं ॥५०-५१॥ (१) अहिंसा महावत का लक्षणहवा च पपुषा वाचा, कृतेन कारितेन च। स्वानुमत्या प्रथलेन, रक्षा यात्र विधीयते ॥५२॥ मत्वात्मसदृशान् जीयान्, नवमेवैः षडंगिनाम् । मूलं सर्ववतानां स्यात् पंचमं तन्महाव्रतम् ।।५३।। अर्थ-छहों कायके समस्त जीवों को अपने आत्मा के समान समझकर मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोबना के ९ भेवों से प्रयत्न पूर्वक रक्षा करना पहला अहिंसा महावत कहलाता है । इस अहिंसा महायत को समस्त ब्रतों का मूल समझना चाहिए ।।५२-५३॥ कायेन्द्रियगुरणस्थान्त, मार्गरणाश्च कुलान्यपि । योनीश्च सर्वजीवानां, सात्वा सम्यग जिनागमे ।। तेषां विविध जन्तूना, मितिरक्षा प्रयत्नतः । कर्तव्या मुनिभिनित्यं, सर्वथा च कृतादिभिः ।।५५।। अर्थ-मुनियों को सबसे पहले जिनागम के अनुसार समस्त जीवों की काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणा, कुल और थोनियों को समझ लेना चाहिए और फिर उन अनेक प्रकारके जीवों की रक्षा सब तरहसे, बड़े प्रयत्नसे, मन-वचन-काय और कृत. कारित-अनुमोदना से करनी चाहिए ॥५४-५५।। शिलाद्रि धातुरत्नादि, खरपृथ्व्यंगिनो बहून् । स्वादि मृदुपृथ्वीकायांश्च, सूक्ष्मेतरान् सदा ।।५६।। हस्तमा गुलि काष्ठ, शलाका खर्पराविभिः । न समेत मानयेन्नय, न लिखेग्नेय लेखयेत् ११७! न भंज्यान भजयेग्नंव, न हन्यान् घातयेन च । जातु संघटयेन्नैव, पीडयेनदयासपीः ।५८1 खनंतं च लिखन्तं बा, भक्तयन्सं परं जनम् । निघ्नतं घट्टयस्तं वा, पीडयन्तं धरात्मन: ।५। नानुमन्येत योगीऽन्यार्थी प्रकारविराधना । न कार्या मुनिभिस्तेषां योगराद्यन्नताप्तये ।।६०॥ अर्थ-शिला, पर्वत, धातु, रत्न आदि में बहुतसे कठिन पृथ्वी कायिक जीव रहते हैं तथा मिट्टी आदि में बहुतसे कोमल पृथ्वी कायिक जीव रहते हैं तथा उनके भो Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] [ प्रथम अधिकार स्थल, सूक्ष्म आदि अनेक नेव हैं । इसलिए मुनिराज अपने हाथ से, पर से, उंगली से, लकड़ी से, सलाई से, या खप्पर से पृथ्वी कायिकजीव सहित पृथ्वी को न खोदते हैं। न खुदवाते हैं, न उस पर लकीरें करते हैं, न कराते हैं, न उसे तोड़ते हैं, न तुड़वाते हैं न उस पर चोट पहुंचाते हैं, न चोट पहुंचवाते हैं तथा अपने हृदयमें दया बुद्धि धारण कर न उस पृथ्वीको परस्पर रगड़ते हैं न उसको किसी प्रकार की पौड़ा देते हैं । यदि कोई अन्य भक्तपुरुष उस पृथ्वी को खोदता है या उस पर लकीरें करवाता है, उस पर चोट मारता है। रगड़ता है। या अन्य किसी प्रकारसे उन जोवों को पीड़ा पहुंचाता है तो वे योगी उसकी अनुमोदना भी नहीं करते। इसप्रकार वे मुनिराज अहिंसा महाव्रतको प्राप्त करने के लिए उन पृथ्वीकायिक जीवोंकी विराधना कभी नहीं करते ।।५६-६०11 ये पृथ्वीकायिका जीवाः, ये पृथ्वीकायमाथिताः । पृथ्वीकायसमारंभाव् ध्र वं तेषां विराधना 11 तस्मात् पृथ्वीसमारंभो, द्विविधस्त्रिबिधेन च । पावज्जोवं योग्योत्र, जिनमार्गानुचारिशाम् ॥६२।। __ अर्थ—पृथ्वौकाय का समारंभ करने से, पृथ्वीकायिक जीवों की तथा पृथ्वीकाय के आश्रय रहने वाले जीवों को विराधना अवश्य होती है। इसलिए जिनमार्ग के अनुसार चलने वाले मुनियों को अपने जीवन पर्यंत मन, वचन, काय और कृत, कारित अनुमोदना से दोनों प्रकार का पृथ्वी का समारंभ कभी नहीं करना चाहिए ॥६१-६२॥ न श्रद्दधातियोजोवान्, पृथ्वीकायगतानिमान् । समवेदीर्घसंसारी, लिंगस्थोऽप्यति दुर्मतिः ॥३॥ अर्थ-जो दुर्बुद्धि जिन लिंग धारण करके भी पृथ्वी कायमें प्राप्त हए जीवों का श्रद्धान नहीं करता है, उसे दीर्घ संसारी ही समझना चाहिये ।।६३॥ मत्वेति तत्समारंभो, जातु कार्यों न योगिभिः । स्वेन बाम्येनमुक्त्याश्य, चश्यगेहादि कारणः॥ अर्थ-यही समझकर मुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये स्वयं वा दूसरे के द्वारा जिनालय आदि बनवाकर भी पृथ्वी का समारंभ नहीं करना चाहिए ।।६४॥ जलकामिक जीवों का रक्षणस्थूलाणुबिवुमेघावश्यादिजलदेहिनाम् । न कुर्यात्कारयेत्रव, स्पर्शसंघट्टनादिकम् ।।६५।। अर्थ-मेघ वा बरफ की बूंदों में रहने वाले जलकायिक जीवों का स्पर्श व संघटन न कभी करना चाहिए और न कराना चाहिए ॥६५॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ] ( १० ) । प्रथम अधिकार अग्धां चान्यं च कुर्वन्तं, मनसा नानुमन्यते । शधांगेन यतिः शौच, पावप्रक्षालनादिभिः ॥६६॥ जीवा प्रकायिका येऽत्र, ये चाप्कार्य समाश्रिताः । अप कायांगिसमारम्भात्स्फुटं तेषां परिक्षयः ॥ तस्मावपां समारम्भो, द्विधावायकायमानसः । यावज्जीवं मनाक् योग्यो नाबाहिषधारिणाम् । अर्थ-दीदार कौन, पादपकर बादि के सदरा उन जीवों को बाधा देनेवाले अन्य पुरुषोंको मन-वचन-कायसे कभी अनुमोदना नहीं करनी चाहिये ।६६-६७। क्योंकि जलकायिक जीवोंसे भरे हुए जलका समारंभ करने से (जलको काम में लाने से) जलकायिक जीव और जल काय के आश्रय रहने वाले जीवों का नाश अवश्य ही होता है । इसलिये अरहंत के भेदको धारण करने वाले मुनियों को मन, घवन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से जीवन पर्यन्त बोनों प्रकार के जलका समारंभ कभी नहीं करना चाहिये ॥६॥ न श्रदधातियोऽनतान्, प्राणिनोपकायतामिताम् । स भवेद् दीर्घसंसारं, लिंगस्मोपि कुमार्गगः ॥ ज्ञात्वेति अल कायाना, कार्या हिंसा न जातुञ्चित् । शौचादि कारणैर्दझे, मनोवाक्काय कर्मभिः ।। अर्थ-जो मुनि अपकाय में प्राप्त हुए इन जीवों का श्रद्धान नहीं करता है, वह कुमार्गगामी बहुत्त दिन तक संसारमें परिभ्रमण करता है । इसलिये चतुर मुनियों को शौचादि कार्यों में जलकायिक जीवों की हिंसा, मन-वचन-कायसे कभी नहीं करनी चाहिये ॥६९-७०॥ (अग्निकायिक जीत्रों का रक्षण) ज्यालागाराचि शुद्धाग्यादितजः कायिकारमनाम् । शीतज्वरादिले जाते, मति कार्य न संपतः ।। अर्थ-मुनियों को शीतज्वरादि के उत्पन्न होने पर भी ज्वाला, अंगार, अग्नि की शिखा, शुद्ध अग्नि प्रादि तेजस्कायिक जीव सहित अग्नि को कभी काम में नहीं लाना चाहिये ॥७॥ विध्यापन कराई :, प्रजालम र निराधनम् । संघठनं क्वचिद्धातं, प्रच्छादनं कदर्शनम् ॥७२॥ अर्थ-मुनियों को अपने हाथ से, या अन्य किसी उपाय से न तो अग्नि को बुझाना चाहिये, न जलाना चाहिये, न उसका घात करना चाहिये ॥७२॥ अघश्योछा चतुरिक्ष, निलोऽखिलान् । भस्मसात् कुरुते जोवान्, षड्विधान् स्वोष्णनापतः ।। अर्थ-यह अग्नि अपनी उध्यता के संताप से ऊपर, नीचे चारों विदिशाओं Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ११ ) [ प्रथम अधिकार में छहों प्रकारके समस्त जीवों को भस्म कर देती है ॥७३।। तस्य घोरेऽतिपापाढ्य, नेकसत्वक्षयंकरे। ईहते न यमी स्थातु, कदापि सति कारणे ।।७४॥ अर्थ--इस अग्नि का उधोत या प्रकाश जीवों का नाश करनेवाला और पाप स्प है इसलिये मुनिराज कारण मिलने पर भी उसके प्रकाश में कमी रहने की इच्छा नहीं करते ॥७४।। क्षेपक श्लोक -( दशकालिक मथे पाचीणं पच्छिम बाचि, मुदीचि वाहिणं तहा • अधो वहवि उड्डू, च दिसासु बिदिमा मुय ।।१।। अर्थ-यही बात देशवकालिक ग्रंथमें लिखी है यह अग्नि-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर, नीचे, दिशा, विदिशा में सब जीवों को जला देती है ॥१॥ अंपक गाथा नं. २ एसो जीवोत्ति प्रक्खादा, हव्यवाहो ए संसयो । तमुस्जीवपदा बड, मसावि रण परछए ॥२॥ अर्थ-अतएव अपने मन से अग्नि के प्रकाश की कभी इच्छा नहीं करनी चाहिये ॥२॥ ये तेजस्कायिकाजीवायेऽत्र तेजोंऽगमाश्रिताः। तेज: काय समारंभाद्, मुच तेषां विहिसिनम् ॥ अर्थ-इसलिये अग्नि का समारंभ करने से तेजस्कायिक जीवों की तथा तेजस्काय के आश्रित रहने वाले जीवों को हिंसा अवश्य होती है ।।७।। तस्मात्तेज; समारंभास्वियोगद्विविधः चित् । निग्रंथ संपतानां च, यावज्जीवं हि नोचितः ।। अर्थ-इसलिये निग्रंथ मुनियों को अपने पर्यंत मन, वचन, काय से दोनों प्रकारको अग्निका समारंभ कभी नहीं करना चाहिये ॥७॥ एतान यो मन्यते नवाप्तान, तेजोऽगं च वेहिनः । मिथ्यादृष्टिः स विजयो, लिंगल्योयतिपापभाक् ।। अर्थ-जो मुनि तेजस्काय में प्राप्त हुए जीवों को नहीं मानता वह मुनि होकर भी अत्यंत पापी मिथ्यावृष्टि है ॥७७॥ ज्ञात्वेत्यग्मि समारम्भोऽनंतजीवभयंकरः। मनोगवचनांतु, न कार्यः प्रेक्षणादिभिः ॥७॥ ____ अर्थ-इसलिये अग्निके समारंभको, अनंत जीवोंके नाश करनेवाला समझकर देखने प्रादि कार्योंके लिये भी मन-वचन-कायसे उसका समारंभ नहीं करना चाहिये ।७८। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] [ प्रथम अधिकार ( वायुकायिक जीवों का रक्षण ) उरिकल्युभद्रमगुजादि, वातकायिक जन्मिनां । वधोत्पत्तिकरं वातं. कुर्याज्जातु न संयतः ॥७॥ ___ अर्थ-मुनियों को अनेक प्रकार को वायु में रहने वाले वायुकायिक जीवोंका घात करनेवाली बायु कभी उत्पन्न नहीं करनी चाहिये ।।७।। कारयेभ च वस्त्रेण, व्यजनेन करेश था। वस्त्रकोणेन पत्रेण, सति दाहे परेण वा ॥०॥ अर्थ---मुनियों को अधिक दाह होनेपर भी, वस्त्रसे, पंखेसे, हाथसे, वस्त्र के कोने से, या पत्ते से, दूसरे के द्वारा भी कभी वायु उत्पन्न नहीं कराना चाहिये ॥६॥ ये वातकायिका जीवा, वासकामं च ये श्रिताः । वातकायसमारंभात्, हिंसा तेर्षा न धान्यथा ॥ अर्थ--मास का हे दामाथिमा जीवों की या वायुकाय के आश्रित रहने वाले जीवों की हिंसा अवश्य होती है, इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है ।।१॥ तस्मातातसमारंभो, द्विधा योगत्रयरपि। जिनमार्गानुलग्नाना, यावज्जीवं न युज्यते ॥२॥ अर्थ-इसलिये जिनमार्ग में लगे हए मुनियों को अपने जीवन पर्यंत मन, वचन, कायसे दोनों प्रकार की वायुका समारंभ कभी नहीं करना चाहिये ॥२॥ न श्रदधाति योऽत्रामून, जोवान् वातांगम मिश्रितान् । संसारसागरेमग्नो, द्रव्यलिंगी स केवलम् ॥ ____ अर्थ-जो मुनि इन वातकाय के प्राश्रित रहनेवाले जीवों का श्रद्धान नहीं करता है वह संसार सागर में डूबता है; उसे केवल द्रयलिगी हो समझना चाहिये । ।।३।। मरवेति स्वशरोरादौ, वातः कार्यों न जातु चित् । वातागियष दक्ष मुलाय रुरणपीडितः ।। अर्थ-यही समझकर चतुर मुनियों को उष्णता से पीड़ित होनेपर भी वातकायिक जीवों को नाश करने वाली वायु अपने मुख आदि से भी कभी उत्पन्न नहीं करनी चाहिये ॥४॥ हरिताकुर नौजाना, पत्रपुष्पादि कागिनाम् । वनस्पतिसरीराणा, मुनिर्जातु करोति न ।।८।। कारयेन त्रिशुध्यात, छेवनं मेदनं क्वचित् । प्रपोडनं वषं वाषां, स्पर्शनं ध विराधनाम् ।।८६॥ अर्थ-मुनिराज मन-वचन-काय की शुद्धता धारण करने के कारण हरित Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( १३ ) [प्रथम अधिकार अंकुर, बीज, पत्र, पुष्प आदि के आश्रित रहने वाले वनस्पति कायिक जीचोंका छेदन, भेदन, पीडन, वध, बाधा, स्पर्श और विराधना प्रादि न तो स्वयं करते हैं और न दूसरों से कराते हैं ।।८५-८६॥ सेवालं पुष्पिकादीना, मनंतकायदेहिनाम् । विधया जातु हिसा न, गमनागमनादिभिः ॥७॥ अर्थ-मुनियोंको गमन, आगमन आदिके करने में सेवाल (काई) और पुष्पिका (फूलन अथवा बरसात में होनेवाला एक छोटा पौधा जिसके ऊपर सफेद फूलसा रहता है) आदि में रहनेवाले अनंतकाय जीवोंकी हिंसा भी कभी नहीं करनी चाहिये ॥६॥ ये वनस्पति काया ये, वनस्पश्यंगमाश्रिताः । वनस्पतिसमारंभावधस्तेषां हि वेहिनाम् ॥ अर्थ वनस्पति का समारंभ करने से, वनस्पति कायिक जीव और वनस्पति कायके आश्रित रहनेवाले जीवों की हिंसा अवश्य होती है ।।८। तस्मारोषां समारमा वा योनिक अधि। रिला नामोहन्मुद्रा स्वीकृतयोगिनाम् ।। ____ अर्थ-इसलिये अहमुद्रा या जिनलिंग को स्वीकार करने वाले मुनियों को अपने जीवन पर्यंत मन बचन कायसे उन दोनों प्रकारको वनस्पति का समारंभ नहीं करना चाहिए ॥६॥ न रोचतेऽत्रयो घतान्, जोवान् धनस्पति गतान् । जिनधर्मवाहिनं तो, मिम्यादृष्टिः स पापषी।। __अर्थ---जो मुनि वनस्पति में प्राप्त हुए इन जीवों को नहीं मानता उसे जिन धर्म से बाहर मियादृष्टि और पापी समझना चाहिये ॥६॥ विनायेति न कसंख्या, वनस्पति विराधना । हस्तपायाविभिनति, एनन्तं सरवनाशवा ॥१॥ अर्थ-यही समझकर अपने हाथ, पैर प्रावि के द्वारा अनंत जीवों का नाश करनेवाली वनस्पति की विराधमा कभी नहीं करनी चाहिये ॥६॥ स जीवों की विराधना का निषेधद्वित्रितूर्येन्द्रियाणां च, पंचाक्षाणो बसात्मनाम् । बाधानव विधातव्या, मुनिभियंत्नतत्परः ॥ अर्थ-प्रयत्न करने में तत्पर रहने वाले मुनियों को दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चतुरिद्रिय, पंचेन्द्रिय अस जीवों की बाधा कभी नहीं करनी चाहिये ॥६॥ गमने चासने स्थाने, रात्रौ वा दृष्टिगोचरे । सर्वथा च दया कार्या, मृदु पिच्छिकभरणात् ॥१३॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १४ ) [प्रथम अधिकार अर्थ-शानियों को चलने में बैठने में शय्यासन करने में रात्रि वा दिन में कोमल पीछी से वा देखकर जीवों पर सर्वथा दया करनी चाहिये ।।६।। वस कायाश्च ये ओवा वसकायं हि ये श्रिताः । बसकायसमारंभा रोषां वाधा वधोऽथवा ॥१४॥ अर्थ-प्रस कायिक जीनोंका समारंभ करने से (वस जोध विशिष्ट वस्तुओं को काम में लाने से) बस जीवों को और उस जीवोंके आश्रित रहने वाले जीवों की बाधा अथवा उनका वध अवश्य होता है ॥१४॥ तसमास व्रससमारंभी, द्विधा योगः कृतादिभिः । योग्यो न मृत्युपर्यंत, जिनवेधतात्मनाम् ।।६।। अर्थ- इसलिये जिनलिंग धारण करनेवाले मुनियों को अपने जीवन पर्यंत मन-वचन-काय और कृत, कारिस, अनुमोदनासे दोनों प्रकारके त्रस जीवों का समारंभ कभी नहीं करना चाहिये ।।५।। म मन्यतेगिनोऽवतान, यस्त्रसत्वगतान् बहन् । लिंगस्थोऽपि स पापात्मा, भ्रमेद घोरां भवायोम् ।। अर्थ-जो मुनि अस पर्याय को प्राप्त हुए अनेक प्रकार के जीवों को नहीं मानता है। वह पापी, जिन लिग धारण करता हुआ भी संसाररूपी घोर वन में परिभ्रमरण करता है ॥६६॥ बिचित्येति प्रयत्नेन, दयात्रसांगिनां सदा । अनुष्ठेया न बाधा, चात्राप्रमोस्तपोधनः ।।६।। अर्थ-इसप्रकार प्रमाद का त्याग करनेवाले मुनियों को प्रयत्न पूर्वक त्रस जीवों को दया पालना चाहिये तथा उनकी बाधा कभी नहीं करना चाहिये ।।१७।। त्रिशुचयनिशं योऽश्र, रक्षां कुत्थिडगिनाम् । अप्रमत्तो भवेस्, नस्याच सम्पूर्णमहावसम् ।। ___ अर्थ-यही समझकर जो मुनि अप्रमत्त होकर तथा मन, वचन, कायकी शुद्धता पूर्वक छहों प्रकार के जीवों की रक्षाके लिये पूर्ण प्रयत्न करता है उसके पहला अहिंसा महावत पलला है ।। महाव्रती की शोभासर्वजीयकृपाकांत, मना योऽहिल देहिनाम् । यस्नाचारी सुरक्षाम, महावतोस नापरः ॥६॥ अर्थ-जो मुनि अपने मन में समस्त जोधों की दया धारण कर, समस्त जोड़ों की रक्षाके लिये पूर्ण प्रयत्न करता है। उसे ही महावती समझना चाहिये। उसके Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाचार प्रदीप [ प्रथम अधिकार सिवाय, अन्य कोई महावती नहीं हो सकता ॥६६॥ यतो जीवे मृते वा न, कर्मबंधः पदे पदे । प्रयत्नवारिणा नूनं, व्रतभंगोऽशुभा गतिः ॥१०॥ ___ अर्थ-इसका भी कारण यह है कि जो मुनि यत्नाचारका पालन नहीं करता उससे जोब मरे या न मरे; फिर भी उसके क्षण क्षरणमें कर्मों का बंध होता ही है। इसके सिवाय, उनके वतों का भंग होता है और उससे अशुभ गति की प्राप्ति होती है ॥१०॥ वञ्चिन्मलेप्यहो जीवोयत्नानारिमुनीशिताम् । न बंध कर्मणां कितु, शुद्धिः स्थाद्योगयुद्धितः ।। अर्थ-जो मुनि, अपनी प्रवृत्ति यत्नाचार पूर्वक करते हैं उनसे यदि कोई जीच मर भी जाय; तो भी उनके कर्मोका बंध नहीं होता तथा उनके मन-वचन-काय की शुद्धि होने से उनके प्रात्माको शुद्धि और बढ़ जाती है ॥१०१॥ तस्माद् व्रताथिनो रक्षा , यत्नं कुर्वन्तु सर्वथा । सर्वजीच दयासिद्धर्थ, विशुध्या सवताय च ।। ___ अर्थ---इसलिये अपने बतों की रक्षा को इच्छा करने वाले चतुर मुनियोंको मन-वचन-कायकी शुद्धता पूर्वक अपने श्रेष्ठ व्रतोंकी रक्षाके लिये और समस्त जीवोंको दया पालन करने के लिये पूर्ण प्रयत्न करना चाहिये ।।१०२॥ अहिमा का गौरव अहिंसा जननी प्रोक्ता, सर्वेषां च व्रतात्मनाम् । वग्ज्ञानवृत्तरत्नाना, खनी विश्व हितकरा ।१०३। अर्थ- भगवान जिनेन्द्रदेव ने इस अहिंसा को समस्त व्रतों को मासा बतताई है और समस्त रत्नत्रयको खान बतलाई है तथा समस्त जीवों का हिल करने वाली बत्तलाई है ॥१०३।। सूत्राशरेण तिष्ठति, बाम हारावयो यथा । कुपाधारेण सर्वे च योगिनां सदगुरणास्तथा ॥१४॥ अर्थ-जिसप्रकार सूतकी गांठसे बनने वाले हार सूत के ही प्राधार से ठहर सकते हैं उसी प्रकार मुनियों के समस्त सद्गुण जीवोंको कृपा के आधार से हो ठहरते हैं ॥१०४॥ शेषव्रतसमित्यावोन, अवन्ति श्री जिनाधिपाः । प्रायवतपिशुध्यर्थ, केवलं च तपः क्रिया ।१०।। अर्थ-- इस अहिंसा महावत के अतिरिक्त जितने भी प्रत, समिति और तपरचरण प्रावि हैं वे सब केवल एक इसी अहिंसा महाव्रतको विशुद्धिके लिये ही भगवान् Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ] [प्रथम अधिकार जिनेन्द्रदेव ने कहे हैं ॥१०५।। विना लेन वतेनास्मात्, सर्वाशेषततवनम् । व्ययं स्याच्च तपो पोरं, यतीनांतुष खंडनम् ॥१०॥ । अर्थ--इस अहिंसा महाव्रत के बिना, बाकी के जितने व्रतों का समुदाय है अथवा जितना भी मुनियों का घोर तपश्चरण है वह सब व्यर्थ है; भूसीको कूटने के समान असार है ॥१०॥ दयापूर्वमनुष्ठान, तपो योगादिभिः कृतम् । भवेन्मोक्षतरोनीज, सतां विधिकारणम् ।।१०।। अर्थ-यदि तपश्चरण, योग प्रादि के द्वारा किया हुअा अनुष्ठान, क्या पूर्वक किया जाता है तो वह सज्जनों को मोक्षरूपी वृक्षका बीज माना जाता है तथा समस्त ऋद्धियों का कारण बन जाता हैं ।।१०७॥ कृत्स्नसत्त्वकृपाक्रांतं, यस्यासौम्मानसं शुभं । सिद्ध समोहितं तस्य, संवरो निर्जरा शिवम् ।। अर्थ-जिस मुनि का शुभ हरय समस्त जीवों की कृपासे भरा हुआ है उसके संबर, निर्जरा और मोक्ष आदि समस्त इष्ट पदार्थ सिद्ध हो जाते हैं ॥१०॥ क्रियते स्वगृहत्यागो, दीक्षा च गृह्यते बुधः । केवलं करुणासिष्य, तां बिना तो निरर्थको ।। ___ अर्थ-बुद्धिमान् लोग जो अपने घरका त्याग करते हैं और दीक्षा ग्रहण करते हैं वह केवल दया की सिद्धि के लिये ही करते हैं। यदि दया नहीं है तो घरका त्याग और दीक्षा दोनों ही व्यर्थ हैं ॥१०॥ विज्ञायेति विषायोच्चैः, सर्व जीव कदम्बकम् । समानं स्वात्मनश्चिशे, रक्षणीयं प्रयत्नतः ।। अर्थ--यही समझकर तथा समस्त जीवों के समूह को अपने हृदय में, अपनी प्रात्मा के समान मानकर, बड़े प्रयत्न के साथ अच्छी तरह उनकी रक्षा करनी चाहिये ॥११॥ गमनागमनोत्सर्ग, प्रावटकार्लेगि संकुले । अहोरात्रे यतीन्द्रश्नादान निक्षेपणाविना ॥१११।। ये यरनचारिलोऽत्रा हो पालयंति बनोसमम् । तेषां सर्व तान्येव, यांति सम्पूर्णतां लघु ॥११२॥ अर्थ-वर्षाकाल में बहुतसे जीवों का समुदाय उत्पन्न हो जाता है। इसीलिये मुनिराज उन दिनों में गमन, आगमन का त्याग कर देते हैं । उन दिनोंमें जो मुनिराज रात दिन के किसी पदार्थ के ग्रहण करने या रखने प्रादि के द्वारा, यत्नाचार पूर्वक Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाचार प्रदीप] [प्रथम अधिकार इस अहिंसा महानत रूपी उत्तम बलको पालन करते हैं। उनके अन्य समस्त वृत बहुत ही शीघ्र पूर्ण हो जाते हैं ॥११५.११२॥ यदि कश्चिदहो दस्ते, मत्यर्थ कस्यचिन्महीम् । सा रत्नादिपूर्णा स, तथापीच्छति नो मृतिम् ।। प्रतो विश्वांगिनां लोकेऽभयवानात्परं न च । विद्यते परमं वान, वृषा दानं दयां विना ।।११४॥ अर्थ- यदि किसीसे यह कहा जाय कि हम तुझे समस्त रत्नोंसे परिपूर्ण इस समस्त पृथ्वीको देते हैं। इसके बदले तू मर जा, परन्तु इतने पर भी कोई मरने की इच्छा नहीं करता, इसलिये कहना चाहिये कि इस संसार में समस्त जीवोंको अभयदान से बढ़कर और कोई दान नहीं है। यह अभयदान सबसे उत्कृष्ट दान है । दयाके विना, अन्य वान सब व्यर्थ है ।।११३-११४॥ हिंसव पंम्र पापानां, परं पापं निगद्यते । विश्वदुःलाकरी भूता, श्वभ्रद्वारि प्रतालिका ।।११।। ___ अर्थ-पांचों पापोंमें यह हिंसा ही सबसे बड़ा पाप कहा जाता है । यह हिंसा समस्त दुःखोंकी खान है और नरक के द्वार की गली है ॥११५॥ ये धिददुः सहा रोगाः, सर्वदुःखविधामिनः । तेऽखिला निर्वयानां भ, आयंतेत्राषयोऽशुभात् ।। अर्थ-इस संसार में समस्त दुःखों को देने वाले जितने भी कठिन रोग हैं वे सब निर्दयी जीवोंके ही होते हैं तथा इसी निर्दयता के पाप से मानसिक व्याधियां भी होती हैं ॥११६।। दुर्गति जीवधातेन, सद्गति जीव रक्षणात् । देहिनां च विदित्वेति, यविष्टं सत्यमाचरः ।।११७॥ अर्थ-इस संसार में जीवों को जीवों का घात करने से दुर्गति प्राप्त होती है तथा जीयों की रक्षा करने से उत्तम गति प्राप्त होती है । यही समझकर हे जीव, जो तुझे अच्छा लगे सो कर ॥११७।। अहिंसा महाबत की ५ भावना-- एषणा समिति श्चित्तगुप्तीर्या समिती परे। तर्थवादाननिक्षेपणा, ख्यासमिति सत्तमा १११८॥ दशासोफितपानादि, भोजनं पंचभावनाः । इत्यार्या भाषयत्वाध, व्रतस्थार्थमन्वहम् ।।११।। अर्थ-(१) एषरणासमिति (२) मनोगुप्ति (३) ईर्यासमिति (४) आदाननिक्षेपणसमिति (५) आलोकिस पान भोजन । ये पांच इस हिसावत की भावना हैं ॥१८॥ इस अहिंसा महावत को स्थिर रखने के लिये मुनियों को प्रतिदिन इन भावनाओं का चितवन करना चाहिये ॥११॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . मूलाचार प्रदीप] [प्रथम अधिकार भावितं भावनाभिश्च, प्रथम सारं महाबलं । प्रारोहति परां कोटिं, शुद्धि मुक्तिकरं सताम् ।। अर्थ-सज्जनोंको मोक्ष प्रदान करनेवाली और सारभूत यह अहिंसा महावत इन भावनाओं के चितवन करने से सर्वोत्तम शुद्धता को प्राप्त होता है ।।१२०॥ अहिंसा व्रतकी सार्थकता उपसंहार रूप में-- असमगुण निधानं, स्वर्गमोक्षकहेतुम् । अतसकलसुमूलं, तीर्थनानिषेव्यम् । अभयकरमपापं, सर्वपस्नेन वक्षाः, भजत शिवसुखापत्य, ह्यादिम सव्रतं भो ॥१२१।। अर्थ-यह अहिंसा महानत, सर्वोत्तम गुणों का निधान है; स्वर्ग मोक्ष का कारण है, समस्त पत्तों का मूल है, भगवान् तीर्थकर परमदेव के द्वारा भी सेवन करने योग्य है तथा समस्त जीवों को अभय देनेवाला है और पापों से सर्वथा रहित है । इसलिये हे चतुर पुरुषों ! मोक्ष सुख प्राप्त करने के लिये, सब तरह के प्रयत्न कर इस महावत का पालन करो ॥१२१।। द्वितीय सत्य महाबल का वर्णनसध्य हितं मितं सारं, जिनसूत्रानुगं शुभम् । निष्पापं करणाकांत, पूयते यन्मुनीश्वरे ॥१२२॥ धर्मशानोपरेशाय, राग षादिरगम् । वचनं श्री जिनैः प्रोक्तं, तद्वितीय महावतम् ।।१२३।। अर्थ-मुनिराज जो धर्म और ज्ञानके उपदेश के लिये रागद्वष रहित, यथार्थ हित करने वाले परिमित सारभूत, जिन शास्त्रों के अनुसार शुभ, पाप रहित, और करुणा से भरे हुए जो वचन कहते हैं उसको भगवान् जिनेन्द्रदेव दूसरा सत्य महावत कहते हैं ।।१२२-१२३॥ बचः सस्यमसत्यं छो, भयं ह्यनुभयं परम् । चतुर्षेति गणाधोशे, रुषतं वचन मंजसा ॥१२॥ अर्थ-भगवान् गणधर देवों ने वचन के चार भेद बतलाये हैं-(१) सत्यवचन (२) असत्यवचन (३) उभयवचन और (४) अनुभयवचन ॥१२४।। असत्योभयनामात्र, द्विधा वाक्यं शुभालिगम् । सर्वपापकर स्याज्यं, दूरती वृतकामिभिः ॥१२५।। अर्थ- इनमें से (१) असत्य और (२) उभय दोनों प्रकार के वचन अशुभ हैं और समस्त पापों के करने वाले हैं इसलिये वृत धारण करने को इच्छा करनेवालों को इन दोनों को दूर से ही त्याग देना चाहिये ।।१२५।।। सत्यानुभयसवाणी, जगच्छर्म विधायिनी । निष्पापा धर्मदा चाच्या, सारा धर्माय योगिभिः ।। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] [प्रथम अधिकार अर्थ-सत्य और अनुभय वचन संसार का कल्याण करनेवाले हैं। पापरहित हैं, धर्मकी वृद्धि करनेवाले हैं। कहने योग्य हैं और सारभूत हैं इसलिये मुनियों को ये हो दो प्रकार के वचन कहने चाहिये ।। १२६।।। प्रियं हितं वच, किंचित्परं किंचिद्धिताप्रियं । अप्रिया हतमेवान्यच्चतुति वचो नरणाम् ।।१२७।1 अर्थ--कोई वचन प्रिय होकर भी हित करने वाले होते हैं। कोई हित करनेवाले होकर भी अप्रिय होते हैं तथा कोई प्रिय भी नहीं होते और हित करनेवाले भी नहीं होते, इन तीनों के अतिरिक्त जो वचन हैं वे सब चौथे भेद में शामिल हैं। ॥१२७।। अप्रियाहितमेकं, स्थान्ययोः पापदुःखदम् । यत्नेन परिहर्तव्यं, संयतथसिद्धये ॥१२॥ अर्थ- इनमें से अप्रिय और अहित करने वाले वचन अपने और दूसरे दोनों को दुःख देने वाले तथा पाप उत्पन्न करने वाले हैं इसलिये मुनियों को धर्मकी सिद्धिके लिये ऐसे वचन बोलने का प्रयत्न पूर्वक त्याग कर देना चाहिये ।।१२८॥ क्वचिद् धर्मयशाद ग्राह्य', हिताप्रियं महात्मभिः । वचनं धर्मसिध्यमं, विपाके केवलं हितम् ।। अर्थ- महात्मा लोग कभी-२ धर्म के निमित्तसे होने वाले हितकारी किन्तु अप्रिय वचनों को धर्मको सिद्धि करने वाले और ग्रहण करने योग्य समझते हैं क्योंकि ऐसे वचनों का अंतिम फल आत्मा का हित ही होता है ॥१२६॥ हितं प्रियं च वक्तव्यं, यत्रः सर्वार्थसिद्धये । प्रस्पष्ट निर्मलं दक्ष धर्मोपदेशनाय च ॥१३॥ अर्थ-चतुर पुरुषों को समस्त पदार्थों को सिद्धि के लिये और धर्म का उपदेश देनेके लिये निर्मल और स्पष्ट ऐसे हितकारी प्रिय वचन हो कहने चाहिये ॥१३०॥ चौरस्य चौर एवायं, ह्यषस्यांगोत्र पापिनः । पापी बंडस्य शो, रंडाया रडेति दुर्वषः ॥१३॥ अर्थ-चोर को चोर कहना, अंधे को बंधा कहमा, पापो को पापो कहना, नसक को नपुसक कहना और रांड को रांड कहना, "दुर्वचन' कहलाते हैं ॥१३१॥ सत्यं चापि न वक्तव्यं, परं शोधाविकाररणम् । निष्ठुरं मनुकं निध', यत्रा पीडाकरं नृणाम् ।। अर्थ-यधपि ये वचन सत्य हैं। तथापि दूसरों को क्रोध उत्पन्न करने वाले हैं, इसलिये ऐसे वचन कभी नहीं कहने चाहिये। इनके अतिरिक्त कठोर, कडवे, निदनीय और मनुष्योंको दुःख उत्पन्न करनेवाले वचन भी कभी नहीं कहने चाहिये ॥१३२॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २० ) [प्रथम अधिकार वचसा येन जाधेत, बाधा पौडा छ देहिनाम् । तत्सत्यमपि लोकेऽस्मिन् न सत्यं गवितं बुधैः ।। अर्थ-जिन वचनों से जीवों को पीडा या बाधा पहुंचती हो, ऐसे वचन यद्यपि सत्य हों तथापि बुद्धिमान लोग इस संसार में ऐसे वचनों को 'सत्य' कभी नहीं कहते ॥१३३॥ असत्यमपि सत्यं स्यात्, परार्थन शुभप्रदम् । जीवरक्षा हिलाद्यर्थ, वचो व तं वचिद् बुधैः ।। अर्थ-बुद्धिमान् मनुष्यों को जीवोंकी रक्षा और किसी प्रात्माका हित करने के लिये कभी कभी 'असत्य वचन' भी कहने पड़ते हैं। परन्तु ऐसे असत्य वचन दूसरे का कल्याण करने के कारण सत्य और शुभप्रद या कल्याण करने वाले ही माने जाते है ॥१३४॥ मेन संतप्यते लोकः, क्रोषलोभादयोऽखिलाः । वषबंधाग्यपीटाधाः, स्मरादीन्द्रिय विद्विषः ।। जायन्ते बोत्कटा: पुसा, जातु वाक्यं न तद्वषः । रागषमवोन्मादः, प्राररानाशेऽपि संयतः ।। अर्थ-जिन वचनों से लोगों को संताप हो; क्रोध, लोभादि विकार उत्पन्न हो; वध, बंध या दूसरों को पीड़ा हो; काम आवि इंद्रियों के विकार उत्पन्न हो; तीव्रता बढ़ जाय ऐसे राग, द्वेष, मद और उन्माद से उत्पन्न होने वाले बचन कभी नहीं कहने चाहिये । मुनियों को अपने प्रारण नष्ट होने पर भी ऐसे वचन कभी नहीं कहने चाहिये ॥१३५-१३६।। स्थिरं जायेस बराम्यं, बद्धन्ते सद्गुणाः सताम् । विलीयन्ते च रागाधाः, साम्यन्त्यत्र स्मरादयः।। बुर्ध्यानानि च येनाशु, शुभो भावोऽस्ति धोधनः । वक्तव्यं तद्वचो मिष्टं, धर्मतत्त्वादिदर्शकम् ।। ___अर्थ-जिन वचनों से वैराग्य की स्थिरता हो; सज्जनों के गुण वृद्धि को प्राप्त होते रहें; राग, द्वेष नष्ट हो जाय, कामाधिक विकार तथा प्रारी, रौद्र, ध्यान नष्ट हो जाय तथा जिन वचनों से शुभ भाव प्रगट हो जाय, जो वचन मिष्ट हों और धर्म या तत्वों का उपदेश देने वाले हों; ऐसे ही वचन, बुद्धिमानों को बोलने चाहिये ॥१३७-१३॥ उक्तनान्येनमेऽन्येषां, शुभं किंवाऽशुभं भवेत् । यशोऽथवाऽअयशः स्वास्थ्य, श्रेयोश्रेयोच संप्रति ।। पूर्व वित्त विचार्यति, पश्चाद्ववंतु योगिन । शश्वद्धर्मोपदेशाय, स्वांग मानिवितं वचः ।।१४०।। ___ अर्थ-मुनियों को बोलने के पहले यह विचार कर लेना चाहिये कि इन वचनोंके कहने से मेरा या दूसरे का शुभ होगा या अशुभ होगा, यश होगा या अपयश Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाचार प्रदीप ] ( २१ ) [ प्रथम अधिकार होगा, तथा कल्याण होगा या अकल्याण होमा; यह सब विचार कर, मुनियों को बोलना चाहिये तथा निरन्तर धर्मोपदेश देनेके लिये अपने आगम के अनुसार अनिदित वचन ही कहने चाहिए ।। १३०-१४०।। नो चेन्मनं प्रकुर्वन्तुखारं सर्वार्थसिद्धिदम् : धर्मशुक्ला गमात्मज्ञाः सर्वदोषामहं परं ।। १४१ ।। अर्थ - यदि ऐसे वचन ( आगमानुकूल वचन) कहने का समय न हो तो धर्मध्यान शुक्लध्यान और श्रागम को जानने वाले मुनियों को समस्त दोषों को दूर - करने बाला समस्त पदार्थों की सिद्धि करने वाला सर्वोत्कृष्ट और सारभूत मौन धारण लेना चाहिये ॥ १४१ ॥ सत्येन वा कोतिः परमा शशिनिर्मला । भ्रमे लोकत्रये सर्वे बद्ध ते सद्गुणाः सताम् ।।१४२ ।। अर्थ- -सत्य वचन कहने से सर्वोत्कृष्ट और चंद्रमा के समान निर्मल कोत्ति, तीनों लोकों में भर जाती है तथा सज्जनों के समस्त श्रेष्ठ गुण वृद्धि को प्राप्त हो जाते हैं ||१४२॥ सत्य मंत्रेण योग्यं वा भारती विश्वदीषिका । सद्बुद्धधावतरस्येवामा मुखे सत्यवादिनां || अर्थ- - इस सत्यरूपी मंत्रके प्रभाव से संसार के समस्त पदार्थों को दिखलाने वाली सरस्वती श्रेष्ठ बुद्धि के साथ साथ सत्यवादियों के मुख में हो श्राकर अवतार लेती है सो योग्य हो है ।११४३ ।। सम्पद्यते परा बुद्धि निकषप्राव सत्रिभा । विश्वतत्त्वपरीक्षायां सुधियां सत्यवाक्यतः १३१४४ ।। अर्थ - इस सत्यवचन के प्रभाव से बुद्धिमान् पुरुषों की श्रेष्ठ बुद्धि, समस्त तत्त्वों की परीक्षा करने के लिए कसौटी के समान हो जाती है ।।१४४॥ वाक्येन मधुरेात्र, तुष्यंति प्राणिनो यथा । न तथा बस्तुदानाचं वाक्येऽहो का दरिद्रता || अर्थ -- इस संसार के प्राणी, जिस प्रकार मधुर वचनों से संतुष्ट होते हैं; उसप्रकार अन्य पदार्थों के देने से सन्तुष्ट नहीं होते; इसलिये वचनों से कभी दरिद्रता नहीं रखनी चाहिए ।। १४५ ॥ मस्वेति मधुरं वाक्यं हितं करसुखावहम् । कटुकं निष्ठुरं त्यक्त्वा, वक्तव्यं धर्मसिद्धये ॥१४६॥ अर्थ – यही समझकर, धर्मको सिद्धि के लिये, कठोर और कड़वे वचनों का Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( २२ ) [ प्रथम अधिकार त्याग कर, मधुर एवं हित करने वाले और कानों को सुख देने वाले अमन कहने चाहिये ॥१४६॥ सत्ये च मधुरे वाक्ये, जगत्पूज्य शुभाकरे । सस्यसत्यं जगनिय, वदेशकः कदकं सुधीः ॥१४७।। अर्थ---सत्य और मधुर बचन जगत्पूज्य हैं और शुभको सान हैं; फिर भला ऐसा कौन बुद्धिमान् है जो ऐसे वचनों को छोड़कर असत्य, जगत् में निध और कड़वे वचनों को कहेगा अर्थात् कोई नहीं ॥१७॥ इन्त्रादयो न प्रत्यूह, कस्तुं शक्ताश्च धीमताम् । खादितु रसाचा:, सत्यसीमावलं बिनाम् ॥ अर्थ- सत्य वचन कहने वाले, बुद्धिमानों के कार्यों में, इन्द्र भी कोई विघ्न माहीं कर सकता; तथा भर सादिक भी उसे नहीं काट सकते ॥१४६।। अग्नयो न दहन्यत्र, नागा सादंति जानु न । सुसत्यवादिनो नोके. प्रत्येक्षेति दृश्यते ॥१४६।। अर्थ-- इस संसार में यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि सत्यवादी लोगों को न तो अग्नि जलाती है और न सर्प हो काटते हैं ॥१४॥ असत्यवादिनस्तेऽपि, म सहतेऽनलावमः । मुखरोगादयः सर्ने, जायन्तेऽनसभाषिणाम् ।।१५।। अर्थ-वे अग्नि, सर्प आदि असत्यवादियों को कभी सहन नहीं कर सकते; प्रसत्यवादियों के मुख रोग या कुष्ट आदि समस्त रोग उत्पन्न हो जाते हैं ।१५०॥ मषाचाबोरथपापेन, मूर्खता जायते नणाम् । होयते परमा बुद्धि रकीति: स्पाजगत्त्रये ॥१५॥ अर्थ-मिश्या भाषण से उत्पन्न हुए पाप के द्वारा मनुष्यों में मूर्खता उत्पन्न होती है । श्रेष्ठ बुद्धि भी नष्ट हो जाती है और तीनों लोकों में अपकीत्ति फैल जाती हैं ॥१५॥ गृथभक्षरणमेवाहो, वरं वा विषभक्षणम् । नासत्यभाषणं धर्म, विरोधि वा शुभाकरम् ॥१५२॥ अर्थ--यह असत्य भाषण, धर्म का विरोधी है और दुर्गतियों को देने वाला है। इसलिये विष खा लेना अच्छा ; अथवा विष्ठा खा लेना अच्छा; परन्तु असत्य भाषण करना अच्छा नहीं ।।१५२॥ विरंप्रवजितो योगी, महान सतपोऽकितः । यः सोप्मत्र मुषावादात्, नियः स्पारंत्यजादपि । अर्थ-जो मुनि चिरकाल का दीक्षित है, महाधुतज्ञानी है तथा महा तपस्वी है; वह भी अलत्य भाषण करने से चांडाल से भी मिद्य समझा जाता है ।।१५३॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ] ( २३ ) [ प्रथम अधिकार विज्ञायेति न वक्तव्यं पविच वितथं वचः । परपीडाकरं वः, सत्सुकार्याविकोटियु ।।१५४।। अर्थ-- यही समझकर करोड़ों श्रेष्ठ और अच्छे कार्य होने पर भी, चतुर पुरुषों को पोड़ा उत्पन्न करने वाले, असत्य वचन कभी नहीं कहने चाहिये ॥ १५४ ॥ अमिष्टं यद्वाक्यं परुषं कर्णदुखदम् । म वायं तत्परस्यैतन्मूलं धर्मव्रतात्मनाम् ।।१५५ || अर्थ- जो वचन दूसरों की अनिष्ट हो; जो कठोर हो और कानों को दुःख येने वाले हों ऐसे वचन धर्मात्मा और पक्षी पुरुषों को कभी नहीं कहने १५५ ॥ मौन की उपयोगिता मनमेोचितं सारं सर्वालयनिरोधकम् । मुनीनां समया जाते, कार्य धर्मनिबंषिनि ॥ १५६ ॥ वदन्तु मुनयः सत्यं मितं स्वल्पाक्षरं शुभम् । बह्नर्थ धर्म संसिध्यं व्यक्तं चागमसंभवम् ।। १५७ ।। अर्थ- प्रायः मुनियों को मौन धारण करना चाहिये, श्राव को रोकने वाला है और सारभूत है। यदि किसी धर्म पड़े तो मुनियों को धर्म की सिद्धि के लिये सत्य, परिमित, बहुत से अर्थ को सूचित करने वाला, व्यक्त और श्रागम के ।। १५६-१५७।। यह मौन ही समस्त कार्य के लिये बोलना शुभ, थोड़े से अक्षरों में अनुकूल बोलना चाहिये सत्य महाव्रत की ५ भावना कोलोभत्यागाः हास्यवर्जनमेव च । सामस्त्येन विचार्योच्चैरागभोक्तसुभावरणम् ॥ १४८ ॥ इमा: सद्भावना: पंच, भाषयंतु तपोधनाः । सत्यव्रतविशुध्यर्थं प्रत्यहं व्रतकारिणीः ।। १५६ ॥ -- श्रर्थ - (१) क्रोध का त्याग (२) लोभका त्याग (३) भय का त्याग ( ४ ) हास्य का त्याग और (५) सब बातों का विचार कर आगम के अनुसार भाषण करना ये पांच इस सत्य महाव्रत की भावना हैं। ये भावना हो व्रतों को स्थिर रखती हैं इसलिये मुनियों को अपना सत्यव्रत विशुद्ध रखने के लिये प्रतिदिन इन भावनाओं का चितवन करते रहना चाहिये ।। १५८- १५६॥ सत्यव्रत की महिमा उपसंहार रूपमें - + serene विधातारं महाधर्मबीजम् । शिवसुरगति हेतु विश्वकीर्यादिहानिम् 11 दुरिततिमिरभा सर्व कल्याणमूलम् । मिथमपगतदोषाः सवतं पालयन्तु ।।१६० ।। अर्थ - यह सत्य महाव्रत समस्त श्रुतज्ञानको देनेवाला है, धर्म का श्रेष्ठ बोज Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] [प्रथम अधिकार है, मोक्ष तथा स्वर्ग गति का कारण है; संसार भर में कोसिको फैलाने वाला है, पाप रूपी अंधकार को दूर करने के लिये सूर्यके समान है, समस्त कल्यारणों का मूल है अतएव समस्त दोषों से रहित मुनियों को इसका पालन करना चाहिये ।।१६०॥ अचौर्य महानत का स्वरूपनाम खेटाटयो शैल, गृहारण्यपचारिषु । पतितं विस्तृतं नष्टं, स्थापितं वान्य वस्तु च ॥१६॥ सूक्ष्मं स्थूलं महद्वारुपं, गुह्यते यन्न जातुञ्चित् । कृष्णाहिरिव विज्ञेयं, तत् तृतीयं महावतम् ।। अर्थ-किसी गांव, खेट, बन, पर्वत, घर, जंगल का मार्ग प्रादि में पड़ी हुई, भूली हुई, खोई हुई या रक्खी हुई छोटी, बड़ी बहुत वा कम दूसरे की वस्तु को कभी ग्रहण नहीं करना है। उसे काले सर्प के समान समझकर अलग हट जाना है उसको तीसरा 'अचौर्य महावत' कहते हैं ॥१६१-१६२।। प्रहो ! ये मुनयो वंद्याः, निर्लोभाः स्खलनायपि । वत्तं जातु न गृह्णन्ति, श्रामण्यायोग्यमेव यत । कथं गल्लुन्ति ते निंद्य, परं स्वं स्वभ्रकारणम् । प्रदत्तं स्वान्ययो घाँर, दुःखक्लेशा शुभादिमम् ॥ अर्थ-देखो ! जो मुनि बंदनीय हैं; जो अपने शरीर में भी लोभ या ममत्य नहीं रखते; जो मुनियों के अयोग्य पदार्थों को देने पर भी ग्रहण नहीं करते, वे भला दूसरे के द्वारा बिना दिये हुए निवनीय परधन को कैसे ग्रहण कर लेंगे; क्योंकि विना दिया हुआ दूसरेका घन, नरक का कारण है तथा अपने और दूसरों के लिये घोर दुःख, घोर क्लेश और अनेक दुर्गतियों को देनेवाला है ।।१६३-१६४।।। प्रदत्तादानदोषेण, बंधधधादयो नणाम् । तस्यन्तेऽत्रैव चौरंरच, परन नरकादयः ।।१६।। अर्थ-मिना दिये हुए धनको ग्रहण करने के दोष से चोरों को राजा से इसी लोकमें अनेक प्रकार के वध, बंधन प्रादि के दुःख प्राप्त होते हैं तथा परलोक में नरकादि दुर्गतियां प्राप्त होती हैं ।।१६५।। क्षणमात्रं न हन्ते, संसर्ग तस्करस्य भो । यतयः स्वजना बात्र, वध बंधाविशंकया ॥१६६॥ अर्थ-हे मुनिराज ! देखो चोर के कुटुम्बो लोग भी वध, बंधन आदि की आशंका से क्षण भर भी चोर का संसर्ग नहीं चाहते ॥१६॥ प्रसादानमात्रेण, कलंक दुस्स्य भुवि । जायते प्राणसन्देहः, कुलस्म दुधियां क्षरणात् ॥१६७॥ नर्थ-बिना दिए हुए, धनको ग्रहण करने मात्र से इस संसार में कभी न Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २५ ) [प्रथम अधिकार छटने वाला कलंक लग जाता है तथा वह कलंक उन मूखोंके समस्त कुलमें लग जाता है और क्षण भर में ही उनके प्राणों में संदेह हो जाता है ॥१६७॥ अहंतां याष्टधा पूजा, केनचिरोमता कृता । तामावतेऽत्रयो लुब्धो, महाचौरः स कथ्यते ॥१६८।। ___ अर्थ-किसी भी बुद्धिमान के द्वारा, जो अष्टनन्य से भगवान् अरहतदेवकी पूजा की जाती है। उस बढ़ी हुई पूजा द्रव्यको जो ग्रहण करता है उसे भी लोभी और महा चोर समझना चाहिये ॥१६८।। श्री जिनेन्द्रमुखोत्पन्न, शास्त्रेकेनापि पूजिते । तत्पूजावस्तु नावेयं, जात्यचौर्यव्रताप्तये ॥१६॥ __ अर्थ-जिस किसी भी पुरुष ने भगवान जिनेन्द्रदेव के मुख से उत्पन्न हुई सरस्वती की पूजा की है और उसमें जो द्रव्य चढ़ाया है। यह भी प्रचौर्य व्रत पालन करने के लिये कभी नहीं लेना चाहिये ॥१६६।।। रत्नन्नयं समुच्चार्य, गुरुपादौ प्रपूजितौ । अर्थथा सान चादेया, सद्व्या जातुचिज्जनः ।।१७०॥ अर्थ-जिस द्रव्यसे रत्नत्रय का उच्चारण करते हुए आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी की पूजा की है। वह द्रव्य भी कभी नहीं लेना चाहिये ।।१७।। किमिव बहनोक्त न, निर्माल्यं कुरिताकरम् । देवशास्त्रगुरूणां च, नावेयं धर्मकामिभिः ॥१७१॥ अर्थ- बहत कहने से क्या लाभ है थोड़े से में इतना समझ लेना चाहिये कि देव, शास्त्र, गुरुओं पर चढ़ाया हुआ निर्माल्य द्रव्य धर्मात्मा पुरुषों को कभी ग्रहण नहीं करना चाहिये क्योंकि उसको ग्रहण करनेसे अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न होते हैं ।१७१। यदि स्वर्ग बोल, पूजा कहिद्ज्ञान योगिनाम् । तन्निर्माल्यात चित्ताना, श्वभ्र केन निवार्यते ।। यवि देव शास्त्र गुरु की पूजा करनेवाला स्वर्ग को जाता है तो उस निर्माल्य द्रव्यको ग्रहण करने वाले को नरक में जाने से कौन रोक सकता है अर्थात् कोई नहीं ॥१७२॥ प्रवत्तमथवा दत्तं, यत्संयमादि हानिकृत् । तत्सर्वथा न च प्राह्य, प्राणः कंठगतैरपि ॥१७३।। अर्थ-जो द्रव्य दिया हो या न दिया हो; यदि वह संयम की हानि करने वाला है तो कंठगत प्राण होने पर भी मुनियों को कभी ग्रहण नहीं करना चाहिये । ॥१७३॥ इति मत्वा न चारेयं, संयतै बन्तशुद्धये । अवत्तं तृणमात्र भो, का कमा पर वस्तुषु ॥१७४।। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २६ ) [प्रथम अधिकार मर्थ-यही समझकर मुनियों को अपने दांत, शुद्ध करने के लिये बिना दिया हुआ तृण भी ग्रहण नहीं करना चाहिये। फिर भला पर पदार्थों की तो बात ही क्या. है ॥१७४।। अचौर्य व्रतकी सफलतापरस्वं येन गृह ति, ग्राहयंति न जातुचित् । गृह्णन्तं नानुमन्यन्ते, वाणुमात्रेतर बुधाः ।।१७।। कालाहिभिव कायेन, वचसा मनसा भुवि । संपूर्ण जायते तेषां, ज्ञानिनां तन्महावतम् ।।१७६।। अर्थ-जो बुद्धिमान पुरुष अणु मात्र या बहुत सी पर वस्तु को काले सर्पके समान समझकर, मन-वचन-काय से न तो स्वयं ग्रहण करते हैं; न कभी दूसरों से ग्रहण कराते हैं और न कभी ग्रहण करने वाले को अनुमोदना ही करते हैं; उन ज्ञानी पुरुषों के इस संसार में तीसरा अचौर्य महाव्रत पूर्ण प्रकट होता हैं ।।१७५-१७६।। अचौर्यवतको ५ भावनायाचाख्या समनुज्ञापना, नात्मभाव एव हि । तयव निरवद्य, प्रति सेवनं सुभावनाः ॥१७॥ सधम्र्यु पकरस्यानु वीची सेवन विमाः । अस्तेयवत शुद्धयर्थ, भाषनीयाः सुभाषनाः ११७८।। अर्थ-(१) कभी किसी से याचना नहीं करना (२) किसीको कुछ प्राशा न देना (३) किसी भी पदार्थ से ममत्व नहीं रखना (४) सदा निर्दोष पदार्थ का सेवन करना (५) और साधर्मी पुरुषों के साथ शास्त्रानुकूल बर्ताव करना ये पांच अचौर्य महावत को शुद्ध रखनेवाली श्रेष्ठ भावनायें हैं ।।१७७-१७८।। अखिलविभवहेतु, लोभमातंगसिंहम् । शिवशुभगतिमाग, सारमस्तेयसंगम् ॥ व्रतवरमपदोषं, मुस्तिकामा शिवाप्त्यै, भजत परमयत्ना, लोभशत्रु मिहस्य ।।१७६।। अर्थ-यह अचौर्य महावत, समस्त विभूतियों का कारण है, लोभ रूपो हाथी को मारने के लिये सिंह के समान है, मोक्ष और शुभगति का मार्ग है, समस्त व्रतों में सार है, सब व्रतों में उत्तम है और समस्त दोषों से रहित है। इसलिये मोक्षको इच्छा करने वाले को लोभ रूपी शनको मारकर बड़े प्रयत्न से, केवल मोक्ष प्राप्त करने के लिये, इस महानत का पालन करना चाहिये ॥१७॥ ब्रह्मचर्य महानत का स्वरूपस्वात्मजेव सुकन्या, यौवनस्या भगिनीव छ । वृद्धा नारी मिजाम्देव, दृश्यते या विरागिभिः ॥ सरागपरिणामावीन्, त्यक्त्वा शुभाशयः सदा । निर्मलं तजिनः प्रोक्तं, ब्रह्मचर्य महाव्रतं ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . मूलाचार प्रदीप [प्रथम अधिकार अर्थ-शुद्ध हृदय को धारण करने वाले, वीतरागी पुरुष अपने राग रूप परिणामों का सर्वया त्याग कर कन्या को अपनी पुत्री के समान, मानते हैं । यौयनवती स्त्रीको अपनी भगिनी के समान मानते हैं और वृद्धा स्त्रीको अपनी माता के समान मानते हैं; इसप्रकार जो निर्मल ब्रह्मचर्यको धारण करते हैं उसको भगवान् जिनेन्द्रदेव 'ब्रह्मचर्य महावत' कहते हैं ॥१८०-१८१॥ स्त्री तिरश्ची ब देवीमाः कस्यन्ते त्रिविधा स्त्रियः । मनोवचनकायस्ताः, प्रत्येक गुरिणता भुवि ।। नवति विकल्पाः स्युरब्रह्महेसवोऽखिलान् । परिहत्य विशुध्यातान नवधा ब्रह्मरक्ष्यते ।।१३।। ___ अर्थ---संसार में (१) मनुष्यनी (२) तिर्यचनी और (३) देवी ये तीन प्रकार की स्त्रियां हैं। यदि इन तीनों को मन, वचन, काय इन तीनों से सेवन करने की इच्छा की जाय तो 'अब्रह्मचर्य' के ह भेद हो जाते हैं। इसलिये मन, बचन, काय की शुद्धता पूर्वक इन सबका त्याग कर नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य की रक्षा करनी चाहिये ॥१८२-१८३॥ मनो चाक काययोः, कुतकारितानुमोदनैः । प्रत्येक गुरिणता रामा, नवभेदा भवंतिया ।।१४।। सर्वथा वा मनः कायान्, कृतादीनिरिराध्य च । नवधा ब्रह्मचर्य हि, पालयंत जितेन्द्रियाः ॥ अर्थ----अथवा मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना को सर्वथा रोककर, जितेन्द्रिय पुरुषों को ६ प्रकार से पूर्ण ब्रह्मचर्य को पालना चाहिये क्योंकि प्रत्येक स्त्री के संबंध से ६ भेद हो सकते हैं ।।१८४-१९५॥ स्त्री श्रगारकथालापाः, कामोद्रेक निबंधनाः। न श्रोतव्या न कर्तव्या, त्रिशुध्या ब्रह्मचारिभिः ।। ___ अर्थ - स्त्रियों के श्रृंगार को कथा कहना भी कामोद्रेकका कारण है इसलिए ब्रह्मचारियों को अपने मन वचन कायको शुद्ध रखकर स्त्रियों के झुगार की कथा न कभी सुननी चाहिये और न कभी कहनी चाहिये ॥१८६।। बिलासकार श्रगार, गीतनृत्यकलाविकान् । योषितां नैव पश्यप्ति, बहून् रागारान बुषाः ।। अर्थ-स्त्रियों के विलास, हास, श्रृंगार, गीत, नृत्य, कला आदि सम बहुत ही राग उत्पन्न करनेवाले हैं इसलिये बुद्धिमान् लोग इनको कभी नहीं देखते हैं ।१८७। क्षणमात्रं न कर्त्तव्यं, संसर्ग योषितां क्वचित् । कसंककारिणं निच, ब्रह्मचर्यपरायणः ।।१८८।। अर्थ-स्त्रियों का संसर्ग कलंक लगाने वाला, अत्यंत निच है इसलिये ब्रह्म Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप [प्रथम अधिकार चारी पुरुषों को, स्त्रियों का संसर्ग क्षणमान्न भी कभी नहीं करना चाहिये ।।१८।। यतः संसर्गमात्रेण, स्त्रीणां संजायते सताम् । फलंक दुस्स्यजं लोके, प्राणसन्देह एव च ॥१८॥ अर्थ-इसका भी कारण यह है कि इस संसार में स्त्रियोंका संसर्ग करने मात्रसे सज्जन पुरुषों को कभी भी न छटने वाला कलंक लग जाता है तथा उनके प्राणों में भी संदेह हो जाता है ।।१८६।। चित्रादि निर्मिता नारी, मनः क्षोभं करोति भो । साक्षात्पुसा सुरूपा स्त्री, किमनर्थ करोति न।। अर्थ-अरे ! देखो । चिन्न की बनी हुई स्त्री भी पुरुषों के मन में क्षोभ उत्पन्न कर देती है फिर भला, अत्यंत रूपवती साक्षात् स्त्री क्या क्या अनर्थ नहीं कर सकती ? अर्यात् सब कुछ कर सकती है ।।१६०॥ नवनीतनिभं चित्तं, ह्यग्निज्वालामगिनाम् । कि नाकृत्यं नृणां कुर्यात्तयोः संसर्ग एव च ॥१६॥ अर्थ--पुरुष का हृदय, मक्खन के समान है; और स्त्री का हृदय अग्निकी ज्वालाके समान है। फिर भला, इन दोनों का संसर्ग क्या २ अनर्थ नहीं कर सकता; अर्थात् सब तरह के अनर्थ कर सकता है ॥१६॥ परं व्याघ्रादि चौराणा, संसर्ग: प्राणनाशकृत् । न च स्त्रीणां जगन्नियो, व्रतघ्नो नरफ प्रदः ।। अर्थ-सिंह, सर्प और चोर आदि का संसर्ग यद्यपि प्राणों को नाश करने वाला है तथापि वह तो श्रेष्ठ है परन्तु संसार भर में निदनीय, व्रतों को नाश करने चाला और नरक में ढकेलने वाला स्त्रियों का संसर्ग कभी अच्छा नहीं कहा जा सकता ॥१६॥ नारीसंसर्गमात्रेण, बहवो योगिनो भुवि । नष्टाः श्वन गलाः केचिच्छु यंते श्री जिनागमे ॥ अर्थ-भगवान जिनेन्द्रदेव के आगम से जाना जाता है कि इस संसार में स्त्रियों का संसर्ग करने मात्रसे अनेक योगी नष्ट हो गये हैं और कितने ही योगी नरक में पहुंचे हैं ।।१३।। मत्वेति सर्वयत्नेन, संसर्गोऽनर्थकृधः। स्परज्यः स्त्रीणां च सर्वासां, कलंक शंकयातराम् ॥ ___अर्थ-यही समझकर, बुद्धिमान पुरुषों को कलंक लगने की शंका से, पूर्ण प्रयत्न के साथ, समस्त स्त्रियों का संसर्ग छोड देना चाहिये ; क्योंकि स्त्रियों का संसर्ग अनेक अनर्थ उत्पन्न करने वाला है ।।१६४।। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - मूलाचार प्रदीप ] { २२ । प्रथम अधिकार न केवलं बुङ्करस्याख्यः, संसर्गो योषितामिह । किन्तु निःशीलसां च, संपो लोकद्वयांतकृत् । अर्थ-बुद्धिमान पुरुषों का कार्य, केवल स्त्रियों के संसर्ग के त्याग करने से हो पूर्ण नहीं होता, किन्तु उन्हें शील रहित पुरुषों के संसर्ग का भी त्याग कर देना चाहिये क्योंकि शील रहित पुरुषों का संसर्ग भी दोनों लोकों को नाश करने वाला है ।।१९५॥ ब्रहाचयं च सर्वेषां, बताना शुद्धिकारणम् । ब्रह्मचर्यविनाशेन, सर्व नश्यन्ति सदवताः ।।१९६it अर्थ-ग्रह ब्रह्मचर्य, समस्त वतों की शुद्धि का कारण है तथा इस ब्रह्मचर्य का नाश होने से समस्त श्रेष्ठ वृत नष्ट हो जाते हैं ॥१९६३ बह्मचर्यच्युत श्वेव, सर्वन्न चापमान्यते। मुनिभिः सुजनैः प्राणी, ईहामुत्रति दुखभाक् ।।१९७६ __ अर्थ-जो प्राणो ब्रह्मचर्यसे च्युत हो जाता है, उसका अपमान, मुनि वा अन्य सज्जन सर्वत्र करते हैं तथा वह प्राणो इस लोक और परलोक दोनों लोकों में दुःख पाता है ॥१६॥ गौर वर्मावत कान्त, वस्त्राभरणमंडित्तम् । स्त्रीरूपं त्वं मुने वीक्ष्य, लस्यान्तःस्थ विचारय ।। अर्थ-हे मुनिराज, गौर वर्ण के चमड़े से ढके हुये, अत्यन्त मनोहर और वस्त्राभूषणों से सुशोभित ऐसे स्त्रीके रूपको देखकर, तू उसके भीतर भरे हुए पदार्थों का चितवन कर ॥१६८।। अहो! पणास्पदं निन्ध, लालाम्बुकर्वमीकृतम् । श्लेष्मागारं च दुर्गंध, स्त्रीमुख कः प्रशस्यते ।। अर्थ-देखो, स्त्रियों का मुख, अत्यंत घृणित और निदनीय है। युक के पानी की बनी हुई कीचड़ से वह भर रहा है, कफ का वह घर है और अत्यन्त दुर्गधमय है। भला ऐसे स्त्री के मुखको प्रशंसा कहां की जा सकती है अर्थात् कहीं नहीं ।।१६६॥ मांसपिडी कुचौ स्त्रीणां, धातुओरिणतसंमृतौ । विष्ठादिनिचितं चास्ति, पंजर जठरं परम् ।। अर्थ-और देखो, स्त्रियों के कुच मांसके पिण्ड हैं; धातु और रुधिर से भरे हुए हैं । इसीप्रकार स्त्रियों का उवर विष्ठा से भरा हुआ है और हड्डी पसलियों से परिपूर्ण है ।।२००॥ सवन् मूत्रादि दुर्गघ, योनिरंध्र धूणास्पदं । श्वभ्रागारमिवासार, कथं स्याद् रतये सताम् ॥ अर्थ-स्त्रियों की योनिसे, सदा रुधिर, मूत्र बहता रहता है। इसलिये वह Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] [ प्रथम अधिकार दुर्गधमय अत्यन्त घृणित और नरक के घरके समान प्रसार समझी जाती है । उसमें भला सज्जन लोग कैसे अनुराग कर सकते हैं प्रथांत कभी नहीं ॥२०१॥ सूक्ष्मा असम्म पर्याप्ता, जायन्तेमानवाः सदा । योनौ नाभौ च कक्षायां, विश्वस्त्रीणां स्तनान्तरे ।। अर्थ-कर्मभूमि की समस्त स्त्रियों की योनि में, नाभि में, कांख में और दोनों स्तनों के मध्य भाग में सूक्ष्म और अलब्ध पर्याप्तक मनुष्य सदा उत्पन्न होते रहते हैं ॥२०॥ तेषु सई प्रदेशेषु, नियन्ते जन्तुरामयः । लिंगह स्तादिसंस्पर्शादिस्युक्तस्वागमे जिनः ।।२०३॥ अर्थ--उन समस्त प्रदेशों में लिंग अथवा हाथका स्पर्श होता है । उस स्पर्श से यह सब जीवों की राशि मर जाती है। ऐसा भगवान् जिनेन्द्रदेवने अपने प्रागम में बतलाया है ॥२०३।। प्रतो मुनीश्वरनिंद्य, स्वभ्र वुःखनिबंधनम् । सर्वपापकरो भूतं, मैथुन स्थारमार्गगम् ।।२०४॥ अर्थ इसलिये कहना चाहिये कि यह मैथन कर्म मुनीश्वरों के द्वारा निंदनीय है, नरक के दुःखों का कारण है, समस्त पापों को खान है और कुमार्ग में ले जाने वाला है ॥२०४।। कामदाहाविशान्त्यर्थ, सेवन्ते थेऽत्र मैयुनम् । वृषमास्तेऽनलं दीप्तं, तेलेन वारयन्ति भोः ।।२०।। अर्थ- जो लोग केवल काम के संताप को शांत करने के लिये, मैथुन सेवन करते हैं, उन्हें 'बैल' समझना चाहिये थे लोग जलती हुई अग्नि को तेल से बुझाना चाहते हैं ॥२०॥ कार्य न शयनं जातु, कोमले संस्तरे क्वचित् । भासने धासमं ब्रह्म, घातक ब्रह्मचारिभिः ।।२०६॥ अर्थ-ब्रह्मचारियों को कोमल बिछौने पर कभी नहीं सोना चाहिये और न कोमल आसनपर बैठना चाहिये, क्योंकि ब्रह्मचारियों को कोमल आसन भी ब्रह्मचर्य फा घात करनेवाला है ।।२०६॥ सर्षः शरीरसंस्कारः, कामरागाविषर्धकः । न विधेयो बुधनियो, ब्रह्मरक्षातमानसः ॥२०॥ अर्थ-शरीर का सब तरह का संस्कार, काम और रागको बढ़ाने वाला है तथा निदनीय है। इसलिये ब्रह्मचर्य की रक्षा करने में जिनका मन लगा हुआ है ऐसे बुद्धिमान् पुरुषोंको किसी भी प्रकार का शरीर का संस्कार नहीं करना चाहिये ।२०७॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप [ प्रथम अधिकार तुषाधा सबलाहराः, सुस्वादा मोदकावयः । कामाग्निदीपिका पाहा नपचित् वहाकाशिभिः । अर्थ-ब्रह्मचर्यके रक्षा करने की इच्छा करने वाले पुरुषों को न तो बल देने वाला बूध आदि का पाहार करना चाहिये, न लड्डू आदि स्वादिष्ट पदार्थों का आहार करना चाहिये, क्योंकि ये सब पदार्थ कामरूपी अग्निको प्रज्वलित करनेवाले हैं ।२०६। यथा तुरणाविलंपोगः, प्रादुर्भवेदगृहेऽनालः । तथा कार्य च कामाग्निः, सबलाहार सेवनेः ॥२०॥ अर्थ-जिसप्रकार घास फूसके संयोग से घर में अग्नि उत्पन्न हो जातो है उसी प्रकार 'पौष्टिक आहार' के सेवन करने से शरीर में 'कामाग्नि' उत्पन्न हो जाती है ।२०६।। अन्नपानासना, श्व, रक्षरखीयो न शर्मणा । कामलामा काम गरिजानिशुद्धये ॥ अर्थ---यह शरीर 'काम रूपी सर्प का घर है' इसलिये अपने ब्रह्मचर्य को विशुद्ध रखने के लिये, अन्न, पान, आसन आदि से कभी इसकी रक्षा तो करनी चाहिये किन्तु इंद्रिय भोगों के लिये नहीं करनी चाहिये ॥२१॥ यतः कामप्रकोपेन, शरीरसुखकोक्षिणाम् । साधं सर्ववतैः शीन, ब्रह्मचर्य पलायते ॥२१॥ अर्थ--इसका भी कारण यह है कि 'शरीर के सुख को इच्छा' करने वालों के शरीर में 'कामका प्रकोप उत्पन्न हो जाता है और फिर समस्त बसों के साथ उसका ब्राह्मचर्य भी शीघ्र ही भाप जाता है ।।२११।। मवेति सर्वथा त्याज्यं, वपुः सौख्यं विशन्नवत् । सबलान मुखाद्यग, संस्कारं शयनादि च ॥ अर्थ-यही समझकर शरीरके सुख को 'विष मिले हए अनके समान' सर्वथा त्याग कर देना चाहिये तथा इसी प्रकार 'पौष्टिक श्राहार' मुख प्रादि, शरीर के अंगों का संस्कार' और 'अधिक शयन' आदि का भी सर्वथा त्याग कर देना चाहिये ।।२१२॥ निरीक्षणं न हलव्य, स्त्रीणां हाऽमिते मुखे । यतस्तहलोकमावते, जायन्सेऽमर्थकारिणः ॥२१॥ अर्थ-हाव भावसे भरे हुये, स्त्रियों के मुख को, कभी नहीं देखना चाहिये क्योंकि स्त्रियों का मुख देखने से नीचे लिखे अनुसार अनेक अनर्थ उत्पन्न हो जाते हैं ॥२१३॥ स्त्रियों का मुख देखने उत्पन्न अनर्थ - 'दष्टिपातो' भवेदावो, 'प्पामुहाति मनस्ततः' 'सरागः' कुरुते पश्चात्, तस्कघागुणकीर्तनम् ।। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ३२ ) [प्रथम अधिकार तता प्रेमानुषः, प्रवर्धते झ भयोस्ततः । उत्कंठते शुभं घेतः कामभोगावि केवलम् ॥२१॥ 'दानदाक्षिण्यवाधि, भयोः वर्षते स्मरा। सखः कामाभिलाषेण, परा प्रीलिश्म जापते ।। अर्थ--देखो, (१) सबसे पहले तो 'दृष्टिपात' होता है तदनन्तर (२) मन मोहित होता है (३) फिर वह मनुष्य उससे प्रेम करने लगता है (४) फिर यह उसकी कथा कहता है (५) फिर उसके गुरगों का वर्णन करता है (६) तदनन्सर उन दोनों के प्रेम का सम्बन्ध बढ़ला है (७) फिर उन दोनों का मन उत्कंठित होता है अथवा काम सेवन आदि को उत्कंठा करता है (4) तदनन्तर परस्पर देने लेने व चतुरता को बातगीर का जौर की रोगी ही मारे दोनों का कामवेष कढ़ता जाता है । (६) तदनन्तर काम सेवन की इच्छा से दोनों में प्रेम की मात्रा खुब बढ़ जाती है । ॥२१४-२१६॥ सया मिलति चान्योन्यं, मानसं कामलालसम् । प्रणश्यति तोलन्जा, कंदर्पशरताडिता ॥२१७॥ अर्थ-फलस्वरूप काम सेवन' की लालसा करने वाला उन दोनों का मन परस्पर मिल जाता है और (१०) फिर कामदेव के बाणों से साडित हुई लज्जा शोध ही नष्ट हो जाती है ॥२१७॥ निर्लज्जः कुरुते कर्म, रहोगल्पनमन्वहम् । तयोस्ततश्च कामाग्नि, दुनिवारो मिजभते ।।२१८॥ अर्थ---तदनंतर निर्लज्ज होकर वे दोनों एक दिन एकांत में बैठकर बातचीत करने का कार्य करते रहते हैं और फिर उन दोनों की कामरूपी अग्नि ऐसी बढ़ जाती है जो किसी से रोको नहीं जा सकती ॥२१॥ महामामस्ततस्तेन, महिरन्त स्मराग्निना । प्रविधार्यतमा वाशु, पर्तते निश धर्मणि ॥२१॥ अर्थ- उस कामदेव रूपी अग्नि से वे बाहर और भीतर जलते रहते हैं; जिससे उनका विचार सब नष्ट हो जाता है और विचार तथा बुद्धि नष्ट हो जाने के कारण ये दोनों शीघ्र ही निद्य कर्म में प्रवृत्ति करने लग जाते हैं ।।२१६॥ फलतः सर्वगुणों का नावातेन श्रुतं तप. शोलं, कुलं च वृत्तमुत्तमम् । इंधनीकुश्ते भूटः, प्रविश्य स्त्री विमानले ।।२२०॥ अर्थ -- उस निध कर्मके करने से वह मूर्ख स्त्री रूपी अग्निकुडमें, पड़कर अपने उत्तम श्रुतज्ञानको, तपश्चरणको, शोलको, कुलको और धारित्रको जला डालता है ।२२०॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] [ प्रथम अधिकार ततोऽपमानमत्रय, वनबंधादर्थनम् । लभते स परवाहो, नरकं सप्तमं कुधी ।।२२।। विशिवेति न पश्यंति, कामिनी ब्रह्मचारिणः । क्यचिद् दृष्टिविषाह, मिवाखिलानर्थ कारिणीम् ।। अर्थ-श्रुत, शील, तप आदि के नष्ट हो जाने से, इस लोक में ही, उसका भारी अपमान होता है और वध बंधन के द्वारा वह भारी तिरस्कृत होता है तथा परलोक में उस मूर्ख को सातवां नरक प्राप्त होता है ॥२२१॥ यही समझकर ब्रह्मचारी पुरुषों को दृष्टि विष (जिसको देखने मात्र से विष चड़ जाय) ऐसे सर्प के समान समस्त अनर्थों को उत्पन्न करने वाली स्त्रियां कभी नहीं देखनी चाहिये ॥२२२॥ वे पुरुष ही धन्य हैंधग्यास्ते एच लोकेऽस्मिन्, या हा निर्मसंक्वचित् । स्वप्नेप्युपवितःस्त्रीभिः, न मोतं मलसन्निधौ ॥ ___ अर्थ-संसार में थे ही लोग धन्य हैं। जो स्त्रियों के द्वारा उपद्रव किये जाने पर भी, स्वप्न में भी अपने निर्मल ब्रह्मचर्यको कभी मलिन नहीं होने देते हैं ।।२२३।। शीलालकरिणा पादानमन्स्याशाविधायिनः । देवेशाः समराश्याहो, का कथा परमभुजाम् ॥ अर्थ-समस्त पृथ्वी पर आज्ञा करनेवाले, इन्द्र भी अपने अनुचर देवों के साथ, शील पालन करने वाले मनुष्यों के चरणों को नमस्कार करते हैं। फिर भला राजानों की तो बात ही क्या है । वे तो नमस्कार करते ही हैं ॥२२४॥ विशायेति जगत्सारं, शीलरत्नं सुदुलभम् । स्त्रीकटाक्षादि चौरेभ्यो, रक्षणोयं प्रयत्नतः ।।२२५॥ अर्थ-यही समझकर, तीनों लोकों में सारभूत और अत्यन्त दुर्लभ ऐसे इस शोल रत्न को प्रयत्न पूर्वक स्त्रियों के 'कटाक्ष आदि चोरों से' रक्षा करनी चाहिये ।।२२।। ब्रह्मचर्य व्रतको ५ भावनास्त्रीरूपमुखागार, विलासायनिरीक्षणम् । पूर्वानुमूतसनोग, रत्यादि स्मरणोभनम् ॥२२६।। स्त्रीश्रृंगारकथात्यागः, सरसानाद्यसेवनम् । कामिनीजनसंसक्त, वसति त्यजनं सदा ।।२२।। पंचेमा भावनाः शुद्धाः, ब्रह्मवतविशुद्धिदाः । न भोक्तव्या हुयो जातु, मुनिभित्र शुद्धये ।।२२८॥ अर्थ--(१) स्त्रियों के रूप, मुख, श्रृंगार, विलास आदि को नहीं देखना (२) पहले भोगे हुए भोग और रति क्रीड़ा प्रावि के स्मरण करने का भी त्याग कर Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] [ प्रथम अधिकार देना, (३) स्त्रियों के श्रृंगार की कथा का भी त्याग कर देना (४) रसीले पौष्टिक आहार के सेवन का त्यागकर देना चाहिये (५) और स्त्रियोंके रहने, सोने, बैठने आदि के स्थान का भी सदा के लिये त्याग कर देना । ये पांच ब्रह्मचर्य व्रतको विशुद्ध करने वाली शुद्ध भावना हैं । मुनियों को अपना 'ब्रह्मचर्य' शुद्ध रखने के लिये अपने हृदयसे इन भावनाओं को कभी अलग नहीं करना चाहिये अर्थात् इनका चितवन सदा करते रहना चाहिये ॥२२६-२२८॥ बृह्मचर्य प्रतकी महिमानरसुरपति बंधस्वर्गसोपानमूतम् । सकलगुणसमुद्र, धीरवोरंनिषेव्यम् । शिवसुख शुभखानि, सर्वयानेन पूतम् । भजप्त गतविकार, ब्रह्मचर्य सदाा ॥२२६।। अर्थ-यह ब्रह्मचर्य महावत, इन्द्र, नरेंद्र आदि सबके द्वारा वंदनीय है; स्वर्ग के लिये सीढी के समान है। समस्त सद्गुणों का समुद्र है; धीर वीर पुरुष ही इसका सेवन कर सकते हैं। अत्यन्त शुभ ऐसे मोक्ष सुख की यह खान है। अत्यन्त पवित्र है और विकार रहित है । इसलिये पूज्य पुरुषों को बड़े प्रयत्नसे सदा इसका पालन करते रहना चाहिये ।।२२६॥ परिग्रह महामनका स्वरूपस्थजन्ते निखिला यत्र, बाहान्तः स्था:परिग्रहाः । जोधाबद्धनिबद्धाश्चसमंतान मूच्छंया बुधैः ।। कृत-कारित-संकल्प मनोवाक्कायकर्मभिः । तत्प्रणीतं जिन; पूज्य , माकिचन्यमहानतम् ।।२३१।। अर्थ-जहां पर बुद्धिमान लोग, शरीर, कषायावि संसारी जीवों के साथ, रहने वाले और वस्त्रालंकार प्रादि जीव के साथ न रहने वाले, समस्त परिग्रहों का त्याग कर देते हैं तथा मन-वचन-काय और कृत-कारिस अनुमोदना से उन परिग्रहों में होने वाली मूर्छा व ममत्वका भी त्याग कर देते हैं उसको भगवान् जिनेन्द्रदेव ने पूज्य 'आकिमन्य' महावत कहा है ॥२३०-२३१॥ क्षेत्र वास्तु धन धान्य, द्विपदं पशुसंचयम् । प्रासनं शयनं वस्त्र, भार बाह्याः परिग्रहाः ॥२३२॥ दशामी सर्वथा त्याज्याः, पृथग्भूतानिणात्मनः। जीवाबद्धास्त्रिशुध्यात्र, यतिभिः सहमूच्छया ।। अर्थ-(१) खेत (२) घर (३) घन (४) धान्य (५) दास (६) पशु (७) आसन (5) शयन (C) वस्त्र और (१०) बर्शन ये पस प्रकार के बाहा परिग्रह कहलाते हैं। परिग्रह 'जीचाबद्ध' या जीप से भिन्न कहलाते हैं क्योंकि ये सब Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप ] ( ३५ ) [ प्रथम अधिकार आत्मा से भिन्न हैं । मुनियों को इनमें रहने वाली मूर्च्छा के साथ-साथ मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक इन सबका त्याग कर देना चाहिये ।।२३२-२३३ ।। मिम्यावं च प्रयोवेदा, रागा हास्यादयोऽषट् । चत्वारोऽपि कवाया हि चतुर्दश परिग्रहाः ॥ अम्मत हमें जब निबद्धा दुस्त्यजा बुधः । विश्वदोषाकरा हेयाः सर्वथा जीवतन्मषाः ॥ २३५॥ अर्थ - ( १ ) मिथ्यात्व ( २ ) स्त्रीवेद (३) पुवेद ( ४ ) नपुंसकवेद ( ५ ) राग (६) हास्य (७) प्ररति (८) शोक ( ६ ) भय (१०) जुगुप्सा ( ११ ) क्रोष (१२) मान (१३) माया (१४) लोभ ये चौदह अंतरंग परिग्रह कहलाते हैं। ये १४ परिग्रह 'जीव-निबद्ध' हैं अर्थात् जीव के साथ लगे हुए हैं और इसीलिये कठिनता से त्याग किये जाते हैं । ये जीव से तन्मय होकर रहते हैं और समस्त दोषों को उत्पन्न करने वाले हैं । इसलिये बुद्धिमानों को इनका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये । ।।२३४-२३५।। चेतनास्तेऽथवा दासी, दासोऽश्वादयो भुवि । मणिमुक्तासुव शुरू, गेहाद्या प्रचेतना ।।२३६।। अर्थ - अथवा दासी, दास, गाय, घोड़ा आदि इस संसार में 'चेतन परिग्रह' कहलाते हैं तथा मोती, मणि, सुवर्ण, वस्त्र, घर नादि ' अचेतन परिग्रह' कहलाते हैं ॥२३६॥ चेतनाचेतना सर्व बाह्यासंगाः अधार्णवाः । ज्ञानसंयम शौचोप करणेन बिना बुधैः ।। २३७॥ न ह्याच स्वयं श्रामण्यायोग्य हि परस्यभोः । न दातव्या न कार्योऽनुमोदस्तद्ग्रहणं परः ॥ अर्थ – चेतन, अचेतन, बाह्य प्राभ्यंतर सब परिग्रह पापों के समुद्र हैं और मुनिधर्म के अयोग्य हैं; इसलिये ज्ञान, संयम और शौच के उपकरणों को छोड़कर बुद्धिमानों को बाकी के सब परिग्रहों का त्याग कर देना चाहिये; न तो उन्हें स्वयं ग्रहण करना चाहिये; न दूसरों को देना चाहिये और अन्य कोई ग्रहण करता हो तो उent अनुमोदना भी नहीं करनी चाहिये ।। मूर्द्धा तेषु न कर्त्तव्या, खतिः सर्वेनसां बुधः । यतो मूच्छेच सिद्धांते, संग ः प्रोक्तो गणाधिपः ।। अर्थ- बुद्धिमानोंको इन परिग्रहों में कभी ममत्व भी नहीं रखना चाहिये; क्योंकि २३७-२३८ ।। इनमें ममत्व रखना भी समस्त पापों को उत्पन्न करने वाला है; इसका भी कारण यह है कि भगवान् गणधर देवने सिद्धांत शास्त्रों में मूर्छा या ममत्व को ही 'परिग्रह' बतलाया है ॥२३६॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदोग] [प्रथम अधिकार असंयत अनच्छात्रो, वासुश्र षादि हेतवे । प्रसंयमकरः स्वांते, रक्षणीयो न संयते ॥२४०।। अर्थ--मुनियों को अपनी सेवा, सुश्रूषा करने के लिये भी, असंयम को बढ़ाने वाला प्रसंयमी मनुष्य या विद्यार्थी अपने समीप नहीं रखना चाहिये ।।२४०।। यसत्यादौ विधेयं न, स्वामित्वं संगकारणम् । पुजा द्रव्यांगचेलेषु, चान्यत्र परवस्तुनि ।।२४१॥ अर्थ--इसीप्रकार 'वमतिका' आदि में भी अपना स्वामित्व नहीं रखना चाहिये ; क्योंकि उसमें 'स्वामित्त्व' रखना भी परिग्रह का कारण है तथा पूजा द्रव्यके अंगभूत वस्त्र आदि पर वस्तुओं में भी अपना 'स्वामित्व' कभी नहीं रखना चाहिये । ॥२४॥ बहुनोक्तेन कि साध्य, मनाइयो न योगिभिः । बालानः कोटिमात्रः, श्रामण्यायोग्यः स जातुचित् ।। अर्थ-बहुत कहने से क्या लाभ है ? इतने में ही समझ लेना चाहिये कि मुनियों को, मुनिधर्म के अयोग्य पदार्थ का 'एक बाल के अग्रभाग का करोड़वां भाग भी कभी ग्रहण नहीं करना चाहिये ॥२४२॥ परिग्रहार्जनेतात्र, पराचिता पजायते । सस्याप्ते परमोरागो, रौनध्यानं च रक्षणे ॥२४३।। तन्नाशे शोककोपायाः, सर्व प्रादुर्भवन्ति भोः । तैश्च पापानि घोराणि, पापैर्दुगतयोऽखिलाः ।। तासु दुःखानि तीवारिण, लभन्ते संगिनः शठाः । इतिमत्वा बुधयः, संगः सर्वोऽपि सर्वथा ॥ अर्थ-इस संसार में परिग्रहको इकट्ठा करने में बड़ी चिता करनी पड़ती है; उसके प्राप्त होनेपर 'परम राग' उत्पन्न हो जाता है, उसकी रक्षा करने में 'रौद्रध्यान' प्रगट हो जाता है तथा उसके नाश होने पर 'क्रोध-शोक' आदि सब विकार उत्पन्न हो जाते हैं। उन क्रोधादिक विकारों से महा पाप उत्पन्न होते हैं। उन पापों से नरकादिक समस्त दुर्गतियां प्राप्त होती हैं और उन दुर्गतियों में परिग्रह रखने वाले वे मूर्ख तीव दुःखों को प्राप्त होते हैं। यही समझकर, बुद्धिमानों को सब तरह के परिग्रहों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये ॥२४३-२४५॥ ग्रंधा येऽभ्यन्तराः, विश्वे दुस्त्याज्याः कातरां गिना। महायल्नेन तेत्याज्याः, कृत्सादोषविधायिनः ।। अर्थ-अंतरंग परिग्रह कातर पुरुषों से कभी नहीं छोड़े जाते तथा वे अंतरंग परिग्रह अनेक दोषों को उत्पन्न करने वाले हैं। इसलिये महान प्रयत्न करके उन सब परिग्रहों का त्याग कर देना चाहिए ॥२४६।। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूनावार प्रदीप मूनाचार प्रदीप ] ( ३७ ) [ प्रथम अधिकार यतोऽत: संगपाकेन, मज्जति प्राणिनोऽखिलाः। गोपु संगपंकेषु, पापदुनिखानिषु ॥२४॥ अर्थ-इसका भी कारण यह है कि इस अंतरंग परिग्रह रूपी कोचड़ से मंशा के प्राणी अनाय दूर जाते हैं ॥२४॥ प्रतस्तपो वतैः सार्ष, प्रव्रज्या निष्फलासतां । व्या वस्त्रपरित्यागोऽत्रान्तग्रंथाच्च्युत्तास्मनाम् ॥ ___अर्थ-बाह्य परिग्रहों में डूब जाने से सज्जन पुरुषों के व्रत, तपश्चरण आदि भी सब निष्फल हो जाते हैं। और उनके साथ-साथ वीक्षा भी निष्फल हो जाती है। इसलिये जिन लोगों ने अंतरंग परिग्रहों का त्याग नहीं किया है उनका वस्त्रों का त्याग करना भी व्यर्थ है ॥२४८॥ यथा मुधति कृष्णाहि निर्मोफ ध विषं न भोः । तथा कश्मिरकुधी: यात्रा, दोनिनान्तः परिग्रहान् ।। अर्थ---जिस प्रकार काला सर्प, अपनी कांचली तो छोड़ देता है। परन्तु विषको नहीं छोड़ता; उसीप्रकार कोई कोई मूर्ख वस्त्रों का तो त्याग कर देते हैं परंतु अंतरंग परिग्रहों का त्याग नहीं करते ॥२४६।। अतो मिथ्यास्ववेदांश्च, कषायान् सकलेतरान् । त्यक्तु येऽत्राक्षमास्तेषा, वस्त्रत्यागोऽहिवरभवेत् ।। अर्थ-इसलिये जो पुरुष मिथ्यात्व, वेद, कषाय और नौ कषायों के त्याग करने में असमर्थ हैं; उनका वस्त्रों का त्याग भी सर्प के समान समझना चाहिये । ॥२५०॥ महायत्नेन मवेति, मिथ्यावेतोदयान बुधाः । हास्यावीश्च कषायारीन्, घ्नतु शनिवासिलान् ।। अर्थ-यही समझकर बुद्धिमानों को बड़े प्रयत्न से मिथ्यात्व, वेद, कषाय और नौकषाय रूप समस्त शत्रुओं को अच्छी तरह नाश कर देना चाहिये । ॥२५॥ बाहान्तग्रंथसंत्यागाश्चित्त शुद्धिः परासताम् । जायते च तया ध्यानं, कारण्यवानलम् । अर्थ-अंतरंग और बाह्य परिग्रहों का त्याग कर देने से सज्जनों का हृदय परम शुद्ध हो जाता है तथा कर्मरूपो वन को जलाने के लिये, दावानल अग्निके समान, उत्तम ध्यान प्रगट हो जाता है ॥२५२॥ ध्यानाच्च कर्मणां नाशस्ततो मोक्षोऽसुखातिगः । वाधामगोचरंसौख्यं, नित्यं तत्र भजति ये ।। अर्थ-ध्यानसे कर्मों का नाश हो जाता है; कर्मों के नाश होने से समस्त Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३८ ) [ प्रथम अधिकार दुःखों से रहित, मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है और मोक्ष में उनको आरणी के अगोवर ऐसा नित्य सुख प्राप्त हो जाता है ।। २५३॥ द्रव्यादीनुपधीन् बाह्यान् यः क्लीवस्त्यक्तुमक्षमः सोऽन्तः स्थान व कबायावीन्, रिपून् हंति कथं बहून् ॥ २५४ ॥ अर्थ-तो नपुंसक मनुष्य ( कुछ न करने वाला) घन, धान्य नादि बाह्य परिग्रहों का ही त्याग नहीं कर सकता; वह भला अंतरंग कषाय रूपी अनेक शत्रुओं को कैसे मार सकता है ? अर्थात् कभी नहीं ॥२५४॥ पूर्व व्यवस्थाखिलान् संगान्, कटिसूद्रादिकान् ततः । seen गृह्णाति यः सोऽहो कि न लब्जते ।। २५५ ।। अर्थ- जो सुनि पहले तो करधनी प्रादि समस्त परिग्रहों का त्याग कर देता है; और फिर वह इष्ट पदार्थों को ग्रहण करता है आश्चर्य है कि यह फिर भी लज्जित नहीं होता ।। २५५।। धन्या पुज्यास्त एवात्र विरक्ता ये मुमुक्षब । शरीराविषु नेहन्ते, संगं स्वल्पं सुखादि वा । २५६ । अर्थ - इस संसार में मोक्ष की इच्छा करने वाले जो वीतरागी पुरुष हैं वे ही धन्य और पूज्य हैं; क्योंकि वे शारीरादिक के लिये भी कुछ परिग्रह नहीं चाहते और न कभी सुख की इच्छा करते हैं ।। २५६ ।। विज्ञायेति द्विषा संगान्, स्यमंतु मुक्तिकांक्षिणः । सौस्येवैषयिकः साधं, हत्था सोभाक्षविद्विषः । अर्थ – यही समझ कर, मोक्ष की इच्छा करने वाले मुनियों को लोभ और इंद्रिय रूपी शत्रुनों को नाश कर, विषय जन्य सुखों के साथ साथ दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्याग कर देना चाहिये ।। २५७|| शब्दरूपरसस्पर्श गंधेषु विषयेषु च । सुमनोज्ञामनोज्ञेषु, पंचाक्षाणामिहाखिलाः || २५८ || राग बाद दस्त्यज्यन्ते ये सुभावना । ताः पंच सर्वदा ध्येयाः, पंचमव्रत शुद्धमे || २५६ ॥ अर्थ- इन्द्रियां ५ हैं तथा उनके विषय भी शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गंध ये पांच हैं, ये पांचों विषय मनोज्ञ भी होते हैं और श्रमनोज्ञ भी अथवा प्रतिष्ट भी होते हैं; इन सबमें चतुर पुरुषों को राग, द्वेष छोड़ देना चाहिये; मनोज्ञ विषयों में राग और अमनोज विषयोंमें द्वेष छोड़ देना चाहिये । इन्हीं को परिग्रह त्याग महाव्रत Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . मूलाधार प्रदीप । प्रथम अधिकार को शुद्ध रखने के लिये इन पांचों भावनाओं का सदा चितवन करते रहना चाहिये। ॥२५८-२५६॥ ५ आकिंचन्य महावत की सफलतात्रिभुवनपलिपूज्यं, स्रोभतृष्णाविषन्न । दुरितति मिर सूर्य, श्री जिनेशादि सेव्यं ॥ शिवसुभगतिमार्ग, सौख्यखानि गुणाधि । अयत विब कहाकिन्चन्यसार प्रयत्नात् ॥२६॥ अर्थ-यह प्राचिन्य महान्त, तीनों लोकों के स्वामी तीर्थकर देयोंके द्वारा भी पूज्य है। लोभ, तृष्णा रूपी पर्वत को चर करने के लिये सूर्यके समान है। भगवान् जिनेन्द्र देव भी इसको सेवन करते हैं, यह मोक्ष और शुभगति का मार्ग है; सुख को खान है, गुणों का समुद्र है। इसलिये बुद्धिमानों को बड़े प्रयत्न से इस परिग्रह त्याग महावत को धारण करना चाहिये ।।२६०॥ महार्थ मोममेवाहो, या विलोकीपतेः पदम । साधयति महंडिया चरितानि जिनादिभिः ॥ महान्ति वा स्वयं यानि, महानतान्यतोधुर्घः । सायनामानि नान्यन, कोसितानि शिक्षाप्तये ॥ अर्थ-ये महावत सर्वोत्कृष्ट मोक्ष पुरुषार्थको सिद्ध करते हैं : इसलिये इनको 'महायत' कहते हैं अथवा तीर्थंकर प्रादि महापुरुष इनका पालन करते हैं इसलिये भी ये 'महावत' कहलाते हैं अथवा ये स्वयं ही महान हैं इसलिए भी इनको 'महावत' कहते हैं । इसप्रकार विद्वानों के द्वारा सार्थक नामको धारण करने वाले महावत मोक्ष प्राप्त करने के लिए ही मैंने यहां पर निरूपण किए हैं ॥२६१.२६२॥ प्रथम अध्याय का उपसंहारएतान्यत्र महावतानि महता, योग्यानि सारारिप ध । स्वर्मोक्षक निवन्धनानि विदुवा । ये पालयंत्यन्वहम् । ते संप्राप्य महत्सुखं त्रिभुवमे सर्वार्थ सिध्यादि । हत्या कभरिपून् प्रजन्मपिरतो मोक्ष मुशर्माकरम् ॥२६३॥ अर्थ-ये महावत महापुरुषों के ही योग्य हैं : सारभूत हैं: और स्वर्ग मोक्ष के कारण हैं; जो विद्वान इनको प्रति दिन पालन करते हैं वे तीनों लोकों में उत्पन्न होनेवाले सर्वार्थसिद्धि आदि के महा सुखों को पाकर फिर मनुष्य पर्याय में कर्मरूपी समस्त शत्रुओं को नाश कर, अनंत सुख देने वाले मोक्ष में शीघ्र हो जा बिराजमान होते हैं ।।२६३॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदोप] { ४० ) प्रथम अधिकार महाव्रतधारियों का शुभाशीर्वाद ये पालयंति यमिनोऽन, महाव्रतानि यैः पालिसानि जिनदेवगणाधिपाः । ते मे स्तुतारच महिता, गरिशनो जिनेशाः सर्वार्थसिद्धि मखिला स्वयमादिशतु ॥२६॥ अर्थ-जो मुनिराज इन महावतों का पालन करते हैं अथवा जिन तीधकर या गणधर देवों ने इनका पालन किया है ; वे पूज्य तीर्थकर वा गणधर देव मेरे हृदय में विराजमान हों तथा मेरे लिए समस्त मोक्ष प्रादि सर्वोत्कृष्ट पदार्थों की सिद्धि प्रदान करें ।।२६४॥ प्रथमाधिकार समाप्त । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ द्वितीयोऽधिकारः मंगलाचरण पूर्वक समिति वर्णनश्रीमवन्यः परमेष्ठिभ्यो मोक्षगामिभ्य एव च । महासमिति युक्तेभ्यो नमः समितिसिद्धये ॥२६५11 अर्थ-जो परमेष्ठी अंतरंग बहिरंग लक्ष्मी से सुशोभित हैं जो मोक्षगामी हैं और महासमितियों से सुशोभित हैं उनको मैं समितियों की सिद्धि के लिये नमस्कार करता हूं ॥२६॥ ५ समितियों के नामर्याभाषषणायाम, निक्षेपण समाह्वया । प्रतिष्ठापन संज्ञाः समितयः पंच चेसि ।।२६६।। अर्थ-(१) ईयर्यासमिति (२) भाषासमिति (३) एषणासमिति (४) प्राधान निक्षेपण समिति और प्रतिष्ठापन समिति ये पांच समितियां कहलाती हैं ।।२६६॥ ईर्यासमिति का लक्षणविधसे प्रासुके मार्गे, गोखरोष्ट्ररथाविभिः । प्राणिस्तातिगेयुद्ध जनाचं रुपमविते ॥२६॥ कार्यार्थ गमनं यच्च, क्रियते संयतः शामः । यस्माद् घुगान्तरं प्रेक्षिभिः सेसिमितिमता ।।२६८।। अर्थ-जो यत्नपूर्वक ४ हाथ भूमिको देखकर, गमन करने वाले मुनि अपने किसी काम के लिये, गाय, गधा, ऊंट, रथ आदि से मवित या मनुष्यों से उपदित शुद्ध प्रासुक मार्ग में, दिन में ही धीरे धीरे गमन करते हैं उसको 'ईर्यासमिति' कहते हैं ॥२६७-२६८।। ईर्यासमिति का विशेष विवरणकार्यावृते न गन्तब्य, जातुग्रामगृहाविषु । वृथा पर्यटनं भूमी, न कार्य था शुभप्रदम् ॥२६९।। अर्थ-मुनियों को बिना काम के किसी गांव या घर में, कभी नहीं जाना चाहिये; और न पृथ्वी पर व्यर्थ धूमना शाहिये क्योंकि इससे अशुभ वा पाप ही उत्पन्न होता है ।।२६६॥ कब गमन नहीं करना चाहियेमस्तं गते दिवानाये, इथवा भानुदयावृते । विधेयं गमनं जातु, न सत्सुकार्यराशिषु ॥२७॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनानार प्रदीप] [द्वितीय अधिकार अर्थ-यदि कसा हो और कितना हो श्रेष्ठ कार्य प्रा जाय; तथापि सूर्य अस्त होनेपर, अथवा सूर्य उदय होने के पहले कभी गमन नहीं करना चाहिये ।।२७०।। मुनिराज रात्रि में गमन क्यों नहीं करते ? यतो रात्री नियन्ते, व्रजननादृष्टिगोचरे । पंचाक्षा बहवस्तस्मानश्येदा महानतम् ॥२१॥ अर्थ-क्योंकि रात्रि में गमन करने से, दृष्टि के अगोचर, ऐसे अनेक पंचेंद्रिय जीव मर जाते हैं। जिससे अहिंसा महानत सर्वथा नष्ट हो जाता है ।।२७१।। महावत के नाश होने से दुर्गलि गमनप्रतनाशेन जायते, महत्पापं प्रमादिनाम् । पापा घोरतरं दुःखं, बुर्गतौ च न संशयः ॥२७२।। अर्थ-अहिंसा महानत के नाश होने से प्रभावी पुरुषों को महा पाप उत्पन्न होता है और पापसे अनेक दुर्गतियों में अत्यन्त घोर दुःख प्राप्त होता है। इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है ।।२७२।। चतुर्मास में गगन का निषेध क्यों ? महीं सत्वाफुलेजाते, चातुर्मासे सुसंयतः । पापभीतर्न गंतव्यं, प्रयोजनशतः क्वचित् ॥२७३।। अर्थ-तुर्मास में जब पृथ्वी अनेक जीषों से भर जाती है लब पापोंसे डरने वाले मुनियों को सैकड़ों आवश्यक कार्य होने पर भी कहीं गमन नहीं करना चाहिये। ॥२७३३ प्रेषणं नानदातव्यं, सति कार्य प्रतात्मनाम् । गमने प्रेरणं वाहो, बुध वक्षयंकरम् ॥२७४ । अर्थ-विद्वानों को चतुर्मास में आवश्यक कार्य होने पर भी किसी व्रती को बाहर नहीं भेजना चाहिये ; क्योंकि जाने के लिये प्रेरणा करना, अनेक जीवों का घात करने वाला है ॥२७४।। विषयानुमतिति, गमनादी ने पायदा । प्रयोजनक्शात्पुसा, मुनिभिर्यस्नधारिभिः ।।२७॥ प्रर्ष-यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करने वाले मुनियों को किसी प्रयोजन के निमित्त से भी गमनागमन कार्यों में पाप देने वाली सम्मति कभी नहीं देनी चाहिये । ॥२७॥ प्रागच्छ, गच्छ, तिष्ठेह, कुरु कार्य च भोजनम् । इति मातु न वक्तव्यं, पतिभिः पापकारणम् ।। अर्थ-यहां श्रा, यहां जा, यहां बैठ, इस कार्य को कर, या भोजन कर, इस Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४३ ) [ द्वितीय अधिकार प्रकार कहना भी पापका कारण है। इसीलिये व्रती पुरुषों को इस प्रकार भी कभी नहीं कहना चाहिये ।।२७६।। चतुर्हस्तांतरालस्यो, महीं बीफ्याति पत्नतः । शनः पादोऽत्र दातव्यः, पथोर्यागमनोधतः ।।२७७।। अर्थ- विति से मस की इच्छा करने वाले मुनियों को बड़े प्रयत्न से, ४ हाथ पृथ्वी देखकर धीरे धीरे पैर रखना चाहिये ।।२७७।। पूर्व विरवा परी वीक्ष्य, दूरस्पों प्रासुको बुधाः । कुर्वन्तु गमनं पश्चात्, संकोच्यावयवान सदा ।। मार्थ--पहले खड़े होकर, दूर तक को प्रामुक भूमि देख लेनी चाहिये और फिर विद्वानों को, अपने शरीर के अवयवों को संकोच कर गमन करना चाहिये ।२७८। काष्ठपावारणमन्यहा, ज्ञात्वा चलाचलं नुधैः । तेषु पापं विधायाशु, न गंतव्यं दयोधतं. ॥२७६।। अर्थ-दया धारण करने वाले विद्वानों को काठ या पाचारण को हिलता हुआ समझ कर, उन पर पैर रखकर गमन नहीं करना चाहिये ।।२७६॥ शीघ्र गमनं काय, नातिमंदं च संयतेः । सहसानिनं दातम्यः, स्थित्वा मार्गे च जल्पनम् ॥२८०।। अर्थ-मुनियों को न तो शीघ्र ही गमन करना चाहिये; न धीरे ही गमन करना चाहिये ; न अकस्मात् किसी पर पैर रखना चाहिये और न मार्ग में खड़े होकर बातचीत करनी चाहिये ॥२८०।। इतोर्यागमनस्याहों, विधि शात्वा ति ये। स्वकार्येऽन्त्र भवेत्तेषा, पर्रया समितिः सताम् ।। अर्थ-इसप्रकार ईर्यागमन की विधि समझकर जो अपने कार्य के लिये गमन करते हैं। उन सज्जनों के उत्कृष्ट ईर्यासमिति होती है ॥२८१।। तां विना स्वेच्छया मेऽत्र गमनं कुर्वते युधाः । तेषां षडंगघातेन, नश्वाध ब्रतोसमम् ।।२८२॥ अर्थ---जो विद्वान् इस ईर्या समिति के बिना, स्वच्छंद गमन करते हैं; वे छहों कार्य के जीयों का घात करते हैं और इसीलिये उनका 'अहिंसा महाव्रत' नष्ट हो जाता है ।।२८२॥ मुख्यमन स्वरूप ईर्यासमितिमत्वेति धीधना जातु, मा वजन्तु महीतले । त्यक्सासमिति पाध, व्रताभ्यांवतयुद्धये ॥२३॥ अर्थ-यही समझकर, बुद्धिमान् पुरुषों को अपने व्रत शुद्ध रखने के लिये, Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] । द्वितीय प्राधकार सबसे मुख्यक्त स्वरूप इस 'ई समिति' को छोड़कर इस पृथ्वी पर कभी गमन नहीं करना चाहिये ॥२८३॥ उपसंहार रूपमें 'ईयसमिति गुणसमुदाय खानि, स्वर्गसोपानमाला, शिवसुखजननी हिंसाविवरा पवित्राम् । जिनगणधरसेव्या, दोषरां भजध्वम् । समितिमिह सुयस्नादादिमा मुक्तिकामाः ॥२८४।। अर्थ--यह 'ईर्या समिति' समस्त गुणों को खान है : स्वर्ग की सीढी है; मोक्ष सुखको उत्पन्न करने वाली माता है; हिसादि पापों से सर्वथा दूर है; अत्यन्त पवित्र है; तीर्थकर और गणघर देवों के द्वारा सेवन करने योग्य है और समस्त दोषों से रहित है । इसलिये मोक्षको इच्छा करने वाले पुरुषों को बड़े प्रयत्न से इस 'ईर्या समिति' का पालन करना चाहिये ॥२८ २ भाषा समिति का स्वरूपहास्यकर्कशपशून्य, परमिन्दात्म शंसनात । विकथावीश्च संत्यज्य, धर्ममार्गप्रयत्तये ॥२८॥ स्वस्याम्येषां हितं सारं, मितं धर्माविरोधियत् । वचनं यते वशः, साभाषासमितियथा ।।२८६।। अर्थ-चतुर पुरुष, (१) हंसी के वचन (२) कठोर वचन (३) चुगली के वचन (४) दूसरे को निदा के वचन (५) और अपनी प्रशंसा के वचनों को तथा (६) विकथाओं को छोड़कर, केवल धर्म मार्ग की प्रवृत्ति करने के लिए तथा अपना और दूसरों का हित करने के लिए सारभूत परिमित और धर्म से अविरोधी जो वचन कहते हैं उसको 'भाषा समिति' कहते हैं ॥२८५-२८६॥ सत्य वचन के १० भेदसत्यं जनपदाख्याध, संमतं स्थापनाह्वयम् । मामरूपं प्रतीतं संभावना सत्यसंशकम् ॥२८७।। व्यवहाराभिषं भाष, मुपमासत्यमेव च । दशति वचो शाध्य, सत्यं सत्यागमोद्भवम् ॥२८॥ अर्थ- (१) पागम में निम्न लिखित सत्य वचनों के १० भेद बतलाये हैं यथा (१) जनपद सत्य (२) संमत सत्य (३) स्थापना सत्य (४) नाम सत्य (५) रूप सत्य (६) प्रतीत सत्य (७) संभावना सत्य (८) व्यवहार सत्य (6) भावसत्य और (१०) उपमा सत्य ॥२८७-२८॥ सत्य के १० भेदों के लक्षणनामादेशाविभाषाभिः, कथ्यते यच्छुभाशुभम् । वस्तु तच्च विरुद्ध' न, सायं 'जनपवाभिधम् ।। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - मूलाचार प्रदीप] [द्वितीय अधिकार यथा छ प्रोष्यते लोकः, सर्वभाषाभिरोदनं । चौरः द्राविभाषाभिः, म विवादोऽनविनते ।। अर्थ-अनेक देशों की भाषा में जो शुभाशुभ कहा जाता है और जो किसी के विरुद्ध नहीं होता; उसको (१) जनपद सत्य कहते हैं; जैसे लोग सब भाषाओं में 'प्रोदन' या 'भात कहते हैं अथवा चोर भी सब भाषाओं में कहते हैं तथा द्राविड़ आदि किसी भाषा में उसके लिए विवाद उपस्थित नहीं होता इसको 'जनपद सत्य कहते हैं ।।२८६-२६॥ बहुभिः संमतं यत्तत, सत्यं सम्मतमुच्यते । मानुष्येऽपि यथा सोफे, महादेवी निगद्यते ॥२१॥ अर्थ-जिसको बहुतसे लोग मानें उसको 'संमत सत्य' कहते हैं जैसे-रानी मनुष्य है तो भी उसे 'महादेवी' कहते हैं ॥२६१॥ स्थाप्यते प्रतिबिंयत्, स्थापना सत्यमेव तत्। यथार्हन्मुनिसिद्धानां, प्रतिमा_प्रवृत्तये ॥२२॥ अर्थ-किसी के प्रतिबिंब को स्थापन करना स्थापना सत्य है। जैसे-पूजा करने के लिए अरहंत, सिद्ध या मुनियों को प्रतिमा स्थापन की जाती है ॥२६॥ गुणस्तथ्यमतभ्यं का, नाम यत्क्रियते नरणाम् । नामसत्यं तदेवात्र, वेक्वत्तो यथा पुमान् ।।२९३॥ अर्थ-जो मनुष्यों का नाम रखा जाता है। वह गुणों से सत्य भी होता है और असत्य भी होता है तथापि उसको 'नाम सत्य' कहते हैं । जैसे--किसी पुरुष का नाम 'देवदत्त' रख लिया जाता है ।।२६३॥ मुख्यवर्णन यत्रूपं, 'रूपसत्यं तदुच्यते । यथा श्वेता बलाफाख्या, सति वर्णातरेपरे ॥२४॥ अर्थ-जो रूप किसी मुख्य वर्णसे कहा जाता है उसको 'रूप सत्य' कहते हैं जैसे 'बमले' सफेद होते हैं । यद्यपि 'बगलों में और भी वर्म होता है तथापि वे सफेद हो कहलाते हैं ॥२६४॥ अन्य हापेक्य सिद्ध परप्रनीतसत्यमेव तत् । यथा दीर्घोऽयमन्यत हस्वभपेक्यात्र कथ्यते ।।२९।। अर्थ-जो अन्य किसी पदार्थको अपेक्षा से सिद्ध होता है उसको 'प्रतीत सत्य' कहते हैं। जैसे पह लंबा है। यह लंबाई किसी को कम लंबाई को अपेक्षा से कही जाती है ॥२६॥ शक्याशक्यविभवाम्पा, कार्यकत्तुं यवोहते । संभावना भिषं तबाहम्यां सतुं यथाम्बुधिम् ।। अर्थ-यह काम हो सकता है या नहीं; इस प्रकार दोनों ओर के विकल्पसे Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप! [द्वितीय अधिकार जो काम करने की इच्छा की जाती है उसको 'संभावना सत्य' कहते हैं । जैसे—यह समुद्र भुजाओं से पार किया जा सकता है या नहीं ॥२६॥ ध्यपहारेण कार्यादी, प्रोज्यते पदयो भनेः । व्यवहाराश्यसत्यं तद्, याक रोऽन पश्यते ।। अर्थ-किसी भी कार्य में, व्यवहार से जो लोग वचन कहते हैं उसको 'यथा हार सस्य' कहते हैं। जैसे यह भात पकाया जाता है, पके चावलों को 'भात' कहते हैं तथापि व्यवहार में भात पकाना कहते हैं ॥२६७।। हिसादिवशेषदूरं यत्, सत्यं वा सत्यमुच्यते । भावसत्यं च तल्लोके, दृष्टपचौरी ययात्र न १२९८॥ अर्थ-जो हिंसाविक पापों से रहित, वचन है उनको 'भाव सत्य' कहते हैं; जैसे-घरमें 'चोर' रहते हुए भी कहना कि यहां नहीं है ॥२८॥ प्रौपम्येनात्र संयुक्त, ब्रयते वचनं च यत् । उपमासत्यमेतद्, यथा पल्योपमादयः ॥२६६।। अर्थ- जो पचन किसी 'उपमा' के साथ कहे जाते हैं उन्हें 'उपमा सत्य' कहते हैं, जैसे-पल्य, सागर आदि ॥२६६।। प्रमीभि दंशभि भाषाभेद धर्मप्रवृत्तये । प्रागमोक्ष: स्वतस्वनाः, बदन्तु सूभूतं वचः ॥३०० । अर्थ- प्रात्मतत्त्वको जाननेवाले, पुरुषों को धर्मकी प्रवृत्ति करनेके लिये आगम में कहे अनुसार, भाषा भेद से जो १० प्रकार के सत्य के भेद हैं उन्हें ही बोलना चाहिये ॥३०॥ असत्य वचन का स्वरूपभाषा मेवेन्य एतेभ्यो, दशभिः प्रोभतेऽत्रया । विपरीताऽशुभाभाषा, तबसत्यं वयोमतम् ।।३.१॥ अर्थ-भाषा के मेद से जो सत्य के १० भेद बतलाये हैं उससे विपरीत जो अशुभ भाषा है उसको 'असत्य वचन' कहते हैं ॥३०१।। सत्यासत्यद्वयोपेता, भाषा या अ यते नरैः । सान सत्यमुषा, भाषा भाषिता श्री जिनागमे । तस्मात् सत्यमषा बादात, विपरीत व भाषरणम् । यस्मासस्यमषा भाषा, नबपा कथिता श्रुते ।। अर्थ- मनुष्यों के द्वारा, जो सत्य और असत्म उभय रूप भाषा बोली जाती है उसको जिनागम में 'सत्या सत्य' भाषा कहते हैं। उस 'सत्यासत्य भाषा से जो विपरीत भाषण है उसको 'अनुभय भाषा' कहते हैं; अथवा 'असत्यासत्य' कहते हैं, वह अनुभव भाषा शास्त्रों में प्रकार की रतलाई है ॥३०२-३०३॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूखाचार प्रदीप ] द्वितीय अधिकार * अनार की अनुशाया के दप्रथमा मंत्रिणी भाषा, झापना याचनाभिषा। संपृच्छना तथा प्रज्ञा पना भाषा च पंचमी ।। प्रत्याख्यानाह्वयेच्छा, मुलोमाख्या सप्तमी ततः। संशयादि वचन्यंत, भाषाष्टमी ततोऽपरा ।। अनमराभिषाभाषा, सारासस्यमषालया। असत्यासत्यभाषाया, नवमेदा भवन्स्यमी ।।३०६।। मर्थ-(१) आमंत्रणी (२) प्राज्ञापना (३) याचना (४) संपृच्छना (५) प्रज्ञापना (६) प्रत्याख्याना (७) इच्छानुलोमा (4) संशयवचनी (E) अनारा ये बनुभय भाषा के मेव है ॥३०४-३०५.३०६॥ आमंत्र्यते यया लोकोऽभिमुखी क्रियते प्रति । म्यापारान्तरमेवान्य भाषासामन्त्रणी स्मृता । अर्थ-किसी को अपने सामने करने के लिये, बुलाने के लिये अथवा व्यापारान्तर करने के लिये, दूसरों के द्वारा, जो भाषा बोली जाती है उसको (१) आमंत्रणी भाषा कहते हैं ॥३०७॥ प्रामाप्यते यथा लोके, प्राशा तेऽहं ददामि भोः । इत्यावि वचनं यत्सा, झापना मीनिरूपिता ॥ ___ अर्थ- "मैं तुमको यह प्राज्ञा देता हूं" इसप्रकार जो माझा रूप बचन कहना है उसको (२) 'प्राजापनी' भाषा कहते हैं ।।३०।। याधमा क्रियते लोके, या सा याचनात्यगोः । यथाहं मापयामि त्वां किंचिद्वस्तु शुभाशुभम् ।। अर्थ-मैं तुमसे यह शुभ या अशुभ वस्तु मांगता हूं, इसप्रकार मांगने के लिए जो भाषा बोली जाती है उसको 'याचना नामकी' भाषा कहते हैं ।।३०६।। संपृच्छपते यवान्पः सा, भाषा संपृषछनाहया । यथा पृच्छाम्यहस्था च, किचिरका हिताहितं ।। अर्थ--मैं तुमसे कुछ 'हित मा अहित की बाल पूछना चाहता हूँ इसप्रकार जो दूसरों के द्वारा पूछने के लिये जो भाषा बोली जाती है उसको 'संपृच्छना' भाषा कहते हैं ॥३.१०॥ श्या प्रज्ञाप्यते लोकों, भाषा प्रशापनात ला । यया प्रथापयामि त्वा, महं किचिन्मनोगतम् ।। अर्थ-मैं तुमको अपने मन को कुछ बात बताना चाहता हूं इसप्रकार लोगों को कुछ सूचना देने की बात कही जाती है उसको 'प्रनापना' भाषा कहते हैं ॥३११॥ मप्रत्मात्यायसे भावमा, सा भावात्र कम्यते । प्रत्याल्याना यथा, प्रत्याख्यानं मेदोबसामिरम् ।। अर्थ—'मुझे यह प्रत्याख्यान दीजिये' इस प्रकार भाषा के द्वारा जो प्रत्या Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप ] ( ४० मान किया जाता है उसको 'प्रत्याख्याना' भाषा कहते हैं ।।३१२॥ सयंत्रात्रानुकूलाया, स्वेच्छया प्रोच्यते जनैः । भाषा सेच्छानुलोमाध्या व करोम्यहं ॥ अर्थ- 'मैं ऐसा करता हूं' इसप्रकार सर्वत्र अपने अनुकूल अपनी इच्छानुसार बोलने को 'इच्छानुलोमा' नामकी भाषा कहते हैं ॥ ३१३॥ द्वितीय अधिक बालबुद्धपशूर्ना च यथा नार्थः प्रतीयते । भाषया संशयाथत, वचनी सा निगद्यते ॥३१४॥ अर्थ- बालक, वृद्ध और पशुओं की भाषा से अर्थ की प्रतीति नहीं होती इसलिये उसको 'संशय वचनी' भाषा कहते हैं ।। ३१४ || अक्षरगला भाषा, यानीन्द्रियादि देहिनाम् । सात्रा सत्यमुषा नाम्मी, काते नवमः ॥ अर्थ – दो इन्द्रिय, इन्द्रिय आदि जीवों को जो अक्षररहित भाषा है उसको 'अक्षरा' नामकी 'अनुभव भाषा' कहते हैं ।। ३१५ ।। विशेषा प्रतिपत्ते, भूषामेवनबान्विता । ( आगे की पंक्ति मूल पाठ में ही नहीं है । ) । । ३१६॥ अर्थ- - इन & प्रकार की भाषाओं में पदार्थ के विशेष स्वरूप का ज्ञान नहीं होता; इसलिये ये वचन सत्य नहीं कहलाते; तथा इनसे सामान्य का ज्ञान होता है इसलिये इनको असत्य भी नहीं कहते; एतएव इन 6 प्रकार की भाषाको 'अनुभव' वचन कहते हैं ३१६।। शश्वन्मौनं विषालु ये, समर्था योगिनों भुवि । सत्यानुभयभाषाभ्यां से अर्थ - इस संसार में जो मुनि सदा काल मौन धारण उनको सत्य और अनुनय भाषा के द्वारा शुभ वचन कहने चाहिये ।।३१७॥ वस्तु वचः शुभम् ॥ करने में असमर्थ हैं कर्कशा कटुका भाषा, परुषा निष्ठुराघवा । परप्रकोपिनी मध्य, कृशाभिमानिनीचगः ॥ ३१८ । । तरकश छेद करी मूलवर्धक । नियमा दशषा भाषा, त्याज्या निधाधिकारिणी ॥३१६ ।। अर्थ - ( १ ) कर्कश (२) कठोर (३) कटुक ( ४ ) निष्ठुर ( ५ ) पर प्रकोपिनी (६) मध्यकृता (७) अभिमानिनी (८) अनयंकरी (६) देवंकरी (१०) और naiकरी ये १० प्रकार की भाषायें निय' कहलाती हैं; निच जीव ही इसके बोलने के अधिकारी होते हैं इसलिये इन निद्य भाषाओं का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये । ।। ३१८-३१६।। 4 1 . भ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप . द्वितीय अधिकार स्वं मूर्खस्वं बसीबों, न किंचित्रे सिरे शठ । संताप जननी त्याचा, पागीः सा कशोच्यते ।। अर्थ--तू मूर्ख है; तू बैल है, अरे शठ ! तू कुछ नहीं जानता इसप्रकार की संताप को हत्या करने वाली जो भाषा है, उसको 'कर्कश' भाषा कहते हैं ।३२० कुमातिस्त्वं च निर्षम, इत्यादि वधनं च यत् । उव गजननी भाषा, कटुका सा मतागमे ॥३२१॥ अर्थ- कुजाति है। तू अधर्मी है। इस प्रकार के जो वचन हैं या उद्वेग करने वाली भाषा है उसको भागम में 'कटुक भाषा' कहते हैं ।।३२१॥ भनेकावर गुण्टोऽति, दमाचारपररांगभुषः । इत्यादि पदयो मर्म, चालनो परापात्र सा ॥३२२।। निष्ठुर भाषाअर्थ-'तू बहुत अंशों में दुष्ट है। तू आचार पालन करने से परांगमुख है' इसप्रकार के मर्म छेदने वाले वचनों को 'परुष' भाषा कहते हैं ।।३२२।। स्वामहं मारयिष्यामि, कर्तयिष्यामि ते शिरः । इत्यादि बयते वाक्यं, यत्सा भाषातिमिष्ठरा ।। अर्थ-'मैं तुझे मार डालंगा तेरा मस्तक काट डालगा इस प्रकार के वचन कहना निष्ठुर भाषा है ।।३२३॥ परकोपिनी भाषाकि से तयोऽत्र निलंज्जस्त्वंरागी हसमोधतः । इत्याविकोपवाक्यं यत्सागीः परकोपिनी ।।३२४॥ अर्थ-हे निर्लज्ज, तू यह क्या तपश्चरण करता है क्योंकि तू रागो है, सदा हंसता ही रहता है । इस प्रकार के क्रोध उत्पन्न करने वाले वचनों को 'परकोपिनी' भाषा कहते हैं ।।३२४॥ हड्डानांमध्यभागं च, यया निष्ठुरया गिरा । कृरयते सुभता मध्य, कृशा सा निर्वयागीः ॥३२५।। अर्थ-जिस निष्ठुर भाषा से, हड्डी के मध्य भाग भी कट जाय, ऐसी निर्दय भाषा को 'मध्यकृषा' भाषा कहते हैं ।।३२५॥ अभिमानिनी भाषास्वगुणल्यापमं लोके परेषां दोषभाषणम् । यया ध क्रियते निचं, नियागीः साभिमानिनी ॥ अर्थ-निंद्य लोग जिस भाषा से अपने गुणों का वर्णन करते हैं और दूसरे के दोषों का वर्णन करते हैं उस भाषा को 'अभिमानिनी' भाषा कहते हैं ॥३२६।। ..---. -. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] [द्वितीय अधिकार अनयंकरी भाषापर पंडनकरी शीलानां या चाचोन्य गतासमनाम । 'विद्वयकारिणों भाषा, स्मृता सानानयंकरा।। ____ अर्थ --जो भाषा परस्पर एक दूसरे के शील खंडन करनेवाली है यह परस्पर विद्वेष उत्पन्न करनेवाली है उसको 'अनयंकरी' भाषा कहते हैं ॥३२७॥ छेदकरी भाषा. . वीर्यशीलगुणादीमां, या निर्मूलविधायिनी । अस तान्यदोवोद्भाविनी छेदकरात्र सा ॥३२८।। अर्थ-जो भाषा वीर्य शील और गुणों को निर्मूल नाश करने वाली है। जो असत्य है और दूसरों के दोषों को कहने वाली है वह 'छेदकरी भाषा है ॥३२८॥ भूतवधकरी भाषा - प्राणनाशोऽशुभं पीड़ा, भूतानां जायते यथा । सानिष्टकरी मूला, सा गौमूतषधंकरी ।।३२६।। अर्थ-जिस भाषा से जीवों का प्रारण नाश होता हो; अशुभ और पीड़ा उत्पन्न होती हो; जो सब तरह का अनिष्ट करने वाली हो; उसको 'भूतबंधकारी' भाषा कहते हैं ।।३२।। इमा दश विधा भाषाः, खन्या सनसां भुषि । प्राणान्तेऽपि न वक्तव्या, मुनिभिः परवुःखाः ।। अर्थ-यह १० प्रकार की भाषा, समस्त पापों की खान है; और दूसरों को दुःख देनेवाली है । इसलिये मुनियों को अपने प्राण नाश होने पर भी, ऐसी भाषा कभी नहीं बोलनी चाहिये ।।३३०।।। विधेया न कथा स्त्रोणा, श्रृंगार रसवनिः । कामादि बीपिका जातु, अतिभिः ब्रह्मनाशिनी ।। अर्थ-व्रतो पुरुषों को ऐसी भाषा कभी नहीं बोलनी चाहिये; जो काम के विकार को बढ़ाने वालो हो; और ब्रह्मचर्य को नाश करने वाली हो तथा ऐसी कथा भी नहीं कहनी चाहिये ; जिसमें स्त्रियों के श्रृंगार रस का वर्णन हो ॥३३१॥ भक्तपान रसाबीनामिष्टानां सुखकारिणाम् । क्वचिन्न कुकथा कार्या, हारसंशाप्रवद्धिनी ।।३३२।। अर्थ-प्राहार संज्ञा को बढ़ाने वाली, तथा मीठे और सुख देने वाले भोजन पान या रस आदि का वर्णन करने वाली कुकथा या भोजन कया भी नहीं कहनी चाहिये ।।३३२॥ रौद्रकर्मोद्धवा निद्या, रौद्रसंग्रामपोषणः । भूभुजां कुकथा त्याज्या, रोमध्यानविधायिनी ॥३३३॥ अर्थ- रौद्र संग्राम का वर्णन करने से रौद्र कर्म को उत्पन्न करने वाली और Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] [द्वितीय अधिकार रौद्रध्यान को बढ़ाने वाली निदनीय राज्य कथा भी कभी नहीं कहनी चाहिये ।।३३३॥ विकथाओं का निषेधचौरा बहुवेशामा, मिश्यावृष्टिकुलिगिमा। अर्थार्जनं विधीनां च, भाषणं वैरिणाम भुवि ।। मुबास्मृतिला, पुराना बयाकाः । पिता ने कम्पिा, न श्रोतव्या अधाकराः ।। अर्थ-(१)ोरों को कथा (२) अनेक देशों की कथा (३) मिथ्याष्टि कुलिशियों की सेवा (४) बन उपार्जन के कारणों की कथा (५) शत्रुओं की कथा (A) मिकमा स्मृति शास्त्र कुशास्त्र, मिथ्या पुराणों को कथायें या पाप उत्पन्न करने बाली विकमायें कभी नहीं कहनी चाहिये; न कभी सुननी चाहिये ।।३३४-३३५॥ फिमत्र नहुनोतन, जिन केवलियोगिनाम् । मुक्त्वा धर्मक यानन्याः, कार्या जातु न संयतः।। अर्थ--बहत कहने से क्या ? थोड़े में इतना समझ लेना चाहिये कि मुनियों को भगवान् अरहंत देव, केवली भगवान् और मुनियों की धर्म कथाओं को छोड़कर बाकी को कोई कथा नहीं कहनी चाहिये ॥३३६॥ विकथाचारिणामत्र, यतो नश्येष्ठ तं मति । महान् पापात्रषो नित्यं, मूर्खता च प्रजामते ।। अर्थ-इसका भी कारण है कि विकथा कहने वालों की बुद्धि और श्रुतज्ञान सब नष्ट हो जाता है तथा प्रति समय तीन पाप कर्मों का आस्रव होता रहता है और मूर्खता भी प्रकट होती है ।।३३७॥ परनिंदा न कतव्या, स्वान्यदुःखविधायिनी । पृष्ठमांसोपमा जातु, वृथाधास्रवकारिणी ॥३३॥ अर्थ-मुनियों को पर-निदा भी कभी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि परनिंदा अपने को तथा दूसरोंको सबको दुःख देनेवाली है। व्यर्थ हो पापात्रच उत्पन्न करनेवाली है; और पीठ के मांस के समान ( कुबड़े के कुब्ज के समान ) दुख देने वाली हैं। ॥३३॥ कंसी वाणी कभी नहीं योलनी चाहियेजायेतात्र यथान्येषा, पोडावधश्च देहिनां । क्लेशायन्धौ पतेत्स्वात्मा, सागोवांच्या न योगिभिः ।। अर्थ-मुनियों को कोई भी ऐसी वाणी नहीं बोलनी चाहिये जिससे कि अन्य प्राणियों को पीड़ा या वध होता हो अथवा क्लेश होता हो अथवा अपनी आत्मा क्लेश प्रावि के महासागर में पड़ती हो ऐसो वाणी कभी नहीं कहनी चाहिये ।।३३६ ।। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप | [द्वितीय अधिकार चतुविधसुसंघाना, निर्दोषाणां निसर्गतः । जातु दोषरे न वक्तव्यः, प्राणान्तेप्यपसागर: ॥३४०।। अर्थ-चारों प्रकार का संघ स्वभाव से ही निर्दोष है; इसलिये प्राणों का अन्त समय आने पर भी संघ का दोष नहीं कहना चाहिये; क्योंकि संघका दोष कहना महापाप का कारण है ॥३४०।। __ मैत्री अादि चारों भावनामों की उपयोगितासर्वसत्त्वेषु कर्त्तव्या, मंत्री धर्मस्वनी परा । प्रमोकः परमः कायों, गुणाधिकतपस्विषु ॥३४१॥ कहलाक्लिष्टजीवेषु, विधेयानुग्रहादिभिः । माध्यस्यं मुनिभिः कार्य, विपरीतजडात्मसु ।।३४२।। अर्थ-मुनियों को समस्त प्राणियों में धर्म की खान ऐसा मैत्री भाव धारण करना चाहिये सथा जो तपस्वी, अधिक गुणी हैं। उनको देखकर परम प्रमोद धारण करना चाहिये । दुःखी जीवों को देखकर अनुग्रह पूर्वक करुणा धारण करनी चाहिये और मिथ्यादृष्टि अज्ञानी मनुष्यों में मध्यस्थता धारण करनी चाहिये ।।३४१-३४२।। शुभ-भावनामों का फलमाभिः सुभावनाभिर्ये, प्रवर्त्तन्तेऽन्वहं बुधाः । लोके भुक्ता इवाहो से, रागाध स्पृशांति न ॥ अर्थ-जो बुद्धिमान, रात दिन इन भावनाओं का चितवन करते हैं; वे इस संसार में मोती के समान रागद्वेष के अंशों को कभी स्पर्श नहीं करते ॥३४३।। उपसंहारात्मक भाषा का प्रयोगविश्ववहाक्षसौख्यादी, विरक्तिर्जायते यथा । सम्यग्वगशान चारित्र, शमादि गुण राशयः ।।३४४॥ स्वान्येषां च प्रवर्धन्ते, धैर्य सम्पद्यते तरी । सपोयोगावि सिध्यसा भाषा वाघ्या मुमुक्षिभिः । अर्थ-मोक्ष की इच्छा करने वाले, मुनियों को तप और ध्यान की सिद्धि के लिये ऐसी भाषा बोलनी चाहिये जिससे कि शरीर और इंद्रियों के सुख से वैराग्य उत्पन्न हो जाय, सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र और समस्त शीतता आदि अपने या अन्य लोगों के गुणों को वृद्धि हो जाय तथा सर्वोसम धोरता की प्राप्ति हो जाय । ॥३४४-३४५॥ भाषा समिति की उपयोगितामूलमूतो म जानाति, भाषासमितिमूजिताम् । जिनधर्मस्य यः सोऽत्र, कथं कर्मानवांस्त्यजेत् ॥ अर्थ-जो मुनि जिनधर्म को मूलभूत और सर्वोत्कृष्ट ऐसी इस भाषा समिति Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] द्वितीय अधिकार को नहीं जानता है वह अपने कर्मों के प्रालय को कैसे रोक सकता है ? अर्थात् कभी नहीं रोक सकता है ॥३४६॥ भाषा समिति का उपसंहारात्मक विवरणमवेति यनसो नित्य, पालयतु शिवाधिन।। भाषासमितिमत्यर्थे, जिनोक्तां शिवसिद्धये ॥१३४७। अर्थ-यही समझकर, मोक्ष की इच्छा करने वाले मुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये भगवान जिनेन्द्र देव की कही हुई भाषा समितिको यन्न पूर्वक प्रतिदिन अच्छी तरह पालन करना चाहिये ॥३४७१॥ श्रुतसकलगुणाम्बा, विश्वविज्ञामसानिम् । जिनपतिमुनिसेव्यां, पाविनी धर्ममूलाम् ॥ शिवशुभगतिथीथीं, मोकामा स्थलिप्यं । प्रभास समिति, भाभिधा सईयत्नात् ॥३४॥ अर्थ-यह भाषा समिति समस्त श्रुतज्ञान को देनेवाली है। समस्त विज्ञानको खान है। भगवान् तीर्थकर परमदेव और मुनियों के द्वारा सेवन करने योग्य है, अत्यंत पवित्र है। धर्मको मूल है तथा मोक्ष और स्वर्गगति का मार्ग है। इसलिये मोक्ष को इच्छा करनेवाले मुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये, पूरण प्रयत्न के साथ, भाषा समिति का पालन करना चाहिये ।।३४८।। (३) एपणा समिति का स्वरूपशीतोष्णादि यथालग्ध, भुज्यते यन्मुमुक्षुभिः । परगृहेशानं शुर', संवरणासमिति मता ।।३४६॥ अर्थ-मोक्षकी इच्छा करने वाले मुनिराज, दूसरे के घरमें जाकर, शीत या उष्ण जैसा मिल जाता है, वैसा शुद्ध भोजन करते हैं इसी को 'एषणा समिति' कहते हैं ॥३४६॥ मुक्ता यै रष्टभिर्बोष रेषणाशुद्धि र ता । निर्मला स्यात्प्रवक्ष्येसान्, पिंडशुद्धिमलप्रदाम् ।।३५०॥ अर्थ-पाठ प्रकार के दोषों से रहित हो; वही 'एषणा शुद्धि' निर्मल कही जाती है । इसलिये पिड शुद्धियों से मल उत्पन्न करने वाले उन दोषों को अब कहते हैं ॥३५०॥ ऐषणा के पाठ प्रकार के दोपबोडर्शयोगमा दोषाः, षोडशोत्पादनाभिधाः । दर्शवासन दोषाहि, दोषः संयोजनाहयः ॥३५१।। अप्रमारणस्तोगारो, धूमः कारणसंशकः । प्रमीभिरष्टभिर्दोषैः, समासेन विजितः ॥३५२।। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] { द्वितीय अधिकार अर्थ-सोलह तो 'उद्गम दोष' कहलाते हैं, १६ "उत्पादन दोब' कहलाते हैं, १० भोजन के दोष कहे जाते हैं; १ संयोजन, १ अप्रमाण, १ अंगार, १ धूम और एक कारण । संक्षेप से इन ८ दोषों से रहित ही भोजन होना चाहिए -२१२॥ प्रवः कर्मातिगा पिंड, शुद्धिः स्यादष्टधा परा । निर्ममा च मुमुक्षूणा, कर्माना निरोधिनी ।। अर्थ- इसप्रकार अधःकर्म से रहित, पिशुद्धि प्राट प्रकार से मानी हैं। मोक्ष की इच्छा करने वाले मुनियों को ऐसी पिडशुद्धि ही निर्मल और कर्मों के आस्रव को रोकने वाली कही जाती है ।।३५३॥ एतर्दोषयहिभू तो, गृहि पाखंडिसंश्रितः । योधः कमबृहदोषः, बाट प्राणिवपकारकः ॥३५४॥ अर्थ-गृहस्थ और पाखंडियों के प्राश्रित रहने वाला तथा इन सब दोषों से भिन्न एफ अधःकर्म नामका सबसे बड़ा दोष है। तथा यह दोष छहों प्रकार के प्राणियों को हिसा करने वाला है ।।३५४॥ नोच कर्मोद्भवस्त्याज्यो, दूरतः सोऽत्र संपतेः । पापभीत महापापकरोऽकीति निर्वधनः ॥३५॥ अर्थ-पापों से डरने वाले मुनियों को, नीच कर्मों से उत्पन्न हुप्रा आहार दूर से ही छोड़ देना चाहिये क्योंकि ऐसा आहार, महा पाप उत्पन्न करनेवाला है और अपकोत्ति का कारण है ||३५५।। षडविधांगिनिकायानो, मारणं च विराषनम् । कृत्वा निष्पन्न मन्त्र, स्वयं कायेनानयत्कृतं ।। कारितं वचसा वानु, मतेन सफलं च तत् । नोचकर्म कर निद्य, मप्र: कर्म निगद्यते ।।३५७॥ अर्थ-छहों प्रकार के जीवों को स्वयं अपने हाथ से मारने अथवा उनको विराधना करने से या वचन के द्वारा दूसरों से मरवाने या विराधना कराने से अथवा अनुमोदना करने से जो अन्न उत्पन्न होता है ऐसे निदनीय और नीचकर्म से उत्पन्न होने वाते अन्न को 'अधकर्म' कहते हैं ॥३५६-३५७।। यह अधःकर्म महा दोष हैशाश्वेत्ययं महादोषो, प्रासंयतजनाश्रितः। सर्वयत्नेन संस्थाज्यः, सदाधः कर्मसंशकः ।।३५८॥ ___अर्थ-यह 'अधःकर्म' नामका महादोष असंयमी लोगों से उत्पन्न होता है; इसलिये इस 'अधःकर्म' नाम के दोष को अपने पूर्ण प्रयत्नों से सदा के लिये त्याग कर देना चाहिये ॥३५८॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप [ द्वितीय अधिकार १६ उद्गम दोषों का वर्णनपांच उशिको दोषो, द्वितीयोऽच्याधिनामकः । पूप्ति मिश्राभिधो दोषः, स्थापितों लिसंज्ञकः ।। प्राबतितालमा प्रोविपकरणः क्रोत एव च । ततः प्रामिछवोषोऽथ, परिवर्तकसंज्ञकः ॥३६॥ दोषोऽभिघट उनिलो, मालारोह समायः आच्छेद्याख्योप्यनौशार्थो, ऽमीवोषा: षोडशोद्गमाः । नागारि देव पाखंडि, योन वर्थ म यत्कृत। उहिस्यान्तं गृहस्यैत, दुद्दे शिकमिहोच्यते ।।३६२।। मर्य--अब १६: उगम बोषों को कहते हैं-(१) उद्देशिक (२) अध्यधि (क) प्रति () मिष (५) स्यापित (६) बलि (७) परापत्तित (6) प्राविक्करण (8) कील (१०) प्रामिच्छ (११) परिवर्तक (१२) अभिघट (१३) उद्भिन्न (१४) मालारोहल (१५) आच्छैच और (१६) अनोशार्थ ये १६ 'उद्यम दोष कहलाते हैं । ॥३५६-३६१॥ (१) उद्देशक दोषअर्थ-गृहस्थों के द्वारा जो नागादि देवों के उद्देश्य से अश्रया पाखंडियों के या दोन हीन मनुष्यों के उद्देश्य से जो प्राहार तैयार करते हैं, ऐसे माहार को लेना (१) 'उद्देशक दोष' कहलाता है ।।३६२।। सामान्यांश्च जनान् कांश्चित, तथा पाखंडिनोऽखिलान् । धमणान परिव्राजकादोनिग्रंथ संपतान् ।। उद्दिश्य यत्कृतं चान्न, मुद्देशिक चतुर्विधम् । तत्सर्वं मुनिभिस्त्याज्यं, पूर्वसावद्यदर्शनात् ।।३६४॥ अर्थ-एक तो अन्य सामान्य लोगों के लिये, भोजन बनाया जाता है। दूसरे बहुत से पाखंडियों के लिये बनाया जाता है तीसरे परिव्राजक साधुओं के लिये बनाया जाता है और चौथे निग्रंथ मुनियों के लिये बनाया जाता है; वह जो चारों के उद्देश्य से आहार बनाया जाता है वह चार प्रकार का 'उद्देशिक' कहलाता है। मुनियों को उस आहार के बनने के सब पापों को देख कर सबका त्याग कर देना चाहिये । ॥३६३-३६४॥ (२) अध्यधि दोषदानार्थ संयतान् दृष्ट्वा, निक्षेपोयः स्वतंडले। अन्येषा संडुलानां स, दोषोध्यधिसभाह्वयः ॥३६५११ ___ अर्थ-आहार के लिये प्राते हुए संयमियों को देखकर पकते हुए अपने चावलों में किसी दूसरेके चावल और मिला देना (२) 'अध्यधि' नामका दोष कहलाता Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ] ( ५६ ) [ द्वितीय अधिकार अन्नपानादिकं मिथं यदप्रामुरुवस्तुना । पूर्ति दोष एक स्थात पंच मेोऽयकारकाः २२३६६ ॥ अर्थ – जो प्रपानाविक अप्रामुक वस्तु से मिला हो उसको 'पूति दोष' कहते | यह 'पूति दोष' पाप उत्पन्न करने वाला है और उसके ५ मेद हैं ।। ३६६ ॥ (३) पूर्ति दोष धन्लो वर्षोभोजनं गंध एव हि । प्रतिदोषो इसे शेया, पंच सावधकारिणः ॥ ३६७॥ अर्थ - रंधनी ( चूल्हा) उदुखल (ओखली ) दर्यो ( करछली) भोजन और गंध ये ५ प्रकार के 'पूति दोष' कहलाते हैं । ये सब पाप उत्पन्न करने वाले हैं ।। ३६७ ।। धन्या प्रवराहारं froपाथ साधये धर्म वास्याम्यायों ततो न्येषां प्रतिवोषः स उच्यते ॥ साधु अर्थ - इस चूल्हे पर सबसे उत्तम आहार बनाया है; इसे सबसे पहले किसी के लिये दूंगा तबनंतर किसी दूसरे को दूंगा ऐसे आहार में 'पूति दोष' उत्पन्न होता है ।। ३६८ ।। चूर्णयित्वा शुभं वस्तुखले योगिने च यत् । यावद्दास्यामि नान्येभ्यस्तावत्पूतिः स कथ्यते ॥ अर्थ -- किसी प्रोखली में अच्छी वस्तु कूटकर विचार करना कि जबतक इसमें से मुनि को नहीं दे दूंगा तब तक किसी दूसरे को नहीं दूंगा; ऐसे आहार में भी 'पूति दोष' उत्पन्न होता है ॥ ३६९॥ ध्यानयाकृतं द्रव्यं यावद्दास्यामि नोऽजितम् । ऋषिभ्योऽन्यस्य तावन्नपूतिदोषः स पापकृत् ॥ अर्थ - इस करछली से यह श्रेष्ठ द्रव्य बनाया है; जब तक इस करछली से ऋषियों को नहीं लूंगा तब तक किसी दूसरे को नहीं दूंगा इसप्रकार के ग्रन्न में पाप उत्पन्न करने वाला 'पूति दोष' होता है ॥ ३७० ॥ tarfi भोजनं यावत् साधुभ्यो न अतावहं । इदं तावन्न चान्येषां योग्यं पूतिः स एव हि ॥ अर्थ- - इस भोजन में से जब तक साधुओं को नहीं दूंगा तब तक दूसरों को नहीं दूंगा ऐसे अन्न में भी 'पूति दोष' प्रगट होता है || ३७१॥ यति दीयते ना, गंधो भोजनपूर्वक: । यावत्तावन्न योग्योत्र, स्वान्येषां पृतिरेव सः ॥ ३७२ ॥ अर्थ- - इस गंध में से जब तक आहार देकर मुनियों को न चढ़ा लूंगा तब तक यह गंध दूसरों को नहीं दूंगा । इस प्रकार के अन्त में भी 'पूर्ति बोष होता है ॥ ३७२ ॥ । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ५७ ) [ दितीय अधिकार प्रथमारंभ संजात, मिदमाहार मंजसा । यतिभिः परिहत्तव्यं, दातृसंकल्पदोष ।।३७३।। ___ अर्थ-अभिप्राय यह है कि किसी भी पदार्थ से प्रथम प्रारंभ हुआ, प्रथम ही बनाया हुआ, भोजन मुनियों को ग्रहण नहीं करना चाहिये ; क्योंकि उसमें दाताके संकल्प का योष उत्पन्न हो जाता है ॥३७३।।। (४) मिध दोषमुनिः यो मुहिम, पिसाव । तापखंडिसागारः, मिश्रदोषोऽत्र सौघदः ।। अर्थ-मुनियों को देने के उद्देश्य से पाखंडी गृहस्थों के साथ-साथ जो अन्न तैयार किया गया है उसमें (४) 'मिश्र' नामका दोष उत्पन्न होता है ॥३७४।। (५) स्थापित दोषपाकं भाजनसोऽन्परिमन्, भाजनेस्थापितं च यत् । अन्न स्वान्यस्य गेहेवा, सदोषः स्थापितामः ।। अर्थ-जिस बर्तन में भोजन बनाया गया हो, उसमें से लेकर यदि किसी दूसरे बर्तन में रख दिया गया हो, चाहे वह अपने घर में रखा हो; और चाहे दूसरों के घर में रख दिया हो ऐसे अन्न के लेने में (५) 'स्थापित' नामका दोष होता है ॥३७५।। (६) बलि दोषथानागावि देवानां, निमित्तं यः कृती बलिः । तस्य शेषः स प्राप्त', उपचारेण भो बलिः ।। अर्थ-किसी यक्ष, नाग आदि देवों के लिये जो अन्न तैयार किया जाता है उसमें से उनको देकर जो बच रहता है उसको उपचार से (६) 'बलि' कहते हैं। ॥३७६।। संयतागमनार्थ यद् अलिकर्म विधीयते । अम्बुि क्षेपणाचं वा बलिदोषः स उच्यते ।।३७७।। ___ अर्थ-अथवा संयमियों के आने के लिये पूजा, नल क्षेपणादि के द्वारा जो बलिकर्म किया जाता है वह नी (६) 'बलि' नामका दोष कहा जाता है ॥३७७।। (७) परावर्तित दोषविधा प्राभृतकं बावर सूक्ष्माभ्यां प्रकीलितं। बादरं द्विविध काल, हानिद्धि द्विभेदतः ।।३७८ः। सूक्ष्म प्राभृतक धोक्तं काल हानिवृशिता । अमीषां विस्तरेणतान मेवान् अणु कोऽघुना ।। अर्थ-प्राभृत दोष के २ भेद होते हैं एक बादर और दूसरा सूक्ष्म । कालको Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ५८ ) [द्वितीय अधिकार हानि और वृद्धि के भेद से सूक्ष्म प्राभृतके भी २ भेद हैं । अब आगे इन्हीं सब मेदों का स्वरूप विस्तार के साथ कहते हैं तुम सुनो ॥३७६-३७६।। परावृत्त्य दिनं पक्ष, मासं वर्षे च दीयते । बारं अदिवसाचं स्तत्, स्यूलं प्रामृतकं विषा ॥३०॥ घेलो पूर्वाल्छु मध्यान्हा, पराहानां विहाय यत् । ददाति हानि पुद्धिम्यां, सूक्ष्म प्राभृतकं च तत् ।। अर्थ-जो दान आज वेना हो; उसे कल वा परसों देना अथवा जो वान कल परसों बेना हो उसको किसी मुनि के दाने पर ना होना निमारा पन्ज' नामका 'स्थूल प्रामृत' दोष है । जो दान शुक्ल पक्ष में देना हो, उसे कृष्ण पक्ष में देना अथवा जो कृष्ण पक्ष में देना हो; उसको शुक्ल पक्ष में देना 'पक्ष परावृत्य' नामका स्थल प्राभृत दोष है। इसीप्रकार जो दान चैत में देना हो उसे वैशाख में देना अथवा वैशाख में देना हो उसे चतमें ही बना 'मास परावृत्य' नामका स्थल प्रामृत दोष है । जो दान अगले वर्ष में देना हो, उसे इसी वर्ष में वेना तथा इसी वर्ष में देना हो उसे प्रागे के वर्ष में देना वर्ष-प्रामृत नामका दोष है । जो वान शामको पेना चाहिये उसको किसी संयमी के प्रा आने पर सबेरे ही देना अथवा सवेरे देना चाहिये उसको शाम को बना या दोपहर को देना; ओपहर के देने योग्य दान को सबेरे या शामको वेना, इसप्रकार किसी संयमी के आने पर सवेरे, दोपहर, शाम को देने योग्य दान को बदल कर देना, 'सूक्ष्म प्रामृत' नामका दोष है ॥३८०-३८१॥ इमं प्रावतितं दोषं हिसा संक्लेश कारणम् । त्यजन्तु सर्वथा सबै, बहुभेदं शिवार्थिनः ॥३८२ । अर्थ-इसप्रकार काल की मर्यादा के बदलने में हिंसा अधिक होती है और परिणामों में संक्लेशता बढ़ती है इसलिये मोक्ष की इच्छा करनेवाले मुनियों को अनेक प्रकार का यह 'प्रामृत' नामका दोष सर्वथा छोड़ देना चाहिये ।।३८२॥ (2) प्राविष्कार दोष-- प्राविष्कारो द्विधा संक्रमणप्रकाशना धि | भाजनाना तथा भोजनावीना-बाधकारकः ।।३६६।। अर्थ-'प्राविष्कार' नाम के दोष के २ मेव हैं जो कि संक्रमण करने और 'प्रकाश' करनेसे उत्पन्न होते हैं प्राहार और बर्तनों को बदलने, स्थानांतर करने अथवा प्रकाशित करने में पाप उत्पन्न होता है, इसलिये इसको दोष माना है ॥३८३॥ पाहारभाजनादीना, मन्यस्मासप्रदेशतः । अन्यत्र नमनं भस्मादिमा मामन य यत् ॥३४॥ प्रवीपालन मंड, पावैः प्रद्योतनं हि सः । प्राविष्फरो खिलो दोषः, पापरंभावि वर्धकः ॥३६॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोवार प्रदीप ] ( ५६ ) [ द्वितीय अधिकार अर्थ -- आहार और बर्तनों को एक प्रवेश से दूसरे प्रदेश में ले जाना, अथवा बर्तनों को भस्म से भांजना श्रथवा दीपक जलाकर मंडप को प्रकाशित करना या घर में प्रकाश करना 'प्राविष्कार' नामका दोष है। यह दोष पाप और प्रारंभ को बढ़ाने वाला है इसलिये इसका त्याग कर देना चाहिये ।। ३६४-३८५ ।। (९) कीस दोष स्वायत बेला गृहारं पात्रेभ्यो दीयते तथा ॥ ३८६ | परमं वाइवा दायाशनं च यत् । तत् सर्व क्रीत घोषत्वं जानीहिक्लेश पापदं ॥ ३८७॥ - अपने वा दूसरों के गाय, भैंस आदि चेतन पदार्थ अथवा रुपया पैसा यदि अचेतन पदार्थों को वेकर, आहार लेना और फिर उसे मुनियों को देना 'क्रीतदोष' है अथवा अपनी विद्या वा मंत्रको देकर श्राहार लेना और फिर उसे मुनियों को देना 'कीत बोष' हैं । यह बोध भी क्लेश और पापको उत्पन्न करनेवाला है ।। ३६६-३८७|| (१०) प्रामिच्छ दोष ऋणेनातीय दाता, यत्परात्र परगेहतः । भक्त्या ददाति पात्राय, दोषः 'प्रामिन्छ' एव सः ॥ अर्थ- जो दाता दूसरे के घरसे, कर्ज के रूप में छाल चावल, रोटी आदि लाता है और उसे भक्ति पूर्वक मुनियों को देता है उसके (१०) प्रामिच्छ' नामका दोष लगता है ।। ३८८ ॥ = (११) परिवर्तक दोष - स्वान दत्त्वा न्यगेहादानीयात्र च यत् । वतिभ्यो दीयते भवस्था, स दोष: 'परिवर्तितः ॥३च्छा अर्थ- जो दाता अपने भात या रोटी को देकर दूसरे के घर से मुनियों को देने के निमिस श्रेष्ठ भात रोटी लेकर भक्ति पूर्वक मुनियों को देता है उसको ( ११ ) 'परिवर्तक' नामका दोष लगता है || ३८६ ॥ " (१२) अभिघट दोष - farfree at देश सर्व प्रभवतः । तद्दशाभिष्टं द्वेषा, योग्यायोग्यप्रकारतः ॥३२० अर्थ - (१२) 'अभिघट' दोष के २ भेष हैं एक 'देशाभिघट' और दूसरा 'सर्वाभिघट' उसमें जो देशाभिघट के २ मेव हैं-एक योग्य और दूसरा अयोग्य || द्विभ्यादि सप्तमेभ्यः पंक्तिरूपेण वस्तु यत् । श्रागतं चान्नपानादि, तद्योग्यं योगिनां मतं ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] [द्विसीय अधिकार अर्थ-जो अन्न, पान पंक्ति रूपमें रहने वाले दो तीन आदि सात घरों से आया है वह मुनियों के लिये 'योग्य' माना जाता है ।।३६१॥ यस्मात् कस्मात् गृहार, पंक्त्या बिना वाष्टमगेहतः । अाहारादि यवानीतं, ग्रहणायोग्यमेवतत् ।। अर्थ--जो अन्न, पान बिना पंक्ति रूप से बने हये जिस किसी घर से लाया गया है अथवा आठवें, नौधे घर से लाया गया है। वह मुनियों के ग्रहण करने के 'अयोग्य' समझा जाता है ॥३६२॥ नोट-मूल में ३९३ श्लोक छपना रह गया है उसका अर्थ आप नी अनुसार समनना चाहिये ॥३९३॥ अर्थ-जो अन्न, पाम अपने गांव से पाया है अथवा दूसरे गांव से पाया है या अपने देश से आया है या दूसरे देश से प्राया है ऐसे अन्न पानको देना 'सर्वाभिघट' नामका दोष कहलाता है ।।३९३।। चतुविधं परिजेयं, स्वपाटकान्यपाटकात् । प्रोदनादि यवानीतं, स्वप्रामाभिषटं हि तत् ।।३६४।। अर्थ-इस प्रकार 'सर्वाभिघट' दोष के ४ भेद हैं (१) स्वग्रामाभिघट (२) परप्रामाभिघट (३) स्वदेशाभिघट (४) परदेशाभिघट । एक मुहल्ले से दूसरे मुहल्ले में लाना (१) 'स्वग्रामाभिधट' है और पर ग्राम से अपने ग्राम में लाना (२) 'परग्रामाभिघर' है । अपने देश से गांव में लाना (३) 'स्वदेशाभिघट' है और परदेश से गांव में लाना 'परदेशाभिघट' है ।।३६४।। एवं सर्वोऽपि संत्याग्यो, दोषोऽभिघटसंज्ञका । संयतः संयमार्थ हि, यातायाताभिवाचनात् ॥३६५।। अर्य-इन सब दोषों में प्राने जाने में जीवों को बाधा होती है इसलिये संयमियों को अपना संयम पालन करने के लिये सब तरह के (१२) 'अभिघट' दोषों का त्याग कर देना चाहिये ।। ३६५।। (१३) उद्भिन्न दोषघृताकि भाजनं कर्द, मादिना मुद्रितं बलम् । द्भिध यच्चयं स, उदिनदोषनामकः ।।३६६।। अर्थ-जो घी, गुड, शक्कर का पात्र, किसी से का हो या कीचड़ आदि के जंतुओं से आच्छादित हो रहा हो, उसको उघाड़ कर भुनियोंको देना (१३) 'ड्रिन्न' नाम का योष कहलाता है । ढके हुये में भी चोंटी आदि चढ़ सकती है इसलिये यह Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] दोष माना है || ३६६ ॥ ( ६१ ) [द्वितीय अधिकार (१४) मालारोहण दोष— निःश्रेण्यादिकमा, द्वितीयगृहभूमितः । ग्रानीतं खलु यद्दे में, स मालारोहयो मलः ॥ ३६७।। अर्थ --जो प्रत्र, पान नर्सनी पर चढ़कर या उतर कर ऊंची या मीची दूसरे की भूमिपर से लाकर, मुनियों को दिया जाता है उसमें 'मालारोहण' दोष लगता है । इसमें दाता का अपाय होता है ।।३६७॥ (१५) आच्छे दोष - संगतानागमान् दृष्ट्वा, राजचौर्यादिशाख्यात् । जनमहीयते दशनमाच्छेद्य दोष एव सः ॥ ३६६ ॥ अर्थ – मुनियों के आगमन को देखकर राजा या चोरों के भय से जो लोगों के द्वारा मुनियों को दान दिया जाता है उसको 'आच्छे' दोष कहते हैं (यदि दान न दोगे तो हम तुम्हारा धन लूट लेंगे या तुम्हें निकाल देंगे । इसप्रकार के डर से डर कर दान देना 'प्राच्छेद्य' दोष है ) ||३८|| (१६) अनीशार्थं नामक दोष सारक्षेणेश्वरेण वानोश्वरेणषा, नीश्वरेण च दीयते । व्यक्ताव्यक्तं में दानं यद्दोषोsनोशार्थ एव सः ॥ अर्थ- - व्यक्त और अव्यक्त के भेद से ईश्वर के अर्थात् स्वामी वा प्रभु के २ भेद हैं तथा ( १ ) व्यक्त और (२) अव्यक्त ईश्वर और ( १ ) व्यक्त या अव्यक्त 'बनीश्वर' यदि किसी के निषेध करने पर भी दान दे तो उसके 'अनीशार्थ' नामका दोष लगता है ||३६|| ऐसा क्यों इसका कारण staritra friधयति यद्भ ुवि । इत्यादि सोखिलो नेयो, दोषोऽनोशार्थं संज्ञकः ॥ अर्थ --- इसमें एक दान देता है और दूसरा निषेध करता है; इसप्रकार के दान में 'अनीशार्थ' नामका दोष लगता है ॥ ४०० ॥ सभी १६ उद्गम दोषों के त्याग की आवश्यकता षोडशेव परित्याज्याः सद्भिः क्लेशापकारिणः । ( ग्रांगे की पंक्ति नहीं है ) ||४०१ ॥ | अर्थ - इसप्रकार ये 'उद्गम' नाम के १६ दोष हैं। ये दाता और पात्र दोनों के आश्रित हैं और क्लेश तथा पाप उत्पन्न करनेवाले हैं इसलिये सज्जनों को इन Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ६२ ) [द्वितीय अधिकार सब दोषों का त्याग कर देना चाहिये ॥४०१।। १६ उत्पादन दोषधात्रोदूतो निमिसरख्यो, बोष श्राजीवमाययः । बनीपक धचों दोषः, चिकित्सादोष एव च ॥ झोधो मानो तथा माया, लोभाच पूर्वसंस्तुलिः । पश्चात्संस्तुति दोषोडश धामनसमायः ॥ चूर्णयोगाभिषो मूल, कर्मत षोडशा शुभाः । ज्ञेया पात्राश्रिता बोषा, उत्पादन समालयाः॥४०४।। अर्थ-पागे सोलह उत्पादन दोषों को कहते हैं ये दाता और पात्र दोनों के आश्रित होते हैं उनके नाम नीचे लिखे अनुसार हैं-(१) धात्री (२) दुत (३) निमित्त (४) प्राजीवन (५) बनीपक बचन (६) चिकित्सा (७) क्रोध (८) मान (६) माया (१०) लोभ (११) पूर्वसंस्तुति (१२) पश्चात्संस्तुति (१३) विद्या (१४) मंत्र (१५) चूर्ण योग और (१६) मूलकर्म ।।४०२-४०३-४०४।। (१) धात्री दोषमज्जनं मंडन कोउन, क्षीरपानकारणम् । तया स्वापषिधि, बालकानां युक्तोपदेशनः ॥४०५॥ गृहिणामुपविश्योत्पाद्यान्न चानीब यद्भुजि । संयत नहाते निघ', घावोदोषः सचोच्यते ।। अर्थ-जो मुनि गृहस्थों को युक्ति पूर्वक धाय के समान बच्चों को स्नान कराने, वस्त्राभूषण पहनाने, क्रीड़ा कराने, दूध पिलाने और सुलाने आदि की विधिका उपदेश देकर निद्य रीतिसे अन्न उत्पन्न कर ग्रहण करते हैं उनके निदनीय (१) 'धात्री' नामका दोष उत्पन्न होता है ॥४०५-४०६।। (२) दूतकर्म दोषस्वापरामदेशाविन्मोऽन्न सागारिणां स्वचित् । मानीय शुभसन्देशं, निवेद्य तेन गेहिभिः ॥ मातहर्षेः प्रदत्तं यवनदानमयुक्तिमम् । भूज्यते साधुभिः, इतः दोषः स वृत कर्मकृत् ॥४०८।। अर्थ-जो मुनि अपने देश से या दूसरे देश से तथा अपने या दूसरे के ग्रामसे गृहस्थोंके शुभ समाचार लाता है तथा जहां जाता है वहां के गृहस्थों से उन समाचारों को कहता है, उन समाचारों को सुनकर हषित हुये उन गृहस्थों के द्वारा दिये हुए दान को स्वीकार करता है उस साधु के (२) दूसकर्म करने वाला 'दूत' नामका दोष लगता है ।।४०७-४०८॥ (३) निमित्त नामका दोषव्यंजनांगे स्वरक्छिनो, भीमान्तरीक्ष संजको । लक्षणं च ततः स्वप्नं, निमित्तमष्टति थे। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदोर] [द्वितीय अधिकार एतरष्टनिमित्तोप बेशरुत्पाद्य साधुभिः । भिक्षापा गृझसे लोके, निमित्त दोष एव प ।४१०॥ अर्थ----(१) ज्या (२) (1) स्वर (४) छिन्न (५) भौम (६) अंतरीक्ष (७) लक्षण और (2) स्वप्न ये ८ प्रकारके निमित्त माने हैं । इन ८ प्रकार के निमित्तों का उपदेश देकर जो साधु भिक्षा ग्रहण करता है उसके (३) निमित्त नाम का बोष लगता है। (इस दोष से रसास्वादन की लोलुपता और दीनता का बोष लगता है!) 10.४१०॥ (४) प्राणीवन दोष-- जाति कुसं तपः शिरूप, कर्मनिर्दिश्य चात्मनः । करोत्याजीवनं योऽन्छ, समाजोपन दोषभाक् ।। पर्ष-जो मुनि प्रपनी जाति,फुल, तप और शिल्पकर्म या हाथ को कलानों का उपवेश कर या जाति फुल को बतला कर अपनी आजीविका करता है उसको (४) प्राजीवन नामका दोष लगता है ।।४११॥ (५) वनीपक बचन दोष-- पाखंजिकृपणादीमा, मतिथीनां च धानसः । पुण्यं भवेन्न शाति, पृष्ठो दानो मुनि। क्वचित् ।। पुण्यं भवेदिदं चोकस्वा, ह्यनुकूल वचोऽशुभं । वातुहाति वान यो, दोषो बनीपकोऽपि सः ।। ___अर्थ-यदि कोई गृहस्थ किसी मुनि से यह पूछे कि पारियों को, कृपण या कोड़ी आदि को अथवा भिक्षुक ब्राह्मणों को दान देने में पुण्य होता है या नहीं । इसके उत्तर में यह मुनि उस दाता के अनुकूल यह कह दे कि हां, पुण्य होता है । इसप्रकार अशुभ वचन कह कर उसी वाता के द्वारा दिये हुये दानको ग्रहण करता है उसके (५) वनीपक नामका दोष लगता है ।।४१२-४१३।। (६) चिकित्सा दोष ( संस्कृत श्लोक नहीं है । ) ॥४१४॥ अर्थ-चिकित्सा शास्त्रों में ८ प्रकार की चिकित्सा बतलाई है। उनके द्वारा मनुष्यों का उपकार कर जो मुनि उम्हीं के द्वारा दिये हुये अन्नको ग्रहण करता है उसके चिकित्सा नामका दोष लगता है ।।४१४॥ (७) क्रोध और (८) मान दोपकोधेनोत्पाद्यते भिक्षा या कोषवोष एव सः । मानेनोत्पाद्यतेऽन्न' भामदोष स एव हि ॥१५॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाचार प्रदीप ( ६४ ) [ द्वितीय अधिकार अर्थ-- क्रोध दिखला कर जो भिक्षा उत्पन्न की जाती है; उसमें (७) 'क्रोध' नामका दोष उत्पन्न होता है । अपना अभिमान दिखला कर जो भिक्षा उत्पन्न की जाती है उसमें (८) मान नामका दोष लगता है ।।४१५ ।। ( ९ ) माया नामक दोष माया कौटिल्यभावं च कृत्वाहाराविकं भुवि । उत्पाद्य भुज्यते यैस्तेषां मायादोष एव हि ॥ अर्थ - मायाचारी या कुटिल परिणामों को धारण कर जो प्रहार उत्पन्न कर ग्रहण किया जाता है उसमें ( ६ ) माया नामका दोष लगता है ।।४१६॥ (१०) लोभ दोष लोभं प्रविश्य भिक्षां यः, उत्पादयति सूतले । स्वात्मनो लोभिनस्तस्य लोभ दोषोऽशुभप्रदः ॥ अर्थ- जो मुनि अपना कोई लोभ दिखलाकर भिक्षा उत्पन्न कर ग्रहण करता है उस लोभी मुनि के पाप उत्पन्न करनेवाला 'लोभ' दोष लगता है ।। ४१७ ।। प्रत्येक के उदाहरण (७) क्रोध दोष पत्तने हस्तिकल्पास्ये कश्चित्साधुः कुमार्गगः । भिक्षामुत्पादयामास क्रोधेन गृहनायकात् ॥ अर्थ- हस्तिकल्प नाम के नगर में किसी कुमार्गगामी साधु ने किसी गृहस्थ से अपना 'को' दिखला कर भिक्षा उत्पन्न की थी ||४१८ ॥ (८) अभिमान दोष का उदाहरण पुरे भिक्षामुत्पादितवान् मुनिः । मानेन स्वस्य दुर्मागं गतो मानी गृहस्थतः ॥ ४१६॥ अर्थ - वेष्णातट नामके नगर में कुमार्गमें चलने वाले किसी श्रभिमानी मुनि ने अपना अभिमान दिखलाकर भिक्षा उत्पन्न की थी ।।४१६ ॥ (६) माया दोष का उदाहरण वाराणस्य तथा कश्चित् सलोभः संयसोबुधः । मायया स्वस्थ बाहार, माविश्चक्रति निवितं 11 अर्थ- वाराणसी नगरी में किसी बुद्धिमान् लोभी सुनि ने अपनी मायाचारी प्रगट कर निंदनीय श्राहार उत्पन्न किया था ॥४२० ॥ (१०) लोभ दोष का उदाहरण---- तथान्यः संयतः कश्चिद्राशियानाभिधे पुरे । लोभं प्रवश्यं भिक्षां, पुंसामुत्पादितवान् क्वचित् ।। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ६५ ) { द्वितीय अधिकार अर्थ - - इसीप्रकार राशियाना नामके नगर में किसी अन्य साधु ने लोगों को अपना लोभ दिखलाकर भिक्षा उत्पन्न की थी ||४२१|| लगी मुनियों की कथा का सार--- कोभाविकारिणामेषां चतुरा द्रव्य लिंगनाम् । यत्रो हि कमाज्ञेयाः प्रसिद्धा श्री जिनागमे ।। अर्थ- कोधादि चारों कषायको प्रगट करनेवाले इन चारों द्वलिंगी मुनियों की चारों प्रसिद्ध कयाये श्री जिनागम से जाम लेनी चाहिये ।।४२२॥ ना (११) पूर्वसंस्तुति दोष ★यते यथोदान प्रहणात् पूजितम् । वातुर सुवानाथ, सदोष: पूर्वसंस्तुतिः ॥४२३॥ अर्थ - जो मुनि दान ग्रहण करने के पहले श्रेष्ठ दान देने के हो अभिप्राय से उसी बात के सामने उसका श्रेष्ठ यश वर्णन करता है उसके ( ११ ) पूर्वसंस्तुति नाम का दोष प्रगट होता है ।।४२३ ।। (१२) पश्चात्संस्तुति दीप- गृहीत्वा पुरतोदानं पश्चाद्दानादिजान् गुणान् । वातुः स्तीति गिराय यः स पश्चात् संस्तुति दोष भाक् ॥ ४२४ || अर्थ- जो मुनि दान लेकर पीछे से अपनी वाणी के द्वारा, दाता के दिये हुए उस बानके गुणों की प्रशंसा करता है उसके 'पश्चात् संस्तुति' नामका दोष लगता है ।। ४२४ ।। (१३) विद्या नामका दोष --- विद्यां साधयितुं सारं ते दास्यामीति यो मुनिः । भ्राशयोत्पादयेद् भिक्षां, विद्यादोषोऽय तस्य च ॥ अर्थ---जो मुनि दासा को यह आशा दिलाता है कि “मैं तुके सिद्ध करने के लिये एक अच्छी विद्या दूंगा" इसप्रकार माशा दिलाकर जो भिक्षा उत्पन्न करता है उसके (१३) विद्या नामका दोष लगता है ।।४२५ ॥ (१४) मंत्र नामका --- गृहिणां सिद्धसन्मंत्र, दानाशाकरणादिना । उत्पाद्य गृह्यतेन यन्मंत्रघोषः सकष्यते ।। ४२६ । अर्थ- जो मुनि किसी गृहस्थ को किसी सिद्ध किये हुये मंत्रको देनेकी श्राशा दिलाकर आहार ग्रहण करता है उसके (१४) 'मंत्र' नामका दोष लगता है ।।४२६ ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ६६ ) (१५) चूर्ण नामका दोष - नेत्रांजनवपुः संस्कार हेतु चूर्णदानतः । या भिक्षोत्पाद्यते लोके, चूर्णदोषो हि सोऽघवः ।।४२७१ अर्थ- जो मुनि नेत्रों का अंजन अथवा शरीर का संस्कार करनेवाला कोई चूर्ण बेकर, लोक में भिक्षा उत्पन्न करता है उसके (१५) 'वर्ण' नामका दोष लगता है ।।४२७॥ [ द्वितीय विकाय (१६) मूल नामका दोष दशनाम क्रियते यद्धि, वशीकरण मंजसा । अवशानां जनानां च माया वाक्यादि जल्पनैः ॥ ४२८ ॥ योजनं विप्रयुक्तान, तथानुष्ठीयते भुवि । यत्तत्सर्वं भवेन्मूल, कर्मदोषोऽशुभप्रदः ।।४२६ ।। अर्थ - जो मनुष्य अपने वश नहीं है उनको मायाचारी के वचन कहकर अथवा और किसी तरह से दान देने के लिये वश कर लेना प्रथवा मनुष्य कितने हो योजन दूर रहते हैं; और दान नहीं देते; दानसे अलग रहते हैं, उनको अपने दान के लिये लगा देश, पश्प उत्पन्न करने वाला (३६) मूल कर्म' नाम का दोष कहलाता है ।।४२८-४२६|| उपसंहार एसे पत्राश्रिता दोषाः, षोडशोत्पादनायाः । यतिभिर्यत्नतो हेयाः प्रषः कश दोषदाः ॥३ अर्थ-ये १६ 'उत्पादन दोष' कहलाते हैं और पात्रोंके आश्रित रहते हैं तथा इन दोषों में 'अधः कर्म' नामके दोषका भाव श्रवश्य रहता है इसलिये मुनिको यत्नपूर्वक इनका त्याग कर देना चाहिये ||४३०॥ दश प्रश्न दोषों के नाम- शक्ति भूषितो दोषो, निक्षिप्तः पिहिताभिषः । दोषोऽथ व्यवहाराख्यो, बायको मिश्रसंज्ञको ॥ तथा परितो लिप्तः परित्यजन नामकः । दर्शतेऽशनदोषाहि यत्नात्याज्या मुमुक्षुभिः ।। अर्थ- आगे १० अशन दोषों को कहते हैं । ( १ ) शंकित ( २ ) मृषित ( ३ ) निक्षिप्त (४) पिहित ( ५ ) व्यवहार ( ६ ) दायक (७) उन्मिश्र (८) परिणत १६ ) लिप्त और (१०) परित्यजन ये दस अशन के दोष हैं। मोक्ष की इच्छा करनेवाले सुनियों को यत्न पूर्वक इनका त्याग कर देना चाहिये ।।४३१-४३२।। (१) शंकित नामक दोष - एतच्चतुविधाहार, भिषः कर्मरंगोद्भवम् । न मेति शंकया भूपते यः स तान् ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनाचार प्रदीप द्वितीय अधिकार अर्थ-यह ४ प्रकार का आहार अधःकम से उत्पन्न हुआ है अथवा नहीं इस प्रकार की शंका रखता हुधा भी उस आहार को ग्रहण करता है उसके (१) 'शंकित' नामका दोष लगता हैं ॥४३३॥ २) मृषित नामका दोपफोन हस्तेन, स्निग्धेन भाजनेन च । यद्देयं गृह्यते लोके, दोषो मूषित एव सः ॥४३॥ अर्थ-(२) जो साधु चिकने वर्तन से या चिकने हाथ से अथवा चिकनी करछली से दिये हुये आहार को ग्रहण कर लेता है उसके (२) 'मृषित' नामका दोष लगता है । चिकनी करछली आदि में सम्पूर्धन जीवों को संभावना रहती है इसीलिये यह दोष है ।।४३४॥ (३) निक्षिप्त नामक दोषपृथ्च्यादिषु सनिलेषु, तेजोऽन्तेषु सेषु च । हरितेषु च बीजेए, चेतना लक्षणात्मसु ॥४३५।। वयं वस्तु निक्षिप्तं, साधुभ्यां दीयते जनः । सचित्त दोषदो नियो, दोषो निमित्त एव सः ।। अर्थ--जो देने योग्य पदार्थ सचित्त पृथ्वी, सचित्त जल, सचित्त अग्नि, सचित्त हरित, सचित्त बीज अथवा त्रस जीवों पर रक्खे हों ऐसे पदार्थों को जो लोग दान देते हैं उनके 'सचिस' दोपको उत्पन्न करनेवाला निंद्य (३) निक्षिप्त' नामका दोष लगता है ।।४३५-४३६॥ (४) पिहित नामक दोप-- सवित्तेनाण्यचित्तेन, गुरुक्षेण च शतम् । दीयते मुनये दानं, यद्दोषः पिहितोऽनसः ॥४३७॥ अर्थ-जो देने योग्य पदार्थ किसी सचित्त पदार्थ से ढके हों अर्थात् भारी अचित्त पदार्थ से ढके हों ऐसे पदार्थों को मुनियों के लिये देना (४) 'पिहित' नामका दोष कहलाता है ।।४३७॥ (५) व्यवहार नामा दोषदानाय व्यवसायं चेल, भाजनादिकात्मनाम् । यत्वा विधीयते दान, यत्स्यात् सः व्यवहारजः ।। अर्थ-दान देने के लिये जो वस्त्र बर्तन आदि को झटपट बेचकर प्रहार तैयार करता है उसके (५) व्यवहार नामका दोष लगता है ॥४३८।। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदोप] ( ६८ ) [द्वितीय अधिकार (६) दायक दूषणसूतो गोंडी सवा रोगी, मृतकश्त्र नपुंसकः । पिशाचो नग्न एवाज, उच्चारः पतितस्ततः ।। बातोंगो रुधिरास्तांगः, वेश्यावासी समाजिका । प्रतिमालातिवद्धा, रामागाभ्यंगणकारिणी ।। उत्सृष्टा गभिरणी चांधलिका, झंतरितांगमा । उपविष्टा तथोरवस्था, नोधप्रदेशसंस्थिता ।। एवंविषो मरः स्त्री था, यदि वानं स्वाति च । तदा दायक कोषः स्यान्मुनेस्लरसेपिनी शुभः ।। अर्थ-जो बच्चों को खिलाने वाला हो; जो मद्यपान का लंपटी हो; रोगों हो; जो किसी मृतक के साथ श्मशान में जाकर आया हो; अथवा जिसके घर कोई मर गया हो; जो नपुसक हो; जिसे बात की व्याधि हो गई हो : जो वस्त्र न पहने हो; नग्न हो; जो मल मूत्र करके प्राया हो; जो मूलित हो; पतित हो; जो वमन करके आया हो, जिसके शो 'ए मधिर ना हो. तो मेगा हो . हामी हो; अजिका हो या लाल वस्त्र पहनने वाली हो, जो स्नान, उबटन करने वाली हो, जो अत्यंत बालक, स्त्री या मुग्धा हो, जो अत्यन्त वृद्धा हो; जो खाकर आई हो, जो ५ महिने से अधिक गभिरणी हो; अंधी हो; दीवाल के बाहर रहनेवाली हो, जो बैठो हो; किमी ऊंची जगह पर बैठी हो; ऐसी चाहे कोई स्त्री हो या पुरुष हो; ऐसा पुरुष या स्त्री दान देवे और मुनि लेवे तो उनके (६) 'दायक' दोष उत्पन्न होता है ।।४३६-४४२।। पुनः दायक दोषवन्ही संधुक्षणं प्रज्वालनमुकर्षण लथा । प्रछावन व विध्यापन, नितिं छ घनम् ॥४४॥ इत्याग्निकार्य च, कृत्वारमं हि या गता । तस्या हस्तेन न ग्राह्य, वानं वायफदोषदम् ।।४४४ ।। अर्थ-जो स्त्री या पुरुष अग्निको जलाकर पाया हो; अग्नि फुककर आया हो; अग्नि में अधिक लकड़ी डालकर पाया हो; अग्निको भस्म से दबाकर पाया हो या बुझाकर आया हो या अग्निसे लकड़ियों को अलग करके प्राया हो अथवा अग्निको मिट्टी प्रादि से रगड़कर आया हो, इसप्रकार जो अग्निके कार्य को करके प्राया हो और दान देने के प्रारंभ में ही आ गया हो उसके हाथ से वान नहीं लेना चाहिये । क्योंकि उसमें भी दायक दोष उत्पन्न होता है ।।४४३-४४४॥ पुन': दायक दोषलेपन मार्जनं स्नानादिक कर्म विधाय च । स्तनपानं पिबन्त बालकं निक्षिप्य माऽऽ गतः ||४४५॥ इत्याच पर सावण, कर्म हस्थात्र बातृभिः । दानं यद्दीयते सर्यो, दोषः सदायकाभियः ॥४४६॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनाचार प्रदीप] ( ६६ ) [द्वितीय अधिकार अर्थ- जो स्त्रो लोप कर आई हो; दीवाल प्रादि झाड़फर आई हो; किसी को स्नान करा कर पाई हो, स्तन पान करले हुए, बालक को छोड़कर पाई हो सया इसी प्रकार के पापरूप कार्यों को करके जो स्त्री वा पुरुष आया हो ऐसे दाता के द्वारा जो वान दिया जाता है उस सबमें दायक नामका दोष प्रकट होता है । ऐसे दाता के हाथ से मुनियों को दान कभी नहीं लेना चाहिये ॥४४५-४४६।। (७) उन्मिश्र दोषपृथ्व्यांबुना च बोलेन, हरितेन त्रासांगिभिः । यो देयो मिश्र प्राहारो, दोषश्चोम्मिश्र एव सः ।। अर्थ - जिस आहार में सचित्त पृथ्वी, जल, बोज, हरित बनस्पति और प्रस जीव मिले हों ऐसे आहार को लेना (७) 'उम्मिश्र' दोष है ।।४४७॥ (c) परिगणन दोष--- तिलोव तथा लंड, लोवर्क परणकोदकम् । तुषोदकं घिरानीरं, तप्तं शीतस्त्रमागतं ॥४४॥ विभीतक हसेस क्याटिक सूर्णस्तथाविधम् । स्वात्मीय रसवर्णादिभिामापरिणतं जलं ॥४४६॥ न माझं संयतर्जातु सवा बाह्माणि तानि च । परीक्ष्य चक्षुषा सर्वाण्यही परिणतानि च ।।४५०॥ अर्थ-तिलों के धोने का पानी, चावलों के धोने का पानी, चनों के बोने कर पानी, चावलों को भूसी के धोने का पानी तथा जो पानी बहुत देर पहले गरम किया हो और ठंडा हो गया हो तथा हरड, बहेडा के चूर्णसे अपने रस वर्षको बदल न सका हो ये सब प्रकार के जल संयमियों को कभी ग्रहण नहीं करने चाहिये । जिस जलका वर्ष या रस किसी चूर्ण आवि से बदल गया हो ऐसा जल आंखसे अच्छी तरह देखकर परीक्षा कर संयमियों को ग्रहण करना चाहिये ॥४४८-४५०।। किस तरह का जल ग्राह्य हैसंसप्त वा जलं पाह्य, कृतादिदोष दूरगम् । तथा परिणतं द्रव्यं, नानावणे मुमुक्षुभिः ।।४५१ ।। अर्थ-अथवा मोक्षको इच्छा करनेवाले संयमियोंको कृत, कारित, अनुमोदना आदिके दोषों से रहित गरम जल ग्रहण करना चाहिये अथवा अनेक वर्णके द्रव्यों से (हरड, इलायचो आदि के चूर्ण से) जिसका रूप, रस बदल गया हो; ऐसा जल ग्रहण करना चाहिये ।।४५१।। अपरिणत दोषयोत्राणारिणतान्येव तानि पह्वाति मधोः। तस्या परिणतो दोवो जायते सत्त्वघातकः ॥४५२।। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ७० ) [द्वितीय अधिकार अर्थ-जिस जलका रूप रस नहीं बदला है; किसी चूर्ण के मिलाने पर भी रूप, रस नहीं बदला है या गर्म करनेसे स्पर्श नहीं बदला है ऐसा जल जो अज्ञानी मुनि ग्रहण करता है उसके अनेक जीवोंकी हिंसा करनेवाला 'अपरिणत' नामका दोष उत्पन्न होता है ॥४५२॥ यही बात मूलाचार ग्रंथमें लिखी है यथा- (तिल तंडल उसरमोदय, चरणोदय तुसोवयं अविण्दुत्थं । अगं तहाविहं बा, अपरिणदं रणेव गेहिजो) अर्थात तिल या चावलों का धोया जल ठंडा हुअा गरम जल, चना तुष आदि का धोया जल जिसका वर्ण रस गंध न बदला हो, तथा हरड, बहेडा आदि के चूर्ण से जिसका वर्ण रस न बदला हो; ऐसा जल कभी ग्रहण नहीं करना चाहिये । (२) लिप्त नामका दोषप्रामपिष्ठेन वर्गेना. पयवशाकन चाम्बना ! स्वनिकाहारसालादि, द्रव्यैराछ करेण च ।।४५३।। भाजनेनात्र वेयं, यवन्नादि यतये जनः । लिप्सदोष स एव स्यात सूक्ष्मजंत्यादि घातकः ।।४५४।। ___ अर्थ-(१) कच्चे चावलोंके चूर्णसे (२) बिना पके शाकसे (३) अप्रासुफ जलसे (४) खड़ी सेलखड़ी हरताल प्रावि द्रध्योंसे स्पर्श किये हुये, लगे हुये द्रव्यको दान में देना अथवा गीले हाथ या गीले बर्तन से आहार देना 'लिप्त नामका दोष' कहलाता है । ऐसे आहार में सूक्ष्म जीवों को हिंसा होती है ।।४५३-४५४।। (१०) परियजन दोष.दीयमानं यमाहार, घृतततनोदकादिभिः । बरं परिगसन्तं सच्छिद्रपाणिपुटेन च ॥४५५।। लवंत यदि गलाति, संयतोसंयमप्रदः । तदा स कथ्यते दोष , 'परित्यजन' संशकः ।।४५६।। अर्थ-जो दाता घी, दूध, छाछ या जलका आहार देता हो और वह अपने हाथों से अधिक रूपमें टपकता हो ऐसे असंयम उत्पन्न करनेवाले आहार को जो मुनि ग्रहण करता है उसके परित्पजन' नामका दोष लगता है ॥४५५-४५६।। १० अशन दोषों का परिणामएनाहया दोषा, हिसारंभाषकारिणः । सर्वथा मुनिभिया, वशंव यत्नतोऽनिशम् ॥४५७।। अर्थ-ये दश अशन नामके दोष कहलाते हैं तथा हिसा, श्रारंभ और पापके कारण कहलाते हैं । इसलिये मुनियों को यत्न पूर्वक इनका सर्वथा सदा के लिये न्याग कर देना चाहिये ।।४५७।। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा . मूलाचार प्रदीप] ( ७१ ) I द्वितीय अधिकार संयोजन नामक दोषसंयोजयति यो भक्त', शोतमुष्णेन वारिणा। शीतोदकेन बोष्णा, तस्य संयोजनो मलः ।। अर्थ---जो मुनि ठंडे भोजन को गरम जल में मिलाकर खाता है अथवा गरम भोजन को ठंडे जल में मिलाकर खाता है उसके 'संयोजन' नामका दोष लगता है । ४५८ परिचित भोजन के लाभ - उदरस्याचं मन्नं न, तृतीयांशं जलादिभिः । पूरयेघश्चतुर्थाश, पलं रिक्त सदायमो ॥४५६।। प्रमाण मूतमाहारस्तस्य निधाजयो भवेत् । शुभम्यानं च सिद्धांत, पदनं कर्म निर्जरा ।।४६०।। अर्थ-मुनियों को अपना आधा पेट अन्नसे भग्ना चाहिये ; एक भाग जलसे भरना चाहिये, और एक भाग खाली रखना चाहिये । इमप्रकार प्रमारण के अनुसार जो मुनि आहार लेता है उसको (१) निद्राका विजय होता है; (२) शुभध्यान होता है: (३) सिद्धांत शास्त्रों का पठन-पाठन होता है और (४) कर्मों की निर्जरा होती है।४५६०४६i "अप्रमाण' नामक दोषअस्मात् प्रमाणतोऽनदि, मतिमात्र भजेन्मुनिः । यस्तस्याथा प्रमाणात्य, बोयो रोगोऽसमाधिता ।। अर्थ-जो मुनि इस प्रमाणसे अधिक आहार प्रहण करता है उसके 'अप्रमाण' नामका दोष लगता है । अनेक रोग उत्पन्न होते हैं और ध्यान का नाश हो जाता है । ।।४६१॥ सध्या मूछितो यः प्रभुक्तेऽन्नाहारमंजसा। मंचभुद्धि भवेसयांगार दोषोऽशुभार्गवः ।।४६२॥ अर्थ-जो मंब बुद्धि मुनि अपनी लंपटता से मूछित होकर आहार को ग्रहण करता है उसके पापोंका सागर ऐसा 'अंगार' नामका बोष प्रकट होता है ।।४६२॥ 'धूम' नामक दोषसरसानायलाभेन, निवन् दातृन, मिराशनम् । भुनफि योऽयमो निध', 'धूमदोषं लभेत सः ॥ अर्थ-जो अधम मुनि सरस आहार के न मिलने से, अपने बचनों से वाता की निदा करता हुआ आहार ग्रहण करता है उसके निदनीय धूम नामका दोष प्रगट होता है ।।४६३॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनाचार प्रदीप | ( ७२ ) सब कुल ४६ प हैं पिजीकृता ग्रमी सर्वे षट् चत्वारिशदेव हि । यत्नेन परिहर्तव्या, दोषा दोषकरा बुत्रैः ।।४६४ ॥ अर्थ- ये सब दोष मिलकर ४६ होते हैं तथा सब अन्य अनेक दोष उत्पन्न करने वाले हैं; इसलिये बुद्धिमानों को यत्नपूर्वक इनका त्याग करना चाहिये ||४६४|| ६ कारण से भोजन का त्याग व ग्रहशा [ द्वितीय अधिकार कारणषड्भिराहारं गृह्णन् धर्मं चरेद्यतिः । श्यजन् षट्कारणेश्वाल, तरां संयममाचरेत् ||४६५ ॥ अर्थ-मुनियों को उचित है कि ये ६ कारणों से आहार को ग्रहण करते हुये धर्म का पालन करें तथा ६ कारणों से आहार को छोड़कर संयम का पालन करें ।।४६५ ॥ आहार ग्रहण करने के ६ कारण- हदनोयोपशान्यर्थ, व्यावृत्त्याय योगिनाम् । षडावश्यक पूर्णाय सर्वसंयमसिद्धये ॥१६६॥ प्राणायें व क्षमामुध्या, दशसद्धर्महेतवे । एतैः षट्कारणं योगी गृह्णीयादशनं भुवि ।।४६७ | अर्थ - (१) क्षुधा वेदनीय को शांत करने के लिये (२) मुनियों को क्यावृत्य करने के लिये (३) छहों श्रावश्यकों को पूर्ण रीतिसे पालन करने के लिये ( ४ ) स तरह के संयमों का पालन करने के लिये ( ५ ) प्राणों की रक्षा करने के लिये (६) उत्तम क्षमा आदि १० धर्मों को पालन करने के लिये मुनियों को आहार ग्रहण करना चाहिये । मुनियों को आहार ग्रहण करने के ये ६ कारण हैं ।।४६६-४६७।। आहार ग्रहण करने का मुख्य लक्ष्य - तीव्र दनाक्रान्तो असं पालयितुं क्षमः । नाहं मत्येति बत्ताय भुजे भक्त ।। ४६८ ।। अर्थ - तीव्र क्षुधा की वेदना से पीड़ित हुआ में चारित्र का पालन नहीं कर सकता अतएव चारित्र पालन करने के लिये मैं आहार लेता हूं मैं सुख के लिये आहार नहीं लेता ||४६८ || यावृत्य करने में प्रधान कारण हारे बिना ना, कन्तु शक्नोमि योगिनाम् । यात्यमिहातोन, भुजे तसिद्धये दचित् ॥ अर्थ- मैं बिना आहार के सुनियों की वैयावृत्य नहीं कर सकता; अतएव करने के लिये ही मैं आहार लेता हूं ||४६६ ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] [द्वितीय अधिकार निर्बलता की पूति हेतुबिनाहररं घडावश्यक, व्युत्सर्गान बलातिगः । नाहं धत्तुं समर्थोऽस्माद, भिक्षा नद्ध तवे श्रये ।। अर्थ-मैं निर्मल हूं और बिना आहार के छहों आवश्यकों को तथा 'व्युत्सर्ग' को पालन नहीं कर सकता; अतएव आवश्यक पालन करने के लिये मैं आहार लेता हूं ॥४७०॥ दया पालन करने के लियेबयां कत्तुं न शक्तोऽहं, क्षुधाकरन्तीगिराशिषु । अतः संघमसिध्ययं गृह्णाम्यन्न न चान्यथा ।। ___ अर्थ- भूखसे पीड़ित हुआ मैं जीवों की दया पालन नहीं कर सकता अतएव संयम पालन करने के लिये ही मैं अन्न ग्रहण करता हूं अन्यथा नहीं ॥४७१।। प्राणों की रक्षा के लियेन तिष्ठन्ति वश प्राणाः, अन्नादृतेय हेतवे। तस्मान्मे प्राणरक्षाये, सेवेन्न' पारणे क्वचित् ॥ अर्थ-बिना अन्नके मेरे प्राण ठहर नहीं सकते अतएव प्राणों की रक्षा करने के लिये मैं कभी २ पारणा के दिन आहार ग्रहण करता हूं ।।४७२॥ १० लक्षण धर्म पालन हेतुदशलाक्षणिकं धर्म, नाहमाचरितु क्षमः । अतो धर्माय गृह्णामि, शुद्धान्न नान्यहेतुना ।।४७३॥ __ अर्थ-बिना आहार के वश लाक्षणिक धर्मको पालन नहीं कर सकता अतएव धर्म पालन करने के लिये मैं शुद्ध अन्न ग्रहण करता हूं। मैं किसी अन्य हेतु से आहार नहीं लेता ॥४७३॥ प्रात्मा को जानने वाला अन्य निमित्त प्राहार नहीं लेता-- मत्वेति कारणैः षड्भि, रेतः गृह्णन् शुभाशनम् । कर्म बध्नाति मात्मज्ञः, शिग्नित्यं पुरातनम् ।। अर्थ-आत्मा के स्वरूप को जाननेवाला जो मुनि इन ६ कारणों को समझ कर शुद्ध आहार ग्रहण करता है। वह कर्मों का बंध नहीं कर सकता; किंतु प्राचीन अनेक कर्मों को निर्जरा करता है ॥४७४।। क्षुधावेदना के होने पर भी प्राहार त्याग करनादुर्योधौ प समुत्पन्न', ह्य पसर्गे चतुविधे । ब्रह्मचर्याशान्त्यर्थ, सर्वजीवदयाप्तये ॥४७५।। तपसे किल संन्यास, सिद्धयेऽानमात्मवाम् । त्योन्मनो अध: कार्यः, सरसुवदनादिषु ।।४७६।। - -- ... Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ७४ । [द्वितीय अधिकार अर्थ-आत्मा के स्वरूप को जाननेवाले मुनियों को किसी (१) दुष्ट व्याधि के उत्पन्न हो जाने पर, (२) चारों प्रकार के उपसर्ग आ जाने पर (३) ब्रह्मचर्य को रक्षा और (४) इंद्रियों को शांत करने के लिये, (५) समस्त जीवों को दया पालन करने के लिये, (६) तपश्चरण पालन करने के लिये और समाधि मरण धारण करने के लिये, क्षुधा वेदना के होनेपर भी मन, वचन, कायसे आहार का त्याग कर देना चाहिये ।।४७५-४७६।। कर्म नष्ट करने के लिये आहार का त्यागछुर्याधौ सति मे हानि, दश्यते संयमादिषु । प्रतो कर्मनाशाय, करोमि प्रवरं तपः ।।४७७।। अर्थ--आहार त्याग करते समय मुनियों को विचार करना चाहिये कि इस दुष्ट व्याधि के होने से मेरे संयम में हानि दिखाई देती है। अतएव रोग उत्पन्न करने वाले कर्मको नाश करने के लिये मैं आहार का त्याग कर श्रेष्ठ तपश्चरण करता हूं। ॥४७७॥ मुक्ति के लिये माहार का भी त्यागजाते सत्युपसर्गेऽस्मिन्, प्राणनाशकरे कर्म । जीवितम्ममतोत्राह, त्मनाम्पन्न शिवाप्तये ॥४७१।। अर्थ-यह उपसर्ग प्राणों का नाश करनेवाला है इसके होनेपर मेरा जीवन कभी नहीं टिक सकता अतएव मैं मोक्ष प्राप्त करने के लिये इस अन्न का ही त्याग करता हूं ॥४७६।। अन्न के ग्रहण करने से मोक्ष में बाधा-- प्रयास्युस्कटताममात्, स्मरावीप्रिय शत्रवः । तस्मात्तेषां बशार्थ, बाहारं जहामि मुक्तये ।।४७६॥ अर्थ-अनके सेवन करने से कामदेव और इन्द्रियरूपी शत्रु अत्यन्त प्रबल हो जाते हैं अतएव उनको वश करने के लिये और मोक्ष प्राप्त करने के लिये मैं इस अन्न का ही त्याग करता हूँ ॥४७॥ अनेक जीवों की रक्षा के लिये प्राहार त्याग-- प्रयाहार प्रभुक्तेन, नियंते जंतुराशयः । ततस्तेषां च रसाय, भक्तं त्यजामि सिद्धये ॥४८०।। अर्थ-माज पाहार के सेवन करने से अनेक जीवों का समूह मृत्यु को प्राप्त होता है असएव उन जीवों की रक्षा करने के लिये और सिद्ध अवस्था प्राप्त करने के Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ७५ } लिये मैं इस आहार का ही त्याग करता हूं ॥४८० ॥ [ द्वितीय अधिकार तपश्चरण की शुद्धि के लिये थाहार का त्याग - बिना तपसा जातु न च कर्मक्षयः शुभम् । तस्मात्तयो विशुध्यर्थ, माहारं वर्जयाम्यहम् ॥ ४८१ ॥ अर्थ - इस संसार में बिना तपश्चरण के कमौका नाश कभी नहीं होता और तपश्चरण को विशुद्ध रखने के लिये में इस न कल्याण हो होता है । अतएव अपने आहारका ही त्याग कर देता हूं ॥४८१ ॥ समाधिमरण में श्राहार त्याग की उपयोगिता - संजातं विकलएवं च मेऽक्षाणां रुक् ज्वरादिभिः । अतः संन्यास संसिध्ये, त्यजाम्यशन मंजसा ॥ अर्थ- ज्वर आदि अनेक रोगों के उत्पन्न होने से मेरी इंद्रियां सम विकल हो गई हैं; अतएव समाधिमरण धारण करने के लिये मैं इस आहार का ही त्याग कर देता हूं ॥४८२ ॥ उपसंहार बाहार सम्बन्धी विषय का--- विज्ञायेति त्यजेदेते, कारणः षविषैर्मुनिः । श्राहारं सकलं युक्त्यै, यत्नात्नत्रयं भजेत् ।।४८६३ ।। अर्थ - इन ६ प्रकार के कारणों को समझकर मुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये सब तरह के आहार का त्याग कर देना चाहिये और यत्नपूर्वक रत्नत्रय का सेवन करना चाहिये ११४६३ ॥ मुनि निम्न कार्यों के लिये कभी आहार ग्रहण नहीं करें बलायुर्वृद्धि सुस्वादु शरीरोपचमाय च । तेज: क्रांति सुखाद्यर्थ जातु भूषते न संयमी ॥ ४६४ ॥ अर्थ- संग्रमी मुनि बल और आयुकी वृद्धिके लिये, स्वाद चखने या शरीर की बृद्धिके लिये अथवा तेज, कांति और सुख बढ़ाने के लिए कभी श्राहार ग्रहण नहीं करें ॥। ४८४ ॥ वेला तेला करने के बाद श्राहार क्यों सिद्धति पाठसंसिध्ये, प्रशस्तध्यान हेतवे । पंषानां समयानां च पालना सुवृद्धये ॥। ४८५ ॥ प्रतापनादि योगाय धर्मोपदेशनाय च । भुक्तेऽशनं क्वचिद् योगी, षष्ठाष्टमाथि पारणे ॥ ४८६ अर्थ -- वे मुनिराज, सिद्धांत ग्रंथों के पठन-पाठन करने के लिये, प्रशस्त ध्यान धारण करने के लिये, पांचों प्रकार के संयमों का पालन करने के लिये अथवा संयमों Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] [द्वितीय अधिकार की वृद्धि के लिये अथवा आतापन आदि योग धारण करने के लिये अथवा धर्मोपदेश वेने के लिए कभी २ वेला तेला करने के बाद पारणा के दिन प्राहार ग्रहण करते हैं ।।४८५-४८६।। • मुनिराज कैसे शुद्ध भोजन को करते हैं ? नवकोटि विशुद्ध, चाशनं संयोजनातिगम् । दोषस्त्यक्तं, द्विचत्वारिंशत् प्रमः प्रासुकं शुभम् ।। प्रमाणसहित दत्तं विधिना पहनायकः । विगतांगारघूमे च, सुषटकारणसंयुतम् ॥४८॥ अर्थ-ये मुनिराज, तपश्चरण पालन करने के लिए, प्राणियों की रक्षा करने के लिए, मोक्ष प्राप्त करने और कमों का नाश करने के लिए आहार ग्रहण करते हैं तथा वह प्राहार भी (2) मन, बचन काय और कृत, कारित, अमुमोदनाकी विशुद्धता पूर्वक होना चाहिए (२) संयोजन दोषसे रहित होना चाहिए (३) ४२ दोषोंसे रहित होना चाहिए (४) प्रासुक और शुभ होना चाहिए (५) प्रमाण सहित होना चाहिए अर्थात् (६) प्रमाण से अधिक नहीं होना चाहिए (७) घर के स्वामी के द्वारा विधि पूर्वक देना चाहिए (८) अंगार और धूम दोषोंसे रहित होना चाहिये (६) श्रेष्ठ ग्रहों कारणों से सहित होना चाहिए और १४ मलोंसे रहित होना चाहिए। ऐसे आहार को वे मुनिराज पारणा के दिन ग्रहण करते हैं ॥४८७-४३८।। ये १४ मल आहार में वर्जनीय हैंतपसे प्राणरक्षाम, मोक्षाय पारणाहनि । क्वचिद् गृह्णातिमुक्त्यर्थ चतुर्दशमलोजिझतं ।।४८६। नखरोममलोजन्तु, रस्थि कुलः करपरततः। पूर्य व रुधिर धर्म, मसिं बीजं फल सथा ।।४६।। को मूल ममी क्षेया, मलाश्चतुर्दशाशुभाः। प्राहारेऽन्न मुमुक्षूणा, परोषह विधायिनः ।।४६१!! ___अर्थ-नख, रोम अर्थात् बाल, जंतु अर्थात् जीव रहित शरीर, हड्डी, कुंड अर्थात् चावल आदि के भीतर के सूक्ष्म अवयव, कण अर्थात् जो गेहूं प्रादि के बाहरी अवयव, पीय, रुधिर, चर्म, मांस, बीज, फल, कंब, मूल घे १४ अशुभ मल कहलाते हैं ये १४ प्रकार के मल, मोक्षकी इच्छा करनेवाले मुनियों के आहार में परिपह उत्पन्न करनेवाले हैं ।।४८६-४६१॥ मलों के विशेष भेदएषां मध्येऽत्र केचिरस्यु, मला महान्त एष च । केचिन्स्वल्पमला केचित्, मध्यमादोषभेवतः ।। अर्थ-इनमें से कितने ही मल बहुत बड़े हैं, कितने ही छोटे मन कहलाते हैं Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलादार प्रदीप] ( ७७ ) [द्वितीय अधिकार और कितने ही मध्यम कहलाते हैं । दोषके भेदसे इनके अनेक भेद हो जाते हैं ॥४६२॥ महामल के भेदवर्मास्थि हभिर मांस, नखः पूमिमेमलाः। महारतोऽशन स्यागेऽपि, प्रायश्चित्त विधायिनः ।। अर्थ-(१) चमड़ा (२) हड्डी (३) रुधिर (४) मांस (५) नख और (६) पीत्र ये 'महामल' कहलाते हैं। आहार में इनके निकल आने पर आहार का भी त्याग करना पड़ता है और प्रायश्किा भी लेना पड़ता है .:४६३॥ क्रिस दोष में प्राहार का सर्वथा त्यागद्वीन्द्रियावि वपुर्याला पाहार त्याग कारिणौ । कणः कुडः फलं वोज, कंदो भूल दलाममी । अल्पास्त्यजनयोग्याश्च, सुच्छदोष विधायिनः । यवि स्यक्तुं न शक्यन्ते, त्याज्यं तां शनं वृधः ।। अर्थ-दो इंद्रिय, तेइंद्रिय प्रावि विकलत्रयों का शरीर और बाल के निकल आने पर, आहार का त्याग कर देना चाहिए तथा करण, कुंड, फल, बीज, कंद, मूल, दल ये 'अल्पमल' कहलाते हैं इनको आहार में से निकाल कर अलग कर देना चाहिए क्योंकि ये बहुत थोड़ा दोष उत्पन्न करनेवाले हैं। यदि आहार में से ये अलग न हो सक तो फिर बुद्धिमानों को आहार का ही त्याग कर देना चाहिए ॥४६४.४६५॥ ___ मुनि के लेने योग्य द्रव्यप्राणिनः प्रगता यस्याद् द्रव्यात्तद्ग्रव्यमुत्तमम् । शुद्ध' च प्रासुकं योग्यं मुनीनां कथितं जिनः ।। अर्थ--जिस ख्यमें कोई प्राणी न हो उसको उत्तम द्रव्य कहते हैं ऐसा उत्तम शुद्ध और प्रासुक वय ही भगवान जिनेन्द्रदेव ने मुनियों के लिये योग्य वष्य कहा है । ||४६६॥ मुनि के न लेने योग्य द्रव्यतम्य मवि वात्मार्थ कृतं वा कारित क्वचित् । योगेरनुमतं निमशुद्ध नोषितं सताम् ।। अर्थ-यदि ऐसा द्रव्य अपने लिये बनाया गया हो वा बनवाया गया हो अथवा मन-वचन-कायसे उसकी अनुमोदना की गई हो तो वह द्रव्य निध और अशुद्ध कहलाता है । सज्जनों को ऐसा द्रव्य कभी नहीं लेना चाहिये ।।४६७॥ सत्यपि प्रासुके द्रव्ये योबायः कर्मणः यतिः । योगैः परिणतः प्रोक्तः स कर्मबंधकोनिशम् ॥४६८।। अर्थ-यदि यह द्रव्य प्रासुक हो और वह मुनि अपने मन-वचन-कायसे अधः Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप [ द्वितीय अधिकार कर्म रूप परिणत हो जाय अर्थात् उसे अपने लिये बनाया हुआ समझले तो फिर वह मुनि सदा कर्म बंध ही करता रहता है ॥४६॥ मुनि गंवेधमारणो यः शुद्धाहारमतंद्रितः । शुद्ध एष स योग्याचं सत्यध: कर्मणि क्वचित् ।। अर्थ-यदि वह मुनि मन-वचन-कायसे शुद्ध होकर तथा आलस को छोड़कर शुद्ध हारको रक्षा है सो फिर पाहीं पः सा कर्म होनेपर भी वह साधु शुद्ध हो कहा जाता है । शुद्ध आहार को ढने से अधःकर्म से उत्पन्न हुआ अन्न भी उस साधु को कर्म बंध करनेवाला नहीं हो सकता ।।४६६॥ भोजन वेला का कालविज्ञेयोशन कालोन संत्यज्य घटकात्रयम् । मध्ये प योगिनां भानदयास्तमन कालयोः ।।५००।। अर्थ-आगे भोजन का समय बतलासे हैं । सूर्योदय से तीन घड़ी बाद और सूर्य के अस्त होने के तीन घड़ी पहले तक प्राहार का समय है इसमें भी मध्य वा दोपहर के समय की सामायिक काल को कम से कम तीन घड़ी छोड़ देनी चाहिये। ॥५०॥ तस्यैवाशन फालस्प मध्ये प्रोत्कृष्ठतो जिनः । भिक्षा कासो मतो योग्यो मुहकप्रमाणक: ॥ अर्थ-बाकी का जो आहार का समय है उसमें आहार का समय भगवान जिनेन्द्रदेव ने एक मुहूर्त उत्कृष्ट काल बतलाया है ।। ५०१॥ योगीना हि मुहूर्त प्रमाणो मध्यम एव च । जघन्यं त्रिमुहर्त प्रमो भिक्षा काल एव हि ॥५०२।। ___ अर्थ---दो मुहर्त मध्यम काल बतलाया है और तीन मुहर्त जघन्य काल बसलाया है। [यह काल को मर्यादा सिद्ध भक्तिसे लेकर भोजन के अन्त तक समझनी चाहिये] ।।५०२॥ घटिकाद्वयहोने मध्याह्नकाले प्रयत्नतः । स्वाध्याय मपि संहृत्य कृत्वा श्री देव बन्दनाम् ।।५०३ । अर्थ-जब मध्याह्न काल में (सामायिक के समय में) दो घड़ी बाकी रह जाय तब प्रयत्न पूर्वक स्वाध्याय को समाप्त कर देना चाहिये और फिर देव वन्दना करना चाहिये ॥५०३।। भिक्षा को निकालने की विधिभिक्षा देला परिक्षाय कुरिका विभिटके यतिः । गृहीत्या काय संस्थिस्य निर्याति स्वाश्रमानैः ।। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप | [द्वितीय अधिकार अर्थ-तदनंतर भिक्षा का समय जानकर मुनियों को पीछी कमंडलु लेकर शरीर को स्थिर रखने के लिये अर्थात् आहारके लिये अपने आश्रमसे धीरे २ निकलना चाहिये ।।५०४॥ पुप्तिश्च समिती: सर्वा व्रत मूल गुणान् परान् । रसंश्चरति मागें स मनो वाक्काम कर्मभिः ।। अर्थ-समस्त गुप्ति, समिति, व्रत और मूलगुणों को मन-वचन-कायके द्वारा अच्छी तरह रक्षा करते हुए उन मुनियों को मार्ग में चलना चाहिये ।।५०५॥ भावयस्त्रिकसंवेगं देहभोग भवाविषु । जिनाज्ञा पालयन् सम्यगनवस्या निजेच्छया ॥५०६।। मिथ्यात्वाराधनामारमनाशं दूरात्परित्यजन् । न कुवाचमनाक् यत्नात्सुसंयमविराधनाम् ।।५०७।। नाति दुतं न मंदं न विलंवित पपि प्रजेत् । न सिष्ठकेनधित्साद्धं न कुर्याज्जल्पनं यमी 1.५०६॥ अर्थ- उस समय उन मुनियों को संसार शरीर और भागों से विरक्त होकर तीनों प्रकार का संवेग धारण करना चाहिये, भगवान जिनेन्द्र देव की आज्ञा को अच्छी तरह पालन करना चाहिये अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति का, मिथ्यात्व की आराधना का और प्रात्माके नाश होनेका, अकल्यारण होने का दूरसे ही त्याग कर देना चाहिये तथा यन्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करते हुए संयम की विराधना किंचित मात्र भी नहीं करनी चाहिये । मार्ग में न धीरे चलना चाहिये न जल्दी चलना चाहिये ; न ठहरना चाहिये। न खड़े होना चाहिये और न किसी के साथ बातचीत करनी चाहिये । इसप्रकार अपनी इच्छानुसार चर्या करनी चाहिये ॥५०६-५०८।। इदं च धमिलो गैह मिदं हि निर्षनस्य भो । इति मातु न संकल्प हदि धत्ते जिसेन्द्रिय ॥५०॥ अर्थ-उन जितेन्द्रिय मुनियोंको "यह किसी धनीका घर है अथवा यह किसी निधन का घर है" ऐसा संकल्प अपने हृदयमें कभी नहीं करना चाहिये ॥५०६।। पंक्ति भेद नहींगावस्या क्रमेणासो, प्रवियोछावकालमं । अन्ये भिक्षावरा याववाति सावदेव हि ।५१०।। अर्थ-उन मुनियों को घरों को पंक्ति के अनुकूल क्रमसे ही श्रावकों के घर प्रवेश करना चाहिये और वहीं तक जाना चाहिये जहां तक अन्य साधारण भिक्षुक जाते हों ॥५१०॥ प्रतिग्रहण सम्बन्धी व्यवस्थाअप्रतिमाहतिस्तस्मानिर्गच्छेद्रुतमात्मवान् । विधिमा वा प्रतिवाहितस्तिष्ठेद् योग्यभूतले ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप { ८० } [द्वितीय अधिकार अर्थ-यदि वहां पर किसी ने प्रतिग्रहण न किया हो तो आत्मा के स्वरूप को जानने वाले उन मुनियों को वहां से शीघ्र ही निकल जाना चाहिये । यदि किसीने विधि पूर्वक प्रतिग्रहण कर लिया हो तो उनको अपने योग्य पृथ्वी पर खड़े हो जाना चाहिये ॥५११॥ पृथ्वी निर्जीव है इसे सर्वप्रथम निरीक्षण करना चाहियेस्वाघ्रिभोजनदातृणां स्थित्य निरीक्ष्य सद्धराम् । त्रसजीवादि संस्मक्तां, कार्यस्थित्यर्थमात्मवान् ।। ____ अर्थ-तदनंतर आत्मा के स्वरूप को जानने वाले उन मुनियों को आहार करने के लिये उस पृथ्वीको देखना चाहिये कि वहांपर अपने खड़े होनेको और दाताओं के खड़े होनेको स्थान है या नहीं और वह पृथ्वी त्रस जीवोंसे रहित है या नहीं ।५१२। परों में ४ अंगुख का अन्तर--- पादपोरंतरं कृत्वा, चतुरंगुलसमितम् । निधिछद्रं पाणिपा विधाय, तिष्ठत्सुसंयतः ।।५१३॥ अर्थ-...रि उन गिलों को अपने जोनों में ४ अंगुल का अन्तर रखकर खड़ा होना चाहिये और अपने दोनों करपात्रोंको छिद्र रहित बना लेना चाहिये ।५१३१ सिद्धभक्ति पूर्वक पाहार ग्रहणसिद्धभक्तिं ततः कुर्यान, निष्पापं प्रासुकाशनम् । विधिना दीयमानं स, प्रतीच्छेत् विहानये ।। अर्थ-तदनंतर उन मुनियों को सिद्ध भक्ति करनी चाहिए और फिर क्षधा वेदना को दूर करने के लिए विधि पूर्वक दिए हुए पाप रहित प्रासुक आहार को ग्रहण करना चाहिए ।।५१४॥ खड़े होकर पंच प्रकार की वृत्ति सहित भोजन लेना चाहियेपथागतं तदन्नस, सरस वा रसातिमम् । स्वादं त्यक्त्वा भजेट् गोचारादिपचविधं स्थितः ।। अर्थ-दाताके द्वारा दिया हुआ जो अन्न सरस हो या नीरस हो उन मुनियों को अपना स्वाद छोड़कर ग्रहण कर लेना चाहिए । उन मुनियों को खड़े होकर आहार लेना चाहिए और गोचर आदि ५ प्रकार की वृत्ति पूर्वक प्राहार ग्रहण करना चाहिए ।।५१५॥ ५ प्रकार की वृत्तियों के नामगोचारः प्रथमो भेदो, परोक्षमारणातयः । तृतीय उवरान्निप्रशमनास्थाचातुर्थकः ।।५१६।। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रवीप] ( ८१ ) [द्वितीय अधिकार भ्रमराहारनामाथ, श्वभ्रपूरणसंज्ञकः । एत: पंचविधरत्र, भेदन के शन यतिः ।।५१७।। अर्थ-(१) गोचार (२) अक्षमृक्षण (३) उवराग्निप्रशमन (४) भ्रमराहार और (५) श्वभ्रपूरण इसप्रकार पांच प्रकार की वृत्ति रखकर मुनि पाहार ग्रहण करते हैं ॥५१६-५१७।। (१) गोचारवृति का स्पष्टीकरण-- यथोपनायमानं तृणादिकं दिध्ययोषिता। गौश्चाभ्यवहरत्यत्र, न तदंगं निरीक्ष्यते ॥५१८॥ तथालंकारधारिण्या, वियनार्योपढौकितम् । पिण्डं गलाति सद्योगीः, तस्यारूपं न पश्यति ॥ अर्थ-जिसप्रकार कोई सुन्दर स्त्री किसी गायको घास (भस) डालने पाती है तो वह गाय उस घास (भुस) को ही खाने लगती है वह गाय उस सुन्दर स्त्री के शरीरको नहीं देखती इसीप्रकार वस्त्राभूषणों को धारण करनेवाली किसी दिच्य सुन्दर स्त्री के द्वारा दिये हुये पाहारको श्रेष्ठ मुनिराज ग्रहण कर लेते हैं परन्तु उसके रूपको नहीं देखते ॥५१८-५१९।। गोचारवृत्ति का स्वरूप पुनः अथवा गौर्यथा नानातृणनीरादि संचयम् । न सर्वमोहते किंतु, यथालब्धं भजेत्सदा ॥५२०।। तथान्नरस सुस्वाद, व्यंजनादि समोहते । नेकीकृतं मुनि: किंतु, यथालन्धं भुनक्ति सत् ॥५२१।। ___ अर्थ-प्रथवा जिस प्रकार गाय अनेक प्रकार के पास भुसको वा पानी को चाहती नहीं है किन्तु जो सामने आ जाता है उसी को खा लेतो है उसी प्रकार मुनिराज भी अन्न रस स्वादिष्ट व्यंजन आदि किसी की इच्छा नहीं करते; किंतु जो कुछ दाता देता है उसे इकट्ठा कर खा लेते हैं । इसको 'गोचारवृत्ति' कहते हैं ॥५२०-४२१॥ (२) 'अक्षरक्षण' वृत्ति का स्वरूपस्निग्धेम केनचिद् यद, दक्षलेपं विधाय भोः । नये देशांतर परयः, शकटों रत्नपूरिताम् ।।५२२॥ गुणरत्नमृता ताछरीरं, शकटी मुनिः । स्वरूपाक्षमुक्षणेनास्मात, प्रापयेपिछवपत्तनम् ।।२३।। ____ अर्थ--जिस प्रकार कोई वैश्य, रत्नों से भरी हुई गाड़ी को, पहियो की धुरी में, थोड़ी सी चिकनाई लगाकर देशांतर में ले जाता है; उसी प्रकार मुनिराज भी गुण रत्नोंसे भरी हुई इस शरीर रूपी गाड़ी को चिकनाई के समान, थोड़ा सा माहार देकर इस आत्माको मोक्ष नगर तक पहुंचा देते हैं। इसको 'अक्षमृक्षरण' वृत्ति कहते हैं । ॥५२२-५२३॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] द्वितीय अधिकार (३) 'उदराग्निप्रशमन' वृत्ति का स्वरूपसमुत्थितं यथा वान्ह, भांडागारे भृते बरिणक् । रत्नाय : शमयेचलोध्र, पशुपादिवारिणा ।। तथोत्थितं क्षुधावन्हि, मुदरे शमयेथमो । सरसेलर भमतेन, दृगादि रत्न हेसवे ।।५२५।। अर्थ-जिसप्रकार कोई वैश्य, रत्नाविकसे भरे हुये भंडागार में (भंडारे में) अग्नि के लग जानेपर तथा उसकी ज्वाला बढ़ जाने पर शीघ्र शुद्ध वा अशुद्ध पानी से उसे बुझा देता है; उसीप्रकार मुनिराज भी सम्यग्दर्शन प्रादि रत्नों की रक्षा करने के लिये अपने पेट में बढ़ी हुई क्षुधा रूपो बन्हिको सरस वा नीरस आहार लेकर, शोत्र ही बुझा देते हैं इसको 'उदराग्निप्रशमन' वृत्ति कहते हैं ।।५२४.५२५।। (४) 'श्यभपुरण' इलि का स्वरूप यथा स्वरोहमध्यस्थ, गृही गर्त प्रपूरयेत् । येन केनोपनौतम, फतवारेण नान्यथा ॥५२६।। तोदरगलं श्वन', पूरत्नयमो क्वचित् । यादृक् तादृक् विधान्नेन, न च मिष्टाशनादिना ।। अर्थ-जिस प्रकार कोई गृहस्थ, अपने घरके मध्यके गड्ढे को किसी भी कड़े कर्कटसे भर देता है, उसके लिये अच्छो मिट्टी की लजबीज नहीं करता; उसीप्रकार मुनिराज भी अपने पेट के गड्ढे को जैसा कुछ मिल गया उसी अनसे भर लेते हैं: उसको भरने के लिये मिष्ट भोजन की तलाश नहीं करते इसको 'श्वभ्रपूरण त्ति कहते हैं ।।५२६-५२७॥ (५) भामरी वृत्ति का स्वरूपभ्रमरोत्र यथा पयाद, मधं गृहाति तद्भवम् । प्राणेन न मनाक तस्य, बाधां जनयति स्फुटं ॥ तथा हरित चाहार, दस दातृजनैतिः । न मनाक पीडयेद् दातृन्, जास्वलाभाल्पलाभतः ॥२६॥ अर्थ-जिसप्रकार भ्रमर, अपनी नासिकाके द्वारा कमल से गंधको प्रहण कर लेता है और उस कमल को किचित् मान भी बाधा नहीं देता; उसीप्रकार मुनिराज भी बाता के द्वारा दिये हुये आहार को ग्रहण कर लेते हैं परंतु चाहे उन्हें पाहार मिले वा न मिले; अथवा थोड़ा हो मिले तो भी वे मुनिराज किसी भी वाता को रंचमात्र भो पीड़ा नहीं देते हैं । इसको 'भ्रामरी वृत्ति' कहते हैं ॥५२५-५२६॥ ५.प्रकार पूर्वक आहार को ग्रहण करना तथा ३२ अन्तरायों को छोड़ना-- इति पंचविधाहार, भजन योगी क्वचित् स्यजेत् । द्वात्रिशवंतरायाणा मन्सरायागते सति ।। श्रर्य-इसप्रकार वे मुनिराज, पांच प्रकारके आहार को ग्रहण करते हैं यदि Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप] [द्वितीय अधिकार उस समय बत्तीस अंतरायों में से कोई अंतराय आ जाय तो उस आहार को भी छोड़ देते हैं ॥५३०॥ पत्तीस अन्तरायों के नामशाकोऽमेध्यं तथा छथि, रोधन कधिरं ततः । अश्रुपाताभिघो जान्वयः परामर्शसंज्ञकः ।।५३१॥ अंतरायस्ततो जान, परिष्यतिकमावयः। नाभ्यघो निर्गमनाख्यः, स्वप्रत्याख्यान सेवनात् ।।५३२।। तथा जोववत्रः काकादि, पिंडहरणाभिधः। पिंडस्य पतनं हस्तात् पाणी जन्तुवधस्ततः ॥५३३।। मांसावि दर्शनं चोप, सर्गः पादयान्तरे । व्रजेत पंचेन्द्रियो जीवः, सपासो भाजनस्य च ॥५३४।। उच्चारः प्रस्रवणं चा, भोज्यगेहप्रयेशनम् । मू या पतनं चोपयेशनं दष्टनामकः ॥५३५।। मूमिसंस्पर्शनामाथ, निष्ठीवनं समाह्वयः । उदरासंयतस्यव, कमिनिर्गमनं ततः ॥५३६।। अदत्तं ग्रहणं शस्त्र, प्रहारो ग्राम बाहकः । पायेन ग्रहणं किचित्त, वस्तुभूमेः करेण च ।।५६७॥ अंतराया इमे ज्ञेया, द्वात्रिंशसंख्यका मुनेः । मलाभहेतबोन्नादौ, वक्ष्यमाणाः पृथक-पृथक् ।।५३८।। अर्थ-निम्नलिखित ३२ अंतराय हैं-(१) फाक (२) अमेध्य (३) दि (४) रोधन (५) रुधिर (६) अश्रुपात (७) जान्वधः परामर्श (4) जानपरि व्यतिक्रम (६) नाभ्यधो निर्गमन (१०) प्रत्याख्यात सेवन (११) जोषवध (१२) काकादि पिडहरण (१३) हस्तात् पिडपतन (१४) पारिगपात्रे जंतुवध (१५) मांसदर्शन (१६) उपसर्ग (१७) पावान्तर पं.द्रिय जीवगमन (१८) भाजनसंपात (१६) उच्चार (२०) प्रस्रवरण (२१) अभोज्य गृह प्रवेश (२२) मूपतन (२३) उपवेशन (२४) दंष्ट (२५) भूमिस्पर्श (२६) निष्ठीवन (२७) उदर-कृमि-निर्गमन (२८) अदत्तग्रहण (२६) शस्त्रप्रहार (३०) ग्रामदाह (३१) पादेन ग्रहण (३२) हस्तेन ग्रहण । इसप्रकार मुनियोंके उपरिलिखित ३२ अंतराय हैं और आहार के लोभसे बाधा डालने वाले हैं। आगे इन सबका स्वरूप अलग २ लिखते हैं ।।५३१-५३८।। (१) काक नामक अन्नराय--- स्थितस्य गच्छतो चो, परि व्युत्सर्ग प्रकुर्वते । काकाधा पक्षिणोऽयं स, काकान्तरायनामकः ।। अर्थ-मुनिराज चाहे माहार के लिये चल रहे हों अथवा बठे हों उस समय यदि कोई कौआ या बाज आदि पक्षी उनके ऊपर बोट कर दे, तो उन मुनिके (१) 'काक नामका' अंतराय होता है ।।५३६।। (२) अमेध्य व (३) छदि अन्तरायगच्छन् मार्गे स्वपाधना, मेध्यं यदि यतिः स्पृरोत् । जायले वमनं स्वस्थ, योगिनोऽधविपास । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप [द्वितीय अधिकार अर्थ-यदि मार्ग में चलते हुए मुनि के पैर में, विष्ठा लग जाय, या विष्ठा का स्पर्श हो जाय तो उनके (२) 'अभव्य' नामका अन्तराय होता है; यदि मुनि के पापकर्मके उदय से वमन हो जाय तो (३) 'छदि' नामका अंतराय होता है ।।५४०॥ (४) रोधन थ (५) रुधिर अन्तराय का स्वरूपयदि कश्चित् करोत्येव, पमिनो धरणादिकम् । प्रात्मनो वा परस्यासो, रुधिरं यदि पश्यति ।। अर्थ-यदि मार्ग में चलते हुए मुनि को रोक ले तो (४) 'रोधन' नामका अन्तराय होता है । यदि वे मुनि अपने शरीर से निकले हुए अथवा दूसरे के शरीर से निकले हुए रुधिर को देखले तो उनके (५) रुधिर नामक अन्तराय होता है ।।५४१।। (६) अयुगात नामक अन्तराय-- छुःखः शोकादिभिः स्वात्मनोऽश्रयातो भवेद्यादिः । प्रत्यक दः परेषां वा, सन्नाना मरणादिभिः ॥ अर्थ - यदि दुःख वा शोकादिक के द्वारा मुनि के प्रांसू निकल पावें अथवा किसी प्रासन (नजदीकी) पुरुष के मरण हो जाने से रोने वाले दूसरों के नांसुओं को मुनि देख ले तो उनके (६) 'अश्रुपात' नामका अन्तराय होता है ॥५४२।। (७) जाम्वधः परामर्श तथा (4) जानूपरिव्यसि क्रम अन्तराययवि जानोरयो भागे, करोति स्पर्शनं मुनिः। व्यतिमं विधसे च, जानोपरि कारणात् ॥५४३॥ अर्थ-यदि वे मुनि जंघा के नीचे के भाग को स्पर्श करलें तो उनके (७) 'जान्वधः परामर्श' नामका अंतराय होता है । यदि वे मुनि किसी कारणसे जंघाके ऊपर व्यसिक्रम करलें; जंघा से ऊंची सोढ़ी पर इतनी ऊंची एक ही डंडा या सीढ़ी पर चढ़े तो उनके (८) 'जानुपरिन्यतिक्रम' नामका अंतराय होता है ।।५४३।। (E) नाभ्यनो निर्गमन तथा (१०) प्रत्याख्यात सेवन अन्तरायमाभेरधः शिर, कृत्वा, कुर्यानिगममे मतिः । मुनेनियमितस्पेय, वस्तुनो भक्षणं भवेत् ॥५४४॥ अर्थ-यदि मुनि नाभि से नीचे अपना सिर करके निकले तो उनके (६) 'नाम्ययो निर्गमन' अंतराय होता है । यदि वे मुनि त्याग किये हुये पदार्थ को भक्षण करलें तो उनके (१०) 'प्रत्याख्यात सेवन' नामका अंतराय होता है ।।५४४।। (११) जीववध ब (१२) काकादि पिंडहरण अन्तराय-- प्रास्मनः पुरतोऽन्येन, क्रियतेऽगिवयो यदि । काकाद्याः पाणित: पिंज, योगिनोपहरन्ति च ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप द्वितीय अधिकार अर्थ---यदि कोई मनुष्य अपने सामने ही किसी जीवको मार डालें तो उन मुनियों को 'जीववध' नामका ११वां अंतराय होता है। यदि काक आदि पक्षो मुनिके हाथसे आहार के पिंड को अपहरण कर लें तो (१२) पिंडहरण' नामका अन्तराय होता है ।।५४५।। (१३) हस्तात् पिंडपतन तथा {१४) पाणिपात्रे जंतुबध अन्तराय का लक्षणग्रासमात्रं पतेद्हस्तात, भुजानस्य घलेयदि । मियते स्वयमागत्य, पाणी अंतुश्च पापतः ॥५४६।। अर्थ- यदि पाहार करते हुये, मुनि के हाथ से एक ग्रास के समान आहार गिर आय तो उनके (१३) 'पिंडपतन' नामका अंतराय होता है। यदि पाप कर्मके उदय से कोई जीव स्वयं आकर मुनिके हाथपर मर जाय तो उनके 'पाणिपात्रे जंतुयध' नामका १४वां अंतराय होता है ॥५४६॥ (१५) मांस दर्शन व (१६) उपसर्ग नामक अन्तराय - पश्ये यदि प्रमादेन, मांसाधीन संयतोऽशुभान्। योगिनो यदि जायेतोपसर्गो, नसुरादिजः ।।५४७।। ___ अर्थ-यदि मुनि अपने प्रमादसे मांसादिक अशुभ पदार्थों को देखलें तो 'मांस दर्शन' नामका १५वां अंतराय होता है, यदि उन मुनि के ऊपर कोई मनुष्य देव या तिथंच उपसर्ग करे तो उनके 'उपसर्ग' नामका १६वां अंतराय होता है ॥५४७।। (१७) पादान्तर पंचेन्द्रिय जीव गमन तथा (१८ भाजन संपात नामक अन्तराय-- पादयोरन्तरे गमछे, ज्जीवः पंचेन्द्रियो मुनेः । पारिवेषकहस्तादेः, भजिनं च पतेद्यदि ।।५४६।। ___ अर्थ-यदि मुनिके दोनों पैरों के मध्यमें से कोई चहा आदि पंचेंद्गिय जीव निकल जाय तो उनके पादान्तर पंचेंद्रिय जीव गमन' नामक १७या अंतराय होता है । यदि दान देने वाले के हाथ से कोई बर्तन गिर जाय तो उन मुनिके प्राहार में (१८) 'भाजनसंपात' नामका अंतराय होता है ॥५४॥ (१६) उच्चार (२०) प्रसवण (२१) प्रभोज्य गृह प्रवेश अन्तरायों का वर्णन-- वेडुच्चार एवोदशश्व, मूत्रादिकं यतेः । प्रवेशो यदि जायेत, चांडालादि गृहास्य च ॥५४६।। अर्थ-यदि मुनि के उदर से मल निकल पावे तो (१६) 'उच्चार' नामका अंतराय होता है। यदि मूत्र निकल पड़े तो (२०) 'प्रस्रवण' नामका अंतराय होता है यदि आहार के लिये फिरते हुए मुनि किमी धांडालाविक के घर में प्रवेश कर जांय तो - उनके (२१) 'प्रभोज्य गृह प्रवेश' नामक अंतरराय होता है ।।५४६।। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] [द्वितीय अधिकार (२२) मूर्खपतन (२३) उपवेशन (२४) दंष्ट अन्तरायमूर्छाविना पतेद्योगी, कुर्याध पवेशनम् । श्वाधिभि यदि यष्टः स्या, न्युमिः स्वपापकर्मणा ।। अर्थ-यदि आहार करते हुए भुमि अच्छी श्रादि के कारण से गिर जाय तो उनके (२२) 'मू पतन' नामक अन्तराय होता है। यदि आहार करते हुये मुनि बैठ जाय तो उनके (२३) 'उपवेशन' नामका अन्तराय होता है । यदि पाप कर्मके उदयसे कुत्ता प्रादि कोई जानवर काट ले तो उन मुनि के 'दंष्ट' नामक २४वा अन्तराय होता है।॥५५०।। (२.५) भूमिस्पर्शन तथा (२६) निष्ठीधन नामक अन्तराय--- सिद्धभक्ती कृतायां, स्वहस्तेनासौ घरां स्पृशेत् । निष्ठीमनं विषत्ते वा, क्षिपेत् क्लेमादिकं यमी ।। अर्थ-यदि मुनि सिद्धभक्ति करने के बाद अपने हाथ से पृथ्वी का स्पर्श कर लें तो उनके 'भूमि स्पर्शन' नामक २५वां अन्तराय होता है यदि वे मुनि सिद्धभक्ति के बाद धक दें अथवा कफ भूक दें तो उनके 'निष्ठीवन' नामका २६वां अन्तराय होता है ॥५५॥ (२७) उदर कृमि निर्गमन तथा (२८) प्रदत्त ग्रहण अन्तरायनिर्गच्छति स्वयं चास्योदरादेव कृमिवहिः । किंचिल्लोभेन गृह्णाति सोदतं पर वस्तु च ॥५५२।। अर्थ- यदि मनि के उदर से अपने आप कोई कोड़ा बाहर निकल आये तो 'उदर कृमि निर्गमन' नामका २७वां अन्तराय होता है । यदि वे मुनि किसी लोभ के कारण बिना दिये हुये किसी पर पदार्थ को ग्रहण करलें तो उनके 'प्रसग्रहण' नामका २८वां अन्तराय होता है ।।५५२।। (२९) शस्त्र प्रहार व (३०) ग्रामवाह तथा (३१) पादेन ग्रहण नामक अन्त गाय का स्वरूप-- खड्गादिभिः प्रहार: स्यात्स्वात्मनो वा परागिनाम् । जायते गृह दाह्मच किंचिद् गृह्णाति सोंत्रिरणा ||५५३।। अर्थ-यदि कोई मनुष्य उन मुनि पर तलवार प्रावि शस्त्रका प्रहार करे वा उनके सामने अन्य किसी मनुष्य पर प्रहार करे तो उन मुनि के शस्त्र प्रहार' नामका अन्तराय होता हैं । यदि पाहार के समय उसी गांव के किसी घर में अग्नि लग जाय तो 'ग्रामवाह' नामका अन्तराय होता है । यदि वे मुनि अपने पैरसे कोई वस्तु उठाकर प्रथम करलें तो उनके पादेन प्रहरण' नामका अन्तराम होता है ॥५५३।। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप] [ द्वितीय अधिकार (३२) हस्तेन ग्रहण नामक अन्तराय-- यद्यापत्ते करेरणामो किचिवस्तु महादसा विशयका एवं प्रसारामा मुनेः ॥५५४।। अर्थ-यदि वे मुनि अपने हाथ से पृथ्वीपर से कोई घस्तु उठा लें तो उनके 'हस्तेनग्रहण' नामका अन्तराय होता है । इसप्रकार मुनियों के प्राहार को निषेध करने वाले ये रत्तोस अन्तराय माने हैं ।।५५४॥ अन्य बहुत अन्तरायों का सामान्य उल्लेख-- अन्येपि बहवः सन्ति भोजमालाभकारिणः । यांगाल स्पर्श सामिक मृत्यादय एव भोः ।।५५५।। अर्थ-इनके सिवाय चांडाल का स्पर्श हो जाना किसी साधर्मों की मृत्यु हो जाना आदि और भी भोजन में बाधा डालने वाले बहुत से अन्तराय हैं ॥५५५।। अन्तरायों में से किसी भी अन्तराय के आने पर भोजन का त्यागएषामन्यतमः कश्चिदंतम्या स्वकर्मणा । यक्षायाति तदाहारम भक्तं त्यजेसमी ॥५५६।। रान अर्थ- अपने कर्मके उदय से इन अन्तरायों में से यदि कोई भी अन्तराय प्रा जाय तो मुनियोंको उसके बाद माहारका त्यागकर देना चाहिये, ग्राधे खाये हुए आहार का भी त्याग कर देना माहिये ।।५५६।। भोजन करके अपने स्थान पर प्रागमनततोसौ संपतो ो नामरतरायान् प्रपालयत् । स्वादु त्वक्त्वा धरों कृत्वा प्रयाति स्वाश्रम द्रुतम् ।। अर्थ-तदनंतर उन मुनियों को इन अन्तरायों का पालन करते हुए स्वादको 4 छोड़कर चर्या करनी चाहिये और चर्या करके शीघ्र ही अपने आश्रम में प्रा जाना चाहिये ।।५५७।। ग्लानि आदि का निषेधन तत्रोपविशे योगी ग्लान्याविकारणं विना। जल्पनं हसनं वा म कुर्याद योषिअनादिभिः ।। ___ अर्थ-मुनियों को वहांपर ग्लानि प्रादि किसी कारण के बिना बैठना नहीं चाहिये । तथा स्त्री या पुरुषों के साथ बात चीत वा हंसी कभी नहीं करनी चाहिये । ॥५५८|| गुरू के समीप चारों प्राहारों का प्रत्याख्यान. किंतु स्वगुष्मासाद्य नत्वा भक्त्या चतुर्षियम् । प्रत्यारल्यानं स गृह्मोपात्स्वशक्रया कमहानये ।। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ] [ द्वितीय अधिकार अर्थ-कितु अपने गुरु के पास आकर भक्ति पूर्वक उनको नमस्कार करना चाहिये और कमों को नाश करने के लिये अपनी शक्ति के अनुसार चारों प्रकार का प्रत्याख्यान ग्रहण करना चाहिये ॥५५॥ निदा पीर गर्दा पूर्वक गोनारी प्रतिक्रमण की अावश्यकना-- ततोतोचार शुद्धयर्थ निया गाँदिपूर्वकम् । मुनिः कुर्याद्धि गोचारो प्रतिक्रमणमंजसा ॥५६०॥ अर्थ-तदनंतर उन मुनियोंको उस चर्या में लगे हुए अतिचारों को शुद्ध करने के लिये निंदा और गर्दा पूर्वक गोचारी प्रतिक्रमण (पाहार में लगे हुए दोषोंको क्षमापणा करना चाहिये ॥५६॥ शर्म नष्ट करने के लिए निरन्तर स्वाध्याय प्रावश्यकपुनः कर्मक्षयायासौ शास्त्राभ्यासं निरन्तरम् । ध्यानं या परम सारं प्रशस्तं परमेछिनाम् ॥५६१।। . अर्थ- इसके बाद उन मुनियों को अपने कर्म नष्ट करने के लिये निरन्तर . शास्त्रोंका अभ्यास करना चाहिये और परमेष्ठियों का सारभूत सर्वोत्कृष्ट प्रशस्त ध्यान धारण करना चाहिये ॥५६१।। समस्त संकल्प विकल्पों का त्यागकरोति तत्त्वचितां च भावना स्वपराममः । निर्विकल्पं मनः कृत्वा संधेग धर्मवासितम् ।।५६२॥ अर्थ-उन मनियों को अपने मनके समस्त संकल्प विकल्पों का त्याग कर देना चाहिये तथा मन को संवेग और धर्म में स्थिर कर तत्त्वोंका चितवन तथा अपने प्रात्मा की भावनाओं का और अन्य आत्माओं की भावना का चितवन करते रहना चाहिये ।।५६२॥ दिन में सोने का त्याग तथा विकथानों का परित्याग-- न विवाशयनं कुर्याद धिकथा नायकारिणीम् । लाभालाभाधि पृष्टोपि यदेज्जातु न संयमी ।। अर्थ-मनियों को न तो दिन में कभी सोना चाहिये, न पाप उत्पन्न करने बाली विकथायें कहनी चाहिये तथा पूछने पर भी किसी के लाभ वा अलाभ को नहीं बतलाना चाहिये ।।५६३।। ___धर्मध्यान के बिना एक घड़ी भी व्यर्थ नहीं व्यतीत करना चाहिएबहनोभतेन कि साध्यं धर्मध्यानं बिना यतिः । एकां कालकला आतु गमनाति दुर्लभाम् ।। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] [द्वितीय अधिकार अर्थ-बहुत कहने से क्या लाभ है थोड़े से में इतना समझ लेना चाहिये कि मुनियों को बिना धर्मध्यान के अत्यंत दुर्लभ ऐसी काल को एक घड़ी भी नहीं बितानी चाहिये ॥५६४॥ विकथाओं के कहने से निरन्तर पापों का संचययतो येनपराहारं गृहीत्वा कुर्वते शशाः । चतुर्था विकों सेां वृथा दीक्षाघसंचयात् ।।५६५।। अर्थ-इसका भी कारण यह है कि जो अज्ञानी मुनि दूसरे का प्राहार ग्रहण करके भी चारों प्रकार की विकथा में लगे रहते हैं उनकी दीक्षा भी व्यर्थ है, क्योंकि विकथाओं के कहने से उनके निरंतर पापों का संचय होता रहता है ॥५६॥ रत्नत्रय के बिना केवल भार वहनवा ते प्रमादिनो नूनं पराहारादि भमरणात् । विना रत्नत्रयं वीना भवन्ति भार वाहकाः ।।५६६॥ ___ अर्थ– अथवा यों कहना चाहिये कि वूसरों का आहार खा-खाकर वे प्रमावी बन गए हैं और रत्नत्रयके बिना वे दीन केवल भार वहन करनेवाले वा बोझा ढोने वाले हैं ॥५६६।। प्रमाद कभी नहीं करना चाहियेइति मत्वा न कर्तव्यः प्रमावो विकथादिजः । किंतु स्वमुक्ति संसिध्यै स्थातव्यं मोक्षकामिभिः ।। अर्थ- यही समझ कर विकथादिकों से उत्पन्न हुआ प्रमाद मुनियों को कभी नहीं करना चाहिये किंतु मोक्षको इच्छा करनेवाले उन मुनियों को स्वर्ग और मोक्षकी सिद्धि के लिये प्रयत्न करते रहना चाहिये ॥५६॥ भोजन णुद्धि सब धर्मोंकी खानि हैइत्येषाशन शुद्धिश्चानुष्ठेया यामतोम्यहम् । विश्वधर्मतनी सारा वृत्तमूला गुणाकरा ॥५६॥ अर्थ- इसप्रकार कही हुई यह भोजन शुद्धि मुनियों को प्रयत्न पूर्वक प्रतिदिन करनी चाहिये । क्योंकि यह भोजन शुद्धि समस्त धोकी खानि है, सारमूत है, चारित्र को जड़ है और गुणोंकी खानि है ॥५६८।। अध:कर्मजन्य साहार को ग्रहण करने का फलयतो बहूपयासारच योगा मातपनादयः । प्रषः कर्म भुजा व्यर्थाःस्युः षडंगि विघातनात् ॥५६॥ अर्थ-जो मुनि अध.कर्म जन्य आहारको ग्रहण करते हैं उनके छहों प्रकारके Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदोप] (६०) [ द्वितीय अधिकार जीवों के घात करने का पाप लगता है अतएव उनके अनेक उपवास और आतापन आदि योग सब व्यर्थ हो जाते हैं ॥५६॥ मुगियों को शुद्ध बारनेवाली पारा भिवा पुद्धिःयथात्र व्यवहाराच्या शुद्धिः सागारिणां परा। भिक्षा शुद्धि स्तथा सारा योगिनां शुद्धिकारिणी॥ अर्थ-जिस प्रकार गृहस्थों की उत्कृष्ट शुद्धि प्रवहार शुद्धि कहलाती है उसीप्रकार मुनियोंको शुद्धि करनेवाली सारभूत भिक्षा शुद्धि समझनी चाहिये ॥५७०।। सदोष आहार का निषेधघरं प्रत्यह माहारं निरव तपस्विनाम् । न च पक्षोपवासादी सदोषं पारणं क्वचित् ।।५७१॥ अर्थ-मुनियों को निर्दोष पाहार प्रतिदिन कर लेना अच्छा परंतु पन्द्रह दिन वा महिने भरका उपवास करके पारणा के दिन सदोष आहार करना अच्छा नहीं ॥५७१॥ भिक्षाकी शुद्धि प्रयत्न पूर्वक प्रावधयकःविज्ञायेति प्रयरमेन भिक्षाशुद्धिः शिवकरा । गुणरत्नखनी नित्यं विधेया भव भीरभिः ।।५७२।। अर्थ-यही समझकर संसारसे भयभीत रहनेवाले मुनियोंको गुणरूपी रस्नोंकी खानि और मोक्ष प्रदान करनेवाली भिक्षाकी शुद्धि प्रयत्न पूर्वक करनी चाहिये ।।५७२।। एषणा शुद्धि को धारण करने का फलसकल चरणमूला दुःख बावाम्बु वृष्टि जिम मुनिगरा सेव्या स्वाक्ष फर्मारि शहनीम् । परम सुगुरण खानि स्थनमोक्ष ध्रुधात्री भजत परमयत्नावेषणा शुद्धिमार्याः ।।५७३।। अर्थ-इसप्रकार यह एषरणा शुद्धि समस्त चारित्रकी मूलकारण है, दुःखरूपी दावानल अग्निके लिये पानी को वर्षा है, भगवान जिनेन्द्रदेव और समस्त मुनिगण इसकी सेवा करते हैं इसको पालन करते हैं, अपनी इन्द्रियां और कर्मरूपी शत्रुको नाश करने के लिये यह भिक्षा शुद्धि एक अमोघ शस्त्र है, सर्वोत्कृष्ट श्रेष्ठ गुणोंको खानि है और स्वर्ग मोक्षरूपी वृक्षको बढ़ाने के लिये धाय के समान है। अतएव मुनियोंको परम प्रयत्न पूर्वक इस एषणा शुद्धिको धारण करना चाहिये ॥५७३॥ प्रादान निक्षेपण समिति का स्वरूप--- मानसंयमशौचोप करणानां प्रयत्नतः । यत्संस्तरावि वस्तूनां ग्रहण कियते बुधः ॥५७४।। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] [द्वितीय अधिकार निक्षेपणं निरोक्ष्यो च्चश्वक्षम्या प्रतिलेख्यचे । मृदु पिच्छिमाधान निक्षेपा समितिश्च सा॥ __अर्थ-बुद्धिमान मुनि ज्ञानके उपकरणों को, संयमके उपकरणों को, शौचके उपकरणों को और सोने बैठने के साधनों को नेत्रों से अच्छी तरह देखकर तया कोमल पोछोसे शोध कर प्रयल पूर्वक ग्रहण करते हैं और प्रयत्न पूर्वक ही रखते हैं उनको इस क्रिया को आवान निक्षेपण समिति कहते हैं ॥५७४-५७५॥ पुस्तक आदि ज्ञानोपकरण को पीछी से देखकर रखनापुस्तकाच पधीन् साधुः कार्याथं चक्षुषा मुहः । विलोषध प्रतिलेख्याप्रगृह्मीयास्थापयेत्तथा ।। अर्थ-साधुओं को पुस्तक आदि ज्ञान के समस्त साधन अपने कार्यके लिये नेत्रोंसे अच्छी तरह देखकर तथा पीछी से शोध कर ग्रहण करना चाहिये और इसी प्रकार देख शोध कर रखना चाहिये ।।५७६।। ___ संस्तर प्रादि को हिलाने का निमेषसंस्तरं फलक पान्योपधि रात्रौ न छालयेत् । सति कार्यपि योगोन्द्रो जोववाधाषिशंकया ।।५७७।। अर्थ-मुनियों को आवश्यक कार्य होनेपर भी अनेक जीवोंकी बाधाके डरसे रात्रि में अपने सोने बैठने के पाट को वा अन्य संस्तरको कभी हिलाना व चलाना नहीं चाहिये ।।५७७।। नहीं हिलाने का कारणयली रात्री न दृश्यम्ले सूक्ष्माः स्थूलाश्चजंतवः । तस्मात्तश्चाननेनाशु ध्र वं तेषां विराधना ।। अर्थ-क्योंकि रात्रिमें सूक्ष्म वा स्थल कोई भी जीव दिखाई नहीं देते अतएव उस पाट व संस्तर के हिलाने चलाने में बहुत शीघ्र उन जीवों को विराषना हो जाती है ॥५७५॥ ___ दिन में भी अन्धकार युक्त स्थान में उपकरणों को रखने का निषेधविषसे था प्रदेशे बहधकारान्विते बुधैः । अदृष्टिगोचरे कार्य वस्तूनां स्थापनादिन 1॥५७६॥ अर्थ-~यदि दिन भी हो और जिस किसी अंधेरे स्थान में बहुत अन्धेरा हो कुछ दिखाई न देता हो उसमें भी किसी पदार्थको नहीं रखना चाहिये ॥५७६।। ___ हिलने डुलने वाले आसनों पर बैठने का निषेधपदके फलके न्यन्न वाचले शयनासनम् । जीवदाधाकरं जातु न कर्तव्यं प्रतामिभिः ॥५०॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] { ६२ ) [द्वितीय अधिकार अर्थ-वती मुनियों को हिलने डुलने वाले तख्ते पर वा पाट पर न कभी सोना चाहिये और न बैठना चाहिये क्योंकि ऐसे आसन पर सोने बैठने से अनेक जीवों की बाधा हो जाती है ॥५८०॥ __ निंदनीय अप्रतिलेखन, युष्प्रतिलेखन एवं सहसा प्रतिलेखन का निषेध - - धर्माएकरणादोना नियमप्रतिलेखनम् । प्रादान स्थापना काले तथा दुष्प्रति लेखनम् ॥५८१।। महासंयम संसिध्ये सहसा प्रतिलेखनम् । प्रयत्न मनसा जातुन कार्य संयतः क्वचित् । ५८२।। __ अर्थ-मुनियों को धर्मोपकरणों के उठाने वा रखने में निंदनीय अप्रतिलेखन (पीछी से शुद्ध नहीं करना नहीं देखना आदि) कभी नहीं करना चाहिये तथा दुष्प्रलिलेखन (अच्छी तरह न देखना न अच्छी तरह पोछीसे शोधना यों ही इधर उधर पीछी मार देना) भी नहीं करना चाहिये तथा महा संयमको सिद्धि के लिये सहसा प्रतिलेखन (जल्दी जल्दी देख शोध लेना) भी नहीं करना चाहिये और बिना प्रयत्न तथा बिना मनके भी कभी प्रतिलेखन नहीं करना चाहिये ॥५८१-५८२॥ धर्मोपकरणों का बार-बार संशोधन-- किंतु फुस्प्रयलेन प्रहल स्थापनाविकम् । शनः स प्रतिलेख्य स्त्रीपधीनां मुहमुहुः ॥५३॥ अर्थ-किंतु धर्मोपकरणों का ग्रहण और स्थापन प्रयत्न पूर्वक बार बार देल कर और बार बार पीछी से शोधकर धीरे धीरे करना चाहिये ॥५८३॥ मादान निक्षेपण समिति पालन का फलइमा ये समिति सारा निष्प्रमावा भजति वै । तेषां माद्य व्रतं पूर्ण प्रताना मूलकारणम् ।।५८४।। अर्थ-जो मुनिराज प्रमाव रहित होकर इस मावान निक्षेपण नामको सारभ्रत समिति को पालन करते हैं उनके समस्त व्रतोंका मूल कारण ऐसा पहला हिंसा महाव्रत पूर्ण रीतिसे पालन होता है ।।५८४॥ ऐसा नहीं करने से स्थूल तथा सूक्ष्म जीवोंको हिंसाविनमा समिति योत्र शिथिला बिहरन्ति भोः । नन्ति स्यूलागि राशीस्ले का कथा सूक्ष्मदेहिनाम् ।। अर्थ-इस आधान निक्षेपण समिति को पालन किये बिना जो शिथिलाचारी मुनि विहार करते हैं वे अवश्य ही अनेक स्थूल जीवों के समूह का नाश करते हैं फिर भला सूक्ष्म जीवों को तो बात ही क्या है अर्थात् सूक्ष्म जीवों का तो बहुतों का नाश होता है ।।५०५॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मूलाचार प्रदीप ] ( ६३ ) [द्वितीय अधिक्ष पादान निक्षेपण समिति का पालन करने का फलमवेति मुनयो नित्यं पालयन्तु दयाप्तये । इमां सुसमिति पत्नाद्दर्शन प्रति लेखनः ॥५५६॥ वृषभमुनि निषेव्या स्वर्गसोपानपंक्ति शिवशुभगति वीयीं निर्जरा संवरस्म । मुवि सकल विधीनां हेतुमूतो मुनीन्द्राः प्रभजत समिति चादान निक्षेपणाल्याम् ।।५८७।। अर्थ-यही समझकर मनियों को जीवोंको क्या पालन करने के लिये अच्छी तरह देखकर और अच्छी तरह पीछी से शोध कर अपना पूर्वक इस आधान निधन समिति को पालन करना चाहिये । इस आवान निक्षेपण समिति को सर्वोत्कृष्ट मुनि भी पालन करते हैं, यह स्वर्गके लिये सीढ़ियों को पंक्ति है, मोक्षका मार्ग है तथा शुभगतियों का मार्ग है और कर्मोको निर्जरा की तथा संवर की समस्स विधियों का कारण है। अतएव हे मनिराजों ! आप लोग भी इस आवान निक्षेपण समितिका पालन करो ॥५८६-५६७॥ प्रतिष्ठापना समिति का स्वरूपएकान्ते निर्जने बूरे संवृत्ते वृष्टगोचरे । विलादि रहितेऽचित्तेविरोध जन्तुबमिते ॥५८८।। प्रदेशे कियते यत्स्वोच्चार प्रस्रवणादिकम् । दृष्टिपूर्व प्रतिष्ठापनिका सा समितिर्मता ॥५८६॥ अर्थ-मुनि लोग जो मल मूत्र करते हैं वह ऐसे स्थान में करते हैं जो एकांत हो, निर्जन हो, दूर हो, ठका हो अर्थात् आड़ में हो, दृष्टिके अगोचर हो, जिसमें बिल प्रादि न हो, जो प्रचित्त हो, विरोध रहित हो अर्थात् जहां किसी की रोक टोक न हो और जिसमें जीव जंतु न हों ऐसे स्थान में देख शोध कर वे मुनिराज मल मूत्रादिक करते हैं इसको प्रतिष्ठापना समिति कहते हैं ।।५८८-५८६।। प्रासुक भूमि देखकर मल-मूत्रका क्षेपण प्रावश्यक-~मलमूत्रादिक सर्व श्लेष्मनिष्ठोवमादि छ । प्रासुकं मूतलं वीक्ष्य प्रतिलेल्य क्षिपेद्यमी ॥५६॥ अर्थ-मुनियों को प्रासुक भूमि देखकर और पोछी से शुद्ध कर फिर उस पर मल मूत्र कफ पुक नाक का मल आदि डालना चाहिये ।।५६०॥ दिन हो चाहे रात्रि मल-मूत्र का क्षेपण दृष्टि के प्रगोचर नहीं करना चाहियेक्षपायां दिक्से वान प्रवेशे दृष्टिगोसरे । कायोर्ष मलं सर्व क्षिपेन्जातु न संयमो ॥५१॥ अर्थ-चाहे दिन हो और चाहे रात हो जो प्रदेश दृष्टिके गोचर नहीं होता जो स्थान दिखाई नहीं देता उस स्थान पर मुनियों को अपने शरीर का कोई भी मल Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] नहीं डालना चाहिये ।।५६१ ॥ ( ९४ ) [ द्वितीय अधिकार कफ आदि मल पर बालू रेत का क्षेपण श्लेष्माविकं परिक्षिन् धरादी वालुकादिभिः । छावयन्तु बुधा यत्नादजन्तुपाला विशेषया ।।५६२३ अर्थ- बुद्धिमान संयमियों को काहिये कि वे पृथ्वीपर कफ वा नाक का मेल डाल कर उसके ऊपर बालू डाल दें जिससे कि उसमें किसी जीवके पड़ कर मर जाने की शंका न रहे |५६२ ।। देख शोध कर उठाने रखने से ही कमों का संवर हो सकता है - किमत्र बनोक्तेन सर्वमन्तर्मलोभनम् । प्रवष्टम्भं व कुडघावों वपुः कंड्यनादिकम् ।। ५६३ ॥ अन्यता त्यजनं किचिल्लोकन प्रतिलेखनः । विना जातु न कर्तव्यं संशय मुमुक्षुभिः ॥५६४ ॥ अर्थ- बहुत कहने से क्या लाभ है थोड़े से में इतना समझ लेना चाहिये कि मोक्षकी इच्छा करनेवाले संयमियों को जो कुछ करना हो दूर वा समीप में मल मूत्र कफ आदि का त्याग करना हो किसी दोवाल से शरीर खुजलाना हो अथवा और कोई पदार्थ रखना हो इत्यादि सब काम विना देखे और बिना शोधे बिना पीढ़ी से शुद्ध किये कभी नहीं करने चाहिये क्योंकि देख शोध कर उठाने रखने से ही कर्मों का संवर हो सकता है अन्यथा नहीं ।। ५६३-५६४।। ऐसा नहीं करने से स्थावर जीवों का घात तो होता ही है यतो येन्स मूढा क्षिपन्ति यत्नतो बिना । नसांस्ते भारयन्श्यत्र का वार्ता स्थावरांगिनाम् । अर्थ - इसका भी कारण यह है कि जो प्रज्ञानी संयमी बिना यत्नाचार के मल सूत्रका त्याग करते हैं वे अवश्य ही बस जीवोंका घात करते हैं फिर भला स्थावर कायके जीवोंकी तो बात ही क्या है अर्थात् उनका घात तो होता ही हैं ।। ५६५ ।। सर्वोत्कृष्ट प्रतिष्ठापन समिति का पालन भरत सर्व यत्नेनात्रेमा समितिमूजिताम् । पालयन्तु विदो योगशुध्या दुक्प्रतिलेखनं: ।। ५६ ।। अर्थ - यही समझकर बुद्धिमान संधमियों को मन वचत कायकी शुद्धता पूर्वक पूर्ण प्रयत्न के साथ नेत्रोंसे अच्छी तरह देखकर तथा पीछी से शोध कर इस सर्वोत्कृष्ट प्रतिष्ठापन समिति का पालन करते रहना चाहिये ।। ५६६ ।। इसका फल उपसंहारात्मक -- जिनवर मुख जातां धर्मरत्नावि खानि गणधर मुनि सेभ्यां स्वर्गसोपानमालाम् । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] [द्वितीय अधिकार शिवमुख फलवल्ली मुक्तिकामा भजंतु समिति मपमला यरनात्प्रतिष्ठापनाल्याम् ॥५९७।। अर्थ-यह प्रतिष्ठापन समिति भगवान जिनेन्द्रदेव के मुख से प्रगट हुई है, धर्मरूपी रत्नोंको खानि है, समस्त गणधर देव और श्रेष्ठ मुनि इसको सेवा करते हैं, इसको पालो है, यह स्प लिये सीढ़ियों की पंक्ति है, मोक्ष सुखरूपी फलों को बेल है और समस्त दोषोंसे रहित है ऐसी यह प्रतिष्ठापना समिति मोक्षको इच्छा करनेवाले पुरुषों को प्रयत्न पूर्वक पालन करनी चाहिये ।।५६७॥ पांचों समितियों का महाफलएता:पंच शुभाकराः सुसमिती:स्वोक्षसौल्यप्रदाः अंतातीत गुणाकरा भुवि महा सर्वत्रतांवाः पराः। ये यत्नेन सुपालयंति निपुणास्तेषां च पंचैवस्युः संपूर्णानि महाव्रतानि सुधियां स्व, किशर्मादयः ।। अर्थ-ये ऊपर कही हुई पांचों समितियां कल्याण करनेवाली हैं, स्वर्ग मोक्ष के सुख देनेवाली हैं अनंत गुणों को खानि हैं और समस्त महावतों की जनती हैं । जो बुद्धिमान मुनि प्रयत्न पूर्वक इन उत्कृष्ट समितियों का पालन करते हैं उन चतुर पुरुषों के पांचों महावत पूर्णता को प्राप्त होते हैं तथा स्वर्ग मोक्षके पूर्ण सुख और कल्याण प्राप्त होते हैं ।।५६८॥ ___ पांचों समितियों के पालन नहीं करने का फलप्रासां ये शिथिलाःप्रपालन विधी निचप्रमावं सदा कुर्वत्यत्र दयादयो वसगुणास्तेषां प्रणश्यति भोः। ताशाच महाघमात्महतक तरपाकतो दुर्गतो घोरं स्यादसुखं यमुत्र परमं चांतातिगासंसृतिः ॥ अर्थ-जो मुनि इन पांचों समितियों के पालन करने में शिथिलता करते हैं तथा निदनीय प्रमाद करते हैं उनके दया आदि व्रत और गुण सब नष्ट हो जाते हैं । व्रतोंके नष्ट होने से प्रास्मा का घात करनेवाला महापाप उत्पन्न होता है, उस महापाप के उबय से परलोक में दुर्गतियां प्राप्त होती हैं उन दुर्गतियों में महा घोर दुःख उत्पन्न होते हैं और अनंत संसारमें परिभ्रमण करना पड़ता है ।।५९६।। करुणा आदि गुणों को धारण करने के लिये पांचों समितियों का पालन अत्यन्त प्रावश्यक मत्येतोह घुषाः प्रमलमनसा स्वर्मोक्षसंसिद्धये, कारण्याविगुणाय मुक्तिजननीः कृत्स्नवताम्वाः शुभाः । तीपेशादिविसूतिदाश्च समिती पंचव पापातिगाः, ग्रत्नावि खनीः भवारिमथनीः संपालयंतूत्तमाः॥६००। अर्थ-ये पांचों समितियां मोक्ष को जननी हैं, समस्त व्रतों की माता है, Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] [द्वितीय अधिकार कल्याण करनेवाली है तीर्थकर चक्रवर्ती प्रादि की उत्तम विभूतियों को देनेवाली हैं समस्त पापों से रहित हैं सम्यग्दर्शनाविक रत्नोंको खानि है और संसाररूपी शत्रुओं को नाश करनेवाली है यही समझकर बुद्धिमान मुनियों को स्वर्ग मोक्ष की सिद्धि करने के लिये और करुणा आदि गुणोंको धारण करने के लिये अपने मन में अत्यन्त प्रयत्न कर के इन पांचों उत्तम समितियों का पालन करते रहना चाहिये ।।६००॥ पांचों समितियों के पालन कर्ता-(१) आचार्य (२) उपाध्याय एवं सर्व माधुओं के प्रति प्राचार्य द्वारा अन्तिम नमस्कार-- ये पालयन्ति निपुणाः समितीः समस्ताः प्राचार्य पाठक सुसाधुमुनीन्द्र वर्गाः। भाह्मान्तरोपविधि रक्तमनोंग वाक्या स्तेषां गुणाय चरणाम् प्रणमामि नित्यम् ।.६०१॥ इति मूलाचार प्रबोपकाख्ये भट्टारक श्री सकलकीति विरिचते अष्टाविंशति मूलगुण व्याल्याने पंचसमिति वर्णनो नाम हितोयोधिकारः । अर्थ-जो प्राचार्य उपाध्याय साधु वा मुनीन्द्र वर्ग अपने मन-वचन-कायसे माझ और पाभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग कर इन समस्त समितियों का पालन करते हैं उन समस्त चतुर प्राचार्य उपाध्याय साधुनों के गुण प्राप्त करने के लिये उनके चरण कमलों को मैं सदा नमस्कार करता हूं ॥६०१॥ इसप्रकार आचार्य श्री सकलकोनि विरचित मूलाचार प्रदीपक नामके महाप्रत्यमें अट्ठाईस मूलगुणों के ब्याख्यानमें पांचों समितियों का वर्णन करनेवाला यह दूसरा अधिकार समाप्त हुआ। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोधिकारः । मंगलाचरण (तृतीय अध्याय का ) निजिताफलातच जिनेन्द्रान् सिद्धिमाश्रितान्। हतपंचाक्षमासंगान् साधुसिंहान् स्तुवेखिलान् ।। अर्थ- जिन्होंने इन्द्रियों को जीतने का केवलज्ञानरूपी फल प्राप्त कर लिया है ऐसे जिनेन्द्रदेव की मैं स्तुति करता हूं तथा जिन्होंने आत्म सिद्धि प्राप्त कर ली है ऐसे सिद्ध परमेष्ठी की स्तुति करता हूं और पांचों इन्द्रियों रूपी हाथियों को मारने के लिये सिंह के समान समस्त साधुओं की मैं स्तुति करता हूं ||६०२ || मोक्ष सुख के लिये पांचों इन्द्रियों का निरोध श्रथपंचाक्षरोधावीन् वक्ष्येमूलगुणान् परान् । विश्वद्धि गुरणमूलांश्च स्वान्येवां सिद्धिशर्मणे ॥ अर्थ- - अब आगे पांचों इन्द्रियों के निरोध करने रूप श्रेष्ठ मूलगुणों को कहते हैं ये गुण अपने श्रौर दूसरों के समस्त ऋद्धियों और गुणों के मूल हैं इसलिये मोक्ष सुख के लिये उनका निरूपण करता हूं ।। ६०३ ॥ पांचों इन्द्रियों के नाम चक्षुः श्रोत्रेद्रियं प्राणं जिलास्पर्श इमानि मे । पंचेन्द्रियाणि जंतूनां सर्वानर्थं करायो । ६०४ ॥ अर्थ-चक्षुः श्रोत्र प्रारण जिल्ला और स्पर्शन ये पांच इन्द्रियां हैं और जीवों के समस्त अनर्थों को करनेवाली हैं ||६०४ ॥ पंचेन्द्रियों का निर्मल निरोध श्रमषां गच्छतां स्वस्व विषयेषु निरोधनम् । विधीयतेत्र यत्पंचेन्द्रियरोधाहि ते मलाः || ६०५ ॥ अर्थ-ये इन्द्रियां अपने अपने विषय प्रहण करने के लिये जाती हैं उनको विषयों के प्रति न जाने देना उनका निरोध करना पंचेन्द्रियों का निर्मल निरोध कहलाता है ।। ६०५ ॥ चक्षु निरोध नामक गुण कर्मों के प्रसूव को रोकने वाला है सचिताचित मिश्रारणां रूपाणां स्त्रोनरात्मनाम् । गौरादिवर्ण मेदानां विष्यसंस्थान धारिणाम् ॥ कलानुत्यादि युक्तानां रागार्थ बचा निरोक्षणम् । मुनीनां यत्स विशेयश्चक्षुरोषो निरानय । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] तृतीय अधिकार अर्थ-कोई रूप सचित्त होता है कोई अचित्त होता है और कोई मिश्र होता है तथा स्त्री पुरुषों के रूप गौर वर्ण भी होते हैं तथा अन्य वर्ग भी होते हैं। दिव्य संस्थान को धारण करनेवाले तथा कला नृत्य आदि से सुशोभित स्त्री पुरुषों के रूपको राग पूर्वक न देखना मुनियों का चक्षुनिरोध नामका गुण कहलाता है। यह गुण भी आरबको रोकनेवाला है ।।६०६-६०७।। किन २ को नहीं देखना चाहिये-- नाना स्त्रोल्पसंस्थान सुश्रृगार मुखादिकान् । वाहून नाटकमेवाश्च कला विज्ञान कौतुकान् ।। अनेक चित्र कर्माधान रामोत्पत्ति करामपि । क्रीडा विनोद बास्यादीन् पश्येज्जातु न संयमी ।। अर्थ---संयमी मुनियों को अनेक प्रकारको स्त्रियों के रूप, संस्थान, शृंगार या मुख आदि अंगों को नहीं देखना चाहिये। अनेक प्रकारके माटक कला, विज्ञान, कौतुक, राग उत्पन्न करनेवाले अनेक प्रकारके चित्र कर्म, क्रीड़ा, विनोद, हास्य कर्म आदि कभी नहीं देखने चाहिये ।।६०-६०६।। त को मोहित करने को नहीं देवाला वाहियेब्रम्यकांयम रत्नाव:श्चित्त म्यामोह कारिणः । नेपथ्य पट्टकूलायान् न च पश्यन्ति योगिनः॥ अर्थ-चित्तको मोहित करनेवाले धन, सुवर्ण, रत्न, परदे के भीतरके पदार्थ, वस्त्र वा वस्त्रके किनारे आदि मुनियों को भी नहीं देखना चाहिरे ॥६१०।। भोगोपभोगके पवित्र और अपवित्र पदार्थों को भी कभी नहीं देखना चाहियेभोगोपभोग वस्तूनि संझा वृद्धि कारिण का पवित्राण्यपविधाणि मालोक्येचमी क्वचित् ।।६११॥ अर्थ-मुनियों को प्राहार भय मैथुन परिग्रह बढ़ाने वाले भोगोपभोगके पवित्र वा अपविन पदार्थों को भी कभी नहीं देखना चाहिये ॥६११॥ रौद्रध्यान उत्पत्र करनेत्राले संग्रामों को नहीं देखना चाहियेभूपसामन्त सैन्यादौन रौतध्यान विधायिमः । कलि संग्राम सोयच विलोकयति मात्मवान् ॥ अर्थ-पाल्पज्ञ पुरुषों को रौद्रध्यान उत्पन्न करने वाले राजा सामंत और उनकी सेना को भी कभी नहीं देखना चाहिये तथा कलयुगके समस्त संग्रामों के वेखने का भी त्याग कर देना चाहिये ॥६१२॥ मिथ्यात्व बर्धक स्थानों को नहीं देखना चाहियेकुदेव लिंगो पारि मठविम्बानि भूतले । कुतोणि कुचाम्पाणि पडनायतनानि च ॥६१३॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदोष] ( १६ ) [तृतीय अधिकार मिथ्यास्थवर्धकान्येय स्थानानि प्रचुरराम्यपि । पश्येज्जातु न सद्बुष्टि ई ग्रत्न मलशंकया । अर्थ-सम्याधुष्टी पुरुषों को कुदेव, कुलिंगी, पाखंडी, उनके मठ, उनके प्रप्तिबिब, कुतीर्थ, कुशास्त्र, छहों अनायतन आदि कभी नहीं देखने चाहिपे । क्योंकि ये बहुतसे स्थान मिथ्यात्वको बढ़ाने वाले हैं । इसलिये सम्यग्दर्शन रूपी रत्नमें मल उत्पन्न होने की शंका से डर कर ऐसे स्थान कभी नहीं देखने चाहिये ॥६१३-६१४॥ राग उत्पन्न करनेवाले बहुत से स्थानों को नहीं देखना चाहियेघामशालप्रसोल्यावोन् स्थानान् रोग करान वहून् । प्रन्यांश्च पत्तानादीन् स पश्येज्जातु न शुद्धये ।। अर्थ-मुनियों को अपने आत्माको शुद्धि रखने के लिये धाम, कोट, गलियां वा राग उत्पन्न करनेवाले नगर आदि बहुत से स्थानों को कभी नहीं देखना चाहिये । ॥६१५॥ यदि बिना इच्छा के ये पदार्थ दृष्टिगत हों तो दृष्टि नीची करलेंताननोहतवृत्यात्र पचिदृष्टयाघशंकया। रागभोत्याथषा योगी सहसाधोमुखो भवेत् ॥६१६॥ अर्थ-यदि अपनी इच्छाके बिना इन पक्षायों में कभी मुनियों को दृष्टि पड़ जाय तो पाप की शंका से अथवा रागके सुरसे उनको उसी समय अपनी दृष्टि नीची कर लेनी चाहिये अपना मुख नौचा कर लेना चाहिये ॥६१६॥ राग रहित देखने से कर्म बंधन नहीं--- रागषुध्या न पश्यति एसाल्लोके चरन्नपि । कर्मभिर्वभ्यते नाहो किंतुस्यान्मुक्त एव सः ।।६१७॥ अर्थ- यद्यपि मुनि इस संसारमें सब जगह विहार करते हैं तथापि वे राम बुद्धि से इन पदार्थों को कभी नहीं देखते । ऐसे मुनि कर्मोंसे कभी नहीं बंधते किंतु मुक्त होते हैं उनके प्रास्रव नहीं होता किंतु निर्मरा होती है ॥६१७॥ राग सहित देखने से ब्रह्मचर्य का नाशरागयुध्यान प: पायेदिमा तस्य प्रतिक्षणम् । पचिवागः स्वनिर्षिो मायके मामसेन्बाहम् ।। ताभ्यां घोरतरं पापं पापाच्चालिगः मयः । भवेऽनन्तं महाकुल चतुर्गतिभषं प्रवम् ॥१६॥ तथाऽजितेन्द्रियारोग दुर्खियां बंधलात्मनाम् । कथं ब्रह्मवतं तिष्ठेसाहिनाक्य बतं तपः ॥६२०॥ अर्थ-जो मुनि इन पदार्थोंको राम बुद्धिसे देखता है उसके प्रति क्षसमें कहीं राग उत्पन्न होता है, और कहीं मनमें द्वेष उत्पन्न होता है। उन राग द्वषसे प्रतिदिन घोर पाप उत्पन्न होते रहते हैं उन पापों से अनंत भवों में जन्म मरण करना पड़ता है Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( १७०) [तृतीय अधिकार तथा चारों गतियोंमें उत्पन्न होनेवाले महा दुःख भोगने पड़ते हैं । इसके सिवाय दुर्बुद्धि को धारण करनेवाले जो पुरुष अपनी इन्द्रियोंको नहीं जीतते हैं उनका मन सदा चंचल बना रहता है । ऐसी अवस्थामें उनका ब्रह्मचर्य व्रत कभी नहीं टिक सकता तथा बिना ब्रह्मचर्य के व्रत और तपश्वा भी नहीं छहर सकते ६१-६२।। राग घटाने के लिये चक्षु इन्द्रिय का निरोधमस्येति विश्वयानेन चक्षुरोध सुधीषनाः । रागहान्य प्रकुर्वतु ब्रह्मभंगादिशंकया ॥६२१॥ अर्थ-यही समझकर बुद्धिमान पुरुषों को अपना राग घटाने के लिये तथा ब्रह्मचर्य उसके भंग होनेकी आशंका से पूर्ण प्रयत्न के साथ चक्षु इन्द्रिय का निरोध करना चाहिये ।।६२१॥ मोक्षार्थी के लिये चक्षु इन्द्रिय का निरोध अन्यन्त आवश्यक हैसर्वानर्थकरं च रागजतकं प्रक्षुभ्रंमद्भतले ।रोपित्याशु वधा निरोधनगुणे मोक्षार्थसिद्धये । स्यमुक्तक विधं कुकर्महतकं अर्भाकर यत्नतः कुवध्वं सफलं गुणाम्बुधिमिमं चक्षुनिरोधं सदा ।। अर्थ-समस्त संसार में परिभ्रमण करते हुए ये चक्षु समस्त अनयों को करने वाले हैं और राग को बढ़ाने वाले हैं । इसलिये बुद्धिमान पुरुषों को मोक्षरूपी पुरुषार्य को सिद्ध करने के लिये अपनी इन्द्रियों को रोकने रूप गुणसे चक्षु इन्द्रिय का निरोध करना चाहिये । और चनिरोध नामके गुण को सदा के लिये धारण करना चाहिये । यह चक्षुनिरोष नामका गुण स्वर्गमोक्ष का एक अद्वितीय कारण है, अशुभ कर्मोका नाश करनेवाला है धर्मका खजाना है और गुणों का समुद्र है । इसलिये प्रयत्न पूर्वक इसका पालन करना चाहिये ।।६२२॥ सातों प्रकार के शब्दों को राग सहित नहीं सुनना श्रोत्र इद्रिय निरोध है--- वर्षभौ च गांधारो धैवतो मध्यमः स्वरः । पंचमात्यो निषाव सप्त शम्दाजीवजा इमे ।।६२३॥ एतेषो जीवशब्दानां वीणायचेतनात्मनाम् । रागेरणाश्रवणं यरसः भोवरोधोयहामिफत् ॥६२४।। ___ अर्थ-पङ्ग, ऋषभ, गांधार, धैवत, मध्यम, पंचम और निषाद ये जीवों से उत्पन्न होनेवाले सात प्रकारके स्वर हैं । जीवों से उत्पन्न हुए इन शब्दों को तथा वीणा आदि अचेतन पदार्थों से उत्पन्न हुए शब्दों को राग पूर्वक सुनना श्रोत्र निरोध नामके गुण को हानि पहुंचाने वाला है ॥६२३-६२४॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] { १०१) [ तृतीय अधिकार राग सहित गीतादि के श्रवण का निषेधसरागगीतगानाद्या रागकामाग्निदीपिका: । वोरणामवंगवाथाश्च न योतव्या जितेन्द्रियः ।।६२५।। अर्थ-राग पूर्वक होनेवाले गीत गान वा वीणा मृदंग आदि बाजे राग और कामरूपी अग्नि को बढ़ाने वाले हैं। इसलिये जितेन्द्रिय पुरुषों को कभी नहीं सुनने चाहिये ।।६२५॥ राग वर्धक शास्त्रों के श्रवण का निषेधश्रृंगार युद्ध हास्यावि पोषकाणि हनेकशः । कलि कौतूहलोत्पाद कानि शास्त्राणि ज्ञातुचित् ॥ मिथ्यामसाधण्यानि महापापा कराणि च । पूर्तः प्रज्वलितान्यत्र न श्रूयन्ते वित्तः ॥६२७॥ अर्थ-सम्यग्दृष्टि पुरुष शृगार युद्ध हास्य प्रादि को पुष्ट करनेवाले तथा कलियुग का कौतूहल बढ़ाने वाले (परस्पर युद्ध कराने वाले) अनेक प्रकारके शास्त्रों को कभी नहीं सुनते हैं । जो शास्त्र मिथ्यामत रूपी पाप से भरे हुये हैं जो महा पाप उत्पन्न करनेवाले हैं और धूर्तों के द्वारा बनाये गये हैं ऐसे शास्त्र भी कभी नहीं सुनते हैं॥६२६-६२७।। विकथानों को सुनने का त्यागअसत्याः कुकथा मिथ्यामागंजा विकथादयः । वृथास्तवान्यनिदाद्या न श्रोतव्याः वर्षः क्वचित् ॥ ___अर्थ- बुद्धिमान पुरुषों को प्रसत्य कुकथाएं, मिथ्यामतों को विकथाएं, व्यर्थ की स्तुति और दूसरों की निंदा कभी महीं सुननी चाहिये ।।६२८।। कुकाव्य के धवण का निषेध - कुकाध्यं दुर्गतोपेतं न श्रोतव्यमघाकरम् । मुक्त्वा जिनोजितं काव्यं वक्षः प्रजादिवृद्धपे ॥६२६।। अर्थ-इसी प्रकार मिथ्यामत से भरा हुआ और पाप उत्पन्न करनेवाला वा कुकान्य कभी नहीं सुनना चाहिये । बुद्धिमानों को अपनी बुद्धि बढ़ाने के लिये भगवान जिनेन्द्र देव के कहे हुए काव्य ही पढ़ने चाहिये अन्य नहीं ॥६२६।। अच्छे काव्यों के पढ़ने से बुद्धि श्रेष्ठ होती हैयतो जिनेन्द्रकाव्येरणानधो धर्मोषसंवरः । ताभ्यां स्याच्च महाप्रज्ञा सतां विश्वाशिनी ।।६३०॥ अर्थ-क्योंकि भगवान जिनेन्द्रदेव के कहे हुए काव्य के पढ़ने से पाप रहित निर्मल धर्मकी वृद्धि होती है और पापों का संवर होता है । तथा धर्म और संवर से सज्जन पुरुषोंके समस्त पदार्थों को दिखलाने वाली श्रेष्ठ बुद्धि उत्पन्न होती है ।।६३०॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( १०२ ) [ तृतीय अधिकार मिथ्या काव्यों के सुनने से वृद्धि विपरीत हो जाती है-- कुकाव्यश्रवणेनाधमघान्सति विपर्ययः । तेन पातो दगादिभ्यस्ततोऽशर्मासता महत् ॥६३१।। अर्थ-मिथ्या काव्यों के सुनने से पाप होता हैं, पाप से बुद्धि विपरीत हो जाती है, बुद्धि के विपरीत होने से सम्यग्दर्शन छुट जाता है और सम्यग्दर्शनके छट जाने से उन दुष्टों को महा दुःख उत्पन्न होता है ।।६३१॥ जो मुनि रागद्वेष वर्धक शब्दों को नहीं सुनते हैं उनके कर्मबंध नहीं होता--- इत्यादीन् परान् शब्दान् ये अण्वन्ति न योगिनः । चरन्तस्तेन वध्यन्ते पापंर्जातु महीतले ॥६३२॥ अर्थ--इसप्रकार जो मुनि मर्वत्र विहार करते लए भी दूसरे के शब्दोंको नहीं सुनते हैं थे इस संसार में कभी पापों से नही बंधते हैं ॥६३२।। (मिथ्या) रागद्वेषण उत्पन्न करनेवाले वचनों के सुनने से वचमात्तीत महादुःख होता हैमाग्दान रागादि हेतुस्तान ये श्रृण्वन्स्यत्र रागिणः। रागषौ पर्शतेषां प्रजायेतेऽन्वहं तराम् ।। ताभ्यां स्पुर्तुष्टसंकल्पास्तस्यात्पापं दुरुत्तरम् । पापेन संस्तो दुःखं से लभन्ते वचोलिंगम् ॥६३४।। अर्थ-जो रागी पुरुष इस संसार में रागद्वेष उत्पन्न करनेवाले शब्द सुनते हैं उनके रात दिन रागद्वेष उत्पन्न होता रहता है । तथा रागद्वेष उत्पन्न होने से दुष्ट संकल्प उत्पन्न होते हैं, उन दृष्ट संकल्पों से अत्यंत घोर पाप उत्पन्न होता है और पापों से इस संसार में वचनातीत महा दुःख प्राप्त होते हैं ॥६३३-६३४॥ अपने पाप शांत करने के लिये श्रोत्र इन्द्रिय का निरोध प्रावश्यक हैविज्ञायेस्येनसा शास्य सर्वयत्नेन धीषनाः । श्रोत्ररोध प्रकुर्वन्सु त्यक्त्वा चापल्य मंजसा ।। ६३५|| अर्थ-यही समझ कर बुद्धिमान पुरुषों को अपने पाप शांत करने के लिये अपनी चंचलता छोड़कर पूर्ण प्रयत्न के साथ शीघ्र ही भोत्र इंद्रिय का निरोध करना चाहिये ॥६३५॥ समस्त सुखों का निधान एवं समस्त सिद्धांत का कारण श्रोत्रन्द्रिय का निरोधविविधसकलशब्दान रागहेतून् विमुच्य जिनवरमुखबातान् धर्मशान महोत्वा । निखिलसुखनिधानं सर्वसिद्धांतहेतु कुरुत परमयरनामष्ठावरोध यतीन्द्राः ।।६३६॥ अर्थ-मुनिराजों को रागद्वेष को उत्पन्न करनेवाले अनेक प्रकार के शब्दों के सुनने का त्याग कर देना चाहिये और भगवान जिनेन्द्र देवके मुख से प्रगट हुये धर्म रूप Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप] [ नृतीय अधिकार शब्दों को सुनना चाहिये । तथा परम प्रयत्न के साथ समस्त सुखों का निधान और समस्त सिद्धांत का कारण ऐसा श्रोत्र इन्द्रिय का निरोध करना चाहिये ।।६३६॥ घाणेन्द्रिय निरोध का स्वरूप--- निसर्गवासितानां च चेतनावेतमात्मनाम् । द्रध्यायीनां सुसौरम्याणां रागावि विधायिनाम् ॥ गंधो न प्रायते योन रागादिभिविरागिभिः । न घेण वेसराणा स प्राणरोधो जिनमतः ॥६३८।। अर्थ-बोलराणी पुरुष स्वभाव से सुगंधित चेतन वा अचेतन सुगंधित और राग बढ़ाने वाले द्रव्योंको राग पूर्वक कभी नहीं सूंघते हैं इसोप्रकार दुर्गध युक्त पदार्थों को द्वष पूर्वक नहीं सूघते हैं उसको भगवान जिनेन्द्रदेव घ्राण इन्द्रिय का निरोष कहते हैं ।।६३७-६३८।। भोजन करते समय भी सुगंधित पदार्थों को नहीं सूचना चाहियेपुष्पक' रकस्तूरी श्रीखण्याचा अनेकशः । सुगंधयः शुभद्रम्या नातव्या नाक्ष निजितः ॥६३६।। अर्थ-इन्द्रियों को जीतने वाले संयमियों को पुष्प कपूर कस्तुरी चंदन आदि अनेक प्रकार के सुगंधित और शुभ द्रव्य कभी नहीं घने चाहिये ।।६३६॥ घाणेन्द्रिय को प्रिय लगने वाले पदार्थों का निधघृतपक्वान्नपानाया घ्राणेन्द्रियसुखप्रदाः। भोजनावसरे जातु न प्राणीया पतीश्वरः ॥६४०॥ अर्थ-मुनिराजों को भोजन के समय में भी प्राण इन्द्रिय को सुख देनेवाले घी में पके हुए अम्ल पान आदि पदार्थ भी कभी नहीं सूघने चाहिये ॥६४०।। दुर्गंधमय पदार्थों को सूधकर द्वेष नहीं करना चाहिये - दुर्ग वा समानाय नषः कार्यों न संयतः । पूतिगंधो यतः काय: स्वस्पैच विद्यतेऽशुभः ॥६४१।। अर्थ-मुनियोंको दुर्गधमय पदार्थों को सूघकर द्वष भी नहीं करना चाहिये । क्योंकि अपना शरीर ही अत्यंत शुभ और अत्यंत दुर्गंधमय है । ६४१॥ घाणेन्द्रिय को प्रिय लगने वाले पदार्थों के सेवन से कमबंध नहीं होतामत्वेति ये न कुर्वन्ति सुगंधेतर वस्तुषु । रागद्वषो न तेषां न कर्मबंधोत्रताकृतः 11६४२।। अर्थ-यही समझ कर जो मुनि सुगंधित वा दुर्गंध युक्त पदार्थों में रामद्वेष नहीं करते उनके प्राण इन्द्रिय से उत्पन्न होनेवाला कर्म बंध कभी नहीं होता ।।६४२।। सुगंध को राग पूर्वक तथा दुगंध को द्वेष पूर्वक त्याग का उपदेशरागवषेण गहन्ति गंधी येत्र समेतरौ । भवरापानं तेषां पाप दुःखं 5 दुर्गतौ ।।६४३॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( १०४ ) [ तृतीय श्रधिकार अर्थ- जो मुनि सुगंधको राग पूर्वक ग्रहण करते हैं और दुर्गंध को द्व ेषपूर्वक ग्रहण करते हैं उनका होता है और पाप से दुर्गतियों में महा दुःख प्राप्त होते हैं ।॥६४३॥ प्रयत्नपूर्वक उक्त पदार्थों में रागद्वेष का त्याग -- विवित्वेति पचार्थज्ञाः प्राप्य गंध शुभाशुभौ । श्वचिवहां विनायत्ता प्रागद्व ेषी श्यजन्तु भोः ।। अर्थ - यही समझकर पदार्थों के स्वरूप को जानने वाले मुनियों को बिना इच्छा के प्राप्त हुई सुगंध और दुर्गंध को सूंघकर कभी रागद्व ेष नही करना चाहिये । प्रयत्नपूर्वक रागद्वेष का त्याग कर देना चाहिये ।। ६४४ । । कर्मरूपो शत्रुका नाश करने के लिये घ्राणेन्द्रिय का निरोध राम षकर निसर्गचपलं घ्राणेन्द्रियं पापदं वंशग्येण निरुध्य धर्मजनकं रागादिभाशंकरम् । स्वर्मोक्षेकनिबंधनं शुभरामं कर्मारि विध्वंसकं कुर्योध्वं शिवशर्मणेप्यनुदिनं स्वमापरोधं बुधाः || अर्थ- बुद्धिमान मुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये अपने वैराग्य से राग द्वेष को उत्पन्न करनेवाले और स्वभाव से चपल और पाप बढ़ाने वाले ऐसे प्राणेन्द्रिय का निरोध करना चाहिये, तथा धर्मको प्रगट करनेवाले, रागद ेष को नाश करनेवाले स्वर्ण मोक्ष का कारण अत्यन्त शुभ और कर्मरूपी शत्रुको नाश करनेवाले ऐसा धारण इन्द्र का निरोध प्रतिदिन करते रहना चाहिये ||६४५ || जिह्वा इंद्रिय निरोध का स्वरूप अस्राविचतुराहारे रसे तित्तादि षद्विषे । मनोशे प्रासुके लब्धे सति जिह्वासुखप्रये ॥ ६४६ ॥ या निराक्रियते कांक्षा गुठिश्च निजितेन्द्रियः । भ्रात्मध्यान सुषःतृप्ते जिह्वारोधः सकथ्यते ।। अर्थ - जो मुनि आत्मध्यान रूपी ममृत से तृप्त हो रहे हैं और इन्द्रियों को जीतने वाले हैं ऐसे मुनिराज खट्टे मीठे यदि यहाँ रसों से परिपूर्ण जिह्वा इन्द्रिय को सुख देनेवाले पन्त मनोज़ और प्रासुक अशाबिक चारों प्रकार का प्राहार प्राप्त होने पर जो अपनी प्राकांक्षा रोक लेते हैं उसमें गूढता धारण नहीं करते उसको जिह्वा का निरोध कहते हैं । ६४६-६४७ ।। चारों प्रकार के आहार में राग का अभाव - सनं पानकं खायं स्वार्थ जिह्वा सुखप्रदम् । शुद्ध चात्र क्वचित्प्राप्य रागः कार्यो न संयतेः ॥ अर्थ - जिह्वा इन्द्रिय को सुख देनेवाला अन पान खाद्य स्वाद्य आदि चारों Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाचार प्रदीप ] ( १०५ ) [ तृतीय अधिकार प्रकारका शुद्ध आहार प्राप्त होनेपर मुनियोंको कभी राग नहीं करना चाहिये ।। ६४८ || मनोश और अमनोज्ञ पदार्थों के सेवन में रागद्वेष का प्रभाव - तिक्तं च कटुकं चाम्लं कषायं मधुरं रसम् । मनोज्ञं वेतरं प्राप्य रागद्व ेषौ त्यजेद्यतिः २६४६ ॥ अर्थ - तिक्त कटुक कषायला खट्टा और मीठा ये रस हैं ये रस मनोज्ञ और अमनोज्ञ दोनों प्रकारके होते हैं इनको पाकर मुनियों को राग द्वेषका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये ||६४६ ॥ भिक्षावृत्ति से प्राप्त भोजन में रागद्वष का निषेध सरसं वार संस्त्यक्तं क्षारं वा क्षारवजितम् । उष्णं वा शीतलं भद्रं रसनाथ सुखावहम् ॥६५० ॥ श्रनिष्टं वा यथालब्ध माहारं भिक्षयानघम् । माहारन्ति तनुस्थिस्यै त्यक्तरागादियोगिनः ॥ ६५१ ॥ अर्थ - राग द्वेषका सर्वथा त्याग करनेवाले मुनि अपना शरीर स्थिर रखने के लिये सरस वा नीरस, लवरग सहित वा लवण रहित, उष्ण वा शीतल रसना इन्द्रिय को सुख देने वाला वा अनिष्ट जंसा भिक्षा वृत्तिसे आहार मिल जाता है उसी निर्दोष बहार को वे ग्रहरण कर लेते हैं ।।६५०-६५१ ।। प्रासु आहार से कर्म का अभाव -- श्लोक नं० ६५२ मूल प्रति में ही नहीं है । अर्थ-वे मुनिराज पारणा के दिन इसप्रकार का जो प्रासुक आहार ग्रहण करते हैं उससे उनके कर्मों का बंध नहीं होता किंतु उससे ही उनके कर्मों की निर्जरा होती है ।।६५२ ।। राग पूर्वक आहार का निषेध एवं ये प्राकाहारं भजन्ति पारणे क्वचित् । सेखों न तत्कृतो बंघः कुतः संधरनिर्जरे । ६५३ ।। अर्थ - इस संसार में जो मूर्ख यति रागद्वेष पूर्वक आहार लेते हैं उनके पदपद पर कर्मोंका बंध होता है फिर भला उनके संक्षर और निर्जरा किस प्रकार हो सकते हैं अर्थात् कभी नहीं होते ।।६५३॥ जिल्ला इन्द्रिय राक्षसी के समान है जिह्वा विनिजिता येन सर्वभक्षण राक्षसो । तस्य समीहितं सिद्ध यांति सर्वन्द्रिया वशम् || अर्थ - यह जिल्ला इन्द्रिय सर्व भक्षण करने के लिये राक्षसी के समान है । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( १०६ ) [ तृतीय अधिकार ऐसी इस जिह्वा इन्द्रिय को जो जीत लेता है उसके समस्त कार्य सिद्ध हो जाते हैं और वह समस्त इन्द्रियों को वश करनेवाला समझा जाता है ।। ६५४ || जिल्ला इन्द्रिय रूपी सर्पिणी पर विजय श्रावश्यक - जिह्वाहोमक्षमोयोत्र जेतु दोनोम वंचितः । स्मराधरीन् कथं हन्ति दुर्द्धरान् सोतिदुर्जयान् ॥ अर्थ- इन्द्रियों से ठगा हुआ जो दीन मनुष्य जिह्वा इन्द्रिय रूपी सर्पिणी को जीतने में असमर्थ है वह अत्यन्त दुर्जय और दुर्धर ऐसे कामादिक शत्रुओं को कैसे मार सकता है ।।६५५ ।। तो जिह्वापारकामाखाविवाच्यः इसकी लंपटता से कामादि की वृद्धि - पूर्वपर्याज्य घातिनः ।। ६५६ ।। - क्योंकि जिह्वा इन्द्रिय की लंपटता से धर्मके साम्राज्य को नष्ट करने वाले काम आदि इन्द्रिय शत्रु अत्यन्त उग्र रूप धारण कर लेते हैं ।। ६५६ ॥ मिष्ट रस की इच्छा करनेवाला मुनि निन्द्य है- भिक्षाचरत्वमासाद्य योद्ध दग्धशवा कृतिः । मिष्टं स ईहते नग्नः कथं लोके न लज्जते ।। ६५७।। अर्थ- आधे जले हुए मुर्दे की प्राकृति को धारण करनेवाला जो नग्न मुनि भिक्षा भोजन का नियम लेकर भी मिष्ट रसकी इच्छा करता है वह लोक में लज्जित क्यों नहीं होता ।। ६५७॥ द्रव्य देकर लाये हुए पदार्थ में भी क्रोध का निषेध क्रीतान्नं यदि द्रव्यैरानीतं स्याह्निरूपकम् । तत्र श्लाघ्यते रोषः संयतंश्व कृतो भुवि ।। अर्थ - यदि द्रव्य देकर खरीद कर लाया हुआ अन्न बिगड़ा हुआ हो तो क्रोध करना भी अच्छा लगता है परन्तु इस संसार में सुनियों को ऐसा समय वा कारण कब मिलता है ? अर्थात् कभी नहीं ||६५८ || भिक्षा वृत्ति से प्राप्त भोजन में क्रोध का अवसर नहीं - नोचेदेवं भुषालब्धं भिक्षयान शुभाशुभम् । तर्ह्यवरे भोक्तव्यं रोषस्यावसरः ववभोः । ६५६ ॥ अर्थ - यदि ऐसा नहीं है तो फिर भिक्षा वृत्ति से शुभ वा अशुभ ( इष्ट वा अनिष्ट) अन्नको ग्रहण करना व्यर्थ है । फिर तो आवर पूर्वक भोजन करना चाहिये । ऐसी अवस्था में भी क्रोध का अवसर कभी नहीं आ सकता ॥ ६५६ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ] ( १०७ ) रसों का त्याग पूर्वक रसना इन्द्रिय का जय अर्थ - यही समझकर मुनियों को यम नियम धारण कर बड़े प्रयत्न के साथ दुर्धर ऐसी रसना इन्द्रिय को जीतना चाहिये ।। ६६० ।। मत्थेति मुनयो यत्नात् दुर्द्धरं रसनेन्द्रियम् । जयंत्या मूलं रसत्यागतपोयमैः ।। ६६०।। रसों का त्याग कर तथा तपश्चरण और समस्त पापों को मूलकारण और अत्यन्त [ तृतीय अधिकार जिल्ला इन्द्रिय का निरोध अत्यन्त आवश्यक क्यों ? स्नानर्थपरंपरापरं पंचाक्षशत्रगृहं कर्मारण्यजलं निहत्य विषमं जिह्न क्रियारिखसम् । घौरे तीव्रतरस्तपोभिरखिलं जिल्ला निरोधं गुणं सेवध्वं यतयो भवारि ममनं शेषाक्ष विध्वंसकम् ॥ अर्थ - यह जिह्वा इन्द्रिय रूपी शत्रु अत्यंत दुष्ट है, समस्त अनयों की परंपरा को देनेवाला है, पांचों इंद्रिय रूपी शत्रुओं का घर है, कर्मरूपी वनको बढ़ाने के लिये जल के समान है और अत्यंत विषम है । इसलिये मुनियों को अत्यंत घोर और अत्यंत तीव्र तपश्चरर के द्वारा इस जिह्वा इंद्रिय को अपने वश में कर लेना चाहिये और जन्म मरण रूप संसार शत्रुको नाश करनेवाला तथा समस्त इंद्रियों को निरोध करने वाला ऐसा जिह्वानिरोध नामका गुण सदा पालन करते रहना चाहिये ।।६६१ ॥ स्पर्शन इन्द्रिय निरोध का स्वरूप कशी मृदुशीतोष्णाः स्निग्धरूक्षो गुगलंघुः । जीवाजीव भवा एते त्राष्टौ स्पर्शाः शुभाशुभाः ।। अमीषां स्पर्शने योत्राभिलाषो हि निवार्यते । स्पर्शनेन्द्रियरोधः स केवलं योगिनां महान् ॥ ६६३ ॥ अर्थ- कठोर, कोमल, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष तथा हलका भारी ये जीव जोव से होनेवाले आठ स्पर्श हैं। ये आठों ही स्पर्श शुभ भी हैं और अशुभ भी हैं । मुनिराज जो इन आठों प्रकारके स्पर्शो में अपनी अभिलाषाका त्याग कर देते हैं उसको स्पर्शनेन्द्रिय का निरोध कहते हैं यह स्पर्शनेन्द्रिय का निरोध मुनियों के लिये सर्वोत्कृष्ट ।।६६२-६६३।। स्पर्श इन्द्रिय को प्रिय पदार्थों को कांटे के समान समझकर इनके सेवन का निषेधrate कोमning गद्यकातूलिकादिषु । मनुष्वासनशय्यादि संस्तरेष्य कारिषु ।। ६६४ || पट्टा दिवस्त्रेषु स्पर्शनं ब्रह्मनाशकृत् । प्रतिभिर्जात कार्य न कालाहिकंटकेष्विव ॥ ६६५ ॥ अर्थ- स्त्री वा पुरुष को कोमल शरीर के स्पर्श करना रुई के कोमल गद्दका स्पर्श करना, पाप उत्पन्न करनेवाले कोमल शय्या आसन आदि बिछोनों पर सोना वा Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १०८ ) [तृतीय अधिकार कोमल रेशमी वस्त्रों का स्पर्श करना आदि सब ब्रह्मचर्यको नाश करनेवाला है इसलिये व्रती पुरुषों को काले सर्प वा कांटों के समान समझकर कभी इनका स्पर्श नहीं करना चाहिये ॥६६४-६६५॥ कोमल गद्दों पर बैठने का निषेधकोमले गद्यकावो ये कुर्वन्ति शयनासनम् । स्पर्शनेन्द्रियलोपटयात्तेषां ब्रह्मवतं कुतः ।।६६६।। अर्थ-जो पुरुष कोमल गद्दों पर बैठते हैं वा सोते हैं उनके स्पर्श इंद्रिय को लंपटता होने के कारण ब्रह्मचर्य व्रत कभी नहीं ठहर सकता ॥६६६॥ ब्रह्मचर्य के पालन हेतु कठिन तखते पर सोना चाहियेमत्थेति कोमले रम्ये शर्मदे शयनासने । ब्रह्मवतायिभिर्जातु न कार्य शयनासनम् ॥६६७।। किंतु शिलाश्ममूम्पादौ कठिने फलकाविषु । भात लासन कार्य निसहानी सुनाणे ।।६:४!! अर्थ-यही समझ कर ब्रह्मचर्य वतको इच्छा करने वाले पुरुषों को कोमल मनोहर और सुख देनेवाले प्रासन पर कभी नहीं बैठना चाहिये और न ऐसी शय्या पर सोना चाहिये किंतु अपना ब्रह्मचर्य पालन करने के लिये तश निद्रा को दूर करने के लिये शिला पत्थर भूमि वा कठिन तखते पर सोना चाहिये और उसो पर बैठना चाहिये ॥६६७-६६८।। ग्रीष्म ऋतु में शीत स्पर्श से राग छोड़ देना चाहिएपद्यनोहित वृत्यान वायुः स्पृशति शीतलः । रुमे वपुस्तथाप्याशु रागस्त्याज्योऽशुभप्रदः ।।६६६।। ____ अर्थ-यदि प्रीष्म ऋतु में मुनियों के शरीर को बिना उनकी इच्छाके प्रनायास शीतल वायु स्पर्श करे तो मुनियों को उसी समय उस शोत स्पर्श से अपना अशुभ उत्पन्न करनेवाला राग छोड़ देना चाहिये ।।६६६।। शीत ऋतु में शीत स्पर्श से द्वेष छोड़ देना चाहिएशीतकाले थया शोतो मत्स्पृशति योगिनम् । तत्रापि न मनागद्वेषं करोति मुनिपुंगवः ॥६७०।। __अर्थ-यदि किसी मुनिके शरीर को शीत ऋतुमें शीतल वायु स्पर्श कर ले तो भी उन मुनिराज को अपने हृदय में किंचित् भी द्वेष नहीं करना चाहिये ।।६७०।। बहुत से पदार्थ स्पर्श करने में सुख एवं दुःख देनेवाले हैं उनमें राग और द्वेष नहीं करना चाहिएइत्याया बहुधा स्पर्शाः सुख दुःख विधायिनः । ये तानासाथ योगोन्ना रागद्वषो न कुर्वते ।। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] (१०६) [ तृतीय अधिकार __ अर्थ-इसप्रकार बहुत से स्पर्श सुख देनेवाले हैं और बहुत से स्पर्श दु ख देने वाले हैं उनको पाकर मुनियों को रागद्वेष कभी नहीं करने चाहिये ॥६७१॥ पदार्थों में राग-द्वेष छोड़ देने से कर्मों का बंध नहीं होतारागद्वेषपरित्यागा तेषां संवर निर्जरे । स्पर्शषु सरस्वपीहाहो न बंषः कर्मणां क्वचित् । ६७२॥ अर्थ-रागढ'षका परित्याग करने से स्पर्श होते हुए भी मुनियों के कर्मों का बंध कभी नहीं होता किंतु उनके कर्मों का संघर और निर्जरा हो होती है ।।६७२।। स्पर्श-जन्य प्रानन्द अनुभव करने में दुर्गति का बंध होता हैस्पशषु तेषु ये मूढा र'गद्वषो वितन्वते । तेषां पापानवस्तस्माददुर्गतौ भ्रमणं घिरम् ।।६७३॥ अर्थ-जो मूर्ख पुरुष उन स्पर्शों में रागद्वेष करते हैं उनके महा पाप का प्रास्रव होता है और उस पापासवसे वे चिरकाल तक दुर्मतियों में परिभ्रमण करते रहते हैं ॥६७३॥ ___ इसमें रागद्वेष नहीं करना चाहिए-- विज्ञाति न कर्तव्यौ रागद्वषो सुसंयतः । सर्वेषु स्पर्शमेवेषु सुख दुःखावि कारिषु । ६७४।। अर्थ --यही समझकर श्रेष्ठ मुनियों को सुख वा दुःख देनेवाले अनेक प्रकारके स्पों में कभी राग वा 'ष नहीं करना चाहिये ।।६७४॥ ____ इस स्पर्शनेन्द्रिय, कार्मेंद्रिय को जीतना परमावश्यक हैविश्वामिष्टकर भवारिजनक कामेन्द्रियस्पर्शनं जिस्वारमाविभपरसीव कठिन: शय्यासने दुष्करः । स्वोक्षककरं सुसौख्यजलधि कर्माद्विवच परं कृत्स्नाक्षारिवशीकर प्रकुरत स्पक्षिरोधं बुषाः ।। अर्थ-यह कामेन्द्रिय वा स्पर्शनेन्द्रिय समस्त अनिष्टों को करनेवाली है और संसार रूप शत्रुको उत्पन्न करनेवाली है। इसलिये बुद्धिमान पुरुषों को पत्थर शिला आदि कठिन वा पुष्कर शय्या आसन आदि के द्वारा इस कामेन्द्रिय वा स्पर्शनेन्द्रिय को जीतना चाहिये तथा स्वर्ग मोक्षको देनेवाला, अनंत सुखका समुद्र, कर्मरूपी पर्वतको चूर करने के लिये वज्रके समान और समस्त इंद्रिय रूपी शत्रुओं को वश करनेवाला ऐसा स्पर्शन इंद्रिय का निरोध अवश्य करना चाहिये ।।६७५॥ पांचों इन्द्रियों में स्पर्शन और रसना इन्द्रिय को जीतना ही सबसे कठिन हैयेथा मध्ये जन यो रसस्पर्शनायो । बौहि कामेन्द्रियो नणा महानर्थविपायिनी ॥६७६॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] (११०) [ तृतीय अधिकार अर्थ-इन पांचों इंद्रियों में से स्पर्शन इंद्रिय और रसना वा जिह्वा इंद्रिय ये बोनों इंद्रियां कामेन्द्रिय कहलाती हैं और मनुष्यों के लिये अनेक महा अनर्थ उत्पन्न करनेवाली हैं ॥६७६॥ प्राणेंद्रिय, चक्षुरिन्द्रिय एवं श्रोत्रन्द्रिय ये ५ भागेन्द्रिय हैंश्रोत्रं घ्राणेन्द्रियं चक्षुरिमारिए श्रीणि संस्तौ। भोगेन्द्रियाणि जंतूनां स्तोकानर्थकराप्यपि ॥ अर्थ-इसी प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय, प्राणेन्द्रिय और चाइन्द्रिय ये सीन इन्द्रियों भोगेन्द्रिय कहलाती हैं और जीवों को थोड़ा ही अनर्थ करती हैं ॥६७७।। पांचों इन्द्रियां चोर हैंइमे पंचेन्द्रियाश्चौरा धर्मरत्नापहारिणः । जिताः संयमबाणये सुखनिस्तेम चापरे ॥६७८।। अर्थ-ये पांचों इन्द्रियां चोर हैं और धर्मरूपी रत्नको चराने वाली हैं। जिन संयमियों ने अपने संयम वारणों से इनको जीत लिया है इस संसार में वे ही सुखी हैं अन्य नहीं ॥६७८॥ ये इन्द्रिय रूपी हाथी बड़े प्रबल हैंधावन्तो विषयारण्ये तेिन्द्रियदन्तिमः । निराम्याकुशेनात्र यतास्तेविवाकराः ॥६७६।। अर्थ-ये इन्द्रियरूपी हाथी बड़े ही प्रबल हैं और विषय रूपी वनमें दौड़ लगा रहे हैं । जो लोग संसार शरीर और भोगों के वैराग्यरूपी अंकुम से इन इन्द्रिय रूपी हाथियों को वशमें कर लेते हैं उन्हें ही सबसे उत्तम ज्ञानी समझना चाहिये ।।६७६।। ये घोर बड़े ही क्रूर हैंपंचाक्षतस्कराः क रास्तपः सुभट ताडिताः। विघटते सतां मोक्षमार्गे विघ्नविधायिनः ॥६८०॥ अर्थ---ये पंचेन्द्रियरूपी चोर बड़े ही ऋर हैं और सज्जम पुरुषों को मोक्षमार्ग में विघ्न करनेवाले हैं ऐसे ये चोर तपश्चरणरूपी योद्धानों से ताडित होनेपर भी इधर उधर भागते हैं ।।६८०॥ पालतू सर्प के समान ये इन्द्रियां स्वामी की ही मार डालती हैंपथात्र पोषिसा नागा नयन्ति स्वामित्रो बलात् । यमान्तं च तया पंचेग्निया श्व हि सप्तमम् ॥ __ अर्थ-जिस प्रकार पालन पोषण किये हुये पालतू सर्प अपने स्वामी को ही जबर्दस्ती यम मंदिर तक पहुंचा देते हैं मार डालते हैं उसी प्रकार ये पांचों इन्द्रियां भी Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( १११) [ तृतीय अधिकार इस जोधको सातवें मरक तक पहुंचा देती हैं ।।६८१॥ ये इन्द्रियरूपी शत्रु प्रवल शत्रुओं से भी अधिक भयंकर हैंपरिभ्योऽपि महादुष्टा अवरम्तेन्द्रियशववाः । इहामुत्र मनुष्याणां कृत्स्न दुःखनिबंधमाः ॥६८२॥ यसोधारायः किचिदुःखं च ददो न बा । इहामुत्र नृणां घोरं वबस्मेवाक्षशत्रवः ।।६८३॥ अर्थ-ये इन्द्रियरूपी प्रबल शत्रु शत्रुओं से भी महावुष्ट हैं । तथा इस लोक और परलोक दोनों लोकों में मनुष्यों को सब तरह के चुःख देनेवाले हैं। इसका भी कारण यह है कि शत्रु इसी लोक में थोड़ा सा दुःख देते हैं अथवा नहीं भी देते हैं किन्तु इन्द्रिय रूपी शत्रु मनुष्योंको इस लोक में भी दुःख देते हैं और परलोक में भी महादुःख देते हैं ॥६८२-६८३॥ ये इन्द्रिय शत्रु इस लोक और परलोक दोनों में दुःख देते हैं ये रोग से भी अधिक दुःखदायी हैरागेम्योऽपि महादुःखकरा: पंचाक्ष बुर्जनाः । लालिताः स्त्रोनराणां च निद्या दुर्गतिदायिनः ।। जनर्गति गोरोगा नाममा पनि नराम् । कोटी कोटास्थि पर्यन्तं दुःखं खानि च दुर्गती ।। अर्थ--स्त्री और पुरुषों के द्वारा लालन-पालन किये गये ये पांचों इन्द्रियरूपी दुर्जन रोग से भी अधिक महा दुःख देनेवाले हैं, नियनीय हैं और दुर्गति को देने वाले है । क्योंकि रोग तो मनुष्यों को कहीं-कहीं पर थोड़ा सा दुःख देते हैं परंतु ये इन्द्रियां दुर्गतियों में गालकर कोडाकोड़ी सागर पर्यंत महा दुःख देते हैं ।।६८४-६८५॥ ये इन्द्रियां कालकूट विष से भी अधिक भयंकर हैंकालकूट विषं मन्ये सुखं वैषमिकं नणाम् । प्रमजं विषमं घोरतुःखतापनिबंधनम् ॥६८६॥ कालकूटं यतो भक्तं स्वासून हरति केवलम् । सुखं वेनियनं पुंसा दसेनेकविषासुखम् ।।६८७॥ अर्थ-ये मनुष्यों के इन्द्रिय जन्म विषय संबंधी सुख अत्यंत विषय हैं तथा घोर दुःख और संताप को देनेवाले हैं इसीलिये हम इनको कालकट विषके समान ही मानते हैं । इसका भी कारण यह है कि भक्षण किया हुमा विष केवल अपने प्राणों को हरण कर लेता है परंतु इन्द्रिय जन्य सुख मनुष्यों को अनेक प्रकार के दुःख देते हैं । ॥६८६-६८७॥ स्पर्शन तथा रसना दोनों ४ घंगुल प्रमाण ही हैं फिर भी महान् अनर्थकारी हैंचतुरंगुलमानेमं जिह्वा दुःखाशुभांविका । तावन्मात्रोप्पजम्मोहो दुष्ट कामेन्द्रियः खलः ॥६८॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ११२ ) [ तुतीय अधिकार अर्थ - यह जिल्ला इन्द्रिय चार अंगुल प्रमाण है तथापि अनेक दुःख और दुर्गतियों को देनेवाली । इसी प्रकार अत्यंत दुष्ट कामेन्द्रिय भी चार अंगुल प्रमाण है और अत्यंत अजेय है ||६६६ || दोनों इन्द्रियों के द्वारा प्राणी बहुत दुःख भोगते हैं ऐभिरष्टगुलोपर्स दोर्ष जीवाः कथिताः । प्रकुर्वन्ति महापापं लभन्ते युः खमुल्बणम् ||६८६ ।। अर्थ - इन आठ अंगुल प्रमारण दोनों इन्द्रियों से उत्पन्न हुए दोषों के द्वारा कथित हुए बुःखी हुए जीव महा पाप उत्पन्न करते हैं और फिर घोर दुःखों को भोगते ||६|| । जो इन दोनों को जीत लेते हैं उनके सब इन्द्रियां वश में हो जाती हैंइदं कामेन्द्रियं युग्मं निर्जितं यैस्तपो धर्मः । तेषां शेषेन्द्रियाण्याशु वशं यान्ति हृदा समम् ||६६०॥ अर्थ -- जो जीव अपने तप और संथमके द्वारा स्पर्शनेन्द्रिय और जिह्वा इंद्रिय इन दोनों कामेन्द्रियों को जीत लेते हैं उनकी बाकी की समस्त इंद्रियां भी हृदय के साथ-साथ बहुत शीघ्र यशमें हो जाती हैं ॥६०॥ रस व्याग द्वारा ये दोनों इन्द्रियां जीती जा सकती हैं विज्ञायेति रसत्याग तपोभिरतिदुष्करः । जयन्तु मुनयो येवं स्वासयुग्मं शिवाप्तये ॥ ६६१॥ अर्थ – यही समझ कर मुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये अत्यंत कठिन ऐसे रस त्याग नामके तपश्चररण से ये दोनों इन्द्रियां वशमें करनी चाहिये ।।६६१ ॥ - ये पांचों इन्द्रियां बड़ी ठग हैं तथा अंतरंग शत्रु हैं पंचेन्द्रियगा एते वैरिणोभ्यंतरंगजाः । सम्यग्दग्ज्ञानवृत्तावि रस्नात्यपहरन्ति तुः ||६६२ ॥ अर्थ -- ये पांचों इंद्रियां बड़ी ठग हैं और इस जीवको अंतरंग शत्रु हैं । तथा मनुष्यों के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूपी रत्नोंको चुरा लेती है ॥६६२॥ ये इन्द्रिय रूप मोक्षफल देनेवाले अमृत फलको नष्ट कर देती हैपुंसामुन्मूलयंत्यत्रादत्तमुक्ति सुधाफलम् ||६९३ ॥ अर्थ- किसी के वश न होनेवाले ये इन्द्रिय रूपी हाथी मोक्षरूपी अमृतफलको देनेवाले ऐसे मनुष्यों के धर्मरूपी कल्पवृक्ष को क्षण भरमें जड़ मूलसे उखाड़ कर फेंक देते हैं ॥६३॥ तथादसिनोऽदांता धर्मकल्पद्रुमं क्षणात् Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RamntA मूलाचार प्रदीप ] [ तृतीय अधिकार ये इन्द्रिय रूपी घोड़े कुमार्ग में ले जानेवाले हैंपोषिता स्वेच्छयात्रतेक्षाश्वा उत्पपगामिनः । जन्मार्गे पासयंत्याशु नरान् मुक्तिपथात शुभात् ।। अर्थ-अपनी इच्छानुसार पालन पोषण किये हुये ये इंद्रियरूपी घोड़े कुमार्गगामी हो जाते हैं और फिर मनुष्यों को मोक्षके शुभ मार्गसे हटा कर शीघ्र ही कुमार्ग में पटक देते हैं ॥६६४॥ भूत, भविष्यत, वर्तमान काल में इनके द्वारा ही जीव नरकों में जाते हैं - ये केचन गताः श्वधं यान्ति यास्याम्ति भूतले । केवलं ते जाना नूनमिन्द्रियाकुलीकृताः ॥ __ अर्थ-इस संसार में अब तक जितने जीव नरक गये हैं था अब जा रहे हैं या आगे जायेंगे वे मनुष्य केवल इंद्रियों से व्याकुल होकर हो गए हैं वा जायेंगे और तरह से नहीं ॥६६५॥ ग्यारह अंगके पाठी रुद्र भी इनके कारण ही नरक गएरुद्राधा मुनयो ग्राहो दशपूधंधरा विदः । खधूतवधिता हात्या चारित्रं नरकं ययुः ।।६६६।। अर्थ-देखो ग्यारह अंग और दश पूर्व के जानकार रुन्त आदि कितने ही मुनि इस संसार में इंद्रियों से ठगे गए और अपने चारित्र को नष्ट कर नरक में जा पहुंचे। ।।६६६॥ पांचों इन्द्रियों में एक-एक के सेवन से भी निम्न प्राणियों ने अपने प्राण खो दिएस्पर्शनाक्षेण मातंगा मास्या जिह्वन्द्रियेण । प्राणेन भ्रमराश्चक्षुषा पतंगा मगास्तथा ॥ करणोंन्द्रियेण चकेन अयं यान्स्यत्र लोलुपा। । केवल विषयाशक्त्या किचित्तौख्यं श्रयन्ति न ।। अर्थ-- देखो केवल स्पर्शन इन्द्रियके वश होकर हाथी अपने प्राण खो देता है, जिह्वा इन्द्रिय के वश होकर मछलियां प्राण खो देती हैं, घ्राण इन्द्रिय के वश होकर भ्रमर अपने प्राण खोता है, चक्षु इन्द्रिय के वश होकर पतंगा अपने प्राण खोते हैं और कर्प इन्द्रिय के वश होकर हिरण अपने प्राण सोते हैं। विषयों में प्रासक्त और इन्द्रिय लोलुपी ये जीव कुछ भी सुख न पाकर अपने प्राण खो देते हैं ।।६६७-६९८॥ जो पांचों ही इन्द्रियों का सेवन करते हैं वे नरकगामी क्यों नहीं होंगे ? एकैकालारिरणात्राहो प्रगष्टाः पशवो यदि । ततः पंचामलोला ये शवधनायाः कषं न ते ॥६६६ अर्थ-देखो एक-एक इंद्रिय रूपी शत्र के वश होने से ये पशु सब नष्ट हो Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप । ५१४) [तृतीय अधिकार जाते हैं फिर भला जो पांचों इंद्रियों के लोलुपी हैं वे नरक के स्वामी क्यों नहीं होंगे? अर्थात् वे अवश्य नरक में जायेंगे ||६६६।। चक्री, अर्धचको भी इन्हीं इन्द्रियों के कारण नरक में पहुंचे हैंमन्येऽपि बहवो ये कि बक्रयावयो भुधि। राजानो विषयाशक्त्या गताःश्वभ्र च सप्तमम् ॥ अर्थ-और भी बहतसे चक्रवर्ती अर्द्ध चक्रवर्ती राजा विषयों में प्रासक्त होने के कारण सातवें नरक में पहुंचे हैं ।।७००।। इनके भोगों की कथा कोन कह सकता है ? भुक्त्वा जन्मादिमृत्यन्तं भोगापंचेन्द्रियोषान् । तेषां को गदिलु शक्तः कयां भोगभवां वुधः ।। अर्थ-जो जीव जन्म से लेकर मरण पर्यंत पंचेन्द्रिय के भोगों को अनुभव करते हैं उनके भोगोंसे उत्पन्न होने वाली कथा को भला कौन बुद्धिमान् कह सकता है अर्थात् कोई नहीं ॥७०१॥ वैराग्य रूपी रस्सी से इन्द्रिय रूपी पशुश्नों को बांधना चाहिएमवेति नानिमः शोघ्न पंचेन्द्रियमृगान् घलान् । वनंतु वृद्धवराग्यपाशेन शिवशर्मणे ॥७०२॥ अर्थ-यही समझकर ज्ञानी पुरुषों को अपना मोक्ष सुख प्राप्त करने के लिये शीघ्र ही वैराग्य रूपी रस्सी से पंचेन्द्रिय रूपो चंचल पशुओं को दृढ़ता के साथ बांधना चाहिये ॥७०२।। संयम रूपी शस्त्रों से इन्द्रिय रूपी शत्रुओं को जीतना चाहिएइन्द्रिपारसयो पोरै जिताः संयमायुधः । तैश्च दुर्मोह कर्माद्या हता मुक्तिः करे कृताः ॥७०३।। अर्थ-जो धोर वीर पुरुष अपने संयम रूपी शस्त्रों से इन्द्रियरूपी शत्रुओं को जीत लेते हैं वे ही पुरुष मोहनीय कर्मरूपी शत्रुओं को नाश कर डालते हैं तथा उन्हींके हाथ में मोक्ष प्राप्त हो जाती है ॥७०३॥ इनको नहीं जीतने वाले मोहनीय कर्म को कैसे जीत सकेंगे-- प्रशारीनपि ये जेतुमक्षयाः क्लोवतां गताः । मोह बुष्कर्मशस्ते हनिष्यन्ति कथं भुवि ॥७०४।। __ अर्थ-जो पुरुष इन्द्रियरूपी शत्रुओंको भी जीतने में असमर्थ हैं उन्हें नपुंसक ही समझना चाहिये । ऐसे पुरुष भला इस संसार में मोहनीय कर्मरूयो शत्रुओं को कैसे नामा कर सकते हैं ? अर्थात् कभी नहीं ॥७०४॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप (११५) [ तृतीय अधिकार रत्नत्रय का अपहरण करनेवाले इन्द्रियों को नहीं जीत सकते उनकी दीक्षा भी व्यर्थ हैगृहस्त्रोभ्यादिकां त्यक्त्वा दीक्षात्र गृह्यते बुधैः । जयाप स्वाक्षशत्रूणां रत्नत्रयापहारिणाम् ।। निजितनारीणां यथा दीक्षातपः फलम् । व्यर्थो गृह परित्यागो इहामुत्र मुखं न च ॥७०६॥ प्रा.-तुद्धिमान् को कान सम को अपहरण पारनेवाले इन्द्रियरूपी शत्रुओं को जीतने के लिये ही घर स्त्री और धन आदि का त्याग कर वीक्षा ग्रहण करते हैं । इसलिये जो पुरुष इन्द्रियरूपी शत्रुओंको नहीं जीत सकते उनको दीक्षा और तपश्चरण वा तपश्चरणका फल प्रादि सब व्यर्थ है, तथा उनका घरका त्याग भी व्यर्थ है। ऐसे पुरुषों को इस लोक और परलोक दोनों लोकोंमें सुख नहीं मिल सकता ॥७०५-७०६।। __इन्द्रियों को जीतना ही परम लप हैयतोक्षविजयः पुसा तपः स्यात्परमं भुवि । प्रतः कि सत्तपस्तेषां येषां भो नामनिर्जयः ॥७०।। अर्थ-इंद्रियों को दमन करना जीतना इस संसार में मनुष्यों का परम तप कहलाता है इसलिये कहना चाहिये कि जो इन्द्रियों को नहीं जीत सकते हैं उनके श्रेष्ठ तप कैसे हो सकता है अर्थात् कभी नहीं हो सकता ॥७०७॥ इन्द्रिय विजेताओं को ही ऋद्धियां एवं सिद्धियां प्राप्त होती हैंकिमत्र बहनोलेम तेषां सिद्धिर्महात्मनाम् । ऋद्धयः सुसपालि स्युजिता यैःस्वाक्षरात्रवः ॥७०।। अर्थ- बहुत कहने से क्या थोड़े से में इतना समझ लेना चाहिये कि जिन्होंने अपने इन्द्रियरूपी शत्रुओं को जीत लिया है उन्हीं महात्माओंके ऋद्धियां तपश्चरण और सिद्धियां प्राप्त होती हैं ।।७०८।। इन्द्रिय लंपटता के कारण परलोक में दुर्गति-- प्रनिमिताक्ष होनाना नेह लोकोपकीर्तितः। परलोको न लोपटयात् किंतु दुर्गतिरेव च ॥७०६॥ अर्थ- अपनी इन्द्रियों को न जीतने के कारण जो होन हो रहे हैं उनके न तो इस लोकमें कीर्ति होती है और न परलोक ही उनका सुधरता है किंतु इन्द्रिय लंपटता होने के कारण परलोक में उनको दुर्गति ही होती है ॥७०६॥ इंद्रिय सुख और मोक्ष दोनों एक साथ प्राप्त नहीं किए जा सकतेयथावगमने स्याता पंथानी व्रौ न वेहिनाम् । तथामातुल मोसो च वृथानम्मतिकाक्षिणाम् ।। अर्थ-जिस प्रकार चलते समय मनुष्य भिन्न-भिन्न दो मार्गों में ही नहीं चल Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ११६ ) [ तृतीय अधिकार सकता उसी प्रकार जो मनुष्य इन्द्रिय सुख और मोक्ष दोनों को प्राप्ति चाहते हैं उनका अम्भ व्यर्थ ही समझना चाहिये ।।७१०॥ चारित्र और तप रूपी भयंकर तलवार से इन्द्रिय शत्रुओं को जीत लेना चाहिएजात्येति बहुयत्नेन दक्षाः स्वार्थसिद्धये । खारीन् जयन्तु चारित्रतपखङ्ग भयंकरः ॥७११॥ ___ अर्थ-यही समझकर चतुर लोगों को अपने समस्त पदार्थों की सिद्धि करने के लिये चारित्र और तप रूपी भयंकर तलवार से बड़े प्रयत्न के साथ इन्द्रियरूपी शत्रुओं को जीत लेना चाहिये ।।७११॥ वे ही मुनिराज धन्य हैं जो इन्द्रिय शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं पन्यास्ते भुवने श्रये च महिता बंधा स्तुता योगिनो, ये चारित्ररणावनौ सुविषमे स्थित्वापि कृत्वाजितम् । उप्रोग्रं सुलपो धतुर्गुणयुतं सम्यग्दगार्थ : शरः, तोक्णं नन्ति खलान् त्रिलोक जमिनः पंचाक्षशत्रून् द्रुतम् ॥७१२।। अर्थ-इस संसार में जो मुनिराज अत्यंत विषम ऐसे चारित्ररूपी रणांगनमें ठहर कर तथा उप-उग्र श्रेष्ठ तपश्चरण रूपी प्रत्यंचा सहित धनुष को चढ़ा कर सम्यरवर्शन प्रावि तीक्ष्ण वारणों से अत्यंत दुष्ट और तीनों लोकों को जीतने वाले ऐसे पांचों इन्द्रिय रूपी शत्रुओं को शीघ्र ही मार डालते हैं वशमें कर लेते हैं वे ही मुनि धन्य हैं तीनों लोकों में पूज्य हैं वे ही वंदनीय हैं और वे ही स्तुति करने योग्य हैं ॥७१२।। यम और नियमों से इन्द्रिय-जन्य करना चाहिएविश्वार्यान् विश्ववंधान जिनमुनिवृषभः स्वीकृतान् धर्ममूलान्, पापाध्नान् मुक्तिकतून शिवसुख जलधीन स्वर्गसोपान भूतान् । झानध्यानाग्निहेतून् सकलगुणनिधीन चित्तमातंगसिंहान, सेवावमुक्ति कामाः यमनियमचर्यः कृत्स्नपंचाक्षरोषान् ।।७१३।। अर्थ-समस्त पांचों इन्द्रियों का निरोध तीनों लोकों में पूज्य है, सबके द्वारा चंदनीय है, भगवान तीर्थंकर और गणधर आदि श्रेष्ठ मुनियों ने भी इसको स्वीकार किया है, यह पंचेन्द्रियों का निरोध पापों को नाश करनेवाला है, धर्मका मूल है, मोक्ष को प्राप्ति करानेवाला है, मोक्ष के अनंत सुखका समुद्र है, स्वर्ग की सोढ़ी है, ज्ञान और ध्यान का कारण है समस्त गुणों का निधि है और मन रूपी हाथी को वश करने के Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( ११७ ) [ तृतीय अधिकार लिये सिंहके समान है। इसलिये मोक्षकी इच्छा करनेवाले पुरुषों को अपने यम और नियमों के समूह से इस पंचेन्द्रियों के निरोध को अवश्य धारण करना चाहिये ।।७१३।। ६ अावश्यक मूलगुणों का वर्णन-- अथ मूलगुणान् वक्ष्ये षडावश्यकसंज्ञकाम् । धर्म शुरलोसमध्यानहेतून सिद्धांतजान सत्ताम् ॥ अर्थ----अब आगे छह आवश्यक नामके भूलगुणों को कहते हैं । ये छह प्रावश्यक धर्म और शुक्ल नामके उत्तम ध्यान के कारण हैं और सिद्धांत शास्त्रों में कहे हुए हैं ॥७१४॥ ६ आवश्यकों के नामसामायिकं स्तवो पंदना प्रतिक्रमणं ततः । प्रत्मात्यानं तनूरसर्गः इमान्यावश्यकानि षट् ॥७१५।। __ अर्थ-सामायिक स्तव वंदना प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह मुनियों के आवश्यक कहलाते हैं ॥७५५।। (१) सामायिक आवश्यक का स्वरूपजीविते मरणे लाभाला वषवि सन्मणौ। संयोमे विप्रयोगे च रिपो बंधी खलाखले ॥७१६॥ तृणे च कांचने सौख्ये दुखे वस्ती शुभाशुभे । क्रियते समभावो य स्तद्धि सामापिकं मतम् ॥ अर्थ--जीने मरने में, लाभ अलाभ में, पत्थर मणि में, संयोग वियोग में, शत्रु बंधु में, दुष्ट सज्जन में, तृण सुवर्ण में, सुख दुःख में और शुभ अशुभ पदार्थों में समान परिणाम रखना सामायिक कहलाता है ।।७१६-७१७।। सामायिक के ६ भेदनामाप स्थापना प्रव्यं क्षेत्र कालः शुभाश्रितः। भाव सामाषिकोत्रषो निक्षेपः षड्विधो भवेत् ।। अर्थ-यह सामायिक नाम, स्थापना, प्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के मेव से छह प्रकार है ।।७१८॥ माम सामायिक का स्वरूप--- कर वीभत्सनामा यशुभानि द्वषतानि च। रागकणि मामानि मनोहरशुभानि पै ॥७१६॥ श्रुत्वा मद्वर्जनं राग द्वषादीनां विधीयते । नाम सामायिकालयं तस्सता प्रोक्तं गणाधिपः ।।७२०।। अर्थ-वष उत्पन्न करनेवाले कर वीभत्स और अशुभ नामों को सुनकर द्वेष नहीं करना तथा राग उत्पन्न करनेवाले मनोहर और शुभ नामों को सुनकर राग नहीं Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] (११८ ) [ तृतीय अधिकार करना शुभ अशुभ नामों में रागषका त्याग कर देना उसको गणधर देवोंने सज्जनोंके नाम सामायिक कहा है ।।७१६-७२०।। स्थापना सामायिक का स्वरूपस्थापनाः प्रतिमा विव्यरूपा मनोक्षशर्मयाः । मेत्रानिष्ठाः कुरूपाश्च वेतालाकृतिघारिणीः । विलोक्य क्रियते राग द्वेषदो यतिसर्जनम् । शान्ति शर्मदं स्थापनासामायिकमेयतत् ॥७२२।। अर्थ-स्थापना निक्षेप के द्वारा स्थापित मन और इन्द्रियों को सुख देनेवाली प्रतिमाओं को देखकर राग नहीं करना तथा नेत्रोंको अनिष्ट, कुरूप, वेतालको आकृति के समान प्रतिमाओंको देखकर द्वेष नहीं करना शांति और कल्याण करनेवाला स्थापना सामायिक है ॥७२१-७२२।। द्रव्य सामायिक का स्वरूपसुवर्णरूप्यमाणिक्यामुक्ताफलांशुकादिषु । ब्रव्येषु भोगवस्त्रायो मुक्तिकाकंटकाविषु ॥७२३॥ रागद्वेषाविकांस्त्यपत्वा सतां यत्समदर्शनम् । वग्यसामायिक तरच प्रव्योत्पलाघनाशनम् । ७२४।। अर्थ-सोना, चांदी, माणिक, मोती, वस्त्र प्रादि भोगोपभोग के पदार्थों में अथवा मिट्टी कांटे प्रावि पदार्थों में रागद्वेष का त्याग कर देना तथा समस्त पदार्थों में समता धारण कर समान परिणाम रखना द्रव्य सामायिक है। यह सामायिक द्रव्यों से उत्पन्न हुए समस्त पापों को नाश करनेवाला है ॥७२३-७२४॥ क्षेत्र सामायिक का स्वरूपसौधारामनदीकूलपुरादीनि शुभानि च । क्षेत्राणि वाघ वीभत्सकंटकाधाधितान्यपि ३७२५।। प्रशुभान्याप्य रागद्वेषयोरभाव एव यः । क्षेत्रसमायिक सदि क्षेत्रमानवरोधकम् ॥७२॥ अर्थ-राजभवन, बगीचा, नदी का किनारा और नगर आदि शुभ क्षेत्रों को पाकर राग नहीं करना लथा कांटों से भरे हुए कंकड़ पत्थरों से भरे हुए दावाग्नि से जले हुए वन आदि अशुभ क्षेत्रको पाकर द्वेष नहीं करना क्षेत्र सामायिक है। यह क्षेत्र सामायिक क्षेत्रसे उत्पन्न होनेवाले आस्रव को रोकने वाला है ॥७२५-७२६।। काल सामायिक का स्वरूपसाम्यरूपान् शुभान कालान् शोतोष्णादिव्युतान् क्वचित् । षड्ऋतूश्च तमः पक्षशीतोष्णाचाल कुदुःखवान् ॥७२७॥ संस्पर्शः स्यज्यते यदि रागढषयं बुधैः। कालसामायिक कालकृतदोषाविहंत यत् ॥७२॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ११६) [ तृतीय अधिकार अर्थ-कोई समय शीत उष्णता से रहित समान रूप तथा शुभ होता है । कहीं पर छहों ऋतुओं का परिवर्तन होता रहा है, कहीं शीतता अधिक होती है, कहीं उष्णता अधिक होती है किसी समय अंधेरा ही रहता है । इसप्रकार के सुख दुःख देने वाले समयों में रागढष नहीं करना रागद्वेष का सर्वथा त्याग कर देना सा बुद्धिमानों के द्वारा काल सामायिक कहलाता है यह काल सामायिक काल से उत्पन्न होने वाले समस्त पापों का नाश करनेवाला है ॥७२७-७२८।। ___ भाव सामायिक का स्वरूपसर्वजीवेषु मैश्यादियुक्तोशुभापरान्मुखः । शुभो रागाविनिमुक्तो धर्मध्यानादितस्परः ३७२६।। शुद्धः समगुणापन्नो भावो यो धर्मितां महान् । भावसामायिक तद्धि हितोत्यचोषवारकम् ।।७३०।। अर्थ-समस्त जीवों में मंत्री प्रमोद कारुण्य आदि भावों को धारण करना, अशुभ परिणामों से सदा पराड मुख रहना, रागाविक शुभ परिणामोंका भी त्याग करना धर्मध्यानमें सदा तत्पर रहना, समता गुणसे सुशोभित शुद्ध परिणामों का धारण करना प्रावि रूपसे जो बुद्धिमानों के उत्कृष्ट परिणाम होते हैं उसको भाव सामायिक कहते हैं । यह भाव सामायिक मनसे उत्पन्न होनेवाले समस्त दोषों को दूर करनेवाला है । ॥७२६-७३०॥ ६ प्रकार का सामायिक उत्कृष्ट हैएतः षभियचनिक्षेपसपायनिनां परम् । सामयिकं शुभय्यान कारणं जायतेतराम् ।।७३१।। अर्थ-शानी पुरुषों के ऊपर लिखे अनुसार छह प्रकारके उपायरूप निक्षेपोंसे उत्कृष्ट सामायिक होता है तथा वह शुभ ध्यानका कारण होता है ।।७३१॥ A आत्मामें लीन होना सर्वोत्कृष्ट सामायिकदर्शनज्ञानचरित्रतयोभिः सह चात्मनः । ऐक्य गमन भत्सर्ष यत्तत्सामायिकं महत् ।।७३२।। अर्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्जान, सम्यकचारित्र और सम्यक तपाचरणके साथसाथ प्रात्मा की एकता हो जाना प्रात्मामें प्रत्यंत लीन हो जाना सर्वोत्कृष्ट सामायिक कहलाता है ॥७३२॥ B सर्वोत्कृष्ट सामायिक का स्वरूपनिजिताखिल घोरोपसर्गतीव्रपरीषहः । वतैः समितिगुप्ताचं : सर्वेश्च नियममः ॥७३३॥ सुभावनाखिलः सारः शुभध्यानरलंकृतः । यः सर्वत्र समारूढः सोऽन्न सामायिको महान् ।।७३४।। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप ] ( १२० ) [ तृतीय श्रधिकार अर्थ- जो महापुरुष समस्त घोर उपसर्ग और तीव्र परिषहोंको जीत लेता है, जो व्रत, समिति, गुप्ति, समस्त यम, नियम, सारभूत समस्त भावनायें और शुभ ध्यान से सुशोभित रहता है जो सर्वत्र निश्चल बना रहता है वह उत्कृष्ट सामायिक करने वाला कहा जाता है ।।७३३-७३४।। परम ज्ञानी की सामायिक— समवायं स्वरूपं च यो जानाति स बुद्धिमान् । द्रयाणां सद्गुणानां च पर्यायारणा जिनागमे ॥ हेयोपादेयत्वं च कारणं बंध मोक्षयोः । तस्य सामायिकं विद्धि परमं ज्ञानिनो भुवि ।।७३६ ॥ श्रर्थ - जो बुद्धिमान पुरुष स्वपर पदार्थों के संबंध के स्वरूप को जानता है जिनागमके अनुसार द्रव्य गुरण और पर्यायोंके स्वरूपको उनके संबंध के स्वरूपको जानता है, और उपादेय तवों को जानता है और बंध मोक्षके कारणों को जानता है उस परम ज्ञानी के सामायिक होता है ।।७३५-७३६।। उत्तम सामायिक करनेवाले का स्वामी विरतः सर्वसाद्य निजिताक्षमना महान् । महातपा स्त्रिगुप्तो यः सामायिकी स उत्तम । ॥ अर्थ - जिसने समस्त पापों का त्याग कर दिया है, जिसने इन्द्रिय और मन को जीत लिया है, जो उत्कृष्ट है, महा तपस्थी है और तीनों गुप्तियों को पालन करने वाला है वह उत्तम पुरुष सामायिक करनेवाला कहा जाता है || ७३७॥ उसी पुरुष के श्रेष्ठ सामायिक ठहर सकता है यस्य सन्निहितवात्मा संयमे नियमे गुणे । शमे तपसि तस्यैव तिष्ठेत्सामायिकं परम् ॥७३५॥ अर्थ --- जिस महा पुरुष का श्रात्मा संयम में, नियम में, गुणों में, समता में और तपश्चरण में लगा हुआ है उसी पुरुषके श्रेष्ठ सामायिक ठहर सकता है || ७३८ || कैसे भाव रखने वाले सज्जन के सामायिक होता है ? यः समः सर्वभूतेषु त्रसेषु स्थावरेषु च । सादृश्यः स्वात्मनो भावस्तच्च सामायिकं सत्ताम् ।।७३९ ।। अर्थ - जो पुरुष समस्त त्रस स्थावर जीवों में समता धारण करता है समस्त जीवों को अपने आत्माके समान मानता है । इसप्रकार के भाव रखने वाले सज्जन के सामायिक होता है ॥७३६॥ free सर्वोत्कृष्ट सामायिक होता है ? वाक्षमोहाद्या विकृति जनयन्ति न । शमाय वंमिता यस्य तस्य सामायिकं महत् ॥ ७४ ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १२१) [तृतीय अधिकार अर्थ-जिस पुरुष के रागढ़ोष इन्द्रियां और मोह प्रादिक किसी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं कर सकते, जिसके समता वा शांत परिणामों से रागद्वेषादिक सब शांत हो गये हैं उसके सर्वोत्कृष्ट सामायिक होता है ।।७४०॥ किसके सर्वोत्कृष्ट सामायिक माना जाता है ? कषायाः फोघमानाधाश्यत्वारा पेन निजिताः । क्षमामलार्जवासंगगुणस्तभ्यक्तिघातकः ।।७४१॥ हास्याद्याः षट् त्रिवेदाश्च वैराग्यब्रह्म संयमैः । अन्ये दोषाच्च तस्यात्र परं सामायिक मतम् ।। अर्थ--जिस महा पुरुष ने क्रोधाविक की शक्तिको घात करनेवाले क्षमा माय आजव और प्राचिन्य गुणोंसे क्रोध-मान-माया-लोभ इन चारों कषायों को जीत लिया है तथा वैराग्य ब्रह्मचर्य और संयम से तीनों वेद और हास्यादिक नोकषाय जीत लिये हैं तथा जिसने और भी समस्त दोष जीत लिये हैं उसके सर्वोत्कृष्ट सामायिक माना जाता है ।।७४१-७४२॥ किमके शुभ सामायिक होता हैमाहाराद्याश्चतुः संज्ञाः लेश्यास्तिस्रोऽशुभाभुवि । न यान्ति विकृति यस्य तस्य सामायिक शुभम् ॥ अर्थ-जिस पुरुष के आहार आदिक चारों संशायें तथा तीनों अशुभ लेश्याएं कभी विकार भावको प्राप्त नहीं होती उसीके शुभ सामायिक माना जाता है ।।७४३॥ किसके उत्कृष्ट सामायिक होता है-- पस्य पंचेन्नियादान्तास्तपोभिःस्पर्शनावयः। शताःकतु विकार न तस्य सामायिक महत् ।।७४४॥ अर्थ-जिसके तपश्चरण के बल से स्पर्शनासिक पांचों इन्द्रियां शांत हो गई हैं और कभी भी विकार उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो सकतों उसी के उत्कृष्ट सामायिक होता है ।।७४४॥ अशुभध्यानों को छोड़कर शुभध्यान वाला ही श्रेष्ठ सामायिक करता है-- या॑नाम्यात रौद्राणि योष्टौ नित्यं परित्यजेत् । प्रशस्तध्यानमालंम्य तस्य सामायिक परम् ।। अर्थ-जो पुरुष धर्मध्यान वा शुक्लध्यानको धारण कर चारों प्रकारके प्रातध्यान और चारों प्रकार के रौद्रध्यानों का त्याग कर देता है उसी के श्रेष्ठ सामायिक कहा जाता है ॥७४५॥ __ मनको जीतने वाले के उत्तम सामायिक होता हैप्यानं चतुषि धम् शुक्लं ध्यायति पोन्बाहम् । जिस्वा ममो बलात्तत्य तिष्ठत्सामाग्रिकोत्तमम् ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १२२ ) [ तृतीय अधिकार अर्थ-जो पुरुष अपनी शक्ति से मनको जीतकर चारों प्रकार के धर्मध्यानको और चारों प्रकार के शक्लध्यान को प्रतिदिन धारण करता है उसीके उत्तम सामायिक होता है ॥७४६।। योगियों को प्रतिदिन परम सामायिक करना चाहियेसर्वत्र समताभाव कारणाय जिनमतः । योगिनां परमो नित्यं सामायिकास्यसंयमः ।।७४७।। ___ अर्थ-भगवान जिनेन्द्रदेव ने योगियों के लिये सर्वत्र समता भाव धारण करने के लिये प्रतिदिन परम सामायिक करना और प्रतिदिन इन्द्रिय संयम पालन करना ही बतलाया है ।।७४७।। _गृहस्थों के सामायिक का महत्वसर्वसावधयोगादिषजनार्य शुभाप्तये । सामायिक गृहस्थानां प्रोक्तं धर्मशमाय छ । ७४।। ___अर्थ-पहस्थों को ममस्त पापरूप पोगों का त्याग करने के लिये, शुभ की प्राप्ति के लिये तथा धर्म और कल्याण की प्राप्ति के लिये एक सामायिक ही बतलाया है ॥७४८॥ श्रावकों का शुभ सामायिकमरवेति श्रावकं नित्यं कार्य सामायिकं शुभम् । दिनमध्ये त्रिवारं च धर्मध्यानाय समणे ॥७४६।। अर्थ-यही समझकर श्रावकों को धर्मध्यान की प्राप्ति और आत्मकल्याण करने के लिये प्रतिदिन विनमें तीन बार शुभ सामायिक करना चाहिये ॥७४६।। कौन गृहस्थ भावलिंगी मुनि के समान माना जाता है ? यतः कुर्वन् ग्रहो नूनं शुद्ध सामायिक परम् । सर्वत्र समतापानो भालिंगो यतिर्भवेत् ।।७५.०॥ अर्थ- क्योंकि सर्वत्र समता भाव धारण करता हुआ और शुद्ध उत्कृष्ट सामायिक करता हुआ गहस्थ अवश्य ही भालिगी मुनि के समान माना जाता है ।।७५०॥ भावलिंगी गृहस्थ की कथाअरण्ये धायकः कश्चित् धीरस्त्यत्तसपुर्महान् । निष्कपं ध्यानमासम्म व्यपात्सामायिकं परम् ॥ शरेण केनचिद्विद्धो मगस्तस्य पदान्तरे। प्रविश्यातः कियकालं स्थित्या वेदनया मृतः ।।७५२।। तपापि न मनागेषो चलस्सामायिकात्सुधीः । अस्पोगमे कथा ज्ञेया गृहिणो भावलिगिमः ।।७५३।। अर्थ-कोई एक धीरवीर महा श्रावक अपने शरीर से ममत्व का त्याग कर Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १२३ ) [तृतीय अधिकार किसी वनमें अचल और ध्यानमें लीन होकर उत्कृष्ट सामायिक करने के लिये खड़ा था। उसी समय किसी के बाणसे घायल हुआ कोई हिरण उस श्रावकके दोनों पैरों के बीच में प्रा पड़ा। उस समय वह हिरण अत्यंत दुःखी होकर चिल्ला रहा था और उसी वेदना से यह घोड़ी ही देर में वहीं मर गया तथापि वह बुद्धिमान श्रावक अपने सामायिफसे रंचमात्र भी चलायमान नहीं हुया । इस भावलिंगी गृहस्थको कथा शास्त्रों में लिखी है वहां से जान लेनी चाहिये ।।७५१-७५३।। २२ तीर्थंकरों ने छेदोपस्थापना का उपदेश क्यों नहीं दियाप्रजिताधाश्च पान्तिा द्वाविंशति जिनेश्वराः। विशन्ति मुक्तये वाण्या सामायिकंकसंयमम् ॥ छेदोपस्थापन नैष यतोमीषां महाधियः स्वभायेन मुशिष्यौः स्युः निष्प्रमादा जितेन्टियाः ।।७५५।। ____ अर्थ-भगवान अजितनाथ से लेकर भगवान पार्श्वनाथ तफ बाईस तोयंकरों ने अपनी दिव्यध्वनि से मोक्ष प्राप्त करने के लिये एक सामायिक नामके संयम का ही उपदेश दिया है। इन बाईस तीर्थकरों ने छेवोपस्थापना नामके संयम का उपवेश नहीं दिया है। इसका भी कारण यह है कि इन बाईस तीर्थंकरों के श्रेष्ठ शिष्य स्वभाव से ही महा बुद्धिमान थे, प्रमाद रहित थे और जितेन्द्रिय थे ।।७५४-७५५॥ प्रथम तीर्थकर तथा अंतिम तीर्थंकर का उपदेपरसामायिकं च छेदोपस्थापनं संयम परम् । माहतुवनिना मुक्त्यै ह्याधान्तिमजिनाधियो ।।७५६।। अर्थ-प्रथम तीर्थंकर भगवान वृषभदेव ने तथा अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी ने अपनी दिव्यध्वनिके द्वारा मोक्ष प्राप्त करने के लिये सामायिक और छेदोपस्थापमा इन दोनों संयमों का उपदेश दिया है ॥७५६॥ इसका कारणयतः श्री वृषमेशस्य सुशिष्मा ऋजुबुद्धयः । सम्मतेः काल दोषेण सदोषामंदबुद्धमः ॥७५७।। अर्थ-इसका भी कारण यह है कि भगवान वृषभदेव के शिष्य सरल बुटिको धारण करनेवाले थे और भगवान महावीर स्वामी के शिष्य कालवोष से सवोष थे और मंद बुद्धि को धारण करनेवाले थे ।।७५७॥ उसी कारण का और अधिक विस्तारजुर्मवस्वभावास्ते योग्यायोग्यंग्यतिक्रमम् । व्यक्त सब मनानन्ति विस्तरोक्त्याविनाभवि ।। तस्माञ्चकारणात्तोंद्वाचतुःश्रीनिमाभियो। अनुग्रहाय शिष्याणां संयमो द्वौ शिवाप्तये ।।७५६।। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4finiप्रार्थ-स्वभाष से ही सरल युद्धि और मंदबुद्धि को धारण करने के कारण धे लोग बिना विस्तार से बतलाये योग्य अयोग्य मुनियों के पूर्ण चारित्रको व्यक्तरीति से नही जानते ५। इसी कारण से भगवान वृषभवेष और भगवान महावीर स्वामीने उन शिष्यों का अनुग्रह करने के लिये मोक्षको प्राप्ति के लिये दोनों प्रकारके संयम बतलाये हैं ।।७५८-७५६॥ सामायिक में सब अन्तर्भूत हैं - प्राख्यातु'किलविज्ञातु पृथग्भाधयितु तथा । महानतानि पंर्वद्रगुप्तयःसमितीस्तथा ॥७६०।। लेपि सर्वे जिनेशानां शिष्याःशुद्धिशिवाप्तये । परन्तिसर्वदोस्कृष्टं शुद्ध सामायिकं शुभम् ॥७६१।। अर्थ---कहने समझने मौर अलग अलग पालन करने के लिये महावत पांच हैं गुप्तियां तीन हैं और समितियां पांच हैं। भगवान जिनेन्द्रदेवके शिष्य आत्म शुद्धि और मोक्ष प्राप्त करने के लिये इनका पालन करते हैं तथापि वे शुभ शुद्ध और सर्वोत्कृष्ट सामायिक को अवश्य करते हैं क्योंकि सामायिक में सब अन्तभूत हैं ॥७६०-७६१।। सामाजिक बद... सामायिकवलायोगीलगा नक्षिपेच्चयत् । कर्मजालं महत्तन्न तपसा घर्षकोटिभिः ॥७६२॥ अर्थ-मुनिराज इस सामायिक के बलसे आधे क्षणमें जितने कर्मों को नष्ट कर डालते हैं उतने महा कर्म करोड़ों वर्षों के तपश्चरण से भी नष्ट नहीं हो सकते ॥७६२॥ यह परम शंवर का हेतु है-- सामायिकवलेनासौ करोति संवरंपरम् । फर्मणां विधिनाध्यानी महती सुनिराम् ॥७६३॥ अर्थ-ध्यान करनेवाला योगी इस सामायिक के बलसे परम संवर करता है और विधि पूर्वक कर्मों को महा निर्जरा करता है ॥७६३॥ सामायिक की सामन्यं से ध्यान धारणादिसामायिकस्य सामर्थ्याविधत्ते मुनिपुगवः । ध्यानानि ते प्रमायेते केवलज्ञानदर्शने ॥७६४॥ अर्थ-मुनिराज इस सामायिक की सामर्थ्य से ध्यान धारण करते हैं और ध्यानसे केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त करते हैं ।।७६४॥ __पांचों इन्द्रियों व मनको वशमें करने के लिये यह सामायिक रस्सी के समान है-- सामायिकं जिनामातुःपंचाक्षमगबंधने । पाशंघचखलातुल्यं मनोमर्फटरोषने ॥७६५।। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] (१२५) [तृतीय अधिकार अर्थ-भगवान जिनेन्द्रदेव ने पांचों इन्द्रियरूपी पशुओंको बांधने के लिये इस सामायिक को रस्सी के समान बतलाया है और मनरूपी बंदर को रोकने के लिये इसी सामायिक को सांकल के समान बतलाया है ॥७६५।। यह सामायिक सर्पको कीलने के लिये महामंत्र भी हैसामायिकमहामंत्र संसाररोगकोलने । बुधा जगुश्च साधूनां कर्मारण्येनसोपमम् 11७६६।। अर्थ-विद्वान लोग संसाररूपी सर्पको कोलने के लिये (वशमें करने के लिये) इस सामायिक को महामंत्र बतलाते हैं तथा साधुओं के कर्मरूपी चनको जलाने के लिए अग्नि के समान कहते हैं ।।७६६।। सामायिक रूपी अमृत पानका फलसामायिक सुधापानं ये कुर्वन्ति निरन्तरम् । सुखनिस्तेचिरेणस्युर्जन्ममृत्युविषासिगाः ॥७६७।। अर्थ-जो मुनि इस सामायिक रूपी अमृत पानको निरन्तर करते रहते हैं वे जन्म मरणरूपी विषय से छूट कर सदा के लिये सुखी हो जाते हैं ।।७६७॥ सामायिक के संस्कारों का फलसंचोयते परंधर्म स्वर्गमुक्तिवशीकरम् । शुद्ध'च क्षीयते पाएं सामायिकात्तचेतसाम् ॥७६८।। ___ अर्थ-जिनके हृदय में सामायिक की वासना भरी हुई है उनके पाप सब नष्ट हो जाते हैं, और प्रत्यन्त शुद्ध तथा स्वर्ग मोक्ष को वश करनेवाला परम धर्म संचित होता है ॥७६८॥ मोक्ष लक्ष्मी स्वयं झुकती हैमुक्तिश्रीःस्वपमागस्यासमासामायिकात्मनः । वृणोत्यहो पियासाढ़ काकचादेवयोषिताम् ॥ अर्थ—सामायिक करनेवाले पुरुषों को मोक्षरूपी लक्ष्मी समस्त लक्मियों के साथ आसक्त होकर स्वयं आकर स्वीकार करती है फिर भला देवियों की तो बात ही क्या है ॥७६६॥ सामायिक के प्रताप से श्रावक की समृद्धिसामायिकेम सागरा हिंसाधिपंचपासकाम् । हत्योपाज्य परं धर्म यान्ति स्वर्गचषोडशम् ॥७७०॥ अर्थ-इस सामायिक के प्रभाव से श्रावक भी हिंसाविक पांचों पापोंको मष्ट ___ कर और परम धर्मको संचित कर सोलहवें स्वर्ग तक पहुंचते हैं ॥७७०॥ NE Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ( १२६ ) [ तृतीय अधिकार __ अभव्य जीव भी इसके प्रताप से कर्व अंबेयक तक क्यों जाता है ? व्यसामायिकेनात्राभल्योमिनेन्द्रवेषभूत् । महातपाःसुशास्त्रज्ञःऊन न वेयकं व्रजेत् ॥७७१३॥ अर्थ-- भगवान जिप्रक्षेव कषको धारण करनेवाला (मुनि लिंग धारण करनेवाला) महा तपस्वी और अनेक शास्त्रों का जानकार अभव्य जीव भी इस द्रव्य सामायिक के प्रभाव से अर्ध्व गवेयफ तक पहुंचता है ॥७७१॥ भरत चक्रवर्ती का दृष्टांत-- बह्वारम्भोद्भबं पापं क्षिपित्वा प्रत्यहं महत् । शुद्धसामायिकेनैव निदयागहणेनच ।।७७२।। शिप्तकर्मादिमश्चक्री भरतेशोनुसंथमम् । गृहीत्वा ध्यानमालन्य शुक्लं कर्मवनानलम् ।।७७३।। घटिफारद्वयमात्रेण हत्वा धासिधनुष्टयम् । साद्ध वाचनैविध्यं प्रापानन्तचतुष्टयम् ।।७७४।। अर्थ-देखो प्रथम चक्रवर्ती महाराज भरत महारंभसे उत्पन्न हुए प्रतिदिन के महापापों को शुद्ध सामायिक के द्वारा ही नष्ट करते थे, तथा निदा गहाँ के द्वारा बहुत से कर्मों को नष्ट करते थे । तदनंतर उन्होंने संयम धारण कर कर्मरूपी वन को जलाने के लिये अग्निके समान ऐसे शुक्ल ध्यानको धारण किया था और दो ही घड़ी में चारों घातिया कर्मों को नष्ट कर देव और इन्द्रों के द्वारा होनेवाली पूजाके साथ साथ दिव्य अनंत चतुष्टय प्राप्त कर लिया था ॥७७२-७७४।। योगियों के लिये, सामायिक से बढ़कर और कोई उपयुक्त साधन नहींबहनोक्तेन कि साध्यं नकिचिशिवसिद्धये । सामायिकेन सवृशं विद्यते योगिनांक्वचित् । ७७५।। अर्थ-बहुत कहने से क्या लाभ है थोड़े से में इतना समझ लेना चाहिये कि योगियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये इस सामायिक के समान और कोई पदार्थ किसी स्थान में भी नहीं है ॥७७५।। ___ बुद्धिमानों को प्रयत्न पूर्वक सदा परम शुद्ध सामायिक करना चाहिये--- ज्ञात्वेत्यस्यानमाहात्म्यमुत्थाय बुधसत्तमाः । योगशुद्धि विषाय प्रसिलेण्यांग परातलम् ।।७७६।। स्वहस्लो कुइमलीकृत्य कालेकाले शिषाप्तये । कुर्वन्तु सर्वथा यत्नात युद्ध सामायिकं परम् ॥ अर्थ-इसप्रकार इस सामायिक के माहात्म्य को समझ कर श्रेष्ठ बुद्धिमानों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये उठकर खड़ा होना चाहिये तथा मन वचन कायको शुद्ध कर, अपने शरीर और पृथ्वी को देख शोधकर अपने दोनों हाथ जोड़कर सामायिक के प्रति समय पर प्रयत्नपूर्वक सदा परम शुद्ध सामायिक करना चाहिये ॥७७६-७७७॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप] ( १२७ ) [ तृतीय अधिकार अपने कर्मों का नाश करने के लिए शुद्ध सामायिक करोअखिलगुरणसमुद्र मुक्तिसौधानमार्ग निरुपमसुखहेतु धर्मबीजं विशुद्धम् । दुरित तिमिरभानु घोषनाः कर्महान्य कुरुत हृदयसुखधा शुद्धसामायिक भोः ।।७७ ।। अर्थ-यह सामायिक समस्त गुणों का समुद्र है, मोक्षरूपी राजभवनका मुख्य मार्ग है, मोक्षरूपी अनुपम सुखका कारण है, धर्मका बीज है, अत्यन्त विशुद्ध है, और पापरूपी अंधकार को दूर करने के लिये सूर्यके समान है । इसलिये हे बुद्धिमान लोगों अपने कर्मो को नाश करने के लिये शुद्ध हृदयसे शुद्ध सामायिक धारण करो । प्रतिदिन नियम पूर्वक इसको करते रहो ।।७७८॥ __ दूसरे स्तव का स्वरूप* इमां सामायिकस्थादौ नियुक्ति प्रतिपाधव । समासेन ततो वक्ष्ये नियुक्त मत्स्तवस्य च ॥७७६ ।। अर्थ-इसप्रकार पहले सामायिक का स्वरूप कहा अब आगे संक्षेप से दूसरे स्तव वा स्तुति नामके आवश्यक का स्वरूप कहते हैं ॥७७६॥ चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति को स्तबन अावश्यक कहते हैंचतुविशति तीर्थेषां विजयस्वामिना च यत् । साथै नीमादिभिः षभिःसारलोकोत्तमः ।। स्तवनंक्रियते दक्षः प्रणाम भक्तिपूर्वकम् । भावार्धनं महापानं सस्तवः शिवशर्मवः ॥७८१।। अर्थ-भगवान चौबीस तीर्थकर तीनों लोकों के स्वामी हैं उनके सार्थक नामों के द्वारा वा सारभूत लोकोत्तम गुरषों के द्वारा प्रणाम और भक्ति पूर्वक छह प्रकार से जो चतुर पुरुषों के द्वारा स्तवन किया जाता है उनकी भावपूजा की जाती है वा उनका * महा ध्यान किया जाता है उसको मोक्ष सुख देनेवाला स्तवन कहते हैं ।।७८०-७८१॥ स्तवन भी छह प्रकार का हैस नामस्यापनावष्पोत्रकालो जिनोजषः । भावस्थेति निक्षेपःस्लमस्पषड्विधः स्मृतः ।।७८२॥ अर्थ-वह स्तवन भी नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्रकाल भावके भेदसे छह प्रकार है । यह छह प्रकार का स्तवन का निक्षेप है और भगवान जिनेन्द्रदेव का कहा हुआ है ।।७८२।। स्तवन का फलतीर्देशनाममानोधरणेमचसता दुतम् । विघ्नमालानि पापानि प्रलीयन्ते रुजादयः ॥७८३॥ . अर्थ-चौबीसों तीर्थकरों के नाम मात्रके उच्चारण करने से सज्जनों के सब Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( १२८ ) [तृतीय अधिकार विघ्न नष्ट हो जाते हैं पाप नष्ट हो जाते हैं और रोगादिक सम नष्ट हो जाते हैं । ॥७८३॥ तीर्थकरों का नाम उच्चारण करने का महाफल ७८४ जायते च परं पुण्यं जिनकधादिभूसिवम् । धर्मार्थाश्व सिध्यन्ति होकन्तेत्रिजगच्छ्रियः ॥ प्रर्थ-इसके सिवाय तीर्थंकरों का नाम उच्चारण करने से तीर्थकर चक्रवर्ती आदि की विभूति को देनेवाला पुष्य प्राप्त होता है, धर्मादिक चारों पुरुषार्थ सिद्ध हो जाते हैं और तीनों लोकों को लक्ष्मियां प्राप्त हो जाती हैं ॥७८४॥ नाम स्तवन का स्वरूप-- इत्यादि नाममहात्म्य वर्णनर्या बिघीयते । स्तुति नामभिचाष्टाप्रसहस्रप्रणामकः ॥७८५॥ वर्तमान चतुविशति सीरवर मामभिः । स्तवः सकथ्यते सद्धिधर्ममूलोऽशुभान्तकः ।।७८६॥ अर्थ-इसप्रकार भगवान के नामों का माहात्म्य वर्णन कर जो स्तुति की जाती है अथवा एक हजार आठ नाम पढ़कर जो स्तुति की जाती है उनको एक हजार पाठ प्रणाम किये जाते हैं अथवा वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों के नाम पढ़कर जो स्तुति की जाती है उसको धर्मका मूल और शुभ वेनेवाला नाम स्तवन कहते हैं ॥७८५-७८६॥ __ स्थापना स्तवन का स्वरूपकृत्रिमाकृतिमारणां च मूर्तीनां तीर्थकारिणाम् । पूजास्तुतिनमस्कारः क्षीयन्ते विघ्नराशयः ।। सतो सम्पद्यते पुण्यं परं धार्मककारणम् । विश्वाभ्युदयकल्याणा जायन्ले व पदेपरे ॥७८८॥ इत्यादिस्थापनास्तुत्या तीर्थयात्सवमंचयत् । शिवाय क्रियते विद्भिःसस्थापनाभिधःस्सवः ॥ अर्थ- इस संसार में तीर्थंकरों की जो कृत्रिम वा अकृत्रिम प्रतिमायें हैं उनको पूजा स्तुति का नमस्कार करने से सज्जनों के समस्त विध्न नष्ट हो जाते हैं । परम कल्याणोंका कारण ऐसा पुण्य प्राप्त होता है और क्षण भणमें सब तरहके अभ्युदय और कल्याण प्राप्त होते हैं इसप्रकार विद्वान् लोग मोक्ष प्राप्त करने के लिये स्थापना निक्षेप से स्थापित की हई तीर्थकर को प्रतिमा को स्तुति करते हैं उसको स्थापना स्तव कहते हैं ॥७८७-७८६॥ द्रव्य स्तवन का स्वरूपदिव्यौदारिकबेहाना कोटीनेभ्योखिलाहताम् । विश्वमेत्रप्रियाणां सौम्यानामधिकतेजसाम् ॥ श्वेतपोतादिसवर्ण स्तवनं यत्सुकान्तिभिः। मिष्पायते च शास्त्रः साध्यस्तव एवहि ॥७६१ ।। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १२६ ) [ तृतीय अधिकार अर्थ-भगवान तीर्थंकर परमदेव दिव्य प्रौवारिक शरीरको धारण करनेवाले हैं संसार भरके समस्त नेत्रों को प्रिय हैं अत्यंत सौम्य हैं और करोड़ों सूर्योसे भी अधिक तेज को धारण करते हैं ऐसे लोणकरों के अत्यंत मनोहर श्वेत पोत प्रावि शरीर के रूप का वर्णन कर उनकी स्तुति करना अथवा अनेक शास्त्रों को जानने वाले जो ज्ञानी पुरुष इसप्रकार की स्तुति करते हैं उसको द्रश्य स्तवन कहते हैं ।।७६०-७६१॥ क्षेत्र स्तवन का स्वरूपकैलाशचलसम्मेवोर्जग्रतादिशमात्मनाम् । निरिणक्षेत्रभूमौनामहतांगुणवर्णनः ।।७६२॥ पूजास्तुति नमस्कारैर्यमाहात्म्यप्रशंसनम् । क्षेत्रस्तवः सविजेयःपुण्यनिर्वाणहेतुकृत् ॥७६३॥ अर्थ-भगवान अरहंतदेवके गुणों का वर्णन कर कैलाश पर्वत, सम्मेदशिखर, गिरनार आदि अरहंतों के शुभ निर्धाण भूमियों की पूजा स्तुति करना उनको नमस्कार करना और उनका माहात्म्य प्रगट करना क्षेत्र स्तवन कहलाता है। यह क्षेत्र स्तवन भी पुण्य और निर्वाण का कारण है ।।७६२-७६३॥ काल स्तवन का स्वरूपपंच कल्याणकैःसारः स्वर्गावतरणादिभिः । देवेन्द्रायिकृत स्वामहापुण्य निबंधनः ॥७६४॥ स्तुतिक्रियते तज्ज्ञः कल्याणगुणभाषणः । सर्वेषां तीर्थक मां कालःस्तवः स एव च ॥७६५॥ अर्थ-विद्वान लोग जो समस्त तीर्णकरों के स्वर्गावतार आदि पांचों कल्याणों के गुणों का वर्णन करते हैं इन्द्रादिक देवों ने जिस विभूतिके साथ कल्याणोत्सव मनाया है उसका वर्णन करते हैं उन कल्याणोत्सवों को महा पुण्य का कारण बतलाते हैं और सारभुत कहते हैं इसप्रकार जो पांचों कल्याणों के गुणों का वर्णन करते हैं उसको कालस्तवम कहते हैं ।।७९४-७६५।। गुणों को देनेवाला भाव स्तवन का स्वरूपकेवलज्ञानदृष्टयाचा गुणा भन्सातिगाः पराः । विद्यन्लेयेहंता स्तोतु तानुक्षमोमादृशःकथम् ।। इत्यादि सद्गुणानांच भाषणं यविधीयते । तद्गुणाय बुर्भावस्तवःसतद्गुणप्रवः ॥७९॥ __ अर्थ-"भगवान अरहंतदेव के केवलज्ञान केवलवर्शन मावि अनंत गुण हैं उन सबकी स्तुति करने के लिये मेरे समान बुद्धिहीन पुरुष कभी समर्थ नहीं हो सकते" इस प्रकार विद्वान लोग उन गुणों को प्राप्ति के लिये जो अरहंतवेव के गुणों का निरूपण करते हैं मह उन गुणों को देनेवाला भावस्तवन कहलाता है ॥७९६-७९७|| Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलाचार प्रदीप ] ( १३० ) वे भगवान् मेरे लिये रत्नत्रय की प्राप्ति करें- लोकोको विश्वतत्त्वप्रकाशकाः । धर्मतीर्थकराः सर्वशान तीर्थविधायिनः ॥७६८ मन्तो मुक्तिभर्तारः पंचकल्यारणभागिनः । शरण्या भवभीतानामनन्त गुणसागराः ॥७६६॥ मंत्रमूलिनमा ध्येयाः कीर्तनीयाः जगत्सताम् । वंदनीया महान्तश्च पूज्यालोकोसमाः पराः ||५००|| forestaषितानिया निस्पृहाः स्तवनावपि । देवीनिकरमध्यस्थाः परब्रह्मव्रतांकिता ||८६०१ ॥ विश्वभव्य हितायुक्ताः सार्थवाहाः शिवाध्वनि ॥ ८०२ ॥ मुक्तियाविदाता धर्मार्थकाममोक्षदा । विश्वविघ्नाद्यहन्तारो भानिकानां न संशयः ।। याभ्यगुणयें पूर्णा जिनवरा भुवि । ते मे बोधि समाधिवदिशन्तु कोशिला नुताः ॥ ५०४ ॥ ॥ [ तृतीय अधिकार अर्थ - भगवान अरहंतदेव इस लोकमें समस्त लोक का उद्योत करनेवाले हैं, समस्त तत्त्वों को प्रकाशित करनेवाले हैं, धर्मके तीर्थंकर हैं, समस्त ज्ञान और तीर्थोकी प्रवृत्ति करनेवाले हैं, मोक्षके स्वामी हैं, गर्भादिक पंच कल्याणों को प्राप्त हुए हैं, संसार से भयभीत हुये मनुष्यों को शरण हैं, अलगों के समुद्र है, मंत्रों की मूर्तिस्वरूप हैं, तथा समस्त जगत के सज्जनों को ध्यान करने योग्य और स्तुति करने योग्य हैं। वे भगवान वंदनीय हैं, महान् हैं, पूज्य हैं, लोकोलम हैं और सर्वोत्कृष्ट हैं । वे भगवान सदा ही दिव्य विभूतियों से विभूषित रहते हैं, अपने शरीर से भी निस्पृह हैं, अनेक देवियों के मध्य में विराजमान रहते हुए भी परम ब्रह्मचर्य व्रतसे सुशोभित रहते हैं । वे भगवान आतम क्षमा आदि उत्तम गुणोंसे सदा सुशोभित रहते हैं कर्मरूपी शत्रुओं को नाश करनेवाले हैं, रामस्त भव्य जीवों का हित करने के लिये सदा तत्पर रहते हैं। और मोक्ष मार्ग में वे सदा सहायक रहते हैं । वे भगवान भक्त पुरुषों को भक्ति और मुक्ति दोनों के देनेवाले हैं, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थों को देनेवाले हैं तथा समस्त विघ्नों और पापों को नाश करनेवाले हैं । इसप्रकार ने भगवान अनेक गुणों के समूहों से परिपूर्ण हैं । उन भगवान की मैंने यह स्तुति की है तथा उनको नमस्कार किया है इसलिये वे भगवान मेरे लिये रत्नत्रय की प्राप्ति करें और समाधि की प्राप्ति करें || ७६८-८०४ ॥ तीर्थंकर तीर्थ कहलाते हैं सम्यग्वर्शन सद्ज्ञान चारित्राण्यत्र यानि च । परमार्थेन तीर्थाति दुष्कर्ममलनाशनात् ॥ ८६०५ ॥ तेषां ये च प्रणेता महद्धिस्तरलं कृताः । तन्मया वा जगन्नाथास्तेऽवतीर्थाभिवस्य हो ||८०६।१ अर्थ - वास्तव में देखा जाय तो अशुभ कर्मों का नाश रत्नत्रय से ही होता है, Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( १३१ ) [ तृतीय श्रधिकार इसलिये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये ही वास्तव में तीर्थ हैं। इन रत्नत्रय स्वरूप तीर्थों को प्रवृत्ति वे तीर्थंकर ही करते हैं अथवा वे तीर्थंकर रत्नत्रयरूप महा तीर्थों से सुशोभित रहते हैं अथवा वे तोथंकर रत्नत्रयमय हो हैं ऐसे तीनों लोकों के स्वामी वे तीर्थंकर तीर्थ कहलाते हैं ।।८०५-८०६ ।। भगवान को 'जिन' क्यों कहते हैं ? जितमोहारिसन्तानः सतांमोहं जयन्ति ये । ते जिनाः घातिहन्तारः उच्यन्ते तेनहेतुना || ६०७ ॥ अर्थ - उन भगवान ने मोहरूपी शत्रुकी समस्त सन्तान जीत ली है अथवा वे भगवान सज्जन पुरुषों के मोहको भी जीत लेते हैं तथा वे भगवान घातिया कर्मों को नाश करनेवाले हैं इसलिये उनको जिन कहते हैं ॥। ८०७॥ भगवान 'अन्' क्यों कहलाते हैं ? सर्वान् स्तुतिनमस्कारान् सत्कारावीननुनाकिनाम् । पंचकल्याणकाच च गमनं मुक्तिधामनि ॥ श्रन्यद्वा मानसन्मान येत्रार्हन्ति जिनेश्वराः । श्रहन्तस्तेन कथ्यते ह्यमुनाहेतुना किलाः ||८०६ ॥ अर्थ - अथवा वे भगवान जिनेन्द्रदेव मनुष्य और इन्द्रोंके द्वारा की जानेवाली समस्त स्तुतियों के समस्त नमस्कारों के योग्य हैं, पंचकल्याणकों में होनेवाली पूजा के योग्य हैं, मुक्ति स्थानमें गमन करने योग्य हैं तथा और भी संसार में जितना मान सन्मान है सबके वे योग्य हैं इन्हीं सब हेतुनों से वे भगवान अर्हन् कहलाते हैं । ||६०८-८०६॥ मुनियों के द्वारा भी वंदनीय हैं ? कथ्यन्ते त्रिजगन्नार्थःकीर्तनीया न भूतलें । वद्याश्वमुनिभिः यः सन्मुक्तिमार्ग प्रदशितः ।। ८१० ।। अर्थ - जिन तीर्थंकर परमदेव ने श्रेष्ठ मोक्षका मार्ग दिखलाया है वे भगवान इस संसार में तीनों लोकों के इन्द्रों के द्वारा ही प्रशंसनीय नहीं हैं किन्तु मुनियोंके द्वारा भी वंदनीय गिने जाते हैं ।। ८१०|| भगवान केवलदर्शी तथा सर्वदर्शी क्यों कहलाते हैं ? लोकालोकं समस्तं ये जानन्तिकैवलेन च । प्रपश्यन्ति दशा तस्मात्स्युस्तेकंवसिनोऽखिलाः ॥ अर्थ- ये भगवान केवलज्ञान के द्वारा समस्त लोक अलोक को जानते हैं इसलिये उनको केवली कहते हैं तथा केवल दर्शन के द्वारा वे समस्त लोक अलोक को देखते हैं इसलिये उनको केवलदर्शी वा सर्वदर्शी कहते हैं ।।६११॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १३२ ) [ तृतीय अधिकार वे भगवान तीनों लोकों में 'सर्वोत्तम' कहलाते हैंमोहदरज्ञानवारित्रावरणर्घातिकर्मभिः । मुक्ता ये सोर्यकार उत्तमास्ते जगत्रये ॥१२॥ अर्थ-वे तीर्थकर परमदेव मोहनीय ज्ञानावरण दर्शनावरण और परित्रावरण (चारित्र मोहनीय वा अंतराय) इन धातिया कर्मोंसे रहित हैं इसलिये वे भगवान तीनों लोकों में सर्वोत्तम कहलाते हैं ।।१२।। वे भगवान मेरे लिये समाधि को प्रदान करेंएवं गुणविशिष्टाये तीर्थनाथाजगरस्तुताः । तेमे विशन्तु बोधि च समाधि च स्वगुणान् परान् । अर्थ--इसप्रकार अनेक गुणों से सुशोभित और तीनों लोकोंके द्वारा स्तवन किये गये वे भगवान तीर्थंकर परमवेव मेरे लिये रत्नत्रय तथा समाधि को प्रदान करें तथा अपने अन्य गुणों को भी प्रवान करें ॥८१३।। उक्त प्रार्थना को निदान नहीं समझना चाहियेनस्यावेतन्निवा हि किन्स्वसस्यमबाह्ययम् । एषाभाषा जिनेन्द्रेण प्रणीता कार्यसिद्धये ।.८१४॥ अर्थ- भगवान को इसप्रकार की स्तुति करने को "रत्नत्रय समाधि प्रदान करें" इसप्रकार कहने को निवान नहीं समझना चाहिये किंतु भगवान जिनेन्द्रदेव ने कार्य सिद्धि के लिये ऐसी भाषा को अनुभय भाषा कहा है ॥८१४।। भगवान के कृतकृत्यपनायतस्तर्यन्चदातव्यं सर्वविद्वतादिकम् । हितं धर्मोपदेशादि तहतं तैजिनःसताम् ॥१५॥ प्रधुनावोतमोहास्तेकुतकृत्याजिनाधियः । नकिश्चिद्भवते लोफे विश्र्वाचतमातिगा नृणाम् ॥ अर्थ--इसका भी कारण यह है कि भगवान जिनेन्द्रदेवको भव्य जीवोंके लिये सम्यग्दर्शन, आत्माकी शुद्धता, व्रत हित धर्मोपदेश आधि जो कुछ वेना था वह सब कुछ वे भगवान भव्य सज्जनों को दे चुके । इस समय तो वे भगवान बोतराग हैं कृतकृत्य हैं जिनेन्द्र हैं और समस्त चिताओं से रहित हैं इसलिये वे अब इस संसारमें मनुष्यों को कुछ नहीं देते ।।८१५-११६॥ भक्त पुरुषों की यह प्रार्थना सफल ही होती हैअपवा प्रार्थनाषा भक्तिरागभरांकिता। सफला भक्तिकानां सद्धर्मार्जनाविष्यति ।।८१७।। अर्थ-अथवा यो समझना चाहिये कि भगवान की ऐसी स्तुति करना हमें Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( १३३ ) [ तृतीय अधिकार रत्नत्रय वेवें आदि कहना भक्ति और उनके गुणों के प्रति होनेवाले अनुरागसे भरी हुई प्रार्थना है और श्रेष्ठ धर्मको पालन करने से भक्त पुरुषों की वह प्रार्थना सफल ही होती है ॥८१७।। भक्त लोगों के मनोरथ सब सिद्ध हो जाते हैंयतोभक्त्याहंता पुंसां शीयन्तेक्लेशराशयः । सर्व मनोरयासितिमिहामुन बजन्ति च ॥१८॥ अर्थ- इसका भी कारण यह है कि भगवान अरहंतदेव की भक्ति करने से मनुष्योंके समस्त क्लेशों का समूह नष्ट हो जाता है तथा इस लोक और परलोक दोनों लोकों के मनोरथ सब सिद्ध हो जाते हैं ॥१८॥ प्रभस्त अनुराग रत्नत्रय धर्मको करनेवाला है-- अर्हत्सुवोसदोषेष्वाचार्योपाध्यायसाधुषु । धर्मे रत्नत्रयेनयें जिनवाक्ये व मिषु ॥१६॥ यतो जायतेरागः स्वभावेनयो गुस्खोद्भवः। सप्रशस्तो मत.सविष्टिज्ञानादिधर्मकृत् ॥२०॥ अर्थ-वीतराग भगवान अरहतव में, प्राचार्य उपाध्याय साधुओं में, रत्नत्रय रूप सर्वोत्कृष्ट धर्म में, जिन वचनों में और धर्मात्माओं में उनके गुणों से उत्पन्न हुआ जो स्वाभाविक अनुराग है उसको सज्जन पुरुष प्रशस्त अनुराग कहते हैं वह प्रशस्त अनुराग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप धर्मको उत्पन्न करनेवाला है । ।।८१९-२०॥ मस्वेति श्रीजिनायोमा तिरागावयोखिलाः । विश्वार्थसाधका निसं कर्तव्या भक्तिकः पराः ।। अर्थ-पही समझकर भक्त पुरुषों को समस्त अर्थों को सिद्धि करनेवाली भगवान जिनेन्द्रदेव को भक्ति और उनके गुणों में उत्कृष्ट अनुराग सदा करते रहना चाहिये ॥८२।। भगवान २४ तीर्थंकरों की स्तुति प्रतिदिन करनी चाहियेस्तवं फुवंतु तवस्तुविशतिजिनेशानाम् । तभ्युक्यसंसिद्ध्ये नित्यप्रति मुनीश्वराः ॥८२२।। अर्थ-इसलिये मुनिराजों को अपने समस्त कल्यामोंको सिद्धि करने के लिये भगवान चौबीसों तीर्थंकरों को स्तुति प्रतिदिन सवा करनी चाहिये ।।२२।। स्तुति करने की विधिप्रतिलेख्य घरांगावी पिचत्तशुद्धि विधाय । स्वकरी संपटो कृत्य स्थित्वा कृत्वा स्थिरो क्रमौ॥ शाजू चांतरितो शक्त्या चतुभिरंगुलमुदा । मधुरेण स्वरेणवं शुखध्यक्तामरवः ॥२४॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप] ( १३४ ) [ तृतीय अधिकार . अर्थ-मुनियों को सबसे पहले अपना शरीर और पृथ्वी को शुद्ध कर लेना चाहिये, मनको शुद्ध कर लेना चाहिये फिर अपने हाथ जोड़कर दोनों परों को स्थिर रखकर खड़े होना चाहिये । उस समय उनके दोनों पैरों में चार अंगुल का अन्तर होना वाहिले और दोनो पैर सीधे रहने चाहिये । फिर प्रसन्न चित्त होकर मधुर स्वरसे शुद्ध और व्यक्त अक्षरों का उच्चारण करते हुए अपनी शक्तिके प्रमुसार चौदोसों तीकरों को स्तुति करनी चाहिये ।।१२३-८२४॥ ___स्तुति का फलयतोहंदगुरणराशीनां स्तवनेन बुधोत्तमैः । सभ्यन्ते तत्समा सर्वेगुणाःस्वर्मोक्षदायिनः ।।२५।। अर्थ- इसका कारण यह है कि भगवान प्ररहंतवेषके गुणोंके समूह की स्तुति करने से उत्तम बुद्धिमान पुरुषों को उन गुणों के समान ही स्वर्ग मोक्ष देनेवाले समस्त गुण प्राप्त हो जाते हैं ॥२५॥ ____ स्तबन करने वालों को प्रशंसनीय पद प्राप्त होते हैं-- कोसनेनाखिला फोतिलोक्ये च ब्रमेस्तताम् । इन्द्रकि जिनादीनां कीर्तनीयं पदं भवेत् ।। अर्थ-भगवान जिनेन्द्रदेव के गुण कीर्तन करने से सज्जनों को समस्त शुभ कोति तीनों लोकों में भर जाती है तथा इन्द्र चक्रवर्ती और तीर्थकर के प्रशंसनीय पद प्राप्त हो जाते हैं ।१८२६॥ अरहंतदेवकी भक्ति करने से तीनों लोक में उच्च पद की प्राप्तिसम्पद्यतेऽर्हतां भक्त्या सौभाग्यभोगसम्पदः । पूनया त्रिजगल्लोके श्रेष्ठपूज्यपवानि च ॥२७॥ अर्थ-भगवान अरहतदेव की भक्ति करने से समस्त सौभाग्य और भोग संपदाएँ प्राप्त होती हैं तथा अरहंतदेव की पूजा करने से तीनों लोकों में श्रेष्ठ और पूज्य पर प्राप्त होते हैं ॥६२७।। भगबान के ध्यान से मुक्ति स्त्री की प्राप्तिजिनानाध्यामयोगेन तीमकराविमूतयः । जायन्ते मुक्तिनार्यामा का वार्ता परसम्पदाम् ॥२८॥ अर्थ--भगवान अरहंतदेवका ध्यान करने से मुक्ति स्त्रीके साथ-साथ तीर्थकर की समस्त विभूतियां प्राप्त होती हैं फिर भला अन्य सम्पदामों की तो बात ही क्या है ॥५२॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मूलाचार प्रदीप] ( १३५ ) [ तृतीय अधिकार सूर्य की प्रभा से अंधकार नष्ट होने का दृष्टांतगुणपहरणमात्रेण जिनेन्द्राणां क्षयं भरणात् । यान्ति विनाश्वरोगाद्या यर्थनेन तमांसि भो ।। अर्थ-जिस प्रकार सूर्यको प्रभासे अंधकार सब नष्ट हो जाता है उसीप्रकार भगवान जिनेन्द्रदेव के गुणों को ग्रहण करने से क्षणभर में ही समस्त विघ्न नष्ट हो जाते हैं और समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं ॥८२६॥ भगवान के गुरणों में अनुरागादि करना चाहियेजास्वेति यतयो नित्यं सगुणाम जिनेशिनाम् । प्रयत्नेन प्रकुर्वतुरागभक्तिःस्तषादिकान् ।।८३०॥ अर्थ-यही समझकर मुनियों को भगवान प्ररहंतदेव के गुण प्राप्त करने के लिये गड़े मान के हाथ मदान नरहंतमेव के पुरणों में अनुराग, उनकी भक्ति और उनकी स्तुति प्रादि करनी चाहिये ॥३०॥ तीर्थकरों के समस्त गुणों की प्राप्ति होती है-- जिनबरगुणहेतु दोषान य सकलसुलनिधानं नानविज्ञानमूलम् । परविमलगुसाघेस्तद्गुणग्रामसिद्ध्य कुरुत बुधजनानित्यं स्तवं तीर्थभाजाम् ॥३१॥ अर्थ-भगवान तीर्थकर परमदेव का स्तवन उनके गुणोंकी प्राप्ति का कारण है, समस्त दोष और अशुभ ध्यानों को नाश करनेवाला है समस्त सुखों का निधान है और ज्ञान विज्ञानका मूल कारण है । इसलिये बुद्धिमान पुरुषों को तोर्गकरों के समस्त श्रेष्ठ गुणों को सिद्ध करने के लिये उनके निर्मल गुणोंका वर्णन कर उनको स्तुति सदा करते रहना चाहिये ।।८३१॥ वंदना नामक मादण्यक का स्वरूपविश्वेषां तीर्थक रणां निर्देश्येमं स्तवं ततः । हितायस्वान्यग्रोवश्ये वंदना मुक्तिमातृकाम् ॥८३२।। अर्थ-इसप्रकार समस्त तीर्थकरोंकी स्तुति का स्वरूप कहा अब प्रागे अपना और दूसरों का कल्याण करने के लिये मोक्ष की जननी ऐसी बंदना का स्वरूप कहते हैं ।।३२॥ वन्दना आवश्यक का विशेष विवरणएकतीर्थकृतःसिद्धाचार्यपाठकयोगिनाम् । साधूनां च सुनामाण्यानभक्त्याविभिश्च यत् ॥ गुरणग्रामैनमःस्तोत्रं कृतकर्मविधीयते । प्रत्यहं गुणिभिमुंवत्यै वंदनावश्यकहि तत् ॥३४॥ अर्थ- गुरणी पुरष मोक्ष प्राप्त करने के लिये किसी एक लोभकर की सिद्ध, Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( १३६ ) [ तृतीय अधिकार श्राचार्य, उपाध्याय और साधुओं का नाम उच्चारण करते हैं ध्यान और भक्तिके द्वारा तथा उनके गुण वर्णन करके प्रतिदिन उनकी पूजा करते हैं उनको नमस्कार करते हैं aret स्तुति करते हैं और कृतिकर्म करते हैं उसको वंदना नाम का आवश्यक गुण कहते हैं ।। ६३३-८३४॥ इसके छह भेदों का उल्लेख नामाथस्थापना द्रथ्यं क्षेत्रं कालः शुभाम्वितः । भावः षडतिनिक्षेपा बंदनायाजिनंता ||८३५॥ अर्थ - भगवान जिनेन्द्रदेव ने उस वंदना के भी नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्रकाल और भावरूप निक्षेपों के द्वारा छह भेद बतलाये हैं || ८३५ ॥ नाम वन्दमा का स्वरूप एसिद्ध गरी नाम् साधूनां च मुदानामोच्चरणेनमसम्भवः ॥२८३६॥ गुणाः सा स्तोत्रं क्रियते यच्छिवाप्तये । सा नामवंदनाज्ञेया नुतिपूर्वा जगद्धिता १६३७॥ अर्थ -- किसी एक तीर्थंकर का, सिद्धों का प्राचार्यों का उपाध्यायों का और साधुका प्रसन्नतापूर्वक नाम उच्चारण करना उनके नाम में होनेवाले गुरणों का वर्णन करना या मोक्ष प्राप्त करने के लिये उनकी स्तुति करना नाम वंदना कहलाती है । यह नाम वंदना नमस्कार पूर्वक ही होती है और संसार भर का हित करनेवाली है । |१८३६-८३७॥२ स्थापना वंदना नामका श्रावश्यक का स्वरूप एका सर्वेषां भक्तिभावभशंकितः । स्तूयन्ते प्रतिभा यत्रपुण्याविफलभाषणः ||६३८ ॥ तक्याच प्ररणामावनधर्मार्थादिसाधनम् । स्थापनाथं जिनः प्रोक्तं वंदनावश्यकहि तत् ॥ अर्थ -~--- अलग अलग तीर्थकरों की अलग अलग प्रतिमाओं की अत्यन्त भक्ति और अनुराग के साथ स्तुति करना इसप्रकार सब तीर्थंकरों को प्रतिमाओं की स्तुति करना तथा भक्तिपूर्वक उनकी पूजा, उनको प्रणाम प्रादि करने से जो पुण्य प्राप्त होता है उसका निरूपण करना स्थापना वंदना नामका आवश्यक गुण है यह गुण धर्म अर्थ प्रादि समस्त पुरुषार्थी को सिद्धि करनेवाला है । ऐसा भगवान जिनेन्द्रदेव ने कहा है । ||६३६-८३६॥ द्रव्य वंदना का लक्षण -- अमीषा च्छरीराणां विव्यवर्णादिवर्णनः । स्तवनं मद्बुधैर्भक्त्या साद्रव्यवंदना शुभाः ||६४०|| र Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १३७ ) [ तृतीय अधिकार अर्थ-बुद्धिमान लोग भक्तिपूर्वक जो पांचों परमेष्ठियों के शरीर का दिव्य वर्णन करते हैं तथा उस वर्णनके द्वारा जो लोग उनको स्तुति करते हैं उसको शुभद्रव्य वंदना कहते हैं ॥८४०॥ धोत्र वन्दना का स्वरूपक्षेत्राधिष्ठित्तान्येव तैःलय प्रनयोगिमिः । स्तूयन्ते पुण्यकारिण क्षेत्राच्या वचनाहिसा ।।८४१॥ अर्थ-उन पांचों परमेष्ठियों के द्वारा जो क्षेत्र अधिष्ठित किया गया है रोका गया है उस पुण्य बढ़ानेवाले क्षेत्रकी स्तुति करना उसको क्षेत्र वंदना कहते हैं ॥४॥ काल वन्दना का स्वरूपतरेकजिनसिद्धाय :कालोयोऽधिष्ठितःशुभः । स्तूयन्तेसद्गुणोच्चारः सा कसवन्दनोजिता ।। अर्थ-एक तीर्थकर, एक सिद्ध एक साधु आदि के द्वारा जो शुभ काल अधिष्ठित किया गया है उसके गुणों को उच्चारण कर उसकी स्तुति करना काल वंदना है ॥४२॥ मात्र वन्दना का स्वरूणएकाहंदशरीराचार्योपाध्यायमहात्मनाम् । साधनां शुद्धभावेनभाषाहणपूर्वकम् ।।८४३॥ स्तवनं विचारः क्रियतेगुणभाषणः । साभाववंदना शेया शुभभावप्रवढिनी 1ml अर्थ--किसी एक परहंत एक सिद्ध एक आचार्य एक महात्मा उपाध्याय और एक साधु को शुद्ध भाव पूर्वक विचारवान पुरुषों के द्वारा स्तुति की जाती है उनके भाष ग्रहण कर उनके गुणों के वर्णन द्वारा जो स्तुति की जाती है उसको भाव वंदना कहते हैं । यह भाववंदना अनेक शुभ भावों को बढ़ाने वाली है ।।८४३-८४४।। वन्दना भावप्रयक के ४ कृतिकर्मप्रथमं कृतिकर्माप चितिकर्म द्वितीयकम् । पूजाफर्म तृतीयं च विनयकर्मचतुर्थकम् ।।८४५॥ अर्थ-स्ना में पहला कृति कर्म दूसरा चिति कर्म तीसरा पूजा कर्म और चौथा विनय कर्म किया जाता है ।।१४५॥ कृतिकर्म किसे कहते हैं ? कृत्यतेछियतेयेनाक्षरव्रजेन योगिभिः । सर्वमष्टविध कर्मकृतिकर्मसदुच्यते ॥६४६।। अर्थ-योगी लोग स्तुति के जिन अक्षरों से आठों प्रकार के कर्मों को खिन्न Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र मूलाचार प्रदीप] { १३८ ) [ तृतीय अधिकार भिन्न कर डालते हैं काट डालते हैं उसका कृतिकर्म कहते हैं ।।८४६।। चितिकर्म का लक्षणपापारिनाशनोपायो येनसंघीययेतराम् । तीर्थकृत्वादिसत्पुण्यं चितिकर्म तदेव च ।।८४७।। अर्थ--स्तुति के जिन अक्षरों से पापरूप शत्रके नाश करने का उपाय किया जाता है, अथवा तीर्थकर को विमूति को देनेवाला पुण्य संचय किया जाता है उसको चितिकर्म कहते हैं ।।८४७॥ पूजाकर्म का स्वरूप---- पूज्यन्तेयेनसर्वेऽत्राहदायाःपरमेष्ठिनः । विवाभ्युदयकारस्तपूजाकर्म कथ्यते ॥४८॥ अर्थ-जिन अक्षरों के समुदाय से समस्त फल्याणों को फरनेवाले समस्त विभूतियों को देनेवाले अरहंत आदि पांचों परमेष्ठियों की पूजा की जाती है उसको पूजा कर्म कहते हैं ।।८४८।। विनय कर्म का स्वरूपपिनीयन्तेऽष्टकर्माणि येनान्तमुवयादिना । तस्याहिमयकत्रि समस्तकायंसाधकम् ।।४।। अर्थ-स्तुति के जिन अक्षरों से आठों कर्मों को उवय उदीर्णा में लाकर नष्ट कर दिया जाता है उसको समस्त कार्योंको सिद्ध करनेवाला विनयकर्म कहते हैं ॥८४६।। इस विनय कर्म से पाठों कर्म नष्ट होते हैंयस्मादिनाशयत्याशु यःकर्माष्टकमंजसा । तस्माद्विलीनससारास्तमाहूविनयं परम् । ८५०॥ अर्थ--- इस विनय से आठों कर्म बहुत ही शीघ्र नष्ट हो जाते हैं इसीलिये संसार को नाश करनेवाले भगवान परहंतवैव इसको विनय कहते हैं ।।८५०॥ यही विनय मोक्षका कारण हैपूर्वविश्वजिनाधीशैः सर्वासु कर्मभूमिषु । सतो सुमुक्तिलाभाय विनय प्रतिपादितः ।।८५१।। अर्थ-पहले जितने भी तीर्थकर हुये हैं उन सबने समस्त कर्म भूमियों में सज्जनों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये मोक्ष का कारण एक विनय ही बतलाया है । ॥५१॥ विनय के ५भेद-- लोकानुवृत्तिनामानिमित्तः कामहेतुकः । भयाल्यो मोक्षसंन:पंचसिविमपोमतः ॥५२॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( १३६ ) [ तृतीय अधिकार अर्थ--इस विनयके पांच भेद हैं लोकानुवृत्ति, अर्थ निमित्तक, कामहेतुक भय और मोक्ष संज्ञक ॥८५२॥ लौकिक कार्य सिद्ध करनेवाला (१) लोकानुवृत्ति नामक विनयअम्पुरयान नमस्कारासनदानादिभिः परैः । भाषानुवृत्ति छंचोनुवृतिसद्धोजनाविक: ॥८५३ लोकात्मीकरणाथ यो विनयः क्रियते जनः । लोकानुत्तिलामासविनयः कार्यसाधकः ॥१५५४। अर्थ-दूसरे को देखकर खड़ा होना, उसको नमस्कार करना, उसको प्रासन देना, उसके अनुकल भाषण करना, उसके अनुकल चलना, उनको भोजन देना आदि लोगों को अपना बनाने के लिये जो विनय किया जाता है उसको लौकिक कार्य सिद्ध करनेवाला लोकानुवृत्ति नामका विनय कहते हैं ।।८५३-८५४॥ अर्थ विनय तथा काम विनय का लक्षणअर्थाय यः कृतोलोके विनयः सोऽर्थ संज्ञकः । काभाय कामिभियंश्वसकामविनयोऽशुभः ।।५।। अर्थ-इस लोक में धन कमाने के लिये जो विनय किया जाता है उसको अर्थ विनय कहते हैं कामी पुरुषों के द्वारा जो काम सेवन के लिये विनय किया जाता है उसको अशुभ काम विनय कहते हैं ।।८५५।। भय विनय एवं मोक्ष विनय का स्वरूपभयेनविनयोयोनुष्ठीयते स भयातयः । मोक्षायविनषो योऽत्र समोक्ष विसयो महान् ।।८५६॥ अर्थ-भयसे जो विनय किया जाता है वह भय विनय है और मोक्षके लिये जो विनय किया जाता है वह महान मोक्ष विनय है ॥८५६॥ मुनियों को किस प्रकार के विनय का निषेध-- त्याज्या लोकानुवृत्याद्याश्चत्वारो विनयाः सदा । मोक्षाख्यः पंचमः कार्य विनयोमुनिभिःपरः ।। अर्थ-मुनियों को लोकानुवृत्ति प्रादि चारों प्रकार का विनय सदा के लिये त्याग कर देना चाहिये और पांचवां सर्वोत्कृष्ट मोक्ष नाम का विनय धारण करना चाहिये ॥८५७॥ ___ मोक्ष विनय के ५ भेदवृग्यिवृत्ततपोभेवरुपचारेण पंचधा । मोमाख्यो विनयो योमुक्तिहेतु गुणप्रदा ।।८५८|| अर्थ-यह मोक्ष विनय मोक्षका कारण है और अनेक गुणों को धेनेवाला है Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ] ( १४० ) [ सूतीय अधिकार तथा दर्शन विनय, ज्ञान विनय, चारित्र विनय, तप विनय और उपचार विनय ये पांच उसके मेद हैं || ८५८६ ।। दर्शन विनय का लक्षण - I यथाविश्वे पदार्था येवोपदिष्टा जिनोत्तमैः । तेषां तथैव श्रद्धानं यद्दृष्टिबिनयोहि सः ॥८६॥ अर्थ - भगवान जिनेन्द्रदेव ने समस्त पदार्थों का स्वरूप जैसा बतलाया है उनका उसी रूपसे श्रद्धान करना दर्शन विनय कहलाती है ।। ६५६|| दर्शन विनय का फल - सम्यक्त्वविनयेनात्र सम्यक्त्वं चन्द्रनिर्मलम् । सोपा मंसिरप बह अर्थ -- इसप्रकार सम्यग्दर्शनका विनय करने से चन्द्रमाके समान निर्मल और मुक्तिलक्ष्मी राजभवनकी पहली सीढ़ी ऐसा महान् सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है ॥६६०।। ज्ञान विनय का लक्षण कलाष्टविध्वाचार: पठन पाठनं च यत् । योगसुद्धघासुशास्त्राणां स ज्ञानविनयोऽद्भ सः ॥ अर्थ - मन-वचन-कायको शुद्धकर कालाचार, शब्दाधार, प्रर्थाचार, शब्दार्थावार, विनयाचार, उपाधनाचार, मानाचार, अनिलवाचार हम आठों आचारों के साथ साथ श्रेष्ठ शास्त्रों का पठन-पाठन करना सर्वोत्तम ज्ञानविनय कहलाता है ।।८६१॥ ज्ञान विनय का फल केवलज्ञान है सज्ञान विनयेनाहो जायते ज्ञान लोचनम् । त्रिजगदर्पणसातू सर्वविद्यादिभिः सताम् ॥९६२॥ अर्थ - इस श्रेष्ठ ज्ञानविनय से सज्जन पुरुषों के समस्त विद्याओं के साथ-साथ वर्षण के समान तीनों लोकों के स्वरूप को दिखलाने वाला केवलज्ञान प्रगट होता है । ॥८६२॥ चारित्र विनय का स्वरूप त्रयोदशविधेः वृत्तपालने वृत्तशालिभिः । उत्साहो योऽनुरागश्च चारित्रचिनयोऽत्रसः ॥८६३।। अर्थ — चारित्र पालन करनेवालों का तेरह प्रकार के चारित्र पालन करने में जो उत्साह वा अनुराग है उसको चारित्र विनय कहते हैं ||८६३|| इसका फल यथाख्यात चारित्र है चारित्र विनये मात्र केवलज्ञान कारणम्। विश्वसौख्याकरं बलं यचाख्यातं न भवेत् ।। ६४ ।। X < Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूलाचार प्रदीप ] ( १४१ ) [ तृतीय अधिकार अर्थ - चारित्र विनयको धारण करने से केवलज्ञान का कारण और समस्त सुखों को उत्पन्न करनेवाला ऐसा यथाख्यात चारित्र उत्पन्न होता है ॥८६४ ॥ तप विनय का स्वरूप - द्विषद्दतपोयोगश्चरणे च तपस्विषु । भक्तिरागोद्यमः शक्त्या यस्तपः विनयोऽत्र सः || ८६५॥ अर्थ --- बारह प्रकारके तपश्चरण को पालन करने में तथा तपस्वियोंमें शक्तिपूर्वक अनुराग धारण करना तपो विनय कहलाता है ॥६६५|| तप विनय का फल तो विनयेनाहो घोरबोर तपांसि च । घातिकर्मारिहंदृशि योगिनां विश्वसम्पदः ||८६६ || अर्थ - तपो विनय धारण करने से मुनियों के घातिया कर्मों को नाश करने बाले घोर वीर तपश्चररण प्रगट होते हैं और संसार को समस्त संपवाएं प्राप्त होती हैं ।। ६६ ।। $ उपचार विनय का स्वरूप प्रत्यक्षपणाचार्याद्यखिलयोगिनाम् । श्राज्ञादिपालनं चौपचारिको विनयोऽत्र सः ।।८६७ ।। अर्थ-- श्राचार्य आदि समस्त योगियों को प्रत्यक्ष वा परोक्ष रूपसे आज्ञा का पालन करना श्रौपचारिक विनय है ||६६७॥ उपचार विनय का फल न विनोना संपाद्यन्ते खिलागुणाः । ज्ञानविज्ञान विद्यारमोक्षदा यमिनां पराः ॥ ६६८ ।। अर्थ-मुनियों के इस उपचार विनय से सर्वोत्कृष्ट और मोक्ष देनेवाले ज्ञान विज्ञान विद्या आदि समस्त गुण प्रगट हो जाते हैं ||८६८ || मोक्ष विनय से मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति - मोक्षार्थं विनयं मोक्षाभिधं येप्रकुर्वतेऽस्वहम् । इमं तेषां जगत्लक्ष्म्यासमं मुक्तिप्रनायते ॥ ६६६ ॥ अर्थ – जो पुरुष मोक्ष प्राप्त करने के लिये प्रतिदिन इस मोक्ष विनय को धारण करते हैं उनको संसार की समस्त विभूतियों के साथ साथ मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त होती है ।।६६६ ॥ मोक्ष fere प्रतिदिन मावश्यक मति विनयं क्षा सर्वप्रयत्नतः । विशुद्धधा प्रत्यहं सारं कुर्वन्तु शिवशर्मणे ||८७०॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १४२) [ तृतीय अधिकार अर्थ-यही समझकर चतुर पुरुषों को मन-वचन-कायको शुद्धकर मोक्ष प्राप्त करने के लिये प्रयत्नपूर्वक प्रतिटिन यह सारा मोक्ष त्रिया मारण करना चाहिये । ८७०॥ शुभज्ञान प्राप्ति के लिये कुछ प्रश्नप्रवासरे मुमेधावी शिष्यः पृच्छति सावरः । प्रणम्य स्वगुरु मूर्माकांश्चित्प्रश्नान्शुभारतथे ।। __अर्थ- इसी बीच में किसी चतुर शिष्य ने अपने गुरुके आगे मस्तक झुकाकर प्रादर के साथ शुभ ज्ञानको प्राप्ति के लिये कुछ प्रश्न पूछे ।।८७१॥ कृतिकर्म का विशेष स्वरूपभगवन् कृतिकर्मान कौदर्श वा कियद्विधम् । कस्तेषां तद्धिमतधयं विभिना केनवाखिलम् ।।८७२।। अवस्था विषये कस्मिन् कतिधारान्शुभप्रदान् । कृतिकर्मण एवात्य कियस्यवनतानि वे ।।८७३॥ झियन्ति व शिरांसि स्पुरावानिकियंति छ । कति दोषिमुक्तं वा कर्तव्य कृतिकर्मतत् ॥१७॥ अर्थ-वह पूछने लगा कि हे भगवन् यहां पर कृतिकर्म से क्या अभिप्राय है, वह कितने तरह का होता है, उनका विधान किन-किनके लिये है था किनको करना चाहिये, किस विधिसे करना चाहिये, किस अवस्था में कितने बार यह शुभप्रद कृतिकर्म करना चाहिये, कितने नमस्कार करने चाहिये, कितनी शिरोनति करनी चाहिये, कितने आवर्त करने चाहिये, और कितने दोषों से रहित यह कृतिकर्म करना चाहिये । ७२-०७४॥ गुरु का उसरइमां सरप्रश्नमाला मेऽनुपहायसमाविश । ततःप्राह गुरुविश्व हितोच क्तं एवं पयः ।।७।। ___ अर्थ-हे प्रभो ! मेरा अनुग्रह करने के लिये इन सब प्रश्नों का उत्तर वीजिये। यह सुनकर सब जीवों का हित करनेवाले गुरु नोचे लिखे अनुसार कहने लगे ॥७॥ कृतिकर्म का स्वरूप सुनने के लिये प्रेरणाश्रुणु धीमन् विधाय त्वं स्ववशे हृवयं निजम् । जिनागम बलाढो कृतिकर्मविधीन्परान् ॥१७६।। अर्थ-कि हे बुद्धिमान् ! तू अपने मनको वशमें कर सुन । मैं जिनागम के अनुसार कृतिकर्म की उत्कृष्ट विधियों को कहता हूं ॥८७६॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुलाधार प्रदीप] ( १४३ ) [ तृतीय अधिकार कृतिकर्म के २ भेदनित्यनैमितिकाभ्यां तस्कृतिकम विधोच्यते । एक बहुभेदं च कर्मघ्नं शिवकारणम् ।।८७७॥ अर्थ- उस कृतिकर्म के दो भेद हैं एक प्रतिदिन होने वाला कृतिकर्म और दूसरा किसो निमित्तसे होनेवाला कृतिकर्म । इनमें भी एक एक कृतिकर्म के अनेक भेद हैं जो कर्मोको नाश करनेवाले हैं और मोक्ष के कारण हैं ।।८७७॥ नित्यकर्म पापों का नाश करनेवाला हैत्रिकालवंदना योग सत्प्रतिक्रमणादिकम् । प्रत्यहं क्रियते यत्तनित्यकर्माघनाशकम् ॥८७८॥ __ अर्थ-जो प्रतिदिन त्रिकाल वंदना की जाती है, योग धारण किया जाता है वा श्रेष्ठ प्रतिक्रमण किया जाता है उसको नित्यकर्म कहते हैं । यह नित्यकर्म भी पापों को नाश करनेवाला है ।।८७८॥ नमित्तिक कृतिकर्म का स्वरूप-- प्रष्टम्यां च चतुर्दश्यां पक्षपर्व विनादिषु । विधीयते क्रियाकर्म यतन्नैमित्तिकं परम् ।।७६ अर्थ-अष्टमी के दिन चतुर्वशी के दिन पक्ष पूरा होनेपर वा अन्य किसी पर्व के दिन जो क्रिया कम किया जाता है उसको नैमित्तिक कृतिकर्म कहते हैं ।।७।। कौनसी भक्तिय करनी प्रावश्यक हैंनिकालवंशमायां च विधेमा भक्तिकः सदा । त्यभक्तिस्तत. पंचमुरुभक्तिबिधानतः ।।८०॥ अर्थ-त्रिकाल बंदना में भक्त पुरुषों को विधि पूर्वक सदा चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति बोलनी चाहिये ॥१०॥ ___चतुर्दशी के दिन की भक्तियांचतुर्वशोबिने सिद्धपत्यश्रुत्ताख्य भक्तपः । भक्ति। पंचगुरूणां धीशांतिभक्तिस्तप्तोतिमा ॥१॥ अर्थ-चतुर्दशी के दिन सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, श्रुतभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति बोलनी चाहिये ॥५१॥ अष्टमी को भक्तियांअष्टमीदिषसे सिद्धश्रुतचारित्र भक्तपः । चैत्यभक्ति स्ततः पंचगुरुशांति समाप्ये ।।८१२॥ अर्थ-अष्टमी के दिन सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति बोलनी चाहिये ।।८८२॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप ( १४४ ) [तृतीय अधिकार - पाक्षिक वंदना में आवश्यक भक्तियांपाक्षिके दिवसे सिद्धचारित्रशान्तिभक्तयः । श्रीसिद्धप्रतिमायां श्रीसि विभक्तिविधीयते ॥८३।। अर्थ-पाक्षिक बंदनामें सिद्धभक्ति, घारित्रभक्ति, शांतिभक्ति पढ़नी चाहिये तथा सिद्ध प्रतिमा के सामने सिद्धभक्ति पढ़नी चाहिये ॥८८३॥ अपूर्व चैत्य एवं चैत्यालय में कौनसी भक्ति करनी चाहिये-- अपूर्वत्यत्यालये सिद्धचस्यसंज्ञके । भक्ति चारित्रसस्पंचगुरुश्रीशांतिनामिकाः ॥१८॥ ___ अर्थ-अपूर्व चैत्य वा अपूर्व चैत्यालय में सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, चारित्रभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति पढ़नी चाहिये ॥४॥ नंदावरकतोनी पवा में कौन भक्ति करेंनन्दीश्वरत्नये सिद्धचैत्यभक्ति स्वभक्तिः। विधातव्ये ततःपंचगुरुशास्यविधै परे ॥१८५।। अर्थ-नंदीश्वरके तीनों पर्वो में सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, नंदीश्वरभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति पढ़नी चाहिये ॥५॥ भगवान् के जन्म कल्याणक के दिन कौनसी भक्ति करनी चाहियेजिनेन्द्रप्रतिमायाश्च तीर्थेशजन्मनो बुधः । सिद्ध चारित्नशान्त्याल्या दातव्या सक्तयो मुदा ।। अर्थ-भगवान जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाके सामने तथा तीर्थकरके जन्म कल्याणक के दिन बुद्धिमानोंको सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति और शांतिभक्ति पढ़नी चाहिये ।।८८६॥ ___ अभिषेक की वंदना में कौनसी भक्ति पढ़ें ? कर्तव्या अभिषेकस्य वंदनाया सुभक्तयः । सिद्धचत्यमहापंचगुरुशांतिजिनेशिनाम् ॥८८७॥ अर्थ-अभिषेक की वंदना में सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचमहागुरुभक्ति और शांतिभक्ति पढ़नी चाहिये ।।७।। ___ भगवान की चल-मचल प्रतिष्ठा में कौनसी भक्ति पढ़ें ? जिनेन्द्रप्रतिबिम्बाना स्पिरान या घासात्मनाम् । प्रतिष्ठायां भवेसिद्धशांति भक्त्यायः द्वयम् ॥ अर्थ-भगवान जिनेन्द्रदेव को चल और अचल प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा में सिद्धभक्ति और शांतिभक्ति ये दो भक्ति पढ़नी चाहिये ॥८८|| स्थिर प्रतिमा के चतुर्थ अभिषेक के दिन कौन-कौनसी भक्ति पढ़ेंस्थिराहत्प्रतिमायां च चतुर्थस्नपनाहनि । सिद्धभक्तिाच चारित्रभविकरालोचनापुता ॥८६॥ * Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १४५ ) [ तृतीय अधिकार चैत्यभक्तिमहा पंचगुरुभक्तिः प्रयत्नतः । शांतिभक्ति बिधातव्या विधिना विधिहानये ॥६॥ अर्थ-स्थिर प्रतिमा के चतुर्थ अभिषेक के दिन सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति, आलोचना, चैत्यभक्ति, पंचमहागुरुभक्ति और शांतिभक्ति विधिपूर्वक कर्मों को नाश कप के लिये परमपूर्वाश पड़नी चाहिये ।।८८९-६०॥ चल प्रतिमा के चतुर्थ अभिषेक के दिन कोनसी भक्ति पड़ें? चलाहरप्रतिमायाश्च मुवाकार्याबूधोत्तमः । सिद्धर्चत्यमहापंचगुरुशान्तिमुभक्तयः ।।८९१ । अर्थ-बुद्धिमान पुरुषों को चल अरहंत प्रतिमा के चतुर्थ अभिषेक के दिन प्रसन्नतापूर्वक सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचमहागुरुभक्ति, शांतिभक्ति पड़नी चाहिये । ८६१॥ गामान्य मुनियों की बदना कैसे करें ? महत्तपः पदासढसामान्यर्षे प्रवंदना । सिक्ति विधायोच्चभक्त्या कार्यान्यसंयतः ॥१२॥ अर्थ-जो सामान्य मुनि उन-उन तपश्चरण करनेवाले हैं उनकी वंधना करने के लिये अन्य मुनियों को भक्तिपूर्वक सिद्धभक्ति पढ़कर वंदना करनी चाहिये ।।८६२।। सिद्धांत के जानकार मुनियों की वंदना कैसे करें ? सिद्धांतवेदिनां सिद्धश्रुतभक्तिद्वयं भवेत् । प्राचार्याणां हि सिद्धाचार्यभक्ति भवतो नुतौ १८६३॥ अर्थ-सिद्धांत के जानने वाले मुनियों की वंदना करते समय सिद्धभक्ति और श्रुतभक्ति पढ़नी चाहिये । तथा प्राचार्यों की वंचना करने के लिये सिद्धभक्ति, प्राचार्यभक्ति पढ़कर नमस्कार करना चाहिये ॥८६३।। यदि प्राचार्य सिद्धांत के जानकार हो तो भक्ति कैसे करें ? सिद्धांतवेवि सूरीणां ववमामां मुशिष्यकः । कर्तग्या विधिना सिवश्रुताचार्यात्यभक्तयः ।।४।। अर्थ-यदि वे प्राचार्य सिद्धांतके जानकार हों तो उनके शिष्योंको विधिपूर्वक सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति और आचार्यभक्ति पड़नी चाहिये ।।८६४॥ प्रतिमा योग धारण करनेवालों को भक्ति कैसे करें ? पुनेलंघीयसोपि प्रतिमायोगस्थितस्य च । महतस्तपसो भवस्थाप्रणामे परसंयतः ॥८९५|| ध्यात्वा युक्तितः सिद्धयोगशास्यास्यभक्तयः । तथा प्रदक्षिणा कार्या योगभवत्यातिभास्तिकः ।। अर्थ-यदि कोई मुनि छोटे हों किंतु प्रतिमा योग धारण कर खड़े हों तो Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - मूलाचार प्रदीप ] ( १४६ ) [ तृतीय अधिकार उनके लिये तथा बड़े मुनियों के लिये अन्य मुनियों को नमस्कार करते समय युक्तिपूर्वक सिद्धभक्ति, योगक्ति और शांतिभक्ति पढ़नी चाहिये । तथा भक्त पुरुषों को योगक्ति पढ़कर उनकी प्रदक्षिणा देनी चाहिये ॥८६५-८६६।। भगवान के दीक्षा कल्याणक के समय कौनसी भक्ति करें ? जिननिष्कमणेसिद्धचारित्र योगभक्तयः । योगशांत्याह्वयेभक्ति योगभफ्त्या प्रदक्षिणा ८६७| अर्थ-भगवान के दीक्षा कल्याणक के समय सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति, योगभक्ति और शांतिभक्ति पढ़नी चाहिये तथा योगभक्ति पढ़कर प्रदक्षिणा देनी चाहिये । 1168७॥ सिद्धांत के जानकार प्राचार्य के मरण के समय कौनसी भक्ति करें ? जिम निर्वाण सक्षेत्रे भक्ति सिद्धश्रुतामिषे । चारित्रयोगनिर्वाण शांतिभक्तिप्रदक्षिणा II अर्थ-तीर्थंकरों के निर्वाण क्षेत्रमें जाकर सिद्ध भक्ति, श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति, योगक्ति, निर्वाणभक्ति और शांतिभक्ति पढ़नी चाहिये तथा प्रदक्षिणा भी देनी चाहिये । (प्रदक्षिणा योगभक्ति से दो जाती है) 1 भगवान के ज्ञान कल्याण के समय कौनसी भक्ति पढ़ें ? शानोत्पत्ती महासिद्धश्रुतचारित्रभक्तयः । शातिभक्तिस्तथायोग भवस्या कार्या प्रदक्षिणा || ___ अर्थ-भगवानके ज्ञान कल्याणकके समय महा सिद्धिभक्ति, श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति और शांतिभक्ति पढ़नी चाहिये तथा योगक्ति पढ़ कर प्रदक्षिणा देनी चाहिये । भगवान् वर्धमान स्वामी के निर्वाण कल्याण के दिन कौनसी भक्ति पढ़ें ? श्रीवद्धं माननिर्वाण दिने कार्या क्रियाविधौ । सिद्धनिर्वाण सरपंचगुरुशांत्याल्य भक्तपः ॥१०॥ अर्थ-भगवान वर्द्धमान स्थाभी के निर्वाण के दिन कृतिकर्म को विधि करते समय सिद्धभक्ति, निर्वाणभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति पढ़नी चाहिये ।।६००। मामान्य' ऋषि के मरण हो जानेपर कौनसी भक्ति पड़े ? सामाग्यषो मृतेंगस्य निषधास्यानकस्य वा। विधेयाः सिद्धयोगश्रीशांतिभलय एव हि ॥६०१।। अर्थ-किसी सामान्य ऋषि के भरण हो जाने पर उनके शरीर के लिये तथा उनके निषद्या स्थान के लिये सिद्धभक्ति, योगभक्ति और शांतिभक्ति पड़नी Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ] ( १४७ ) [तृतीय अधिकार चाहिये ।।०१॥ सिद्धांत के जानकार ऋषि के मरण हो जानेपर कौनसी भक्ति करें ? सिद्धांतवेदिसाधूनां कतव्या मरणे बुधः। श्रीसिद्धश्रुतयोगश्रीशांतिभक्तिसमाह्वयः (१९०२१॥ अर्थ-सिद्धांतके जानकार साधनों के मरण होनेपर बुद्धिमानों को सिद्धभक्ति श्रुलभक्ति, योगक्ति और शांतिभक्ति पड़नी चाहिये १९०२॥ उत्तरगुण के धारणा समाधि भरण पर कौनसी भक्ति की जायमहासचिनको सिचारित्र सद्योगश्रीशांतिभक्तयोऽमला: 11९०३।। अर्थ-उत्तरगुण धारण करनेवाले महायोगी मुनियों के मरण होनेपर सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति, योगभक्ति और निर्मल शांतिभक्ति पढ़नी चाहिये ।।६०३॥ महामुनि के मरण पर कौनसी भक्ति करेंतथोत्तरमहायोगधारिसिद्धांतवेदिनाम् । श्रीसिसश्रुतचारित्रयोगधोशांतिभक्तयः ।।६०४।। अर्थ-यदि उत्तरगुणों को धारण करनेवाले महामुनि सिद्धांतके जानकार हों और उनका मरण हो जाय तो सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति, योगभक्ति और शांतिभक्ति पढ़नी चाहिये ।।६०४॥ प्राचार्य के मरण पर कौनसो भक्ति करेंप्राचार्मेऽत्र मुगस्य निषद्यायाः किलायवा ! बातम्या:सिद्धयोगाचार्यश्रीशांतिभक्तयः ।।६७५॥ अर्थ-प्राचार्य के मरण होनेपर उनके शरीर के लिये और निषद्या के लिये सिद्धभक्ति, योगभक्ति, आचार्यभक्ति और शांतिभक्ति पढ़नी चाहिये ||६०५॥ सिद्धांत के जानकार आचार्य के भरण पर कौनसी भक्ति पर्छ ? सिखोल वेविसुरीणां विषयाः शिष्पकमुंबा। श्रीसिद्धथतयोगाश्चाचार्यश्रीशांतिभक्तयः ॥१०॥ अर्थ-यदि सिद्धांतके जानकार प्राचार्य का मरण हो जाय तो उनके शरीर और निषद्या के लिये शिष्यों को सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, योगक्ति, प्राचार्यभक्ति और शांतिभक्ति पढ़नी चाहिये ।।६०६॥ उत्तरगुणों के पालन करनेवाले प्राचार्य के मरण पर कोनसी भक्ति पढ़ें ? उसराभिषसोगिनांसूरीरणो मृतेसति । सिद्धचारिखसयोगाचार्यश्रीशांतिभक्तयः ।।६०७॥ अर्थ-इसीप्रकार उत्तरगुणों को धारण करनेवाले आचार्यों के मरण होनेपर Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( १४८ ) [ तृतीय अधिकार सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति, योगभक्ति, प्राचार्यभक्ति और शांतिभक्ति पढ़नी चाहिये। ।०७।। यदि प्राचार्य सिद्धांत पाठी हों और उत्तर गुणों के पालन कर्ता हों तो उनके मरण होनेपर कौनमी भक्ति पढ़ेंसिद्धांतोनर सद्योगादयसूरे। सिद्धपूर्षिकाः । श्रुतचारित्रसद्योगाचार्यश्रीशांतिभक्तयः 11६०८!! अर्थ- यदि प्राचार्य सिद्धांतवेत्ता भी हों और उत्तरगुणों को धारण करनेवाले भी हों और उनका मरण हो जाय तो सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति, योगक्ति, आचार्यभक्ति और शांतिभक्ति पढ़नी चाहिये ।।०८।। पाठों प्रकार के निषद्या स्थानों की भक्ति करेंइमाष्टौ च क्रियाःकार्याः शिष्यपरसंयतः । शरीरस्य निषद्यास्थानस्य वा शुभकारणाः ।।६०६।। अर्थ- ये पाठ क्रियायें (आठ प्रकार के साधुओं के मरण होनेपर पढ़ी जाने वाली भक्तियों का पढ़ना) उनके शिष्यों को भी करनी चाहिये तथा अन्य मुनियों को भी करनी चाहिये । लथा ये शुभ क्रियाएँ उनके शरीरको भी करनी चाहिये और उनके निषद्या' स्थान को भी करनी चाहिये ।।९०६॥ श्रुतभक्ति पर्व पर भक्ति विधानप्रयमं श्रुतपंचम्याक्तिसिद्धश्रुताद्धये । श्रीश्रुताचार्यभक्तिः च कृत्यास्वाध्यायजितः ॥१०॥ ग्राह्यस्तत्त्वार्थसूत्राणि पटिश्वानुबुधश्च तम् । निष्ठाप्य श्रुतभवत्यन्ते शांतिभक्तिविधीयते ॥ ___ अर्थ-श्रुत पंचमीके दिन पहले तो सिद्धभक्ति और श्रुतभक्ति पढ़नी चाहिये। फिर श्रुतभक्ति और आचार्यभक्ति पढ़कर उत्तम स्वाध्याय का प्रारम्भ करना चाहिये फिर तत्स्वार्थसूत्र को पढ़कर बुद्धिमानों को श्रुतभक्ति पढ़कर उस स्वाध्याय को पूरी करना चाहिये और फिर शांतिभक्ति पढ़नी चाहिये ।।६१०-६११॥ ममाधिमरण के प्रारम्भ पर क्या त्रियासत्यासारंभकाले भक्ति सिद्धयुतसंझिके 1 कृत्वा गृहीतसंन्याससंवेगांकितमानसः ।।१२।। धुलाचार्याभिधे भक्ति वस्वास्वाध्यायम तम् । गृहीत्या श्रुतभकश्यन्ते युक्त्या निष्ठापयेन्मुवा ॥ अर्थ-समाधिमरणके प्रारंभ काल में सिद्धभक्ति और श्रुतभक्ति पढ़नी चाहिये १-समाधिस्थान । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( १४६ ) [ तृतीय अधिकार फिर मनमें परम वैराग्य धारण करते हुए सन्यास प्रहण करना चाहिये । फिर श्रुतभक्ति और आचार्यभक्ति पढ़कर उत्तम स्वाध्याय को ग्रहण करना चाहिये और अंतमें श्रुतभक्ति पढ़कर उस स्वाध्याय को समाप्त करना चाहिये ।।६१२-६१३।। सन्यास धारण करने पर क्या करें--- स्वाध्यायग्रहणे ज्ञेयाः संन्यासस्य महामुनेः । महाश्रुतमहावार्थमहाश्रुतास्य भक्तपः ॥१४॥ अर्थ-सन्यास धारण करनेवाले महामुनि को स्वाध्याय ग्रहण करते समय महा श्रुतभक्ति, महा प्राचार्यभषित और महाश्रुतभक्ति पढ़नी चाहिये ।।१४।। प्रतिदिन तीनों कालों में प्रतिक्रमगादि भक्तिसत्प्रतिक्रमणे कार्या त्रिकालगोचरेन्वहम् । सिद्धभफिरततो भक्तिः प्रतिक्ष्मणसंजका ॥६१५॥ निष्ठितफरणाद्यत श्रीरभक्तिस्वसंपतः । चतुर्विशतितीर्थकरभक्तिमलहानये ।।६१६॥ अर्थ-प्रतिदिन तीनों कालों में होनेवाले प्रतिक्रमसमें सिद्धभक्ति प्रतिक्रमण के अंतमें धीरभक्ति और दोष दूर करने के लिये चतुविशति तीर्भकर भक्ति करनी चाहिये ।।६१५-६१६॥ ___चारित्र को शुद्ध करनेवाली भक्तियों का पाठ करेंपाक्षिकास्ये व चातुर्मासिकसजेऽषघातके । सत्प्रतिक्रमणेसारे सांथस्सरिफनामनि ६१७।। पाचौ श्रीसिद्धचारित्रप्रतिक्रमण भक्तयः । श्रीनिष्ठिसकरणादि वीरभक्सिसमाह्वयः ॥१८॥ चतुविशलितीर्थकरभक्तिः शुभवायिनी । चारित्रालोचनाचार्यभरिक्तश्चारित्रशुद्धिा ।।१६।। पहबालोधनाचार्यभक्तिमलविनासिनी । शुल्लकालोचनाचायंभक्तिः शुद्धिकरोतिमा 18२०॥ ___ अर्थ-पापों को नाश करनेवाले पाक्षिक प्रतिक्रमणमें चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में और सारभूत वार्षिक प्रतिक्रमण में पहले सिद्धभक्ति और धारिप्रभक्ति करनी चाहिये फिर प्रतिक्रमण भक्ति पढ़नी चाहिये प्रतिक्रमण समाप्त होने पर वीरभक्ति और शुभ देनेवाली चतुर्विशति तीर्थकर भक्ति पढ़नी चाहिये फिर चारित्रको शुद्ध करने वाली चारित्रालोचना आचार्यभक्ति पढ़नी चाहिये । तदनंतर दोष दूर करनेवाली बृहत् आलोचना और प्राचार्यभक्ति पढ़नी चाहिये अंत में शुद्धि करनेवाली लघु आलोचना और लघु प्राचार्यभक्ति पढ़नी चाहिये ॥६१७-६२०॥ आचार्य भक्ति दोष हरण करनेवाली हैचारित्रालोचनाचार्य भक्तिभक्तिविधायिनी । बदालोचनाचायं भक्तिदोषापहारिणी ॥२१॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप ] ( १५० ) [ तृतीय अधिकार अर्थ - इन भक्तियों में से चारित्रालोचना और आचार्यभवित भक्ति उत्पन्न करनेवाली हैं तथा बृहत् आलोचना और आचार्यभक्ति दोषों को दूर करनेवाली हैं । ६२१॥ अन्य प्रतिक्रमणों में भक्ति का विधान - एतबुक्तिद्वयमुक्त्वा शेषाः षड्भक्तयोपराः । प्रतिक्रमणशेषेषुक संध्या दोषहानये ॥२२॥ अर्थ - पाक्षिक चातुर्मासिक और वार्षिक प्रतिक्रमण को छोड़कर बाकी के जितने प्रतिक्रमण हैं उन सब में दोष दूर करने के लिए चारित्रालोचना और प्राचार्यभक्ति को छोड़कर बाकी की छहों भक्ति पढ़नी चाहिए ||२२|| दीक्षा ग्रहण करते समय तथा केशलोच करते समय कौनसी भक्ति करेंसद्दीक्षाग्रहणे लोचे सिद्धयोगसमाह्वये । भक्ति लोचावसाने च सिद्धभक्तिविरागदा ||२३|| अर्थ - दीक्षा ग्रहण करते समय और केशलोंच करते समय सिद्धभक्ति और योगभवि पढ़नी चाहिए तथा केशशीष करने के उत्पन्न करनेवाली सिद्धभक्ति पढ़नी चाहिए ॥६२३॥ पारगा के दिन आचार्य भक्ति पढ़नी चाहियेश्री सिद्धयोग भक्तोकृत्प्रत्यास्थानमूजितम् । गृहीत्वाचार्यभक्तिश्चकर्तव्या पारणानि ।। ६२४ ॥ अर्थ - सिद्धभक्ति और योगभक्ति पढ़कर उत्तम प्रत्याख्यान ग्रहण करना चाहिए और पारणा के दिन आचार्यभक्ति पढ़नी चाहिए ।। २४ ।। प्रत्याख्यान का त्याग- सिद्धाः प्रत्याख्यानं विमोचयेत् । मध्याह्न संयमी वस्तृगेगस्थित विये ।। ६२५ ।। अर्थ- फिर संयमियों को आत्म कल्याणार्थ शरीर की स्थिति के लिए दाता के घर मध्याह्न के समय सिद्धभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यानका त्याग करना चाहिए । ।।२५।। स्वाध्याय के आदि में तथा अंत में किस भक्ति का पाठ करें श्राचार्य भक्तिविधाय स्वाध्याय ऊर्मितः । प्रायो निष्ठापने तस्यभूतभक्तिभवेत्सताम् ॥ अर्थ- सज्जन पुरुषों को श्रुतभक्ति और आचार्यभक्ति पढ़कर श्रेष्ठ स्वाध्याय ग्रहण करना चाहिए और समाप्त करते समय श्रुतभक्ति पढ़नी चाहिये ॥ ६२६ ॥ . Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १५१ ) [ तृतीय अधिकार मध्याह्न को क्रियाओं में भक्ति विधानकामिंगलमध्याह्नक्रियायांमुनिसत्तमः । सिद्धीचत्य सत्पंचमुरुश्रीशांतिभक्तयः ।।६२७।। अर्थ-- मध्याह्नकी मांगलिक क्रियाओं में मुनियों को सिद्धभवित, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांति भक्ति पढ़नी चाहिये ।।१२७।।। मांगलिक शुभ कार्य में भक्ति विधानप्रत्याख्याने शुभेमंगलमोचरसमाह्वये । महासिद्धमहायोगभक्तोकृत्वा धतुविधम् ॥६२८।। प्रत्याख्यानं गृहोस्यकोपवासादिकगोचरम् । प्राधाय शांतिभक्ती चान्तस्य कुतु योगिनः ॥२६॥ अर्थ-किसी मांगलिक शुभ प्रत्याख्यान में महा सिद्धभक्ति और महा योगभक्ति पढ़ कर एक वा दो वा अधिक उपवास के लिये चारों प्रकार के प्राहारका त्याम कर प्रत्याख्यान ग्रहण करना चाहिये और अन्त में उन मुनियों को आचार्यभक्ति और शांतिभक्ति पढ़नी चाहिये ।।६२८-६२६।। रात्रि के समय योग धारण की विधिग्रहणं रानियांगस्य मोधने सुयोगिनः । योगक्ति प्रकुर्धेतु पापामनिरोधिनीम् ।।६३०॥ अर्थ-रात्रि योग धारण करते समय और उसका त्याग करते समय मुनियों को पापासव' को रोकनेवाली योगभक्ति पढ़नी चाहिये ।।६३०॥ बायोग धारण व निष्ठापन में कौनसी भक्ति करेंयोगस्य पहणे वर्षाकाले मिष्ठापने तथा। श्रीसिद्धयोगक्ति दत्त्वा प्रायो योगजितः ।।९३१॥ चतुदिक्षु चतस्रोनुचत्य भक्तयः एवहि। ततो भक्तिवयं पंचगुरुशान्स्याह्वयं परम् ।।८३२।। अर्थ-वर्षाकाल में योग धारण करते समय तथा अंतमें उसका त्याग करते समय सिद्धभक्ति, योगक्ति पढ़कर योग धारण करना चाहिये वर्षायोग धारण की प्रदक्षिणामें चारों दिशाओं में एक-एक चैत्यभक्ति पढ़नी चाहिये और फिर पंचगुरुभक्ति तथा शांतिभक्ति पढ़नी चाहिये इसी प्रकार वर्षायोग धारण करना चाहिये और इसी प्रकार उसका विसर्जन करना चाहिये ।।६३१-६३२॥ सिद्धांत-वाचना के समय भक्तिसिद्धांतवाचनाया ग्रहणे सिद्धभुताभिधे । भक्ति कृत्वा पुनर्दश्वा श्रुताचार्यातयेपरे ।।६३३॥ स्वाध्यायं किल मुलांतु तस्य निष्कोपने यमी । श्रुतश्रीशांति भक्ति च करोतु बहुभक्तये ॥३४॥ अर्थ-सिद्धांत वाचनाके ग्रहण करते समय सिद्धभक्ति और श्रुतभक्ति पढ़नी Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १५२ ) [ तृतीय अधिकार चाहिये, फिर श्रुतिभक्ति, प्राचार्यभक्ति पढ़कर स्वाध्यायका ग्रहण करना चाहिये और उसको समाप्त करते समय मुनियों को अधिक भक्ति करने के लिये श्रुतभक्ति और शांसिभक्ति पढ़नी चाहिये ।।६३३-६३४॥ सिद्धांत ग्रन्थों के अधिकार समाप्ति पर विधानसिद्धांताधिकाराणां समाप्ती मानहेतथे । एकैकं सत्तनूरसगं Yar कुर्वन्तु संयताः ।।६३५|| अर्थ-सिद्धांत ग्रंथों के अधिकार समाप्त होनेपर उनका सन्मान करने के लिये मुनियों को प्रसन्नचित्त होकर एक-एक कायोत्सर्ग करना चाहिये ।। ६३५॥ मिद्धांतों ग्रन्थों के अधिकार समाप्ति करनेपर विधानतेषमर्थाधिकाराणां बहुमान्यत्वतश्चि । प्रादौ सिहश्रुताचार्यभक्तिः कृत्वाविवाम्बरः १६३६|| अर्थ-सिद्धांत ग्रंथों के अधिकारों के प्रारम्भमें अधिक मान देने के लिये सबसे पहले सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति और आचार्यभक्ति बुद्धिमानों को कर लेनी चाहिये ।।६३६॥ ज्ञानको बुद्धि करनेवाले ६ कार्योत्सर्गसमाप्ताषप्यनेनक्रमणे प्रयतंते सति । भवन्ति ज्ञानकर्तारः कायोत्सर्गाः पठेव हि ।।६३७।। अर्थ- इसीप्रकार सिद्धांत ग्रंथों के अधिकार समाप्त होनेपर ये ही भक्तियां पढ़नी चाहिये तथा ज्ञानको वृद्धि करनेवाले छह कायोत्सर्ग करने चाहिये ।।९३७।। ऐसा शिष्य गुरुकी पदवी के योग्य होता हैज्ञानविज्ञानसम्पन्नो महाप्राशो महातपाः। घिरनजितो वाग्मी सिद्धांताधिपारगः ||६३८।। वान्सोदियोति निर्लोभोधीरः स्वान्यमतादिवित् । गंभीरस्तस्यविक्षो मजयोमृदुमानसः ।। धर्मप्रभावना शीलः इत्यादिगुणसागरः । प्राचार्यपदघीयोग्यः शिष्योगुरोरनुमाया । ६४०।। अर्थ-जो शिष्य ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न है, महा बुद्धिमान है, महा तपस्वी है, चिरकाल का दीक्षित है श्रेष्ठ वक्ता है, सिद्धांत महासागर का पारणामी है, इन्द्रियों को पश करनेवाला है, अत्यन्त निर्लोभ है, धीर वीर है, अपने और दूसरों के मनको अच्छी तरह जानता है, जो गम्भीर है तस्वों का वेत्ता है चतुर है, जिसका मन कोमल है जो धर्मको प्रभावना करने में चतुर है और जिसका मन निश्चल है इसप्रकार जो अनेक गुणों का समुद्र है, ऐसा शिष्य गुरु की प्राज्ञानुसार आचार्य पदमी के योग्य होता है । ॥६३-६४०॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मूलाचार प्रदीप] ( १५३ ) [ तृतीय अधिकार प्राचार्य का सर्वोत्कृष्ट पद ग्रहण का विधानश्रीसिद्धाचार्य भक्ति विधायाचार्यपक्महत् । गृहीत्वासंधसानिध्ये शांतिभक्ति करोतु च ॥६४१॥ ___अर्थ-ऐसे शिष्य को सिखभक्ति और प्राचार्यभक्ति पढ़ कर आचार्य का सर्वोस्कृष्ट पद ग्रहण करना चाहिये और फिर संघ के समीप बैठकर शांतिभक्ति करनी चाहिये ।।६४१॥ ये सब क्रियायें प्रसन्नचित्त होकर करनी चाहियेइमा उक्ताः क्रियाः कार्याः सकलायोगिभिमुदा। श्रावकाच यथायोग्यं जघन्यमध्यमोत्तमः ।। अर्थ-ये सब ऊपर लिखी हुई क्रियाएं मुनियों को प्रसन्नचित्त होकर करनी चाहिये तथा जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट श्रावकों को यथा योग्य रीति से ये क्रियाएं करनी चाहिये !!४२।। प्राचार्य यादि अंर मुनियों के लिये कृतिकर्म करना चाहियेक्षमाविलक्षणयुक्तारत्नत्रयविभूषिताः । निममानिरहंकारा अनालस्या जितेन्द्रियाः ॥४३॥ वीक्षया लघवो रक्षा विरागा निथिनः । धर्मशीला: सुसवेगा विचार चतुराभुवि ॥१४४।। इत्याविगुणासम्पना मुनयों ये शिवाप्तये। प्राचार्याधि वरिष्ठानां कुवैतु कृतिकर्म ते ॥६४५।। अर्थ- जो मुनि उत्तम क्षमा प्राधि श्रेष्ठ गुणों से सुशोभित हैं, रत्नवय से विभूषित हैं, मोह रहित हैं अहंकार रहित हैं नालस्य रहित हैं जितेन्द्रिय हैं, दोक्षा की अपेक्षा लघु वा छोटे हैं, चतुर हैं वीतराग हैं, कर्मों को निर्जरा करनेवाले हैं धर्मात्मा हैं, संसार से भयभीत हैं, और विचार करने में पतुर हैं । इसप्रकार अनेक गुरणों से सुशोभित जो मुनि हैं उनको मोक्ष प्राप्त करने के लिये आचार्य आदि अपने से श्रेष्ठ मुनियों के लिये कृतिकर्म करना चाहिये ॥९४३-६४५।। अरहूंत सिद्धका सत्कृति कर्म करना चाहिएपंचकल्याणपूजार्हा महल स्त्रिगन्नुताः । सिद्धाः कांगमुक्ताश्च योग्याः सस्कृतिकर्मणाम् ।। अर्थ-जो पांचों कल्याणकों की पूजाके योग्य हैं और तीनों लोकों के इन्द्र जिनको नमस्कार करते हैं ऐसे भगवान अरहंतदेव तथा समस्त कर्मोसे रहित भगवान सिद्धपरमेष्ठी सत्कृति फर्मके योग्य हैं। भावार्थ--मुनियोंको श्रेष्ठ मुनियोंका कृतिकर्म करना चाहिये । और अरहंत सिखों का सत्कृति कर्म करना चाहिये ॥९४६।। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ( १५४ ) आचार्यों का लक्षण - पंचाचारपरा वक्षाः षद्भूिषिताः । विश्वोपकारचातुर्या प्राचार्याः सर्वबंधिताः ॥ ६४७॥ प्रर्थं जो पांचों आचारों के पालन करने में अत्यन्त चतुर हैं, जो छत्तीस गुणों से सुशोभित हैं, जो समस्त जीवों का उपकार करने में चतुर है और सब मुनि जिनको नमस्कार करते हैं उनको प्राचार्य कहते हैं ।।६४७।। मुलाचार प्रदीप ] [ तृतीय अधिकार उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरूप महाभूषा पूर्वान्पिारगाः । उपाध्याया महान्तो ये श्रुतपाठनतत्पराः ||६४८ ॥ अर्थ - जो रत्नत्रय से प्रत्यंत सुशोभित हैं, जो अंग पूर्वरूपी महासागरके पारगामी हैं, और जो शास्त्रों के पठन-पाठनमें सदा तत्पर रहते हैं ऐसे महा साधुओं को उपाध्याय कहते हैं ॥६४८ ॥ प्र तथा स्थविर का लक्ष- प्रवर्तकाः स्वसंघानां योगक्षेमविधायितः । मर्याववेशका ये च स्थविराश्चिरदीक्षिताः ॥४६॥ अर्थ --जो अपने संघ में योग क्षेम करनेवाले हैं उनको प्रवर्तक कहते हैं तथा जो एक देश मर्यादाको पालन करने बतलानेवाले चिरकालके दीक्षित हैं उनको स्थविर कहते हैं ||४|| वारों प्रकार के मुनि जगत्वंद्य होते हैं- चत्वारस्ते जग द्या योग्या भवन्ति सूतले । विनयस्य मुनीनां च सर्वेषां कृतिकर्मणाम् ||६५०|| अर्थ - ये जगतबंध चारों प्रकार के मुनि इस संसार में अन्य मुनियों की विनय के और समस्त मुनियों के कृतिकमं के योग्य होते हैं ॥५०॥ कौन वंद्य नहीं है तथा किनके लिए कृतिकर्म अनावश्यक हैtecarररणा मंद संवेगा द्रव्यलगिनः । द्विधासंगातसंसक्ताः शठाः पंडितमानिनः । ५१ ।। नरेन्द्र मातृ पित्रार्थ दीक्षा विद्याविदापिनः । गुरवश्च क्रियाहीनाः सर्वे पर डिलिगिनः ॥५२॥ रागिरणी विरताविषये कुदेवा भववर्तिनः । एते सत्तामगंधा यतोऽयोग्याः कृतिकर्मणाम् ।।६५३ || अर्थ - जिनका प्राचरण अत्यन्त शिथिल है, जिनका संवेग मंद है, जो द्रव्य लिंगो हैं, बाह्याभ्यंतर परिग्रह धारण करने के कारण जो धातंध्यानमें लीन रहते हैं, जो मूर्ख हैं, अपने को पण्डित मानते हैं, जो राजा था माता-पिताके कहने से दीक्षा वा Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( १५५) [तृतीय अधिकार विद्या देते हैं, जो गुरु क्रियाहीन हैं, जो जो पाखंडी है, रागो हैं, व्रतहीन हैं, जो जो संसार में परिभ्रमण करनेवाले कुदेष हैं वे सब सज्जनों को वंदना करने के अयोग्य हैं तथा कृतिकर्म करने के अयोग्य हैं। उन्हें न वंदना करनी चाहिये और न उनके लिये कृतिकर्म करना चाहिये ॥६५१-६५३॥ पार्श्वस्थ के भेद तथा उनकी अवंद्यतापार्षस्थाश्व कुशीला हि संसक्ता येषधारिणः । तमापगतसंशाश्च मगचारित्रनामकाः ||६५४|| एते पंचवपाश्स्था न बंधाः संयतः क्वचित् । अमीषा लक्षणं किंनियामारंब वेऽत्र च ६५५|| अर्थ-जो मुनि पार्श्वस्थ हैं, कुशील हैं, वेषधारी संसक्त हैं, अपगत संज्ञक हैं और मगचारित्री हैं ये सब पार्श्वस्थ कहलाते हैं । मुनियों को ऐसे पावस्थों को वंदना कभी नहीं करनी चाहिये । प्रागे मैं संक्षेप से इन पार्श्वस्थों का थोड़ा सा लक्षण और निध आचरण कहता हूं ।।६५४-६५५।। का लक्षणवसनिप्रतिबद्धा घे बहुमोहाः कुमार्गगाः । संगोपकररणाकोनांकारकाः शुद्धिवरगाः ||६५६॥ दूरस्थाः संयतेभ्यो दुष्टाऽसंयतादि सेविनः । अजिताक्षकषायाश्च द्रलिंगधरा भुषि ६५७|| गुणेभ्योपविदाविभ्मः पार्थे तिष्ठन्तियोगिनाम् । ते पावस्था जिनः प्रोक्ताः स्तुतिनुत्यादि जिताः ।।६५८|| अर्थ-जो सदा वसतिकामें निवास करते हैं, जो अत्यन्त मोही हैं कुमार्गगामी हैं, परिग्रह और उपकरण आदि को उत्पन्न करनेवाले हैं, जो शुद्धता से दूर रहते हैं, संयमियोंसे दूर रहते हैं. दुष्ट असंयमियों की सेवा करते हैं जो न तो इंद्रियों को जोतते हैं और न कषायों को जीतते हैं जो संसार में केवल द्रष्य लिंगको धारण करते हैं, जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान आधि गुणों के लिये मुनियों के पास रहते हैं उनको भगवान जिनेन्द्रदेव पार्श्वस्थ मुनि कहते हैं ऐसे मुनि स्तुति वा नमस्कार प्रावि सबसे रहित होते हैं ।।९५६-६५८॥ कुशील मुनि का स्वरूपशीलं च कुत्सितं येषां नियमाचरणं सताम् । स्वभावो पा कुशीलास्ते क्रोधादिप्रस्तमानसाः ॥ ____ अर्थ-जिनका शील भी कुत्सित है, जिनके आचरण भी निथ हैं, जिनका स्वभाव भी निच है और जिनका मन क्रोधारिक से भरा हुआ है उनको कुशील कहते Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप [ सृतीय अधिकार हैं ॥६५॥ इन्हीं का पुनः विवेचनवतशीलगुणहीना प्रयशः करणे भुवि । कुशलाः साधुसंगाना कुशीला उदिताः खसाः ॥६६॥ अर्थ-ये कुशील मुनि व्रत शोल और गुणों से रहित होते हैं, साधु और संघ का अपयश करने में जो संसार भरमें कुशल होते हैं तथा जो दुष्ट होते हैं ऐसे मुनियों को कुशील कहते हैं ।।६६०॥ संसक्त मुनियों का स्वरूपप्रसक्ता सुधियोनिद्या पर्सयतगुणेषुये ये । समाहाराविगतमा च पंद्यज्योतिषकारिणः ॥१६॥ राजादिसेषनो मूर्खा मंत्रतंत्रावितत्पराः । संसक्तास्ते बुधः प्रोक्ता प्रतवेषाचलंपटा: ॥६६२।। अर्थ-जो मुनि चारित्र पालन करने में असमर्थ हैं, विपरीत बुद्धिको धारण करनेवाले हैं, असंयमियों में भी निंद्य हैं, जो आहाराविक की लालसा से ही, वैद्यक वा ज्योतिष का व्यापार करते हैं, राजाविकों की जो सेवा करते हैं, जो मूर्ख हैं, मंत्र तंत्र करने में तत्पर हैं, और जो लंपटी हैं ऐसे मेष धारण करनेवाले मुनियों को बुद्धिमान लोग संसक्त मुनि कहते हैं ॥६६१-६६२।। अपगत संज्ञक मुनि कौन होते हैं ? विनष्टाः प्रगताः संज्ञाः सम्यग्ज्ञानादिजाः पराः । येषां ते लिंगनोप्रापपगतसंज्ञा भवन्तिभो ।। अर्थ-जिनकी सम्यम्झामादिक संज्ञा सब नष्ट हो गई हैं चली गई है ऐसे भेषधारी मुनियों को अपगत संझक कहते हैं ।।९६३॥ मृगचारित्र मुनि कौन है ? जिनवाक्यमजानाना भ्रष्टा: चारित्रमिताः । सांसारिकसुखासक्ताः करणालसमानसाः ।। भूगस्पेव चारित्रं चाचरणं स्वेच्छया भुवि । येषां ते मृगचारित्रा भवेयुः पापकारिणः ॥६६५:। अर्थ-जो भगवान जिनेन्द्र देव के वाक्यों को समझते ही नहीं जो भ्रष्ट हैं, घारिन से रहित हैं, संसार के विषयजन्य सुखों में लीन रहते हैं, जिनका मन चारित्रके पालन करने में आलसी रहता है जो इस संसारमें हिरणों के समान अपनी इच्छानुसार चारित्र वा आचरणों को पालन करते हैं उन पापियों को मृगचारित्र नामके मुनि कहते हैं ।।९६४-६६५॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १५७ ) [ तृतीय अधिकार उक्त पांचों प्रकार के मुनि अवंद्य हैस्वच्छवचारिणो जममार्गदूषणदायिनः । पक्रवाचार्योपदेशांश्वकाकिमो तिजिताः ।।१६।। वर्शनशान चारित्र तपेभ्यो विमपाच तात् । दूरीमूताश्च पावस्था एते पंचव दुर्भगरः ||६६७॥ छिप्राविप्रेक्षिरणोपा गुरिणयोगिसता सदा । अयंद्याः सर्वथामिद्या अयोग्या कृतिकर्मणाम् ।।६६८।। अर्थ-ये ऊपर लिखे पांचों प्रकार के मुनि स्वच्छन्दचारी होते हैं, जैन धर्ममें दोष लगाने वाले होते हैं, प्राचार्योके उपदेश को छोड़कर एकाकी रहते हैं, धैर्गसे सदा रहित होते हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, सम्यक्तप विनय और श्रुतनानसे सर्वथा दूर रहते हैं, भाग्यहीन होसे हैं तथा गुणी मुनि और सज्जनों के दोष देखने में ही निपुण होते हैं छिद्रान्वेषी होते हैं । इसीलिये ये अशंदनीय होते हैं सर्वथा निच होते हैं और कृतिकर्म के अयोग्य होते हैं ॥६६६-६६८॥ ___ किसी भी लोभसे सक्त मुनियों की वंदना न करनी चाहिएएषां पूर्योदितानां च जातु कार्या न वंदमा । विनयाद्या न शास्त्रादिलाभाभीत्यादिभिर्बुधः ॥ ___अर्थ-बुद्धिमान पुरुषों को किसी शास्त्र प्रादि के लोभसे या किसी भयसे भी ऊपर कहे हए पार्श्वस्थ आदि मुनियोंकी अंदना कभी नहीं करनी चाहिये और न इनकी विनय करनी चाहिये ।।६६६॥ उक्त मुनियों को बंदना करने से रत्नत्रय को हानिअमीषांभ्रष्टचताना ये कुर्वन्ति स्वकारणात् । विनमावि तुतिस्तेषांव शेधिनिश्चयः कथम् ॥ अर्थ-जो पुरुष अपने किसी भी प्रयोजन से भ्रष्ट चारित को धारण करने चाले इन पास्थिोंकी विनय करता है वा इनको बना करता है उनके रत्नत्रय और श्रद्धा का निश्चय कभी नहीं हो सकता अर्थात् कभी रत्नत्रय नहीं हो सकता ॥१७॥ सज्जनों की हानियतः पलायते नूनं सम्यक्त्वं सवगुणः समम् । ढोकन्ते दोषामिध्यात्वा नोवसंगनुते सताम् ॥ ___ अर्थ-इसका भी कारण यह है कि नीच लोगों के संसर्ग से वा उनको नमस्कार करने से सज्जनों का समस्त श्रेष्ट गुणों के साथ सम्यग्दर्शन दूर भाग जाता है और मिथ्यात्व प्रादि दोष सब उन सज्जनों में प्रा मिलते हैं । ७१॥ यतों को जड़ मूलसे गिराने वाला हैमत्वेति जातु कार्यो न तेषां संगोयकोतिहत् । वतमूलहरो निद्यः सद्भिः शास्त्रादि लोभतः ।। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप (१५८ ) [ तृतीय अधिकार अर्थ--यही समझकर सज्जन पुरुषों को किसी शास्त्र आदि के लोभसे भी इन भ्रष्ट मुनियों का संसर्ग नहीं रखना चाहिये क्योंकि इनका संसर्ग अपकीति करने वाला है, व्रतों को जड़ मूलसे हरण करनेवाला है और निदनीय है ।।६७२॥ पुष्प-माला का दृष्टांतपुष्पमालाहंतो यद्वरसंपविद्यतां ब्रजेत् । अस्पर्शता व लोकेहि मृतकस्य न संशयः ।।६७३|| तद्वन्महात्मनां संगात्पूच्यतां यांति संयताः । नीचात्मनामिहामुन्न नियतां च पवेपदे ॥१४॥ अर्थ- देखो जिस प्रकार भगवान अरहंतदेवके संसर्गसे पुष्पमाला भी गंदनीय गिनी जाती है और मृत पुरुष के (मुर्दा के) संसर्ग से वही पुष्पमाला अस्पृश्य छुने अधोमा हानी झाली है उ सार संयमी सग भी महात्माओं के संसर्ग से पूज्यताको प्राप्त होते हैं और नीचों के संसर्ग से इस लोक और परलोक में पद-पद पर निंदनीय हो जाते हैं । इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है ।।९७३-६७४॥ संसर्ग के कारण गुण मौर दोष-- ययापदावियोगेन सुगंधं शीतल जलम् । भाजनानलसंपत्सितसं जायसराम् ||१७५|| सथानोसमसंगेनोत्तमोगी तद्गुणः समम् । भवेनीचप्रसंगेन नीचश्चतद्गुणः सह ।।१७६।। अर्थ- देखो कमल प्रादि के संयोग से जल सुगंधित और शीतल हो जाता है तथा बर्तन और अग्निके संसर्गसे वही जल अत्यन्त गर्म हो जाता है । उसी प्रकार यह पुरुष भी उत्तम पुरुषों के संसर्ग से उनके उत्तम गुणों के साथ-साथ उत्तम बन जाता है और नीच पुरुषों के संसर्ग से उनके नीच गुणों के साथ-साथ नोच हो जाता है। १९७५-६७६॥ साहकार भो खोटी संगति से चोर कहलाता हैप्रचौरमौर संसर्गाचमा चौरोत्र कथ्यते । साधुश्चासाधुसंसर्गावसाघुर्नान्यथा तथा ॥९७७॥ अर्थ--जिस प्रकार कोई साहूकार भी चोर के संसर्ग से चोर कहलाता है। उसी प्रकार साधु पुरुष भी असाधुओं के संसर्ग से असाधु ही कहलाता है इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है ।।६७७॥ निगुणी भी गुणी पुरुष की मंगति से गुणवान् बन जाता हैप्रसाधुः प्रोभ्यते साधुर्यथात्र साधुसेवया । निगुरोपि तथा लोकेगुणी च गुणिसेवया ॥६॥ अर्थ-इस संसार में जिस प्रकार असाधु पुरुष भी साधु की सेवा करने से Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] (१५६) [ तृतीय अधिकार साधु कहलाते हैं उसीप्रकार निर्गुणी पुरुष भी गुणी पुरुषों की सेवा करने से इस लोक में गुणी ही कहलाते हैं ॥१७॥ किमन्न बहुनोक्तेन गुणांश्चयोषांश्च देहिमाम् । संसर्गजनितान् मन्ये सर्वान् बुढचा न मान्यथा ।। ___ अर्थ-बहल कहने से क्या थोड़े से में इतना समझ लेना चाहिये कि जीवोंके जितने गुण वा दोष हैं वे सब संसर्गजन्य ही माने जाते हैं । न तो वे गुण दोष बुद्धिसे उत्पन्न होते हैं और न किसी अन्य प्रकार से उत्पन्न होते हैं ॥९७६। नी व पुरुषों की संगति कभी नहीं करनी चाहिये--- विज्ञायेश्युत्तमानां च संगमुक्त्वा गुणाधिभिः । क्वचित्संगो न कर्तव्यो नोचानां कार्यकोटिषु ।। __ अर्थ-यही समझकर गुरण चाहनेवाले पुरुषों को करोड़ों कार्य होनेपर भी उत्तम पुरुषोंके संसर्गको छोड़कर कभी भी नीच पुरुषोंका संसर्ग नहीं करना चाहिये ।।६०॥ आदर्श मुनिराज की भक्ति करना चाहियेमहानससमित्याय : कलितान धर्मभूषितान् । बाह्यान्तयनिमुकाम युक्तान् सगुणसम्पदा ॥ मुमुक्षून श्रमणानित्यं ध्यानाध्ययनतत्परान् । वंदस्व परया भक्रया स्वं मेषाषिन् शियाप्तये ।। अर्थ- इसलिये हे बुद्धिमान् ! जो मुनि महाव्रत और समिति आदि से सुशोभित हैं, धर्मसे विभूषित हैं, बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहों से रहित हैं, श्रेष्ठ गुणरूपी संपदा से सुशोभित हैं जो ध्यान और अध्ययन करने में सदा तत्पर रहते हैं और मोक्ष की इच्छा करनेवाले हैं. ऐसे मुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये परम भक्ति पूर्वक गंदना कर ।।६८१-६६२।। प्रारमध्यान में लीन मुनि ही संसार में वंदनीय हैं-- सम्यग्बुजानधारित्रतपोविनय भूषणः । भूषिता निर्ममानित्यंसर्वांगादिवस्तुषु ।।१८३।। सत्ता गुणपराणां च ये पक्षागुणवाविनः । प्रात्मध्यानरतास्तेत्र वंदनीया न बापरे ! __ अर्थ --जो मुनि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्वारिन तपविनय आदि आभूषणों से सुशोभित हैं, जो अपने शरीर आदि पदार्थों में भी मोह रहित हैं, जो गुणों को धारण करनेवाले सज्जनों के गुण वर्णन करने में निपुण हैं और जो आत्मध्यानमें लोन हैं ऐसे मुनि हो इस संसार में वंदनीय है अन्य नहीं ॥६३-६८४॥ घ्यान अध्ययन से रहित मुनि को नमस्कारादि नहीं करना चाहिएकेनधि तुना ध्याकुलचिसा मुनयोप्यहो । प्रमता निद्रिता: सुप्ता विफयाविरताशयाः ||६| Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १६०) [ तृतीय अधिकार प्राहारं यदि कुर्वाणा नोहार मा परान्मुक्षा।। नाही सतां नमस्कारे ध्यानाध्यपनवनिताः ।। __ अर्थ-जिन मुनियों का चित्त किसी भी कारणसे व्याकुल है, जो प्रमादरी हैं, निद्रित हैं, सोए हुए हैं, विकथा प्रादि करने में लीन हैं, जो आहार वा नीहार कर रहे हैं अथवा जो परान्मख हैं और जो ध्यान अध्ययनसे रहित हैं ऐसे मुनि सज्जन पुरुषों को कभी नमस्कार करने योग्य नहीं होते ।। ८५-६८६॥ मैं आपको वंदना करना चाहता है (ग्रासन शुद्ध) इसप्रकार सूचित करना चाहिएपर्यकाघासनस्था ये शुभध्यामपरायणाः । गुर वः शांतरूपाः शुद्धाचार्यादयोखिलाः ॥१७॥ तेभ्य: स्वस्यान्तरे स्थित्वा हस्तमात्रेमुमुक्षयः । प्रतिलेख्य घरापादगुहादोश्च प्रवंदमाम् ।।१८॥ अर्थ-जो मुनि पर्यकासन वा अन्य किसी आसन से विराजमान हैं जो गुरु शुभध्यान में तत्पर हैं और अत्यन्त शांत हैं ऐसे शुद्ध प्राचार्य उपाध्याय वा साधु है उनसे एक हाथ दूर बैठकर तथा पृथ्वी, पाद, गुह्य, इंद्रिय प्रादि का प्रतिलेखन कर (पीछीसे शुद्ध कर) "मैं आपके लिये गंदना करना चाहता हूं" इसप्रकार उनको सूचित कर मोक्ष की इच्छा करनेवाले मुनियोंको उनकी बंदना करनी चाहिये सथा मोक्ष प्राप्त करने के लिये उनका कृतिकर्म करना चाहिये ।।६८७-६८८॥ कल्याण करने वाली वंदना करनी माहिएभवद्भ्यः कर्तुमिच्छाम इति विनाय संयताः । कुर्वतु पंदतां तेषां कृतिकारिणमुक्तये ||६|| मायागर्वा विदूरस्थैः शुद्धभावरनुढतैः । जनर्याजः सुसंवेगं कृतिकर्मविषायिनाम् ।। प्राचार्योचं जंगबंध स्तयोग्यमधुरोक्तिभिः। बंदनाभ्युपगंसध्या स्वान्ययो शुभकारिणी ॥१०॥ अर्थ-जो आचार्यादिक माया अहंकार प्रादि से रहित हैं, शुद्ध भावों को धारण करनेवाले हैं, उद्धततासे रहित हैं, संवेगको उत्पन्न करनेवाले हैं और जगतबंध है ऐसे आचार्य उपाध्याय और श्रेष्ठ साधुओं को योग्य और मधुर वचन कहकर कृति कर्म करने वालों की वह अपना और दूसरों का कल्याण करनेवाली बंदना स्थोकार . करनी चाहिये 1168-६६०॥ मुनियों को गुरु वंदना कत आवश्यक हैप्रश्ने चालोचना काले स्वापराधे सुसंयतः । गुरूणां वंदना कार्यास्वाध्यायावश्यकादिषु ||६| ____ अर्थ-किसी प्रश्नके पूछने पर, आलोचना करते समय, अपना कोई अपराध हो जानेएर और स्वाध्याय आदि आवश्यक कायों के करते समय मुनियों को अपने गुरु की वंदना करनी चाहिये ॥६६१॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप [ तृतीय अधिकार शिरोनति के पूर्व कर्म आवश्यक-- एककरिमन् सनत्सर्गे मूनहि वनती पृथक् । पापा द्वादश स्थुश्चानुःशिरोनतयो या IEE२|| अर्थ--प्रत्येक कायोत्सर्ग में प्रादि अंत में दो नमस्कार, बारह आवतं और चारों दिशाओं में चार प्रणाम वा शिरोनति करनी चाहिये ।।६६२॥ १२ आवर्ती का क्रम तथा चारों दिशाओं में शुभ प्ररणामचतुदिक्षु च चत्वारःप्रणामा भ्रमणेशुभाः । एककस्मिन् बुध या पावर्ता द्वादशवहि ।।६३॥ अर्थ-विद्वानों को एक एक प्रदक्षिणा में चारों दिशाओं में चार शुभ प्रणाम फरने चाहिये और बारह आवर्त करना चाहिये ॥६६३।। शुभ भावनाओं को करनेवाला कृतिकर्म करेंइत्थंचसकसंसारं कृतिकर्मशुभावहम् । मनोवाक्कायसंयुद्ध प्रसार्योभयभूषितम् ॥१४॥ द्विविषस्थानसंयुक्त मातीतं सुयोगिनः । दोषातिगं ययाजात कुर्वनुविनवादिभिः IItem अर्थ-इसप्रकार समस्त दोषोंसे रहित, शुभ भावनाओं को धारण करनेवाला, सारभूत यह कृतिकर्म मुनियों को मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक, शब्द अर्थ और शब्दार्थ से विभूषित होकर, तथा मद रहित होकर और दोनों प्रकार के स्थानों से सुशोभित होकर विनयादिक के साथ यथार्थ रोतिसे करना चाहिये ६४-६६५॥ वंदना के ३२ दोषदोषश्चानादृतः स्तम्धः प्रविष्ठः परिपीडितः । दोलापतास्यदोषोकुशितः कच्छपरिगित: ६६६|| __ मत्स्योद्वतॊ मनोदुष्टोवेदिकायधएषहि । भयाभिधो विभ्यदेष ऋद्विगौरवगौरयो MEIN स्तेनिसः प्रतिनीताख्यः प्रदुष्टस्तजिताभिषः । शग्दोहोलिनदोषस्त्रिचलितः कुचिताहायः ।। दष्टोदृष्टाभिधः संघकरमोचनसंज्ञकः । मालम्बास्योप्पमालब्धो हीन उत्तरचलिक: INREEN मूकाल्यो बर्दुरोदोष तपा च सुलुतात्यक: वंचमाया इमे बोषास्तयाण्याद्वात्रिंशदेवहि ॥१०००॥ अर्थ-इस वंदना के बत्तीस दोष हैं और वे ये हैं-अनादृत, स्तब्ध, प्रविष्ट, परिपीडित, बोलायित, अंकुशित, कच्छपारंगत, मत्स्योर्त, मनोदुष्ट, वेविकावद्ध, भय, विदोष, ऋद्धिगौरव, गौरब, स्तेनित, प्रतिनोत, दुष्टदोष, तजित, शब्द, होलित, विधलित, कुचित, वृष्ट, अवृष्ट, संघकर, मोचन, लब्ध, अनालन्ध, होन, उत्तर, चूलिक, मूक, दर्दुर और चुलुलित । बंदना के ये मत्तीस दोष हैं, वंदना करते समय इन सबका त्याग कर देना चाहिये ॥६६६-१०००। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ] ( १६२ ) अनाहत नामका दोष श्रादरेण विना यच्च शैथिल्येनप्रमादिभिः क्रियक्षेत्र क्रियाकर्म दोषः सोमावृतालयः ।। १००१ ।। अर्थ - आदर के बिना शिथिलता पूर्वक प्रमोद के साथ क्रियाकर्म करना श्रनावृत नामका दोष है ।। १००१ || [ तृतीय अधिका स्तब्ध दोष विद्यादिपर्वेश] प्रोद्धता शक्यः । विधोयते क्रियाकर्म यस्तब्धदोष एव सः ॥१००२ ॥ अर्थ- श्रुतज्ञान वा विद्या आदि के श्रहंकारसे उद्धल हुए मुनियों के द्वारा जो क्रियाकर्म किया जाता है उसको स्तब्ध दोष कहते हैं ।। १००२|| प्रविष्ट दोष त्यसोत्ययः पंचानां परमेष्ठिनाम् । क्रियाकर्म विषलेसः प्रविष्टदोषमाप्नुयात् ॥१००३ ।। अर्थ- जो पांचों परमेष्ठियों के अत्यन्त निकट होकर क्रियाकर्म वा वंदना करता है उसके प्रविष्ट नामका दोष प्राप्त होता है ॥३॥ परिपीड़ित दोष- करजानुप्रवेश संस्पृश्य परिपीडघवा । करोति वंदना तस्य दोषास्या परिपीडितः || ४ || अर्थ - जो अपने हाथसे जंघा को स्पर्श करता हुआ या अंधाको दबाता हुआ वंदना करता है उसको परिपीड़ित नामका दोष लगता है ||४|| वोलायित दोष यः कृत्वा अलमात्मानं वोलामिवात्समंदमाम् । संशयित्याथवा कुर्यात्सदोलायितदोषभाक् ।।५।। अर्थ --- जो मुनि लाके समान श्रात्माको चलायमान करता हुआ अथवा संशय में पड़कर वंदना करता है उसको दोलायित नामका दोष लगता है ||५|| अंकुशित नामक दोष कुरवांकुशमिवात्मीये ललाटॅगुष्टमेवयः । भजते वदनां तस्य दोषोंकुशित नामकः || ६ || अर्थ- जो मुनि अंकुश के समान अपने ललाट पर अंगूठे को रखकर वंदना करता है उसको अंकुशित नामका दोष प्रगट होता है ॥ ६ ॥ परिगत नामक दोष विधायकस्यैव कटिभागेन वेष्ठितम् । कुरुते वंदनांम सः भटककर गितम् ॥७॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] [ तृतीय अधिकार अर्थ-जो अपनी कमर से कमछप के समान चेष्टा करता हआ बंदना करता है उसके कच्छपरिगत नामका दोष लगता है ॥७॥ मत्स्योद्वत्त दोषमत्स्यस्यैव कटीभारोहतनं स विधाय या बंदना वा द्विपार्वेन मत्स्योद्वतः स उच्यते ॥८॥ अर्थ--जो मछलीके समान अपनी कमरको ऊंची निकालकर वंदना करता है अथवा जो दोनों बगलोंसे वंदना करता है उसको मत्स्योद्वर्त नामका दोष लगता है ।।६।। __ मनोदुष्ट नामका दोषदुष्टो भूत्वा हृदाचार्यादीनां क्लेशमुतेन वा विषयः क्रियाकर्म समनोदुष्टदोषभाक् ॥६॥ अर्थ-जो मुनि आचार्यों को क्लेश पहुंचा कर वा प्राचार्यों के प्रति अपने मनमें कुछ दुष्टता धारण कर बंदना करता है उसको मनोदष्ट नामका दोष लगता है ॥६॥ वेदिकावद्ध दोषवेदिकाकारहस्ताम्यां वध्वा जामुवयंस्वयम् । बंबनाकरगं यत्सर्वेविकावद्धसंशयः ॥१०।। अर्थ-जो बेबी के आकारके अपने दोनों हाथों से दोनों जंघाओं को बांधकर वंदना करता है उसको वेदिकावड नामका दोष लगता है ॥१०॥ भय नामक दोषमरमादिभयभीतो यः भवत्रस्तोभयेन था। करोति वंदना सस्य भयवोधोत्रजायते ॥११॥ अर्थ-जो मृत्यु प्रादि के भयसे भयभीत होकर अथवा किसी भयसे त्रस्त होकर वंदना करता है उसको भय नामका दोष लगता है ॥११॥ विभ्य नामक दोषपरमार्थातिगामस्य गुर्वाविम्योत्रविभ्यतः । बनाकरणं यत्सविम्मदोषोऽशुभप्रदः ॥१२॥ अर्थ-जो अज्ञानी मुनि परमार्थ को न जानसा हुआ गुरुसे डर कर वंदना करता है उसके अशुभ उत्पन्न करनेवाला विभ्य नामका दोष लगता है ॥१२॥ ऋद्धि गौरव दोष--- चातुर्वणंसुसंधेभ्योभक्ति कोत्यादिहेतवे । पंदना यो विधसे स ऋद्धिगौरवदोषवान् ॥१३॥ अर्थ-जो मुनि चारों प्रकारके संघसे भक्ति वा कोति बाहने के लिये वंदना Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ तृतीय श्रधिकाय मूलाचार प्रदीप ] ( १६४ ) करता है उसको ऋद्धि गौरव नामका दोष लगता है ||१३|| गौरव नामका दोष श्राविष्कृत्य समाहात्म्यमासनायें । सुखाय वा कुर्यायो वन तस्यदोषो गौरवसंज्ञकः ॥ १४ ॥ अर्थ - जो मुनि किसी विशेष प्रासन आदि के द्वारा अपना माहात्म्य प्रगट कर वंदना करता है अथवा जो अपने किसी सुखके लिये गंदना करता है उसको गौरव नामका दोष लगता है ।। १४ । । स्तेनित नामक दोष --- चौबुद्ध चास्वर्वादीनां करोति यः बंदनाम् । चौरयिश्वास्णमन्येषां तस्याधः स्तेनिताभिधः ॥ ११५ ॥ अर्थ- जो मुनि चोर की बुद्धि रखकर अन्य मुनियों से छिपाकर गुरु प्रादि की वंदना करता है उसके स्तेनित नामका दोष लगता है ।। १५॥ प्रतिनीत दोष प्रतिकूलत्रयो भूत्वा देवगुर्वादियोगिनाम | वंदना कुरुते तस्य प्रतिनीतायोमलः ||१६|| अर्थ - जो मुनि देव शास्त्र गुरुसे प्रतिकूल होकर वंदना करता है उसके प्रतिनीत नामका दोष लगता है ॥१६॥ दुष्ट नामक दोष विघाय कलहायन्यः सह क्षन्तव्यमाशु यः । अत्मा वंदनां कुर्यात्सबुष्टदोषमा'नुयात् ॥१७॥ अर्थ – जो मुनि किसी से कलह करके बिना उससे क्षमा कराये वंदना करता है उसके ष्ट नामका दोष लगता है ॥ १७ ॥ जिस नामक दोष - श्रन्यान्यस्तजयन्तंगुल्या वा गुर्वादितजितः । श्रयते वंदनां तस्यवोषस्तजितसंज्ञकः ।। १८ ।। अर्थ -- जो मुनि दूसरों को तर्जना करता हुआ गंदना करता है अथवा गुरुके द्वारा तर्जना किया हुआ वंदना करता है उसको तजित नामका दोष लगता है ।। १८ ।। शब्द नामक दोष वारयः क्रियाकर्मनिजेच्छया । करोति तस्य जायेत शब्ददोषोध कारकः ॥१३॥ 1 अर्थ - जो मुनि मौन को छोड़कर अपनी इच्छानुसार बोलता हुआ क्रियाकर्म (नंदना) करता है उसको पाप उत्पन्न करनेवाला शब्द नामका दोष लगता है ॥ १६ ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाचार प्रदोष [सृतीय अधिकार हीलित नामक दोषकृत्वापरिभवं वाक्येनाचार्यादिमहात्मनाम् । क्रियाकर्म विधत्ते यः सः स्यादोलितदोषभाक ।।२०।। अर्थ-जो मुनि किसी वाक्य आदि के द्वारा आचार्य प्रादि महापुरुषों का तिरस्कार कर नंदना करता है उसको होलित नामका दोष लगता है ॥२०॥ त्रिवलित दोषकृत्वाविलितं कटयादौ सलाटेववाश्रयः । विदधाति कियाँ तस्यदोषस्त्रिवलिताद्धयः ॥२१॥ अर्थ-जो मुनि अपनी कमर में त्रिवली डालकर अथवा ललाट पर वियत्ती डालकर वंदना करता है उसके त्रिवलित नामका बोष होता है ॥२१॥ कुचित नामक दोषहस्ताभ्यां स्वशिरः स्पर्शन जानुमध्येविषाय वा यः करोतिक्रियाकर्म तस्य दोषोजकु चिलः ॥२२॥ अर्थ-जो मुनि अपने हाथ से मस्तकको स्पर्श करता हुआ अथवा अपने मस्तक को जंघाओं के बीच में रखकर वंदना करता है उसको कुचित नामका दोष लगता है ॥२२॥ दृष्ट नामक दोषप्राचार्याय श्चचुष्टोयः सम्पककरोतिबदनाम् । चान्यथा वा विशः पश्यन् इष्टदोषोत्र तस्म ॥ अर्थ-आचार्यों वा अन्य किसी के क्षेत्र लेने पर तो जो अच्छी तरह वंदना करता है और किसी के न देण्यने पर सच विशाओं की प्रोर देखता हुआ बंदना करता है उसके दृष्ट नामका दोष लगता है ॥२३॥ __मदृष्ट नामक दोषस्थक्त्वा दृष्टिपंपगोत्राचार्यादीनां च बंबनाम् । करोत्यप्रतिलेख्योगभूमि सो वृष्टिदोषभाः ।।२४।। अर्थ-जो प्राचार्यो की दृष्टि को बचाकर तथा शरीर भूमि प्रादि को बिना प्रतिलेखन किये बंदना करता है उसको अदृष्ट नामका दोष लगता है ।।२४।। संधकर मोचन नामका दोष-अर्थ में (कर) ज्यादा छपा हैसंघस्य करदामार्थ वासंघभक्तिधांचछया । क्रियते यतक्रियाकर्म तत्संघकरमोचनम् ॥२५॥ अर्थ-जो मुनि वंदना को संघका कर समझकर क्रियाकर्म दा गंदना करता है अथवा संघसे भक्ति वाहने की इच्छा से गंदना करता है उसको संधकर मोचन नाम Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । मूलाचार प्रदीप] ( १६६ ) [ तृतीय अधिकार का दोष लगता है ॥२५॥ लब्ध नामका दोषलषोपकरणादि य सानवः सर्वचंदनाम् । कुश्ते मान्यथा सस्य लघदोष: प्रजायते ॥२६॥ अर्थ-जो मुनि किसी उपकरण प्रावि को पाकर प्रानन्द के साथ पूर्ण गंदना करता है तथा उपकरण आदि को न पाने से वंदना नहीं करता उसको लब्ध नामका दोष लगता है ॥२६॥ अनासन्ध नामका दोषयोखोपकरणं लप्स्येहभत्रेतधियामुनिः । विषसे वंदना तस्मदोषोमालधसंशकः ॥२७॥ अर्थ-यहां पर प्राज मुझे कोई उपकरण अवश्य प्राप्त होगा इस प्रकार को बुद्धि रख कर जो मुनि वंदना करता है उसके अनालब्ध नाम का दोष लगता है ॥२७॥ हीन नामक अशुभ दोषपायंकालाहीमां सस्परिणामयिजिताम् । तनोति बंधनां सस्य हीनदोषो शुभोभवेत् ॥२८॥ अर्थ-जो मुनि शब्द अर्थ से रहित, काल से रहित और शुभ परिणामों से रहित वंदना करता है उसके होन नामका अशुभ बोष लगता है ॥२८॥ उत्तरचूलिका दोषबंदना स्तोक कालेन निर्वस्यकार्यसिद्धये । बंबमा भलिकाभूतस्यालोचनात्मकस्य वै ।।२९।। कालेनमहत्ता कृत्वा निर्वर्तनं करोति यः । वंदना स्याच्चतस्योत्तर चूलिकालयोमलः ॥३०॥ अर्थ-जो मुनि अपने कार्य की सिद्धिके लिये बंदना को बहुत थोड़े समय में पूर्ण कर लेता है तथा गंदना की चूलिका भूत जो आलोचना है उसके करने में बहुत समय लगाता है उसको उत्तर चूलिका नामका दोष लगता है ॥२६-३०॥ मूक नामका दोषमूकवरमुखमध्येयो वंदनां वितनोति वा । कुर्वन हस्तायहकार संज्ञां स मूक बोषवान् ।।३१॥ अर्थ-जो मुनि गूगेके समान मुखके भीतर ही भीतर नंदना करता है अथवा हाय आदि के इशारे से अहंकार को सूचित करता हुभा चंदना करता है उसको मूक नामका दोष लगता है ॥३१॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप ] ( १६७ ) [ नृतीय अधिकार दर्दुर दोषस्वशब्देनाभिभूयान्यशब्वान बहद्गलेन वा । वंदना कुश्ते तस्य दोषो वर्तुर नामकः ॥३२॥ अर्थ-जो मनि अपने ऊंचे गले की प्रावाज से दूसरे मुनियों के शब्दों को दबाता हुअा, तिरस्कार करता हुआ गंदना करता है उसके दषुर नामका दोष लगता है ।।३२॥ धुलुलिस दोषस्थित्वकस्मिन् प्रवेशे यः सर्वेषां पंदनांभजेत् । दोवश्थुलुलिसस्तस्यपत्रमादिस्वरेण का ॥३३॥ अर्थ-जो मुनि एक ही प्रदेश में बैठकर सब मनियों को अंदना कर लेता है अथवा जो पंचम स्वर से ऊंचे स्वर से मंदना करता है उसके चुलुलित नामका दोष लगता है ॥३३॥ ऐले दोषः सदा त्याज्या: कृतिकर्म मसाः । द्वात्रिंशत्सकलेन पहावश्मकसद्धये ।।३।। अर्थ- मनियों को अपने छहों आवश्यक शुद्ध रखने के लिये पूर्ण प्रयत्न के साथ इन बत्तीस दोषों का सदा के लिये त्याग कर देना चाहिये क्योंकि ये दोष गंबना में मल उत्पन्न करनेवाले हैं ॥३४॥ अमीषा केनचिद्दोषेण समं कृतिकर्म च । कुर्वन् सर्वभवेनिजराभागी मातुनोमतिः ॥३५॥ अर्थ-जो मुनि इन दोषों में से किसी भी दोष के साथ नंदना करता है यह पूर्ण निर्जरा का भागी कभी नहीं हो सकता ।।३५॥ उपरिलिखित दोप वेदना में मल उत्पन्न करते हैंमत्त्वेत्यमू श्च सदोषान् सम्यकस्ययवासुसंयताः । कुर्वन्तु कृतिकर्माणि सर्वाणि निर्जराप्तये ।।३६।। ___ अर्थ-यही समझकर मुनियों को कर्म की निर्जरा करने के लिये इन समस्त दोषों का त्याग कर कृतिकर्म वा वंदना करनी चाहिये ।।३।। उच्च पद प्राप्त करने के लिये बंदना सदा करना चाहियेनुसुरजिमयतीनां विश्वसम्पतिखानि वरपदजननी वा सद्गुणाराम वृष्टिम् । अत्तुलसुखनिधिसद्वंदना धर्ममाभ्यां प्रभजत शिक्षकामाः सर्वदोपचापाप्त्यै ॥३७॥ अर्थ-यह वंदना नामका आवश्यक मनुष्यवेव और जिनेन्द्रदेव को समस्त सम्पत्तियों की खानि है, इन्द्राविक श्रेष्ठ पदों को देनेवाली है, श्रेष्ठ पुरणरूपी बगीचे के Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रीप तृतीय अधिकार लिये वर्षा के समान है अनुपम सुखों की निधि है और धर्मास्मा लोगों को सक्षा मान्य है इसलिये मोक्षकी इच्छा करने वालों को उच्च पद प्राप्त करने के लिये यह गंदना सदा करते रहना चाहिये ।।३७॥ उपसंहारात्मक मंगलाचरणतीर्थशान् धर्ममूलान त्रिभुवनपतिभिः सेव्यमानाघ्रियमान, सिद्धानन्तातिगान् सद्वर गुणकलिसान मानदेहानदेहान् । सूरीनाचारदक्षान् स्वपरहितकरान् पाठकान मानवान, साधून सर्वाश्चमूलोत्तरगुएजलधीनसंस्सुवेतद्गुणात्मे ॥१०३८।। इति मूलाचार प्रवीपास्ये महान थे भट्टारक श्री सफलफीति विरचते मूलगुरू व्यावन पोपको सामालिकामाला गर्णन नाम जीयोधिकारः। अर्थ-जो तीर्थकर परमदेव धर्मके मूल हैं और तीनों लोकों के समस्त इन्द्र जिनके चरण कमलों को नमस्कार करते हैं ऐसे तीर्थंकरों को मैं उनके गुण प्राप्त करने के लिये ममस्कार करता हूं। जो अनंतसिद्ध सम्यमत्व आदि पाठों श्रेष्ठ गुणों से सुशोभित हैं तथा शाम ही जिनका शरीर है और स्वयं शरीर रहित हैं ऐसे सिद्ध परमेष्ठी को भी मैं उनके गुण प्राप्त करने के लिये नमस्कार करता हूं। जो प्राचार्य पांचों आचारों को पालन करने में चतुर हैं जो उपाध्याय अपना और दूसरों का हित करने वाले हैं, जो साधु ज्ञान और ऋद्धियों से सुशोभित हैं तथा मूलगुण और उत्तरगुण के समुद्र हैं उन सबकी मैं उनके गुण प्राप्त करने के लिये स्तुति करता हूं ॥१०३८।।। इसप्रकार आचार्य सकलकोत्ति विरचित 'मूलाचार-प्रदीप' को भाषा दीका में, मूलगुणों के वर्णन में पांचों इन्द्रियों का निरोध तथा सामायिक स्तुति वंदना का निरूपण करने बाला यह तीसरा अधिकार समाप्त हुआ। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थी धिकारः मंगलाचरण पूर्णाकर्ता ये पंचपरमेष्ठिनः । गुणानामकथयस्तेषां वस्तद्गुणाप्तये ।। १०३६ ।। अर्थ – जो पांचों परमेष्ठी पूर्ण आवश्यकों के करनेवाले हैं और गुणोंके समुद्र हैं उनके गुण प्राप्त करने के लिये मैं उनके चरण कमलों को नमस्कार करता हूं । ।।१०३६॥ प्रतिक्रमण का स्वरूप संक्षेप में प्रवक्ष्ये समासेन व्रतरत्नमलापहाम् । प्रतिकमा नियुक्तिस्वान्येषां मुक्तिसिद्धये ।। १०४०|| अर्थ - अब मैं अपने और दूसरों के मोक्ष की सिद्धि के लिये व्रतरूपी रत्नोंके दोषों को दूर करनेवाले प्रतिक्रमण के स्वरूप को संक्षेप से कहता हूं ।1१०४०॥ व्रतों के दोषों को दूर करनेवाला प्रतिक्रमण होता हैव्यक्षेत्रभिः कृतापराधशोधनम् । स्वनिवागहंगाम्यां सत्क्रिया तत्रमुमुक्षुभिः ॥४१॥ मनोवाक्काययोश्च कृतकारितमाननैः । तत्प्रतिक्रमणं प्रोक्तं व्रतदोषापहं शुभम् ॥४२॥ अर्थ - मोक्षकी इच्छा करनेवाले जो सुनि मन-वचन-काय और कृत कारित अनुमोदनासे द्रव्य क्षेत्र वा भावोंसे उत्पन्न हुए अपराधों को शुद्ध करते हैं अथवा अपनी गर्हा निंदा के द्वारा अपराधों को शुद्ध करते हैं उसको व्रतों के दोषों को दूर करनेवाला शुभ प्रतिक्रमण कहते हैं ।।४१-४२ ।। प्रतिक्रमण के भी ६ भेद हैं नामा स्थापना द्रम्यं क्षेत्रकालो निजाश्चितः । भावोमीषघानिक्षेपाः स्युःप्रतिक्रम में शुभाः ॥ अर्थ - यह प्रतिक्रमण भी द्रव्य क्षेत्र काल नाम स्थापना और अपने श्राश्रित रहनेवाले भावों के द्वारा छह प्रकार का माना जाता है ||४३|| नाम प्रतिक्रमण का स्वरूपशुभाशुभादि नामोध जतातीचारशोधनम् । निदार्थ यत्ससतां नामप्रतिक्रमणमेतत् ॥ ४४ ॥ अर्थ – शुभ वा अशुभ नामों से उत्पन्न हुए अतीचारों को अपनी निंदा आदि Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ चनुर्थ अधिकार मुलाचार प्रदोष ] ( १७० ) के द्वारा शुद्ध करना नाम प्रतिक्रमण कहलाता है ||४४ ॥ स्थापना प्रतिक्रमण का लक्षण - मनोज्ञेतरमूर्ते जातदोषाद्विवर्जनम् । योगैर्यस्थापनाख्यंतत्प्रतिक्रमण मूजितम् ॥ ४५ ॥ अर्थ - मनोज्ञ वा अमनोज्ञ मूर्तिसे उत्पन्न हुए दोषोंको मन-वचन-कायसे त्याग करना स्थापना नामका श्रेष्ठ प्रतिक्रमरण हैं ।। ४५ ।। द्रव्य प्रतिक्रमण का स्वरूप --- सावद्यद्रयरेषाया उत्पन्न दोषवारणम् । त्रिशुद्ध द्यावसतां द्रव्यप्रतिक्रमणमेतत् ॥४६॥ अर्थ- - पापरूप द्रव्योंके सेवन करने से उत्पन्न हुए दोषोंको मन-वचन-कायकी शुद्धता पूर्वक निवारण करना द्रव्य प्रतिक्रमण कहलाता है ||४६ || क्षेत्र प्रतिक्रमण का स्वरूप सरागक्षेत्रवासोत्मातीचारपरिहायनम् । निवाधैर्यत्सदाक्षेत्रप्रतिक्रम रपमेवतत् ॥४७॥ अर्थ- सरागरूप क्षेत्रोंके निवास से उत्पन्न हुए प्रतीचारों को निवादिके द्वारा दूर करना उसको क्षेत्र प्रतिक्रमण कहते हैं ||४७॥ काल प्रतिक्रमण का स्वरूप 'रज्जनोंदिन वर्षादिकालजयतदोषतः । निवृत्तिर्या हृदाकालातिक्रमणमेवतत् ४ अर्थ – रात दिन वर्षा आदि काल जन्य व्रतोंके दोषों को हृदय से निवारण करना काल प्रतिक्रमण कहलाता है ।। ४६ । भाव प्रतिक्रमण का स्वरूप रागदोषाश्रिताद्भावाज्जातस्यातिक्रमस्य या । विरतिः क्रियते भावप्रतिक्रमणमेवतत् ॥ ४६ ॥ अर्थ - रागद्वेषादि के आश्रित रहनेवाले भावोंसे उत्पन्न हुए दोषों को दूर करना भाव प्रतिक्रमण कहलाता है ॥४६॥ उत्तम प्रतिक्रमण का विधान एतः विधनिक्षेपैः सर्वस्वव्रतात्मनाम् । कृतानां कृत्स्नदोषाणां निराकरणमूजितम् ||५० ॥ हुवा च वपुषा बचा निदनैर्हिणादिभिः क्रियते मुनिभियंत्तत्प्रतिक्रमणमद्भ तम् ॥ ५१ ॥ । अर्थ - व्रत करनेवाले समस्त व्रतियों के इन छहों निक्षेपों के द्वारा अनेक दोष उत्पन्न होते हैं मुनि लोग जो मन-वचन-कायसे होनेवाली निंदा गहके द्वारा उन समस्त : Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १७१ } [ धतुर्थ अधिकार दोषों को दूर करते हैं उसको उत्तम प्रतिक्रमण कहते हैं ।।५०-५१।। ___उत्तम प्रतिक्रमण के ७ भेदएक वैसिक रात्रिकर्मर्यापथसंज्ञकम् । पाक्षिकं भाम चातुर्मासिकं दोषक्षयंकरम् ।।५।। सांवत्सरिकमेवोत्तमार्थ संन्याससंभवम् । सप्तति जिमः प्रोक्त प्रतिकमणनुत्तमम् ।।५३|| अर्थ-इस प्रतिक्रमण के सात भेद हैं-एक देवसिक प्रसिक्रमण, दूसरा रात्रिक प्रतिक्रमण, तीसरा ईर्यापथ प्रतिक्रमण, चौथा पाक्षिक प्रतिक्रमण, पांचवां दोषों को क्षय करनेवाला चातुर्मासिक प्रतिक्रमण, छठा सांवत्सरिक प्रतिक्रमण और सातवां उत्तम अर्थको देने वाला सन्यास के समय होनेवाला प्रतिक्रमण । इसप्रकार भगवान जिनेन्द्रदेव ने इस उत्तम प्रतिक्रमण के सात भेद बतलाये हैं ॥५२-५३॥ (१) प्रतिक्रमण जन प्रतिस्परा (1) पनि मितव्य को भेत-- प्रतिकामक प्रात्मा यः प्रतिक्रमणमेवतत् । यरप्रतिकमितव्यतत्त्रयं सर्वेवुधुना ॥५४॥ अर्थ-इस प्रतिक्रमणके करने में प्रात्मा प्रतिक्रामक होता है जो किया जाता है उसको प्रतिक्रमण कहते हैं और जिसका प्रतिक्रमण किया जाता है उसको प्रतिक्रमितव्य कहते हैं । अब आगे इन तीनों का स्वरूप कहते हैं ।।५४॥ प्रतिक्रामक का स्वरूप मुमुक्षुपत्नपारीयः पापभोतो महावती । मनोधाक्कायसंशुद्धो निवागहरेरितत्परः ॥५५॥ द्रव्य माविषः क्षेत्रः कालेभविन सात्मनाम् । प्रसीपारागतस्याशु सनिराकरणोखतः ।।५६॥ निर्मायो निरहंकारों व्रतशुद्धिसमोहक: स प्रतिकामको ज्ञेयः उत्तमोमुनिपुंगवः ॥५॥ अर्थ-जो उत्तम मुनि मोक्ष की इच्छा करनेवाला है, यलाचार से अपनी प्रवृत्ति करता है, जो पापों से भयभीत है, महावती है, जिसका मन-वचन-काय अत्यंत शुद्ध है, जो निदा गहाँ प्रादि करने में तत्पर है, जो अनेक प्रकार के व्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि के द्वारा लगे हुए व्रतों के दोषों को निराकरण करने में सदा तत्पर रहता है, जो छल कपट से रहित है, अहंकार से रहित है और जो व्रतों को शुद्ध रखने की सवा इच्छा करता रहता है ऐसा मुनि प्रतिक्रमण करनेवाला प्रतिक्रामक कहलाता है। ॥५५-५७॥ शुभ प्रतिक्रमण का स्वरूपसर्वथा कृतदोषारणा यतिराकरणं विधा । पश्चात्तपाक्षरोच्चारस्त प्रतिक्रमणं मुभम् ।।५।। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र मूलाचार प्रदीप] ( १७२ ) [ चतुर्थ अधिकार अर्थ-पश्चात्तापके द्वारा तथा अक्षरों का उच्चारण कर जो सर्वथा किए हुए दोषोंका मन-वचन-कायसे निराकरण करना है उसको शुभ प्रतिक्रमण कहते हैं ॥५८।। द्रव्य प्रतिक्रमितव्य का स्वरूप-- सचित्ताचितमित्रं यत्रिधा द्रव्यमनेकधा । षा प्रतिक्रमितव्यतत्सर्व तदोषहायनः ॥५६॥ अर्थ-सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेदसे द्रव्यके तीन भेद हैं अथवा द्रव्यके अनेक मेद हैं वे सब द्रव्य दोष दूर करते समय प्रतिक्रमितव्य कहलाते हैं ।।५६॥ क्षेत्र व काल प्रतिक्रम्य का स्वरूपसौघादिरम्यक्षेत्र कालो दिन निशाविकः । यः प्रतिकमितव्यः स तज्जातीचारशोधनः ॥६॥ अर्थ--राजभवन आवि मनोहर क्षेत्र तथा दिन रात प्रादि काल भी तज्जन्य (क्षेत्र वा कालसे उत्पन्न होनेवाले) अतिचारों को शुद्ध करने के लिये और मोक्ष प्राप्त करने के लिये प्रतिक्रमितव्य कहलाते हैं ॥६॥ मोक्ष प्राप्ति के लिये सदाकाल प्रतिक्रमणकाले कालेयवा नित्यं योगिभित्र तशुद्धये । भो प्रतिक्रमितव्यस्वदोष हान्य च मुक्तये ॥६१।। अर्थ-अथवा मुनियों को अपने दोष दूर करने के लिये और मोक्ष प्राप्त करने के लिये तथा प्रतों को शुद्ध रखने के लिये प्रत्येक समय प्रतिक्रमण करते रहना चाहिये अतएव उनके लिये सदा काल प्रतिक्रमितव्य है ।।६१॥ रागद्वेष अथवा मिथ्यात्व के प्राश्रित भावों का भी त्याग आवश्यक हैरागद्वेषाश्रितो भाचो मिथ्यात्वासंयमादिभारु। कषायबहलोपः प्रतिक्रमितव्यः एव सः ।।६ । अर्थ--जो भाव रागद्वेष के आश्रित है अथवा मिथ्यात्व असंयम के अश्चित है अथवा जो भाव अधिक कषाय विशिष्ट है वह भी प्रतिक्रमितव्य है उसका भी प्रतिक्रमण वा त्याग करना चाहिये ॥६२।। पांचों पाप, सब तरह का असंयम समस्त कषायादि त्याज्य हैंमिथ्यात्वपंचपापानां सर्वस्यासंयमस्य च । कवायारणा न सर्वेषां योगामामशुभात्मनाम् ।।६३।। प्रयत्नेन विधातव्यंप्रतिक्रमरणमंजसा । तज्जातिवातदोषाविनिराकरणशुद्धिभिः ॥६४।। अर्थ-मुनियों को मिथ्यात्व आदि से उत्पन्न होनेवाले दोषों को निराकरण करने और व्रतों को शुद्ध रखने के लिये मिथ्यात्व, पांचों पाप, सब तरह का असंयम, Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप ] ( १७३ ) { चतुर्थ अधिकार समस्त कषाय और समस्त अशुभ योगों का प्रयत्नपूर्वक शीघ्र ही प्रतिक्रमण करना चाहिये ।।६३-६४।। समस्त व्रतों को पालोचनासिद्धभक्त्यादिकं कृत्वा सन्मागियरादिकान् । कृतांजलिपुटः शुद्धो मायायामो विहाय च ।। शिष्यो व्रत विशुसयर्थ गुरुवेशानशालिने । पालोधयेत्समस्तान व्रतातिचारान् यथोड्रयान् ॥६६।। अर्थ-शिष्य मुनियों को पृथ्वी और अपने शरीर को पोछी से शुद्धकर तथा सिद्धभक्ति आदि पढ़कर दोनों हाथ जोड़कर मान तथा माया का त्यागकर अंतःकरणसे शुद्ध होकर प्रत्यंत ज्ञानवान ऐसे अपने गुरु के सामने अपने प्रतों को अत्यंत शुद्ध करने के लिये जैसे-जैसे उत्पन्न हुए हैं उसी तरह समस्त व्रतों के अतिचारों की आलोचना करनी चाहिये ॥६५-६६॥ __ अालोचना के भो ७ भेदप्राय देवसिक राविकमर्यापथनामकम् । पाक्षिकास्यं तथा चातुर्मासिकं ममतापहम् |६७११ सांवत्सरिकमामोत्तमार्थ चामशनोद्भवम् । सप्तमेवमिति प्रोक्त सतामालोचन जिनः ।।६।। अर्थ- भगवान जिनेन्द्र देव ने इस मालोचना के भी सात भेद बतलाये हैंपहली आलोचना देवसिक, दूसरी रात्रिक, तीसरी ईर्यापथ, चौथी पाक्षिक, पांचवों चातुर्मासिक, छठी बोषों को दूर करनेवाली सांवत्सरिक और सातवीं उत्तम अर्म को देनेवाली औपवासिक (उपवास से उत्पन्न होनेवाली) ॥६७-६८॥ बालक के समान गुरु के समक्ष सब पापों की मालोचना-- यद्धि किमित्कृतं कर्मकारितं चानुमोदितम् । वपुषा मनसा वाचा प्रतातिवारगोचरम् ।।६।। प्रकटं संघलोकानां प्राग्नं वा प्रमादनम् । सरसवं बालवापापं त्रिशुद्धघालोचपेशतिः ॥७०।। अर्थ-जिन कर्मों से व्रतों में दोष वा अतिचार लग जाय ऐसे कर्म जो मुनिराज मन-वचन-कायसे करते हैं पा कराते हैं वा अनुमोदना करते हैं, चाहे उन्होंने यह कार्य संघ वा लोगों के सामने किया हो चाहे छिपकर किया हो और चाहे प्रमाद से किया हो वह सब पाप उन मुनियोंको मन-वचन-कायकी शुद्धता पूर्णक चालकके समान गुरुसे कह देना चाहिये और फिर उनकी आलोचना करनी चाहिये ।।६९-७०।। दोषों को शत्रु के समान समझकर उनका निराकरण-- यस्मिन् क्षेत्रे च कालावो ग्यभावाश्रयेस यः । जातो व्रतायतीचारो मायां स्थस्वातदेवासः ।। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनाचार प्रदीप ] ( १७४ ) [ चतुर्थ अधिकार fferer : saeda freा गर्दा शुचादिभिः । गुर्वादिसाक्षिकं दक्ष व्रतोऽरिरिवोत्थितः ।।७२ ।। अर्थ- जिस क्षेत्र में जिस काल में जिन द्रव्यों से और जिन भावों से व्रतों में अतिचार उत्पन्न हुआ है वह सब चतुर मुनियों को छलकपट छोड़कर निंदा गर्हा और शोक के साथ गुरु आदि की साक्षी पूर्वक बड़े प्रयत्न से दूर करना चाहिये तथा उस दोष को तों को नाश करनेवाले शत्रुके समान समझकर उनका निराकरण करना चाहिये ॥१७१-७२।१ भाव प्रतिक्रमण अंतः शुद्धिका कारण है मनसा निवनं स्वस्य गर्हणं गुरुलाक्षिकम् । पश्चाताप शोकेन यदपतनादि च ॥७३१२ क्रियते मुक्तिमार्गस्यैः सतिव्रतायतिक्रमे । प्रतिक्रमणभावाल्यं तदन्यः शुद्धिकारणम् ||७४ || अर्थ - मन से अपनी निंदा करना गर्दा हैं पश्चात्ताप से उत्पन्न हुए शोक से आंसू गिरना श्रादि शोक कहलाता है । मोक्षमार्ग में रहनेवाले मुनियों को वृत्तों में दोप लगने पर गर्हा निंदा वा शोक के द्वारा प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिये । यह भाव प्रतिक्रमण कहलाता है और अंतःकरण की शुद्धि का कारण है ।।७३-७४। किसके व्रतोकी शुद्धि नहीं होती - यः प्रतिक्रमणं सर्व द्रव्यभूतं करोति वा । श्रृणोति सूत्रमात्रेण निधानदि रगः । ७५ ।। परमार्थातिगस्तस्य शुद्धिर्न जायते मनाक् । व्रतानां न च दोषासा हानि र्न निजराशियम् । ७६ || अर्थ- जो मुनि केवल द्रव्य प्रतिक्रमण तो सब तरह का कर लेता है तथा सूत्रमात्रसे उसको सुन भी लेता है परंतु निंदा, गहों से दूर रहता है और परमार्थसे भी दूर रहता है उसके व्रतोंकी शुद्धि किंचितमात्र भी नहीं होती है, न उसके दोष दूर होते हैं, न उसकी निर्जरा होती है और न उसको मोक्ष प्राप्त होती है ।।७५-७६ ।। कौनसे मुनि प्रतिक्रमण का फल मोक्ष प्राप्त करते हैं ? यतः संवेगवैराग्यशुद्धभावाश्वितोमुनिः । अनन्यमानसो घोमान्स्वनिंदा गर्हरपाविभाक् ॥७७॥ प्रतिक्रमण सूत्रेण विधाय शुद्धिमुस्वरणम् व्रतानां तत्फलेनाशुलभतेसाश्य संपदम् ॥७८॥ अर्थ - इसका भी कारण यह है कि जो बुद्धिमान मुनि संवेग वैराग्य और शुद्ध भावों को धारण करते हैं जो संवेग वैराग्य के सिवाय अन्य किसी काम में अपना मन नहीं लगाते जो अपनी निंदा गर्हा करते रहते हैं और जो प्रतिक्रमण सूत्र के अनुसार अपने धूलोको उत्तम शुद्धि करते हैं वे ही मुनि उस प्रतिक्रमण के फलसे शीघ्र ही मोक्ष + Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( १७५) [चतुर्थ अधिकार पद प्राप्त करते हैं ॥७७-७८।। ____ निदा, गर्दा पूर्वक शुद्ध प्रतिक्रमण आवश्यक हैमस्वेति धीमता नियॉनवामहाँदिपूर्वके साप्रतिक्रमणालोचने कार्य व्रतशुसये ।।७।। अर्थ-यही समझकर बुद्धिमान पुरुषों को अपने व्रत शुद्ध रखने लिये निदा गहाँ पूर्वक श्रेष्ठ प्रतिक्रमण और आलोचना प्रतिदिन करनी चाहिये ।।७।। श्रेष्ठ प्रतिक्रमण का फलसत्प्रतिकमणो धर्मो महान् रत्नत्रयात्मकः । शिष्याणा मुक्ति कर्तासोन्नामेय वीरनाथयो । ___ अर्थ-यह श्रेष्ठ प्रतिक्रमण रूप धर्म रत्नवयात्मक है और महान है तथा भगवान वृषभदेव और भगवान वीरनाथके शिष्यों को मोक्षका देनेवाला है ।।८०॥ भगवान् अजितनाथ से लेकर भगवान पार्श्वनाथ तक के मुनियों का प्रतिक्रमणतयोर्मध्यजिनेशानांशिष्याणां च प्रमावतः । पचिस्मिनते बोषो जायते तस्य शुद्धये ॥१॥ तावन्मानं भवेत्स्तोकं सरप्रतिक्रमणं शुभम् । न च सर्व यसस्तोस्युनिप्रमारा महाभियः ॥१२॥ अर्थ- भगवान अजितनाथ से लेकर भगवान पार्श्वनाथ तक बाईस तीर्थंकरों के शिष्यों को किसी भी प्रमावसे जिस वतमें दोष लगा है उसी की शुद्धिके लिये उतना ही थोड़ा सा शुभ प्रतिक्रमण बतलाता है उनके लिये सम प्रतिक्रमण नहीं बतलाया। क्योंकि मध्यके वाईस तीर्थंकरों के शिष्य बड़े बुद्धिमान् ये और स्वभाव से ही प्रमाद रहित थे ।।८१-८२॥ प्रथम तथा मंतिम तीर्थकर के काल में होने वाले मुनियों का प्रतिक्रमणआदि तीर्थकुतः शिष्याः स्वभावाचजबुद्धमः सल्मास्तेषामतीचाराः भवेयुर्वहयो व्रते ॥३॥ श्रीषद्ध मानतीर्थेशशिष्यास्तुच्छधियस्ततः । कालबोषेण तेषां स्यादतीचार बजो वते ॥४॥ अर्थ-प्रथम तीर्थकर भगवान बृषभदेव के शिष्य स्वभाव से हो सरल बुद्धि वाले थे इसलिये उनके वतोंमें भी बहुत से अतिचार लगते थे। तथा अंतिम तीर्थकर भंगवान वर्द्धमान स्वामीके शिष्य तुच्छ बुद्धि वाले होते हैं । अतएव कालदोष के कारण उनके पतोंमें भी बहुत से अतिचार लगते हैं । ८३.८४॥ तीनों समय समस्त प्रतिक्रमण के दंडकों का उच्चारणतस्मादतिफमस्ते दुःस्वप्नेऽप्यगोचरादिकः । जात। स्वल्पोमहान्चात्र तस्यशुरुषं स्वशंकिताः ॥ उच्चारयति सर्वास्तान् प्रतिक्रमणवंउकान् । त्रिकाल नियमेव व्रतशुद्धिविधायिनः ।।६।। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ( १७६ ) [ चतुर्ष अधिकार अर्थ-अतएव दुःस्वप्न ईर्यागमन आदि से होनेवाले जितने भी छोटे या बड़े अतिचार हैं उनको शुद्ध करने के लिये व्रतोंको शुद्ध करनेवाले मुनि अच्छी तरह निःशंकित होकर नियम पूर्वक तीनों समय समस्त प्रतिक्रमण के दंडकों का उच्चारण करते हैं ।।५-८६॥ कौ को नष्ट करने के लिये प्रतिक्रमण भावश्यक है-- विज्ञायेति व्लादीना शुद्धयर्थ कर्महानये । कर्तव्यं यत्ततो दक्षः प्रतिक्रमसमंजसा ।।७।। अर्थ-यह समझकर चतुर पुरुषोंको अपने वत शद्ध करने के लिये और कमों को नष्ट करने के लिये बहुत शोध प्रतिक्रमण करना चाहिये ।।७।। प्रतिक्रमण और आलोचना दोनों ही कब करना चाहियेयतः करिषद्धृतेदोषादिनिराक्रियते बुषः। सत्प्रतिक्रमणेनैव वयचिदालोचनाविभिः ।।८।। तस्मात्तद्वितयं नित्यं विधेयं विधिपूर्वक्रम । सर्वदोषाएहं याला वृतद्धिविधायिभिः ।।६।। अर्थ--बुद्धिमान् लोग किसी दोष को तो प्रतिक्रमण से निराकरण करते हैं और किसी दोष को आलोचना प्रावि से निराकरण करते हैं अतएव यत्नपुर्वक क्तोंको शुद्धि करनेवाले मुनियों को विधि पूर्भक समस्त दोषों को दूर करनेवाले प्रतिक्रमण और आलोचना दोनों ही सदा करने चाहिये ।।८८-८६।। ऐसा करने से व्रतों के समूह चन्द्रमा की चांदनी के समान निर्मल हो जाते हैंयत: सर्वगुणः साई समस्ता वृतपंक्तयः । चन्द्रज्योत्स्ना दवात्यर्थनिर्मलाःस्पुरवतवयात् ।।६।। अर्थ- इसका भी कारण यह है कि प्रतिदिन प्रतिक्रमण और आलोचना करने से समस्त वतों के समूह समस्त गुरषों के साथ साथ चन्द्रमाकी चांदनी के समान अत्यंत निर्मल हो जाते हैं ||१०|| प्रतिक्रमण और पालोचना करने का विशेष फल-- विसद्धिासमायेत तयाध्यानं शिवप्रवम् । तेनकर्मविनाशश्वतन्नाशे निवृतिः सताम् ॥११॥ अर्थ-इसके सिवाय प्रतिक्रमण और आलोचना करने से चित्तको शुद्धि होती है तथा चित्त को शद्धि होने से मोक्ष देनेवाला ध्यान प्रगट होता है उस ध्यानसे समस्त कमों का नाश होता है और समस्त फर्मों के नाश होने से सज्जनों को मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥६॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ] ( १७७ ) [चतुर्थ अधिकार प्रमादी और अहंकारी मुनि का प्रतिक्रमण व्यर्थ हैप्रमावो योऽथवा ग!मस्था निजं तपोमहत् । मूढधीः प्रत्यहं कुन्नि प्रतिक्रमणाविकम् ||२|| दोषमलीमसं तस्य व्यर्थस्यात्तपोखिलम् । दीक्षा च निष्फला पापसाबा जन्म निरर्थकम् ॥६॥ अर्थ-जो मुनि अपने तपश्चरण को बहुत बड़ा समझकर प्रमादी तथा अहं. कारी हो जाता है और इसीलिये जो मूखं प्रतिदिन प्रतिक्रमण आदि नहीं करता उसका समस्त तपश्चरण दोषों से मलिन रहता है और इसीलिये व्यर्थ समझा जाता है । इसी प्रकार पापों का आत्रव करनेवाली उसकी दीक्षा भी निष्फल समझो जाती है और उसका जन्म भी निरर्थक माना जाता है ॥६२-६३।। प्रतः पालोचना पूर्वक प्रतिक्रमण अावश्यक हैमत्वेत्यालोचनायुक्त सत्प्रतिक्रमणं विदः । कुर्षन्तु सर्वपत्नेन नित्यं युफ्त्या शिवाप्तये ॥१४॥ अर्थ-इसलिये चतुर पुरुषोंको मोक्ष प्राप्त करने के लिये पुर्ण प्रयत्नके साथ युक्ति पूर्वक प्रतिदिन आलोचना पूर्वक प्रतिक्रमण करना चाहिये ॥१४॥ मुनियों को प्रतिक्रमण प्रयत्न पूर्वक करना चाहियेसषांनतगुप्सियोगसमितीनां शुद्धिहेतु परमन्तासीतगुणाएममां च शिववं दोषापहं निर्मलम् । पापघ्नं मुनयः कलंकहतकं यत्नरकुरुभ्यं सदा स्वान्तः सुद्धिकरं प्रतिक्रमण नामावश्यक मुक्तये ।। अर्थ-यह प्रतिक्रमण नामका आवश्यक अनंत गुणों को धारण करनेवाले समस्त वत गुप्ति योग और समितियों को शुद्ध करनेवाला है, सर्वोत्कृष्ट है, मोक्ष देने वाला है, दोषों को दूर करनेवाला है, अत्यंत निर्मल है, पापों को नाश करनेवाला है, कलंक को दूर करनेवाला है और अंतःकरण को शुद्ध करनेवाला है । इसीलिये मुनियों को ऐसा यह प्रतिक्रमण नामका आवश्यक प्रयत्न पूर्वक प्रतिदिन करते रहना चाहिये । ॥६५॥ शुभ प्रत्याख्यान का स्वरूप कहने की प्रतिज्ञाप्रतिक्रमणमियुक्तिमिमामुषत्वा समासतः । सरप्रत्याख्यान नियुक्ति प्रवक्ष्यामि ततःशुभाम् ।।६।। ___ अर्थ---इसप्रकार हमने संक्षेप से प्रतिक्रमण का स्वरूप कहा अव आगे शन प्रत्याख्यान का स्वरूप कहते हैं ॥६६॥ प्रत्याख्यान का स्वरूपअयोग्यानां स्वयोग्यानां वस्तूनां तपतेथवा निराकरणं यत्नास्कियते नियमेन च ॥१७॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( १७८ ) [ चतुर्थ अधिकार नामावि षड्विधानां वा कमसंवरहेतवे । प्रागतानामनागतनां तत्प्रत्याख्यान मतंजिनः ।।८।। अर्थ-जो पदार्थ अपने योग्य हैं अथवा अयोग्य हैं उन पदार्थोका नियम पूर्वक तपश्चरण के लिये त्याग कर देना प्रत्याख्यान हैं। अथवा कोका संवर करने के लिये नामादिक छहों निक्षेपों के द्वारा प्रागत अथवा अनागत पदार्थोंका त्याम करना भगवान जिमेन्द्रदेव ने प्रत्याख्यान बतलाया है ।।१७-१८॥ प्रत्याख्यान के भी ६ भेद हैंनामानुस्थापना तथ्य क्षेत्र कालोऽशुभाश्रितः । भावश्चेत्यत्र निक्षेपः प्रत्याख्यानेऽपि षड्विधः ।। अर्थ-इस प्रत्याख्यान में भी नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ये छह निक्षेप माने गये हैं, अर्थात् यहाँ निक्षेपोंसे यह प्रत्याख्यान भी छह प्रकार है ॥६६॥ नाम प्रत्याख्यान का स्वरूप पापरागादिहेतूनि ऋगशुभान्यनेकशः । नामानि बुनियानि स्वान्येषां दोषवानि च ।।११००।। जातुविद्यभनोच्यन्ते हास्या : स्वपरादिभिः । नियमेव तन्नामप्रत्याख्यानं स्मृतं बुधः ।।११०१॥ अर्थ-इस संसार में अनेक नाम ऐसे हैं जो पाप और रागके कारण हैं, क्रूर हैं, अशुभ हैं, विद्वानों के द्वारा निदनीय हैं, और अपने तथा दूसरों के लिये दोष उत्पन्न करनेवाले हैं ऐसे नामों को हंसी आदि के कारण वा अपने पराये की किसी प्रेरणा से भी नियम पूर्वक उच्चारण नहीं करना विद्वानों के द्वारा नाम प्रत्याख्यान कहलाता है। ॥११००-११०१॥ उत्तम स्थापना प्रत्याख्यान का स्वरूपमिथ्यादेवाविमूर्तीना रवनीनां सकलनसाम् । मिथ्यात्वहेतुभूसानां धीमणे नियमो नमः ॥११०२॥ कृता वासरामाण गणां गृह्यते निशम् । पापभीतैश्च तत्स्थापनाप्रत्याख्यानम तम् ।। अर्थ- पाप के डरसे मुनि लोग समस्त पापों की खानि, मिथ्यात्य बढ़ाने का कारण, क्र र और सरागी मिथ्या देवों की मूर्तियों के देखने का कृत कारित अनुमोदना से त्यागकर देते हैं उनके न देखने का नियम कर लेते हैं उसको उसम स्थापना प्रत्या. ख्यान कहते हैं ॥११०२-११०३॥ उत्तम द्रव्य प्रत्याख्यान का स्वरूप--- कर्मबंध करा द्रव्या शुभा वा सपसेखिलाः । स्थेन जातु न भोक्तव्या भोजितव्या न चापरः ।।४।। मनसा नानुमंतण्या एवं यो नियमो वरः । मुनीश पंचते प्रव्यरत्याख्यान सजिलम् ॥१५॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीग] ( १७६ ) [ ऋतुर्थ अधिकार अर्थ- व्य कमबंध की शरमवास है अथवा शुभ हैं ऐसे पदार्थों को तपचरण पालन करने के लिये कभी उपभोग नहीं करना और न दूसरों से कभी उपभोग कराना और मनसे उनके उपभोग करने की अनुमोदना भी नहीं करना, इसप्रकार मुनिराज जो नियम कर लेते हैं उसको उत्तम द्रव्य प्रत्याख्यान कहते हैं ॥४-५॥ क्षेत्र प्रत्याग्यान का लक्षण-- रागवाहत्यकस्तॄणामसंयमप्रवर्तिनाम् । सेवितानां विटस्छ्याय : सदोषविधायिनाम् ॥६॥ क्षेत्राणां दुष्टमिथ्यावृभूतानां परिहापनम् । नियमाघरसता क्षेत्रप्रत्याख्यानं तदुच्यते ।।७।। अर्थ-जो क्षेत्र अत्यंत राग उत्पन्न करनेवाले हैं, असंयमको प्रवृत्ति करनेवाले हैं, जो व्यभिचारी वा कुट्टिनियों के रहने के स्थान है जो समस्त दोषों को उत्पन्न करने वाले हैं और वुष्ट वा मिथ्यावृष्टियों से भरे हुए हैं ऐसे क्षेत्रोंका नियम पूर्णक त्यागकर देना क्षेत्र प्रत्याख्यान कहलाता है ॥६-७॥ काल प्रत्याभ्यान का वर्णनयच्चवृष्टितुषारादि ब्याप्तकालस्य वर्मनम् । असंयमादि हेतोः कालप्रत्यास्यानमेवतत् ।। अर्थ-जिस समय वृष्टि पड़ रही हो वा तुषार पड़ रहा हो ऐसे काल का असंयमाधि के डर से त्यागकर देना काल प्रत्याख्यान कहलाता है ॥॥ ___ उत्तम भाव प्रत्याख्यान का वर्णनमिथ्यात्वासंयमान प्रमावानां चाशुभारमनाम् कवायवेवहास्याधीनां सर्वेषां जिनेन्द्रियः ।।६।। सर्वथा शुद्धभावेन त्यजनं क्रियते बुधः नियमाश्च यद्भावप्रत्याख्यानं तदुत्तमम् ॥१०॥ अर्थ-जितेन्द्रिय बुद्धिमान पुरुष अपने पूर्ण शुद्ध भावों से नियम पूर्वक मिथ्याय, असंयम, प्रमाद, अशुभ, कषाय, वेर, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा आदि का त्यागकर देते हैं उसको उत्तम भाव प्रत्याख्यान कहते हैं ।।१-१०॥ उक्त छहों प्रकार का प्रत्याख्यान आवश्यक---- एतश्च षड्विधोपायनिक्षेपैः पविषंशुभैः । प्रत्याख्यानं विधातव्यं प्रत्यहं संयमाप्तये ॥११॥ अर्थ-मुनियों को अपना संयम पालन करने के लिये ऊपर लिखे शुभ ग्रहों प्रकारके निक्षेप रूप उपायोंसे छहों प्रकारका प्रत्याख्यान अवश्य करना चाहिये ॥११॥ प्रत्याख्यापक तथा प्रत्याख्यातव्य का स्त्रहपप्रत्यास्याफ्फ प्रात्मात्र यः प्रत्यास्पानमेवयत् । प्रत्यास्पातव्यमन्यादेतेषां विस्तरं वषे ।।१२।। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( १८० } [ चतुर्थ अधिकार अर्थ-यहां पर प्रत्याख्यान करनेवाला प्रात्मा प्रत्याख्यापक कहलाता है, त्याग करना प्रत्याख्यान हैं और जिसका त्याग किया जाता है उसको प्रत्याख्यातव्य कहते हैं । मागे संक्षेप से इनका स्वरूप कहते हैं ॥१२॥ । प्रत्याख्यान करनेवाले का स्वरूपश्रीगुरो जिनदेवस्याज्ञया चरणपालकः । मूलोत्तर गुणान सर्वामिमली कर्तु मुद्यतः॥१३।। जिनसूत्रानुचारी यो बोषागमन भी तिकृत । तयोऽर्थीमितकामाक्षः स प्रत्याख्यापकोमहान् ।।१४॥ अर्थ-जो मुनि श्री गुरुकी आज्ञासे वा भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञासे चारित्र का पालन करता है, समस्त मूलगुण और उत्तरगुणोंको निर्मल करने को जो सदा उद्यत रहता है, जो जिन शास्त्रों के अनुसार अपनी प्रवृत्ति करता है, जो दोषों के आगमनसे सवा भयभीत रहता है, जो निर्मल तपश्चरण करना चाहता है, जो इन्द्रिय और काम को जीतने वाला है और जो उत्कृष्ट है उसको प्रत्याख्यापक कहते हैं ॥१३-१४।। १.प्रकार के त्याग को प्रत्याख्यान कहते हैं-- प्रशनादिपरित्यागंप्रत्याख्यानमनेकधा । मूलोसर गुणादौ च दशधानागतादि वा ॥१५॥ अर्थ-भोजन पानका त्याग करना प्रत्याख्यान है वह अनेक प्रकार है, अथवा मूलगुण या उत्तरगुणों में अनागत प्रादि जो दश प्रकार का त्याग है उसको भी प्रत्याख्यान कहते हैं ॥१५॥ __उनके १० प्रकार के प्रत्याख्यान के नाम मात्रप्रनागतमतिकांत कोटीसहितसंशकम् । अखंडितं च साकारमनाकारसमाह्वयम् ॥१६॥ परिणामगतं नामा परिशेषाभिषानकम् । तयाध्वगतसंझ च प्रत्यास्थानं सहेतुकम् ।।१७।। अर्थ-अनागत, अतिक्रांत, फोटोसहित, अखंडित, साकार, अनाकार, परिणामगत, परिशेष, अध्यगत और सहेतुक ये दश प्रकार के प्रत्याख्यान हैं ॥१६-१७॥ (१) अनागत प्रत्याख्यान का स्वरूप-(चतुर्दशी शुद्धरूप) कर्तव्यमुपवासावि अतुम्याधिके च यत् 1 क्रियतेत्त्रयोदश्य भावनागसमेवतत् ॥१८॥ मर्य-जो उपवास चतुर्दशीके दिन करता है उसका नियम त्रयोदशी के दिन ही कर लेना अनागत प्रत्याख्यान कहलाता है ॥१॥ (२) अतिक्रांत प्रत्याभ्यान का लक्षणविधेयमुपवासादि चतुर्दश्यादिके च यत् । ततः प्रतिपदादौ लियतेऽतिक्रांतमेवतत् ॥१९॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ] ( १८१.) [ चतुर्थ अधिकार अर्थ- जो उपवास चतुर्दशी के दिन करना है, उसका नियम प्रतिपदाके दिन ही कर लेना प्रतिक्रांत प्रत्याख्यान है ।। १६ ।। (३) कोटिसहित प्रत्याख्यान का स्वरूप प्रातः स्वाध्यायसंपूर्ण यदि शक्ति भविष्यति । उपवासं करिष्यामि तत्कोटिस हिसंमतम् ॥२०॥ अर्थ -- प्रातःकाल स्वाध्याय पूर्ण होने पर यदि शक्ति होगी तो मैं उपवास करूंगा इसप्रकार के नियम करने को कोटिसहित प्रत्याख्यान कहते हैं ||२०|| (४) अखंडित प्रत्याख्यान का लक्षा श्रवश्यं यद्विधातव्यं पक्षमासाविगोचरम् । उपवासादिकं तत्स्यात्प्रत्याख्यानमखंडितम् ।। २१ ।। अर्थ - किसी पक्ष वा किसी महीने में जो उपवास अवश्य किया जाता है उसको खंडित प्रत्याख्यान कहते हैं ॥ २१ ॥ (५) साकार प्रत्याख्यान का वर्णन - सर्वतोभद्रनक्षत्ररत्नावल्याद्यनेकधा । विधानकरणंयहुधासा कारमंत्रतत् ||२२|| अर्थ - सर्वतोभद्र, नक्षत्रमाला, रत्नावली आदि अनेक प्रकार के विधान वा वृत करना साकार प्रत्याख्यान कहलाता है ॥२२॥ (६) अनाकार प्रत्याख्यान का स्वरूप --- निजेच्छ्योपवासादि करणं यद्विधि विना । प्रत्याख्यानमनाकारं कथ्यते तपस्विनाम् ||२३| अर्थ - बिना किसी विधि के अपनी इच्छानुसार उपवास आदि करना तपस्वियों का अनाकार प्रत्याख्यान कहा जाता है ||२३|| (७) परिणामगत प्रत्याख्यान का लक्षणपापक्षैकमासावि वर्षगोचरम् । करणं स्त्रोपवासादे: परिणामगतं हि तत् ॥ २४ ॥ अर्थ- जो दो दिन का, तीन दिन का, एक पक्ष का एक महीने का था एक वर्ष का उपवास किया जाता है उसको परिणामगत प्रत्याख्यान कहते हैं ||२४|| (८) परिशेष प्रत्याख्यान का लक्षणविधाविलाहार वर्जनं पद्विषीयते । यावज्जीवं स्वसंन्यासे परिशेषं समुच्यते ||२५|| श्रयं - अपने सन्यास मरण के समय जीवन पर्यंत तक जो चारों प्रकार के Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( १८२ ) आहार का त्याग किया जाता है उसको परिशेष प्रत्याख्यान कहते हैं ॥२५॥ (६) अध्वगत प्रत्याख्यान का स्वरूप मार्गाव्याद्विनद्यादिगमनानां प्रतिज्ञा क्रियतेऽशोपवासादि यत्तदध्वगतं स्मृतम् ||२६|| अर्थ - किसी मार्ग में, वन में, पर्वत पर वा नदी आदि के गमन करने में जो उपवास श्रादि की प्रतिज्ञा की जाती है उसको अध्वगत प्रत्याख्यान कहते हैं ||२६|| (१०) सहेतुक प्रत्याख्यान का स्वरूप उपसर्गनिमित्तं जाते सति विधीयते उपवासाविकं यत्सत्प्रत्याख्यानं सहेतुकम् ||२७|| [ चतुर्थ अधिकार अर्थ- किसी उपसर्ग श्रादि के निमित्त मिलने पर जो उपवास आदि की प्रतिज्ञा की जाती है उसको सहेतुक प्रत्याख्यान कहते हैं ||२७|| वरण की दृद्धि के लिये लिखित प्रत्याख्यान करना चाहियेप्रत्याख्यानविषैः सारान् दशमेदानिमान् सदा । ज्ञात्वा नाना तपोवृष्या पचरन्तु तपोधनाः ॥ अर्थ-ये ऊपर लिखे हुए प्रत्याख्यान विधि सारभूत दश भेद हैं इन सबको समझकर मुनियों को अपने अनेक प्रकार के चरणों की वृद्धि के लिये इन प्रत्यास्थानों का पालन करना चाहिये ||२८|| त्याग करने योग्य पदार्थ प्रत्याख्यान हैश्रशमपानकखाद्य स्वाद्यं स चतुविधम् । प्राहारं विविधं द्रव्यं सचित्ताचिसमिश्रकम् ||२६|| उपधिः श्रमरणयोग्यः क्षेत्रं कालादयोऽखिलाः इत्याद्यन्यतरं वस्तु प्रत्याख्यातव्यमंजसा ॥३०॥ अर्थ - अन्न, पान, स्वाद्य, खाद्य के भेद से चार प्रकार का आहार है । इनके सिवाय चित्त चित्त मिश्र के मेव से अनेक प्रकार के पदार्थ हैं, मुनियों के अयोग्य अनेक प्रकार के उपकरण हैं, अयोग्य क्षेत्र अयोग्य काल श्रादि सब त्याग करने योग्य प्रत्याख्यान पदार्थ हैं ।। २६-३०।। किसी द्रव्यसे मिला हुआ सचित्त जल भी अपेय है मिश्रित पानेोपवासो यातिखंडताम् । सचित्तं न अलं पातु योग्यं तस्मात्त्यजेद्र षः ।। ३१ ।। अर्थ - किसी द्रव्यसे मिला हुआ पानी पीने से उपवास खंडित हो जाता है तथा सचित्त जल भी पीने के अयोग्य है । इसलिये बुद्धिमानों को इन सबका त्याग कर देना चाहिये ||३१|| Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • मूलाचार प्रदीप ] ( १८३ ) किस समय उष्ण जल पेय है I रागण कालवाहार्थ यदि त्यक्त ं न शक्यते । नीरं ष्ठाष्टमा सह्य छणं ब्राह्यजः ।। अर्थ - - रागकी अधिकता के कारण वा उष्ण काल होने के कारण अथवा बाह होने के कारण यदि वेला तेला आदि में पानी का त्याग न हो सके तो लोगों को ऐसे समय में उष्ण जल ग्रहण करना चाहिये || ३२॥ भोजन के बाद जल प्रब्राह्म है [ चतुर्थ अधिकार पाराहून जातासु राजकलेशादिकादिषु । प्राणान्तेपि न वादेयं भोजनानम्सरेजलम् ।।३३।। अर्थ - पारणाके दिन यदि रोग क्लेश भी उत्पन्न हो जाय और प्राणों के अंत होने का समय आ जाय तो भी उस दिन भोजनके बाद जल ग्रहण नहीं करना चाहिये ||३३|| निम्नलिखित ४ शुद्धि सब जगह रखनी चाहिये - श्रथ विनयशुद्धात्यमनुभावासमापम् । प्रतिपालनशुद्धात्यं भावशुद्धधाभिधानम् ||३४|| शुद्ध चतुविषहोदं प्रत्याख्यानं भषापहम् । मुक्तये मुक्तिमद्वाक्यैः पृथक् पृथक् व येस्ताम् ||३५|| अर्थ- - इस प्रत्याख्यान में चार प्रकार की शुद्धि रखना चाहिये पहली विनयशुद्ध, अनुभाषाशुद्ध, प्रतिपालनशुद्ध और भावशुद्ध इसप्रकार चार प्रकार की शुद्धतापूर्वक जो प्रत्याख्यान है वही संसार को नाश करनेवाला है । अब हम सज्जनोंको मोक्ष प्राप्त करने के लिये युक्ति पूर्वक वचनों के द्वारा अलग-अलग इनका स्वरूप कहते हैं । ।।३४-३५।। (१) विनयशुद्ध प्रत्याख्यान का स्वरूपfesोगाभिभक्ति कृत्वानश्वागुरुतमौ । पंचधा विनयेनामा प्रत्याख्यानं चतुविषम् ॥ ३६ ॥ गृह्यतेयसदन्तेनायंभक्तिः प्रदीयते । शिविशुद्ध तत्प्रस्यास्यानं शिवप्रवम् ।। ३७।। अर्थ - प्रत्याख्यान लेते समय सिद्धभक्ति, योगभक्ति पढ़नी चाहिये फिर गुरुके दोनों चरण कमलों को नमस्कार कर पांच प्रकार की विनय के साथ चारों प्रकार का प्रत्याख्यान ग्रहण करना चाहिये तथा अंत में आचार्यभक्ति पढ़नी चाहिये । इसप्रकार शिष्यों के द्वारा मोक्ष देनेवाला प्रत्याख्यान ग्रहण किया जाता है उसको विनयशुद्ध प्रत्याख्यान कहते हैं ।।३६-३७।। (२) अनुभावरण शुद्ध प्रत्याख्यान का स्वरूपा प्रत्याख्यानामराः सर्वे गुरुणोच्चरितायथा | व्यंजनस्वरमात्राविशुद्धया ये तांस्तथैव च ॥ ३८ ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १८४ } [ चतुर्थ अधिकार शिष्योनुभाषतेयत्रप्रत्यास्थानविधौशुभे । अनुभाषणशुद्धास्यं प्रत्यारयानं तदुच्यते ॥३६।। अर्थ-प्रत्याख्यान के समस्त अक्षर जो गुरु ने उच्चारण किये हैं व्यंजन स्वर और मात्राऐं जिस प्रकार शुद्ध उच्चारण को हैं उसी प्रकार शिष्य को भी शुभ प्रत्याख्यान लेते समय उच्चारण करना चाहिये । इसप्रकार के प्रत्याख्यान को अनुभाषण शुद्ध नामका प्रत्याख्यान कहते हैं ॥३८-३६॥ (३) अनुपालन शुद्ध प्रत्याख्यान का लक्षणमहोपसर्ग बुाध्यक्षमक्लेशादिराशिषु । आतेषु सुखदुःखादिष्वटव्यानिवनादिषु ॥४०॥ दुर्भिक्षाविषुसर्वश्राखंध्यत्प्रतिपाल्यते । अनुपालनशुद्धास्यं तत्प्रत्याख्यानमूजितम् ॥४॥ अर्थ-किसी महा उपसर्ग के आ जानेपर किसी महा व्याधि के हो जानेपर, किसी दुःख या क्लेश के हो जानेपर अथवा किसी जंगल, वन, पर्वत आदि में किसी सुख-दुःख के उत्पन्न हो जानेपर अथवा दुभिक्षके उत्पन्न हो जानेपर सर्वत्र अपने प्रत्याख्यान का पालन करना अनुपालनशुद्ध नामका प्रत्याख्यान कहलाता है ।।४०-४१॥ (४) भावसुद्ध प्रत्याख्यान का स्वरूपरागद्वेषमदोन्मावः कषायारि व्रजेः स्वचित् । कामाकाख्यधूतश्च परिणामेन योगिनाम् ॥४२॥ न मनायूषितं शुद्ध प्रत्याश्यानं यदुत्तमम् । भावसुद्धाभिधं ज्ञेयं प्रत्याख्यानं तव हि ॥४३॥ ____ अर्थ-राग, द्वेष, मद, उन्माव आदि के द्वारा वा कथायरूप शत्रुओं के द्वारा अथवा काम के उद्रेकरूपी धर्मों के द्वारा मुनियों के परिणामों में किसी प्रकार की अशुद्धता नहीं आती है । उनका उत्तम प्रत्याख्यान शुद्ध बना रहता है उसको भावशुद्ध प्रत्याख्यान कहते हैं ॥४२-४३॥ शरीर की स्थिति के लिये आहार कब ग्रहण करें? प्रत्याख्यानमिदं सर्व कृरणा कायस्थिति द्रुतम् । ग्राह्य धतुविधं मुफ्त्य गुरोऽन्तेमुदायुधः ॥४४॥ अर्थ-बुद्धिमान मुनियों को यह सब प्रत्याख्यान करके उसका नियम पूर्ण होनेपर शरीर स्थिति के लिये आहार ग्रहण करना चाहिये और फिर गुरु के समीप जाकर मोक्ष प्राप्त करने के लिये फिर चारों प्रकार का प्रत्याख्यान ग्रहण करना चाहिये ॥४४॥ प्रन्याख्यान को हानि कभी नहीं करनी चाहिये-- पर्वाचवानिन कर्तच्या प्रत्याश्यानस्यसंयतः । प्राणान्तेपि जनियर तीन परीषहादिभिः ।।४५|| Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १८५) [चतुर्थ अधिकार अर्थ-मुनियों को अपने कंठगत प्राण होनेपर भी तीव परिषह आदि के द्वारा जगत भर में निवा उत्पन्न करनेवाली प्रत्याख्यान की हानि कभी नहीं करनी चाहिये । ॥१:४५॥ शिथिलाचार कभी नहीं करना चाहियेप्रत्याख्यानस्य भंगेन भंगयान्तियतोखिलाः । गुणा मूलोत्तराधाश्च सद्भगाच्छूझकारणम् ।।४६।। महापापं प्रजायेत तेनवुःखं वचोतिरम् । भ्रमणशिथिलामांच श्वभ्रादिबुर्गसोचिरम् ।।४७।। अर्थ-इसका भी कारण यह है कि प्रत्याख्यानके भंग होने से मूलगुण, उत्तरगुण आदि सबका भंग हो जाता है लथा मूलगुण, उत्तरगुरण के भंग होने से नरक का कारण ऐसा महापाप उत्पन्न होता है और उस महापाप से बचनातीत दुःख होता है । तथा इसप्रकार शिथिलाचारको धारण करनेवाले मुनि नरकादिक दुर्गतियों में चिरकाल तक परिभ्रमण करते रहते हैं ।।४६-४७।। ___ उपद्रव मानेपर भी इसे नहीं छोड़ेंमत्वेति विश्वयत्नेनपालयन्तु तपोषनाः । प्रत्याख्यानं जगस्सारसम्पद्रयकोटिषु ॥४॥ अर्थ-यही समझकर मुनियों को करोड़ों उपद्रव आनेपर भी जगत में सारभूत यह प्रत्याख्यान पूर्ण प्रयत्न के साथ पालन करना चाहिये ॥४॥ प्रत्याख्यान का फलसर्वानहरमनोमयिनं कर्मारिविध्वंसकं स्वर्मोक्षकनिबंधनंशुभनिधि तीश्वरः सेवितम् । मन्तातीतगुणाम्बुधि सुमुनयः संपालपेताखिलं प्रत्याल्यामवरं सदासुविपिनासर्वार्थसंसिद्धये ॥४६॥ अर्थ-यह प्रत्याख्यान समस्त अनर्थों को हरण करनेवाला है, मन और इंद्रियों को जीतनेवाला है, कर्मरूप शत्रुओं को जीतनेवाला है, स्वर्ग और मोक्षका एक अद्वितीय कारण है, शुभकी निधि है, तीर्थकर परमदेव भी इसकी सेवा करते हैं और अनंत गुणों का समुद्र है । इसलिये श्रेष्ठ मुनियोंको संपूर्ण पुरुषार्थ सिद्धि करने के लिये विधि पूर्वक सवा पूर्ण प्रत्याख्यान पालन करना चाहिये ।।४६॥ कायोत्सर्ग के वर्णन करने की प्रतिज्ञाप्रत्याख्यानस्य नियुक्ति निरूप्येमासमासतः । कायोत्सर्गस्य नियुक्तिमितऊयदिशाम्यहम् ॥५०॥ अर्थ-इसप्रकार संक्षेप से प्रत्याख्यान का स्वरूप कहा अब आगे कायोत्सर्ग का स्वरूप कहते हैं ॥५०॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मूलाचार प्रदीग] [चतुर्थ अधिकार ___ कायोत्सर्ग का लक्षरणश्यक्त्वांगाविममस्त्रं यद्विधासंगविधीयते लवमानभुजास्थानं गुचितनपूर्यकम् ॥११५१॥ परमेष्ठिपवादीनामहोरात्रादिगोचरः। कायोत्सर्गः स मन्तव्योनंतवीर्यावि कारकः ।।११५२।। अर्थ-रात्रि में वा अन्य किसी समय में अपने शरीर से ममत्व का त्यागकर तथा दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्याग कर खड़े होकर दोनों भजाएँ लंबी लटका कर पांचों परमेष्ठियों के गुणों का चितवन करना कायोत्सर्ग कहलाता है । यह कायोत्सर्ग अनंत धीर्यको उत्पन्न करनेवाला है ।।११५१-११५२॥ कायोत्सर्ग के भी ६ भेद हैंनामास्यस्थापना व्यक्षेत्र कालोशुभाश्रितः । भाषएबोस्यनिक्षेपः कायोत्सर्गस्यषविधः ॥५३।। अर्थ-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और शुभ भावके भेदसे छहीं निक्षेपों से यह कायोत्सर्ग भी छह प्रकार है ॥५३॥ नाम कार्यान्मर्ग का लक्षणसरागकरनिदाविनामोत्यदोषशुद्धये । कायोत्सर्गोत्र यो नाम कायोत्सर्गाह्वयोहि सः ॥५४॥ अर्थ-किसी सारगी, ऋर और निद्य आदि नामसे उत्पन्न हुए दोषों को शुद्ध करने के लिये जो कायोत्सर्ग किया जाता है उसको नाम कायोत्सर्ग कहते हैं ॥५४॥ स्थापना कायोत्सर्ग का लक्षणकुत्सितस्थापनाद्वारागसातीधारशांतये । कायोत्सर्गः कृतोय स स्थापनासंग एवहि ॥५५।। अर्थ--किसी कुत्सित स्थापना के आये हए नतीचारों को शांत करने के लिये जो कायोत्सर्ग किया जाता है उसको स्थापना कायोत्सर्ग कहते हैं ॥५५।। द्रव्य कायोत्सर्ग का लक्षणसावग्यसेवाश्च जसिदोषस्यहानये । क्रियते यस्तनूत्सर्गो बन्यव्युत्सर्ग एवं स: ।।६।। अर्थ-पापरूप द्रव्यों के सेवन करने से उत्पन्न हुए दोषोंको दूर करने के लिये जो कायोत्सर्ग किया जाता है उसको द्रव्य कायोत्सर्ग कहते हैं ।।५६।। क्षेत्र कायोत्सर्ग का लक्षणसरागरमिथ्यात्यायक्षेत्रजमलारमनाम् । विशुद्धर्थ यस्तनूत्सर्गः क्षेत्रव्युत्सर्ग एव सः ।।५७॥ अर्थ- सारगी, क्रूर और मिथ्यात्व से वृषित क्षेत्रसे उत्पन्न हुए दोषों को दूर Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( १८७) [ धनुर्थ अधिकार करने के लिये जो कायोत्सर्ग किया जाता है उसको क्षेत्र कायोत्सर्ग कहते हैं ।।५।। कार कायोत्सर्ग का लक्षणऋत्वहोरात्रवर्षादि च्याप्तकालोन वस्य यः । दोषस्यहानये कायोत्सर्गः स कालसंज्ञकः ॥५८।। अर्थ-ऋतु दिन रात और वर्षाऋतु प्रादि किसी भी काल से उत्पन्न हुए दोषों को नाश करने के लिये जो कायोत्सर्ग किया जाता है उसको काल कायोत्सर्ग कहते हैं ।।५।। भाव कायोत्सर्ग का स्वरूपमिथ्यासंयमकोपादियुक्तदुर्भावजस्य य: । दोवस्यशुद्धये कायोत्सर्गः सभावनामकः ॥५६| अर्थ--मिथ्यात्व, असंयम और क्रोधादिक दुर्भावोंसे उत्पन्न हुए दोषों को दूर करने के लिये जो कायोत्सर्ग किया जाता है वह शुभभाव कायोत्सर्ग कहलाता है ।। ५६ । छहों प्रकार के कायोत्सर्गों को करेंप्रमीभिःषड्विधःसार निक्षेपमुनिसत्तम। कायोत्सर्गः सदाकार्यों जातदोषविशुद्धये ॥६॥ अर्थ–उत्तम मुनियों को उत्पन्न हुए दोषों को विशुद्ध करने के लिये सारभूत इन छहों निक्षेपों से होनेवाला कायोत्सर्ग सदा करते रहना चाहिये ॥६०॥ ___ कायोत्सर्गादि के कथन की प्रतिज्ञाकायोत्सर्गरच कायोत्सर्गोकायोत्सर्गकारणम् । अभीषां त्रितयानांहि प्रत्येक लक्षणं वे ।।१।। __ अर्थ-अब प्रामे कायोत्सर्ग, कायोत्सर्गी और कायोत्सर्ग के कारणों का अलग-अलग लक्षण कहते हैं ॥६१॥ कायोत्सर्ग का स्वरूपवाह्यान्तः सकलैः संगैः समं कायस्य धोधनः । नियते यः परित्यागः कायोत्सर्गः समुक्तये ॥६२।। अर्थ-जहांपर बुद्धिमानों के द्वारा बाह्य और आभ्यंतर समस्त परिग्रहों के साथ-साथ शरीर का भी त्याग कर दिया जाता है परिग्रह और शरीरके ममत्व सर्वथा स्याग कर दिया जाता है उसको कायोत्सर्ग कहते हैं । ऐसा कायोत्सर्ग मोक्ष देनेवाला होता है ॥६२।। कायोत्सर्ग के ४ भेद हैंप्रालंषितभुजः पादांतश्चतु:स्वांगुलाश्रितः । सर्वाग चलनातीतः कम्यतेत्र चतुर्विषः ॥६३।। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १८८ ) [ चतुर्थ अधिकार अर्थ--उस कायोत्सर्ग में भुजाएं लंबायमान होती हैं दोनों पैरों में चार अंगुल का अंतर रहता है और समस्त शरीर का हलन-चलन बंद कर दिया जाता है । ऐसा यह कायोत्सर्ग चार चार प्रकार का होता है ।।६३।। चारों के नामउस्थितोस्थितनामोत्थितोपविष्टसमावयः । उपविष्टोस्थितास्यकिलासोनासीनसंज्ञकः ॥६४॥ अर्थ-पहला उत्थितोस्थित, दुसरा स्थितोपविष्ट, तीसरा उपविष्ठोस्थित और चौथा उपविष्टोपविष्ट अथवा आसीनासीन ये चार कायोत्सर्ग के भेद हैं ॥६४॥ इनमें २ अशुभ कायोत्सर्ग नहीं करने पाहियेएतः शुभाशुभ दैः कायोत्समश्यतुर्विधः। द्विधा प्याजोद्विषा ग्राहस्तेषां मध्येसयोगिभिः ।।६।। अर्थ-इन चारों प्रकार के कायोत्सर्ग में दो शुभ हैं और वो अशुभ हैं। मुनियोंको दोनों अशुभ कायोत्सर्गों का त्यागकर वेना चाहिये और दोनों शुभ कायोत्सर्ग ग्रहण कर लेना चाहिये ॥६५॥ धर्मशुमलाभिधंद्वधा थ्यानं यस्कियते बधः । कायोत्सर्गरण मुत्य सः ध्युत्सर्ग उस्थितोत्थितः ॥६६।। अर्थ-जो बुद्धिमान मुनि मोक्ष प्राप्त करने के लिये खड़े होकर कायोत्सर्ग करते समय धर्मध्यान वा शुक्लध्यान का चितवन करते हैं उसको उत्थितोत्थित कायोल्सर्ग कहते हैं ।।६६॥ प्रातरौद्राख्याने कायोत्सर्गेण यःस्थितः ध्यायेत्तस्य तनरसर्गः उत्थितासीनसंशकः ॥६॥ अर्थ-जो मुनि खड़े होकर कायोत्सर्ग के द्वारा प्रार्तध्यान और रौद्रध्यान का चितवन करता है उसको उत्थितासीन कायोत्सर्ग कहते हैं ।।६७॥ निधिष्टोस्थित नामक कायोत्सर्ग का स्वरूपधर्मशुमल शुभध्यानालिविष्टो भजतेश्रयः । हवा तस्य तनूस्सों निविष्टोरिपतनामकः ॥६॥ अर्थ- जो मुनि बैठकर कायोत्सर्ग करता है और उसमें हृदय से धर्मध्यान तथा शुक्लध्यानका चितवन करता है उसके निविष्टोत्थित नामका कायोत्सर्ग कहलाता है ॥६॥ आसीनासीन नामक कायोत्सर्गध्यायल्यत्र निविष्टो य. प्रातरौद्राणि तसा । ध्यानानि तस्य चासोनासोनव्युत्सर्ग एयहि ।।६।। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( १८६) [ चतुर्थ अधिकार __ अर्थ--जो मुनि बटकर कायोत्सर्ग करता है और उसमें हृदय से प्रार्तध्यान वा पौरम्यान का विस्तार करता है उसके आसानासीन नाम का कायोत्सर्ग होता है । ॥६६॥ उत्थानासीन दोष का त्यागउरियतासीनएकोन्य प्रासीनासीमसंज्ञकः । द्वाविमो सर्वथा त्याज्यों शेषो कार्यों प्रयत्नतः 11७०।। अर्थ-इनमें से एक उत्थितासीन और दूसरा प्रासोनासीन इन दोनों फायोसोका सदाके लिये त्याग कर वेना और बाकी के दोनों कायोत्सर्ग प्रयत्नपूर्वक धारण करने चाहिये ।।७।। उत्तम ध्यान का स्वरूपसम्यादृशानचारित्रभुतान्यासयमाविषु । महाव्रतेषु सर्वेषु संपमाचरणेषु च ॥७१।। दशलक्षणधर्मषु तपःसमितिगुप्तिषु । प्रत्याख्याने कवायाक्षाशुभध्यानारिरोषने ॥७२॥ प्रास्मसत्त्वेऽन्यतत्त्वेषु ध्यामेषु परमेष्टिनाम् । कर्मानवनिरोधे च संवरे निर्जरा शिवे ॥७३॥ हृदि शुद्धसुसंकल्पः क्रियते यो गुणाप्तपे । महान् व्युत्सर्गमापन्नेस्तत्थ्यानमुत्तममतम् ॥४॥ अर्थ-कायोत्सर्ग धारण करनेवाले मुनि गुण प्राप्त करने की इच्छा से जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र, शास्त्रोंका अभ्यास, यम, नियम, समस्त महाबल समस्त संयमाचरण, वश लक्षण धर्म, तप, समिति, गुप्ति, प्रत्याख्यान, कषायों का निरोध, इन्द्रियों का निरोध, प्रशभ ध्यानका निरोध, प्रात्म तत्त्व, अन्य तत्त्व, परमेष्ठियों का ध्यान, कर्मोके आरव का निरोध, संवर, निर्जरा और मोक्ष प्राप्त करने के लिये जो हृदय में शुद्ध संकल्प करते हैं महा संकल्प करते हैं उसको उत्तम ध्यान कहते हैं ।।७१-७४।। अशुभध्यान कास्वरूप-- परिवारमहासम्यापूजासस्कारहेतवे । अन्नपानादिमिष्टापत्पख्यातिकोतिप्रसिद्धये ॥७५|| स्वमाहात्म्यप्रकाशाप स्वेष्टवस्थाप्तयेऽन्वहम् । स्वराज्यपदादीनांप्राप्तयेऽमुत्र वा हृदि ।।७६।। इत्याद्यन्यतमापत्य यः संकल्पः क्रियतेशुभः । कायोत्सर्गसमापनस्तध्यानमशुभंस्मतम् ॥७॥ अर्थ-इसी प्रकार कायोत्सर्ग करनेवाले जो मुनि अपने परिवार को महा संपत्ति प्राप्त करने के लिये, वा पूजा सत्कार कराने के लिये, वा मीठे-मीठे अन्न-पान । प्राप्त करने के लिये वा अपनी कोति फैलाने वा प्रसिद्ध होने के लिये, या अपना माहा Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ११० ) [ चतुषं श्रधिकार प्राप्त करने के त्म्य प्रगट करने के लिये, वा प्रतिदिन अपनी इच्छानुसार इष्ट पदार्थ लिये वा परलोक में स्वर्ग की राज्य की प्राप्ति का सेना की प्राप्ति के लिये वा इनमें से किसी एक की प्राप्ति के लिये अपने हृदय में अशुभ संकल्प करते हैं उसको अशुभध्यान कहते हैं ।।७५- ७७।। अशुभध्यान का त्याग एवं शुभध्यान आवश्यक - अप्रशस्तं प्रशस्तं च ध्यातं ज्ञात्वाबुधा इदम् | त्यमस्वाशुभं शुभध्यानं कायोत्सर्गे भजन्तु भोः ॥ ७८ ॥ अर्थ — इसप्रकार प्रशस्त और अप्रशस्त ध्यान को समझ कर बुद्धिमानों को कायोत्सर्ग में अशुभध्यान का त्याग कर देना चाहिये और शुभ ध्यान धारण करता चाहिये ॥७८॥ कायोत्सर्ग करनेवाले मुनि का स्वरूप मोक्षार्थी जितनिद्रोयस्तत्त्वशास्त्रविशारदः । मनोवाक्कायसंधुद्धो बलवीर्याद्यलं कृतः ॥७६॥ महातपासाकाश्रो महाधैयों जितेन्द्रियः परीषहो यसर्गादि जयशीलो चलाकृतिः ॥ ८० ॥ महाव्रती परात्मज्ञः इत्याद्यन्यगुणाकरः । कायोत्सर्गो भवेन्नमुत्तमो मुक्तिसाधकः ||१|| - अर्थ – जो मुनि मोक्षकी इच्छा करनेवाला है, निद्राको जोतने वाला है, तत्त्व और शास्त्रोंके जानने में अत्यंत चतुर है, जिसके मन-वचन-काय शुद्ध हैं, जो बल और वीर्य ( शक्ति से) सुशोभित हैं, जो महा तपस्वी है, हृष्ट पुष्ट, पूर्ण शरीर को धारण करनेवाला है, महा धीर वीर है, जितेन्द्रिय है, परिषह और उपसर्गों को जीतने वाला है, जिसकी आकृति निश्चल रहती है, जो महाव्रती है, परमात्मा को जानने वाला है और मोक्षको सिद्ध करनेवाला है तथा और भी ऐसे ही ऐसे गुणों की खानि है, ऐसा मुति उत्तम कायोत्सर्गी (कायोत्सर्ग करनेवाला ) कहा जाता है ।।७६-८१।। कायोत्सर्ग करने का कारण - प्रतानां समितीनां च गुप्तोमा संयमात्मनाम् । क्षमा दिलक्षणानां च मूलान्यगुणद्रक विदाम् || कषायें नैfhatraमोम्माद भयादिभिः । यातायातेः प्रमावैश्च मनोवाग्वपुश्चलः ॥६३॥ जाता येऽतिकमास्तेषां वक्षः शुद्धघर्थमत्र यः । विधोयते तमूत्सर्गः तद्ज्ञेयं तस्य कारणम् ॥ ६४ ॥ अर्थ- व्रत, समिति, गुप्ति, संयम, क्षमा, मार्दव श्रादि धर्म, मूलगुण, उत्तरगुण, सम्यग्दर्शन और आत्माको शुद्धता आदि में कषाय, नोकषाय, मद, उन्माद, भय, गमनागमन प्रभाव, मन इंद्रियां वचन और शरीर की चंचलता से जो अतिचार लगते ८ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १९१} [ चतुर्थ अधिकार हैं चतुर पुरुष उन्हीं को शुद्ध करने के लिये कायोत्सर्ग करते हैं । इसीलिये व्रतादिकों में दोष लगना कायोत्सर्ग का कारण समझना चाहिये ।।८२-८४॥ पुनः कायोत्सर्ग के कारणदई रा उपसर्गा ये नक्षेवादि कता भवि सः परोषहा घोरामहन्तस्तपसादयः ।।५।। कायोत्सर्गेण तान्विश्वान्सद्दे हैं मुक्तिहेतवे । इत्यादि कारणनित्यं कुमंतु मुनयोऽत्र तम् ।।१६।। अर्थ- इस संसार में मनुष्य वा देवों के द्वारा किए हए जितने भी दुर्धर उपसर्ग हैं, जितनी घोर परिषह हैं और जितने महान् तपश्चरण है उन सबको मैं मोक्ष प्राप्त करने के लिये कायोत्सर्ग धारण कर सहन करूंगा, यही समझकर वा इन्हीं कारणों से मुनियों को प्रतिदिन कायोत्सर्ग धारण करना चाहिये ।।८५-८६।। कायोत्सर्ग का फलकायोत्सर्गे कृते यदवदंगोपांगाविसंधयः । नियन्ते सुधियां तप कर्माणि भणेक्षणे ॥७॥ अर्थ---कायोत्सर्ग के करने में जिस प्रकार अंग उपांग को संधियां भिन्न-भिन्न होती हैं उसी प्रकार बुद्धिमानों के कर्म भी क्षण-क्षण में नष्ट होते रहते हैं ॥७॥ कायोन्सर्ग से ऋद्धियों की प्राप्तिकायोत्सर्गप्रभावेन जायन्तेहिमहर्षयः । समस्ता अधिरेणषयोगिनां नात्र संशयः ।।।। अर्थ-इस कायोत्सर्ग के प्रभाव से मुनियों को बहुत ही शीघ्र समस्त महा ऋद्धियां प्राप्त हो जाती हैं इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है ॥८॥ ____ कायोत्सर्ग से शुभध्यान की प्राप्तिधर्मशुक्लशुभाध्याना: शुभाःलेश्याः प्रयान्यहो । कायोत्सर्गरण धर्मात्मनां सर्वोकृष्ठतामिह ।।६।। अर्थ-इस कायोत्सर्ग के प्रभाव से धर्मात्मा पुरुयोंके धर्मध्यान वा शुक्लध्यान तथा शुभ लेश्याऐं सर्वोत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त हो जाती हैं ॥८६॥ ___ कायोत्सर्ग के प्रभाव से इन्द्रों के पासन कंपायमान हो जाते हैंप्रपन्ते सुरेशानामासनादि क्षयान्तरे । महाघ्यानप्रभावन कायोत्सर्गस्थयोगिनाम् ||६|| अर्थ-कायोत्सर्ग में विराजमान हुए मुनियों के महाध्यानके प्रभाव से क्षणभर में ही इंद्रों के प्रासन कंपायमान हो जाते हैं 100 इसके फलो क्रुर व्याघ्रादि भी शांत हो जाते हैंव्याघ्रसिंहादयः कूरा शाम्यन्ति नतमस्तकाः कायो:सर्गस्यधीराणां महायोपप्रभावतः ॥११॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १९२) [ चतुर्थ अधिकार अर्थ- इस कायोत्सर्ग में विराजमान हुए नहा धीर वीर मुनियोंके महाध्यान के प्रभावसे सिंह व्याघ्र प्रादि क्रूर पशु भी शांत हो जाते हैं और उनके चरणों में पाकर अपना मस्तक मुका देते हैं ।।१।। इससे करोड़ों विघ्नों के जाल क्षण भरमें नष्ट होते हैंउपसर्ग व्रजाः सर्वे विघ्नादिजालकोटयः । कायोत्सर्गस्थमाहात्म्यावविधटन्ते च तत्क्षणम् ।।१२॥ __अर्थ-इस कायोत्सर्ग में विराजमान हुए मुनियों के माहात्म्य से क्षणभर में ही समस्त उपसर्गों के समूह नष्ट हो जाते हैं और करोड़ों विघ्नों के जाल क्षणभर में कट जाते हैं ॥१२॥ केवल जानकी प्राप्ति भी इसका फल हैकायोत्सर्गेण दक्षाणां केवलज्ञानमाशुभोः । जायतेप्रकट लोकेऽवान्यस्यज्ञानस्यकाकथा ।।६।। अर्थ-चतुर पुरुषों को इस कायोत्सर्ग के प्रभाव से इसी लोक में शीघ्र ही केवलज्ञान प्रगट हो जाता है फिर भला अन्य ज्ञानोंकी तो बात ही क्या है ॥१३॥ केवलज्ञान रूपी स्त्री वरण करती हैध्यत्सर्ग कुश्तधीरो योधर्मशुक्लपूर्वकम् । प्रत्यासत्या स्वयं हेत्यमुक्तिरामावणोतितम् ॥१४॥ अर्थ-- जो धौर वीर पुरुष धर्मध्यान और शुक्लध्यान पूर्वक कायोत्सर्ग धारण करता है उसपर मुक्तिरूपो स्त्री अत्यंत आसक्त हो जाती है और स्वयं प्राकर उसको वर लेती है ॥१४॥ यह सर्वोत्कृष्ट तप हैकायोत्सर्गरासम्वृष्यं नापरं परमं लपा । उपायस्तत्समो नान्यः कारातिनिकवने ॥११६५॥ अर्थ-इस कायोत्सर्ग के समान न तो अन्य कोई परमोत्कृष्ट तप है और न कर्मरूपी शत्रुओं को नाश करने के लिये अन्य कोई उपाय है ।।११९५।। इस लप करनेवाले के करोड़ों कर्म जाल नष्ट हो जाते हैंयतो व्युत्सर्गकर्तृणां कर्मनामानि कोटिशः । नश्यति क्षणमात्रेण तमांसि भानुना यथा ॥६६॥ अर्थ- इसका भी कारण यह है कि जिसप्रकार सूर्यके उदय होते ही अंधकार क्षरणनर में ही नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार कायोत्सर्ग करने वालों के करोड़ों कर्म जाल क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं ।।६६॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) कायोत्सर्ग के फल का उपसंहार - (मुक्ति प्राप्ति) इत्यादि प्रवरं चास्य फलंमत्वा शिवार्थिनः । स्ववीर्यं प्रकटीकृत्य सिद्धं कुर्वतु तं सवा ||७|| अर्थ --- इसप्रकार इस कायोत्सर्ग का सर्वोत्कृष्ट फल समझकर मोक्षकी इच्छा करनेवाले मुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये अपनी शक्ति प्रगट कर वह कायोत्सर्ग सदा करते रहना चाहिये ||७|| विभिन्न प्रतिक्रमणों में कायोत्सर्ग का काल कायोत्सर्गस्य चोत्कृष्ठेन वबैंक प्रमाणकम् । भ्रन्तर्मुहूर्तमात्रं स्याज्जघन्यं कालसंख्यया ||६८ मध्यमेन तयोर्मध्येप्रमाणं बहुधाभवेत् । अहोरात्रादिपक मास द्वित्र्यादिगोचरम् ।।१६।। १२०० ।। अर्थ - इस कायोत्सर्ग का उत्कृष्ट काल एक वर्ष है और जघन्य काल अंतमुहूर्त है तथा मध्यका जो एक दिन, एक रात एक पक्ष, एक महीना, दो महीना, तीन महीना, छह महीना श्रादि काल है वह सब कायोत्सर्ग का मध्यम काल गिना जाता है ।।६६-१२०० ॥ मूलाचार प्रदीप ] [ चतुर्थ अधिकार श्वासोच्छ्वासपूर्वक कायोत्सर्ग विधि- सत्प्रतिक्रमणे वोरभक्तोवेव सिकाभिधे । कायोत्सर्गे स्याटुच्छ्वासा भ्रष्टोलर शतप्रभाः । १२०१ ॥ उच्छ्वासारात्रिके कार्याश्चतुः पंचाश एव च । परमेष्ठिपदोच्चारः शतानि त्रीणि पाक्षिके ।। उच्छ्वासानां च चातुर्मासिके चतुःशतानि वै । शतानि पंच सांवत्सरके स्युः नियमात्सताम् ॥ वीरभरि बिना शेषसिद्धभवस्था विषुस्फुटम् । सर्वेषुस्युरन्तनुसमें उच्छवासाः सप्तविंशतिः ।। अर्थ - श्रेष्ठ प्रतिक्रमण करते समय, वीरभक्ति करते समय और वैयकि store में एकसौ घाठ उच्छ्वासों से छत्तीस बार नमस्कार मंत्र पढ़ना चाहिये । रात्रि के कायोत्सर्ग में चौवन श्वासोच्छ्वासों से अठारह बार नमस्कार मंत्र पढ़ना चाहिये । पाक्षिक कायोत्सर्ग में तीनसौ उच्छ्वासों से परमेष्ठी वाचक पदोंका उच्चारण करना चाहिये अर्थात् सौबार नमस्कार मंत्र पढ़ना चाहिये । चातुर्मास कायोत्सर्ग में सौ श्वासोच्छ्वासोंसे नमस्कार मंत्र पढ़ना चाहिये और वार्षिक कायोत्सर्ग में पांच उच्छ्वासों से पंच नमस्कार मंत्र पढ़ना चाहिये । वीरभक्ति के बिना शेष सिद्धभक्ति आदि में जो कायोत्सर्ग किया जाता है वह सत्ताईस श्वासोच्छ्वास से करना चाहिये । ।।१२०१ -१२०४॥ व्रत शुद्धि के लिये कायोत्सर्ग की आवश्यकता -- प्रारिहिसानुस्तेया ब्रह्मोयधिप्रसंगतः । सम्महातपंचानां जातातिचारशुद्धये ||१५|| Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( १९४) [ चतुर्थ अधिकार पृथक्पृथग्विधातव्यः कायोत्सगों व्रतामिभिः । अष्टोत्तरशतोच्छ्वासः प्रमाणोविधनास्यचित् ।। अर्थ-हिसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहके निमित्तसे जो पांचों महाव्रतोंमें अतिचार लगे हों तो उनको शुद्ध करने के लिये वतियों को अलग-अलग व्रतके अलगअलग असिचार एकसौ आठ उच्छवासके द्वारा विधिपूर्वक कायोत्सर्ग धारण कर अलग हो शुद्ध करना चाहिये । भावार्थ-एकसौ आठ उच्छ्वासों के द्वारा अहिंसा व्रतके दोष शुद्ध करने चाहिये फिर एकसौ आठ उच्छ्वासों द्वारा सत्यवतके दोष दूर करने चाहिये इसप्रकार सबके लिये अलग-अलग कायोत्सर्ग करना चाहिये ।।५-६॥ ___ स्वाध्याय और वन्दना में कायोत्सर्ग विधिग्रंथारम्भे समाप्ते च स्वाध्याये बंदनाविषु । कायोत्सर्गेण कर्तव्या उच्छ्वासाः सप्तविशंतिः ।।७।। अर्थ-ग्रंथके प्रारंभ में वा ग्रंथ की समाप्ति में, स्वाध्याय में, वंदना करने में वा और भी ऐसे कार्यों में सत्ताईस श्वासोच्छ्वास से कायोत्सर्ग करना चाहिये ॥७॥ कायोत्सर्ग में ध्याने योग्य पद और उसका फलकामोत्सर्गेषु सबंधु होत्युच्छ्वासान् विधाय च । परमेष्ठिपयाना जपनेनाविशुद्धये ।।८।। अर्थ--ऊपर कहे हुए समस्त कायोत्सर्गों में ऊपर कहे हुए उच्छवासोंके द्वारा पंच परमेष्ठियों को कहने वाले पदों को जपना चाहिये । ऐसे ही जपसे पापों की शुद्धि होती है ॥८॥ प्रशस्त ध्यान करने को प्ररणा--- प्रशस्त धर्मशुक्लाख्यं द्विषाध्यानशिवप्रदम् । स्वशक्त्या क्वचित्तेचिरंध्यायन्तु धोषनाः ।।६।। अर्थ-धर्मध्यान और शुक्लध्यान ये दो ध्यान ही प्रशस्त हैं और ये ही दो ध्यान मोक्ष देनेवाले हैं इसलिये बुद्धिमान पुरुषों को अपनी शक्ति के अनुसार एकचित्त होकर चिरफाल तक ये दोनों ध्यान धारण करने चाहिये ॥६॥ निर्दोष कायोत्सर्ग का फलयतोव्युत्सर्ग एकोस धर्मशुक्लशुभान्वितः । द्वात्रिदोषनिष्क्रान्तः कृतः पाशुसुयोगिनाम् ॥१०॥ महती सकला ऋद्धी व्योमगत्यादिकारिणी । मानं च केवलं विश्वप्रवीपं जनयस्यहो ॥११॥ अर्थ-क्योंकि यह कायोत्सर्ग यदि बत्तीस गोषों से रहित तथा शुभ धर्मव्यान और शुक्लध्यान पूर्वक किया जाय तो इस एक ही से मुनियों को प्राकाश गामिनी Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १९५) [.चत्तुथं अधिकार आदि बड़ी-बड़ी समस्त ऋद्धियां प्राप्त हो जाती हैं तथा लोक अलोक सबको दिखलाने वाला केवलज्ञान प्रगट हो जाता है ॥१०-११॥ कायोत्सर्ग के वत्तीम दोषों के नामधोटकोऽथलतास्यस्तंभकुनौमालसंज्ञः । दोषः स घरवघ्याख्यस्ततो निगलनामकः ।।१२।। लम्बोत्तराभिधोदोषस्तनबुष्टिश्चषायसः । खलिनो युगकपित्थो शिरः प्रकषितात्यकः ॥१३॥ मूक्तिोगुलिदोषोयभ्र विकारसमाह्वयः। बोवश्ववारणीपायी दिग्दशालाकनादिशः ।।१४।। प्रोवोत्रमनदोषोय पोषःप्रणमनाल्यकः । निष्ठीवनोगमाख्योऽथाभीषां लक्षणं वे ॥१५।। अर्थ- कायोत्सर्ग के बत्तीस दोषों के नाम कहते हैं । घोटक, लता, स्तंभ, कुड्य, माल, वरवध, निगल, लम्बोत्तर, स्तनदृष्टि, वायस खलीन, युग, कपित्थ, शिर प्रकंपित, मूकित, अंगुलि, भ्र विकार, वारुणीपायी, दिग्दशालोकन ग्रीवोन्नमन प्रणमन, निष्ठीवन अंगमर्श ये कायोत्सर्ग के बत्तीस दोष हैं आगे अनुक्रम से इनका लक्षण कहते हैं ॥१२-१५॥ घोटक दोष का स्वरूपयः स्वकं पादमुरिक्षप्यविन्यस्थ वात्र तिष्ठिति । प्रवद्धिप्त नत्सर्गे सः स्याद्घोटकोषभाक् ॥ अर्थ-जो मुनि कायोत्सर्ग करते समय घोड़े के समान एक पैर को उठाकर अथवा एक पैर को रख कर कायोत्सर्ग करता है उसके घोटक नाम का दोष लगता लता दोष का स्वरूपलतेवात्रनिजांगानि चालयन् यः प्रतिष्ठते । कायोत्सर्गरण तस्य स्याल्लतादोषश्चलारमनः॥१७॥ अर्थ-जो मुनि लता के समान अपने शरीर को वा अंग उपांगों को हिलाता हुआ कायोत्सर्ग करता है उस चंचल मुनि के लता नाम का दोष लगता है । ॥१७॥ स्तंभ दोष का स्वरूपस्तंभमाश्रित्य यस्तिष्ठत् कायोत्सर्गस संघप्तः । वा अन्यहृदयस्तस्य स्तंभयोषोत्र जायते ।।१।। अर्थ-जो मुनि किसी खंभेके आश्रय खड़ा होकर कायोत्सर्ग करता है अथवा खंभे के समान शून्य हृदय होकर कायोत्सर्ग करता है उसके स्तंभ नामका वोष लगता है ॥१८॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : मूलाचार प्रदीप ( १९६ ) [ चतुर्थ अधिकार कुड्य दोष का स्वरूपकुडघमाश्रित्य तिष्ठेद्यो व्युत्सर्गरमाथवापरम् । कुडयदोषो भवेत्तस्य कायोत्सर्गमलप्रदः ॥१६॥ अर्थ-जो मुनि किसी बीवाल के सहारे खड़ा होकर कायोत्सर्ग करता है उसके कायोत्सर्ग को दूषित करनेवाला कुड्य नामका दोष लगता है ॥१६॥ __ माल दोष का स्वरूपपीठिकादिकमारुह्य वोर्वभागंस्षमस्तकाल ! अाश्रित्य यस्तनसग कुर्यात्स मालदोषवान् ॥२०॥ अर्थ-जो मुनि किसी पीठिका पर (वेदी आदि पर) चढ़ कर और उसके ऊपर के भाग पर मस्तक का सहारा लेकर कायोत्सर्ग करता है उसके माल नामका दोष प्रगट होता है ॥२०॥ वर-वधू दोष का स्वरूपजंघान्यांजघनंपोडय सवरादिवरिव 1 यस्सं पत्तेऽत्र स स्यात्सबरवध्यारव्यहोपभाक् ।।२१।। अर्थ-जो मुनि वर-वधु के समान दोनों जंघाओं से जंघाको दबाकर कायोत्सर्ग करता है उसके वरवधू नामका दोष लगता है ।।२१।। निगल दोष का स्वरूप-- हरवा बह्वन्तरालं यः पादयोनिगलस्थवत् । कायोत्सर्ग विषत्ते स निगलास्यंमलंश्रयेत् ।।२२॥ अर्थ-जिसके पैर सांकल से बंधे हैं, पैरों के बीच में बेड़ी वा लोहे के डंडे पड़े हैं उसके समान जो अपने पैरों को बहुत दूर-दूर रखकर कायोत्सर्ग करता है उसके निगल नामका दोष लगता है ॥२२॥ लंबोदर दोष का स्वरूपव्युत्सर्गथास्ययस्यात्रोन्नमनंचभन्मुमे: वह्वषोनमनं तस्य दोषोलम्बोत्तरातयः ।।२३।। अर्थ-कायोत्सर्ग करते समय जो मुनि ऊंचेको अधिक तन जाय अथवा नीचे को नब जाय उसके लंबोत्तर नामका दोष लगता है ।।२३॥ स्तन दृष्टि दोष का स्वरूपध्युत्सर्गस्थोत्र यः पश्येत्स्वस्तनौ चंचलोवृशा । तस्य दोषः प्रजायेत स्तनवृष्ठिसमालमत् ॥२४॥ अर्थ-जो चंचल मुनि कायोत्सर्ग करते समय नेत्रों से अपने स्तनों को देखता है उसके स्तनदृष्टि नामका दोष लगता है ॥२४॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूलाचार प्रदीप ] ( १९७ ) वायस दोष का स्वरूप कायस्थ एवायपाश्यपश्यति यो दशा । काकवत्तस्य जायेतदोषो वायससंज्ञकः । १२५३| अर्थ - कायोत्सर्ग करता हुआ जो मुनि कौए के समान इधर-उधर दोनों बगलों की ओर देखता है उसके वायस नामका दोष लगता है ॥२५॥ [ चतुर्थ अधिकार खलोन दोष का स्वरूप --- कायोत्सर्ग विश्चाश्ववत्खलिन पीडितः । यो वन्तकटकंमस्तकं तस्यखलिदोमलः ||२६|| श्रर्थ- - लगाम से दुःखी हुए घोड़े के समान जो मुनि मस्तक को हिलाता हुआ और दांतों को कट कटाता हुआ कायोत्सर्ग करता है उसके खलीन नामका दोष होता है ॥२६॥ युग दोष का स्वरूप प्रो सायं तिष्ठे गपीडितवृषादिवत् । कायोत्सर्गेण तस्यास्ति युगदोषो विरूपकः ||२७|| अर्थ – जिसप्रकार जुना से दुःखी हुआ बल अपनी गर्दन को लंबी कर देता है उसी प्रकार जो मुनि अपनी गर्दनको लंबी कर कायोत्सर्ग करता है उसके युग नामका शुभ दोष होता है ।। २७ ।। कपित्थ दोष का स्वरूप efereemaraष्टिं कृत्वातिष्ठति यो मुनिः । व्युत्सर्गेण भवेत्तस्य कपित्थदोष एवहि ॥ २८ ॥ अर्थ -- जो मुनि कैथ के समान अपनी मुट्ठियों को बांधकर कायोत्सर्ग करता है उसके कपित्थ नामका दोष लगता है ।। २८ ।। शिरः प्रकंपित दोष का स्वरूपकायोत्सर्गान्वितो यः शिरः प्रकंपयतिस्फुटम् । शिरः प्रपितं दोषं लभते समलप्रदम् ॥२६॥ अर्थ - जी मुनि कायोत्सर्ग करता हुआ शिरको हिलाता जाता है उसके शिरः प्रकंपित नामका मल उत्पन्न करनेवाला दोष लगता है ॥२६॥ मूकित दोष का स्वरूप—— करोति चंचलत्वेन कायोत्सर्गस्थ संयतः । मुखनासाविकारं मस्तस्यशेषोहिमुकितः ॥३०॥ अर्थ- जो मुनि अपनी चंचलतासे कायोत्सर्ग करता हुआ भी मुख वा नासिका में विकार उत्पन्न करता रहता है उसके मूकित नामका दोष लगता है ||३०|| Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( १९८) [चतुर्थ अधिकार अंगुलि चलित दोष का स्वरूपकायोत्सर्ग युतो योऽत्र विकारं कुरुतेयतिः । हातपाय गुजोणागिरो लागतमाः ३१ अर्थ-कायोत्सर्ग करता हुआ जो मुनि हाथ पैर वा अंगुली से विकार उत्पन्न करता रहता है उसके अंगुली नामका दोष लगता है ॥३१॥ भ्र -विकार दोष का स्वरूपव्युत्सर्गस्थोमयी नेत्रे भ्रू विकारं तनोति यः। नतनं बागुलीनां पादयोः सभ्रू विकारभार ॥३२॥ अर्थ-जो मुनि कायोत्सर्ग करते समय नेत्रों में या भोंहों में विकार उत्पन्न करता है अथवा अपने पैर की अंगुलियों को नचाता है उसको भ्र विकार नामका दोष लगता है ॥३२॥ ___ वारूणी-पायी दोष का स्वरूप-- सुरापायीव यो घूर्णमानास्तिष्ठतिसंयमी। व्यत्सर्गे धारुणीपायी दोषस्तस्य चलात्मनः ।। ३३॥ अर्थ-जो मुनि मध पीने वाले मनुष्य के समान लहरें लेता हुआ कायोत्सर्ग करता है उस चंचल मुनि के वारुणोपायो नाममा दोष लगता है ॥३३॥ दवा दिगालोकन के दश दोषों का स्वरूपध्युरसगंस्थः प्रपश्येद्यो नेत्राम्यां हि दिशोदश । लभते वमा दोषान् स दिगालोकनसंज्ञकाम् ॥३४॥ अर्थ- जो मनि कायोत्सर्ग करता हुआ भी अपने नेत्रों से दशों दिशाओं की ओर देखता है उसके दश दिगालोकन नामके दश दोष लगते हैं। भावार्थ-एक एक दिशाको देखना एक-एक दोष है । इसप्रकार दशों विशाओंको देखना दश दोष हैं ।।३४॥ पीवोन्नमन दोष का स्वरूपकायोत्सर्गरणसंयुक्तः स्वप्नीवोन्नमनंहि यः । करोति तस्य दोषः स्याग्रीवोन्नमन नामकः ।।३।। अर्थ-जो मुनि अपनी गर्दन को ऊंची कर कायोत्सर्ग करता है उसके ग्रोबोअमन नामका दोष लगता है ॥३॥ प्रगमन दोष का स्वरूपकायोत्सर्गाकितो यः प्रगमनं फुरतेपतिः । तस्यप्रणमनाख्योस्ति बोषो दोषकरोऽशुभः ॥३६॥ अर्थ-जो मुनि कायोत्सर्ग करता हुआ भी नीचे की ओर झुक जाता है उसके अनेक दोष उत्पन्न करनेवाला प्रणमन नामका अशुभ दोष होता है ॥३६॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( १९६ ) [ चतुर्थ अधिकार निष्ठीवन दोष का स्वरूपव्युत्सर्गालंकृतोयत्र निष्ठीवनं करोति च तथा षड्वारणं तस्यदोषो निष्ठोधनाह्वयः ।।३७।। अर्थ---जो मनि कायोत्सर्ग करता हुप्रा भी यूकता रहता है अथवा खकारता रहता है उसके निष्ठीयन नामका दोष होता है ॥३७॥ अंगमर्श दोष का स्वरूप-- कायोत्सर्गयुतः कुर्याच्चपलत्वेन यो मुनिः । स्वशरीरपरामर्श सोंगामाख्यदोषवान् ।।३॥ अर्थ-जो मनि कायोत्सर्ग करता हुआ भी चंचल होने के कारण अपने शरीर को स्पर्श करता रहता है उसके अंगमर्श नामका दोष लगता है ।।३॥ प्रयत्न पूर्वक दोषों के त्याग की प्रेरणाएते दोषा:प्रयत्नेन द्वात्रिंशत्संष्यकाः सदा । योगशुद्धया परित्याज्याः कायोत्सर्गस्यसंयतः ॥३६॥ अर्थ-कायोत्सर्ग धारण करनेवाले मुनियोंको अपने मन-वचन-कायको शुद्धता पूर्वक प्रयत्नपूर्वक इन बसोस यौधों का त्याग कर देना चाहिये ।।३।। निर्दोष कायोत्सर्ग का फल--- ___ यतोमीभिविनिमुक्त दोषः सर्व प्रकुर्वते । व्युत्सगं प्रकटीकृत्य ये सामथ्यं पराक्रमम् ।।४०॥ तेषां नश्यन्ति चत्वारि घातिकर्मारिग जायते । केवलावगमं सर्वगुणः सहाचिरेण भोः ॥४१॥ अर्थ-क्योंकि जो मुनि अपने पराक्रम वा सामर्थ्य को प्रगट कर इन समस्त दोषों से रहित होकर कायोत्सर्ग करते हैं उनके चारों घातिया कर्म नष्ट हो जाते हैं और शीघ्र ही अनंत चतुष्टय आदि गुणों के साथ-साथ केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। ॥४०-४१॥ कायोत्सर्ग की प्रेरणाविज्ञायेति फलं चास्य शफफा वा मंयशक्तयः । कुर्वन्तु प्रत्यहं कायोत्सर्ग सर्वार्थसिद्धये ॥४२॥ अर्थ-इस कायोत्सर्ग का ऐसा फल समझकर समर्थ मनियोंको व कम समर्थ मुनियों को भी अपने समस्त पुरुषार्थ सिद्ध करने के लिये प्रतिदिन कायोत्सर्ग करना चाहिये ॥४२॥ कायोत्सर्ग की प्रमाणिकतायतोत्र निजशक्त्या स क्रियमाणोजगहसताम् । भवत्येव न संदेहो महाकनिधनः ||४३॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] (२००) [चतुर्थ अधिकार अर्थ-क्योंकि अपनी शक्तिके अनुसार किया हुश्रा कायोत्सर्ग जगतके सज्जन में पुरुषों को महा फलका कारण होता है इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है ।।४।। कायोत्सर्ग विना शारीरिक बल को निस्सारतामान्य वलिन प्रमादेशमा पुगी सामना मवेशेषां ध्यर्थं अंधावलादिकम् ।।४४॥ अर्थ- जो मुनि समर्थ और बलवान होकर भी प्रमाद के कारण कायोत्सर्ग नहीं करते हैं उनको जंघा का बल ध्यर्थ ही समझना चाहिये ॥४४॥ कायोत्सर्ग में प्रभाव त्याग की प्रेरणामत्वेति कर्मनाशाय कायोत्सर्गो भवापहः । कर्तव्यः प्रत्यहं धीरः प्रभावन विनाखिलः ।।४।। अर्थ-यही समझकर धीर वीर पुरुषोंको अपने कर्म नष्ट करने के लिये प्रमाद को छोड़कर संसारको नाश करनेवाला यह कायोत्सर्ग प्रतिदिन करना चाहिये ।।४५॥ ___ कायोत्सर्ग की महिमाविश्वापच धर्ममूलं सफलविधिहरं तीर्थनार्यनिषेव्यं मुक्तिश्रीवामदर्शगुणमणिजलषि धोरवीरकगम्यम् । तुःपघ्नं शमलानि कुरुत मुविधिना ध्यानमालष्य पक्षाः कायोत्सर्गशिवाप्त्ययपुषि जगतिषानिर्ममाषं विधाय ।।४।। अर्थ-यह कायोत्सर्ग संसार भर में मुख्य है, धर्मका मूल है, समस्त कमों को नाश करनेवाला है, भगवान तीर्थकर परमदेव भी इसको धारण करते हैं, यह मोक्षरूपी लक्ष्मी के देने में अत्यंत चतुर है, गुणरूपी मणियों को उत्पन्न करने के लिये समुद्र के समान है, धीर वीर पुरुष हो इसको धारण कर सकते हैं, यह समस्त दुःखों को नाश करनेवाला है और कल्याण की खानि है । ऐसा यह कायोत्सर्ग चतुर पुरुषों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये अपने शरीर से सथा संसार से ममत्व छोड़कर और शुभध्यान को आलंबन कर विधि पूर्वक अवश्य करना चाहिये ।।४६॥ भावश्यक के नाम की सार्थकता और प्रयत्नपूर्वक पालन की प्रेरणाप्रघमकरणावेते प्रोक्ता प्रावश्यका जिनः । सर्वे सार्थक मामनो योगिनां योगकारिणः ॥४७॥ अथवामुक्तिरामावस्यवशीकरण बुधः। प्रावश्यका महान्तः षडुक्ताः सर्वार्थसाधकाः ॥८॥ ज्ञा वेति परिपूर्णानि दक्षरावश्यकानि षट् । काले काले विधेयानिमहाफलकराण्यमि ॥४६॥ अर्थ-इसप्रकार जो छह प्रावश्यक कहे हैं वे मुनियों को अवश्य करने चाहिये Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २०१) [ चतुर्थ अधिकार इसलिये भगवान जिनेन्द्रदेव इनको आवश्यक कहते हैं । ये सब आवश्यक सार्थक नाम को पार करते हैं और गोषितों को ध्यान उत्पन्न करनेवाले हैं । अथवा इनके द्वारा मुक्तिरूपी स्त्री अवश्य ही वशमें हो जाती है इसलिये बुद्धिमान लोग इनको आवश्यक कहते हैं । ये छहों आवश्यक महान् हैं और समस्त अर्थों को सिद्ध करनेवाले हैं । यही समझकर चतुर पुरुषों को अपने-अपने समयपर महाफल देनेवाले ये छहों आवश्यक पूर्ण रूपसे पालन करने चाहिये ॥४७-४६।। __ योग्य समय पर किये गये आवश्यक का फलयया धाम्यानि सर्वाणि काले काले कृतानि च । महाफलप्रदानि स्युःसामप्रयात्र कुटविनाम् ।।५।। तयावश्यक कुरूनानियोग्यकालेकृतान्यपि । इन्द्राहमिंदतीर्थेशादिश्रीप्रवानि योगिनाम् ॥५१॥ अर्थ-जिसप्रकार समय-समय पर उत्पन्न किये हुये धान्य कुटुम्बी लोगों को प्रर्य सामग्री के साथ महाफल देनेवाले होते हैं उसी प्रकार योग्य समय पर किए हए समस्त प्रावश्यक भी मुनियों को इन्द्र ग्रहमिन्द्र और तीर्थकर आदि के समस्त पद और उनकी लक्ष्मी को देनेवाले होते हैं ।३५०-५१॥ असमय में आवश्यक करने से हानिप्रकाले कृतसस्यानि यथा नाभीष्टसिद्धये । कृतान्यावश्यकाम्यन्नसामप्रचादिविनातथा ॥१२॥ अर्थ-जिसप्रकार असमय पर उत्पन्न किये हुये धान्यों से अपनी इष्ट सिद्धि नहीं होती उसी प्रकार सामग्री प्रावि के बिना किए हुए आवश्यकों से भी मुनियों को इष्ट सिद्धि नहीं होती ॥१२॥ त्रियोग शुद्धि पूर्वक आवश्यक करने की प्रेरणाविज्ञायेति विचारशाः षडावश्यकमंजसा । कालेकालेप्रकुर्वन्तु त्रिशुद्धघा शिवभूतये ॥५३॥ अर्थ-यह समझकर विचारवान् पुरुषों को मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त करने के लिये मन-वचन-कायको शुद्ध कर समयानुसार यहाँ आवश्यक करने चाहिये ॥५३॥ आवश्यक की प्रमाणिकतासर्वसिद्धांतसारार्थमावाम श्रीगणाधिपः । रचितानि मुनीनां च विशुवच धर्मसिद्धये ॥५४॥ अर्थ-गणधर देवों ने धर्मकी सिद्धि के लिये और मुनियों के चारित्रको शुद्ध रखने के लिये समस्त सिद्धांत के सारभूत अर्थ को लेकर ये प्रावश्यक बतलाये हैं। ॥५४॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ] ( २०२ ) शास्त्र पठन के लोभसे श्रावश्यक नहीं करने से हानियायावश्यक साराणि तानि योगतधीर्यति । होनाति कुरुले मूढः शास्त्रपाठाविलोभसः ॥५५॥ तस्मात्पलायते बुद्धिवं तस्वढौंकते । इहामुत्रसुखंनश्येव व्रतादिसद्गुणैः समम् ॥५६ ।। [ चतुर्थ अनिकाय अर्थ- जो बुद्धि रहित मूर्ख मुनि शास्त्रों के पठन-पाठन के लोभसे सारभूत समस्त आवश्यकों को पूर्णरूप से नहीं करता है, कर्म करता है उसको बुद्धि दूर भाग जाती हैं मूर्खता उसपर सवार हो जाती है और व्रत आदि श्रेष्ठ गुणोंके साथ-साथ इस लोक और परलोक दोनों लोकों के उसके समस्त सुख नष्ट हो जाते हैं ।। ५५-५६ ।। - आवश्यक करने के पश्चात् ही अन्य कार्यों की प्रेरणा मरति योनिः पूर्वं कृत्यावश्यक मंजसा । ततः पठन्तु शास्त्रावीन् बैः स्युः सर्वार्थसिद्धयः ||५७ ॥ अर्थ - यही समझकर योगी पुरुषों को सबसे पहले आवश्यक करने चाहिये और फिर शास्त्रादिक का पठन-पाठन करना चाहिये। ऐसा करने से ही समस्त पदार्थों की सिद्धि होती है ॥१५७॥ बिना श्रावश्यक के मोक्ष प्राप्ति असम्भव - विनात्रावश्यक धीरावासमोहतेशिवे । कायक्लेशेन गंतु स मेवं चरणादृते ॥ ५८ ॥ अर्थ- जो धीर वीर रहित मुनि बिना आवश्यकों के केवल काय क्लेशके द्वारा मोक्ष चाहते हैं । वे बिना पैरों के मेरुपर्वत पर चढ़ना चाहते हैं ||५८ ॥ धर्मके बिना कार्य की प्रसिद्धि- jarat यथा हस्तीवंष्ट्रा होनो मृगाधिपः । स्य धर्मोजनो जातु न क्षमः कार्यसाधने १२५६ ॥ अर्थ - जिसप्रकार टूटे दांत वाला हाथी अपना कार्य सिद्ध नहीं कर सकता बिना डाढ़ों के सिंह अपना कार्य सिद्ध नहीं कर सकता उसी प्रकार धर्म रहित मनुष्य भी कभी अपना कार्य सिद्ध नहीं कर सकता ॥ ५६ ॥ दृष्टान्तपूर्वक आवश्यक बिना कर्म के नाश नहीं तथावश्यकहीनश्च यतिः क्वचिप्रजायते । कुशलो वा समर्थो नम्वर्गमोक्षादिसाधने २६०॥ पांगर हिलो पारीन् हंतु क्षमो नृपः । कर्मातीन् भुनिस्तद्वदावश्यक क्लातिगः ।। ६१ ।। अर्थ -- इसी प्रकार आवश्यक रहित मुनि भो स्वर्ग मोक्ष को सिद्धि करने में कभी कुशल वा समर्थ नहीं हो सकते। जिसप्रकार राज्य के अंगों से रहित राजा अपने Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( २०३ ) [ चतुर्थ अधिकार शत्रुओं को नष्ट नहीं कर सकता उसीप्रकार आवश्यक रूपी अलसे रहित मुनि भी कर्मरूपी शत्रुओं को कभी नाश नहीं कर सकता ।।६०-६१॥ सावश्यक की महिमामरवेति सर्वयस्लेन रत्नत्रयविशुद्धथे । सम्पूर्णानि सवा वक्षा: कुधन्वावश्यकानिषट् ।।६२।। विश्वाान् विश्वद्याम् शिवसुखजनकान् सबदोषारिहान्, सेव्यान् लाकोसमा गणपरजिनपैः धर्मवाझेननघ्नन् पूतान्सारान् । गुणांकानश्रुतसकलमहाय विकद्धांस्त्रिशुद्धमा पूनिन्नित्यं प्रयत्नात्कुरुतसुमुनयः षडबिधावस्यकान् भाः ॥१२६३।। अर्थ- यही समझकर चतुर पुरुषों को अपना रत्नत्रय विशुद्ध रखने के लिये पूर्ण प्रयत्न के साथ समस्त छहों आवश्यक पालन करने चाहिये । ये छहों प्रावश्यक तीनों लोकों में पूज्य हैं, तीनों लोकों में वंदनीय हैं, मोक्ष सुखको देने वाले हैं, समस्त दोषरूपी शत्रुओं को नाश करनेवाले हैं, भगवान जिनेन्द्रदेव वा गणधरवेव आदि संसार के समस्त उत्तम पुरुष इनकी सेवा करते हैं, इनको धारण करते हैं, ये आवश्यक धर्मके स्वरूपको कहनेवाले हैं, पापरहित हैं, पवित्र हैं, सारभूत हैं, अनेक गुणों से सुशोभित है और श्रुतज्ञान के समस्त महा अर्थोंसे भरे हुए हैं । इसलिये हे मुनिराजों मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक पूर्ण प्रयत्न से इन छहों प्रावश्यकों को पूर्ण रीति से सवा पालन करो ।।६२-६३॥ १३ क्रियायें में सारभूत दो क्रियाप्रयोमाक्रियाणां हि मध्ये येनोविते जिनः । निषिद्धिकासिके सारे धुनातेव दिशाम्यहम् ॥६४॥ ___ अर्थ-भगवान जिनेन्द्रदेव ने तेरह क्रियाओं में निषिद्धिका और मासिका ये सारभूत दो क्रियाएं बतलाई हैं प्रागे इन्हीं दोनों का स्वरूप कहते हैं ॥६४।। निषिशिका का स्वरूप और उसकी महिमा-- भवद्योत्र निषिद्धात्मा महायोगोनिसेन्धियः । कषायोगममत्वादी मनोवाकायकर्मभिः ॥६५॥ प्रोक्ता महामुनेस्तस्यसार्थापूज्यानिविरिका । तीर्थ मूसा जगधा धर्मखामिर्गणाधिपः ॥६६॥ अर्थ-जो जितेन्द्रिय महायोगी कषाय और शरीर के ममत्व आदि में मनवचन-काय के तीनों योगों से निषिद्ध स्वरूप रहते हैं कषाय और शरीर ममत्व नहीं करते उन महा मुनियों के पूज्य और सार्थक निषिद्धिका कही जाती है । यह निविद्धिका Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदोप] { २०४ ) [ चतुर्य अधिकार तीर्थभूत है, जगतबंध है और धर्मकी खानि है, ऐसा गणधरदेवों ने कहा है ॥६५-६६।। काय, ममत्व घटे बिना निषिद्धिका व्यर्थ-- प्रपरस्यानिषिद्धस्य योगिनाचंचलात्मनः । निषिद्धिकाभिधः शब्दो भवत्येवात्र केवलम् ।।७।। अर्थ-जिन मुनियों के मन-वचन-काय चंचल हैं और जिनके कषाय और ममत्व घटे नहीं हैं उनके लिये निषिद्धिका शब्द केवल नाममात्र के लिये कहा गया है ।।६।। नासिका का स्वरूप, ज्याति पूजा की इच्छा करनेवाले के पासिका क्रिया व्यवंइहामुत्राक्षभोगादौख्यातिपूजावि कोतिषु । सर्वाशाभ्योबिनियुक्तो मुक्तिकांक्षी मुनीश्वरः ।।६।। योन सस्थयतीन्द्रस्यासिका संज्ञा जिनोविता । प्राकांक्षिरणोऽपरस्यासिका शब्द: केवलं भवेत् ।।६।। अर्थ- जो मुनिराज इस लोक और परलोक दोनों लोक संबंधी इन्द्रिय भोगों में तया ख्याति पूजा और कीति में समस्त आशाओं से रहित हैं और जो केवल मोक्ष की इच्छा रखते हैं उन मुनिराजों को प्रासिका संज्ञा भगवान जिनेन्द्र देव ने बतलाई है। तथा जो मुनि भोगादिकों की इच्छा करते हैं अथवा ख्याति पूजा वा कीर्ति की इच्छा करते हैं उनके लिये मासिका शब्द केवल नाममात्र के लिये कहा गया है ।।६८.६६॥ वचन पूर्वक निषिद्धिका प्रामिका करने की प्रेरणायथायोग्गमिमेयुक्त्यं निषिद्धिकासिकेशुमे । त्रयोदशक्रिया सिद्ध कियते वचसा बुधः ॥७०.। अर्थ-बुद्धिमान पुरुषों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये तथा तेरह क्रियाओं को सिद्ध करने के लिये यथायोग्य रीति से वचन पूर्वक निििद्धका और आसिका ये दोनों क्रियाएँ करनी चाहिये ॥७॥ केशलोंच का स्वरूप___ इत्यावश्यकमाण्यापयतीनां हितसिद्धये । शेषमूलगुणान् वक्ष्ये लोचारिप्रमुखानहम् ॥७॥ हस्तेनमस्तके कूर्चश्मश्रूगां यतिधीयते । उत्पाटनं विना क्लेशं सद्भिः लोचः स उच्यते ॥७२॥ अर्थ-इसप्रकार यतियों का हित करने के लिये आवश्यकों का स्वरूप कहा अब प्रागे केशलोंच आदि अन्य मूलगुणों को कहते हैं मिनिराज जो बिना किसी क्लेश के अपने हाथ से ही मस्तकके तथा डाढी मूछों के बाल उखाड़ डालते हैं उसको सज्जन पुरुष लोच कहते हैं ॥७१-७२॥ उत्कृष्ट मध्यम जघन्य केशलोंच का स्वरूपकियते यो द्विमासाभ्यां लोचःउस्कृष्ट एव सः । श्रिमासमध्यमस्तुर्यमासजयन्य एव च । ७३।। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २०५ ) [ चतुर्थ अधिकार अर्थ - जो लोंच दो महीने में किया जाता है वह उत्कृष्ट कहलाता है, जो तीन महीने में किया जाता है वह मध्यम कहलाता है और जो चार महीने में किया जाता है वह जघन्य कहलाता है ॥७३॥ चौथे महिने के उल्लंघन का निषेध तुमासान्तरे लोचः कर्तव्यो मुनिभिः सदा । रागक्लेशादिकोटीभिः पंचमेमासि जातु न ||७४ ।। अर्थ - मुनियोंको चौथे महीने के भीतर ही लोंच कर लेना चाहिये। करोड़ों रोग वा क्लेश होनेपर भी पांचवें महीने में लोंच नहीं करना चाहिये ||७४ || केशलोंच की महिमा - सोचेन प्रकटं बोयं निलिंगं च योगिनाम् । श्रहिंसावत मत्यर्थं कायक्लेशं तपो भवेत् ॥ ७५ ॥ ॥ तथास्य करणेनैव वंशग्यं बद्धतेतराम् । हीयते रागशत्रुरवांगादनिर्ममता परा ॥ ७६ ॥ ॥ अर्थ - केश लोच करने से सुनियों को होती है प्रगट होता है अहिंसा व्रतको वृद्धि होती है और कायक्लेश नामका तपश्चरण होता है। इसके सिवाय इस केशलोचके करने से वैराग्य की वृद्धि होती है, राग, रूप, शत्रु नष्ट होता है और शरीर से होनेवाले निर्ममत्व की अत्यंत वृद्धि होती है ।।७५-७६ ।। उपवास पूर्वक केशलोंच करने की प्रेरणा इत्यादिगुण वृद्धयर्थं योगिभिर्लोच एव हि । उपवासविने कार्या न जातुमु नाविकः । ७७॥ अर्थ- - इस प्रकार अनेक गुणों की वृद्धि करने के लिये मुनियों को उपवास के दिन लोच ही करना चाहिये उन्हें मुंडन श्रादि कभी नहीं कराना चाहिये । ॥७७॥ क्षौर कर्म का निषेध यतो न काकीमात्रः संग्रहो स्तिमहात्मनाम् । येनात्र कार्यते औरं तस्माल्लोषः कृतीमहान् ॥ ७८ ॥ हिंसा हेतुभयाद्यस्मात्त्रमात्रं न चाश्रितम् । मुनिभिः पापभीतय तेषां लोचोजिनतः ॥ ७६ ॥ अर्थ – इसका भी कारण यह है कि महात्मा मुनियोंके पास सलाई मात्र भी परिग्रह नहीं होता जिससे वह और करले इसीलिये मुनियों को लोच करना ही सर्वोत्कृष्ट माना है । कोई भी अस्त्र रखना हिंसा का कारण है अतएव पापों से डरने वाले मुनि हिंसा के हेतुके भय से कोई प्रस्त्र नहीं रखते । इसलिये भगवान जिनेन्द्रदेव ने मुनियों के लिये लोच ही बतलाया है ।।७८ ७६॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( २०६ } [ चतुर्थ अधिकार केशलोंच का उपसंहारात्मक विवरणइतिगुणमरिणखानि सर्वतीशसेव्यं मुनिवरगतिहेतु सत्तपो धर्मवीजम् । सुरशिवगतिमार्ग मुक्तिकामाः कुरुध्वं दुरिततिमिर भानु लोचमात्माविशुद्धय १०॥ अर्थ-यह केश लोच ऊपर लिखे हुए अनेक गुणरूपो मणियों को खानि है, समस्त तीर्थकर इसकी सेवा करते हैं अर्थात् लोच करते हैं, यह मुनियों को श्रेष्ठ गति का कारण है, धर्म का बीज है. मोक्ष वा स्वर्गगति का मार्ग है, और पापरूपी अंधकार को नाश करने के लिये सूर्य के समान है। ऐसा यह लोच मोक्षकी इच्छा करनेवाले मुनियोंको अपने प्रात्मा को शुद्ध करने के लिये अवश्य करना चाहिये ॥८॥ अचेलकत्व मूलगुण का स्वरूपवस्त्रेणाजिनवल्काभ्यां रोमपत्रतृपानिभिः पदकलेन वाग्यश्च स वैरावरणः परः ।।।। संस्कारैर्वजितं जातरूपं यद्धार्यते भुवि । सर्थदामुक्तिकामस्तदचेलकत्वमुच्यते ॥२॥ अर्थ-मोक्षकी इच्छा करनेवाले मुनि न तो वस्त्र धारण करते हैं न चमड़े से शरीर ढकते हैं, न वृक्षोंको छाल पहनते हैं, न ऊनी वस्त्र पहनते हैं, न पत्ते तृण आदि से शरीर ढकते हैं, न रेशमी वस्त्र धारण करते हैं तथा और भी किसी प्रकार का प्रावरण धारण नहीं करते । समस्त संस्कारोंसे रहित उत्पन्न होनेके समय जैसा इसका नग्न रूप धारण करते हैं इसको अचेलकत्व मूलगुरण कहते हैं ।।८१-८२॥ अचेलकत्व मूलगुण की पूज्यताइदमेव जगत्पूज्यं मोक्षमार्गप्रदीपकम् । गृहीतं श्रीजिनेन्द्राचं वंद्य देवनराधिप। ॥८॥ यतः पुरुषसिंहा ये जिनशिवलादयः । एत लिलयं गृहीत तर्षीरविवार्थसिद्धये ।।८४॥ अर्थ-यह नग्नरूप धारण करना ही जगत में पूज्य है मोक्षमार्गको दिखलाने वाला दीपक है, भगवान जिनेन्द्रदेव भी इसको धारण करते हैं और इसीलिये यह देवेन्द्र और नरेन्द्रों के द्वारा भी वंदनीय है। क्योंकि तीर्थकर चक्रवर्ती बलभद्र आदि जितने उत्तम पुरुष हुए हैं जन समस्त धीर वीर पुरुषों ने अपने समस्त पुरुषार्थ सिद्ध करने के लिये यह जिलिंग धारण किया है ।।८३-८४॥ __ कायर ही वस्त्र धारण करते हैकातरा थे निराकर्तुमक्षमा हि कुलंगिनः । कामादिकविकारास्त होतं चोवराविकम् ।।८।। अर्थ-जो कुलिंगी और कातर पुरुष कामाविक विकारों को नष्ट करने में Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप] ( २०७ ) [ चतुर्थ अधिकार समर्थ नहीं हैं वे ही वस्त्र ग्रहण करते हैं शुरवीर नहीं ॥८॥ अचेलकत्व मूल का पालने का फल-- जायन्ते जैननियरूपेण त्रिजगछियः । शक्कच फ्रिजिनेशाधिपयाम्यचिरतः सताम् ।।६।। तथा नैय्यवेषेण रत्नत्रिसयभागिनाम् । किकरा इवसेवन्ते पापमान सुरेश्वराः ॥७॥ अहो मुक्तिबधूरेत्य दत्तत्रालिंगनं मुदा । हिंगलंकार भाषा का कथादेवादियोषिताम् ।।८।। अर्थ-इस जिनलिंग वा निग्रंथ अवस्था से सज्जन पुरुषों को तीनों लोकों को लक्ष्मी प्राप्त होती है और इन्द्र चक्रवर्ती तीर्थकर प्रादि के उत्तम पद शीघ्र ही प्राप्त हो जाते हैं । इसके सिवाय इस निग्रंथ अवस्थाको धारण करने से रत्नत्रय धारण करने वाले मुनियों के चरण कमलों को इन्द्र भी आकर किंकर के समान सेवा करते हैं। आश्चर्य तो यह है कि दिशा रूपी वस्त्र अलंकार धारण करनेवाले मुनियों को मोक्ष रूपी स्त्री भी स्वयं प्राकर मालिंगन करती है फिर वेवियों की तो बात ही क्या है। ८६.८८॥ ब्रह्मचर्य को महिमा-- ब्रह्मवयं परं मम्ये तेषां ब्रह्ममयात्मनाम् । सम्माचरणं त्यक्त गांवतवाहिनाम् IIEI नग्ना अपि न तेनग्ना ये ब्रह्मांशुक भूषिताः। वस्त्रावृताश्च ते नग्ना ये ब्राह्मवतवरगा: IIEI नग्नत्वे थे गुणा व्यक्ता ब्रह्मचर्यप्रदीपकाः । वस्त्रावृते च ते सवें दोषाः स्युम्न ह्मघातकाः ।।६१॥ अर्थ-जिन्होंने अपने वस्त्र लंगोटी आदि समस्त आवरणोंका त्याग कर दिया है जिनके शरीर पर कुछ भी प्रावरण नहीं है परंतु पूर्ण ब्रह्मचर्य को पालन करते हैं। उन्हीं का ब्रह्मचर्य सर्वोत्कृष्ट समझना चाहिये । जो मुनि ब्रह्मचर्य रूपी वस्त्रों से सुशोभित हैं वे नग्न होते हुए भी नग्न नहीं कहलाते। तथा जो ब्रह्मचर्य व्रत से दूर रहते हैं और वस्त्रावरण धारण करते हैं वे नग्न न होने पर नान वा नंगे कहलाते हैं । नग्न अवस्था धारण करने से ब्रह्मचर्य को दिखलाने वाले वीपक के समान जो जो गुण हैं वे सब वस्त्र पहन लेने पर ब्रह्मचर्य को घात करनेवाले दोष कहलाते हैं ।।६६-६१॥ अल्प परिग्रह भी दुःख का कारणतथा कौपीनमात्रेपि सतिभोगे भवन्त्यपि । योगिा बहषो दोषाश्चिाताानहेतवः ।।१२॥ कोपोनेपि पचिमष्टे चित्त याकुलता भवेत् । तया दुनिमन्यस्य प्रार्धमा विश्वनिविता ।।६३|| अर्थ-यदि कोपीन मात्र का भी उपयोग किया जाय तो भी योगियों को Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] (२०८) [ चतुर्थ अधिकार उससे चिता और अशुभध्यान के कारण ऐसे अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं । यदि कहीं वह कोपीन नष्ट हो जाय तो चित्त में व्याकुलता उत्पन्न हो जाती है और प्रार्तध्यान होने लगता है तथा संसार में प्रत्यंत निवनीय ऐसी उसके लिये प्रार्थना दूसरों से करनी पड़ती है ॥६२-६३॥ शुभध्यान की सिद्धि नग्नता से ही होती हैइत्यादि चेलसंगस्य जात्या दोषान् बहून्विक्षः । अचेलस्य गुणान् सारान् धर्मशुक्लावि सिद्धये ।। दुर्ध्यानहानये नित्यं कुर्वन्ति श्रोजिनाक्यः । निर्दोष स्वाखिलांगे हो दिगटावरणं परम् ।।१५।। अर्थ-इसप्रकार इस वस्त्र धारण करने के अनेक दोष समझकर और नग्नत्व के सारभूत बालेय गुण समका पर तीर्थकर पायेद भी धर्मध्यान और शुक्लघ्यान की सिद्धि के लिये तथा अशुभध्यानोंको दूर करने के लिये अपने समस्त शरीर पर सब दोषों से रहित ऐसा दिशामों का आवरण ही धारण करते हैं ॥६४-६५।। __ मोक्ष सिद्धि में वस्त्र की बाधकता-- यतस्तीगवरोप्यत्र यावहस्त्रं त्यजेन च । तावन्न लभते मोक्षं काकथापरयोगिनाम् ॥६६॥ अर्थ-इसका भी कारण याह है कि तीर्थकर परमदेव भी जब तक वस्त्रों का त्याग नहीं करते हैं तब तक उनको मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती फिर भला अन्य पोगियों की तो बात ही क्या है ॥६६॥ मग्नता धारण करने की प्रेरणामत्वेति मुक्ति कामा हि त्यक्त्या चेलाबिमंजसा 1 कलंकमिय मुक्याप्त्यै स्वाचेलत्वं भजन्तु म।। अर्थ-यही समझकर मोक्षको इच्छा करनेवाले मुनियों को कलंक के समान वस्त्रादि का त्याग बड़ी शीघ्रता के साथ कर देना चाहिये और मोक्ष प्राप्त करने के लिये नग्न अवस्था धारण करनी चाहिये ॥६॥ प्रचंल मूलगुण का उपसंहारात्मक विवरणअसमगुण निधानंमुक्तिधामानमार्ग जिनगणधरसेव्यं विश्वसौख्याविखानिम् । त्रिभुवनपतिबंध धोधनाः स्वीकुरुध्वं शुभशिवगतयेत्रा चेलकावं त्रिशुद्धया ॥६॥ स्नानोसनसेकादीन मुखप्रक्षालमादिकान्। संस्कारान्सकलान् त्यक्त्वा स्व जस्लमलादिभिः ॥ लिप्तांगं धार्यते यच्च स्थान्तः शुद्ध विशुद्धये । तबस्नान व्रतं प्रोक्त जिनरंतमलापहम् ॥१३००।। अर्थ-यह नग्नत्व गुरण अनेक सर्वोत्कृष्ट गुणों का निधान है, मोम महल का Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालाकार प्रवीपा [[ कार्य अधिमा मुख्य मामी हैं, वह और माणघदेवा मी कसको धारणा करती हैं. समस्त सुखों की पानि हैं और लोनों लोकों के स्वामी: तोमवार मी साशी संवा हस्ती हैं। इसलियों बुद्धिमानः पुरुषों को स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करने के लियो मामा-मामी सुतसा पूर्वक यह नानत्मः वार भी करना हि ॥ भुमि श्रमामा को शान रखने के ोि और आत्माकी शुद्धता प्राप्त करने के लिए स्नान, जयममा, शालर का विना और मुख प्रक्षालना आदि समस्ता संकालों का त्याग कर देती हैं तथा पसीमा कप्तालिमका सो लिप्त हुए: सारीर को धारणा करते हैं उसका भागमा जितेन्द्रले सास्त मास की दूर कारनेवाला स्नाता नामका व्रत कहते हैं ॥१सय Recall __ स्नामा त्यागासाणा का स्थापर - प्रत वसतारेण निस्वागुखाः ।जायातेप्रमियानाकसुरोधमलात सामादिमोहामा माया तामसामिाणिक सम्पूर्ण समशियः॥सा आर्य-इसा अलाता नाम उत्तम मासे मुनियमों के निर्ममन अधिकारी मालको दूर करनेवाले। शुद्ध गुमा प्रभाव होते हैं। इस अस्लाम को रखाषा मोह आदि सब विकार नष्ट हो जाते हैं तथा अतिसादिक पूर्ण करताया को प्रगष्ट वास्तेकाले यता किया। प्राप्त होते रहते हैं: ARA॥ __ स्मामकारनेसेंमहर्तिपता मानेमजामपिजीनामापरिक्षयाः। तर पानी पररंगोमामा महाध्यिायः ततः स्नान जायतें मातरेर दुषितम्। सा पासमार्मास्तिमगुर माशिमाः॥4॥ अर्थ-सका भी। कारण यह हैं कि स्मात करतो से छहों वाणा के जीनों का घात होता है और जोया पासोति से पारमा पापाता। झाको सिमानामा करने में ब्रह्मचर्य को घात करनेवाला मला सगाप्राक होता है। प्रतएका स्मारकरसेंसी उत्पन्न हुए राका कारण बुद्धि के हत्यमों उनमें आत्मोकोनिसाकारमेकालें पापा कम रूपः महा मला प्राह हो हैं ॥ Raman ___सामात्यागामूलगुरपायातरंगाशुद्धिकताकारणाप्रस्मामावलभूषानामस्ताशुद्धि पावभोरेन। समामिला फार्मनारमामुत्तिामा अर्थ-जोमुनि प्रस्तान मासे सुशोभिता है उनमें सगाविकात्याहो जाने में शहलाकों को नासाकराती और मोनाकोकोनसे सीमापारणा पती Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] { २१०) [ चतुझं अधिकार शुद्धि प्रगट होती है ।।५॥ स्नान अन्तरंग शुद्धि का कारण नहींमद्यकुम्भा यथा घौता अलः शुद्धा न जातुचित् । तथा मिथ्यावशः स्नानरन्त पापमलीमसाः ।।६।। अर्थ-जिसप्रकार मद्य से भरा हुआ घड़ा जलसे धोने पर भी कभी शुद्ध नहीं होता उसी प्रकार अंतःकरण के पापोंसे महा मलिन मिथ्या दृष्टि भी स्नान से कभी शुद्ध नहीं हो सकते ॥६॥ मुनि अन्तरंग शुद्धि के कारण सदा निमंल ही होते हैंघृतकुम्भा यथा शुद्धा मलिनाः क्षालनविना । तथान्तः शुद्धिमापना योगिनो निर्मलाः सदा ।।७॥ अर्थ--जिसप्रकार घी का घड़ा ऊपर से मलिन होने पर भी बिना धोने पर शुद्ध माना जाता है उसी प्रकार अंतःकरण में अत्यन्त शुद्धता को धारण करनेवाले मुनिराज भी सदा निर्मल रहते हैं ॥७॥ देह स्नान अन्तरंग शुद्धि का कारण नहींपदि स्नानेन शुद्धिश्चेतहिवंधा विशुद्धये । मूढमत्स्याबयो व्याधा नान्तःधुवाश्चसज्जनाः ।।८।। अत्यन्त मलिनः कायः पूतो नातु न जायते । जलनिसर्गशुद्धोस्ति स्वात्मापूर्व जलायते ॥६॥ अर्थ-यदि स्नान करने से ही शुद्धि मानी जाय तो फिर मूढ पुरुषों को अपनी शुद्धता प्रगट करने के लिये मछलियों की वा धीवरों की वंदना करनी चाहिये । अंतरंग में शुद्धता धारण करनेवाले सजनों की वंदना कभी नहीं करनी चाहिये । देखो यह शरीर अत्यंत मलिन है इसलिये वह जलसे कभी शुद्ध नहीं हो सकता । इसीप्रकार यह अपनी आत्मा बिना जलके स्नान के ही स्वभाव से ही सुद्ध है ॥६॥ चतुर पुरुष स्नान त्याग करते हैं मूर्ख हो इसे स्वीकार करते हैंतस्माद् ध्यर्थं जलस्नानं रागपापाविवर्टकम् । वक्षस्त्यक्त महामूढः स्वीकृतं धर्मरगः ।।१०।। अर्थ-इसलिये मुनियों के लिये जलसे स्नान करना व्यर्थ है और राग तथा पापों को बढ़ाने वाला है । इसलिये चतुर लोगों ने इसका त्याग कर दिया है और धर्म से दूर रहने वाले महा मूरों ने इसको स्वीकार कर लिया है ॥१०॥ जल से शुद्धि मानने वाला मनुष्य पशु के समान हैसप्तधातुमयेथेहे सर्वाणि कुटीरके । मन्यन्ते ये जलः शुद्धि पशबस्ते नराम ॥११॥ . Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २११ ) [चतुर्थ अधिकार अर्थ-यह शरीर सप्त धातुओं से भरा हुआ है और समस्त प्रशुद्ध पदार्थोंका घर है । ऐसे इस शरीर की शुद्धि जो जल से मानते हैं उन्हें मनुष्य नहीं समझना चाहिये किंतु उन्हें पशु समझना चाहिये ॥११॥ बुद्धिमानों को प्रात्मणुद्धि के लिये प्रस्नान बत स्वीकार करना चाहियेइत्यस्नानपुरणान ज्ञात्वादोषान स्नानभवान् बहून् । श्रमध्यं धोधनाः शुरु ह्यस्नानवतभूजितम् ।। अर्थ- इसाकार अम्नान साले अनेक गुणों को सरकार और स्नानसे उत्पन्न होनेवाले बहुत से दोषों को समझकर बुद्धिमान लोगों को अपने आत्मा को शुद्ध करने के लिये सर्वोत्कृष्ट अस्नान व्रतको ही स्वीकार करना चाहिये ॥१२॥ प्रस्नान कतकी महिमारहितनिखिलदोषरागनि शहेतु मसमगुणसमुत्रं लोक नायकपूष्यम् । जगतिपरपवित्रं शुद्धिदं पापहान्य भजतविगतसंगाः नित्यमस्नानसारम् ।।१३।। अर्थ- यह प्रस्नान व्रत समस्त दोषों से रहित हैं, राग को नाश करने का कारण है, सर्वोत्कृष्ट गुणोंका समुद्र है, तीनों लोकों के स्वामी तीर्थकर भी इसको पूज्य समझते हैं, यह संसार भरमें पवित्र है और आत्मा को शुद्ध करनेवाला है। इसलिये परिग्रह रहित मुनियों को अपने पाप नष्ट करने के लिये इस अस्नान वतको नित्य ही पालन करना चाहिये ।।१३।। भूमि शयन नामक मूलगुण का स्वरूपसंरतरे निर्जनेतिर्यस्थी पलीयाविविजिते । अल्पसंसरितेपासुकभूम्यादिक गोचरे ॥१४।। एकपावधनुदंडाविशम्याभिविषीयते । शयनं पच्छमोस्थित्यं धराशयनमेषतत् ।।१५।। अर्थ-मुनिराज अपना परिश्रम दूर करने के लिये लियंध स्त्री नपुंसक प्रादि रहित निर्जन एकांत स्थान में किसी थोड़ी सी बिछी हुई घास आदि पर अथवा प्रासुक भूमि पाषाण तखता मावि पर किसी एक कर्वट से अथवा धनुषके समान पैर समेट कर वा डेप्टेके समान शयन करते हैं उसको भूमिशयन नामका मूलगुण कहते हैं ॥१४-१५॥ भूमि शयन करने में गुण और कोमल शव्यापर सोने से उत्पन्न दोषव्रतेनानेन जायन्ते दुढं तुर्यमहावतम् । निवाअयश्च रागाविहानिः संवेगऊजिसः ॥१६॥ मदुशम्यादिना निद्रा व ते पापकारिणी । तया ब्रह्मविनाशश्च स्वप्ने शुक्रव्युते नंणाम् ॥१७॥ एषः सर्वप्रमावामा मिवाप्रमाद अजितः। विश्वपापकरीमूतोऽनेका नदिसागरः ॥१८॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाबार प्रवीम] ॥ चतुर्थ अधिकार चार्य-इस मिशन अलसे वाहार्य महायम अत्यन्त वृद्ध हो जाता है, निमा का निजाम होना है, न्यामाकी हानि होती है और उत्कृष्ट जोग प्राप्त होता है । कोमल शाम्मासर सोने वो माम अत्माल करनेवाली मिमा व्याहसी है, और स्वप्न में बीय समिस हो जाने के प्रयाणा मनुष्यों का प्रयास नष्ट हो जाता है । समस्त प्रमादों में यह निद्रा मामाका सामान की प्रयत्न है माह मिमा मासका अमाद समरस मायों को सस्पा करणे माना है और अनेक आसयों का आमुल है ॥१-२८॥ भूम्मि शायास मिला शिका म्यास्यामास्कारमानालाकिन्यो गानेfinan जामं प्रकुरियो मुनीनाः ध्यान सिद्धये ॥ मर्मयाही खामकर वियों को मापासे यानकी सिद्धि के लिये प्रत्र पानकी माना बालात काम करने से जमा कचिन्म सामानों पर बैठने से और कठिन शय्यापर सन्ने से निद्धा कया जिजा करना चाहियो Arem म्यान्म मिति के लिये किया विशय की आवश्यकताअली निवाािची योग्यता मेनुनिहायानाः । व्यानकि कुलरोकों को किया निजका सपः ॥२१॥ पाय- इसका मो कारण नाह है कि जो मच इस निना स्पोनिशाचिनी को जीतने में असमर्थ हैं उनके स्थान की शुद्धि कसे हो सकती है और बिना ध्यानको शुद्धि के उनका सत्सारण भी सजा पर्व ही समझना चाहिये ॥२०॥1 दिन में सिद्भा निकालने का निषेधविनामेति च कर्तव्यमा निariमालको कतिन् । विबसे सन्ति रोगादा ग्यासिमियान नाशिमो ॥ अर्थ-यही समझकर व्याव करनेवाले मुनियों को रोगनिक के होनेपर भी पान की खान्ति और शान को नान करनेवाला ऐसरे नि दिन में कभी नहीं लेनो चाहिये ॥२१॥ रपति के अपम मौर अन्तिम पहर में निदा लेने का निषेधजितु माध्याशिवाय च यशाना बोधिनायकाः । श्रान्समुहूतिको निमा सिस्वामफलकापियु १२२॥ कुर्वन्तु स्वमहायोदधामात्याधि हानये । पूर्ने परिणये बामे सति प्रावस्ययेपि भोः ॥२३॥ वर्ष- इसलिये हे पोधिराजों ! अपने महायोग से उत्पन इए परिश्रम को शांत करने या दूर करने के लिये शिक्षा मि वा तखते पर रात्रि के मध्य भाग में अंतर्मुहूर्त लक्क निशा लो । रात्रि के पहते भाग में चा राशि के पिछले भाग में उपत Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... मूलाधार प्रदीप]] [ चतुर्थं अधिभार प्राण होनेपर भी निद्रा मतलो ।।२२-२३॥ भमि शयन मुलगण की महिमा और धारण करने की प्रेरणायजन परिसेव्य धर्मशुक्मादि मूल, श्रमहरमपवर्ष योगश्रीशं गुणानिधम् । निहामदनसर्प निष्प्रभावस्वहेतुः, क्षितिशयनमतंद्रामुक्तये स्वीकुरुध्वम् ।।१३२४।। अर्थ-इस भूमिशयन नामके मूलगुण को विद्वान लोग धारण करते हैं, यह धर्मध्यान और शुक्लध्यानका कारण है, परिश्रम को हरण करनेवाला है, समस्त दोषों से रहित है, मोगसाधन का कारण है, गुणों को समृद्र है, कामरूपी सर्पको नाश करने वाला है और प्रमाद को दूर करने का कारण है। इसलिये मोक्ष प्राप्त करने के लिये साया तंद्रा दूर करने के लिये इस भूमिशयन बल को अवश्य धारण करना चाहिये । २४॥ मदन्त धावन सुलगुण का स्वरूपस्थमगुलियापाणले विनोखपराधिभिः । तृपस्बजाविकचरताना मलसंचयः पार। मामिणक्रियते जातु बैरमयाम मुनीश्वरः । प्रवैतवनमेवान तद्रागाविनिवारकम् ॥२६॥ अर्थ-मिराज अपना वैराग्य बढ़ाने के लिये अपने नखों से, उंगली से, पत्थर से, कलम से, खप्पर से, तृण से का छाल से दांतों में इक? हुए मल को कभी दूर नहीं करते हैं उसको रागादिकको दूर करनेवाला प्रतधावन नामका मूलगुण कहले अवन्त धावन से लाभ और दन्त धाथन से हानिअनेक थोतरगत्वावयो व्यतागुणाः सलाम् जामन्ते प्रणश्यन्ति दोषा रागादयोखिला:'।।२७॥ मुजादियोवनं बतघर्षण में वितरवले मंगसंस्कारमत्यर्थं तेषां रागोत्कटो भवेत् ॥२॥ कामश्व कामेन प्रलमंगोलितोंडूत: । लेन पॉप महापापा न्भज्जन मरकाम्मषौ ॥२६॥ अर्थ--इस अदंतधावन बालसे सज्जनोंके वीलरागादिक गुरंग प्रगट हो जाते हैं तथा रागादिक समस्त दोष नष्ट हो जाते हैं। जो पुरुष अपना मुख धोते हैं वेतधावन करते हैं और शरीर का खूब संस्कार करते हैं उनके उत्कट राग उत्पन्न होता है । उस जकट रापसे काम के विकार उत्पन्न होते हैं काम के विकारों से वतोंका भंग होता है, समस्त वृत भंग होने से महापाप उत्पन्न होता है और उस महापाप से इस जीव को नरकरूपी महासागर में डूबना यता है ॥२७-२६।। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २१४ ) [ चतुर्थ अधिकार दन्त धावन त्याग की प्रेरणा--- मत्वेति यसयो नित्यं त्यजन्तु दूरतोखिलम् । मुखप्रक्षालनांगादिसंस्कारदस्तपावनम् ॥३०॥ अर्थ-यही समझकर मुनियों को मुखप्रक्षालन करना, शरीर का संस्कार करना, दंतधावन करना प्रादि सबका त्याग दूरसे ही सदा के लिये कर देना चाहिये । ॥३०॥ अदन्त श्रावन की महिमाशम यमदमसौधं वीतरागस्वमूलं वरयतिगुरण वाद्धि दुविकारावि दूरम् । सुरशिवगतिमार्ग त्यक्तसंगा प्रदतवनमपगतदाषं शुद्धये हो भजन्तु ।।३१॥ अर्थ-यह अबंतधावन नामका पुरण समतापरिणाम, यम नियम और इन्द्रिय दमनके रहने के लिये राजभवन है, वीतरागता का कारण है, श्रेष्ठ मुनियों के गुणों का समुद्र है, अशुभविकारों से सर्वथा रहित है स्वर्ग मोक्षका कारण है और समस्त दोषोंसे रहित है। इसलिये परिग्रह रहित मुनियों को अपनी आत्मा शुद्ध करने के लिये यह अदंतधावन नामका गुण अवश्य धारण करना चाहिये ॥३१॥ स्थिति भोजन मूलगुण का स्वरूपस्वपादस्थापनो रसृष्टपात्रातृजमाश्रिते । धरात्रिके विशुद्धनीस्थापयित्वासमी बुधः ॥३२॥ पाणिपात्रेण कुड्यादीननाश्रित्यान्यधामनि । अशनं भुज्यते शुद्ध यसत्स्यास्थिति भोजनम् ।। अर्थ-अपने पैरों के रखने के बाद बच्ची हई भूमि में दाप्ता वा बर्तन प्रादि पाहार सामग्री के रखने की जगह हो ऐसी तीन प्रकार की विशुद्ध पृथ्वीपर अपने दोनों पैरों को समान स्थापन कर बुद्धिमान मुनियों को दूसरे के घर में जाकर दीवाल आदि के सहारे के बिना खड़े होकर करपात्रमें शुद्ध भोजन लेना चाहिये इसको स्थिति भोजन नामका मूलगुण कहते हैं ॥३२-३३॥ स्थिति भोजन के गुणस्थितिभोजनसारेण व्यक्त धीर्य प्रजायते । पाहारगृद्धिहानिश्च जिह्वायाति वशं सताम् ॥३४॥ निविष्ट भोजने नवाहारसंशा छ बर्द्धते । लोपटच रसमाक्षारणामिह वषयिके सुखे ॥३५॥ । कातरस्य यतोमो प्रतिशेमा परा सताम् । पाण्योः संयोजनं यावलियरी पादौ ममस्थितौ ॥३६।। तामगृह्वामि चाहारमन्ययानशनं परम् । इत्यादिगुणसंसिस स्थितिभोजनमूनितम् ॥३७॥ अर्थ- इस सारभूत स्थिति भोजन से सज्जन पुरुषों को सामर्थ्य प्रगट होतो Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( २१५ ) [ चतुर्थ अधिकार है, आहार की लंपटता नष्ट होती है और जिह्या इंद्रिय वश में हो जाती है। बैठकर भोजन करने से आहार संज्ञा बढ़ती है और रसना इंद्रिय से उत्पन्न हुए वैषयिक सुखोंमें अत्यन्त लंपटता बढ़ जाती है । इसके सिवाय बैठकर भोजन करने में कातरता सिद्ध होती है । इसलिये सज्जन मुनियोंको यह प्रतिज्ञा रहती है कि जब तक मेरे दोनों हाथ मिल सकते हैं और मेरे दोनों पर खड़े होने के लिये स्थिर रह सकते हैं तभी तक मैं आहार ग्रहण करूगा अन्यथा उपवास धारण करूगा । इसप्रकार के अनेक गुण प्रगट होने के लिये स्थिति भोजन नामका उत्कृष्ट गुण बतलाया है ।।३४-३७॥ स्थिति भोजन नहीं करने से हानिजात्वेति मुनिभिः सर्वे व्याधिक्लेशादि कोटिषु । प्राणनाशेपि न प्राह्यमुपविष्टेन भोजनम् ॥३८॥ तिर्थक स्थितेन सुप्तेन वांगाधोनमनेन च । सुखाय वा प्रभादेनसंत्यज्य स्थितभोजनम् ॥३६॥ ___ यतो मूलगुरणस्यास्य भगेन पापमुल्वरणम् । पापेन दुर्गतौ पुसा भ्रमणं चायशश्चिरम् ।।४०५ इति थोषं परिज्ञाय निविष्टः संयतः स्वचित् । जलपानं च पूगावि भक्षणं न विधीयते ॥४१॥ अर्थ-यही समझकर मुनियों को करोड़ों व्याधि और क्लेश होनेपर भी तथा प्रारणों का नाश होनेपर भी बैठकर भोजन कभी नहीं करना चाहिये । जो मुनि टेढ़ी रोतिसे खड़े होकर आहार लेता है वा खड़े ही खड़े सोता हुआ आहार लेता है वा अपने शरीर को नीचा नवाकर पाहार लेता है अथवा सुख के लिये वा प्रभाव के कारण खड़े होकर पाहार नहीं करता तो उसका यह मूलगुण भंग हो जाता है । मूलगुण भंग होने से महापाप उत्पन्न होता है तथा महापाप उत्पन्न होने से इस मनुष्य को दुर्गति में परिभ्रमण करना पड़ता है, तथा चिरकाल तक उसका अपयश यना रहता है । इसप्रकार दोषों को समझकर मुनियों को बैठकर कभी भी जलपान वा सुपारी प्रावि का भक्षण नहीं करना चाहिये ॥३८-४१॥ १ वर्ष के उपवास के पारणे पर भी मुनि बैठकर पाहार नहीं करेंयतः श्रोजिनदेवाचाः षण्मासाग्दादिपारणे । कायस्थित्यहि गृह्णन्ति स्थिस्याहारं च नान्यथा ।। नात्वेतियमिनः कृत्वात्रान्सर निजपाययोः । चतुरंगुलसंख्यानं कुर्वतु स्थितिभोजनम् ।।४३।। अर्थ-देखो तीर्थकर परमदेव छह महीने वा एक वर्ष का उपवास करके भी शरीर को स्थिर रखने के लिये खड़े होकर ही आहार लेते हैं वे बैठकर कभी पाहार महीं लेते । यही समझकर मुनियों को चार अंगुल का अंतर रखकर अपने दोनों पैरोंसे . बड़े होना चाहिये और इसप्रकार खड़े होकर आहार ग्रहण करना चाहिये ॥४२-४३॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप (( २१६: }) [j चतुर्य अधिकार स्थिति भोशनः मूलगुणा को महिमापरमगुणासमुद्रं व्यक्त वीर्याविकार जिनमुनिगसाध्य धीरयोगोदाम्यमः। रहितनिखिल दोषं स्वाक्षजिह्वानिधारिखमिह कुक्त वक्षाभोजनं स्वोर्ड कायम् ।। ४४।। अर्थ-यह स्थिति भोजन परम गुणोंका समुद्र हैं, अपनी शक्तिको प्रगट करत वाला है, तीर्थकर मुनिराज, और गणवरदेव भी इसकी सेवा करते हैं, धीर वीर मुनि ही इस गुणको पालन कर सकते हैं। यह समस्त दोषों से रहित हैं और जिह्वा इंद्रिय. रूपी अग्निको दमन करने के लिये: मेघ के. समान हैं। इसलिये चतुर पुरुषों. को, खड्डे होकर हो पाहार ग्रहण करना चाहिये ।।१४:४।।।। एमय भात मूलगुण का स्वरूपानाडीत्रिकबिहायात्रोदयास्तमनकालयोः ।। एकद्वित्रमहांका। मध्ययोजनं भवि ॥४ा. क्रियतेमुनिभिर्योग्यकाले, धावक सचनि । एकस्मोनिजवेलायाभेक मुक्त तदुच्यते ॥४६॥ अर्थ----मुनिराज सूर्योदय के तीन घड़ी बाद और सूर्य अस्त होने से तीन घड़ी पहले तक.योग्य. काल में श्रावक के घर जाकर एक ही बार एक मुहूतीको मुहूर्त का तीत मुहूर्त, के भीतर-भीतर तक आहार लेते हैं उसको एफ मुक्त नापका मूलगुणः करके हैं ।।४५-४६॥ ___ एक भक्त मूलगुण से लाभ और इस नत भंग ने हामि---- एकभक्तेन चानादेसुराशानाशमिच्छति। संतोषस्तपसासाद बद्ध ते योगिनां महान् ।।४।। एकभक्तस्यभंगेन प्रणश्यस्य खिला: गुणाः। तन्नाशतः परं पाप:पापाइदुःखमहन्मणाम् ।।४।। अर्थ-एकबार पाहार करने से.अन्नाद्रिक की दुराशा नष्ट हो जाती है और योगियों का महान संतोष तपश्चरण के साथ-साथ वृद्धिको प्राप्त हो जाता है । इसाएक भक्त दलका: भंग करने से समस्त गुण नष्ट हो जाते हैं गुणोंके नाश होने से पाप. उत्पन्न होता है और उस पाप से. मनुष्यों.को. महा दुःख भोगने पड़ते हैं ।।४७-४८; दूसरी.बार; जल ग्रहण का भी निषेधमावेति संयतरेक वेसां गोचरगोचरम् । मुक्त्वा पानादि में ग्राह्य तीव्रयाहनाविषु ॥४ा अर्थ:-यही समझकर मुनियों को तोव वाह वा उवर प्रादि के होने पर भी पाहार के योग्य ऐसे. एक समयको छोड़कर दूसरी बार कभी जल भी ग्रहण नहीं करना चाहिये ॥४६॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + मूलाचार प्रदीप ] ( २१७) [ चतुर्य अधिकार एक भक्त मुलगुण की महिमाविषयसफर जालं सत्तपोखिहेतु सुरगति शिवमार्ग चान्नसंज्ञाबितूरम् । श्रुतवनमहाध्यानांगयोगादि कतुं भजत विगत कामा एकभक्त शिवाय ॥१३५०।। अर्थ-यह एक भुक्त व्रत विषयरूपी मछलियों के लिये जाल है, श्रेष्ठ तपश्चरण की वृद्धिका कारण है, स्वर्ग मोक्षका मार्ग है, पाहार संज्ञासे दूर है और श्रुतज्ञान तथा महाध्यान के अंगभूत योगको उत्पन्न करनेवाला है । इसलिये इच्छाओं का त्याग करने वाले तपस्चियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये इस एक मुक्त व्रत को अवश्य पालन करना चाहिये ॥१३५०॥ २८ मूलगुण की महिमा व उसके पालन करने की प्रेरणाएते मूलगुणाः सारा अष्टाविंशतिरूजिताः । सपो विश्वमहायोगाधारभूता जिनोविताः ॥११॥ सर्वोसर गुणाधाप्रपे गुणानां मूलहेलद।। प्राणान्तेपि न मोक्तव्या बुधैः सर्भिसिद्धिदाः ॥५२॥ अर्थ-ये अट्ठाईस मूलगुरण सर्वोत्कृष्ट और सारभूत हैं तथा भगवान जिनेन्द्रदेव ने इनको तपश्चरण आदि समस्त महा योगों के आधारभूत बतलाये हैं । समस्त उत्सरगुणों की प्राप्ति के लिये ये गुण मूलरूप हैं मूल कारण हैं और समस्त पुरुषार्योंकी सिद्धि करनेवाले हैं इसलिये बुद्धिमानों को कंठगत प्रारण होनेपर भी इनका त्याग कभी नहीं करना चाहिये ॥५१-५२॥ मूलगुण के बिना पत्तरगुण फलदायी नहींकृत्स्नोत्तरपुणा यस्मादीना। मूलगुणःसताम् । परं फलं न कुर्वन्ति मूलाहीना यथाघ्रिपाः ॥५३॥ __अर्थ-जिसप्रकार मूलरहित वृक्षों पर कोई किसी प्रकार का फल नहीं लगता उसी प्रकार सज्जनों के मूलगुणों से रहित समस्त उत्तरगुण कभी फल देनेवाले नहीं हो सकते ॥५३॥ मूलमुणों को नष्ट करके उत्तरगुण पालने का दृष्टान्त पूर्वक निषेध -- येत्रोत्तरगुणाधाप्य त्यजन्ति मूलसद्गुणान् । ते करांगुलिकोट्यर्थ छिदन्ति स्वशिरः शठाः ॥ प्रर्थ-जो मूर्ख उत्तरगुण प्राप्त करने के लिये मूलगुणोंका त्यागफर देते हैं वे लोग अपने हाथकी करोड़ों उंगलियां बढ़ाने के लिये अपने मस्तकको काट डालते हैं ।।५४॥ व्रत भंग दुःख का कारणइमान्मूलगुणान्सर्वान् श्रिजगच्छीसुखप्रदान् । साक्षी कृत्य गृहीत्वा जिससंह भुतसारून ।।५।। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( २१८) [चनुथं अधिकार त्यजन्ति ते लभन्तेत्र दुःखं वाचामगोचरम् । अमुत्र श्वभ्रमत्यावौ व्रतभंगोत्धपापतः ।।५।। ___ अर्थ -- ये मूलगुण तीनों जगत की लक्ष्मी और समस्त सुख देनेघाले हैं ऐसे इन मूलगुणों को भगवान अरहंतदेव, संघ, श्रुत और सद्गुणों की साक्षी पूर्वक ग्रहण करके ओ छोड़ देते हैं वे व्रत भंग होने के कारण उत्पन्न हुए पापों से वाणी के अगोचर ऐसे महा दुःखों को प्राप्त होते हैं तथा परलोक में नरकादिक दुर्गतियों में महा दुःख भोगते हैं ॥५५-५६॥ मूलगुण पालन करने की पुनः प्रेरणाइहैव चोत्तमाचार स्याताना दुधियां बुधैः। विधीयतेपमानं च सवत्राहो शुनामिव ॥५७11 मत्वेसि यमिनो नित्यं सर्वयत्नेन सर्वचा। सर्वत्र पालयमस्वत्र विश्वान्मूलगुणानपरान् ॥५॥ शशांकनिर्मलानसारान् स्वप्नेपि मा स्पनु प । घोरोपसर्गरोगाचं : पक्षमासादिपारणः ।।५६।। अर्थ-जो मूर्ख लोग उसम आचरणों का त्याग कर देते हैं उनके कुत्ते के समान अपमान सर्वत्र बुद्धिमान लोग करते हैं। यही समझकर मुनियों को सर्वोत्कृष्ट ये समस्त मूलगुण पूर्ण प्रयत्न के साथ सर्वत्र सर्वथा सदा पालन करते रहना चाहिये । ये मलपुण चन्द्रमाके समान निर्मल हैं और सर्वोत्कृष्ट हैं । इसलिये घोर उपसर्गके आने पर वा रोगादिक के हो जानेपर अथवा पक्षोपवास, मासोपवास को पारणा होनेपर भी स्वप्न में भी इन मूलगुणों को कभी नहीं छोड़ना चाहिये ।।५७-५६।। मूलगुणों में अतिक्रमादि लगाने का निषेधतथामूलगुणानां च न कर्तव्यो ह्यप्तिकमः । व्यति कमोप्यतीचारो नाचारः संयस क्वचित् ।।६०।। अर्थ- इसी प्रकार इन मलगुणों में न तो अतिकम लगाना चाहिये न व्यतिक्रम लगाना चाहिये न अतिचार लगाना चाहिये और न अनाचार लगाना चाहिये । ॥६॥ अतिक्रम का स्वरूपअहिंसादि व्रतानां च षष्ठावश्यक कर्मणाम् । पालने या मनः शुद्धोनिः सोलि कमोयतः ।।६१।। अर्थ-- अहिंसाविक महाव्रतोंके पालन करने में तथा छहों आवश्यकों के पालन करने में जो मनको शुद्धता की हानि है उसको अतिक्रम कहते हैं ॥६१५॥ यनिक्रम का स्वरूपपडावश्यक कस्तॄणां महावत घरात्मनाम् । विषयेष्व भिलापो मो जायते स व्यतिक्रमः ॥६२।। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २१६) [ चतुर्थ अधिकार अर्थ-महानत पालन करने वालों को तथा छहों प्रावश्यक पालन करनेवालों की जो विषयों में अभिलाषा होना है उसको व्यतिक्रम कहते हैं ॥६२॥ अतिचार का स्वरूपमहावतस भित्यावश्यादि परिपालने । पालस्मं क्रियते यत्सोतीचारो वतदूषकः ॥६३॥ अर्थ-महागाई समिति अध्यन आणि पाला करने में जो आलस करना है उसको व्रतोंमें बोष लगाने वाला असिचार कहते हैं ॥६३॥ प्रमाचार का स्वरूपव्रतावश्यकशीलानां भंगो पोन दुरात्मभिः । विधीयते सधर्मघ्नोऽनाचारः स्वनसायकः ॥६॥ अर्थ-दुरात्मा वा पापियोंके द्वारा वृत आवश्यक वा शीलोंका जो भंग करना है वह धर्मको नाश करनेवाला और नरकमें पहुंचाने वाला अनाचार कहलाता है ॥६४॥ प्रतिक्रमादि चारों दोष मल उत्पत्ति के कारणएते दोषा हि घरवारः सवंगुलगुरणात्मनाम् । सर्वपा यतिभिस्त्याज्यायस्नेन मल कारिणः ।।६।। यतोमोभिश्चतुर्दोषैबिश्वेमूलगुणा नपाम् । दूषिता न फलस्यत्र स्वर्मोमादौ महत्फलम् ॥६६॥ __ अर्थ-ये चारों वोष समस्त मूलगुणों में मल उत्पन्न करनेवाले हैं इसलिये मुनियों को पूर्ण प्रयत्न करके इनका सर्वथा त्यागकर देना चाहिये । क्योंकि इन चारों दोषों से समस्त मलगुण दूषित हो जाते हैं और फिर मनुष्यों को स्वर्ग मोक्षाविक के महाफल उन मूलगुणों से कभी प्राप्त नहीं हो सकते ॥६५-६६।। मूलगुणों का उपसंहारादि विवरण और मूलगुण प्राप्ति की भावनाअसमगुणमिधानान् स्वर्गमोक्षाविहेतून गणपतिमुनिसेव्यास्तीर्थमार्थः प्रणीतान् । दुरिततिमिरसूर्यान घर्भवानि महान्तो भजत निखिलयस्मात् मूलसमान गुणोमान् ॥६॥ येऽमूनभूलपुणान् प्रमावरहिताः संपालपम्पन्वहं लेलोकत्रयसंमवांश्चपरमान सोल्योसमान सगुणान् । संप्राप्यानुजिनेचा पदवी देवाचा केवलं शानं कर्मरिपून् निहत्य तपसा मोक्षं लभन्तेऽचिराम् ॥६॥ विज्ञायेतिफलं महापजनाः मोहारिमाहत्य च निवासिवरेण साई मखिलेलक्ष्मी कुटवादिभिः । दीक्षा मुसिसली परार्थमननी ह्याबायमोक्षाप्समे सर्वान् मूलगुणान्मलाविरहितान् भोः पालयम्त्वग्वष्टम् ।।६६।। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप ] ( २२० ) [ चतुर्थ अधिकार ये सर्वेपरमेष्ठिनोऽत्रपरमान् मूलोनराख्यान गुमान नित्यं यत्नपराभजन्ति यमिनामाचारयंत्यूजितान व्याख्या. त्येवागरा जगत्त्रयसता सर्वायसांसद्धये ते ये मूलगुणान् प्रवय रखिलान् सारानस्वकीयान् स्तुता: ॥१३७०।। इति धीमूलाधार प्रदोषास्ये भट्टारक श्रीसकलकोति विरचिते मुलगुणण्यावर्णने प्रतिक्रमण प्रन्याख्यान कायोत्सर्ग लोचा चेलकत्वास्नान क्षितशयनावंतवन स्थितिभोजनकभक्त वर्णनोनाम चतुर्थोषिकारः। अर्थ-ये समस्त मलगण अनुपम गणों के निधि हैं स्वर्ग मोक्ष के कारण हैं, भगवान तीर्थकर परमदेव ने इनका स्वरूप बतलाषा है तथा गणधरदेव और मुनिराज इनको पालन करते हैं, पापरूपी अंधकार को नाश करने के लिये ये सूर्य के समान है, धर्म के समुद्र हैं और सबमें उसम हैं । इसलिये महापुरुषों को अपने समस्त प्रयत्नों के साथ इनका पालन करना चाहिये । जो मुनि प्रमाद रहित होकर प्रतिदिन इन समस्त मलगणों का पालन करते हैं वे तीनों लोकों में उत्पन्न होनेवाले परम और उत्तम सुखों को तथा उत्तम सगुणों को प्राप्त होते हैं फिर वेवों के द्वारा पूज्य ऐसे चक्रवर्ती और तीर्थकर के पद प्राप्त करते हैं तदनंतर तपश्चरण कर केवल ज्ञान प्राप्त करते हैं और समस्त कर्मरूपी शत्रुओं को नाश कर शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । इसप्रकार विद्वान लोगों को इन मूलगुणों को महाफल देनेवाले समझकर वैराग्य रूपी तलवार से मोहरूपी शत्रुको मारकर तथा लक्ष्मी कुटुम्ब आदि सबका त्यागकर मोक्ष प्राप्त करने के लिये मोक्षस्त्री को सखी और सर्वोत्कृष्ट पुरुषार्थको सिद्ध करनेवाली ऐसी जिनदीक्षा धारण करनी चाहिये और फिर उनको प्रतिदिन समस्त दोषों से रहित ऐसे ये समस्त मलगुण पालन करने चाहिए । इस संसार में जो जो अरहंत आचार्य उपाध्याय साधु परमेष्ठी प्रयत्नपूर्वक सर्वोत्कृष्ट मलगुणों को वा उत्तरगुणों को प्रतिदिन पालन करते हैं वा इन्हीं सर्वोत्तम मलोत्तर गुणों को मुनियों से पालन कराते हैं अथवा तीनों जगत के सज्जन पुरुषों को समस्त पुरुषार्थों की सिद्धि के लिए अपनी वाणी से इन्हीं मूलोत्तर गणों का व्याख्यान करते हैं उन समस्त परमेष्ठियों की मैं स्तुति करता हूं। वे समस्त परमेष्ठी मेरे लिये अपने समस्त उस्कृष्ट मूलगुणों को प्रदान करें ॥१३६७-१३७०॥ इसप्रकार आचार्य श्री सकलकीति विरचित मूलाचार प्रदीप में मूलगुणों के वर्णन में प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग, लोच, अचेलकत्व, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतधावन, स्थितिमोजन, एक भक्तको वर्णन करनेवाला यह चौथा अधिकार समाप्त हना । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पंचमोधिकारः मंगलाचरणपंधाचारप्रभावेन ये प्राप्तास्ती कृच्छ्यिः । अनंतमहिमोपेता बंदे तेषां पदाम्नुजान् ॥१३७१ विजगन्नाथसंप्रार्थ्यां गताः सिद्धगति हिये। पंचाचारेण तान् सिद्धान्ममाम्यन्तातिमानपरान ।। येत्राचरन्तियत्नेनपंचाचारान् शिवाप्तये । प्राधारयन्ति शिष्याणां तानाचार्यानस्तुवेनिशम् ॥ ये व्याख्याम्तिसता सिद्धय गैः पूर्व प्रकीर्णकः । पंचाचारानुपाध्यायान् तानमामिश्रुताप्तये ॥ त्रिकालयोगयुक्ता येद्रिकंदरगुहादिषु । साधयत्यखिलाधारस्तानसाधून नौमिशक्तये ||७ अर्थ-पंचाचार के प्रभाव से ही जिन्होंने सीकर की परम लक्ष्मी प्राप्त की है, और जो अनंत महिमा से विभूषित हैं ऐसे अरहंत भगवान के चरण कमलों को मैं नमस्कार करता हूं। तीनों लोकों के स्वामी तीर्थकर भी जिनकी स्तुति करते हैं और जो इन पंचाखारों के प्रभाव से ही सिद्ध गति को प्राप्त हुए हैं ऐसे सर्वोत्कृष्ट अनंत सिद्धों को मैं नमस्कार करता हूं। जो आचार्य मोक्ष प्राप्त करने के लिये प्रयत्न पूर्वक पंचाचारों का पालन करते हैं तथा शिष्यों से प्रतिदिन पालन कराते हैं उन प्राचार्योको भी मैं स्तुति करता हूं। जो उपाध्याय मोक्ष प्राप्त करने के लिये अंग पूर्व और प्रकीरगकों के द्वारा पंचाचारों का व्याख्यान करते हैं उन उपाध्यायों को मैं श्रुतज्ञान प्राप्त करने के लिये नमस्कार करता हूं। त्रिकाल योग धारण करनेवाले जो मुनि पर्वत कंदरा वा गुफा में बैठकर समस्त पंचाचारों को सिद्ध करते हैं उन साधुओं को मैं शक्ति प्राप्त करने के लिये नमस्कार करता हूं ॥७१-७५॥ पंचाचार निरूपण की प्रतिज्ञाइत्यमून् शिरसा मत्वा पंच सत्परमेष्ठिनः । धृत्वा च स्वगुरु श्चित्ते श्रीजिनास्यज भारतीम् । ७६।। पंचाचारान् प्रवक्ष्यामि विश्वाचारप्रतिद्धये । मुनीनां स्वस्य वा नूनं समासेन शिवाय च ।।७७।। अर्थ-इसप्रकार पांचों श्रेष्ठ परमेष्ठियोंको मस्तक झुकाकर नमस्कार करके तथा अपने गुरु और भगवान जिनेन्द्रदेष के मुख से प्रगट हुई सरस्वती देवी को अपने हृदय में विराजमान करके तीनों लोकों में पंचाचारों की प्रसिद्धि करने के लिये तपा स्वयं मोक्ष प्राप्त करने के लिये वा मुनियों को मोक्षको प्राप्ति होने के लिये मैं संक्षेपसे पंचाचारों का निरूपण करता हूं ॥७६-७७॥ है। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २२२ ) पंचाचार की प्रमाणिकता - वर्शमाचार एखाद्या ज्ञानाचारस्ततो तः । बारित्राचार नामान्यस्तप श्राधार ऊजितः । ७८ ।। बोर्याचार हमे पंचाचाराः सर्वार्थसाधकाः । प्रोक्ताविश्वं जिनाधीमुनीनां मुक्तिसिद्धये ॥७६॥ [ पंचम अधिकार अर्थ-दर्शनाधार, शानदार, सरित्राधार, उगमाचार और वीर्याचार ये पांच पंचाचार कहलाते हैं ये पंचाचार समस्त पुरुषार्थों को सिद्धि करनेवाले हैं और समस्त तीर्थंकर परमदेवों ने मुनियों को मोक्ष की प्राप्ति के लिये निरूपण किये है। ।।७५-७६।। सम्यग्दर्शन की प्रमुखता और उसके भेदतेषामादौ प्रसिद्ध मत्सम्यक्त्वं शुद्धिकारणम् । तद्वक्ष्येहं समासेन निर्दोषं पुणभूषितम् ॥८०॥ निसर्गाभयं वृष्टयषिगमाख्यं ततोपरम् । इति द्वेषाजिनेः प्रोक्त सम्यक्त्वं भव्य देहिनाम् ॥ ८१ ॥ अर्थ – इनमें भी सबसे प्रसिद्ध सम्यग्दर्शन है जो शुद्धि का कारण है, गुणोंसे सुशोभित है और दोषों से रहित है। ऐसे सम्यग्दर्शन को ही मैं सबसे पहले कहता हूं । भव्य जीवोंके होनेवाला यह सम्यग्दर्शन भगवान जिनेन्द्रदेव ने वो प्रकार का बतलाया है एक निसगंज और दूसरा प्रधिगमज ||८०-८१|| तिसगंज सम्यग्दर्शन का स्वरूप यः पंचेन्द्रियः यो भषास्थितटाखितः । तस्यात्रकाललध्वा यो जायते निश्चयो महान् ॥ जितस्वर्वादी मुकिमा स्वयं सम् । विनागुरुपदेशाचे निसर्गतद्धिदर्शनम् ||८३ || अर्थ- जो भव्य जीव हैं, पंचेन्द्रिय है, संज्ञी है और संसाररूपी समुद्र के किनारे आ लगा है उसके काल लब्धि मिलने पर जो देवशास्त्र गुरु में तत्त्वों में और मोक्षमार्ग में बिना गुरुके उपदेश के बहुत शीघ्र स्वयं महा निश्चय हो जाता है उसको निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं ॥६२-६३ ॥ अधिगमज सम्यग्दर्शन का स्वरूपतस्यदेवागमादीनां श्रवणेनात्र या दचिः । प्रादुर्भवतिसम्मार्गे सतामषिगमं हि तत् ॥ ६४ ॥ ॥ धर्म -- -- सत्त्व और देवशास्त्र गुरु के स्वरूप को सुनकर जो मोक्षमार्ग में रुचि उत्पन्न होती है यह सज्जनों का अधिगमज सम्यग्वर्शन कहलाता है ॥८४॥ सम्यग्दर्शन के प्रोपशमिकादिक ३ भेद-तयोपशमिकं नाविकंक्तिस्त्री वशीकरम् । आयोपशमिकं चेति त्रिविधं दर्शनं मतम् ॥ ८५ ॥ ร Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * --.-.... ..--..-..--- मूलाचार प्रदीप ] ( २२३ ) [पंचम अधिकार अर्थ-अथवा औपशमिक, मुक्तिस्त्री को वश में करनेवाला क्षायिक और क्षायोपशमिफ के भेव से इस सम्यग्दर्शन के तीन भेस हैं ।।८५॥ औपमिक सम्यग्दर्शन का स्वरूपप्राधाश्चतुः कषाया अनन्तानुबंधसंशकाः। तिस्रोमिथ्यात्वसम्यक्त्वमिश्रप्रकृतयोऽशुभाः ॥८॥ प्रासां सप्तविधानो प्रकृतीनां प्रतरे सताम् । समस्तोपशमेनोपशमिकाख्यं च दशनम् ।।८७॥ अर्थ-इस सम्यग्दर्शन को घात करनेवाली मोहनीय कर्म की सात प्रकृति हैं मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यकप्रकृति मिथ्यात्व ये तीन तो दर्शन मोहनीय को अशुभ प्रकृति हैं तथा अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार चारित्र मोहनीय की प्रकृति हैं इन सातों प्रकृतियोंका जब पूर्ण रूपसे उपशम होता है सब भव्य जीवोंके प्रौपशमिक सम्यग्दर्शन होता है ।।८६-८७॥ __क्षायिक सम्यग्दर्शन का स्वरूपनिःशेष क्षययोगेन क्षायिकं ज पते परम्। साक्षान्मुक्तिवरं ह्यासमभव्यानां च शाश्वतम् ।।८।। अर्थ-तथा इन्हीं सातों प्रकृतियों का जब पूर्ण रूपसे क्षय हो जाता है तब आसन्न भथ्य जीवों को क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है। यह क्षायिक सम्यग्दर्शन साक्षात् मोक्ष देनेवाला है और प्रगट होने के बाद सदा बना रहता है ।।६।। क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शम का स्वरूप- - पण हि प्रकृतीनामुदयाभावे नृणां सति । सति सम्यक्त्यस्योपयोऽन्य शिक्षायोपशामिकाह्वयम् ।। अर्थ-इसीप्रकार सम्यकप्रकृति मिथ्यात्वको छोड़कर बाकी को छहों प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय होनेपर तथा सत्तास्थित इन्हीं छहों प्रकृतियों के उपशम होने पर और सम्यकप्रकृति, मिथ्यात्वप्रकृति के उदय होनेपर मनुष्योंके क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है ।।८६॥ ___ मम्यग्दर्शन प्राप्त करने का अधिकारी भव्य जीव ही है-- एतस्त्रिविषसम्यक वं भव्यानामिह केवलम् । प्रणीतं तीर्थनायेन न दुराभन्यदेहिनाम् Intol अर्थ-यह तीनों प्रकार का सम्यग्दर्शन केवल भव्य जीवों के ही होता है प्रभज्यों के नहीं। ऐसा भगवान जिनेन्द्रदेव ने कहा है । दूरभन्योंके भी यह सम्यग्दर्शन नहीं होता ।।१०।। - Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप] ( २२४ ) [पंचम अधिकार वीतराग देव प्रणीत पदार्थ ही यथार्थ है-- जनतत्त्वपदार्थेभ्यः सर्वशोक्त य एष हि । तत्त्वेभ्यो नापरे तत्त्वपदार्थाः सूनृताः क्वचित् ।।१।। अर्थ-भगवान वीतराग सर्वज्ञदेव ने जो तत्व और पदार्थ बतलाये हैं वे ही यथार्थ हैं उनसे भिन्न अन्य पदार्थ कभी यथार्ण नहीं हो सकते ।।१।। सम्यग्दृष्टि का अरहंतदेव के प्रति ही श्रद्धान होना है.. अहंम्योपामिहंतृभ्योनिर्दोषेभ्यो जगत्सताम् । भुक्तिमुक्त्यादिदातारो नाम्यदेवाः शुभप्रदाः ।। अर्थ-घातिया फर्मोको नाश करनेवाले तथा अठारह वोषोंसे रहित भगवान अरहंतदेव ही देव हैं और वे ही जगत के समस्त सज्जन पुरुषों को भुक्ति और मुक्ति दे सकते हैं । उनके सिवाय अन्य कोई भी देव, देव नहीं हो सकता और न वह भुक्ति मुक्ति दे सकता है । तथा भगवान प्ररहंतदेव के सिवाय अन्य कोई देव शुभप्रद नहीं हो सकता ॥२॥ परिहन्त प्रणीत धर्म ही श्रेष्ठ हैकंवल्यभाषिताधर्माव्यतिश्रावकगोचरात् । नापरोत्रोजितो धर्मो धर्मार्थ काममोक्षदा ||३|| अर्थ-भगवान अरहतदेव ने जो मुनि और श्रायकों का धर्म निरूपण किया है वही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन पुरुषार्थोंको देनेवाला सर्वोत्कृष्ट धर्म है इसके सिवाय अन्य कोई धर्म नहीं हो सकता और न अन्य कोई धर्म पुरुषार्थोंको दे सकता है ।।६३॥ दिगम्बर गुरु ही सच्चे गुरु हैंविश्वसत्त्वहितेम्पोत्रनिग्रंमेभ्योऽपरे परा । भवामिधं तरि तारयितुन गुरव:क्षमाः ।।१४।। अर्थ—समस्त जीवों का हित करनेवाले दिगम्बर गुरु ही उत्कृष्ट गुरु हैं और वे ही इस संसार रूपी समुद्र से पार हो सकते हैं तथा दूसरों को पार कर सकते हैं । दिगम्बर गुरुओं के सिवाय अन्य कोई गुरु नहीं हो सकता है वा न अन्य किसी को पार कर सकता है ॥६४॥ जिनेन्द्रदेव प्रणीत मोक्षमार्ग ही सच्चा हैरत्नत्रयात्मकामाज्जिनोतात्परमार्थतः । नापरो विद्यते जातु मोलमार्गोति निस्तुषः ॥१५॥ अर्थ-भगवान जिनेन्द्रदेव ने मोक्षका मार्ग रत्नत्रय स्वरूप बतलाया है परमार्थ से बही मोक्षका मार्ग है और वही निर्दोष है उसके सिवाय अन्य कोई भी निर्दोष और यथार्थ मोक्षका मार्ग नहीं है ।।६५॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप [पंचम अधिकाय जिन शासन ही शरण लेने योग्य है और सुपात्र दान ही हितकारी है-- जैनशासमतो नान्यत् शासनं शरणं सताम् । सुपात्रदानतो नान्यद् दानं स्वान्यहितंकरम् ।।६।। अर्थ-यह जैन शासन ही सज्जनों को शरण लेने योग्य उत्तम शासन है। इसके सिवाय अन्य कोई शासन शरण लेने योग्य नहीं है । अपना और दूसरों का हित करनेवाला सुपात्र दान ही दान है इसके सिवाय अन्य कोई दान हित करनेवाला नहीं है ॥६॥ जिन सिद्धांत और जिन सूत्र हो यथार्थ शास्त्र हैद्विषड्भेक्तपोभ्योऽन्यन्न तपः कर्मघातकम् । जिमसिद्धांतस्त्रेभ्यो नान्यच्छास्त्रं च सूनतम् ।।१७।। अर्थ--बारह प्रकार का तपश्चरण ही कोको नाश करनेवाला तपश्चरण है। इसके सिवाय अन्य कोई तपश्चरण कर्मों को नाश करनेवाला नहीं है। जिन सिद्धांत और जिन सूत्र ही यथार्थ शास्त्र है । इनके सिवाय अन्य कोई शास्त्र यथार्थ नहीं है । ॥१३१७॥ जिनेन्द्रदेव प्रणीत धमीद की रचि कला, श्रद्धान करना हो सम्यग्दर्शन है - इत्याचपर धर्माणां जिनोक्तानां महीतले । प्रामाण्यपुरुषाधम्ध श्रद्धानं बुधसत्तमः ।।८।। क्रियते या रुधिश्चित निश्चयो योपवामहान् । तत्सर्व वृष्टि कल्प नुमस्य स्थानमूलकारणम् ।।६।। अर्थ- इस संसार में पुरुष के प्रमाण होने से उसके वचन प्रमाण माने जाते हैं । भगवान जिनेन्द्रदेव वीतराग और सर्वज्ञ हैं अतएच सर्वोत्कृष्ट प्रमाण हैं । इसलिये उत्तम पुरुष उन्हीं के कहे हुए धर्मका श्रद्धान करते हैं उसी में रुचि करते हैं और अपने हृदय में उसी का महान् निश्चय करते हैं । इसके सिवाय अन्य धर्मका के कभी श्रद्धान नहीं करते । इसप्रकार के श्रद्धानमें सम्यग्दर्शन रूपी कल्पवृक्ष ही मूल कारण समझना चाहिये । अर्थात् ऐसा थद्वान होना ही सम्परवर्शन है अथवा सम्यग्दर्शन के होने से हो ऐसा श्रद्धान होता है ॥६-६६॥ तत्वों का प्रदान करना सम्यग्दर्शन है सप्त तत्वों के नामअथ तेषां तस्थानां श्रद्धानेनात्र लम्यते । निर्मतं वर्षानं तानि तस्वान्येव विशाम्यहम् ॥१४००।। जीवाणीवानवा षषः संघरो निर्जरा परा । मोक्षोमूनि सुस्तत्वामि भाषितानि जिनाधिपः ।। अर्थ-इस संसार में तस्वों का धसान करने से ही निर्मल सभ्यग्दर्शन होता है इसलिये अब हम उन तस्वों का ही स्वरूप निरूपण करते हैं। भगवान जिनेन्द्रदेव Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( २२६ ) [पंचम अधिकार ने जीव, अजीव, आखव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्य बतलाये हैं। ॥१४००.१४०१॥ जीवों के भेदमुक्त संसारिभेदाभ्यांविधाजीवा जिनमलाः । मुक्ता मेदविनिष्कान्ताः षड़विधाभवतिनः ।। अर्थ-भगबान जिनेन्द्रदेव ने मुक्त और संसारी के भेद से जीवों के दो भेद बतलाये हैं। इनमें भी मुक्त जीवों में कोई भेद नहीं है सब समान हैं। तथा संसारी जीवों के छह भेद हैं ॥१४०२॥ मक्त जीवों का स्वरूप अष्टकर्भवपुमुक्ता दिघ्याण्टगुणभूषिताः। लोकाप्रशिरवरावासाः सिद्धाः स्युरन्तजिताः॥ अर्थ-जो ज्ञानावरण आदि पाठों कर्मों से रहित हैं सम्यक्त्व आदि आठों दिव्य गुणों से सुशोभित हैं और लोक शिखरपर विराजमान हैं उनको सिद्ध कहते हैं । ऐसे सिद्ध अनंतानंत हैं ॥१४०३।। संसारी जोवों के छः भेदपृथ्व्यप्तेजोमहकाया वनस्पत्यंगिनस्त्रसाः । एते संसारिणो ज्ञेया षड्विया जीवनातयः ।।१४०४॥ अर्थ-पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और उसके भेद से संसारी जीयोंके छह भेद समझना चाहिये ॥१४०४॥ कोमल पृथ्वी के १६ भेदपृथिवी मालुकाताम्रमयास्त्रिपुषसोसको । सूप्यं सुवर्णमेवाय हरिताले मनः शिलाः ॥५॥ हिंगुलं सस्यकं वजिनमनकोभ्रषालुकाः । लवणं घेति मेवाः स्युमदुपृथ्च्या हि षोडशः ॥६॥ अर्थ-पृथिवी, बालू, तांबा, लोहा, रांगा, सीसा, चांदी, सोना, हरताल, मनशिल, हिगुल, सस्यक, सुरमा, अभरक, अभ्रवालुका, लवण ये सोलह कोमल पृथ्वी के भेद हैं ।।५-६।। कटोर पृथ्वी के २० भेदशर्करा उपलं वन शिला प्रवालकामिका: 1 फकतन मरिणाचांकोरुजकः स्फटिकोमणिः ।।७।। पनरागोपडम्यरचन्द्रप्रभश्च चन्दनः । जसकान्तो षक: सूर्यकान्तोमरकतोमणिः ॥८ मोरोमनपाषाणो रुचि राख्योर्मासः स्फुटम् । अमीमेवाः बुधजयाक्षरपृष्ध्या हि विशतिः ॥९॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप ] ( २२७ ) [पंचम अधिकार अर्थ-कठिन बालू, पत्थर के गोल टुकड़े, वज्र (हीरा) बड़ी शिला, प्रवाल या मूगा, गोमेवमणि, पुलक मरिण (प्रवाल के समान) रुजक (राजवर्त मणि) स्फटिक मणि, पद्मरागमणि, वैडूर्यमणि, चन्द्रप्रभमणि, चन्वनमणि, जलकांतमणि, पुष्परागमणि, सूर्यकांतमणि, भरकतमणि, नीलमणि, विद्रमणि और रुचिरमणि । बुद्धिमानों को ये बीस मेव कठिन पृथ्वी के समझने चाहिये ।।७-६॥ स्थूल पृथ्वीकायिक जीवों के २६ भेद हैं सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव सर्वत्र हैमिात्स्युरिमे भेदाः स्थूलपृथ्व्यंगिना भुवि । सूक्ष्माः पृथ्व्यंगिनो ज्ञेयाः खे सर्वत्र जिनागमात् ।। अर्थ-ये छत्तीस भेव पृथ्वीकायिक स्थल जीवों के समझने चाहिये । तथा पृश्वीकायिक सूक्ष्म जीव आकाश में सब जगह फैले हुये हैं ऐसा जैन शास्त्रों में कहा है ॥१४१०॥ पाठों पृथ्वीकायिकादि कठोर पृथ्वी में ही गभितपृथ्स्यष्ट पंच मेर्वाधा पर्वतः सकला भुवि । द्वीप वेदी विमाना हि प्रतोली तोरणाश्च ये ||११॥ जम्बूशाल्मलि चैल्पद्रुमास्तूपभवनावयः । कल्पवृक्षाः स्वरा विश्वेहा तेष्वन्तर्भवन्ति ते ॥१२॥ अर्थ-पाठों पृथिवी पांचों मेरुपर्वत द्वीप वेदी विमान प्रतोली (गली) तोरण, जम्बू शाल्मलि, चैत्यवृक्ष, भवन कल्पवृक्ष प्रादि कठिन प्रकार की पृथ्यी सब इसी में अंतर्भूत समझनी चाहिये ॥११-१२।। पृथ्वीकायिक जीवों की विराधना का निषेत्रज्ञात्वेति पृथिवीकायान्खनना: शिवाथिभिः । तेषां मातु न कर्तध्या त्वेनान्येन विराधना ॥१३॥ अर्थ-यही समझकर मोक्ष की इच्छा करनेवाले पुरुषों को खोद पीट कर पृथिवीकायिक जीवों की विराधना न तो स्वयं करनी चाहिये और न किसी दूसरे से करानी चाहिये ॥१३॥ अपकायिक जीवों का स्वरूपअवश्यायजलं पश्चिमरात्रिपतितं हिमम् । महिकाव्यजलं धूमाकार हरज्जलं लता ॥१४॥ स्थूलबिन्दुपुतं वाणु जलं शुद्धोदकं तपा। चन्द्रकान्तभयं नीरं सामान्यं नीहाराविजम् ॥१५॥ धनोबकं घनाकार लवामिषघनवातनम् । पा मेघोद्धपमि त्याचा रेया प्रपकायिकांगिनः ।।१६।। सरित्सागरमेघोत्याः कूपनिर भूस्थिता। चन्द्रकान्ताविजा भवान्तर्भवाजलागिनः ॥१७॥ अर्थ-परफ का पानी, पिछली रातमें पड़ी हुई ओस, तुषार, भापका पानी, Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( २२८ ) पंचम अधिकार हरज्जल, बड़ी बूदें, छोटी बूदें, शुद्ध पानी, चन्द्रकांत मरिणसे उत्पन्न होनेवाला पानी जमाई हुई बरफ का पानी धनोदक, घनाकार, सरोवर समुद्र आदि का पानी घनवात का पानी, बादल से बरसा हुआ पानी आदि सब तरह का पानी अपकायिक जीवमय ही समझना चाहिये । नदी समुद्र का पानी, मेघोंका बरसा पानी, कुए वा निर्भरने का पाली, पृथ्वी के भीतर रहनेवाला पानी, चन्द्रकांत मणि से निकला हुआ पानी इनके जलकायिक जीव सब इन्हीं में अंतर्भूत समझना चाहिये ।।१४-१७॥ अपकायिक जीवों की विराधना का निषेधइति शास्वा सदाभीषा रक्षा कार्या प्रयत्नतः । पादादिक्षासनर्जातु न हिस्याः सर्वथा बुधः ॥१८॥ अर्थ-यही समझकर बुद्धिमान पुरुषों को प्रयत्न पूर्वक इनकी रक्षा करनी चाहिये और पदप्रक्षालन प्रादि के द्वारा इन जीवों की हिंसा कभी नहीं करनी चाहिये। ॥१४१८॥ अग्निकायिक जीवों का स्वरूपज्वालागारमथाचि मुरः शुद्धयाग्निसंज्ञकः । सूर्यकान्तादिजोग्निः सामान्य इत्यग्निकायिकः ।। नंदीश्वरादि चैत्यालय घूमकुंडिकानलाः । मुकटान्याचयो त्रैवान्तभवन्त्यग्निकायिका |॥२०॥ अर्थ-ज्वाला, अंगार, ज्याल का प्रकाश, बारीक कोयलों के फुलिगे, शुद्ध अग्नि, सूर्यकांतसे उत्पन्न हुई अग्नि इत्यादि सामान्य अग्नि अग्निकायिक जीव विशिष्ट है। नंदीश्वर द्वीपके चैत्यालयों में रखे हुए धूप कुडको अग्नि अग्निकुमार देवों के मुकुट की अग्नि में रहनेवाले अग्निकायिक जीव सब इसी में अंतर्भूत समझने चाहिये। ॥१६-२०॥ अग्निकायिक जीवों की हिंसा का निषेधइत्यग्निकायिकान शास्वा मीषारोगादिशान्तये । हिंसा चिन्न कार्या ज्वालनविध्यापनाविभिः ।। अर्थ- इसप्रकार अग्निकायिक जीवों को समझकर किसी रोगको शांत करने के लिये भी अग्निको जला कर वा बुझा कर अग्निकायिक जीवों की हिंसा नहीं करनी चाहिये ॥२१॥ __वायुकायिक जीवों का स्वरूपबात सामान्यरूपरचोभ्द्रमः ऊद्ध वजन् महत् । उस्कलिमंडलियुः पृथ्वीलग्नो भ्रमन् प्रजेत् ।। गुजामन्महावातो वृक्षावि भंगकारकः । घनवाताल तम्याथ्यो ध्यजनावि कृतोयका ।।२३।। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I मूलाधार प्रदीप [ ( २२६ ) [ पंचम अधिकार उदरस्थाब्धिस्थान विमानाधार वायवः । प्रत्रैवान्तर्भवा ज्ञेयाः भवनस्थादिका खिलाः ||२४|| अर्थ - सामान्य वायु को बात कहते हैं, ऊपर को जाने वाली वायुको उद्रम कहते हैं, गोलाकार घूमते हुए वायु को उत्कलि वायु कहते हैं पृथ्वी से लगकर चलने वाले वायुको गुंजाबात कहते हैं वृक्षादिकों को तोड़ देनेवाला महावात कहलाता है । घनवात तनुवात पंखा आदि से उत्पन्न किया हुआ वायु, पेट में भरा हुआ वायु, पृथ्वी समुद्र विमान आदि को प्राथय देने वाला वायु तथा भवनों में रहने वाला वायु सद है ॥२२-२४।। सामान्य वायु में अंत महादाह होनेपर भी वायुकायिक जीवों की हिंसा नहीं करना चाहियेइमान् वातरंगिनो मरवा यात्यमोषां विराधना । न विधेया महाबाहे वातादिकरणं धेः ।। २५ ।। अर्थ – यह सब वायु वातकायिक जीवमय है । यही समझकर बुद्धिमान पुरुषों को महा वाह होनेपर भी वायु को उत्पन्न कर यातकायिक जीवों को विराधना नहीं करनी चाहिये ||२५|| - वनस्पतिकायिक और अनन्तकायिक वनस्पति का स्वरूप मूलापरवोजाः वस्वीजसंज्ञकाः । बीज श्रीजरहा एते कंदाचा रोहसंभवा ।। २६ ।। rtor: समूहिमा मूलाभावेपि समु बाः । प्रत्येककायिका जोवा अनंतकायदेहिनः ॥२७॥ कंदमूलां गिनत्वस्कंषः पत्रं कुसुमं फलम् । प्रवाल गुच्छकायश्च गुरुमं वल्लीतृणान्यथ ||२८|| पकाया इमे ज्ञेयाः पृथ्वीतोवादिसंभवाः । बिना वीजेन नाना मेवा वनस्पतिकायिकाः ||२॥ संवालं परकं सुमित संघालमेव हि । कवगं नाम भंगालं वकच्छत्रं हरिप्रभम् ||३०|| कुहरणायं स्थिलाहार के जिला विस्यपुष्पिका । एतेन वादरा ज्ञेया श्रनन्तफाथिका बुधैः ॥३१॥ अर्थ – मूलबीज, अग्रबीज, पर्वबीज, कंबबीज, स्कंधबीज, बीजरूह ये सब कंदाबिक से उत्पन्न होनेवाले वनस्पतिकायिक जीव हैं । इनके सिवाय सम्मूर्च्छन जीव हैं जो मूलाविक का अभाव होने पर भी उत्पन्न हो जाते हैं । इनमें से कोई प्रत्येक कायिक हैं और कोई अनंतकाय हैं । कंद मूल त्वक् (छाल) स्कंध पत्र कुसुम फल नया कोंपल, गुच्छ गुल्म बेल तृण प्रादि सब अनंतकायिक हैं। तथा बिना बीजके पृथ्वी जल आदि के संयोगसे उत्पन्न होनेवाले अनेक प्रकार के पर्व कायिक हैं जो अनंतकाय कहलाते हैं । सेवाल, पणक, भूमिगत, सेवाल, कवग, श्रृंगाल, वकछत्र हरिप्रभ, कुहरण, स्थिताहारक, जिह्वादि, पुष्पिका ये सब बादर अनंतकाय हैं ऐसा विद्वानों को समझ लेना चाहिये ।। २६-३१॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप { २३०) [पंचम अधिकार सूक्ष्म जीवों को अवगाहना का प्रमाणपृथ्व्यप्तेजोमरुज्जीवाः सूक्ष्मावष्टचायगोचराः । अंगुलस्याप्यसंख्यातभागप्रमवपुयुताः ॥३२॥ अर्थ--पृथ्वोकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक सूक्ष्म जीव दृष्टिके अगोचर होते हैं और उनका शरीर अंगुस के असंख्यात वें भाग प्रमाण होता है ।।३२॥ सूक्ष्म-स्थूल वनस्पतिकायिक जीव सब जगह हैसर्वन द्विविधा या जलस्थलनभोखिले । सर्ववनस्पतिप्राणिनः प्रत्येकेतरात्मकाः ॥३३॥ ___ अर्थ-वनस्पतिकायिक सूक्ष्म और स्थल दोनों प्रकारके जोय जल स्थल और आकाश आदि सब स्थानों में भरे हुये हैं । इनमें से कुछ प्रत्येक वनस्पति हैं और कुछ साधारण हैं ॥३३॥ साधारण और प्रत्येक वनस्पति का स्वरूपा-- येषां गूढसिरासंधिपर्वाणि स्थुरहोरकम् । समभंग तथा छेव महं च विद्यते भुवि ।।३४।। साधारणशरीरास्तेवानन्त जीवसंकुलाः । एभ्यो विपरीक्षा प्रस्प गिनीमता ।। अर्थ-जिनको सिरा संधि पर्व आदि गढ़ हैं दिखाई नहीं देते तोड़नेसे जिनका भंग समान होता है और जो काटनेपर भी उत्पन्न हो जाते हैं । उनको साधारण शरीर कहते हैं ऐसे साधारण शरीर अनंत जीवों से भरे हुए होते हैं । इनसे जो विपरीत हैं अर्थात जिनका सिरा संधि प्रगट हो गया है और तोड़ने से जिनका समभंग नहीं होता उनको प्रत्येक कहते हैं ॥३४-३५॥ अनन्तकाय का स्वरूप व उसका अनन्तकाय नामको मार्थकतायत्रको मियते तत्र मियन्तेमन्तदेहिनः । पत्रको जायते तत्र जायन्तेनन्तकाधिकाः ॥३६॥ प्रतोत्रंते जिनः प्रोक्ताः जीया अनन्तकायिकाः । भुवि सार्थक नामामोऽनन्तप्राणिमयाः स्फुटम् ॥ ____ अर्थ-एक जीव के मरने पर जहां अनंत जीव मर जांय और एक जीव के उत्पन्न होनेपर जहां पर अनंत जीव उत्पन्न हो जाय ऐसे जीवों को भगवान जिनेन्द्रदेव ने अनंतकाय बतलाया है। उनमें का एक-एक शरीर अनंत जीव स्वरूप होता है इसलिये घे अनंतकाय इस सार्थक नामको धारण करते हैं ।।३६-३७।। नित्य अनन्तकायिक जीवों का स्वरूपअनन्तः प्राणिभि यश्च महामिथ्याघपूरितः । असत्यं जातु म प्राप्त निस्यास्नन्तकायिकाः ।। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २३१) - [पंचम अधिकार ___ अर्थ-महा मिथ्यात्व के पाप से परिपूर्ण हुए जिन अनंत जीवों ने आज तक जस पर्याय नहीं पाई हैं उनको नित्म अनंतकायिक कहते हैं ॥३८॥ एक निगोद शरीर में दृष्टान्त पूर्वक निगोद जीवों की संख्या का प्रमाण-- जम्बूवीपे मथाक्षेत्र भरतं भरते भवेत् । कौशलः कौशलेऽयोध्यायोध्यायां गहपंक्तयः ।।३।। तथा स्कंधा असंख्याता लोकमाना भवन्ति । एककस्मिन् पृथक् स्कंधे प्रोदिता अंडरा जिनः ।। असंख्यलोकमानारचके कस्मिनगरे तथा । प्राबासाः स्युरसंख्यातलोकतुल्या न संशयः ॥४१॥ एककस्मिन् किलावासे मता पुलषयो बुधः । प्रसंश्यलोकमाना यककस्मिन् पुलवो मुवि ॥४२॥ शरीराणि हासंख्येय लोकमानानि संति च । एककस्मितिकोतस्म शरीरे जंतवः स्फुटम् ||४३॥ प्रतीत कालसिद्ध भ्यः सर्वानन्तेभ्य एव हि । प्रोक्ता स्तीर्थकर रागमैत्रानन्तगुणापरे ।।४।। अर्थ-जिस प्रकार जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्रादिक क्षेत्र हैं भरत क्षेत्र में कोशल आदि देश हैं, कोशलदेश में अयोध्या आदि नगर हैं और अयोध्या आदि नगरों में घरों की पंक्तियां हैं उसी प्रकार इस संसार में असंख्यात लोक प्रमाण स्कंध हैं । एक-एक स्कंष में प्रसंख्यात लोक प्रमाण अंडर है। एक-एक अंडर में प्रसंख्यात लोक प्रमाण आवास हैं एक-एक आवास में असंख्यात लोक प्रमाण पुलवी हैं। एक-एक पुलयो में असंख्यात लोक प्रमाण शरीर हैं तथा उस एक-एक भिगोत शरीर में अतीत काल के समस्त अनंतानंत सिद्धों से अनंतगुरणे जीव हैं ऐसा भगवान जिनेन्द्रदेव ने आगम में बतलाया है ।।३९-४४।। पांच स्थावर जीवों की रक्षा की प्रेरणाइत्यानि स्थावरान् पंचविधान विज्ञाययोगिभिः। प्रयत्नेन दया कार्या मीषां वाक्कायमानसः ।। मर्थ-मुनियों को इसप्रकार स्थावरों के पांचों भेद समझकर मन-वचन-काय से प्रयत्नपूर्वक उन सब जीवों की बया करनी चाहिये ।।४।। अस जीवों का स्वरूप और उसके भेदसकला विकलाश्चेति द्विधा जीवास्त्रसामताः। विकला विनितुर्याक्षा: शेषा हि सकलेन्द्रियाः ।। प्रार्थ-दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौहन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीवों को बस कहते हैं । उनके दो भेव हैं। एक विकलेन्द्रिय और दूसरा सकलेन्द्रिय । दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइंद्रिय जीवों को विकलेन्द्रिय कहते हैं और पंचेन्द्रिय जीवों को सकलेन्द्रिय कहते हैं। ॥१४४६॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पंचम अधिकार मुलाचार प्रदीप ] ( २३२ ) दो इन्द्रिय जीवों का स्वरूप क्रमयः शुक्तिकाः शंखा कपर्दकाश्च बालकाः । जलुकाद्याः भूते ज्ञेया द्वीन्द्रिया दीन्द्रियान्विताः ॥ अर्थ-लट, सीप, शंख, जोंक, लोक आदि जीवों के स्पर्शन और रसना दो इन्द्रियां हैं इसलिये इन जीवों को दो इन्द्रिय कहते हैं ॥४७॥ तीन इन्द्रिय जीवों का स्वरूप कुवोवृश्चिका कामत्कुरणश्च पिपीसिकाः । उद्देहिकाद्या गोपानिकास्त्रीन्द्रियशरीरिणः ॥ ४८ ॥ प्र-कुथु, बौद्ध, ज, खटमल, चींटी, उद्देहिका, गोपानिका आदि जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण ये तीन इन्द्रियां है इसलिये इनको तेइंद्रिय कहते हैं ॥ ४८ ॥ चार इन्द्रिय जीवों का स्वरूप- अमरामशका दंशाः पतंगामधुमक्षिका । कोटका मिक्षकायाश्च चतुरिन्द्रियजातयः ॥ ४६|| श्रर्थ - भौंरा, मच्छर, डांस, पतंगा, मधुमक्खी, मक्खी, दीपक पर पड़ने वाले जीवों के स्पर्शन, रसना, प्राण और एच हैं इसलिये इनको चौइंद्रिय कहते हैं॥४६॥ पंचेन्द्रिय जीवों का स्वरूप जलस्थलनभोगामिनस्तिर्यचोनशः सुराः । नारकाः सकलाः प्रोक्ता जोवाः पंचेंद्रियाः श्रुते ॥ ५०॥ अर्थ-मगरमच्छ श्रादि जलचर, कबूतर आदि नभचर और गाय, भैंस आदि स्थलचर जीव पंचेन्द्रिय हैं मनुष्य देव और समस्त नारको जीव भी पंचेन्द्रिय हैं ऐसा शास्त्रों में कहा है ।। १४५० ।। चौरासी लाख योनियों के स्वामी पृथ्व्यप्तेजोमहत्या लक्षाणां सप्तसप्त च । नित्यैसर निकोताः किलवनस्पतयोदश ॥ ५१ ॥ द्विद्विलक्षणमा द्वित्रिचतुरक्षा: पृथक्सुराः । तिथेचो नारकालक्षाणां चत्वारः पृथक्पृथक् ।। ५२ ।। तिलक्षसंख्यां श्रार्यम्लेच्छाखिला नराः । इति सर्वांग लक्षरणामशीतिश्चतुरुतराः ॥ ५३३२॥ अर्थ -- इनमें से पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वायुकायिक और अग्निकायिक जीवोंकी सात सात लाख योनियां हैं । नित्यनिगोत और इसरनिगोत की भी सात-सात लाख योनियां हैं वनस्पतिकायिक की दश लाख योनियां हैं, दोइन्द्रिय की दो लाख तेइन्द्रिय की दो लाख और चौइन्द्रिय की वो लाख योनियां हैं। वेबों को चार लाख, Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] (२३३ ) [पंचम अधिकार तिर्यचोंकी चार लाख और नारकियों की चार लाख योनियां हैं तथा आर्य और म्लेच्छ के भेवसे दोनों प्रकार के मनुष्यों की चौदह लाख योनियां हैं । इसप्रकार समस्त जीवों की चौरासी लाख योनियां हैं ।।५१-५३।। एक सौ साढ़े निन्यानवे लाख करोड़ कुलों के स्वामी कौन कौन--- इत्थंविधवांगि जातीः सम्यग्निहाय मिनागमात् । ततः सतां दयासिद्धय वक्ष्ये कुलानिदेहिनाम् ।। पृथ्वीनांकलकोटी लक्षाणां द्वाविंशति स्फुटम् । अप्कायिका गिनां सप्तत्रयश्धानलदेहिनाम् ।।५।। मरतां कुल कोटीलक्षाणि सासकुलानि थे। कोटीलक्षारिण चाष्टाविंशतिहरितजन्मिनाम् ।।५६।। होन्त्रियाए तथा श्रोत्रियाणां तुर्येन्द्रियात्मनाम् । कोटीशतसहस्राणिसप्तचाष्ठो नवक्रमात् ॥ अपचराणां नभोगामिना किलाद्ध त्रयोदश । हादर्शयकमात्सस्ति लक्षारिग कुलकोटयः ।।५।। वशव कोटि लक्षाणि चतुष्पांकुलानि च । पंचविंशतिकोटीलक्षाणिनारकवेहिनाम् ।।५।। स्युः पविशतिकोटीलक्षारिण बेव कुलानि च । नवव कोटि लक्षारिसह्य : सस्मिनो भुविः ।। फुलान्यत्रमनुष्यारणामार्यम्लेखगास्मनाम् । द्विसप्तकोटिलक्षारिण सर्वेषामितिजग्मिनाम् ।।६।। एकव कोटि फोटोसानिति नवाधिका । कोटीशतसहस्त्राणि कुल संख्या जिनोरिता ॥६२।। अर्थ-इसप्रकार जन शास्त्रों के अनुसार समस्त जीवों की जातियों का स्वरूप बतलाया अब प्रागे सज्जनों को क्या पालन करने के लिये जीवों के कुल चतलाये हैं । पृथ्वीकायिक जीवों के बाईस लाख करोड़, जलकायिक जीवों के सात लाख करोड़, अग्निकायिक जीवों के तीन लाख करोड़, वायुकायिक जीवों के सात लाख करोड़ श्रीर वनस्पतिकायिक जीवों के अट्ठाईस लाख करोड़ कुल हैं । दोइन्द्रिय जीवों के सात लाख करोड़, इन्द्रिय जीवों के साठ लाख करोड़, चौइन्द्रिय जीवों के नौ लाख करोड़ कुल हैं। जलचर जीवों के साढ़े बारह लाख करोड़, नभचर जीवों के बारह लाख करोड़ कुल हैं । चतुष्पदों के दश लाख करोड़ कुल है, नारकियों के पच्चीस लाख करोड़ कुल हैं, देवों के छब्बीस लाख करोड़ कुल हैं और सरीसपो के नौ लाख करोड़ कुल हैं। पार्य, म्लेच्छ और विद्याधरों के चौवह लाख करोड़ कुल हैं । इसप्रकार समस्त जीवोंके कूलों की संख्या एकसौ साढ़े निन्यानो लाख करोड़ होती है। इसप्रकार भगवान जिनेन्द्रदेव ने इनके कुल बतलाये हैं ॥५४-६२।। जाति कुलादि से जीवों का स्वरूप जानकर उनकी रक्षा की प्रेरणाइप्ति जाति कुलाम्पत्रगुरणस्मानामिमार्गणाः । सम्यग्विनरय जीवानांश्रुते कार्या क्या न्यहम् ॥३॥ अर्थ-इसप्रकार जीवों की जाति कुल गुणस्थान और मार्गणाओं को शास्त्रों Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २३४ ) [पंचम अधिकार के अनुसार अच्छी तरह जानकर प्रतिदिन जीवों की दया करनी चाहिये ।।६३।। मान लिएनय नयसे जीत्र तत्वका स्वरूपजीवतत्त्वनिरूप्येदं प्रसिद्धागमभाषया । सा व वे समासेनाघुनाध्यात्मसुभाषया ।।६४॥ उध्यभावात्मकःप्राण चिताः प्राग्यतोगिनः । जीवन्ति च तथा जीविध्यन्ति जीवास्ततोमताः ।। केवलज्ञामवृन्नेत्राः कतृभोक्त त्वजिताः । उत्पत्तिमरणातीता. वधमोक्षातिमा भुधि ॥६६॥ असंख्यातप्रवेशा सर्वेऽमूर्ताः सिद्धसन्निभाः । सादृश्यागुरगयोगेनानश्चयेनांगिनः स्मृताः ।।६७।। अर्थ---इसप्रकार आगम की प्रसिद्ध भाषा के अनुसार जीव तत्त्व का स्वरूप कहा अब आगे सज्जनों के लिये अध्यात्म भाषाके द्वारा संक्षेप से जोवका स्वरूप कहते हैं। जो प्रारणी द्रव्य प्राण और भाव प्राणों के द्वारा पहले जीवित थे, अब जीवित हैं और आगे जीवित रहेंगे उनको जीव कहते हैं। निश्चय नम से देखा जाय तो समस्त जीव केवलज्ञान और केवलदर्शनको धारण करनेवाले हैं कर्तृत्व और भोक्तत्व दोनों से रहित हैं, जन्म मरण से रहित हैं, बंध मोक्षसे रहित हैं, असंख्यात प्रदेशी हैं और सिद्ध के समान सब अमूर्त हैं तथा आत्म गुणों के समान होने से सब समान हैं । इसप्रकार निश्चय नय जीवों का स्वरूप है ॥६४-६७।। व्यवहार नय से जीवका स्वरूपयुक्त्या मत्यादिभि निश्चातुराय श्चवर्णनेः । कर्मणां कर्तृभोक्तारी बंधमोक्षविधायिनः ॥६॥ चतुर्गतिमतामूर्ताः सुखद् खाविभोगिनः । व्यवहारमयेनान प्रोक्ता जीवा गणाधिपः ।।६।। अर्थ- इसोप्रकार गणपराविक देवों ने व्यवहार नयसे जीवोंका स्वरूप मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि जानों को धारण करनेवाला चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन प्रादि दर्शनों को धारण करनेवाला, कर्मों का कर्ता भोक्ता, बंध वा मोक्षको करनेवाला, चतुर्गति में परिभ्रमण करनेवाला मूर्त और सुख दुःख भोगने वाला बतलाया है ॥६८-६६।। अजीव सत्त्व और उसके भेद-- रूप्यरूपिप्रकाराभ्यामजोवाद्विविधामताः । चतुर्डा पुद्गलारूपिणश्वस्कंधादिभवतः ॥७॥ अर्थ-आगे अजीव को बतलाते हैं अजीव के दो भेद हैं रूपी और अरूपी । उनमें से पुद्गल रूपी हैं और स्कंधाषिक के भेद से चार उसके भेद हैं ॥७०॥ पुद्गल के चार भेद और उनका स्वरूपस्कंधायाः स्कंधदेशाश्च स्कंधप्रवेशपुद्गलाः । प्रणवः पुद्गला अत्रेयुक्तानिनश्चतुर्विधाः ।।७१।। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] { २३५ ) [ पंचम अधिकार सवः स्कंधः सभेदश्चवहणद्भयजितः। स्कंधस्याद्ध बुधवक्तः स्कंधदेशोजिनागमे ॥७२॥ तस्याद्धिने संजातोवणुपयतमेवभाक् । स्कंधप्रदेशएवाविभागी स्यादणुः पुद्गलः ।।७३।। अर्थ- स्कंध, स्कंधदेश, स्कंधप्रदेश और प्रण इसप्रकार भगवान जिनेन्द्र देवने पुद्गल के भार भेद बतलाये हैं । जो बहुत से परमानों से बना है जिसके अनेक भेद हैं ऐसे बड़े स्कंधको स्कंध कहते हैं । स्कंधका जो आधा भाग है उसको विद्वानों ने जैन शास्त्रों में स्कंधवेश बतलाया है । उस स्कंधदेश के आधे भाग को तथा उसके भी आधे भाग को इसप्रकार दो प्ररण के स्कंध तक के भागों को स्कंधप्रदेश कहते हैं तथा अधिभागी पुद्गल के परमाणु को अणु कहते हैं ।।७१-७३॥ पुद्गल द्रव्य का उपकारजीवितं मरणं दुःलं सुखं वेहादिवर्जनम् । जीवानां पुद्गलाः कुयुः कर्मबंधाध पग्रहम् ।।७४।। अर्थ----जीवन मरण सुख दुःख तथा शरीर के त्याग के द्वारा पुद्गल द्रव्य जीव का उपकार करते हैं। ये पुद्गल कर्मबंध के द्वारा भी जीव का उपकार करते हैं ।।७४।। अरूपी अजीव द्रव्य के भेद और उनकारधर्मोऽधर्मो नभः कालः इमेरूपादिवजिताः । जीवपुद्गलयो लोक निष्क्रियाः सहकारिणः । ७५।। अर्थ-धर्म अधर्म आकाश और काल ये अरूपी अजीन द्रव्य हैं, ये चारों ही द्रव्य क्रिया रहित हैं और जीव पुद्गल के उपकारक हैं ।।७५॥ धर्म द्रव्य का स्वरूप और उसका उपकारसहकारीगोधर्मो जीवपुद्गलमोर्मतः । असंख्यातप्रवेशोत्र मत्स्थानां जलराशिवत् ।।७६।। अर्थ-जिसप्रकार जलको राशि मछलियोंको चलने में सहायक है उसोप्रकार धर्म द्रव्य जोव पुद्गलों के चलने में सहकारी होता है यह धर्म द्रव्य असंख्यातप्रदेशी है ॥७६॥ अधर्म द्रव्य का स्वरूप और उसका उपकारछायावापथिकानामधर्मः साकार: स्मितौ । जीवपुद्गलयोः प्रोक्तः संख्यानीतप्रदेशवानु ॥७७॥ अर्थ-जिसप्रकार पथिकों के ठहरने में छाया सहायक होती है उसी प्रकार अधर्म द्रव्य जीव पुतगलों के ठहरने में सहकारी होता है । तथा यह द्रव्य भी असंख्यात Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ] [पंचम अधिकार प्रदेशी है ॥७७॥ प्राकाश द्रव्य का स्वरूप और उसके भेदलोकालोक हि मेवाभ्यां द्विधाकाशः स्मतो जिनः । अवकाशप्रदः सर्वव्याणां खंडजितः ।।७।। धर्मोऽधोगिनः कालः पुद्गलाः खेत्र यावति । एते तिष्ठन्ति तावन्मानः लोकाकापाएपहि ।।७।। तस्मात्स्यात्परतोनंतप्रवेशएककोमहान । सर्वव्यातिगो नित्योऽलोकाकाशोजिनोदितः । ८०।। अर्थ-भगवान जिनेन्द्रदेव ने आकाश के दो भेद बतलाये हैं एक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश । यह आकाश समस्त पदार्थों को जगह देता है । तथा यह आकाश अखंड द्रव्य है । जितने आकाशमें जोव पुद्गल धर्म अधर्म और काल रहता है उतने आकाश को लोकाफाश कहते हैं। उस लोकाकाश के बाहर सब ओर जो एक महान् और अनंत प्रदेशी आकाश है जिसमें अन्य कोई द्रष्य नहीं है और जो नित्य है उसको भगवान जिनेन्द्रदेव ने अलोकाकाश बतलाया है ॥७८.८७॥ व्यवहार काल का स्वरूपनवजीर्णादिभिः काल! परिवर्तनहेतुकृत् । जीवपुद्गलयोर्लोके व्यवहारोविनादिकः ॥१॥ अर्थ-काल द्रव्य नगीन पदार्थों को भी पुराना बना देता है और जिसप्रकार जीव पुद्गल प्रादि समस्त पदार्थोमें परिवर्तन करता रहता है । तथा लोकमें दिन रात घड़ी घंटा आदि के भेद से जो काल माना जाता है वह सब व्यगहार काल है ।।१।। निश्चय काल का स्वरूपलोकाकाशप्रवेशे यः पृथग्भूतोणसंचयः । स निश्चमाभिषः कासोरत्नराशिरिवोजितः ।।८२॥ ___ अर्थ-जिस प्रकार रत्नों को राशि पास पास जड़ी रहती है उसी प्रकार लोकाफाश के प्रत्येक प्रवेश पर जो अलग अलग काल के परमाणु विद्यमान हैं, उन कालारणों को निश्चय काल कहते हैं ।।२।। पांच अस्तिकाय द्रव्य के नामएतेत्र सह जीवेन षद्भध्याउदिताजिन: । कासवग्यं विनापंचास्तिकायाधीजिनागमे ।।८।। अर्थ- इसप्रकार पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पांच अजीन के भेद बतलाये हैं उनमें जीम द्रव्य को मिला देने से भगवान जिनेन्द्रदेव ने छह नाम बतलाये हैं तथा काल द्रव्य को छोड़कर बाकी के पांच जैन शास्त्रों में अस्तिकाय बतलाये हैं ॥३॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( २३८ ) अधिकार आत्माको रोकना चाहिये और पूर्ण प्रयत्न के साथ समस्त आत्रबोंको रोकना चाहिये। ॥१॥ भावबन्ध और द्रव्यबन्ध का स्वरूपरागद्वेषमयेनात्र परिणामेन येन च । बध्यते कास्नकर्माणि भावर्बध स उच्यते ॥२॥ भावबंधनिमिसमसाई या कर्मपालः । संश्लेषोगिप्रवेशानां द्रव्यबंधः स कथ्यते ।।३।। अर्थ-जिन रागद्वषमय परिणामों से समस्त कर्म बंधते हैं उन परिणामों को भावबंध कहते हैं । उस भावबंध के निमित्तसे कर्मपुद्गलों के साथ-साय जो प्रात्मा के प्रवेशों का सम्बन्ध हो जाता है उसको द्रव्यबंध कहते हैं ।।१२-६३।। बन्ध के भेद और उनके कारणों का वर्णनप्रकृतिस्थितिबंधोनुभाग: प्रवेशसंशकः । इति चतुविधी द्रव्यबंधोबंधकरों गिनाम् ॥१४॥ प्रकृयामा प्रदेशस्य अंधौवाक्कायमानसः कषाय भवतो बंधोपसा स्थित्यनुभागयोः ।।६५॥ यथारजांसि तैलादिस्निग्धगाणदेहिनाम् । लगन्ति च तथा कर्भाणवोरागादिभिः सा ।।६६॥ अर्थ-प्रारिणयोंको बंध करनेवाला यह द्रव्यबंध, प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध के भेद से चार प्रकार का बतलाया है । इन चारों प्रकार के बंधों में से प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध मन-वचन-कायके योगों से होते हैं और स्थितिबंध तथा अनुभागबंध कधाय से होते हैं । जिसप्रकार सेल आदि के द्वारा चिकने हुए मनुष्यों के शरीर पर धूल जम जाती है उसी प्रकार रागद्वेष आदि कारण आत्मा के प्रदेशों में कर्मों के परमाणु पाकर मिल जाते हैं ।।६४-६६।। बन्ध का फलयमा बंधन बद्धोत्र भुक्से दुःखमनारतम् । पराधीनस्तथाप्रारणी चतुगंलिषुसाधिकम् ।।७।। प्रभमः कर्मबंध यः छेत्तुं यानायुधाविभिः । कथं मुक्तो भवेत्सोनकुबंधपि सपोमहत् ।।६ यावछिनत्तिबंध न कर्मणां सत्तपोसिना। तावरसुखी व मायेशमुनिभ्रं मन् भवाटवीम् अर्थ-जिसप्रकार बंधन में बन्धा हुमा मनुष्य पराधीन होकर अनेक प्रकारके दुःख भोगता है उसीप्रकार कर्मबंधसे बंधा हुना यह प्राणी पराधीन होकर चारों गतियों में बहुत से दुःख भोगता है । जो मुनि महा तपश्चरण करता हुआ भी ध्यानरूपी शस्त्र से कर्मबंध को नाश करने में असमर्थ है वह मुक्त कभी नहीं हो सकता । यह मुनि जब तक श्रेष्ठ तपश्चरण रूपी तलवार से अब तक कर्मों के बंधन को छिन्न-भिन्न नहीं कर Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( २३६) [पंचम अधिकार सकता तब तक वह संसाररूपी वनमें ही घूमता रहता है और तब तक वह कभी सुखो नहीं हो सकता ।।६७-६६॥ रत्नत्रय रूपी शस्त्र से कर्मबन्ध नष्ट करने की प्रेरणाविज्ञायेतिपयलेन मुक्तिकामाः स्वमुक्तये । रत्नत्रयायुधेवछिवन्तु कर्मशास्त्रवम् ।।१५००।। ___अर्थ-यही समझकर मोक्ष की इच्छा करनेवाले पुरुषों को स्वयं मोक्ष प्राप्त करने के लिये प्रयत्न पूर्वक रत्नत्रयरूपी शस्त्र से कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट कर डालना चाहिये ।।१५००॥ भावसंवर का स्वरूप और उसके कारणचतन्यपरिणामो यः कर्मानवनिरोधकः । स्वात्मध्यानरतः शुद्धो भावसंवर एव सः ॥१५०१।। त्रयोदशविघं वृत्तं धर्मा दश विधोमह न् । अनुप्रेक्षाविषडमेवाः परीषहजयोखिसः ।। १५०२।। चारित्रं पंचषा योगा ध्यानाध्ययनवक्षता। सपो यमाविका एते भावसंघरकारिणः ।।१५०३॥ अर्थ- कर्मोके आस्रव को रोकनेवाला जो प्रात्माका शुद्ध परिणाम है अथवा ध्यान में लीन हुआ जो अपना शुद्ध प्रात्मा है उसको भावसंवर कहते हैं । तेरह प्रकार का चारित्र, वश प्रकार का सर्वोत्कृष्ट धर्म, बारह अनुप्रेक्षाएं, समस्त परिषहों का जीतना, पांच प्रकारका चारित्र, योग ध्यान और अध्ययन की चतुरता, तप यम नियम आदि सब भावसंवर के कारण हैं ॥१५०१-१५०३३ भावसंबर से ही दीक्षादि की सार्थकता-- संवरः कर्मणां यस्यमुनेर्योगादिनिप्रहै: । तस्यैव सफलं जम्मसार्थाबीक्षा शुभंशिवम् ।।१५०४।। अर्थ-जो मुनि अपने मन-वचन-फाय के योगों का निग्रह कर कर्मोका संवर करता है उसीका जन्म सफल समझना चाहिये उसी की वीक्षा सार्थक समझनी चाहिये और उसी को शुभ मोक्षको प्राप्ति समझनी चाहिये ॥१५०४॥ भावसंथर के अभाव में दीक्षादि की निरर्थकताअक्षमः संवरं कर्तुं यो यतियोंगचंचलः। तस्य जातु न मोक्षोतांगकलेशस्तुषलाहमम् ॥५॥ सन्नद्धः संगरेय-वटोहन्ति रिपून बहम् । तद्वत् संवरितो योगी कर्मात्रातीस्तपोवलात ॥६॥ संवरेणविनापुसा था दीक्षा तपोखिसम् । यत: कर्मात्रवेणंव बद्धते संसतिस्तराम् ॥७॥ अर्थ-जो मुनि अपने योगों की चंचलता के कारण कर्मों का संवर करने में असमर्थ है उसको कभी भी मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती ऐसी अवस्था में उसका तप Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] (२४) {লিশ দ্বিার करना चावलों की भूसी को कटने के समान केवल शरीर को क्लेश पहुंचाना है । जिस प्रकार युद्ध के लिये तैयार हुमा योद्धा युद्ध में बहुत से शत्रुनों को मार डालता है उसी प्रकार संवर को धारण करनेवाला मुनि अपने तपश्चरण के बल से बहुत से कर्मरूपी शत्रुओं को नाश कर डालता है। बिना संवर के मनुष्यों की जिनदीक्षा वा तपश्चरण आदि सब व्यर्थ है क्योंकि कम का आलय होने से लार की पसन्दरा दरायर बढ़ती माती है ॥५-७॥ भावसंवर की प्रेरणामत्वेनि धीधनः कार्यः संवरो मुक्तिकारकः । सर्व व्रताधिभियोग:प्रयत्नेनशिवाप्तये ।।८।। अर्थ-पही समझकर बुद्धिमान पुरुषों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये समस्त चारित्र तपश्चरण आदि धारण कर प्रयत्न पूर्वक मोक्ष देनेवाला कर्मों का संवर सदा ? करते रहना चाहिये ।। अशुभ कर्मों के संवर पश्चात ही शुभ संवर करने की प्रेरणाकर्तव्योमुनिभिः पूर्व संबरोधकर्मणाम् । स्वारमध्यानं ततः प्राप्यसिद्धयं र शुभकर्मणाम ॥६॥ अर्थ--मुनियों को सबसे पहले पापरूप अशुभ कर्मों का संबर करना चाहिये और फिर मोक्ष प्राप्त करने के लिये अपने आत्मध्यानमें लीन होकर शुभ कर्मों का भी संबर करना चाहिये ॥६॥ निजैरा का स्वरूप उसके भेद और स्वामीसविपाकाधिपाकाभ्यां कर्मणां निर्जरा द्विधा । सविणकात्र सर्वेषां सवा कर्मविपाकतः ॥१०॥ प्रविपाका मुनीनां सा केवलं जायतेतराम् । तपोभिदुष्करविश्वयंमा मुक्तिमातृका ॥११॥ अर्थ-कौके एक देश क्षय होने को निर्जरा कहते हैं उसके सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा के भेव से दो भेष हैं । उनमें से सविपाक निर्जरा समस्त संसारी जीवों के सदा होती रहती है क्योंकि संसारी जीवों के कमो का विपाक प्रति समय सबके होता रहता है । तथा अविपाक निर्जरा मोक्षको माता है और वह घोर तपश्चरण तथा समस्त यमों को धारण करने से केवल मुनियों के ही होती है ॥१०-११॥ अविपाक निर्जरा का दृष्टान्त उसका फल-- यहशमुफलाम्यपद्यन्ते हो बहूधमा । तरच कृत्स्नकर्माणितपस्तापमुनीश्वरः ।।१२।। यथाजीणंयतो होगीमनिर्भरणाद्भवेत् । महासुलोमुनिस्तारकर्मनिझरणा मि ॥१३॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाचार प्रदीप (२४१) [पंचम अधिकार ___ यथायथात्र जायेत कर्मा निरासताम् । तथाप्तथासमायातिनिकटमुक्तिनायका ॥१४॥ यदेव निर्जरा सर्ग तपसालिकर्मणाम् । तदेव जायते मोक्षोऽनन्तसोण्याकरा सताम् ।।१५।। अर्थ-जिसप्रकार आम के फल अधिक गर्मी से जल्दी पक जाते हैं उसीप्रकार मुनिराज भी अपने तीन तपश्चरण की गर्मी से समस्त कर्मों को पका डालते हैं । जिम प्रकार अजीर्ण रोग का रोगी मल निकल जाने से (बस्त हो जाने से) अधिक मुखी होता है उसी प्रकार मुनिराज भी कर्मों की निर्जरा हो जाने से अधिक सुखी हो जाने हैं । मुनियों को जैसे-जैसे कर्मों की अधिक निर्जरा होती जाती है वैसे ही वैसे मुक्तिक्षण नायका उनके निकट आती जाती है । जब तपश्चरण के द्वारा सज्जनों के समस्त को की निर्जरा हो जाती है उसी समय उनको अनंत सुख देनेवाली मोक्ष प्राप्त हो जानी है ॥१५१२.१५॥ निर्जरा के कारण नाचरणादि को प्रेरणाजास्वति मुक्तिकामः सा विधेयामुक्तिकारिणी । खनोसमस्तप्तौख्यानां तयोरत्नत्रयाविभिः॥१६॥ अर्थ-यही समझकर मोक्ष की इच्छा करने वाले पुरुषों को तपाचरण और रत्नत्रय आदि के द्वारा समस्त सुखों की स्वानि और मोक्ष को देनेवाली यह कर्मों की निर्जरा अवश्य करनी चाहिये ।।१६॥ भाव मोक्ष दृश्य मोक्ष का स्वरूपसर्वेषां कमरणां पोत्रमयहेतुजितात्मनः । विशुदः परिणामः सः तावन्मोक्षोऽशुभाम्तकः ।।१७।। केवलमानिनो योत्रविश्लेषः कर्मजीषयोः । लक्ष्या द्रव्यमोक्षः सोऽनन्तशर्माकरोमहान् ॥१८॥ अर्थ- अपने आत्मा को वश करनेवाले मुनियों के समस्त कर्मों के क्षय होने का कारण ऐसा जो अत्यन्त शुद्ध परिणाम होता है उसको समस्त पापों का नाश करने वाला भाव मोक्ष कहते हैं । केवली भगवान के जो कर्मों का सम्बन्ध प्रात्मा से सर्वसा भिन्न हो जाता है । उसको अनंत सुख देनेवाला महान् द्रव्य मोक्ष कहते हैं ॥१७-१८।। उभय मोक्ष का फलयथापादशिरोन्तं हि चद्धस्य दृढबन्धनः । मोचनाम्न परंशर्म तथा कृत्स्नविषिक्षयात १६ ततःऊर्ध्वस्वभावेनवजेदारमाशिवालयम् । रस्नकर्मवपु शान्गुणाष्टकमयोमहान् ॥२०॥ अर्थ-जिसप्रकार कोई मनुष्य अत्यंत बृढ़ बन्धनों से सिर से पैर तक मंशा हो और फिर उसको छोड़ दिया जाय तो छूटने से वह सुखी होता है उसी प्रकार कर्मों Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २४२) [पंचम अधिकार से बंधा हुमा आत्मा समस्त कर्मों के नाश हो जाने से अनंत सुखी हो जाता है । तदनस्तर अस्वभाव होने के कारण यह प्रात्मा मोक्ष में जा विराजमान होता है । इसके समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं और शरीर भी नष्ट हो जाता है इसलिये भी यह मोक्ष में पहुंच जाता है। उस समय यह सम्यक्त्व प्रावि आठों गुणों से सुशोभित हो जाता है और सर्वोत्कृष्ट हो जाता है ॥१६-२०॥ सिद्धों के सुख का वर्णन और उसका प्रभावतत्रभुत निराई बाचागमोधरम् । Kriश्य : स्वात्मविषयातिगम् ।।२१॥ एत्सुखं सफलोत्कृष्टं कालत्रितयगोचरम् । विश्वदेवमनुष्याणांतिरश्चांभोगभागिनाम ॥२२॥ तस्मावतातिगंसौख्यं निरोपम्पमुखोद्भवम् । एकस्मिम सभयेभुत सिद्धोऽभूतॊखिलावित् ।।२३।। अर्थ-वहांपर सिद्ध भगवान जिस सुखका अनुभव करते हैं वह सुख निराबाध है, वाणी के अगोचर है, अनंत है, नित्य है, केवल स्वात्मासे प्रगट होता है और विषयों से सर्वथा रहित है । समस्त देव, समस्त मनुष्य, समस्त तिर्यच और समस्त भोगभूमियों का भूत, भविष्यत और वर्तमान तीनों कालों में होनेवाला जो सर्वोत्कृष्ट सुख है उससे अनंतगुना अनुपम सुख समस्त पदार्थों को जानने वाले अमूर्त सिद्ध भगवान एक समय में अनुभव करते हैं ।।२१-२३॥ मोक्ष सुख प्राप्ति की प्रेरणाविज्ञायेति बुधाःशीन मोशं नित्यगुणाम्बुषिम् । साधयन्तु प्रयत्नेन तपोभि:क्षयायमः ॥२४।। अर्थ-यही समझकर बुद्धिमान् पुरुषों को तपश्चरण दीक्षा और यम आदि धारण कर प्रयत्नपूर्वक सबा रहनेवाले अनुपम गुणों का समुद्र ऐसा यह मोक्ष अवश्य सिद्ध कर लेना चाहिये ॥२४॥ सप्त तत्त्वों के श्रद्धान की प्रेरणाहमानि सप्ततत्त्वानि भाषितामिजिनागमे । जनकशुसये नित्यं भवे यानिदुगन्वितः ।।२।। अर्थ--इसप्रकार भगवान जिनेन्द्र देव ने अपने प्रागममें ये सात तत्त्व निरूपण किये हैं । सम्यग्दृष्टि पुरुषोंको अपना सम्यग्दर्शन शुद्ध रखने के लिये सदा इनका श्रद्धान बनाये रखना चाहिये ॥२५॥ पुण्य, पापका स्वरूप और उन प्रकृतियों के नामगुभयोगकिया श्व पुज्यमुत्पद्यते नुणाम् । अशुभैःयापमत्यर्थं प्रत्यहं चुःलकारणम् ॥२६।। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाचार प्रदीप ] ( २४३ ) सचं सुरग्निशन शुभानि च । उच्त्रमिमाज्ञेया द्विचत्वारिशदेव हि ।। २७॥ पुण्यप्रकृतयोर्थपदा विसुखशानयः । शप्रकृतयः शेषा विश्वदुःखनिबंधनाः ॥२८॥ [ पंचम अधिकार अर्थ- मनुष्यों को मन-वचन-कायकी शुभ क्रियाओं से पुण्य उत्पन्न होता है और अशुभ क्रियाओंसे प्रतिदिन दुःख वेनेवाला अत्यंत पाप उत्पन्न होता है । साता वेदनीय, देवायु, तिचायु, मनुष्यायु, मनुष्यगति, बेवगति, पंचेन्द्रिय जाति, पांचों शरीर, सोनों 'गोपांग, समचतुरख संस्थान, बावृषभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्ण रस गंध स्पर्श, मनुष्यगति प्रयोग्या देवगति पहात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, श्रस, बावर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति निर्मारण, तीर्थंकर ऊंच गोत्र ये कर्मों को व्यालीम प्रकृतियां शुभ कहलाती हैं तथा इन्हीं को पुण्य कहते हैं ये पुण्य प्रकृतियां तीर्थंकराविक पदों के सुख देनेवाली हैं। इनके सिवाय जो कर्म प्रकृतियां हैं, ये सब पाप प्रकृतियां कहलाती हैं और समस्त दुःखों को देनेवाली हैं ।।२६-२८ ।। पुण्य पाप सहित सात तत्त्व ही नौ पदार्थ है प्रागुक्तसप्ततत्त्वानि पुण्यपापयुतानि व पदार्था नव कथ्यन्तेसम्यग्ज्ञानगोचराः ||२६|| अर्थ --- पहले कहे हुए सातों तत्त्व पुण्य पाप के मिलाने से नौ पदार्थ कहनाने । ये नौ पदार्थ सम्यग्दर्शन और सम्यग्जान के गोचर हैं ||२६| सम्यग्दन के आठ अंगों के नाम व उनके पालन की प्रेरणा -- तेषुतरवायेंषु परीयां विधाय च । दृष्टेरंगान्यपी मान्यावेयान्यष्टी विशुद्धये ॥ ३० ॥ निःशंकितं च निःक्रांक्षितांगंनिविचिकित्सितम् । प्रमूढदृष्टिनामांगा पगूहनसंज्ञकम् ॥ ३१ ॥ सुस्थितीकरणं वात्सल्यंप्रभावननामकम् । एतान्यष्टीम हांगानि तुष्टेर्ष्याया दिग्युतः ॥ ३२ ॥ अर्थ-इन तत्व और पवार्थों में परम अद्धा धारण कर इस सम्यग्दर्शन को शुद्ध करने के लिये आगे कहे हुए सम्यग्दर्शन के आठों अंगों का पालन करना चाहिये । निःशंकित, निःकांक्षित, निषिचिकित्सा, अमृवृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण वात्सल्य और प्रभावना ये आठ सम्यग्दर्शन के महा अंग हैं । सम्यग्दृष्टियों को इनका पालन अ करना चाहिये ।।३०-३२ ॥ निःशंकित अंग का स्वरूप -- उक्तन्यपदार्थेषु तीर्थ सकलागमे । निप्रये च गुरोबमॅदयापूर्ण जिनोविते ||३३| Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ] ( २४४ ) [पंचम अधिकार रत्नत्रयमये मोक्षमार्गे शंकावृधोत्तमैः । त्यज्यते या सदासस्यानिःशंकितांग प्रादि भः ॥३४॥ अर्थ--ऊपर कहे हुए समस्त तत्त्वों में, पार्यो में, तीर्थकर परमदेव में, उनके कहे हुए आगम में, निर्गय गुरु में भगवान जिनेन्द्रदेव के कहे हुये क्यामय धर्म में और रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग में विद्वान् पुरुषोंको सब तरह की शंकाओं का त्याग कर देना चाहिये । इसको सम्यग्दर्शन का पहला निःशंकित अंग कहते हैं ॥३३-३४॥ तीर्थकरदेव के वचन को ही प्रमाणिक मानने की प्रेरणाकुलाद्रिमेहमूभागक्वचिदंबाच्चलेदहो । न जातुवेशकालेपि वाक्यं श्रीजिनभाषितम् ॥३५॥ इति मत्वात्रसर्वशनिवंगुणसागरम् । प्रमाणोकृत्यतीर्थेशं तद्वाक्येनिश्चयं कुरु ॥३६॥ अर्थ-इसका भी कारण यह है कि कदाचित् दैवयोग से कुलपर्वत वा मेरुपर्वत का भूभाग चलायमान हो सकता है परन्तु किसी भी देश या किसी भी काल में भगवान जिनेन्द्रदेव का कहा हुआ वचन चलायमान वा अन्यथा नहीं हो सकता । यही समझकर और सर्वज्ञ निर्दोष तथा गुणोंके समुद्र ऐसे तीर्थकर परमदेव को प्रमाण मान कर उनके वचनों का निश्चय करना चाहिये ॥३५-३६॥ __सप्तभय व उनके त्याग की प्रेरणा___ इहलोकभयनाम परलोकभवभुवि । अनाणप्तिमरपास्यवेदनाकस्मिकायाः ।।३७।। इमै सप्तभयास्स्याज्या भयकमभवावुधः । वृग्विशुवध विविस्वानुल्लंध्यं भाधिशुभाशुभम् ।।३।। अर्थ- इस संसार में सात भय हैं इस लोकका भय, परलोक का भय, अपनी अरक्षा का भय, मृत्यु का भय, वेदना वा रोग का भय, प्राफस्मिक भय और परकोटा आदि के न होने से सुरक्षित न रहने का भय ये सातों भय, भय नाम के कर्मसे उत्पन्न होते हैं इसलिये सम्यग्दर्शन को विशुद्ध रखने के लिये बुद्धिमानों को इन सातों भयोंका स्याग कर देना चाहिये । क्योंकि जो होनहार शुभ तथा अशुभ है उसको कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकला ॥३७-३८॥ निकाक्षित अंग का स्वरूपयह पुत्रकलाश्रीराज्यभोगाविशर्मसु । प्रमुखस्वर्ग को वाहमिन्द्रादिपयेषु च ॥३६॥ फुदेवश्रुतगुर्वादो कुधर्मवारिनिर्जये । षर्मायमूहभावेनसपोधर्मफलादिभिः ॥४०॥ या निराक्रियतेमिल्पंदुराकांक्षाविरागिभिः । तनि.कांक्षायं सारं टंग स्पर्मुक्तिभूतिवम् ।।४१॥ अर्थ-वीतरागी पुरुष धर्म के लिये किये हुए तपाचरण आदि धर्मके फल से Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , मूलाचार प्रदीप] [पंचम अधिकार अज्ञान रूप परिणामों से भी पत्र स्त्री लक्ष्मी राज्य भोग आदि कल्याण करनेवाले इस लोक संबंधी पदार्थों को प्राकांक्षा नहीं करते तथा परलोक में होनेवाले स्वर्ग के सुख वा इन्द्र महमिंद्र चक्रवर्तों आदि के पदों को आकांक्षा भी नहीं करते । इसोप्रकार कुदेव कुशास्त्र कुगुरु और कुधर्म को भी इच्छा कभी नहीं करते और न शत्रुओं के जीतने की इच्छा करते हैं। इस प्रकार की दुराकांक्षा जो दूर करना है उसको स्वर्ग मोक्ष की विभूति देनेवाला सारभूत नि:कांक्षित भंग कहते हैं ॥३६-४९॥ इन्द्रिय सुखादि की आकांक्षा के त्याग की प्रेरणाभंगुरं त्रिजगत्सव भोगांगंश्वभकारणम् । कारागारं वपुर्मस्वा कांक्षा हेया सुखादिषु ॥४२॥ अर्थ- समस्त सोनों लोक क्षणभंगुर हैं भोयोपभोग के साधन सब नरकके कारण हैं और पीर कामास समान है यही समझकर सुखादिक की आकांक्षा सर्वथा दूर कर देनी चाहिये ।।४२॥ विचिकित्सा का स्वरूप व भेदद्वन्यभावद्वि मेदाम्यां विधिकित्सा विधामसा । प्राधामुनिवपुर्णातरवितीयाचक्षुधादिजा ।।४।। अर्थ-द्रष्म और भाव के भेद से विचिकित्सा के दो भेद हैं। पहली मुनियों के शरीर से उत्पन्न हुई ब्रव्यविधिकित्सा है और दूसरी मूख प्यास से उत्पन्न होनेवाली भावविचिकित्सा है ॥४३॥ न्य भाव विचिकित्सा का स्वरूप+ मुनीनो मलमूत्रादीन् वातकष्टाविरुग्वजाम् । पश्यता याधणा द्रष्यचिकित्सात्र सा शुभा ॥४४॥ ___ जनेवशासने घोराः क्षत्तुषादिपरीषहाः । यदि सन्ति न चदन्यत्समीचीन किलाविलम् ।।४।। इत्यादि चिन्तनं यच्च कातरैः क्रियते इति । भावाल्यादिचिकित्सा सा स्मृतामिथ्यात्वकारिणी ।। अर्थ-मुनियों के मलमूत्र को देखकर अथवा श्रायु के रोग को वा उनके अन्य रोगों को देखकर जो घृणा करता है वह अशुभ द्रब्यचिकित्सा कहलाती है। यदि जैन सासन में भूख प्यास की घोर परीषह न हों तो बाकी का समस्त जम शासन अत्यंत समीचीन है इसप्रकार का चितवन कातर लोग ही करते हैं और इसी को मिथ्यात्व बढ़ानेवाली भावचिकित्सा कहते हैं ।।४४-४६।। बिभिकिस्सा का त्याग ही निषिचिकित्सा अंग है.. एपात्रशिविषा चित्त हन्यते या विवेक्षिभिः । तस्स्यानिविचिकिताख्यमंगं विश्वसुखप्रबम् ।।४।। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूग्नाचार प्रदीप ] ( २४६ ) [पंचम अधिकार अर्थ-विवेकी पुरुष इन दोनों प्रकार की विचिकित्सात्रों का जो त्याग कर देते हैं उसको समस्त संसार को सुख देनेवाला निविचिकित्सा अंग कहते हैं ।।४७।। ___मुनिराज के शरीर से घृणा करने का निषेधमुनीन्द्रसगुणान्सारान् जपथ्यहितकरान् । विश्वासाधारणान ज्ञात्वा सद्गानेत्यज भोघणाम्॥ अर्थ--मुनिराज में समस्त संसार में न होनेवाले अनेक असाधारण सद्गुण हैं वे सब गुरण सारभूत हैं और जगत के समस्त भव्य जीवों का हित करनेवाले हैं। यही समझकर मुनिराज के शरीर को देखकर कभी धूणा नहीं करनी चाहिये ॥४॥ अमूढ़ हष्टि अंगका स्वरूप मूढ़ता त्याग का उपदेशबौदादिसमयसर्थवेदस्मृत्यादिदुःश्रुसे। हरहर्यादिदधे च सग्रंथेकुगुरोखले ॥४६॥ श्रेयोर्थ क्षमावेन भक्तिरागाछ पासमम् । यनिराक्रियतेस्वाभ्यरमूढत्वं तदूजितम् ।।५।। रियेकलोचनेनानपरोक्ष्यनिमिलानमतान् । सारासारांश्च धर्मातीन पूढत्वं हि सर्वथा ॥५१॥ अर्थ-चतुर पुरुष अपने प्रात्माका कल्याण करने के लिये बौद्ध आदि अन्त्य समस्त मतों में, वेद स्मृति प्रादि समस्त अन्य शास्त्रों में, हरि हर प्रादि अन्य देवों में और परिग्रह सहित समस्त कुगुरुनों में न तो कभी भक्ति करते हैं और न कभी उपासना करते हैं तथा उनकी भक्ति और उपासना दूसरों से भी कभी नहीं कराते उसको श्रेष्ठ अमूददृष्टि अंग कहते हैं। चतुर पुरुषों को विवेक रूपी नेत्रों से समस्त मतों की परीक्षा कर लेनी चाहिये उन सबका सार प्रसार समझ लेना चाहिये धर्मका स्वरूप समझ लेना चाहिये और फिर अपनी मूढ़ता का त्याग कर देना चाहिये ।।४६-५१॥ उपगृहन अंग का स्वरूप और उसके पालने की प्रेरणानिविस्य निसर्गण जिनेन्द्रशासनस्य । पतुःसंघमुनीशान वालाशक्त जमावयः ॥५२॥ प्रातस्थानदोषस्याच्छादनं यद्विधीयते । वक्षनर्नानाविधोपार्यरुपगृहममेवतत् ॥५३॥ निष्कलंकशरण्यं च महच्छोजिनशासनम् । विपित्यागसतोषं छादयन्तु बुधा मृतम् ।।५।। ___ अर्थ-भगवान जिनेन्द्र वेवका कहा हआ यह जिनशासन स्वभाव से ही निर्दोष है, इसलिये उसमें तथा चारों प्रकार के मुनियों के संघमें यदि किसी बालक वा असमर्थ मनुष्य के आश्रय में कोई दोष आ जाय तो चतुर पुरुषों को अनेक उपायों से उसका ग्राम्हादान ही कर देना चाहिये । इसको उपगृहन अंग कहते हैं । यह भगवान जिनेन्द्रदेवका महा जिन सामान निष्कलंक है और शरणभूत है, यही समझकर चतुर पुरुषको Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानी मुलाचार प्रदीप ] ( २४७ ) शीघ्र ही उसमें आये हुए दोषोंको आच्छादन करते रहना चाहिये ।।५२-५४॥ स्थितिकररण अंगका स्वरूप और उसके पालन करने की प्रेरला सम्यग्दृग्ज्ञानचारित्रेभ्यो घोरतपोभुवि । परीषहोपसर्गाद्यं चलतां गृहियोगिनाम् ।। ५५ ।। सुस्थितिकरणं यत्च्च क्रियते स्वक्रियादिषु । हितेष मंकरैर्वाक्यैः सुस्थिती करणंहि तत् ॥५६॥ परिज्ञाय जगत्साशंस्तपोधर्मव्रताविकान् । स्वमुक्तिसाधकास्तेषु स्थिती कर रामाचरेः ॥५७॥ ॥ [ पंचम विकार अर्थ -- यदि कोई श्रावक वा मुनि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकुचारित्र वा घोर तपश्चरण से अथवा परोषह वा उपसर्ग से चलायमान होते हों तो हित करने वाले धर्मरूप वचनों से उनको उनकी उसी क्रिया में स्थिर कर देना स्थितिकरण अंग कहलाता है। ये तप धर्म और व्रतादिक सब जगतमें सारभूत हैं और स्वर्गमोक्षके साधन हैं यही समझकर उनमें स्थितिकरण श्रवश्य करना चाहिये ।।५५-५७।। वात्सल्य अंग का स्वरूप और उसके पालन करने की प्रेरणा figy नानिर्वाणगामिषु । धर्मप्रवर्तन्वत्र सद्यः प्रसूतधेनुवत् ।।४८।। स्नेहं भवत्यादिकं यच्च धर्मबुद्धया विधीयते । धार्मिकंर्धमसिद्धययं तद्वात्सत्यं जगद्धितम् ॥५६॥ चतुविषं महासंघ विश्वलोकोत्तमं परम् । गुणैरन्तातिगं जश्या तवात्सल्यंभजान्वहम् ॥६०॥ अर्थ - धर्मात्मा पुरुष अपने धर्मको सिद्धि के लिये स्वर्गमोक्ष में जाने वाले hari प्रकार के संघ तथा धर्मकी प्रवृत्ति करने वालों में धर्म बुद्धि से जो अपने बच्चे में हाल की प्रसूता गाय के समान स्नेह करते हैं और भक्ति करते हैं उसको जगत का हित करनेवाला वात्सल्य अंग कहते हैं । यह चारों प्रकार का संघ समस्त लोक में 4 उत्तम है और अनंत गुणोंसे सुशोभित होने के कारण सर्वोत्कृष्ट है । यही समझकर प्रतिदिन इस वात्सल्य अंग का पालन करना चाहिये ।।५६ ६०॥ प्रभावना अंगका स्वरूप और उसके माहात्म्य प्रकट करने की प्रेरणामूलोत्तरगुणंयोगवशमूलानि पूर्वकः । तपोभितुःष्करं जनि विज्ञान भानुरश्मिभिः ॥ ६१ ॥ उच्छिद्यान्यमतध्वान्तंविव्रिलोके प्रकाशकम् । धर्माहिंयासनादीनां यत्साप्रभावना मता ।। ६२ ।। सत्यभूतं जगत्पूज्यं भव्याप्तं जिनशासनम् । भवघ्नं मोक्षवं वीक्ष्य व्यक्तीकुर्वन्तु घोधनाः ।। ६३ ।। अर्थ – जिसप्रकार वृक्ष में जड़ होती है और फिर उसकी शाखाएं डालियां आदि होती हैं उसीप्रकार मुनियों के मूलगुण और उत्तरगुण होते हैं । इन मूलगुणों को धारण करके तथा घोर तपश्चरण और ज्ञान विज्ञान रूपी सूर्यको किरणों से अन्य मत Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] [पचम अधिकार रूपी अंधकार को नाश कर विद्वान लोग इस लोक में जो धर्मस्वरूप भगवान अरहंतदेव + के शासनको प्रकाशित करते हैं उसको प्रभावना अंग कहते हैं । यह जिनशासन यथार्थ है, जगतपूज्य है, भव्य जीवों के द्वारा ग्रहण किया जाता है संसार को नाश करनेवाला है और मोक्षको देनेवाला है । यही समझकर बुद्धिमान लोगोंको इसका माहात्म्य प्रगट करना चाहिये ॥६१.६३॥ सम्यग्दर्शन शुद्धि के लिये अष्ट अंग की रक्षा करने की प्रेरणाइमान्यष्टांगसाराणि दर्शनस्य विशुद्धये। विशुद्धिवामि यत्नेनरक्षणीयानि धीधनः ।।६४।। यथागग्यांगहीनोक्षमोहन्तु रिपून नृपः । तथाल्योगविना सम्यग्दृष्टिः कमरिष्यचित् ।।६।। अर्थ-इसप्रकार सम्यग्दर्शनके निःशंकित प्रादि आठ अंग हैं। ये अंग सारभूत हैं और सम्यग्दर्शन को शुद्ध करनेवाले हैं । इसलिये बुद्धिमानों को अपना सम्पग्दर्शन शुद्ध करने के लिये यत्न पूर्वक इनकी रक्षा करनी चाहिये । जिसप्रकार राज्य के अंगों से रहित हया राजा अपने शत्रओं को नहीं जीत सकता, उसी प्रकार निःशंकित आदि अंगों के बिना सम्यग्दृष्टि पुरुष भी कर्मरूपी शत्रुओं को कभी नहीं जीत सकता। ॥६४-६५॥ २५ मल दोषों के नाम में उन्हें न्यागने की प्रेरणाइतिमत्वामुदादायाष्टांगानि दर्शनस्य च। पंचविंशतिस्त्रभेदोषास्त्याज्या मलप्रदाः । ६६।। विधामोडयमवाटी बहनायसनानि च । दोषाः शंकरवषोत्रंतेदृग्दोषा: पंचविंशतिः ।।६।। अर्थ-यही समझकर सम्यग्दर्शनके इन आठों अंगोंको प्रसन्नता पूर्वक धारण करना चाहिये तथा मलिनता उत्पन्न करनेवाले पच्चोसों दोषों का त्याग कर देना चाहिये । तीन मूढ़ताऐं पाठ मह छह अनायतन और पाठ शंकारिक दोष ये सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष कहे जाते हैं ॥६६-६७।। __ देव मूढ़ता, लोक मूढ़ता, समय मूढ़ता का स्वरूपचंडिका क्षेत्रपालेषु ब्रह्मष्णेश्वरादिषु । उपासनं कुदेशेषुयई वमोठयमेवतत् ॥६॥ मिभ्यामतानुसारेणलोकाचारोघकरकः । प्राचार्यते शठीक लोकमूढत्यमेषसत् ॥६६।। श्रीशमीमांसफादोनोसमयेऽवग्यबस्मसु । मूडभावन यो रागस्तन्मोढ सममाभिधम् ॥७०॥ अर्थ-चंडी क्षेत्रपाल वा ब्रह्मा विष्णु महेश प्रादि कुदेवों की उपासना करना वेवमूढ़ता कहलाती है । मिथ्यामत के अनुसार जो लोकाचार है वह पाप उत्पन्न करने वाला है उसको मो अज्ञानी लोक आचरण करते हैं उसको लोकमूढ़ता कहते हैं । अपनी Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २४६ } [ पंचम अधिकार प्रज्ञानता से बौद्ध मीमांसक आदि के शास्त्रोंमें या अन्य मतमें जो राग करना है उसको समय मूढ़ता कहते हैं ।।६८-७०॥ मुकताओं के त्याग की प्रेरणा -- एतन्मूत्रनिद्य मूढलोकप्रतारकम् । धर्मध्वंसकरं त्याज्यंश्ववंदूरतो बुधैः ॥ ७१ ॥ अर्थ -- ये तीनों प्रकार की मूढ़ताएँ अत्यन्त निद्य हैं अज्ञानी लोगों को ठगने वाली हैं धर्मको नाश करने वाली हैं और नरकादिक के दुःख देनेवालो हैं । इसलिये बुद्धिमानों को दूर से हो इनका त्याग कर देना चाहिये ।।७१ ॥ आठ मदों के नाम- महाजातिकुलैश्वर्यरूपज्ञानतपो वलाः । शिल्पित्वं दुर्भवा एतेष्टसव्यागुणान्वितैः ॥७२॥ अर्थ - उत्तम जाति, कुल, ऐश्वर्य, रूप, ज्ञान, तप, बल और शिल्पित्व इन आठों का मब करना दुर्मद है गुणी पुरुषों को इनका अवश्य त्याग कर देना चाहिये । ॥७२॥ उत्तन आणि कुल के मद के त्याग की प्ररणा हेतू पूर्वक-भिन्नभिन्नादिजातीनां स्त्रीणांचतिर्यग्योनिषु । भ्रमद्भर्यन्वयः पोलमध्यंदोरधिकं हि तत् ॥ ७३॥ तिग्मनुष्यनारी तुग्वियोगजशोकतः । अनन्तानयदश्यं तत्समुद्रांभ शोधिकम् ॥ ७४ ॥ इतिस्वमातृपितृच नोचोथ्यांत तिगान्भवे । शात्वादक्षैर्भवस्य ज्यः सज्जातिकुलयो स्त्रिया ॥ अर्थ -- तिर्येच योनि में परिभ्रमण करने वाली भिन्न-भिन्न जातियों की स्त्रियों का जो दूध पिया गया है उसका प्रमाण भी समस्त समुद्रों के जल से भी बहुत अधिक है । तिर्यंच और मनुष्यों की स्त्रियों को अनंत पर्यायों में अपने पुत्रके वियोग से उत्पन्न हुए शोक के कारण जो धांसू निकले हैं उनका प्रमारण भी समुद्रों के जलसे बहुत अधिक है । इसलिये बुद्धिमान पुरुषों को अपने माता-पिता के कुलको ऊंच नीचसे रहित समझ कर मन-वचन-कायसे उत्तम जाति और ऊत्तम कुल का अभिमान छोड़ देना चाहिये । ।।७३-७५।। ऐश्वर्य और रूप मदके त्याग की प्रेरणा हेतू पूर्वक - क्षणविध्वंसि विज्ञायैश्वचक्रयाविभूभृताम् । परिचोरादिभिः सार्द्ध हयोत्र वयंजोमदः ॥७६॥ रोगक्लेश विषास्त्रार्थ : स्वरूपं क्षणभंगुरम् । मत्वा न तत्कृतो गर्यो जातु कार्यों विचक्षणः ॥ ७७ ॥ अर्थ - इस संसार में चक्रवर्ती आदि महाराजाओं का ऐश्वयं भी क्षणभंगुर Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ] ( २५० ) [ पंचम अधिकार मकर हैं इसके सिवाय इस धनको चोर चुरा ले जाते हैं शत्रु हो जाते हैं। ऐश्वर्य से उत्पन्न हुए मदका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। यह सुन्दर रूप रोग क्लेश विष और शास्त्राविक के द्वारा क्षणभर में नष्ट हो जाता है । यही समझकर बुद्धिमानों को कभी भी अपने रूपका मद नहीं करना चाहिये ।।७६-७७ ।। ज्ञान, तप, बल, कलाओं के मद त्याग की प्रेरणा पूर्वाध संख्यां विविश्वाश्रीजिनागमे । किचिन्छ तपरिज्ञाय नादेयस्तन्मदः पचि ॥७८॥ जोग्यादिमहाघोरतपो विधीन्सुयोगिनाम् । प्राक्तनान भुवा ज्ञात्वा तव्यस्तत्कृतो मदः ॥ ७६ ॥ जिन क्रिमहर्षीणाम प्रमाणं महाबलम् । विदित्वा स्वबलस्यात्र न कार्यों बलिभिर्मदः ॥८०॥ शिल्पित्वं विविषं ज्ञात्वा विज्ञान लेखनाविजम् । जातुशिल्पम दोनाश्रविद्ये योज्ञान शालिभिः ॥८१॥ अर्थ - जैन शास्त्रों से ग्यारह अंग और चौवह पूर्वो की संख्या समझकर थोड़े से श्रुतज्ञान को पाकर उसका मद कभी नहीं करना चाहिये। पहले के मुनि उग्र-उम्र तप महा घोर तपश्चररण का मद भी प्रसन्नता पूर्वक छोड़ देना चाहिये । भगवान तीर्थकर परमदेव का बल भी बहुत अधिक है, चक्रवर्ती का बल भी बहुत है और महर्षियों का बल भी बहुत है, यही समझकर बलवान् पुरुषों को अपने अधिक बलका मद कभी नहीं करना चाहिये । इस संसार में विज्ञान और लेखन श्रादि की कलाऐं भी अनेक प्रकार की हैं उन सबको जानकर ज्ञानी पुरुषों को उन कलाओं का मद भी कभी नहीं करना चाहिये ।।७८-८१ ।। मद करने से हानि और कण्ठगत प्राण रहने पर भी मद नहीं करने का उपदेश - एतेष्ठमा frer frलकर्मकराभुवि । इन्धमंध्वंसकाहेयाः शत्रवोत्रेय पंडिलः ॥६२॥ मदाष्टकमिदं यत्र विधत्ते मूढषीयंतिः । तेनहत्यावृणादीन् सः मीचयोनोश्चिरंवेत् ॥८३॥ विज्ञायेति न कर्तव्योमदो आलु गुणान्वितैः । सज्आश्या विषु सर्वेषु सत्सु प्रारणात्ययेध्य हो ॥ ८४ ॥ अर्थ - ये प्राठों मद अत्यन्त निद्य है निद्यकर्म करनेवाले हैं और सम्यग्दर्शन रूपी धर्मको नाश करनेवाले शत्रु हैं । इसलिये विद्वान् लोगों को इन सबका त्याग कर देना चाहिये । जो अज्ञानी पुरुष इन आठों मदोंकी धारण करते हैं वे सम्यग्दर्शन आदि transो नष्ट कर चिरकाल तक नीच योनियों में परिभ्रमण करते रहते हैं । यही समटकर गुणी पुरुषों को कंठगत प्रारण होने पर भी जाति आदि का मद कभी नहीं करना चाहिये ||२८४ ।। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप] [पंचम अधिकार ६ अनायतन और उनके त्याग की प्रेरणामिथ्यासम्यक्त्वज्ञानकुचारित्राणिधियः । तवन्तस्श्रय एतानि निद्यानायतना निषट् ।।८।। श्वसंवसहननिविश्वपाषाकराशि च । त्याज्यानिदृष्टियाती नौमान्यनायतनानिषत् ।।६।। अर्थ-मिण्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र और इन तीनों को धारण करनेवाले अज्ञानी ये ग्रह निद्य अनायतन गिने जाते हैं । ये ग्रहों अनायतन नरक के कारण हैं समस्त पापों को करनेवाले हैं और सम्यग्दर्शनका घात करनेवाले हैं । इसलिये बुद्धिमानों को इनका त्याग अवश्य कर देना चाहिये ।।८५-८६॥ कादि दोष के त्याग की प्रेरणादष्टेःप्रागुक्तनिःशंकादिभ्यः शंकावयोऽशुभाः । विपरीता बुधज्ञेपा प्रष्टीदोषा मलप्रवाः ॥७ अर्थ- पहले सम्यग्दर्शन के जो निःशंकित प्रादि आठ अंग यतलाये हैं उनसे विपरीत शंका कांक्षा आदि आठ दोष कहलाते हैं ये दोष भी सम्यग्दर्शन में मलिनता उत्पन्न करनेवाले हैं इसलिये बुद्धिमानों को इनका भी सर्वथा त्याग कर देना चाहिये । ॥१५८७॥ २५ दोपों के त्यागने की पुनः प्रेरणा--- एतेवोषा त्रिशुद्धयापरिहर्तव्यायपन्तकाः । पंचविंशतिरात्मजै विशुद्ध कुमार्गदाः ।।८।। अर्थ--ये पच्चीसों दोष सम्यग्दर्शन को नाश करनेवाले हैं और कुमार्गको देने वाले हैं इसलिये प्रात्मा के स्वरूप को जाननेवाले विद्वानों को अपना सम्यग्दर्शन विशुद्ध रखने के लिये मन-वचन-कायसे इनका त्याग कर देना चाहिये ।। मलीन सम्यग्दर्शन मुक्ति का कारण नहीं-- मलिने दर्पणे यवत्प्रतिविम्ब न दृश्यते । सदोषेवर्शनेतद्वन्मुक्तिस्त्रीवदनाम्बुजम् ।।६।। मस्वेसि दर्शनं जातुस्वप्नेपि मलसनिषिम् । निर्मलमुक्तिसोपानं न नेतन्यं शिवाणिभिः ॥१०॥ अर्थ-जिसप्रकार मलिन दर्पण में अपना प्रतिबिंब दिखाई नहीं देता उसी प्रकार मलिन वा सदोष सम्यग्दर्शनमें मुक्तिस्त्री का मुखकमल दिखाई नहीं देता । यही समझकर मोक्षकी इच्छा करनेवाले पुरुषों को मोक्षका कारणभूत अपना निर्मल सम्यादर्शन स्वप्न में भी कभी मलिन नहीं करना चाहिये ॥६-६०॥ __निर्मल सम्यग्दर्शन की महिमाधन्यास्तएवसंसारे अव पूच्या सुरःस्तुताः । दृष्टिरत्नं न ये नीत कदाचिम्मलासनिधौ ||१|| Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप ] ( २५२ ) [ पंचम अधिकार तस्यैव सफलं जन्म म येहं कृतिनो भूवि । शशांक निर्मलं येन स्वोकृलं दर्शनं महत् ॥६२॥ अर्थ --- जिन लोगों ने अपना सम्यग्दर्शन रूपी रत्न कभी भी मलिन नहीं किया है वे ही मनुष्य इस संसार में धन्य हैं विद्वान लोग उनकी ही पूजा करते हैं और देव लोग उन्हीं की स्तुति करते हैं । जिस पुरुष ने चन्द्रमा के समान निर्मल सम्यग्दर्शन स्वीकार कर लिया है उसी महा पुण्यवान् का जन्म मैं सफल मानता हूं ।।६१-६२ ।। सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट को मोक्ष प्राप्ति असम्भव है यतश्चारित्रतो भ्रष्टाः केचित्सम्यक्त्वशालिनः । सिद्धयन्ति तपसा लोके स्वीकृत्य चरणं पुनः || ये भ्रष्टा दर्शनासे च भ्रष्टा एव जगत्त्रये । चारित्रेसत्यपि ज्ञानेमोक्षस्तेषां न जातुचित् । ६४ ॥ - इसका भी कारण यह है कि कितने ही सम्यग्दृष्टि ऐसे हैं जो चारित्र से भ्रष्ट हो जाते हैं परन्तु वे फिर भी चारित्र को धारण कर तपश्चरण के द्वारा सिद्ध हो जाते हैं परन्तु जो सम्यग्वर्शन से भ्रष्ट हो जाते हैं, वे चारित्र के होनेपर भी तथा ज्ञान के होने पर भी तीनों लोकों में कहीं भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते ।। ६३-६४।। सम्यग्दर्शन की महिमा दृष्टान्त पूर्वक यस्माच्च ज्ञानचारित्रे मिथ्यात्वविषथिते । भवतो न नर्बाचिरकाले परमेपि शिवाप्तये ||१५|| अतो विनात्र सम्यक्त्वं ज्ञानमज्ञानमेव भो । दुश्चारित्रं च चारित्रं कुतपः सकलं तपः ।। ६६ । धन्यवादुष्करं कायक्लेशमातपनाविकम् । कथ्यते निष्फलं सा तुषखंडन वज्जिनेः ॥ ६७ ॥ यथा बीजाद् ऋते जातु क्षेत्रे न प्रवरंफलम् 1 दर्शनेन बिना सहन चारित्रे शिवादि च ||१८|| अर्थ- इसका भी कारण यह है कि मिध्यात्वरूपी विषसे हृषित हुए ज्ञानको और चारित्र कितने ही उत्कृष्ट क्यों न हों फिर भी उनसे मोक्षकी प्राप्ति कभी नहीं सम्यग्दर्शन के ज्ञान अज्ञान है चारित्र इनके सिवाय जो अत्यन्त कठिन आतकेवल शरीर को क्लेश पहुंचाने वाले निष्फल है ऐसा भगवान जिनेन्द्रदेव के हो सकती । इसलिये कहना चाहिये कि बिना मिथ्या चारित्र है और समस्त तप कुतप है । पनादिक योग है वे भी सब बिना सम्यग्दर्शन हैं और चावल की भूसी को कूटने के समान सब ने कहा है । जिसप्रकार बिना बीज के किसी भी खेत में कभी भी उत्तम फल उत्पन्न नहीं हो सकते उसी प्रकार बिना सम्यग्दर्शन के केवल चारित्र से कभी भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती ।।६५-६६।। सम्यग्दर्शन का फल सम्यग्दर्शनसम्पन्नंमातंगमपि तसे । माविमुक्तिवकान्तं मेवा देवं वदन्त्यहो ||६ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( २५३ ) पंचम अधिकार सम्यग्दृप्रत्मकंठस्थो निर्षनोपि जगत्त्रये । उच्यते पुण्यवान् सद्भिः स्तुस्पः पूज्योमहाधनी ॥१६००॥ यतोत्रकभवेसौख्यं दुःखका कुरुलेधनम् । इहामुत्रच सम्यक्त्वं केवलंसुखपूजितम् ॥१६०१।। सम्यक्त्वेग समं वासो नरकेपियरंसताम् । सम्यक्त्वेन विनामनिवासोरायतेविवि ॥१६०२।। यतः स्वभ्राद्विनिर्गत्यक्षिपित्वाप्राक्तनाशुभम् । सम्यग्दर्शनमहारस्यासोर्थनायो भवेत्सुधीः ।।१६.३॥ सम्यक्त्वेन विनादेवा प्राध्यानं विवाय भोः। दिवाश्च्युस्वा प्रजायन्तेम्यावरेष्यत्रतत्फलात् ॥४॥ सम्यग्दृष्टिगंहस्थोपि कुर्वन्नारंभमंजसा । पूजनोयो भवेल्लोकेननाविपतिभिः स्तुतः ॥५॥ दृष्टिहीनोभवेत्साधुः कुर्वन्नपि तपोमहत् । दृष्टिशुद्ध सुरमत्यनिदनोथः पदेपरे ।।६।। नाहमिन्द्रतीर्थशालोमान्तिकमहात्मनाम् । बलादीनांपदान्यन्नमहान्ति वसुरालये ॥७॥ यानि तानि न लभ्यन्ते कुर्वद्भिः परमं लपः। मुनिभिश्वधिनावृष्टिं संयमानखिलेः परः ॥८॥ अर्थ-यदि चौडाल भी सम्यादर्शन से सुशोभित हो तो गणधरादिक देव उसको होनहार मुक्ति रूपी स्त्री का स्वामी और इसीलिपे देव कहते हैं । जिसके हृदय में सम्यग्दर्शन रूपी रत्न शोभायमान है वह यदि निर्धन हो तो भी सज्जन पुरुष उसको तीनों लोकों में पुण्यवान कहते हैं उसको पूज्य समझते हैं उसकी स्तुति करते हैं और उसको महाधनी समझते हैं । इसका भी कारण यह है कि धन इसी एक भव में सुख वा दुःख देता है परंतु सम्यग्दर्शन इस लोक और परलोक दोनों लोकोंमें सर्वोत्कृष्ट सुख देता है । सज्जन पुरुषों को इस सम्यग्दर्शन के साथ-साथ नरक में रहना भी अच्छा है परंतु सम्यग्दर्शन के बिना स्वर्ग में निवास करना भी सुशोभित नहीं होता। इसका भी कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि पुरुष नरक में से निकल कर तमा उस सम्यग्दर्शन के माहात्म्य से पहले के समस्त अशुभ कर्मों को नाशकर महा बुद्धिमान तोयंकर हो सकता है । परंतु बिना सम्यग्दर्शन वेव पासष्यान धारण कर लेते हैं और फिर मिथ्यात्व के माहात्म्य से स्वर्गसे पाकर स्थावरों में उत्पन्न होता है । सम्यग्दृष्टि पुरुष गृहस्थ होकर भी तथा प्रारंभ करता हुआ भी इन्द्र नरेन्द्र प्रादि सबके द्वारा पूजनीय होता है और सब उसकी स्तुति करते हैं । परंतु साधु होनेपर भी जो सम्यग्दर्शनसे रहित है बह घोर तपश्चरण करता हुआ भी शुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करनेवाले देव और मनुष्यों से पद-पद पर निदनीय माना जाता है । इन्द्र अहमित्र तीर्थकर लोकांतिक बलभद्र आदि के जो जो सर्वोत्कृष्ट पद हैं वे बिना सम्यग्वर्शन के परम तपश्चरण करते हए भी तथा समस्त संयमादिकों को धारण करने पर भी मुनियों को भी कभी प्राप्त नहीं होते। ॥१५९६-१६०८॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] [पंचम अधिकार सम्यग्दृष्टि के अशुभ संयोगों की प्राप्ति का प्रभावनारकृत्वं च तिर्यकाकुगतिमिदितंकुलम् । स्त्रीत्वं च विकलांगत्वक्सीवत्वं च कुजन्मताम् ।।६।। प्रल्पायुस्त्वंदरिद्रत्वंकासरत्यममात्यताम् धर्मार्थकामरत्वं शुभभाषाविधिच्युतिम् ॥१०॥ रोगित्वं बहुपापित्यदुःमित्वमूखताविकाम् । अन्नतिनोपिदृष्टयादया मलभन्नेत्र जातुचित् ॥११॥ अर्थ-जो पुरुष सम्यग्दर्शन से सुशोभित हैं वे चाहे अवती ही क्यों न हों तथापि घे नरक गति में, तिर्यंचगति में, कुगति में, निदित कुल में, स्त्री पर्याय में, नपुंसक पर्याय में उत्पन्न नहीं होते । वे विकल वा अंगभंग शरीर को भी धारण नहीं करते, उनका कुजन्म भी नहीं होता, वे अल्पायु भी नहीं पाते, वरिद्री भी नहीं होते, कातर भी नहीं होते, अमाननीय भी नहीं होते, धर्म अर्थ काम पुरुषार्थ से दूर भी नहीं रहते, शुभभावों से रहित भी नहीं होते, वे रोगी भी नहीं होते, अधिक पापी भी नहीं होते, दुःखी भी नहीं होते और मूर्ख भी नहीं होते । सम्यग्दृष्टि पुरुष इन अशुभ संयोगों को कभी प्राप्त नहीं होते ॥६-११॥ ___ सम्यग्दृष्टि के ज्योतिषी आदि निंद्य देवों में उत्पन्न होने का निषेध-- ज्योतिर्भावनभोमेनिवि किस्विषिकेषु च । प्रकीर्णकाभियोग्येषु होनेषुबाहनेषु च ॥१२॥ अन्गेनिधभोगेषुकुम्बायोगन्विताः । उत्पद्यन्ते कवाधिन्न व्रताविरहिता अपि ॥१३॥ अर्थ-सम्यग्दृष्टि पुरुष व्रत रहित हानेपर भी ज्योतिषी देवों में, भवनवासी देवों में, क्यंतर देवों में, वैमानिक देवों के किल्विषिक देवों में, प्रकोर्णक देवों में, प्राभियोग्य देवों में, वाहनादिक बनने वाले हीन देवों में उत्पन्न नहीं होते, जहांपर निदनीय मोगोपभोग की सामग्री मिलती है वहां कहीं भी उत्पन्न नहीं होते तथा कुभोग मूमि में भी उत्पन्न नहीं होते । सम्यग्दृष्टि इन स्थानों में कभी उत्पन्न नहीं होते ॥१२-१३।। सम्यग्दृष्टि को पूज्य पद की प्राप्तिकिन्तुस्वर्गप्रजायन्सेदगादचारक्युभोवयात् । इन्द्रा: पूज्याः प्रतीन्द्रारच लोकपालामाहतिकाः ।। लोकांतिकारवााः सामानिकायोमराः । विषषभोगोपभोगाड्या जिनधर्मप्रभावकाः ॥१५॥ भनुजस्वेपि तोशावला: बकेश्वरावयः । कामदेवा गणेशारद पूजिता नसुरासुरैः ।।१६।। प्रोजस्तेजःप्रतापाड्याः महाविद्यायोंकिता।। जिनभक्ताश्च जायन्ते चतुरार्थसाधकाः ।।१७॥ किमत्र बहुनोक्त नसम्यग्वृष्टिसतांस्यचित् । सुदेवनगती मुक्त्वान्यागतिविधते न भोः॥१५॥ अर्थ-कितु सम्यग्दृष्टि पुरुष सम्यग्दर्शन के प्रभाव से स्वर्गों में पूज्य इन्द्र होते हैं अहमिद्र होते हैं प्रतीन्द्र होते हैं बड़ी ऋद्धिको धारण करनेवाले लोकपाल होते Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २५५ ) [ पंचम अधिकार हैं, देवों के द्वारा पूज्य ऐसे लौकांतिक देव होते हैं अथवा समस्त भोगोपभोगोंकी सामग्री से सुशोभित और जैन धर्मको प्रभावना करनेवाले सामानिक जाति के देव होते हैं । यदि वे मनुष्य होते हैं तो तीर्थंकर बलभद्र चक्रवतों, कामदेव और गणधर होते हैं जो मनुष्य देव और विद्याधर आदि सबके द्वारा पूज्य होते हैं । सम्यग्वृष्टि पुरुष बड़े ओजस्वी, तेजस्वी और प्रतापी होते हैं, अनेक महा विद्याएं तथा महा यश से सुशोभित होते हैं। भगवान जिनेन्द्रदेव के भक्त होते हैं और चारों पुरुषार्थी को सिद्ध करनेवाले होते हैं। बहुत कहने से क्या लाभ है थोड़े से में इतना समझ लेना चाहिये कि समयदृष्टि सज्जन पुरुषों को श्रेष्ठ वेवगति और श्रेष्ठ मनुष्यगतिको छोड़कर प्रन्य कोई गति नहीं होती ।।१४ - १८ । सम्यग्दर्शन की उपसंहारादि विवरण इत्यादि प्रवरं ज्ञात्वा तम्माहात्म्यं सुखार्थिनः । सर्वयत्नेन कुर्योध्वंदृग्विशुद्धि जगत्सु ताम् ॥ १६॥ निखिलगुणनिधानमु किलोपानमाचं दुरिततरुकुठारं पुण्यतीर्थप्रधानम् । कुगतिगृहकपाटं धर्ममूलं सुखाविधं भजतपरम यत्नादर्शन पुण्यभाजः ॥ २० ॥ अर्थ -- इसप्रकार इस सम्यग्दर्शन का सर्वोत्कृष्ट माहात्म्य समझ कर सुख चाहने वाले पुरुषों को अपने समस्त प्रयत्नों के साथ-साथ तीनों लोकों में स्तुति करने योग्य ऐसी इस सम्यग्दर्शनकी विशुद्धताको धारण करना चाहिये। यह सम्यग्दर्शन समस्त गुणों का निधान है, मोक्षको प्रथम सीढ़ी है, पापरूपी वृक्षको काटने के लिये कुठार के समान है, पुण्य बढ़ाने के लिये तीर्थ है, सब में प्रधान है, कुगति रूपी घरको बन्द करने के लिये कपाट के समान है, धर्मका मूल है और सुखका समुद्र है । इसलिये पुण्यवान पुरुषों को परम यत्न से इस सम्यग्दर्शन को शुद्धता पूर्वक धारण करना चाहिये । ।।१६-२०। शुद्ध सम्यग्दर्शन प्राप्ति की भावना - विश्वाम्यमनन्तशर्मजनकस्वमक्ष मागंपरं विश्वानयहरंपरा शिवदं पापारिनाशंकरम् । सद्धर्मामुतसागरं निरुपमं श्रदर्शनं मेहृदि सिष्टत्वत्र शिवाप्तयेप्यनुदिनंसंकीर्तनसायिकम् ||२१|| तीशास्तीर्यभूता जिनवर वृषभाः क्षाविद विवाद्यरातीत सोधेस्त्रिभुवन महिता भूषिताः संस्तुताश्च । सिद्धाविश्वाप्रस्था हतभववपुषो ज्ञानदेहा अमूर्त: सर्वश्री साधवोमेपिवगुणयुतावृग्विशुद्धि प्रवयः ॥१६२२ ॥ - Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( २५६ ) - [पंचम अधिकार इति श्रीमूलाचारप्रकोपकाख्ये महानये भट्टारक श्रीसकसकीतिविरचिते पंचाचार यावर्णने ___ दर्शमाचारवर्णनो नामपंचमोषिकारः।। अर्थ-यह सम्यग्दर्शन तीनों लोकों में पूज्य है, अनंत सुख देनेवाला है, स्वर्ग मोक्षका सर्वोत्कृष्ट मार्ग है, समस्त अनर्थों को दूर करनेवाला है, मोलरूप परम पुरुषार्थ को बेनेवाला है, पापरूप शत्रुको नाश करनेवाला है, सद्धर्मरूपी अमृतका समुन्द्र है, और समस्त उपमाओं से रहित है । ऐसा यह ऊपर कहा हुमा क्षायिक सम्पग्दर्शन मोक्ष प्राप्त करने के लिये प्रतिदिन मेरे हृदय में विराजमान रहो । भगवान तीर्थकर परमवेव संसार भर में तीर्घभूत हैं, जिनवरों में भी श्रेष्ठ हैं, तथा क्षायिक सम्यग्दर्शन आदि तन्यस्वरूप अनंत गुणों को धारण करने के कारण तीनों लोकों में पूज्य हैं, सोनों लोकों में सुशोभित हैं और तीनों सोफ उनकी स्तुसि काहा है । इसी प्रकार भगवान सिद्ध परमेष्ठी समस्त लोकके ऊपर विराजमान हैं संसार तथा शरीर से रहित हैं ज्ञान ही उनका शरीर है और वे अमूर्त हैं। तथा प्राचार्य उपाध्याय साधुपरमेष्ठी सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन तीनों गुणों से सदा सुशोभित रहते हैं । इसप्रकार के ये पांघों परमेष्ठी मुझे शुद्ध' सम्यग्दर्शन प्रदान करें ॥१६२१-१६२२॥ इसप्रकार प्राचार्य श्री सकलकीति विरचित मूलाचार प्रदीप नामके महामन्थ में पंचाचार के वर्णन में दर्शनाचार को वर्णन करनेवाला यह पांचवां अधिकार समाप्त हुआ। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोधिकारः मंगलाचरण और ज्ञानाचार के कथन की प्रतिज्ञानानाचारफल प्राप्तानहत्सिद्धत्रियोगिनः । नस्वावक्ष्येष्टधा ज्ञानाचारं विश्वाप्रदीपकम् ।।१६२३॥ अर्थ--अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांच परमेष्ठी ज्ञानाचारके फलको प्राप्त हुए हैं इसलिये इनको नमस्कार कर समस्त लोक-अलोक को दिखलाने वाले आठ प्रकार के ज्ञानाचार का स्वरूप अब मैं कहता हूं ।।१६२३॥ ज्ञानाचार का स्वरूप और उसके भेदये नात्मानुष्यले तत्वं ममो येन निषध्यते । पापाद्विमुच्यतेयेनतमानं जामिनोविदुः ॥१६२४॥ येनरागाइयो दोषाःप्रणश्यन्तिद्रुतसताम् । संवेगाथा:प्रवर्द्धसगुणा ज्ञानंतमूजितम् ।।२।। येनाक्षविषमेन्योर विरण्यशिववस्मंनि । ज्ञानीप्रवर्ततेनित्यं तज्ज्ञानं जिनशासने ॥२६॥ कालाल्यो विनयाचार: उपधानसमाह्वयः । बहुमानाभिदोनिल्लवाचारोग्यंजनाह्वयः ॥२७॥ मर्थाचाराभिषानश्च तसस्तनुभयाभिषः । ज्ञानाचारस्यषिशेया मष्टोमेवा इमे जुषेः ॥२८॥ अर्थ-जिस जानसे प्रात्माका स्वरूप आन जाय, जिस जानसे मन कशमें हो जाय और जिस ज्ञानसे समस्त पाप छुट जाय उसीको ज्ञानी पुरुष ज्ञान कहते हैं। जिस जानसे सज्जनोंके रागाबिक दोष सब नष्ट हो जाय और संवेगादिक गुण वृद्धि को प्राप्त हो जाय उसको उत्तम ज्ञान कहते हैं। जिस ज्ञानसे ज्ञानी पुरुष इन्द्रियोंसे विरक्त होकर मोक्षमार्ग में लग जाता है जिनशासनमें उसी को ज्ञान कहते हैं । इस ज्ञानाचारके आठ भेद हैं-कालाचार, विनयाचार, उपधानाचार, बहुमानाचार, भनिन्हयाचार, व्यंजनाचार, अर्थाचार और उभयाचार । इसप्रकार विद्वान लोग ज्ञानाचार के आठ भेद बतलाते हैं ॥१६२४-२८॥ स्वाध्याय करने के अयोग्य काल - पूर्वाल स्यापरहस्यपूर्वपश्चिमयाममोः । रजन्यामध्यवेलायाः पूर्वपश्चिमभागयोः ॥२६॥ तथामध्याह्नकालस्य कालविघटिकाप्रमम् । प्रत्येकॅविधि सिद्धांतपासायोग्यमेव च ।।३०।। अर्थ-प्रातःकालके एक पहर पहले, सायंकाल के एक पहर बाद, आधी रात . के एक पहर पहले तथा एक पहर बाद और मध्याह्न काल की दो घड़ी ये सब काल Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाबार प्रदीप { २५८ ) [पेष्टम अधिकार सिद्धांत शास्त्र के पढ़ने के अयोग्य हैं ।।२९-३०॥ निर्दोष काल में स्वाध्याय करने की प्रेरणाएतान् सदोषकालाय त्यस्वास्वाध्यायजितः । आहा प्रागमाठाचा कार्याः कालेशुभेपरे । अर्थ-इन सदोष कालों को छोड़कर श्रेष्ठ स्वाध्याय करना चाहिये । तथा पागम का पाठ प्रावि भी शुभ काल में ही करना चाहिये ॥३१।।। । प्रारीना का मामी राषाढ़ादि माह की अपेक्षापूर्वाह्वत्र यदासप्तपादच्छाया भवेत्तवा । स्वाध्यायो हि गृहीतभ्योनिविकल्पेनचेतसा ।।३२।। पाषा द्विपदच्छायापुष्यमासे चतुष्पदा । यदावतिष्ठते शेषा निष्ठापनीय एव सः ।।३३।। तयोर्भासयोमध्ये कातः स्वाध्यायमोचने । प्रत्येक शेषमासानां वृद्धिहानियुतः स्फुटम् ॥३४॥ पावयोः षष्ठभागोत्र भवेत् ज्ञात्वेति योगिभिः । कर्तव्यो मुक्तये काले स्थाध्यायस्तस्यपूरितः ।। अपराल अमष्याल्लाद्विमुख्यघटिका इयम् । स्वाध्यायोहापराहाव्योप्राह्मोवःप्रयत्नतः ॥३६।। विनस्य पश्चिमे भागे सप्तपावप्रमाणका । पदावतिष्ठते छाया सदा मोक्तव्य एव सः । ३७॥ पूर्वरात्रः परित्यज्य किला घटिकाद्वयम् । गलन्तु यसरः पूर्वराविस्वाध्यायमंजसा ॥३॥ त्यक्त्वामध्याह्नराशेच काले विघटिकामितम् । स्वाध्यायोवविषयः पश्चिमरात्रिसमावयः ।।३।। माद्यमध्यासानाना प्रत्येकं विनरालयोः । त्यक्त्वाद्विघटिकाकालस्वाध्यायोयोग्यमंजसा ॥४०॥ पूर्वपश्चिमभागोत्थं शेषकालेषुसर्वदा । बुधा गुहन्तु मुचन्तुसिद्ध स्थाध्यायमूजितम् ॥४१॥ अर्थ-पूर्वाह्न के समय जब सात पर छाया हो जाय तब मुनियों को अपने सब विकल्प छोड़कर स्वाध्याय प्रारंभ करना चाहिये । आसाढ़ महीने में जब छाया दो पर रह जाय तथा पौष मास में जब छाया चार पर रह जाय तब मुनियोंको स्वाध्याय समाप्त कर देना चाहिये । यह प्राषाढ़ और पौष महीने में स्वाध्याय समाप्त करने का काल बतलाया। बाकी के महीनों में छाया की हानि वृद्धि के अनुसार स्वाध्याय को समाप्ति करनी चाहिये । प्रत्येक महीने में दो पर का छठवां भाग घटाना बढ़ाना चाहिये अर्थात् श्रावण में दो पैर और एक पैर का तीसरा भाग, भादों में वो पर और एक पर का दो भाग, आश्विन में तीन पर, कातिक में तीन पैर एक पैर का तीसरा भाग, मर्गासर में तीन पर एक पैर का दो भाग तथा पौष में चार पर छाया रह जाय तब स्वाध्याय समाप्त करना चाहिये । मोक्ष प्राप्त करने के लिये इसप्रकार योग्य समय में तत्वों से भरा हुमा स्वाध्याय करना चाहिये । (माघ में तीन पैर एक पैर का दो भाग, फाल्गुन में तीन पैर एक पैर का तीसरा भाग, चैस में तीन पैर, बैसाख में दो पर Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २५६ ) [ षष्ठम अधिकार और एक पर का यो तिहाई भाग, जेह में दो पर एक परका तीसरा भाग और आषाढ़ में दो पर छाया रहनेपर स्वाध्याय की समाप्ति का काल समझना चाहिये ।) मध्याह्न काल को दो घड़ी छोड़ चतुर पुरुषोंको प्रयत्न पूर्वक अपराह्न समय का स्वाध्याय स्वीकार करना चाहिये । दिन के पश्चिम भाग में जब छाया सात पर बाकी रह जाय तब स्वाध्याय समाप्त कर देना चाहिये । पूर्व रात्रि को दो घड़ी छोड़कर मुनियों को पूर्व रात्रि का स्वाध्याय स्वीकार करना चाहिये । तथा मध्य रात्रि की दो घड़ी छोड़ कर पिछली रात्रि का स्वाध्याय प्रारंभ करना चाहिये । दिन के आदि मध्य अंत में तथा राग्नि के आदि मध्य अंतमें दो-दो घड़ी छोड़कर स्वाध्याय करना चाहिये। दिनरात का पूर्व भाप और अंतिम भाग स्वाध्याय के अयोग्य काल है उसको छोड़कर बाकी के समय में बुद्धिमानों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये स्वाध्याय का प्रारंभ तथा समाप्ति करनी चाहिये ।।३२-४१॥ उल्कापातादि समय में सिद्धांत शास्त्र के स्वाध्याय का निषेधमग्निवण हि विग्दाहउल्कापातो नभोंगणान । विद्य दिन्द्रधनुःसंध्यापोतलोहितवर्णभा ॥४२॥ दुदिनोभ्रमसंयुक्तो ग्रहणं चन्द्रसूर्ययोः । कलहादिर्धराकंपो धूमाकारात्तमंवरम् ।।४३।। मेघगर्जनमित्याचादोषाविघ्नादिहेतवः । त्याज्याः सिद्धांतसूत्रे स्वाध्यायस्यपाठकादिभिः ॥४४॥ अर्थ-जिस समय अग्निवर्ण का विशाओं का दाह हो, आकाश से उल्कापात हो रहा हो, बिजली चमक रही हो, इन्द्रधनुष पड़ रहा हो, लाल पीले वरणं को संध्या हो, भ्रमपूर्ण दुदिन हो, सूर्य वा चन्द्रमा का ग्रहण हो, युद्ध का समय हो, भूकम्प हो रहा हो, प्राकाश में धएंके आकार का कुहरा फैला हो वा बादल गरज रहा हो ये सब दोष सिद्धांत सूत्रों के पढ़ने में विज्न के कारण हैं । इसलिये पाठकों को इन समयों में स्वाध्याय नहीं करना चाहिये ।।४२-४४।। काल शुद्धि पूर्वक स्वाध्याय करने का फलकालसिविषामां ये पठन्तिजिनागमम् । निजरा विपुला तेषां कर्मणाभानबोन्यश ॥५॥ अर्थ-जो मुनि इस काल शुद्धि को ध्यान में रखते हुए मिनागम का पठन. पाठन करते हैं उनके कर्मों की बहुत सी निर्जरा होती है । यदि वे अकाल में ही स्वा. ध्याय करते हैं तो उनके कर्मों का आरव ही होता है ।।४।। द्रव्य शुद्धि का स्वरूप, उसे रखने की प्रेरणा-- रुधिरं च वषादीन मांसपू विडावयः । इत्याधन्याशुचिटण्यारेहे स्वस्यपरस्म वा ॥४६॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( २६०) [ षष्ठम अधिकार वजनीयाः प्रयत्नेनपाठक व्याउये । स्वाध्यायस्यसमारंभेद्रव्यशुद्धिरियं मता ॥४॥ अर्थ---स्वाध्याय करने वालों को अपनी द्रव्य शुद्धि बनाये रखने के लिये अपने वा दूसरे के शरीर पर रुधिर, घाव, मांस पीव घिष्ठा आदि लगा हो वा ऐसे ही अन्य मशुद्ध द्रव्य लगे हों तो उनका प्रयत्न पूर्वक त्याग कर देना चाहिये तब स्वाध्याय का प्रारम्भ करना चाहिये । इसको द्रव्य शुद्धि कहते हैं ॥४६-४७।। क्षेत्र शुद्धि का स्वरूप, क्षेत्र शुद्धि पूर्वक स्वाध्याय की प्रेरणाचतुर्दिक्ष शुभक्षेत्रं चतुःशतकरप्रमम् । रक्ताक्तिरहितं पूर्त संशोध्यक्कियते बुधः ॥४८।। स्वाध्यायो योगपूवारणा नानायाशानहानये । कमेगा निजरामधा शुद्धिमंतान सा ॥४६॥ अर्थ-बुद्धिमान पुरुषों को अपने ज्ञानकी वृद्धि के लिये अज्ञान को दूर करने के लिये और कर्मों की निर्जरा करने के लिये अंग पूर्वो का स्वाध्याय करना चाहिये और उस समय चारों ओर का सौ-सौ हाथ क्षेत्र शुद्ध रखना चाहिये । सौ-सौ हाथ दूर तक के क्षेत्र में रक्त, मांस, हड्डी प्रादि अपवित्र पदार्थ नहीं रहने चाहिये । इसको क्षेत्र शुद्धि कहते हैं ।।४६-४६॥ भाव शुद्धि का स्वरूप और इस पूर्वक स्वाध्याय करने की प्रेरणाकोषमानाविकान्सर्वान् क्लेशेाशोकदुर्मदान । हास्यारति भयादोंश्च स्यक्त्वा प्रसन्नमानसम् ।। कस्वायोगहरतेवक्षः स्वाध्यायोजिनसूत्रनः । विशुनपासास्यविशेयाभावशुद्धिविशुद्धिवा ॥५१॥ ____ अर्थ-चतुर मुनि क्रोध, मान, माया, लोभ, क्लेश, ईर्ष्या, शोक, दुर्मद, हास्य, रति, अरति, भय प्रादि सबका त्यागकर तथा मनको प्रसन्न कर मन-वचन-काय की शद्धता पूर्वक जिनसूत्रों का स्वाध्याय करते हैं। इसको विशुद्धता उत्पन्न करनेवाली भाव शुद्धि कहते हैं ।।५०-५१॥ द्रव्यादिक शुद्धि पूर्वक स्वाध्याय का फलइतिसत्कालसाव्यक्षेत्रमावाभिप्तांपराम् । कृत्वा चतुविधां शुटिस्वाध्याये ये पठन्स्यहो । ५२।। पा पाठयन्ति सिद्धांततेषामाविर्भवेत्स्वयम् । अपाविभिगुण: सर्वेःसहाखिलं श्रुतंपरम् ।।५३।। अर्थ-जो मुनि श्रेष्ठ कालशुद्धि, श्रेष्ठ द्रव्यशुद्धि, श्रेष्ठ क्षेत्रशुद्धि और श्रेष्ठ भावशुद्धि को धारण कर अर्थात् चारों प्रकार की शुद्धि को धारण कर स्वाध्याय में सिद्धांतशास्त्रों का पठन-पाठन करते हैं उनको समस्त ऋद्धि आदि श्रेष्ठ गुणों के साथसाथ समस्त श्रुतज्ञान प्राप्त हो जाता है ।।५२-५३॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदोप] ( २६१ ) [पष्टम अधिकार स्वाध्याय काल में पढ़ने योग्य शास्त्रअंगपूर्वाणिवस्तूनिप्राभृतग्वीमि यानि च। भाषितानि गणापोरी:प्रत्येकशियोगिभिः ॥४४॥ श्रुतकेलिभिवितिः वशपूर्वधर वि। प्रप्रस्खलितसंवेगस्तानि सर्वाणि मोगिनाम् ।।५५ ।। उक्तस्वाध्यायवेलायां युज्यन्ते धायिकात्मनाम् । पठितु चोपदेष्टु च न स्वाध्यायं विमा क्वचित् ॥ ___ अर्थ-अंग, पूर्व, वस्तु तथा जो प्राभृत गणघरों के कहे हुए हैं प्रत्येक बुद्ध योगियों के कहे हुए हैं, श्रुत केलियों के कहे हुए हैं, दशपूर्वधारी विद्वानों के कहे हुए हैं अथवा जिनका संवेग कभी प्रस्खलित नहीं हुआ ऐसे योगियों के द्वारा कहे हुए हैं ये सब मुनियों को ऊपर लिखे हुए स्वाध्याय के समय में ही पढ़ने चाहिये तथा अन्य पार्य मुनियों को उनका उपदेश देना चाहिये। स्वाध्याय के बिना उनको अन्य किसी प्रकार से नहीं पड़ना चाहिये ।।५४-५६॥ अन्य काल में पढ़ने योग्य शास्त्रचतुराराधनाप्रथा मत्पुसाधनसूखकाः। पंचसंग्रहग्रंपाश्चप्रत्याख्यानस्तबोवाः ॥४७॥ षडावश्यकसंखषा महाधर्म कयाम्विलाः । शलाकापुरुषारांचानुप्रेक्षादिगुणभृताः ॥५८|| इस्याचा ये परे प्रयाश्चरित्रादय एव ते । सर्ववापठितु योग्या: सत्स्वाध्यायविनासतम् ॥ell अर्थ-मृत्यु के साधनों को सूचित करनेवाले चारों आराधनाओंके ग्रंथ, पंचसंग्रह (गोमट्टसार आदि) प्रत्याख्यान स्तुति के ग्रंथ, छहों आवश्यकों को कहने वाले ग्रंथ, महाधर्म की कथाओं को कहने वाले ग्रंथ, शलाका पुरुषों के ग्रंथ, अनुप्रेक्षादिक गुणों से परिपूर्ण ग्रंथ तथा चरित्र प्रादि जितने अन्य ग्रंथ हैं उनको सज्जन पुरुष स्वाध्याय के बिना अन्य काल में भी पढ़ सकते हैं ॥५७-५६॥ अंग और पूर्वादि शास्त्र का प्रारम्भ उपवासादि पूर्वक करना नाहियेअंगामा सर्वपूर्वाणा वस्तूना प्रामृतास्ममाम् । प्रारमेत्रसमाप्तौवंकसोहामुनमा पुरोः ॥६॥ उपवासो विधातम्यो व्युत्सर्गाः पंच वा दुषैः । प्रकालाविजदोषस्यविमुद्धचशिवाप्तये । ६१॥ अर्थ-ग्यारह अंग चौवह पूर्व वस्तु और प्राभृत शास्त्रों का स्वाध्याय प्रारंभ करने के समय तथा समाप्ति के समय गुरु को आज्ञासे एक-एक उपवास करना चाहिये अथवा बुद्धिमानों को पांच कायोत्सर्ग करना चाहिये । ये उपवास वा कायोत्सर्ग अकाल से उत्पशाहुए बोषों को शुद्ध करने के लिये तथा मोक्ष प्राप्त करने के लिये करने चाहिये ॥३०-६१॥ र Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( २६२ ) [ षष्ठम् अधिकार विनयाचार का स्वरूप - ___ सुपर्यकापर्यकवीरासनादिकान् बाहुन् । विधायहृदयेघृत्वाप्रतिलेख्य करद्वयम् ॥१२॥ मत्या सिद्धांतवाणि पउपन्त यत्र योगिभिः। सूत्रार्ययोगयुद्धथा स ज्ञानस्यविनयोमतः ॥६३॥ अर्थ-मुनि लोग जो पर्यकासन अर्द्धपर्यकासन बोरासन आदि में से कोई एक आसन लगा कर, हाथों को शुद्ध कर, सिद्धांत सूत्रों को ही नमस्कार कर तथा उन्हीं को हृदय में विराजमान मन-वचन-काय को शुद्धता पूर्वक जो सूत्र वा सूत्रके अर्थ को पढ़ते हैं उसको ज्ञानका विनय वा विनयाचार कहते हैं ।।६२-६३।। उपधान ज्ञानाचार का स्वरूपप्राचाम्लनिधिकृताध: पक्षानाधिरसोझनैः। विषायनियमं ग्रंथसमाप्त्यन्तं श्रतोसकः ।।६।। सिद्धाम्स पठ्यते पनागहरण स्वार्थसिसये । प्राधार उपधानाख्यः स ज्ञानस्यस्मतोमहान् ।।६।। अर्थ-शानी हत्या इसमाले पुनि भकी समाप्ति तक केवल भात मिला माड़ खाने का निर्विकृति ( विकार रहित पोष्टिक रहित ) माहार ग्रहण करने का वा पकवान रसको त्याग करने का जो नियम लेते हैं और ऐसा नियम लेकर अपनी प्रास्माका कल्याण करने के लिये प्राग्रह पूर्वक जो सिद्धांतोंका पठन-पाठन करते हैं उसको शानका उपधाम नामका प्राचार कहते हैं ॥६४-६५।। बहुमान नामक ज्ञानाचार का स्वरूपअंगपूर्षभुताशीनां सूनाय च यपास्थितम् । तथवादोच्चरन् वाण्या यो म्येषाप्रतिपादयेत् ॥६॥ कर्मक्षयाय कुर्याधसूरिश्रुतादियोगिनाम् । मविपरिभवं गढहुमान लभेत सः ।।६७।। ___अर्थ-~अंग पूर्व और अन्य शास्त्रों सूत्र अर्थ जैसा है उसीप्रकार जो वाणी से उच्चारण करते हैं उसीप्रकार दूसरों के लिये प्रतिपादन करते हैं। यह सब पठन-पाठन केवल कर्मों के क्षय के लिये करते हैं तथा अभिमान से आचार्य शास्त्र वा किसी योगी का कभी तिरस्कार नहीं करते उसको बहुमान मामका ज्ञानाचार कहते हैं ॥६६-६७।। अनिह्नवाचार का स्वरूपसामान्यारि पतिभ्योपि पठित्वा भुतमूजितम् । महषिम्योमयापीतं मानिभिनिगद्यते ॥६८।। प्रवीत्य प्रदरं गास्त्रं पार निग्रंषयोगिमाम् । कुलिगिनिकटेऽभीतमुख्यते य ममभिः ।।६।। नापीतं न रचुतं अपि नेत्यादि पूयते च यत् । पठितस्यापिशास्त्रस्य सर्व निहनं हि तत् ॥७॥ इमं मिलनदोष व त्यक्त्वाचार्यादियोगिनाम् । गुरुपाठकशास्त्रागांश्रुतस्य पठितस्य मा ७१| Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( २६३ ) [षष्ठम अधिकार गुणप्रकाशनं लोकेल्यातिश्च यतेतराम् । मुमुक्षुभिः स सर्वोप्यनितषाचार उच्यते ।।७२।। अर्थ-कोई अभिमानी पुरुष किसी उत्तम शास्त्र को किसी सामान्य मुनि से पढ़कर यह कहे कि मैंने तो यह शास्त्र अमुक महा ऋषिसे पढ़ा है। अथवा किसी उत्तम शास्त्र को किसी निग्रंथ मुनि के समीप पढ़कर यह कहे कि मैंने तो यह शास्त्र अमुक मिथ्या साधु से, कुलिंगी से पढ़ा है । अश्वा पढ़े हुये शास्त्रके लिये भी यह कहे कि मैंने यह शास्त्र नहीं पड़ा है अथवा नहीं सुना है अथवा मैं इसको नहीं जानता इसप्रकार जो मूर्ख लोग कहते हैं उसको निह्नव कहते हैं । इस निलय दोषका त्याग कर आचार्य आदि योगियों की, गुरु की, उपाध्याय की, शास्त्रों की और सुनने था पड़नेको प्रसिद्धि करना लोक में प्राचार्य गुरु उपाध्याय आदि के गुण प्रकाशित करना मोक्ष की इच्छा करनेवाले मुनियों के अनिनवाचार कहलाता है ।।६८-७२।। व्यंजनाधार, अर्थाचार और उभयाचार का स्वरूपप्रक्षरस्वरमात्राय यस्छुछ पठ्यतेभतम् । वक्षगुरूपदेशेन व्यंजनाचार एव सः ॥७३॥ पर्थेनान्न विशुख यत्सदालंकृतश्रुतम् । पठ्यते पाठयतेऽन्येषांसोर्थाचारः श्रुतस्य ।।७४। अर्धाक्षरपिशुद्ध यदधीयतेजिनागमम् । विविस्तबुभयाचारो मानस्य कथ्यतेमहान् ।।७।। अर्थ-चतुर पुरुष गुरु के उपदेशके अनुसार जो अक्षर स्वर मात्राओं का शुद्ध उच्चारण करते हैं उसको व्यंजनाचार कहते हैं । अर्थ से अत्यंत सुशोभित शास्त्रों का शुद्ध अर्थ पढ़ना और शुद्ध ही अर्थ पढ़ाना ज्ञान का अर्थाचार कहलाता है। नो जिना. गमको शब्द अर्थ दोनों से विशुद्ध अध्ययन करता है उसको विद्वान् लोग ज्ञानका महान उभयाचार कहते हैं ।।७३-७५।। विनयादि पूर्वक स्वाध्याय का फलएभिरष्टविधाचाररषोतं यजिनागमम् । तविहवाखिलं ज्ञानं जनयेद्वाशु केवलम् ।।७।। विनयाचं रपीतं यत्प्रमादाद्विस्मृतंश्रुतम् । तथामुत्र च तदशानं सूते च केवलोक्यम् ।।७७॥ कानमष्टविधाधारैः पठितंयमिनास्फुटम् । अनन्तकमहाम्यस्यात् कर्मबंधाय चान्यमा ७८|| विज्ञायेति विदो ज्ञान कालेन्द्रविनयादिभिः । पठन्तु योगशुस्था वा पाटयम्तुततांचिये ॥७ अर्थ- इसप्रकार पाठ प्रकार के ज्ञानाचारों के साथ-साथ जो जिनागम का अध्ययन किया जाता है उससे इसी लोकमें पूर्ण ज्ञान प्रगट हो जाता है तथा उसे शीघ्र ही केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। जो जिनागम विनयादिक के साथ अध्ययन किया गया है तथा प्रमाव के कारण वह मूला जा चुका है तो भी उसके प्रभाव से परलोकमें Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( २६४ } [पाठम अधिकार उसको केवलज्ञान प्रगट हो जाता है । इन आठ प्रकार के प्राचारों के साथ पढ़ा हुआ ज्ञान मुनियों के अनंत कोको नाश कर देता है यदि यही ज्ञान आठों प्रकार के आचारों के साथ न पढ़ा हो तो फिर उससे कर्मों का बंध ही होता है। यही समझकर विद्वान् पुरुषों को योग्य काल में विनयादिक के साथ मन-वचन-काय को शुद्ध कर ज्ञान का अभ्यास करना चाहिये तथा आत्म ज्ञान प्राप्त करने के लिये इसी प्रकार दूसरों को पढ़ाना चाहिये ॥७६-७६॥ ज्ञानाचार की महिमाज्ञानेन निर्मला कीति भ्रमस्येव जगत्त्रये । ज्ञानेन त्रिजगन्मान्य ज्ञानेमातिवियेकता ॥८॥ मानेन केवलज्ञान ज्ञानेनपूण्यतापवम् । शानेम त्रिजगल्लक्ष्मी जिनसक्रादिसत्पवम् ॥८॥ झानेनवप्रभुत्वं च ज्ञानेन सकसा कला। जायते शानिना भूनं विज्ञामादिगुणोत्करः ॥२॥ ज्ञानेन ज्ञानिनां सर्वेशमाधा: परमाः गुणाः । प्राश्रयस्तिक्षयाम्ति दोषाः क्रोधमदावयः ।।३।। सज्ञान खलाबद्धो मनोदन्ती भ्रमन् सका। दुर्घरोविषयारण्ये परामायाति मोगिनाम् ॥४॥ जानपाशेन बद्धाः स्युः पंचेन्द्रियकुतस्कराः। क्षमा न विकियां कर्तुं धर्मरत्नापहारिणः ।।५॥ भवनाग्निमहाज्वाला जमहाविधायनो । सिक्ता ज्ञानाम्धुना नूनं पुंसांशाम्यतितरक्षरणम् ।।६।। शामेन ज्ञायते विश्व हस्तरेखेव निस्तुषम् । लोकालोकं सुतस्वं च परतत्त्वं किलाखिलम् ॥७॥ हेयोपादेयसारिणहिताहिताश्च वोषला । कृतनधर्मविचारादीन् ज्ञानीवेसि नद्यापरः ||८|| विश्वोत्रसमर्थः स्यात्तरितु च भवाम्बुधिम् । परोस्तारयितु जानी ज्ञानोपेतेन नापरः || वीतरागस्त्रिगुप्तात्मान्तमुहर्तन कर्मयत् । क्षिपेशानी न त चाजस्तपसा भवकोटिभिः ॥१०॥ पतोझो कुकरं घोरं तपः कुर्वन्नपि क्वचित् । प्रालयाधपरिमानान्मुच्यते कर्मणा नहि ।।६१| हेयादेयं विधारं च तत्त्वातस्पंशुभाशुभम् । सारासारालवावोनि हाज्ञानी जातुयेति न ॥२॥ अर्थ- इस ज्ञानसे मनुष्य की निर्मल कीर्ति तीनों लोकों में फैल जाती है इस जानसे ही तीनों लोकों में मान्यता बढ़ जाती है और ज्ञानसे ही उत्कृष्ट विवेक शीलता आ जाती है । ज्ञानसे ही केवलज्ञान प्रगट हो जाता है, ज्ञानसे ही पूज्यताके पद प्राप्त होते हैं, ज्ञानसे ही तीनों लोकों को लक्ष्मी प्राप्त होती है और ज्ञानसे ही तीर्थकर और इन्द्र आदि के श्रेष्ठ पत्र प्राप्त होते हैं । ज्ञानसे ही प्रभुत्व प्राप्त होता है, ज्ञानसे हो मस्त कलाएं प्राप्त होती हैं तथा ज्ञानी पुरुषों के ही विज्ञान आदि गुणों के समूह प्रगट होते हैं । इस ज्ञानसे ही ज्ञानी पुरुषों को उपशम प्रादि समस्त परम गुण अपने आप प्रा जाते हैं तथा ज्ञानसे ही क्रोध मद श्रादिक दोष सब नष्ट हो जाते हैं । अत्यंत दुर्धर ऐसा यह मन रूपी हाथी विषयरूपी बनमें सदा परिभ्रमण किया करता है पवि उसको Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( २६५) [पष्ठम अधिकार ज्ञानरूपी सांकल से बांध लिया जाय तो फिर वह उन योगियों के वश में अवश्य हो जाता है । धर्मरूपी रस्नको अपहरण करनेवाले ये पंचेन्द्रियरूपी दुष्ट छोर जब ज्ञान के पाश में (जाल में) बंध जाते हैं तब फिर धे किसी प्रकार का विकार करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं ! यह कामदेव रूपी महा ज्याला संसार भरमें वाह उत्पन्न करनेवाली है यदि इसको ज्ञानरूपी जलसे बुझा की जाय तो फिर वह मनुष्योंको भवनज्वाला उसी समय शांत हो जाती है । इस ज्ञानके ही द्वारा यह तीनों लोक हाथकी रेखा के समान स्पष्ट दिखाई पड़ता है तथा ज्ञानसे ही लोक, अलोक अपने तत्त्व और समस्त दूसरों के तस्य जाने जाते हैं । हेयोपादेय रूप समस्त तत्त्वों को, हित-अहित को और समस्त धर्म के विचारों को ज्ञानी पुरुष ही अपने ज्ञानसे जानता है, दूसरा कोई नहीं जान सकता। समस्त तत्त्वों को जाननेवाला सर्वज्ञ ही संसाररूपी समुद्र से पार होने के लिये समर्थ हो सकता है तथा ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञानरूपी जहाज के द्वारा अन्य पुरुषों को भी संसार समुद्र से पार कर सकता है । ज्ञानी पुरुषों के सिवाय अन्य कोई भी संसार से पार नहीं कर सकता । तोनों गुप्तियों को पालन करनेवाला वीतराग झानी अंतमुहर्त में जितने कर्मों को माश कर सकता है उत्तने कर्मों को अज्ञानी पुरुष करोड़ों भव के तपश्चरण से भी नहीं कर सकता। इसका भी कारण यह है कि अज्ञानी पुरुष घोर दुष्कर तपश्चरण करता हुआ भी आस्रवादि के स्वरूप को न जानने के कारण कभी कर्मों से मुक्त नहीं हो सकता । असानी पुरुष हेय उपादेय को, विचार प्रविचार को, तत्त्व प्रतत्त्व को, शुभ अशुभ को, सार असार को और आस्त्रवादि को कभी नहीं जान. सकता ।।८०-१२॥ ज्ञानाभ्यास की प्रेरणामत्वेति कृत्स्नयत्नेनप्रत्यहं श्रोजिनागमम् 1 अधीध्वं मुक्तयेदक्षाविश्वविमामहेतवे ॥३॥ शानाभ्यासं विनाजातु न नेतम्या हिताधिभिः । एका कालकलालोके प्रमावेनमिवाप्तये ॥६॥ अर्थ-यही समझकर चतुर पुरुषों को पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिये तथा मोक्ष प्राप्त करने के लिये प्रतिदिन पूर्ण प्रयत्न के साथ श्री जिनेन्द्र देव के कहे हए आगम का अभ्यास करते रहना चाहिये। अपने प्रात्मा का हित करने वालों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये इस संसार में ज्ञान के मभ्यास के बिना प्रमाव से भी कभी समय को एक घड़ी भी कभी नहीं होनी चाहिये ।।६३-६४ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २६६ ) श्रुतज्ञान की महिमा -- प्रतिगुणसमुद्रं चित्तमातंगसिहं विषयसफर जालं मुक्तिमार्गेकदीपम् । कमिधानं ज्ञानविज्ञानमूलं श्रुतनिखिलमदोषं घोषनाः संपठन्तु ॥६५॥ ज्ञानाधारमिमं सम्यगाध्याय ज्ञानशालिनाम् । त्रयोदशविधं वक्ष्ये चारित्राचारसूजितम् ॥६६ [ षष्ठम अधिकार अर्थ - यह ज्ञान समस्त गुणों का समुद्र है, मनरूपी हाथी को वश करने के लिये सिंह के समान है, विषयरूपी मछलियों के लिये जाल है, मोक्षमार्गको दिखलाने वाला दीपक है, समस्त सुखों का विधान है और ज्ञान विज्ञान का मूल है, इसलिये बुद्धिमानों को ऐसे इस समस्त श्रुतज्ञान का पठन-पाठन निर्दोष रीति से करते रहना चाहिये । इसप्रकार ज्ञानियों के ज्ञानाचार का निरूपण अच्छी तरह किया । अब आगे तेरह प्रकार के उत्कृष्ट चारित्राचार का वर्णन करते हैं ।।६५-६६ ।। चारित्राचार के कथन की प्रतिज्ञा महावतानि पंचैव तथा समितयः शुभाः । पंचत्रिगुप्तयमेवाश्चारित्रस्य त्रयोदश ॥ ६७ ॥ अर्थ - पांच महाव्रत, पांच शुभ समिति और तीन गुप्ति ये तेरह चारित्र के भेद हैं ॥९७॥ चरित्राचार के भेद और महाव्रतों का स्वरूप -- सर्वस्मात्प्राणिधाताच्चमुषावादाच्च सर्वथा । प्रवत्तादानतो नित्यं मैथुनादिपरिग्रहात् ||१८|| सामरस्येन निवृतिर्या त्रिशुद्धपात्रकृताविभिः । महान्ति तानि कम्यन्ते महाव्रतानि पंच व ६६ प्रमोष लक्षणं पूर्व प्रोक्त' मूलगुणोऽबुना । सप्रपंच न वक्ष्यामि प्रथविस्तार भीतितः ।। १७०० । अर्थ – मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक कृत कारित अनुमोदना से पूर्ण रूप से समस्त हिंसा का त्याग कर देना, सर्वथा असत्य भाषण का त्याग कर देना, सर्वथा चोरों का त्याग कर देना, सदा के लिये ब्रह्म का मैथुन सेवन का त्याग कर देना और समस्त परिग्रहों का त्याग कर देना महाव्रत कहलाता है। ये पांचों व्रत सर्वोत्कृष्ट हैं इसलिये इनको महावत कहते हैं । इन सबका लक्षण विस्तार के साथ पहले मूलगुणों के वर्णन में कह चुके हैं श्रतएव ग्रन्थ के विस्तार के भय से यहां नहीं कहते हैं । ।।६८-१७००।। रात्रि भोजन त्याग और भ्रष्ट प्रवचन मातृका पालन करने की प्रेरणामहाव्रतविशुद्धये स्याम्यं रात्र व भोजनम् । सेव्याः प्रवचनाच्याष्टमातशे यतिभिः सदा ।। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २६७ ) [ षष्ठम अधिकार अर्थ- इन महावतों की विशुद्धि के लिये रात्रि भोजन का त्याग कर देना चाहिये तथा मुनियों को आठ प्रवचन मातृका का पालन करना चाहिये । (तीन गुप्ति और पांच समितियों का पालन करना अष्ट प्रवचन मातृका कहलाती है) ॥१७०१॥ रायि चर्या के दोषरात्रिर्याटनेनैव सर्ववतपरिक्षयः । शीलभंगोपवावरच जायते यामिना वृत्तम् ॥११७०२।। रात्रिभिक्षाप्रविष्टानां चौरश्चारक्षकादिभिः । नाशः स्यान्महतीशंकासवंत्र व व्रताधिषु ।।१७०३।। अर्थ-मुनियों को रात्रि में चर्या करने से समस्त व्रतों का नाश हो जाता है, शील का भंग हो जाता है और सर्वत्र अपवाद वा निदा फैल जाती है । भिक्षाके लिये रात्रि में जाने से चोर डाफू आदि के द्वारा नाश होने का डर रहता है तथा व्रताविकों में सर्वत्र महा शंका बनी रहती हैं ।।१७०२-१७०३।। अयोग्य काल में प्राहार की बाञ्छा का निषेधविवित्वेति गते योग्यकाले जातु न भोजनम् । चिन्तनीय हवादी षष्ठाणुव्रतसिखये ।।१७०४। अर्थ-यही समझकर चतुर मुनियों को छठे रात्रिभोजन त्याग व्रत की रक्षा करने के लिये हृदयसे भी कभी अयोग्य कालमें आहार की वाँच्छा नहीं करनी चाहिये। ।।१७०४॥ समिति के भेदईभाषेषरणावान निक्षेपणसमाह्वया। उत्सत्यात्रपंचेमाः शुभाः समितयोमलाः ॥५।। मासासम्यक्पुराख्या लक्षणं विस्तरेण च । इतो वे न शिष्याणप्रियगौरववाड्यात् ।।६।। मर्थ-ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, प्रादान निक्षेपण समिति और उत्सर्ग समिति ये पनि शुभ समिति कहलाती हैं। शिष्यों के लिये विस्तारके साथ इनका वर्णन पहले अच्छी तरह कह चुके हैं । इसलिये अब ग्रन्थ के विस्तार के भय से यहां नहीं कहते हैं ॥५-६॥ गुप्ति के भेद और मनोगुप्ति का स्वरूपमनोगुप्तिश्च वाग्गुप्तिः कायगुप्तिरिमाः पराः । तिस्त्रोत्रगुप्तयोशेयाः सर्वानवनिरोधिकाः ॥७॥ पंचाक्षाविषयार्थेभ्यः समस्तबाह्यबस्तुषु । संकल्पेभ्यो विकल्पेभ्यः कषायाविभ्य एव च ॥८॥ गच्छन्मनोनिरुध्याशु ध्यानाध्ययनकर्मसु । परिस्परं क्रियते लीनं सा मनोगुप्तिरजाता॥ अर्थमनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति ये तीन गुप्तियां कहलाती हैं ये Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मूलाचार प्रदीप ] ( २६८) [ षष्ठम अधिकार तीनों गुप्तियां समस्त आस्रवों को रोकने वाली हैं । यह मन पांचों इन्द्रियों के विषयों में गमन करता है। समस्त बाह्य पदार्थोके संकल्प विकल्पोंमें गमन करता है और समस्त कषायों में गमन करता है । अतएब इस मन को इन सबसे रोक कर शीघ्र ही ध्यान अध्ययन आदि क्रियाओं में स्थिर कर देना सर्वोत्तम मनोगुप्ति कहलाती है ॥७-६॥ ___मनोगुप्ति के पालने हेतु अशुभध्यान के त्याग की प्ररणामनोगुप्तौप्रयत्नेन प्रणिधानं कुकर्मदम् । अप्रशस्तं व्रतं त्याज्यं ग्राह्य प्रशस्तमंजसा ॥१०॥ अर्थ-इस मनोगुप्ति को पालन करने के लिये पाप कर्मों को उत्पन्न करने बाले समस्त प्रभुम व्यानों का स्वाग कर देना चाहिये और शुभ ध्यान धारण करना चाहिये ॥१०॥ इन्द्रिय प्रणिधान और नो इन्द्रिय प्रणिधान का स्वरूप-- इन्द्रियप्रणिधानं च पंचाक्षविषयोद्भवम् । नोइनियाभिधं लान्यप्रशस्तमितिद्विधा ।।११।। अर्थ-पांचों इन्द्रियों के विषयों से उत्पन्न होनेवाला ध्यान इन्द्रिय प्रणिधान कहलाता है और नोइन्द्रिय वा मनसे उत्पन्न होनेवाला अशुभध्यान नोइन्द्रिय प्रणिधान कहलाता है । इसप्रकार प्रणिधान के दो भेद हैं ।।११॥ अप्रशस्त इन्द्रिय प्रणिधान का स्वरूपशम्चे रूपे रसे गंधै स्पर्शे सारे मनोहरे । मनोज्ञे वामनोज्ञे च सुखदुःखविधायिनि ॥१२॥ रागवषाक्षमोहाचं गमनंधितनावि यत् । इन्मियप्रणिधानंतप्रशस्तं व पंचबा ॥१३॥ अर्थ-स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द ये पांचों इन्द्रियों के पांच विषय हैं ये पांचों विषय मनोज्ञ भी हैं और अमनोज भी हैं तथा सुख वेनेवाले भी हैं और दुःख देने वाले भी हैं । इन मनोहर और सारभूत दिखने वाले विषयों में रागद्वेष इन्द्रियों की पटता और मोहायिक के कारण इन्द्रियों का प्राप्त होना वा इन विषयों में गमन करने के लिये इन्द्रियों को लंपटता होना अप्रशस्त इन्द्रिय प्रणिधान कहलाता है। ॥१२-१३॥ अप्रशस्त नोइन्द्रिय प्रणिधान का स्वरूपक्रोमानेखिलेमायालोमेन करेऽशुमे । रागढषाविभावश्चमनोव्यापार एव यः ।।१४।। पुरोरकोषवा निचोषिश्वासातनिबन्धनः । प्रणिधानाप्रशस्तंतनोइम्नियाभिषमतम् ॥१५।। अर्थ-अनेक प्रकार के अनर्थ करनेवाले और अशुभ क्रोध मान माया लोभमें Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप] ( २६६ ) [ षष्ठम अधिकार रागद्वषमय परिणामों से मनका व्यापार होना नोइन्द्रिय प्रणिधान कहलाता है। यह नोइन्द्रिय प्रणिधान भी अप्रशस्त है, क्रूर है, निन्छ है, समस्त दुःखों का कारण है और त्याज्य है ॥१४-१५॥ अप्रशस्त प्रणिधान के त्याग की प्रेरणाप्रणिधानाप्रशस्तस्यैते भेवा बहवो परे । परब्रव्यममत्वाविजास्स्याज्यागुप्तिवारिभिः॥१६ अर्थ-इस अप्रशस्त प्रणिधान के अनेक भेद हैं और वे परद्रव्यों में ममत्व करने से उत्पन्न होते हैं । इसलिये गुप्ति पालन करनेवालों को इनका त्याग अवश्य कर देना चाहिये ॥१६॥ प्रशस्त मनःप्रणिधान का स्वरूप-- वतगुप्तिसमित्यादिशीलानां रक्षणादिषु । दशलक्षणिक धर्म ध्याने च परमेष्ठिनाम् ।।१७।। स्वास्मनः श्रुतपाठार्थे यन्मन प्रापणं सदा। प्रणिधान प्रशस्तं तत्कायं यस्मात्मनोऽन्तः ॥१८॥ अर्थ-व्रत, गुप्ति और समितियों को रक्षा करने में, शीलों की रक्षा करने में, दशलाक्षणिक धर्म में, परमेष्ठियों के ध्यान में, अपने आत्मा के शुद्ध ध्यान में और शास्त्रों के पठन-पाठन में जो मनको लगाता है उसको प्रशस्त मनःप्रणिधान कहते हैं। मनको वश में करनेवाले मुनियों को यत्नपूर्वक प्रशस्त मनःप्रणिधान धारण करना चाहिये ॥१७-१८॥ प्रशस्त प्रणिधान मनोगुप्ति को पूर्णता का कारणनिविविकल्पं मनः कृत्वानिदेश्यते यथा यथा । परमात्माविधे सत्त्वे चिदानन्दमये पवा ॥१६॥ सिद्धाहयोगिनां ध्याने वागमामृतसागरे । तत्वरत्नाकरे पूर्णा मनोगुप्तिस्तथा तथा ॥२०॥ ___ अर्थ-मुनिराज अपने मनके समस्त विकल्पों को हटा कर चिदानंदमय परमात्म तत्व में अथवा अरहंत सिद्ध वा आचार्यों के ध्यान में प्रथवा रत्नों से परिपूर्ण ऐसे प्रागमरूपी अमृत के समुद्र में अपने मनको जैसे-जैसे लगाते हैं वैसे ही वैसे उनकी मनोगुप्ति पूर्णता को प्राप्त होती जाती है ।।१६-२०।। मनोगुप्ति पालन का फलसम्पूर्ण सम्मनोगुप्तिर्यस्यासीद्धिमलास्मनः। व्रतगुप्तिसमित्याद्यास्तस्य पूर्ण भवन्यहो ॥२१॥ ___ यतो येन मनोई संवेगावगुणोत्करः । तेन कर्माखवः इस्नोरुद्धः कृतावसंवर ॥२२॥ तस्मारकर्माणवाभावाज्जायन्तेनिमलागुणाः । सर्वेक्तसमित्यायाः सम्पूर्णाश्च क्षमादयः ॥२३॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मूलाचार प्रदीप ] ( २७०) [ षष्ठम अधिकार अर्थ-निर्मल आस्माको धारण करनेवाले जिस मुनि को मनोगुप्ति पूर्ण हो जातो है उन्होंके महाव्रत गुप्ति समिति आदि सब पूर्ण हुए समझना चाहिये । जो मुनि संवेग प्रादि गुणों के समूह से अपने मनको रोक लेते हैं वे अपने समस्त कर्मोके आलव को रोक लेते हैं तथा एर्ग संवर को धारण करते हैं । आस्रव के रुकने और संवर के होने से व्रत समिति आदि समस्त निर्मल गुण प्रगट हो जाते हैं तथा उत्तम क्षमादिक भी समस्त गुण प्रगट हो जाते हैं ।।२१.२३॥ ___ मनोगुप्ति पालन करने की प्रेरणाविझायेति मनोगुप्तिस्तात्पर्यणसुखाकरा । विधेया सर्वदा वक्षः समस्तवतसिद्धये ॥२४॥ बाह्यार्थतोनिरोप्दु योऽसमयचंधलं मनः । कुतस्तस्यापरे गप्ती कथ शुद्धावतादयः ॥२५॥ यतः कमप्रसूतेत्र बचः काय द्वयं क्वचित् । सर्वदा चंचसं चित्तं घोरं श्वापदं नणाम् ।।२६।। __ अर्थ-प्रतएव चतुर पुरुषों को अपने समस्त व्रतों का पालन करने के लिये पूर्णरूप से सुख देनेवाली इस मनोगुप्ति का पालन सर्वथा करते रहना चाहिये । जो मुनि अपने चंचल मनको बाह्य पदार्थों से नहीं रोक सकता उसके अन्य गुप्तियां भी कैसे हो सकती हैं तथा व्रत भी शुद्ध फंसे रह सकते हैं अर्थात् कभी नहीं । क्योंकि बचन और काय से तो कभी कभी कर्म आते हैं परन्तु मनुष्यों के चंचल मनसे नरक देनेवाले घोर फर्म सदा ही पाते रहते हैं ।।२४-२६।। मनोगुप्ति की महिमा और उसका फलमतःकार्यामनोगुप्तिः सर्वसंवरदायनी । निराकारिणी मुक्तिजननीसदगुणाकरा ॥२७।। मनोगुप्त्याक्षवापकायकषायाखिलद्विषाम् । निरोषो जायते तस्मात्प्रशस्सं ध्यानमंजसा ॥२८॥ तेन स्यातां च सम्पूर्ण परेसंवरनिजरे । तान्या धातिविध गास्ततः प्रादुर्भवेत्सताम् ॥२६॥ केवलज्ञानमात्मोत्थं दिस्यः सः गुणःसमम् । ततो मुक्तिवघूसंगो शनातसुखकारकः ॥३०॥ इत्यादि परमं ज्ञात्वातत्फलं मोक्षकांक्षिभिः। एकात्रव मनोगुप्तिः कार्या सर्वार्थसिद्धये ।।३१॥ अतुलसुखनिधाना स्वर्गमोक्षफमाता जिनगणधरसेप्या कृत्स्नकारिहंत्री । प्रतसकलसुधीयो चित्तगुप्तिः सवा ता श्रयतपरमयरनाद्योगिनोयोगसिद्धच ॥३२॥ अर्थ-अतएव मुनियों को मनोगुप्ति का पालन सदा करते रहना चाहिये। यह मनोगप्ति पूर्स संवर को उत्पन्न करनेवाली है, निर्जरा की करनेवाली है, मोक्ष की माता है और श्रेष्ठ गुणों को खानि है। इस मनोगुप्ति से ही इन्द्रियों का निरोध हो जाता है, वचनगुप्ति और कायगुप्ति का पालन हो जाता है और कषायादिक समस्त Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप] ( २७१ ) [ षष्ठम अधिकार शत्रुओं का निरोध हो जाता है तथा इन सबका निरोध होने से प्रशस्त ध्यानको प्राप्ति हो जाती है, प्रशस्त ध्यान की प्राप्ति होने से पूर्ण संघर और निर्जरा से घातिया को का नाश हो जाता है तथा तालिम कमों का नाश होदे तो समास तिस गणों के साथसाथ सज्जनों को आत्मासे उत्पन्न होनेवाला केवलज्ञान प्रगट हो जाता है । तदनंतर केवलज्ञान प्रगट होने से अनंत सुख देनेवाला मोक्षरूप वधू का समागम प्राप्त हो जाता है । मोक्षको इच्छा करनेवाले मुनियोंको इसप्रकार इस मनोगुप्ति का परम उत्तम फल समझकर अपने समस्त पुरुषार्थ सिद्ध करने के लिये इस संसार में एक मनोगुप्ति का परम उत्तम फल समझकर अपने समस्त पुरुषार्थ सिद्ध करने के लिये इस संसार में एक मनोगुप्ति का हो पालन करना चाहिये । यह मनोगुप्ति अनुपम सुखोंकी खानि है, स्वर्ग मोक्षको माता है, तीर्थकर और गणधरादिकदेव भी इसका पालन करते हैं, यह समस्त कों को नाश करनेवाली है और समस्त व्रतों के आने का मार्ग है प्रतएष मुनियों को ध्यान की सिद्धि के लिये प्रयत्न पूर्वक इस मनोगुप्ति का पालन करना चाहिये । ॥२७-३२।। बचनगुप्ति का स्वरूपवार्तालापोतराषिभ्योऽयुभेन्यो यनिवर्तनम् । वाचो विधाय सिउपर्थ स्थापनं क्रियतेन्वहम् ।।३३।। सर्वार्थसाधकेमोनेसिद्धान्ताध्ययनेऽथवा । सा वाग्गुप्तिमतासर्वा वयोव्यापारदूरगा ॥३४॥ अर्थ-मुनिराज मोक्ष प्राप्त करने के लिये अपने बचन योग को अशुभ बातचौत से तथा अशुभ उत्तर से हटा कर समस्त अर्थ को सिद्ध करनेवाले मौन में, अथवा सिद्धांतों के अध्ययन में प्रतिदिन स्थापन करते हैं, उसको समस्त वचनों के व्यापार से रहित मचनगुप्ति कहते हैं ।।३३-३४॥ श्रुतज्ञान की प्राप्ति हेतु बचन गुप्ति पालने को प्रेरणायषा यथा चोगुप्तिबद्धले श्रीमती सराम् । तथा तथाशिलाविया विकषाविविधनात् ।।३।। परिमायेतिमागुप्ति विद्याथिभिः मुताप्लये । विषयासंध रक्षा सिवान्ताध्ययने न्यहम् ॥३६॥ जातवियागमनित्यं कर्तव्य मौनमंजसा । पाठनं वा स्वशिष्याणामागमस्वप्रयत्नतः ।।३७॥ क्वचिवात्रविधातव्यं सतां धर्मोपवेशनम् । अनुग्रहाय कारुण्यान्मोसमार्गप्रबुसमे ॥३८।। अर्थ---बुद्धिमानों की वचनगुप्ति जैसी-जैसी बढ़ती जाती है वैसे ही वैसे विकथानों का त्याग होता जाता है और समस्त विद्याएं बढ़ती जाती है। यही समझ कर विद्या की इच्छा करनेवाले मुनियों को श्रुतमान प्राप्त करने के लिये अपने बचनों Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २७२ ) [षष्ठम अधिकार को प्रतिदिन सिद्धांत के अध्ययन में लगाकर इस वाग्गप्ति का पालन करना चाहिये । समस्त प्रागम को जानने वाले मुनियों को या तो नित्य मौन धारण करना चाहिये अयथा प्रयत्न पूर्वक अपने शिष्यों को प्रापमका पाठ पढ़ाना चाहिये । अथवा मोक्षमार्ग को प्रवृत्ति करने के लिये करुणा बुद्धि से सज्जनों का अनुग्रह करने के लिये कभी-कभी धर्मोपदेश देना चाहिये ॥३५-३८।। मुनि को कंसे वचन नहीं बोलना चाहिये--- एहि गच्छ मुवा तिष्ठ कुरु कामिदं द्रुतम् । इत्यादि न बनो वाच्यं प्राणत्यागेपि संयतः ।।३।। यतोत्रा संमतारा ये प्रेषणांकारयन्ति वा । यातायातं कुतस्तेषां वतायाः प्रारिणयातनात् ॥४०॥ अर्थ-मुनियों को प्राणों के त्याग करने का समय पाने पर भी "आयो जानो, प्रसन्न होकर बैठो, इस काम को शीघ्र करो" इसप्रकार के वचन कभी नहीं बोलने चाहिये । क्योंकि जो मुनि अन्य असंयमी लोगोंको बाहर भेजते हैं अथवा उनसे माने जाने का काम लेते हैं उनके कारितजन्य प्राणियोंका घात होने से प्रतादिक निर्मल कैसे रह सकते हैं अर्थात् कभी नहीं ॥३६-४०॥ श्रेष्ठ ध्यान के लिये मौन धारण करने की प्रेरणा--- यषा पथात्रबाहया व पते पाक तपा तथा । यष्यते कर्म लोकोक्तिरिमं सत्या न चान्यया ।।४।। बायोऽप्यनिरोष यो विधातुमक्षमोषमः । स मनोसकषायारणां निग्रहं कुरुते कथम् ॥४२॥ दिविस्वेति सदाकाय मौनं सध्यानवीपकम् । निहस्यसिद्धये नि बाह्य वाग्जालमंजसा ।।४।। अर्थ-"ये लौकिक प्राणी जैसे-जैसे बाह्य पदार्थों के लिये बातचीत करते हैं वैसे ही वैसे उनके कर्म बंधते जाते हैं"। यह जो लोकोक्ति है वह सत्य है इससे विपरीत कभी नहीं हो सकता । जो नीच मनुष्य वचनों को रोकने में भी असमर्थ है वह भला मन इन्द्रियां और कषायों का निग्रह फैसे कर सकता है ? अर्थात् कभी नहीं कर सकता । यही समझकर मुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये प्रत्यंत निध ऐसे अपने बाह्य वाग्जाल को रोक कर श्रेष्ठ ध्यानको प्रगट करने के लिये वीपक के समान ऐसे इस मौनवत को सदा धारण करते रहना चाहिये ।।४१-४३॥ __ मौन व्रत की महिमायतोमानेनवक्षारणास्वपि कलहोस्ति न । मोनेनायु नियन्तेहो रागषादयोरयः ॥४|| भौमेनगुणराशिपथ सम्पते सकलागमम् । मोमेम केवलज्ञान मौनेनश्रुतमुत्तमम् ।।४।। मोनेन मानिनों नूनं सर्वेषां निर्भयो महान् । परीषहोपसरणा पुरणाः सातिनिर्मलाः ॥६॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( २७३ ) [ षष्ठम अधिकार मौनेन मुक्तिकाम्सा त्यासक्त्यावृणोति मानिनम् । स्वभार्येषाचिरावेत्य का कपाहोच योषिताम् ।। अर्थ-इसका भी कारण यह है कि इस मौनको धारण करने से चतुर पुरुषों को स्वप्न में भी कभी कलह नहीं होता तथा इसी मौन वतसे रागद्वेषादिक शत्रु बहुत शीघ्र नष्ट हो जाते हैं । इसी मौन से समस्त गुणों की राशि प्राप्त होती है, इसी मौन से समस्त शास्त्रों का ज्ञान होता है, इसी मौन से केवलज्ञान प्रगट होता है, इसी मौन से उसम श्रुतज्ञान प्राप्त होता है । इसी मौन व्रतसे ज्ञानी पुरुष समस्त परीषह और समस्त उपसर्गों का महान् विजय प्राप्त करते हैं और इसी मौनव्रत से समस्त निर्मल गुण प्राप्त होते हैं । इसी मौन व्रतसे मुक्तिरूपी स्त्री अत्यन्त आसक्त होकर अपनी स्त्री के समान नहुत शीघ्र मैनाती को सीताद भारती है फिर भला देवांगनाओं को तो बात ही क्या है ।।१७४४-१७४७॥ असंख्यात गुणों के कारणभूत वाग्गुप्ति त्याग का निषेधइमान् मौनगुणान् ज्ञास्था संख्यातोलान् विवकिभिः। सम्वविश्वामिष्पत्य तस्कार्य च सुलाकरम् ।। तथा मौनधतायोच्चविधासम्याघनाशिनी । धाग्गुप्तिः सर्षया जातु न त्याज्या कार्यकोटिभिः ।। अर्थ-विवेको पुरुषोंको इसप्रकार मौनवतके असंख्यात गुण समझकर समस्त पुरुषार्थीको सिद्ध करने के लिये सुख की खानि ऐसा यह मौनवत अवश्य धारण करना चाहिये। इस मौनवत को पालन करने के लिये समस्त पापों को नाश करनेवाली वाग्गुप्तिका पालन करना चाहिये तथा करोड़ों कार्य होनेपर भी इस वाग्गुप्ति का त्याग नहीं करना चाहिये ।।१७४८-१७४९।। पुनः वचमगुप्ति की महिमा और उसे धारण करने की प्रेरणाशुभगुणमरिणखानि स्वर्गमोक्षाविधात्री धुरिततिमिरहनीमर्गला पापगेहे । वृषसुखजननी वाग्गुप्तिमात्मार्थसिद्धं कुरुतनिखिलयत्मान्मौनमाषायनित्यम् ॥१७५०।। अर्थ---यह वचनगुप्ति शुभ गुणरूपी मणियों को खानि है, स्वर्ग मोक्ष को देने वाली है, पाप रूपी अंधकार को नाश करनेवाती है, पापरूपी घरको बंद करने के लिये अर्गल वा पेंडा के समान है तथा धर्म और सुख की माता है । अतएव शुख आत्मा की प्राप्ति के लिये समस्त यत्नों से सदा मौन धारण कर इस बचनगुप्ति का पालन करना चाहिये ।।१७५०।। कायगुप्ति का स्वरूपहस्तांघ्र यवयवादींपच स्वेच्छयावत्तितोयलात् । माहस्य निखिलं देह विकिपातिगमूजितम् ॥५१॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] (20x [षष्ठम अधिकार , कुवा यत्स्थाप्यले धोरै व्युत्सर्गे या वृद्धासने । निष्पर काष्ठवन्मुक्त्यै सा कायगुप्तिमत्तमा ॥५२।। अर्थ-जो मुनि अपने हाथ पैर प्रावि शरीर के अवयवों को अपनी इच्छानुसार नहीं हिलाते, और अपने शरीर में कोई विकार उत्पन्न नहीं होने देते, वे धीर वीर मुनि मोक्ष प्राप्त करने के लिये अपने शरीर को कायोत्सर्ग में या किसी दृढ़ आसनपर काठके समान निश्चल स्थापन करते हैं उसको उत्कृष्ट कायगुप्ति कहते हैं ॥५१-५२॥ कायगुप्ति पालने का फल -- कायगुप्त्यात्र धीराणां सर्वप्राणिदया भवेत् । निष्प्रकप पर ध्यानं संवरो निर्जरा शिवम् ।।५३॥ अर्थ-इस कायगुप्तिको धारण करने से धीर वीर मुनियों के समस्त प्राणियों की बया पल जाती है, निश्चल ध्यान की प्राप्ति हो जाती है तथा संवर निर्जरा और मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है ॥१७५३॥ ___ शारीरिक चंचलता से हानि व उसे रोकने की प्रेरणाकाय चंचलयोगेम मियन्तेजन्तुराशयः । सम्मले बतभंगः स्यासतो नर्थपरंपरा ॥१७५४।। मत्वेति विकियां सर्वां त्यक्त्वा नेनमुखादिजाम् । निद्यांचपलतारुध्दा शाम्यचित्रोपमं वपुः ॥५५।। कृत्वामोशाय संस्थाप्य कायोत्सर्गासनादिषु । कायगुप्तिविषातच्या प्रत्यहं ध्यानमातृका ।।१७५६।। अर्थ-शरीर की चंचलता के निमित्त से बहुत से जीवों की राशि मर जाती है, उनके मरने से वृतका भंग हो जाता है और व्रत भंग होने से अनेक अनर्थों की परम्परा प्रगट हो जाती है । यही समझकर नेत्र वा मुखसे होनेवाले समस्त विकारों का त्याग कर देना चाहिये, निध चपलता को रोकना चाहिये और चित्र के समान शरीरको प्रत्यंत शांत और निश्चल रखकर मोक्ष प्राप्त करने के लिये कायोत्सर्ग में वा किसी आसन पर दृढ़ रखना चाहिये । इसप्रकार ध्यान की माता के समान इस कायप्तिको प्रतिदिन पालन करना चाहिये ॥१७५४-१७५६॥ कायगुप्ति की महिमासुरशियगतिवीथीं दीपिका प्यानसोधे व्रतसकलवराम्बा कर्मवृक्षे कुठारीम् । जिनमुनिगणसेध्या कायप्ति पवित्रां श्रयतजितकराया यत्नतोमुक्तिसिद्धय ।।१७५७।। अर्थ यह कायगृप्ति स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग है, ध्यानरूपी राजभवन को दिखलाने के लिये दीपक के समान है, समस्त व्रतों को श्रेष्ठ माता है, कर्मरूपी वृक्षको काटने के लिये कुल्हाड़ी है, भगवान जिनेन्द्र देव और मुनियों के समूह Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप ! [षष्ठम अधिकार सब इसको पालन करते हैं तथा महा अत्यंत पवित्र है। अतएव कार्यो.को जीतने वाले मुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये प्रयत्न पूर्णक इस कामगुप्ति का पालन करना चाहिये १७५ : - :-:-: . . . ...... ... " १४ मा गिप्ति पालन करने का प्रसार ... ... ... ... ...... वित्रः सदगुप्तयोपैताधियानिधिनासदा। विधिनाशिवसम्विाः समकम्तिवारिकाः ॥ Fi ये तीनी गप्तियां कमी को नाश करनेवाली हैं, मोक्ष के सुखकी माता " है, और समस्त कर्मों को नाश करनेवाली हैं प्रतएवं मुनियों को विधि पूर्णक इनका पालन करना चाहिये ॥१७५८॥ " .. . ... .... गुप्तियों से सुरक्षित मुनि ही कर्म शत्र से अपनी रक्षा कर सकता हैबलवुद्धियथाविश्वः शत्रुभिः स्वाश्रमानुपः । न नेतु शक्यतेगुप्तः प्राकारखातिकामटेः ॥१७५६॥ तथामुनि रोगप्तो मनोवाक्कायप्तिभिः । म जातु विकियां नेतु शक्यः करिसंचयः ॥१७६०॥ 15... अर्थ- जो राजा कोट. खाई और योद्वानोंसे अत्यंत सुरक्षित है उसको प्रत्यंत बलबान समस्त. शत्रु भी उसके घरसे बाहर नहीं ले जा सकते उसोप्रकार जो मुनि मन-. वचन-काय को. गुप्तियों से प्रत्यन्त, सुरक्षित है. उनकी आत्मा में कर्मरूप ससस्त शत्रु कभी किसी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं कर सकते १७५६.१५६०॥.......... कोन योगी असंयमादि बाणों से घायल नहीं होतामिसः संगरे या ब्रटी वार्णन मिाते । तथा योगी निग़प्तास्मा रागाधसंयमेषुभिः ॥१७६१॥ re! - अर्थ-जिसप्रकार युद्ध में कंचच पहनने वाला योद्धा कारणों से घायल नहीं होता उसीप्रकार मनोगप्ति, धनगुप्ति, कापंगप्तिकोधारण करनेवाला योमी असंयमान: दिक वाणों से कभी चलायमान नहीं हो सकता । १७६१।३ । ..... ... . प्रष्ट प्रवचममातृका किसे कहते हैंसायसमितिभिः पेभिरिमा गुप्तयः परो । प्रोक्ता प्रवचनात्यष्टिमातरी हितकारिकाः ।। " अर्थ-ये तीनों गुप्तियां तथा पांचों समितियां मिलकर पाठौं प्रवचनमातृका कहलाती है। ये आगे हो माताके समान हित करनेवाली है और सर्वोत्कृष्ट हैं ।।६२॥ . .. .. अष्ट, प्रवचनसातका नामका साथकता--. .... , . , . .., ॥ रक्षन्ति मातरो यदन्मलाविपर्शनारसूतान् । तथेमात्तिपत्रांश्चदुष्कर्मास्त्रवपांगुतः ॥१७६३॥ ... •L. H सायसीमाताभः Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] { २७६ ) [ षष्टम अधिकार विपत्तेः प्रतिपाल्याम्वाः पोषयन्ति पथारमजान् । तर्थतांश्च यतीम् सर्वहितः स्वमुक्तिशर्मभिः ।। यांगजान अमन्यो न वध र्गन्तुकुविक्रियाम् । समावमिमा जनता पाजमार समिः । शिवं कुर्वन्ति सूनोश्चयद्ववम्वाः निवार्य भोः । दुःखक्लेशादिकांस्तद्ववेताः साधोः प्रपालिताः ।। इस्यबागुणसंयोगात्साल्यिा वरमातरः । उम्यन्ते श्रीजिनाधीशः मातृतुल्पामहात्मनाम् ॥६७॥ ____ अर्थ-जिसप्रकार माताएं अपने पुत्रों को धलि मिट्टीसे बचाती हैं उसीप्रकार ये अष्ट प्रवचनमातृकाएं मुनियों को कालव रूपी पुलि से बचाती हैं । जिसप्रकार माताएं अपने पुत्रों को विपत्ति से बचाकर पालन पोषण करती हैं उसीप्रकार ये प्रष्ट प्रवचनमातृकाएं मुनियों को सब तरह का हित कर तथा स्वर्ग मोक्ष के सुख देकर मुनियोंका पालन पोषण करती हैं। जिसप्रकार माताएं अपने पुत्रोंको किसी भी आपत्ति में जाने नहीं देती उसी प्रकार ये अष्ट प्रवचनमातृकाएं भी अपने मुनिपुत्रों को रागद्वषाविक समस्त शत्रुओं से रक्षा करती हैं। जिसप्रकार माताएं अपने पुत्रों के समस्त दुःख और क्लेशों को दूर कर उनका कल्याण करती हैं उसीप्रकार ये गुप्तिसमिति रूप माताएं भी साधुनों की रक्षा करती हैं दुःख वेनेवाले रागद्वष वा कर्मों को उत्पन्न नहीं होने देती । इसप्रकार इन गुप्ति समितियों में माताके समस्त गुण विद्यमान हैं इसीलिए भगवान जिनेन्द्रदेव ने प्रष्ट प्रवचनमातृकाएं ऐसा इनका सार्थक नाम बतलाया है। वास्तव में महात्मानों के लिए ये माता के हो समान हैं ॥१७६३-६७॥ चारित्र के भेदएषवताबिसम्पूर्णरचारित्राचार जितः । त्रयोववियोवविधातव्योतिनिमलः ॥१७६८।। अर्थ-इसप्रकार पांच महायत, पांच समिति और तीन गुप्तियों से परिपूर्ण हुआ चारित्राचार तेरह प्रकार का है इसीलिए चतुर मुनियों को अत्यंत निर्मल और अत्यंत उत्कृष्ट ऐसा यह चारित्राचार अवश्य धारण करना चाहिए ।।१७६८॥ निर्मल चारित्र पालने का फलसर्वातिधारभिमुचारित्रं शसिनिर्मलम् । ये घरम्ति प्रयत्नेन तेषांमोको न्यदेहिनाम् ।।६॥ माये ये मुनयोरक्षाश्चारित्राचार भूषिताः । त्रिजगन्धर्म भक्त्वा ते कमाधान्तिशिवालयम् ।।७।। अर्थ-जो पुरुष समस्त अतिचारों से रहित और चन्द्रमा के समान निर्मल ऐसे इस चारित्रको प्रयत्न पूर्वक धारण करते हैं उन चरमशरोरियों को अवश्य ही मोक्ष को प्राप्ति होती है । और भी जो चतुर मुनि इस चारित्वाचार से सुशोभित होते हैं ये तीनों लोकोंक सुखोंको भोगकर अनुक्रम से मोक्ष में जा विराजमान होते हैं ॥६९-७०॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २७७ ) [ षष्ठम अधिकार व्रतों के बिना जीवन की निष्फलताजीवितंप्रवरंमन्येविनैकं व्रतमुषितम् । तहिमा विफलं पंसा पूर्व कोटपादिगोचरम् ।।१७७१॥ ___ अर्थ-वतों से सुशोभित होकर एक दिन भी जीवित रहना अच्छा परन्तु पतों के बिना मनुष्यों का करोड़ पूर्व तक जीवित रहना भी निष्फल है ॥१७७१॥ चारित्रवान की महिमा-- ममम्ति निजगन्नापांश्चारित्रालंकृतात्मनाम् । पादपमान मुदामूर्ना प्रत्यहं किंकरा इव ।।१७७२।। महाचारिष भूषारणा प्रतापेन सुरेशिनाम् । प्रासनानि प्रकम्पन्से साम्पन्ति रजन्तयः ।।१७७३।। धन्यः स एव लोकेस्मिन् सफलं तस्य जोदितम् । कवाचिच्चरणं येन न नीतं मममियी ॥४॥ अर्थ-जिनका प्रात्मा इस चारित्र से सुशोभित है उन मुनियों के चरण कमलोंको तीनों लोकों के इन्द्र सेवक के समान प्रसन्नता पूर्वक मस्तक नवाकर प्रतिदिन नमस्कार करते हैं। जो मुनि इस महा घारित्र से सुशोभित हैं उनके प्रताप से इन्त्रों के आसन भी कंपायमान हो जाते हैं तथा उन्हीं मुनियों के प्रताप से सिंहाविक कर घातक जन्तु भी शांत हो जाते हैं । जिन मुनियों ने अपने चारित्र को कभी भी मलिन नहीं किया है संसार में वे ही मुनि धन्य हैं और उन्हीं का जीवन सफल है ।।१७७२-७४।। चारित्र के बिना उत्कृष्ट ज्ञान दर्शन मोक्ष का कारण नहींचारित्रेण विना मेनोत्कृष्टेपि शामवर्शने । समर्थ न शिवं कर्तुं सत्कर्थश्लाप्यते न मोः ।।१७७५।। अर्थ- इस चारित्र के बिना अत्यंत उत्कृष्ट सम्यग्दर्शन और उत्कृष्ट शान भी मोक्ष प्राप्त कराने में समर्थ नहीं हो सकते फिर भला इस ऐसे चारित्र की प्रशंसा क्यों नहीं करनी चाहिये अवश्य करनी चाहिये ।।१७७५।। चारित्र से शिथिल मुनि लंगड़े मशमहामानदगाढयोपि चारित्रशिथिलोयतिः । सम्मार्गगमनाशक्त: पंगुषाति मातु म ॥१७७६।। अर्थ--महा ज्ञाम और महा सम्यग्दर्शन को धारण करने वाला भुनि यदि चारित्र से शिथिल हो जाय तो वह लंगड़े के समान मोक्ष माग में कभी यमम नहीं कर सकता तथा वह न कभी सुशोभित हो सकता है ॥१७७६।। कौन निदनीय और कौन वंदनीयबरंप्राणपरित्यागः संयतामा शुभप्रवः । शषिल्यं शरणं कतुं मनागयोग्य मानिन्दितम् ||१७ पथावमुजारितो बंधः पूज्या स्तुप्तोमवेत् । मान्योविराजमोंगी तथामुखममरतये ॥१७७८.. Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I (२७) [ षष्ठम अधिकार Ji अर्थ-मुनियों को कल्याणकारी प्राण त्याग कर देना अच्छा परन्तु चारित्र में शिथिलता धारण करना किचित् भी योग्य नहीं है क्योंकि चारित्र में शिथिलता कर निवीय है । जिसप्रकार श्रेष्ठ चाप को धारण करनेवाला योगी इस लोक में भी समस्त लोमों के द्वारा वंदनीय पूज्य स्तुति करने योग्य और सात्यमाना जाता है उसी प्रकार वह परलोक में भी तोनों लोकों में मान्य, पूज्यं, वंदनीय माना जाता है ।।१७७७-१७७८ ।। 4. शिथिल चारित्र: उच्च लोकनें दुःख का कार मूलाचारखदीप'] 110 20 P Pan, cir । विश्वमाननीयःः स्यातामुत्र च सः ।।१७७६।। 'चरित्रविलीयभिद्यो अजिसप्रकार शिथिल चारित्र को धारण करनेवाला मुनि इस लोक में भी पद-पद पर निदमीय 'माना जाता है तथा सब द्वारा श्रयममित होता है उसी प्रकारक परलोक में दुर्गतियों में पड़कर निवनीय और अपमानित होता है। १७७६ प्राण जानेपर भी चारित्रं मर्लिन नहीं करें a 'पारिवार की महिम Ja 7 E • चरित्रे निमले महत ) मला मजेत प्रातानयि विमुक्तयें ॥१७८ अर्थ — यही समझकर बुद्धिमान पुरुषोंको मोक्ष प्राप्त करने के लिये प्राणों त्याग का समय थाने पर भी अपने निर्मल और सर्वोत्कृष्ट चारित्रकों कभी मलिन नहीं करना चाहिये ॥१७८ 34. 274 1: 512 Fi ...... तालमुनि " संसाराम्बुषितारकोति विमलोविश्वामिः तवं चरित्राचार इहो जिसमे मासे किं । Fip अर्थ - यह चारित्राचार को हरण करनेवाला हुआ है अनेक है, स्वर्गमोक्ष के सुख देनेवाला है, भगवान मुनिगरण प्रतिदिन: इसका सेवन करते हैं, यह संसाररूपी समुह, सपार करनेवाला है, अयं निर्मल है, सब में, मुखर है और सर्वोत्कृष्ट है। ऐसा यह पूर्ण चारित्राचार मेरे मनमें विराजमान रहो ।।१७८१६ । २. सपाचार के कथन की प्रतिज्ञा.... चारित्राचार एवोत्र वशितो हि महात्मनाम् । इतकष्वं प्रवक्ष्यामि तप प्राचारम तम् ॥ ६२ ॥ इसप्रकार महात्माओं के इस वारिवाधारका वर्णन किया । जब असे :1 ... 15 8 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] (e) सर्वोत्कृष्ट तप आचार को कहता हूं ।। १७८२ ॥ [ षष्ठम अधिकार तपाचार का स्वरूप व उसके भेद -- स्वेच्छाया अक्षशर्मादौ निरोधो यो विधीयते । तपोयिभिस्तपः सिद्धयं तवेव प्रवरं तपः ।। १७८३|| वाह्याभ्यन्तरमेवाभ्यां द्विघात सपउच्यते । तद्वा षड्विधं सोहाभ्यन्तरं च भवान्तकम् || ६४ || अर्थ -- तपश्चरण करनेवाले मुनि अपने तपश्चरणकी सिद्धि के लिये जो अपनी इच्छानुसार इन्द्रिय सुखों का निरोध करते हैं उसको श्रेष्ठ तप कहते हैं। इस तप के बाह्य अभ्यंतर के भेद से दो भेद हैं उसमें भी बाह्य तप के छह भेद हैं और संसारको नाश करनेवाले अभ्यंतर तपके भी छह भेव हैं ।। १७८३-१७८४ ।। बाह्य तपका स्वरूप श्रीर उसके भेद - यत्तपः प्रकटं सोऽन्येषां वात्र कुदृष्टिभिः । कर्तुं च शमयले बाह्य तत्तपः सार्थकं भवेत् ।। ८५ ।। प्राय धानशनं सारमवोदयसंज्ञकः । द्वितीयं तपोवृत्तिपरिसंख्यानमूजितम् ।।१७६६ ।। ततोरसपरित्यागो विविक्तशयनासनम् । कायश्लेशोत्रषोदेति तपो बाह्य मुखाकरम् ।।१७८७ ।। श्रयं - जो तप संसार में प्रगट दिखाई देता है अथवा अन्य मिष्यावृष्टि भी जिसको धारण कर सकते हैं यह सार्थक नामको धारण करनेवाला बाह्य तप कहलाता है । अनशन अवमोदर्य, वृत्ति परिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन और काय क्लेश इसप्रकार सुख देनेवाला बाह्य तप यह प्रकार है ।।१७६५-१७८७॥ अनदान तप का स्वरूप व उसके भेद-तत्साकांक्षनिराकांक्ष भेदाम्यां धीजिनाधिपैः । द्विधानशनमान्नासाकांक्षं बहुषाभवेत् ॥ १७८८॥ श्रमपान फसत्वाद्यस्वाद्यमेवंश्चतुविषः । श्राहारस्त्यज्यतेमुषायं यत्तपोनशमं हि तत् ॥१७६६ ॥ अर्थ - उसमें भी भगवान जिनेन्द्रदेव ने अनशन तप के दो मेद बतलाये हैंएक साकांक्ष और दूसरा निराकांक्ष । इनमें से साकांक्ष तपके भी अनेक मेव बतलाये हैं। मोक्ष प्राप्त करने के लिये जो प्रश्न पान स्वाद्य खाद्य के भेद से चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दिया जाता है उसको अनशन नाम का तप कहते हैं ।। १७८८० १७८६॥ साकांक्ष अनशन के भेद क्रियते चोपवासस्य वारपार बुधैः । यदेकभक्तमाप्तेः सः चतुर्थः कथ्यते बुधैः ॥१७६०१ चतुर्भोजनसंत्यागाच्चतुर्थः सार्थकोमहान् । षड्वेलाशनसंस्थागात् षष्ठी द्विवषात्मकः ॥११ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( २८० ) [ षष्ठम अधिकार अष्टवेलाशनस्यागादष्टम स्त्रिचतुर्थजः । वशभोजनसंख्यागाद्दशमः कर्मनाशकः ॥१७६२।।। द्विषडवेलाशनत्यागास्त्रोक्तो द्वादशमो जिनः । इत्याद्याः प्रोषधानेया साकांक्षानशनस्य च ॥१३॥ पक्षमासोपवासादि षण्मासान्तं तपोऽनघम् । क्रियते यन्महायोरः सर्व साकांक्षमेवता ॥१७९४॥ कनकावली सिंहनिःक्रोडिप्तादयोखिलाः । भद्र लोक्यसारायाः साकांक्षेन्त वामताः ॥१७६५॥ अर्थ—जिस उपवासमें धारणा पारणाके दिन एकाशन किया जाता है उसको भगवान सर्गज्ञदेव चतुर्थ नामसे कहते हैं । इस उपयास में चार समय के भोजन का त्याग किया जाता है इसलिये यह चतुर्थ नाम का महा उपचास सार्थक नाम को धारण करनेवाला है । यदि छह समय के प्राहार का त्याग कर धारणा पारणा के दिन एकाशन कर मध्य में जो उपवास किये जाय तो उसको षष्ठ नाम का उपवास कहते हैं। जिसमें आठ समय के प्राहार का त्याग किया जाय अर्थात् धारणा पारणा के मध्य में तीन उपवास किये जाय उसको अष्टम उपवास कहते हैं । तथा जिस उपवास में दश समय के आहार का त्याग किया जाय अर्थात् धारणा पारणाके मध्य में चार उपवास किए जाय उसको कर्मों का नाश करनेवाला दशम उपवास कहते हैं । जिस उपवास में बारह समय के प्राहार का त्याम किया जाय अर्थात् धारणा पारणा के मध्य में पांच उपवास किये जांय तथा धारणा पारणा के बिन एकाशन किया जाय उसको द्वादशम उपवास कहते हैं । इसप्रकार के जो प्रोषधोपवास हैं वे सब साकांक्ष अनशनके भेद हैं । इसीप्रकार महा धीर वीर पुरुष जो एक पक्ष का था एक मास का उपवास करते हैं वा छह महीने लक का उपवास करते हैं तथा इसप्रकार जो पाप रहित तपश्चरण करते हैं उस समको आकांक्ष अनशन कहते हैं । इसी प्रकार कनकावली, एकावली, सिंह, निष्क्रीडित प्रावि प्रतों के जितने उपवास हैं वा भद्र अलोक्यसार प्रादि व्रतों के जितने उपचास हैं, वे सब साकांक्ष अनशन में ही अंतर्भूत होते हैं ॥१७६०-१७६५।। निराकांक्ष अनशन का स्वरूप व भेदमरणं भक्तप्रत्यास्थानमिगिनीसमाहृयम् । प्रायोपगममहोत्यायान्यानि मरणानि च ॥१७६६|| मानि तामि समस्तानि यावज्जीवाषिताम्यपि । मिराकासोपवासस्य बहुभेदानि विद्धि भो ।।७।। अर्थ-भक्तप्रत्याख्यान मरण, इंगिनीमरण, प्रायोपगमनसन्यास मरण इस प्रकारके जितने सन्यासमरण हैं उनमें जो जीवन पर्यंत आहारका त्याग कर दिया जाता है, उसको नियकांक्ष उपवास कहते हैं । उस निराकांक्ष उपचासके भी इसप्रकार के मरण के मेद से अनेक भेद हो जाते हैं ॥१७६६-१७१७॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८१ ) अनशन तपकी महिमा व उसे करने की प्रेरणा उपवासाग्निनापुंसां कायः संतप्यतेतराम् । बह्यन्ते सकलाक्षारिण कर्मेन्धनान्यनन्तश ।।१७६८ ated गल्लक्ष्मीर्नाक श्रीश्यावा मुक्तिस्त्रों सन्मुखं पश्येदुपवासफसात्सताम् ॥६॥ इत्यस्य प्रवरं ज्ञात्या फलं शक्या शिवाप्तये । बहूपवासभवांश्च प्रकुर्वन्तु तपोधनाः ।। १८०० ॥ अर्थ- इस उपवास रूप से मनुष्यों का शरीर अत्यंत संतप्त हो जाता है और फिर उससे समस्त इन्द्रियां और अनंत कर्मरूपी ईधन सब जल जाता है । इस उपवास के फल से सज्जनों को तीनों लोकों की लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है, स्वर्ग की लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है, और श्रेष्ठ कल्याण करनेवाली मुक्तिस्त्री सामने आकर खड़ी हो जाती है । इसप्रकार इस उपवास का सर्वोत्कृष्ट फल समझकर तपस्वियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये अपनी शक्ति के अनुसार प्रनेक मेद रूप उपवासों को सवा करते रहना चाहिये ।।१७६८- १८०० ।। प्रमोद तपका स्वरूप और उसके जघन्यादि भेद- मूलाचार प्रदीप [ पम अधिकार सहस्र तंदुरेकः कथलोत्रादितो नृणाम् । द्वात्रिंशकवलं पूर्ण माहारश्चागमेजिनः । १८०१ ॥ एकेन कथलेनेवोनहारो येनभुज्यते । तपोमं हि जघन्यं तदवमौवयंसत्तपः ।। १८०२ ॥ प्रकास मात्र य ब्राहागृह्यते चिवे । तपस्विभिस्तपोयं तदवयवयमुतमम् ।। १८०३ ।। जघन्योत्कृष्टयोर्मध्ये त्रातृप्ति भोजनं हि यत् । बहुधातपसे तायमोदयंसुमध्यमम् ।। १८०४ ।। अर्थ - भगवान जिनेन्द्रदेव ने मनुष्यों के लिये एक हजार चावलों का एक ग्रास बतलाया है, तथा जिनागम में बत्तीस ग्रासों का पूर्ण आहार बतलाया है । जो मुनि अपना सम बढ़ाने के लिये एक प्रास कम आहार लेते हैं उसको जघन्य अवमोदर्य नामका श्रेष्ठ तप कहते हैं । जो तपस्वी अपना तपश्चरण बढ़ाने के लिये वा आत्माको शुद्ध करने के लिये केवल एक ही आहार का ग्रास लेते हैं, वह उत्तम प्रवमौदर्य तप कहलाता है । एक प्रास से अधिक प्रौर इकसीस ग्रास से कम ग्रासों का आहार लेना मध्यम अवमोदर्य है । यह अब मोदर्य तपश्चरणके हो लिये किया है और इसमें उतना ही आहार लिया जाता है जिसमें पूरी तृप्ति न हो ।।१६०१-१८०४ । प्रमोद तपकी महिमा व उसे करने को प्रेरणा अनेन तपसा नृर्णा निद्राजयः स्थिराशनम् । ग्लानिहानिः श्रुतं ध्यानं स्याज्वामुक्तिअमात्ययः || त्यातगुणात् शाश्वावमौर्यं तपोनधम् । प्रासादिहापर्वक्षाः कुर्वन्तु ध्यान सिद्धये ।। १८०६ ।। --इस तपश्चरण से मनुष्यों का निद्रा का विजय होता है, श्रासन स्थिर अर्थ -- Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २८२) [षष्ठम अधिकार होता है, किसी प्रकार की ग्लानि नहीं होती, शास्त्रज्ञान को वृद्धि होती है, ध्यानकी वृद्धि होती है और भोजन न करने से जो परिश्रम होता है वह भी नहीं होता। इस प्रकार इस तपश्चरण के गुणों को जानकर चतुर पुरुषों को अपने ध्यान की सिद्धि के लिये अपने ग्रासों की संख्या घटाफर अवमोदर्य नामके निर्दोष तपश्चरणका पालन करते रहना चाहिये ।।१८०५-१८०६॥ बृत्तिपरिसंख्यान सपका स्वरूपमतुःपयायवीभ्येकगहादिपाटकैः परैः । नानावग्रहसंकल्पातमोजन भाजनैः॥१८०७॥ दुष्प्राप्याहारसंप्राप्त्य या प्रतिज्ञात्रगृह्यते । तवृत्तिपरिसंख्यानं बहुभेदं तपोमहत् ।।१८०८।। प्रयं-मैं चौराहे पर आहार मिलेगा तो लगा इस मार्ग में वा इस गली में आहार मिलेगा तो आहार लगा एक पहले ही घर में प्राहार मिलेगा तो लूगा अथवा धाता ऐसा होगा उसके पात्र वा भोजन पात्र ऐसे होंगे तो आहार लगा नहीं तो नहीं। इसप्रकार कठिनता से प्राहार प्राप्त होने के लिये प्रतिज्ञा कर लेना अथवा इसप्रकार पडगाहन होगा तो आहार लगा नहीं तो नहीं, इसप्रकार की प्रतिज्ञा कर लेना वृतिपरिसंख्यान तप है यह तप सर्वोत्कृष्ट है और इसके अनेक भेद हैं ॥१८०७-१८०८।। वृत्तिपरिसंख्यान तपका फल, उसे धारण करने की प्रेरणालपसानेन भायेत धीरस्वंयोगिनां परम् । प्राशान्तरायकरिणप्रणश्यस्ति व लौल्यताः ॥१८०६।। इत्याचस्य फलं मत्वादुर्लभाहार निबये । चतुःपपाविभि(रा: प्रतिज्ञामाचरन्तु भोः ।।१८१०।। अर्थ-इस तपश्चरण से योगियों में धोरवीरता उत्पन्न होती है, आशा और अन्तराय कर्म नष्ट होते हैं तथा लोलुपता नष्ट होती है । इसप्रकार इस तपके फल को समझकर धीर वीर पुरुषों को कठिमता से प्राहार प्राप्त करने के लिये ऊपर कहे अनुसार चौराहे आदि पर आहार लेने की प्रतिमा अवश्य करनी चाहिये ।।१८०६. १८१०॥ रस परित्याग तपका स्वरूपवषिदुग्धगुडाना व रसाना ससपियोः । लवणल्य कषायाम्लमपुराणजितेन्द्रियः ॥१८११॥ तिक्तस्य कटकल्पापि त्यागो गः क्रियतेजिनः । उक्त रसपरित्यागं तत्तपोक्षमान्तकम् ।।१८१२।। -इन्द्रियोंको जीतने वाले मुनिराज जो दही, दूध, गुड़, तेल, धौ, लवण, कवायला, खट्टा, मीठा, कश्या, तीखा आदि रसों का त्याग कर देते हैं उसको इन्द्रिय Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] [पाठम अधिकार और मद को नाश करनेवाला रसपरित्याग नामका तप भगवान जिनेन्द्रदेव कहते हैं । ॥१८११-१८१२।। मद्यादि त्याग की प्ररणामद्यमांसमधुम्येवनवनीतमिमाः सा । मिद्या विकृतयस्त्याज्यास्यतनः पापखानय ।।१८१३।। अर्थ--मद्य, मांस, मघ और नवनीत ये चारों ही पदार्थ निध हैं, विकार उत्पन्न करनेवाले हैं और पापको खानि है । इसलिये इन चारों का सदा के लिये त्याग कर देना चाहिये ॥१८१३॥ प्राचाम्ल और निविकृत माहार का स्वरूप तथा उसे लेने को प्रेग्णासदुष्णेकांजिके शुखमाप्लाध्यभुज्यतेशनम् । जितेन्द्रियस्तपोथं यदाधाम्लउच्यतेत्रसः ।।१८१४॥ प्राहारो भुज्यते दुग्धाविकपंघरतातिगः। दमनापरक्षशत्रणा य सा निविकृतिमंता ।।१८१५।। प्राचाम्लनिर्विकृत्याये तपसे तेमधे म्यहम् । पंचाक्षारातिघाताय कसंन्येविधिवदुषः ।।१८१६ । अर्थ-जितेन्द्रिय पुरुष अपना तपश्चरण बढ़ाने वाले जो गर्म कांजी में (भात के मांड में) शुद्ध पाहार मिलाकर पाहार लेते हैं उसको आचाम्ल कहते हैं। मुनिराज अपने इन्द्रियरूपी शत्रुओं को दमन करने के लिये दूध, दही आदि पांचों रसों से रहित नीरस आहार लेते हैं उसको निर्विकृत कहते है । बुद्धिमान मुनियोंको अपना तपश्चरण बढ़ाने के लिये और पांचों इन्द्रियरूपी शत्रुओंको नाश करने के लिये विधि पूर्वक पापरहित ऐसे आधाम्ल और निर्विकृत नामका आहार प्रतिदिन लेना चाहिये ।।१८१४. १०१६॥ रस परित्याग तपका फल एवं उसे करने की प्रेरणा - रसत्यागतपोभिवचम्ति नियमिजयः। रसादिमहवीर्य जायते च शिवं सताम् ।।१८१७।। विविस्वेति फलं चास्य महत्कुर्वन्तु संयताः । एक शाबिरस त्यागैरसत्यागतपः सदा ॥१८१८।। ___ अर्थ- इस रसपरित्याग नामके तपसे प्रबल इन्द्रियों का विजय होता है, रस ऋद्धि आदि महा शक्तियां प्रगट होती हैं और सज्जनों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसप्रकार इस तपका फल समझकर मुनियों को एक दो आवि रसों का त्याग कर इस रसपरित्याग तपको सवा धारण करते रहना चाहिये ॥१८१७-१८१८॥ विविक्त शय्यासन तपका स्वरूप-- नारीश्वीपशुक्लीवगृहस्थाविविवजिते । शून्यागारेश्मशानेवा प्रदेशे निजवने ॥११॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदोष ] ( २८४ ) [ षष्टम अधिकार्य विषयगुहा वा वाशयनासनम् । ध्यामाध्ययनसिद्धयं तद्विविक्तशयनासनम् ॥ १८२०॥ अर्थ – मुनिराज अपने ध्यान और अध्ययन को सिद्धि के लिये स्त्री, देवी, पशु, नपुंसक आदि तथा गृहस्थ जहां निवास न करते हों ऐसे सूने प्रदेशों में वा श्मशान में या निर्जन वन में प्रथवा गुफा आदि में शयन करते हैं था बैठते हैं उसको विविक्तशम्मासन नामका तप कहते हैं ।।१८१६ १८२०॥ विविक्त शय्यासन तपका फल उसे पालन करने की प्रेरणा ध्यानाध्ययननिविघ्ना रागद्वेषाविज्ञानयः । लभ्यन्तेतपसानेन साम्यताथा महागुणा। ॥। १८२१|| मी तपः कार्यं ध्यानादिसिद्धये वहम् | सरागस्यानकांस्त्यवत्वा स्थित्वा शून्यगृहादिषु ||२२|| अर्थ- इस तपश्चरण से ध्यान और अध्ययन निर्विघ्न रीति से होते हैं तथा रागद्वेष आदि कायों का सर्वशा नाश हो जाता है । इसके सिवाय इस तपश्चरण से समता आदि अनेक महागुण प्रकट हो जाते है। यही समझकर ध्यान अध्ययन आदि की सिद्धि के लिये मुनियों को राग उत्पन्न करनेवाले स्थानों का त्याग कर और निर्जन एकांत स्थान में निवास कर प्रतिदिन इस तपश्चरण का पालन करते रहना चाहिये । ।। १८२१-१८२२। कायक्लेश सपका स्वरूप कायोत्सर्गेकपारवदिशय्यावश्रासताविभिः । श्रातपनावियोश्च त्रिकाल गोचरैः परः ।। १५२३ ।। तपोवृद्धधा मनः शुद्धधा कायक्लेश विधीयते । म कायशर्महान्ये तत्कायक्लेशतपो महत् ।। २४ ।। अर्थ- मुनिराज शरीर के मुख की हानि के लिये तपश्चरण बढ़ाने के लिये मनकी शुद्धता के साथ-साथ कायोत्सर्ग धारण कर, एक कटसे सोकर वज्रासन आदि कठिन आसन लगाकर, वा वर्षा ग्रीष्म आदि तीनों ऋतुओं में होनेवाले उत्कृष्ट प्रातापनादिक कठिन योग धारण कर जो कायक्लेश सहन करते हैं उसको सर्वोत्कृष्ट कायक्लेश नामका तप कहते हैं ।। १८२३-२४ ।। कायक्लेश तप करने का फल एवं उसे धारण करने की प्रेरणाबर्खायामहीश्च सुखं त्रैलोक्यसंभवम् । कामेन्द्रियजयादीनिलभन्तेय फलादिः || १८२५ ।। विज्ञायेति सदा कार्य: कायक्लेशोपुखाकरः । निजशक्यनुसारेण विद्वद्भिः शिवशमं ।। १८२६।। अर्थ - इस तपश्वरण के फल से विद्वानों को बल ऋद्धि आदि अनेक महा ऋद्धियां प्राप्त होती हैं तीनो लोकों में उत्पन्न होनेवाला सुख प्राप्त होता है और कामे Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप ] ( २८५) [षष्ठम अधिकार न्द्रिय का विजय होता है । यही समझकर विद्वानों को मोक्ष सुख प्राप्त करने के लिये अपनी शक्ति के अनुसार अनेक गुणों की खानि ऐसा यह कायक्लेश नामका तप अवश्य धारण करना चाहिये ॥१८२५-१८२६।। बाह्य तपका स्वरूपयेन नोल्पयते पुसा संक्लेशो मनसोशुभः । वर्तते तपसाश्रद्धादुर्ध्यानाविपरिक्षयः । १८२७।। न हीयन्ते महायोगा बर्द्धन्ते प्रवरागुणाः । अभ्यन्तरतास्यवतद्वाह्य परमं तपः ॥१८२८॥ अर्थ-जिस तपश्चरणसे मनुष्यों के मनमें अशुभ संक्लेश उत्पन्न न हो, जिससे तपश्चरणमें श्रद्धा उत्पन्न होती रहे, अशुभञ्यानों का नाश होता रहे, महायोग वा धर्मशुक्ल ध्यान में किसी प्रकार की कमी न हो, श्रेष्ठ गुण बढ़ते जाय और अन्यन्तर तपश्चरण भी जिससे बढ़ते जांय उसको बाह्य परम तपश्चरण कहते हैं ॥१८२७-२८॥ अभ्यन्तर तप की वृद्धि हेतु बाह्य तप करने की प्रेरणाप्रभ्यन्तरतपोवृद्धयर्थ बाह्य निखिलं तपः । फोतिलंयोतरागेरध्यानाध्यमकारणम् ॥१८२६।। मत्स्यन्तस्तपणे बद्धनगोमा तपोधनाः । सर्वमान्त कमलामी शिवाय च ।।१८३०॥ अर्थ-भगवान सर्वज्ञवेव ने अभ्यन्तर तप को बढ़ाने के लिये ही ध्यान और अध्ययन का कारण ऐसा यह अनेक प्रकार का बाह्य तपश्चरण बतलाया है। यही समझकर तपस्वी लोगों को अपने अंतरंग तपको वृद्धि के लिये, कर्मों को नाश करने के लिये और मोक्ष प्राप्त करने के लिये अपनी समस्त शक्ति लगाकर इस बाट तपश्चरण को पालन करना चाहिये ॥१८२६-३०॥ अभ्यन्तर के कथन की प्रतिज्ञा और उसका स्वरूपइतिवाझ तपः सम्यगव्याख्याय श्रीजिनागमात् 1 इस ऊवं सता सिद्ध पक्ष्याम्यभ्यम्सरं तपः ।। ध्यक्त यन्नापरेषां पा तपः कतुं न शक्यते । मिथ्याग्भिः शस्तम्चाभ्यन्सरं प्रवरं तपः ।।३२।। अर्थ-इसप्रकार जैन शास्त्रों के अनुसार बाह्यतप का निरूपण अच्छी तरह से किया । अब आगे सज्जनों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये अभ्यन्तर तपका निरूपण करते हैं । जो तप धूसरों के द्वारा प्रगट दिखाई न दे, तथा मिथ्यादृष्टि प्रशानी जिस तपको धारण न कर सके उसको श्रेष्ठ अभ्यन्तर तप कहते हैं ॥१८३१-२२॥ अभ्यन्तर तप के भेवप्रायश्चित्तं च दोषनं निमयं सगुणाकरम् । यावत्यं तपः सारं स्वाध्यायो पर्मसागरः ॥३३॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( २८६) [ षष्ठम अधिकार कायोत्सर्गः शुभध्यानमित्यन्तः शुद्धिकारणम् । अन्यतरं सपः षोढास्यादन्तः शत्रुधातकम् ॥३४॥ मर्थ-समस्त दोषों को दूर करनेवाला प्रायश्चित्त, श्रेष्ठ गुणोंको खानि ऐसा विनय, तपश्चरण का सारभूत तप वैयावृत्ति, धर्मका सागर स्वाध्याय, तथा कायोत्सर्ग और अंतरंग को शुद्ध करनेवाला शुभध्यान यह छह प्रकार का अंतरंग तप है यह छहों प्रकार का अंतरंग तप समस्त अंतरंग शत्रुओं को नाश करनेवाला है ॥१८३३-३४।। प्रायश्चित्त तपका स्वरूप ब उसके भेदकृतोवो मुनियेनवियुद्धपतितरां धूपं शतनामयि पशुद्धिनम् ।१८३५।। प्रासोचनं च बोषध्नं प्रतिक्रमणमूजितम् । ततस्तदुमय सारं विवेको गुणसागरः ।।१८३६।। कायोत्सर्गस्तपरच्छेवो मूल दोषक्षयंकरम् । परिहारमधश्रद्धानं प्रायश्चित्तं दश त्मकम् ॥१८३७।। अर्थ-जिस ध्यानसे मुनियों के व्रतों में लगे हुए वोष शुद्ध हो जाय उसको प्रायश्चित्त कहते हैं, इस प्रायश्चित्त के वश भेद हैं और यह समस्त व्रतों को शुद्ध करने वाला है । दोषों को नाश करनेवाली आलोचना १, उत्कृष्ट प्रतिक्रमण २, सारभूत सदभय ३, गुणोंका सागर ऐसा विवेक ४, कायोत्सर्प ५, तप ६, छेव ७, दोषों को क्षय करनेवाला मूल ८, परिहार है, और श्रद्धान १०, यह दश प्रकार का प्रायश्चित्त कहलाता है ।।१८३५-३७॥ पालोचना प्रायश्चित्त का स्वरूप-- प्रायश्चिसावितिद्धातविक्षः सूरेः रहस्यपि । पंचाचाररतस्यान्ते यक्वामायां निवेदनम् ॥३॥ यद्विशुद्ध बतायोनायोगः कृतादिकर्मभिः । कृतातीधारकरस्नानां तबालोचनमुध्यते ॥१३॥ अर्थ-जो प्राचार्य प्रायश्चित्त और सिद्धांतशास्त्रों के जानकार हैं और जो पंचाचार पालन करने में लीन हैं, उनके समीप एकांत में बैठकर अपने व्रत तप आदि की शुद्धि के लिये बिना किसी छलकपटके मन-वचन-काय और कृत कारित अनुमोदना से किए हुए समस्त अतिचारोंका निवेदन करना अालोचना कहलाता है ॥१८३८-३६।। आपितादि दोष से रहित मालोचना करना चाहियेप्राकंपिताख्यो बोषोऽनुमानितोवृष्टसंजकः । वारः समदोषाध्छनः शब्याकुलिताद्वयः ।।४।। शोषो बहुजनो व्यक्तस्तत्सेविससमाह्वयः । वशनोषा प्रमोत्याग्या पालोचनस्य संपतैः ॥१८४१।। अर्थ-इस आलोचना के प्रापित, अनुमानित, दृष्ट, वादर, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त, तत्सेवित ये बश दोष हैं । मुनियों को इन दश वोषों से Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] (२७) [ षष्ठम अधिकार रहित आलोचना करनी चाहिये ॥१८४०-४१॥ प्रापित दोष का स्वरूपरम्योपकरणे इत्ते ज्ञानावासति चापरे । तुष्ट सरिममप्रावरियक्षस्तोक हि सस्पति ॥१९४२।। मवेतिप्राप्रदायोच्च ज्ञानरेपकरणाविकम् । सरेरालोधनं यत्सदोष प्राप्तिाह्वयः ॥१८४३।। अर्थ-यदि प्राचार्य महाराज को कोई सुन्दर ज्ञानोपकरण दे दिया जाय तो प्राचार्य सन्तुष्ट हो जायेंगे और मुझे बहुत थोड़ा प्रायश्चित देंगे । यही समझकर ओ प्राचार्य को पहले ज्ञानोपकरणादिक देता है और फिर उनके समीप जाकर आलोचना करता है उसको प्राकंपित नामका दोष कहते हैं ।।१८४२-४३।। ___अनुमानित दोष का स्वरूपपित्ताधिकः प्रकृत्याहं दुषलोग्लान एव च । नालं कर्तुं समर्थोऽस्म्युपवासाविकमुल्बरणम् ।।१८४४।। यदि मे दीयतेस्वल्पंप्रायश्चितं ततः स्फुटम् । करिष्यत्ययोषाणां सर्वेषां च निवेदनम् ।।४५।। नायथेतियचोनोमवा क्रियते भूरिस निधी । शिध्येरालोचनं यास दोषोनुमानिताभिधः ॥१८४६।। ___ अर्थ-मेरे शरीर में पित्त प्राकृतिका अधिक प्रकोप है अथषा मैं स्वभाव से ही दुर्बल हूं, अथवा मैं रोगी हूं इसलिये मैं अधिक बा तोत्र उपवासादिक नहीं कर सकता । यदि मुझे बहुत थोड़ा प्रायश्चित्त दिया जायगा तो मैं अपने समस्त दोषों का निवेदन प्रगट रीति से कर दूंगा अन्यथा नहीं इसप्रकार कहकर जो शिष्य प्राचार्य के समीप अपने दोष निवेदन करता है उसको अनुमानित दोष कहते हैं ॥१८४४.४६॥ दुष्ट दोष का स्वरूपअन्यरदृष्ट दोषारणा कृत्योपगृहनं च यत् । कवनं दृष्टदोषाणां दृष्टदोषः स उच्यते ॥१८४७॥ अर्थ- जो शिष्य दूसरों के द्वारा बिना देखे हुए वोषों को तो छिपा सेता है और देखे हुए दोषों को निवेदन कर देता है उसके पालोचना का दृष्ट नाम का बोष लगता है ॥१८४७।। चादर दोष का स्वरूपबालस्याचप्रमादावाह्य ज्ञानाद्वालसंयत्तः । अल्पापराधराशीना निवेदनादते भुवि ॥१४॥ प्राचार्यनिकटेयवस्थूलदोषनिवेदनम् । विषीयते स दोषश्चतुर्थो वाइरसंशकः ॥१४॥ अर्थ-जो बालक मुनि वा अज्ञानी मुनि अपने प्रालस प्रमाद वा प्रज्ञान से छोटे-छोटे अपराधों को तो निवेदन नहीं करता किंतु अपने आचार्य से स्थूल दोषों को । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ षष्ठम अधिकार मूलाचार प्रदीप ] ( 355 ) निवेदन करता है उसको चौथा वादर नामका दोष कहते हैं ।।१८४८-४६ सूक्ष्म दोष का स्वरूप -- writ geeरप्रायवित्तादिभयतोषवा । प्रयं सूक्ष्मातिचाररणां परिहारक ऊर्जितः ||१८५० ॥ अहोमत्येतयः स्वगुणस्थापनेच्या स्थूलदोषशतायोना कृत्यासंवरणं महत् ।। १८५१ ।। सूरेमहाव्रतादीनां स्वल्पवोषनिवेदनम् । मायया क्रियते यत्स दोषः सूक्ष्माभिधानकः ।। १८५२ ।। अर्थ - जो प्रज्ञानी मुनि अपने अपयश के डर से अथवा कठिन प्रायश्चित्त के डरसे, अथवा "देखो इसके कैसे शुद्ध भाव हैं जो सूक्ष्म दोषों को भी अच्छी तरह प्रगट कर देता है" इसप्रकार के अपने गुणों के प्रगट होने की इच्छा से सैकड़ों बड़े-बड़े स्थूल दोषों को तो छिपा लेता है तथा मायाचारी से श्राचार्यके सामने महाव्रताविकों के सूक्ष्म दोषोंको निवेदन कर देता है उसको पांचवां सूक्ष्म नामका दोष कहते हैं ।। १६५०-५२ ॥ छत्र नामक दोष का स्वरूप ईशे सत्यतीचारे प्रायश्चिसं हि कीदृशम् । इत्युपायेन पृष्ट्वा स्वगुरु सुश्रूषया ततः ।। १८५३ ।। स्वषामये शिष्यैः प्रायश्चिर्श विधीयते । यवकीर्तिभयात्लोके छतदशेषः स वोषवः ।। १८५४ ।। I अर्थ – जो शिष्य लोक में फैलने वालो अपनी अपकीति के भयसे अपने दोनों को दूर करने के लिये सुश्रूषा करके गुरुसे पूछता है कि हे स्थामिन् 'इसप्रकार अतिचार लगने पर कैसा प्रायश्चिस होना चाहिये" इसप्रकार किसी भी उपाय से पूछकर वह जो प्रायश्चित्त लेता है, वह अनेक दोषों को उत्पन्न करने वाला छन नाम का वोष कहलाता है ||१८५३-५४।। शब्दाकुलित दोष का स्वरूप -- पाक्षिके दिवसे चातुर्मासिके शुभकर्मरिण । वा सांवत्सरिके तीब समवाये महात्मनाम् ।।१८५५ ।। स्वस्मालोश्चम संजाते बहुशब्दाकुलसति । मद्दोष कथनं बोष. शब्दाकुलित एवं स ।। १८५६ । । 3 अर्थ --- जिस समय पाक्षिक मालोचना हो रही हो अथवा देवसिक वा चातुमासिक आलोचना हो रही हो अथवा वार्षिक मालोचना हो रही हो अथवा किसी शुभ काम के लिये महात्माओं का समुदाय इकट्ठा हुआ हो तथा सब इकट्ठे मिलकर अपनी-अपनी आलोचना कर रहे हों और उन सबके शब्द ऊंचे स्वर से निकल रहे हों 'उस समय अपने दोष कहना जिससे किसी को मालूम न हो सके उसको शब्दाकुलित दोष कहते हैं ।। १८५५-५६ ॥ ★ * Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २८६) [ 31 अधिकार बहुजन नामक दोष का स्वरूपगुरूपपावितं प्रायश्चित्तं युक्तिमिवं नवा । प्रायश्चित्ताविसदनथे होतिशंका विघाय यस् ॥१८५७।। निकटेऽपरसूरोरणां प्रश्नो विधीयते बुधः । दत्तदण्डस्य निद्यः स दोषो बहुजनात्यकः ॥१८५८।। अर्थ-प्राचार्य ने किसी शिष्य को प्रायश्चित्त दिया हो और फिर यह यह शंका करे कि आचार्य महाराज ने जो यह प्रायश्चित्त दिया है वह प्रायश्चित्त ग्रंथों के अनुसार ठीक है या नहीं तथा ऐसी शंका कर जो दूसरे किसी आचार्य से पूछता है उस समय उस प्रायश्चित्त लेनेवाले के बहुजन नामका दोष लगता है ।।१८५७-१८५८॥ अव्यक्त नामक दोष का स्वरूपस्वसमानयतेरन्ते यद्दोषालोचनं महत् । जिनागमानभिज्ञस्य वोषोऽस्याय्यक्त संज्ञकः ।।१८५६।। अर्थ-जो मुनि जिनागमको न जानने वाले अपने ही समान किसी मुनि के समीप जाकर अपने बड़े-बड़े दोषों को पालोचना करता है, आचार्य से पालोचना नहीं करता है उसके अव्यक्ती नामका दोष लगता है ।।१८५६।। तत्सेवित नामक दोष का स्वरूपसमानोस्यापराधेन मेति चारो प्रतस्य वै । प्रस्म यद्गुरुरणा दत्तं प्रायश्चित्तं तदेव हि ॥१८६०।। ममाप्याचरितु युक्त मस्वेत्यालोचना विभा। तपोभिः शोधनं यत्स दोषस्तत्सेविताभिषः ॥६१।। अर्थ- जो मुनि यह समझकर कि मेरे व्रतों में जो अतिचार लगा है वह ठीक बसा ही है जैसा कि अमुक मुनि के व्रतोंमें अतिचार लगा है इसलिये आचार्य महाराज ने जो प्रायश्चित इसको दिया है वही प्रायश्चित्त मुझे ले लेना चाहिये । यही समझकर जो बिना आलोचना के तपश्चरण के द्वारा अपने व्रतोंको शुद्ध करता है उसके तत्सेवित नामका दोष लगता है ॥१६६०-१८६१॥ दोष सहित पालोचना से व्रतों को शुद्धि नहींअभीषा केनचिदोषेणान्वितालोचनं कृतम् । मायाविना सशल्यानां मनाकशुद्धिकरं न हि ॥६२।। अर्थ- जो मायाचारी शल्यसहित मुनि इन वश वोषों में से किसी भी दोषके साथ पालोचना करते हैं उनकी उस मालोचना से व्रतों को शुद्धि थोड़ी सी भी नहीं होती ॥१८६२॥ दोष रहित मालोचना से ही व्रतों की शुद्धिवशोषामिमांस्स्यपत्या बालकरिवसंयतः । स्वोषकथमं यस्क्रियते शुद्धिकरं हि तत् ।।१८६३॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २६०) [ षष्ठम अधिकार अर्थ-जो मुनि इन वश दोषों को छोड़कर बालक के समान सरल स्वभाव से अपने दोषों को कह देते हैं उन्हीं को पालोचना से उनके सम प्रत शुद्ध हो जाते हैं। ॥१५६३॥ ___ मलीन दर्पण सदृश्य प्रालोचना बिना महाप्रत सार्थक नहींमहत्तपोवतंसर्व बानालोचनपूर्वकम् । न स्थकार्यकर जातु मलिनावर्शववि ॥१८६४॥ अर्थ-जिसप्रकार मलिन दर्पण अपना कुछ काम नहीं कर सकता उसमें मुख नहीं दिख सकता उसी प्रकार महा तपश्चरण और महानत भी बिना आलोचना के अपना कुछ भी काम नहीं कर सकते, अर्थात् उनसे कर्मों का संवर वा निर्जरा नहीं हो सकती ॥१८६४॥ शुद्ध हृदय से दोषों को प्रगट करना चाहिये--- विदित्येतिधिरं चित्रे व्यवस्थाप्यस्वदूषणम् । प्रकाशनीयमस्यर्थ गुरोरन्तेशुभाशयः ॥१८६५।। अर्थ-यही समझकर अपने हृदय में अपने दोषोंको अच्छी तरह समझ लेना चाहिये और फिर अपने शुद्ध हृदय से गुरु के समीप उन दोषों को प्रगट कर देना चाहिये ॥१८६५॥ दोषों की आलोचना कब किस विधि से करेंसुरेरेकाकिनः पार्वे स्वदोषाणां प्रकाशनम् । अद्वितीयस्यशिष्यस्यैकान्तेप्युक्त न धान्यथा ॥६६॥ प्रकाशे दिवसेसूरेरन्ते स्वालोधनादिकम् । प्रायिकायाः सतामिष्टं तृतीये सज्जनेसति ॥१८६७।। अर्थ-जिस समय प्राचार्य एकांत में अकेले विराजमान हों उस समय अकेले शिष्य को उनके समीप जाकर अपने दोष कहने चाहिये किसी के सामने अपने दोष नहीं कहने चाहिये । अजिकाएं दिन में ही प्रकाश में ही किसी को साथ लेकर आचार्य के समीप जाकर अपने दोषों की आलोचना करती हैं ऐसा सज्जन लोग कहते हैं । ॥१८६६-१८६७।। प्रायश्चित्त लेने में प्रमाद नहीं करना चाहियेकृतालोचनदोषो यो न सदोषापहं तपः । कुर्यात्तस्य न जायेत मनाकशुद्धिः प्रमाविनः ।।१६६८।। विनायेति हुतं कार्य प्रायश्चित्तं मलापहम् । न चास्याधरणेकिचिनिषेयं काललधनम् ।।१८६६।। अर्थ--जो मुनि दोषों को पालोचना कर लेता है परन्तु उस दोष को दूर करनेवाले तपश्चरणको नहीं करता उस प्रमादीके शोषों को शुद्धि कभी नहीं हो सकती। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलानार प्रदीप ( २९१) [षष्ठम अधिकार यही समझकर शिष्यों को बहुत ही शीघ्न दोषों को दूर करनेवाला प्रायश्चित्त लेना चाहिये । प्रायश्चित्तके लेने में थोड़ीसी भी देर नहीं करनी चाहिये ।।१८६८-१८६६।। प्रतिक्रमण का स्वरूप--- विनाविजनतातीबाराणां निंदनगर्हणः। विशोषनंत्रिशुसमा परप्रतिक्रमणमेवतत् ।।१८७०।। अर्थ---विन वा रात के व्रतों में जो अतिचार लगे हों उनको मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक निवा, गर्हा आदि के द्वारा शुद्ध करना प्रतिक्रमण कहलाता है। ॥१८७०॥ आलोचना सहित प्रतिक्रमण का स्वरूप-- कश्चिद्दोषोव्रतादीनां नश्यत्मालोचनाद्भुतम् । दुःस्वप्नादिजकर्मा यःसत्प्रामणेन च ।।१९७१।। मत्त्यारोपनापूर्व प्रति नाजसा । पाकिस्मो मार हि तत् ॥१८७२।। अर्थ-व्रतादिकों के कितने ही दोष आलोचना से नष्ट होते हैं और दुःस्वप्न आदि से उत्पन्न होनेवाले कितने ही दोष प्रतिक्रमण से नष्ट होते हैं । यही समझकर पाक्षिक चातुर्मासिक वार्षिक दोषों को दूर करने के लिये वचनपूर्वक जो पालोचना सहित प्रतिक्रमण किया जाता है उसको तदुभय कहते हैं ॥१८७१-१८७२।। विवेक नामक प्रायश्चित्त का स्वरूपद्रश्यक्षेत्रानपानोपकरणाविषु पोषतः । निर्वर्तन हत्यात सविधेको य नेकधाथवा ॥१८७३१५ प्रत्याश्यानस्य वस्तीग्रहोविस्मरणात्सति । स्मृत्वा पुनश्च तत्यागो यो विवेकः स कप्यते ॥४॥ अर्थ--द्रव्य, क्षेत्र, अन्न, पान, उपकरण आदि के दोषों से शुद्ध हृदयसे अलग रहना विवेक है । यह विवेक अनेक प्रकार का है । अथवा भूल से त्याग को हुई वस्तु का ग्रहण हो जाय और स्मरण हो आने पर फिर उसका त्याग कर दिया जाय उसको विवेक कहते हैं ।।१८७३.१८७४।। कायोत्सर्ग नामक प्रायश्चित्त का वर्णनदुश्चिन्तन सं दुःस्वप्नदुर्ध्यानाय मल प्रवः । मार्गवजनमद्याच तरणंरपरेदशः ॥१८७५।। जातातीचारशुरुघर्थमालंध्यध्यानमुत्तमम् । कामस्य स्थजन युक्त्यामरस युस्सगं जितः ॥१८७६॥ अर्थ-अशुभ चितवन, आर्तध्यान, दुःस्वप्न, बुान आदि से उत्पन्न हुए दोषों को शुद्ध करने के लिये अथवा मार्ग में बलना, नवी में पार होना तथा और भी ऐसे ही ऐसे कामों से उत्पन्न हुए अतिचारों को शुद्ध करने के लिये उत्तम ध्यान को Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाचार प्रदीप ] ( २६२ ) [ षष्ठम अधिकार धारण कर जो युक्तिपूर्वक शरीर के ममत्व का त्याग करता है उसको श्रेष्ठ कायोत्सर्ग कहते हैं ।। १८७५-१८७६ ॥ तप नामक प्रायश्चित्त का वर्णन व्रतातीचारमाशायोपवासाचाम्लयोमु वा । तथा निविकृतेरेकस्थानावे: करणं तपः || १८७७ ॥ अर्थ-व्रतों के अतिचारों को दूर करने के लिये उपवास करना, आचाम्ल करना, निविकृति ( रसत्याग) करना अथवा एकाशन करना आदि लप कहलाता है । ।।१८७७ ।। मुनि की उपरोक्त ६ प्रकार के यथायोग्य प्रायश्चित्त देना चाहियेभोन्मादमा दानवदोषाशक्तिकारणः । श्रन्यविस्मरणार्थ श्च जातातीधारहानये ।। १८७८ ।। तादीनां प्रदातव्यं पूर्वोक्तं षड्विधं यते । प्रायश्चितंयथायोग्यंशक्तस्येहे तरस्य च ॥ १८७६ ॥ अर्थ - यदि किसी भयसे, उन्मादसे, प्रमादसे, अज्ञानतासे वा असमर्थता से अथवा विस्मरण हो जाने से या और भी ऐसे ही ऐसे कारणों से व्रतों में प्रतिचार लगे हों तो उनको दूर करने के लिये समर्थ अथवा असमर्थ मुनि को अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार ऊपर लिखे छहों प्रकार के प्रायश्चित्त देने चाहिये ।।१८७८ १८७६ ॥ छेद नामक प्रायश्चित्त का स्वरूप fare प्रवृजितस्यैव शूरस्य गवितस्य था । कृतदोषस्य मासादिविभागेन च योगिनः ॥ १८८० ॥ छित्वा प्रजनं तद्दीक्षया लघुमहात्मनाम् । प्रधोभागे किलावस्थापनं यच्छेद एव सः ।। १६८१ ।। अयं - यदि कोई मुनि चिरकालका दीक्षित हो वा शूरवीर हो वा अभिमानी हो और वह अपने वृतोंमें दोष लगावे तो उसको एक महीना, दो महीना, एक वर्ष, दो वर्ष आदि की दीक्षा का छेद कर देना और उसको उससे छोटे मुनियों से भी ( उसके बाव बीक्षित हुए मुनियों से ) नीचे कर देना छेद नाम का प्रायश्चित्त कहलाता है । ।। १८८०-१६८१॥ मूल नामक प्रायश्चित्त का स्वरूप पार्श्वस्थाविकपचानां महावोधकृत पुनः । वासेविनां दीक्षादानं मूलमिहोच्यते || १६६२ ।। अर्थ- जो महा दोष उत्पन्न करनेवाले पार्श्वस्थ आदि पांच प्रकार के मुनि हैं अथवा जिन्होंने अपने ब्रह्मचर्य का घात कर दिया है, ऐसे मुनियों की सब दीक्षा का 4 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + मूलाचार प्रदीप ] ( २९३ ) छेद कर उनको फिर से दीक्षा देना मूल नामका प्रायश्चित्त है ॥१८८२ ।। परिहार नामके प्रायश्चित्त का स्वरूप व उसके भेद- परिहारोतुस्थापन पारंचिक प्रभवतः । द्विविधः प्रोदितो ऋषि तिक संहननस्य वै ।।१८८३ ।। अर्थ- परिहार प्रायश्चित्तके वो भेद हैं एक अनुपस्थान श्रौर दूसरा पारंचिक । यही परिहार नामका प्रायश्चित्त पहले के तीन संहननों को धारण करने वालों को हो दिया जाता है । १६८३॥ [ षष्ठम अधिकार अनुस्थापन प्रायश्चित्त का भेद स्वस्यापरस्याभ्यां गरस्य श्रीगणाधिपैः । अनुपस्थापनं देवा कीर्तितं श्रीजिनागमे ।। १८८४ ।। अर्थ - - भगवान गरणधरदेव ने अपने जिनागम में अनुस्थापन के भी दो भेद कहे हैं, एक तो अपने ही संघमें अपने ही प्राचार्य से परिहार नामका प्रायश्चित्त लेना और दूसरा दूसरे गण में जाकर प्रायश्वित्त लेना ।। १८८४ ।। स्वगण धनुस्थापन प्रायश्चित्त किसे देवें— अन्य संयत सम्बन्धिनं यत नायिकां शुभम् । छात्रं बालं गृहस्थं वा परस्त्री चेतनेतरम् ॥१८८५|| arjunfett वा योsपहरे च्चौर्य कमरणा । सुनीन्हन्ति तथेत्यादि विरुद्धाचरणं चरेत् ।। १८६६ ॥ नवाना वा दशानां वा पूर्वारणां धारकोमहान् । चिरप्रवृतिः शूरो जिस शेष परीषहः ॥ १८८७ ॥ दूधर्मी च तस्यैव प्रायश्चितं जिनमसम् । अनुपस्थापनं स्वस्यगणाख्यं नामरस्य वं ।। १८८८ || अर्थ- जो मुनि चोरी करके अन्य मुनि के साथ रहनेवाले किसी मुनि को, अच्छी जिका को, विद्यार्थी को, बालक को, गृहस्थ को वा परस्त्री को अथवा द्रव्य पाखंडियों के अन्य प्रचेतन पदार्थों को अपहरण करले अथवा किसी मुनिको मार डाले श्रथवा ऐसा ही कोई अन्य विरुद्धाचरण करे तथा वह मुनि नौ वा वश पूर्वका घारी हो उत्कृष्ट हो चिरकाल का दीक्षित हो, शूर हो, समस्त परीषहों को जीतनेवाला हो और वृढ़ धर्मों हो ऐसे मुनिको भगवान जितेन्द्रदेव ने अपने ही गणका अनुस्थापन प्रायश्चित्त बतलाया है, उसके लिये परगण सम्बन्धी अनुस्थापन प्रायश्चित नहीं बतलाया । ।।१८६५-१६६८ ।। स्वग अनुस्थापन प्रायश्चित्त को विधि- सेन शिष्यामाद्वात्रिंशदण्डान्तर भूतलम् । विहरेत ववन्ते नित्यं वीक्षया लघुसंयतान् ॥८॥ लभले महि तेम्य: प्रतिवदनांसहाखिलम् । गुरूणां लोचनं कुर्यान्मौनं साद" योगिभिः ॥६०॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप (२६ ) [ षष्टम अधिकार घवापरामुखांपिच्छिका चरेत्पारणं सदा । पंचपंचोपदासजघन्येनोत्कृष्टतो मुदा ।।१८६१॥ षण्मासमध्यमः शक्त्या बहुभेदमहाबलः । प्रायश्चित्तं करोत्येवं विषवर्षान्तमङ्ग तम् ॥१८६२॥ अर्थ- इस स्वगण अनुस्थापन प्रायश्चित्त को धारण करनेवाला मुनि शिष्यों के आश्रम से बत्तीस दंड दूर रहता है, जो अन्य मुनि दीक्षासे छोटे हैं उनको भी वंदना करता है परन्तु वे छोटे मुनि भी उसको प्रतिवंदना नहीं करते। वह मुनि मौन धारण करता है अन्य मुनियों के साथ गुरु के सामने मौन धारण करता हुअा ही समस्त दोषों को आलोचना करता है और अपनी पोछोको उलटी रखता है । कम से कम पांच-पांच उपवास करके पारणा करता है तथा अधिक से अधिक छह महीने का उपवास कर पारणा करता है और मध्यम वृति से छह दिन, पन्द्रह दिन, एक महीना आदि का उपवास कर पारणा करता है । इसप्रकार बह शक्तिशाली मुनि अपनी शक्तिके अनुसार अनेक प्रकार के उपवास करता हुआ पारणा करता है और इसप्रकार के अद्भत प्रायश्चित्तको वह बारह वर्ष तक करता है ॥१८८६-१८१२॥ परगण अनुस्थापन प्रायश्चित्त किसे देवें-- स एष दर्पतो वोवान्प्रागुतान् नाचरेद्यदि । भयेत्परगणोपायापमं बोध सयंकरम् ।।१८६.३।। ___ अर्थ-यदि वही चिर दीक्षित शुरवीर मुनि अपने अभिमान के कारण ऊपर लिले दोषों को लगा तो उसके लिये आचार्यों ने समस्त दोषों को दूर करनेवाला परगणोपस्थापन नामका परिहार प्रायश्चित्त बतलाया है ॥१८९३॥ परगण अनुस्थापन प्रायश्चित्त की विधिसापराधः प्रतव्यः सरिता गणितंप्रति । सोप्याचार्यों गिराकर्ण्य सस्थालोचममंजसा ॥१६॥ प्रायश्चित्तमत्त्वाचार्मान्तरंभापयेध तम् । इत्येवं न प्रोतव्योयावत्सरिश्मसम्तमः ॥१५॥ प्रेषितः पश्चिमेनष पूर्वाचार्यप्रतिस्फुटम् । प्रायश्चित्त घरेत्सर्वप्रागुक्त स बलान्वितः ॥१८६६।। अर्थ- उसकी विधि यह है कि आचार्य उस अपराधी को प्रन्य संघके भाचार्य के पास भेजते हैं। वे दूसरे प्राचार्य भी उसकी कहो हुई सब आलोचना को सुनते हैं तथा बिना प्रायश्चित्त दिये उसको तीसरे आचार्य के पास भेज देते हैं। वे भी मालोचना सुनकर चौथे आचार्य के पास भेज देते हैं । इसप्रकार यह सात आचार्यों के पास मेमा जाता है । सातवें आचार्य आलोचना सुनकर उसको उसके ही गुरुके पास अर्थात पहले ही आचार्य के पास भेज देते हैं। तदनन्तर ये आचार्य ऊपर लिखा परिहार नामका प्रायश्चित्त देते हैं और वह शक्तिशाली मुनि उस सब प्रायश्चित्त को धारण करता है। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २६५) [ षष्ठम मधिकार ।।१८९४-१८९६॥ पारंचिक प्रायश्चित्त कहने की प्रतिज्ञापरिहारस्य मेदोयं द्विधाप्रोक्तो जिनागमात् । पारंचिकमितो वक्ष्ये प्रायश्चित्तं सु दुष्करम् ।।६७॥ अर्थ-इसप्रकार जैन शास्त्रोंके अनुसार परिहार प्रायश्चित्तके दोनों भेद बतलाये । अब आगे अत्यंत कठिन ऐसे पारंचिक नामके प्रायश्चित्तको कहते हैं ॥१८६७।। पारंचिक अनुपस्थान प्रायश्चित्त का स्वरूपतोकृद्गणमृसंघजिनसूत्रादिमिणाम् । करोत्यासादनं राणाननुमत्या दवाति यः ॥१८६८॥ मिनमुद्राममात्यादीनां भजेव्राजयोषितः । इत्यायन्य दुराचारः कुर्याजमस्य दूषणम् ||१८६६॥ सस्य पारंचिकप्रायश्चिसं भवति निश्चितम् । भातुवर्णस्वसंघस्थाः संभूयश्रमणा भुवि ।।१६००। एषोऽबंधोमहापापी बाह्यः श्रीजिनशासनात् । घोषयित्वेतिदत्त्वानुपस्थापन सुदुष्करम् ।।१६०१।। प्रायश्चित्तं स्वदेशातं निर्घाटयन्तिदोषिणाम् । स्वधर्मरहिते क्षेत्रे सोपिगत्वा महावल: ।।१६०२।। दृढसंहननो धीरः प्रागुक्त कमलाचरेत् । प्रवरा गुरुणा सर्व प्रायश्चितं विशुद्धिदम् ।। १६०३।। प्रध-जो भनि तीर्थकर, गणधर, संघ, जिनसत्रको निदा करता है धर्मात्माओं को निवा करता है अथवा बिना राजा की सम्मति के उसके मंत्री आदि को जिनदीक्षा दे देता है अथवा राजघराने की स्त्रियों को सेवन करता है अथवा और भी ऐसे ही ऐसे दुराचार कर जो जिनधर्मको दूषित करता है उसके लिये प्राचार्यों ने पारंचिक नामका प्रायश्चित्त निश्चित किया है । उस प्रायश्चित्त को देते समय अपने संघके चारों प्रकार के मुनि इकट्टे होते हैं और मिलकर घोषणा करते हैं कि यह मुनि महा पापी है, इसलिये अवंदनीय है और श्री जिनशासन से बाहर है। तदनंतर वे प्राचार्य उसको अत्यंत कठिन अनुपस्थापन नामका प्रायश्चित्त देते हैं । तथा उस अपराधो मुनि को वे आचार्य अपने देश से निकाल देते हैं। मजबूत संहनन को धारण करनेवाला धीर वीर महाबलवान् वह मुनि भी जिस देश में जिनधर्म न हो उस क्षेत्र में जाकर गुरु के दिए हुए समस्त दोषों को शुद्ध करनेवाले पूर्ण प्रायश्चित्त को अनुक्रम से पालन करता है । इसको पारंचिक अनुस्थापन प्रायश्चित्त कहते हैं ॥१८६८-१९०३॥ श्रद्धान नामक प्रायश्चित्त का स्वरूपमियादृष्टयुपदेशगाचं मिथ्यात्वं च गतस्य या। वृग्विशुध चिस्तस्वादोश्रद्धानं तव तम् ।। अर्थ-मिथ्याष्टियों के उपदेशाविक से जिसने मिथ्यात्व को धारण कर Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] (२६६ ) [ षष्ठम अधिकार लिया है वह यदि अपना सम्यग्दर्शन शुद्ध करने के लिये तत्वों में वा देव शास्त्र गुरु में श्रद्धान कर लेता है उसको उत्तम श्रद्धान नामका प्रायश्चित्त कहते हैं ॥१९०४।। १० प्रकार के प्रायश्चित्त पालन करने को प्रेरणाएतद्दश विघंप्रायश्चित्तं तद्वतशुद्धये । युवस्या कालानुसारेण कसंव्यं मुनिभिः सदा ॥१६०५।। अर्थ-श्रेष्ठ व्रतों को शुद्ध करने के लिये यह दश प्रकार का प्रायश्चित्त मतलाया है मुनियों को अपने-अपने समय के अनुसार युक्ति पूर्वक इनका पालन करना चाहिये ।।१६०५॥ प्रायश्चित्त नहीं लेने से हानि का वर्णन दृष्टान्त पूर्वकयो महत्त्वतपो मरवा प्रायश्चित्तं करोति न प्रतादिदोषशुद्धचर्य शठात्मा गविताशयः ॥१९०६॥ तस्पसवंतपोधत्तं तद्दोषो नाशयेश्रुतम् । सहाखिलगुणोघः कुथितताम्बूलपत्रवत् ।। १९०७।। अर्थ-जो मूर्ख अभिमानी मुनि अपने तपश्चरणको महा तपश्चरण समझकर प्रताविक के दोषों को शुद्ध करने के लिये प्रायश्चित्त नहीं करता उसके समस्त व्रतों को तथा समस्त तपश्चरण को वे दोष शीघ्र ही नष्ट कर देते हैं तथा उन व्रत और तपके नाश के साथ-साथ उसके समस्त गुण नष्ट हो जाते हैं। जैसे कि सड़ा हुआ एक पान अन्य सब पानों को सड़ा देता है । उसीप्रकार एक ही दोष से सब व्रत तप गुण नष्ट हो जाते हैं ॥१६०६-१६०७॥ प्रायश्चित्त पालन करने का फलप्रायश्चित्तेननिःशल्यंमनोभवति निर्मलाः । दृशानायागुणोधाः स्युश्चारित्रं शशिनिमलम् ।। संघमाग्यमभीतिः स्थानिः शल्यंमरणोत्तमम् । इत्याया बहवोन्मेत्र जायन्ते सब गुणाः सताम् ।। अर्थ- इस प्रायश्चित्त को धारण करने से मन शल्य रहित हो जाता है, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानाविक गुणों के समूह सब निर्मल हो जाते है, चारित्र चन्द्रमा के समान निर्मल हो जाता है, ये मुनि संघ में माननीय माने जाते हैं, उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं रहता और उनका मरण शल्प रहित सर्वोत्तम होता है । इसप्रकार प्रायश्चित्त धारण करने से सज्जनों को बहुत से गुण प्रगट हो जाते हैं ।।१६०८-१६०६॥ पुनः प्रायश्चित्त धारण करने की प्रेरणाविज्ञायेति यदा कश्विदोषः उत्पद्यते व्रते । प्रायश्चित्तं तवैवात्र कर्तव्य तढिशुद्धये ।।१६१०॥ अर्थ-यही समझकर मुनियोंको अपने व्रतोंमें जब कभी दोष लग जाय उसी Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २६७ ) [ षष्ठम अधिकार समय में अपने बूतोंको शुद्ध करने के लिये प्रायश्चित्त धारण करना चाहिये ।।१६१०॥ विनय का स्वरूप और उसके भेद कषायैन्द्रिय चौराणां शवस्था विजयं वसात् । विनयो वा सतानीचैव लिरत्नत्रयस्य यः ।। १९११ ।। aar: प्रोक्तोनियोऽनिष्टघात कः । विश्वविद्याकरीभूतः पंचषागुणसागरः ॥१६१२ ॥ ज्ञानचारित्रतपसां विनयोमहान् । उपचाराभिद्यश्चेति विनयः पंचधा मतः ॥ ११३ ॥ अर्थ- कषाय और इन्द्रिय रूपी चोरों को अपनी शक्ति के अनुसार बलपूर्वक जोतना विनय है । अथवा सज्जनों के प्रति नम्रता धारण करना वा रत्ननयकी विनय करना रत्नत्रय को धारण करनेवालों को विनय करना सज्जन पुरुषों के द्वारा विनय कहलाता है । यह विनय समस्त अनिष्टों को दूर करनेवाला है, समस्त विद्यार्थीों को खानि है और गुणों का समुद्र है। ऐसा यह विनय तप पांच प्रकार का है। दर्शनविनय, ज्ञानविनय, सारिश्रविनय, तपविनय और सर्वोत्कृष्ट उपचारविनय इसप्रकार विनय के पांच भेद हैं ।। १६११-१६१३॥ दर्शन विनय का स्वरूप उसका फल --- ये पदार्थाः जनैः प्रोक्तास्सच्या स एव नान्यथा । वीतरागाश्वसर्वज्ञा मतो नासत्यवादिनः ॥ १४ ॥ इतियुक्तिविचारार्थ तस्मादी निएजयोऽचलः । क्रियते यो जिले जैनागमे ढर्मयोगिषु ॥ ११५ ॥ मिः शकितादिसर्वेषा मंगानां यच्चधारणम् । शंकारि त्यजनं कृत्स्नं सूक्ष्मतत्त्व विचारणे ।। १२१६।। भक्ति तान्मुनिमिषु । सम्यग्दुष्टजनादौ च रुचिसुं पिथेवर्षे ।। १९१७ ।। इत्यादि यच्छुभाषारमपरं वा विधोयते । विनम्रो दर्शनाव्यः स सर्वोगुणाकरोत् । १९१८ ।। अर्थ - भगवान जिनेन्द्रदेव ने जो तत्त्व बतलाये हैं तथा जिसप्रकार बतलाये हैं वे ही तत्त्व यथार्थ तत्व हैं तथा वे उसी प्रकार हैं अन्यथा नहीं हैं। क्योंकि भगवान जिनेन्द्रदेव वीतराग और सर्वज्ञ हैं इसलिये वे मसत्यवादी कभी नहीं हो सकते । इस प्रकार युक्ति और विचार पूर्वक तत्वादिकों में अचल भद्धान करना, समस्त जैन शास्त्रों में श्रद्धान करना, देव, धर्म, गुरु में अचल श्रद्धान करना, निःशंकित भावि समस्त अंगों का पालन करना, सूक्ष्म तत्वोंका विचार करते समय समस्त शंकादिक दोषों का त्याग कर देना, देवशास्त्र गुरु और धर्म में अत्यंत बुढ़ भक्ति धारण करना, सम्यग्वृष्टि पुरुषों में, मोक्षके मार्ग में तथा जिनधर्म में गाढ़ रुचि वा प्रेम धारण करना तथा इसी प्रकार के और भी जो शुभावार धारण करना है उसको वर्षानविनय कहते हैं । यह दर्शनविनय समस्त गुणोंकी खान है और समस्त पापों को नाश करनेवाला है ।। १६१४-१६१८ ।। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मूलाचार प्रदीप ( २६८) [पष्ठम अधिकार झान विनय के स्वरूप का वर्णनकालाचं रष्टधाचारविनयेनार्जनादिभिः । कृत्स्नानामंगपूर्वारणां शानायाज्ञानहानये ॥१६१६॥ त्रिशुद्धधा पठनं शुद्ध पाठनं यच्चयोगिमाम् । चिन्तनं हृदयेत्ययं परिवर्तनमंजसा ॥१६२०॥ ख्यापनं कोर्सनं लोके प्रकाशनमनारतम् । शानिनां भक्तिसन्मानं ज्ञानाविगुणभाषणम् ॥१९२१॥ इत्यायन्यच्छ तज्ञानगुरगाहणमूजितम् । क्रियते स समस्तोपि झानाख्योविनयो तः ।।१९२२॥ अर्थ-अपने ज्ञान को वृद्धि करने के लिये और अजान को दूर करने के लिये विनय के साथ तथा कालाचार, शब्दाचार, अर्थाचार आदि पाठों आचारों के साथसाय समस्त अंग और पूर्वो की पूजा करना, मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक अंग पूर्वो को शुद्ध पढ़ना, अन्य योगियों को पढ़ाना, उनका चितवन करना, हृदय में बार बार विचार करना, उनकी प्रसिद्धि करना, प्रशंसा करना, लोक में निरन्तर उनका प्रचार करना, ज्ञानी पुरुषों की भक्ति और उनका सम्मान करना, ज्ञानादिक गुणों का उपदेश देना तथा मौर भी श्रुतज्ञान के उत्कृष्ट गुणों को ग्रहण करना ज्ञानविनय कहलाता है। यह समस्त ज्ञानविनय बहुत ही अद्भुत है ।।१६१६-१९२२॥ चारित्र विनय के स्वरूप का वर्णनकषायेन्द्रियचौराणां प्रमावानां च वर्जनम् । अतगुप्तिसमिश्याथाचरणे पानमन्वहम् ।।१६२३।। महातपाधनानां च भुत्वाचरणमतम् । अंजली करणं भक्त्या प्रणामं वृत्तशालिनाम् ।।२४॥ प्रत्यागम्यत्सुचारित्रमाहात्म्यस्य प्रकाशनम् । लोके विधीयते यत्स चारित्रविनयोखिलः ॥२५॥ ___ अर्थ--कषाय और इन्द्रिय रूपी चोरों का सर्वथा रयाग कर देना, प्रमादों का सर्वथा त्याग कर वेना, वत समिति गुप्ति आदि के पालन करने में प्रतिदिन प्रयत्न करना, महातपस्वियों के अभत पाचरणों को सुनकर उनके लिये भक्ति पूर्वक हाथ जोड़ना, चारित्र पालन करनेवालों को भक्ति पूर्वक प्रणाम करना तथा इसीप्रकार और भी संसारमें चारित्र के माहात्य को प्रगट करना चारित्रविनय कहलाता है ।।१९२३१६२५॥ सप विनय के स्वरूप का वर्णनप्रातापनावि सद्योगे हा तराल्ये गुणेन से । दुष्करे च द्विषड्भेदे घोरे तपसि दुघरे ॥१९२६॥ भडोत्साहानु रोगाकांक्षावीनां करणं महत् । तपोधिकयसीनां च प्रणामस्तधनादिकम् ।।१९२७।। पडावश्यकसम्पूर्णपिचत्तषलेगाविवजनम् । तपसा करणे चीर्यावानं पंचाक्षनिर्णयः १११९२८॥ इल्यान्यातपोऽनयगुणानां यत्प्रकीर्तनम् । सत्तपोजमहोना स सपोविनयोखिलः ॥१९२६।। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २९६ ) [ षष्ठम अधिकार अ-पातापन धादि श्रेष्ठ मोगों में सर्वोत्कृष्ट उत्तरगुणों में तथा बारह प्रकार के घोर दुर्धर और कठिन सपश्चरणमें श्रद्धा करना, उत्साह धारण करना, अतुराग करना तथा बहुत बड़ी प्राकांक्षा करना, महातपस्वियों को प्रणाम करना, उनकी स्तुलि करना, छहों आवश्यकों को पालन करना, हृदय के समस्त क्लेशों का त्याग कर रेमा, अनेक प्रकार के तपश्चरण पालन करने के लिये अपनी शक्ति को प्रगट करना, पांचों इन्द्रियों को जीतना तथा इसी प्रकार सपश्चरण के श्रेष्ठ गुणों की प्रशंसा और तपश्चरण से उत्पन्न हुई ऋद्धियों को प्रशंसा करना तपोविनय कहलाती है ॥१९२६१६२६॥ उपचार विनय के भेद-- सत्कायवाग्मनोमवैपचारो जिनागमे । विनयविविधः प्रोक्तः कायाक्तियुनिकः ॥१३॥ स प्रत्यक्षपरोक्षाभ्यां प्रत्येकं द्विविधः स्मृतः । इत्येतेषट्कारा उपचार बिनये मताः ।।१९३१॥ अर्थ-जैन शास्त्रों में मन-वचन-कायको शुद्ध करनेवाला उपचार विनय तीन प्रकार का बतलाया है, काय से होनेवाला विनय वचन से होनेवाला विनय और मनसे होनेवाला विनय । यह मन-वचन-कायसे होनेवाला तीनों प्रकार का विनय प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो दो प्रकार है । इसप्रकार उपधारधिनय छह प्रकार का हो जाता है ।। १९३०-१९३१॥ शारीरिक विनय का स्वरूपअभ्युत्पानं क्रियाकर्म मुवाभक्तित्रयांकितम् । प्ररणामः शिरसा भाले स्वांजलीकरणं सदा ।।३२॥ गुरोरागच्छसश्चाभिमुखयानां प्रगच्छतः । अमुबजनमत्यर्थ भक्तिरागप्रकारानम् ।।१९३३॥ नीचं स्थानं कियनीचं गमनं शयनासनम् । पासमझामशौचोपकरणाविसमपणम् ॥१६३४।। शून्यागारगुहावीनामनिवस्य च निवेदनम् । गुरुकायक्रमावोनो स्पर्शनं मर्वन करैः ।।१६३५।। प्रादेशकरणं संस्तराविप्रसारणं निशि । ज्ञानोपकरणादीनां प्रतिलेखनमन्वहम् ॥१६३६॥ इत्यायन्योपयायोग्यउपकारो विधीयते । कायेन सवगुरो यः स विनयः कायिफोखिलः ॥१९३७॥ अर्थ-गुरु को देखकर उठ कर खड़े होना, प्रसन्नता पूर्वक श्रुतभक्ति प्रावि तीनों भक्तियों को पढ़कर क्रियाकर्म वा बंदना करना, उनको प्रणाम करना, दोनों हाय जोड़कर मस्तक पर रखना, गुरु के आनेपर उनके सामने जाना, गुरु के गमन करने पर उनके पीछे चलना, उनके प्रति अत्यन्त भक्ति और अनुराग प्रगट करना, नीचा स्पान हो तो कितना नीचा है यह बताना, गमन शयन आसन श्रादि का ज्ञान कराना, प्रासन Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३०० ) [ षष्ठम अधिकार देना, ज्ञान और शौचके उपकरण समर्पण करना, सूने मकान वा गुफाविकों को ढूंढकर बतलाना, गुरु के शरीर को वा उनके चरणों को स्पर्श करना वा हाथों से दबाना, उनका काम करना उनके लिये संस्तर बिछाना, रात के समय प्रतिदिन ज्ञान के उपकरणों का प्रतिलेखन करना (पीछी से झाड़कर शुद्ध करना) तथा अपने शरीर से इसी प्रकार के गुरु वा प्राचार्य के अन्य उपकार करना यथायोग्य रीति से उपकार करना शारीरिक विनय कहलाती है ।। १६३२- १६३७।। वावनिक विनय का स्वरूप भगवत्पूज्यपाद भट्टारकादिभिः । नामभिः प्रबरं पूज्य वचनं मधुरं वचः ।।११३८ ।। हिततथ्यमितादीनां यचसां भाषणं गिरा । जिनसूत्रानुसारेण भाषणं पापद्दूरगम् ।।१६३६ ।। उपशाम्त वचोवाच्यम गृहस्थवचः शुभम् । प्रकर्कशं वचः सारं सुखस्पृष्टम निष्ठुरम ।।१६४० ।। इत्यादिनियत यते वचनबरम् । गुरोरन्ते स सर्वोपि वाचिको विनयो महान् ।। १६४१ ।। अर्थ - गुरुके समीप जाकर पूज्य और मधुर वचनों से प्राचार्य भगवान् पूज्यपाद भट्टारक आदि उत्तम नामों से गुरु को सम्बोधन करना, वचन से सदा हित-मित तथा यथार्थ भाषण करना, सदा जैन शास्त्रों के अनुसार भाषण करना, पाप रोहित वचन कहना, शांत वचन कहना, मुनियों के योग्य शुभ वचन कहना, सवा ऐसे वचन कहना जो कर्कश न हों सारभूत हों स्पष्ट हों कठिन न हों उत्तम और अनिद्य हों । इसप्रकार गुरुके समीप वचन कहना सर्वोत्कृष्ट वाचनिक विनय कहलाता है ।।१६३८ १६४१॥ मानसिक विनय का स्वरूप दुष्कर्मागमनद्वारसम्मुखं स्वसुखावृतम् । दुर्ष्यानद्वेषरागादिलीनं चिन्ताशला कुलम् ॥१६४२॥ स्थगत्वा स्वपरिणामसुतत्त्ववंराग्यषासितम् । सवर्थघमंस ड्रावागमचिन्तादितत्परम् ॥। १९४३ ।। स्वान्येषां हितकृच्छुद्ध घायंते यनिजं मनः । गुरोः पाश्र्व स विश्वोमानसिको विनयो वरः ॥ ४४ ॥ अर्थ – जो परिणाम प्रशुभ कर्मों के आने के काररण हों, अपने सुखको चाहने वाले हों, अशुभध्यान वा रागद्व ेष में लीन हों और संकड़ों चिताओं से व्याकुल हों ऐसे परिणामों को छोड़कर गुरु के समीप बैठना तथा अपने मन में श्रेष्ठ तत्त्व और वैराग्य की वासना रखना, श्रेष्ठ अर्थ, श्रेष्ठ धर्म और श्रेष्ठ भावनाओं के चितवन में ही अपने मन को सवा लगाये रखना, अपने मन को सदा अपने और दूसरे के हित में लगाना, तथा अपने मन को अत्यंत शुद्ध रखना, इसप्रकार गुरु के समीप अपने मन की शुद्धता Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] [ षष्ठम अधिकार रखना उत्तम मानसिक विनय है ।।१९४२-१९४४॥ प्रत्यक्ष विनय का स्वरूपप्रत्यक्षे सद्गुरूणां यो विनयः क्रियते भूषः । त्रिसपा विविधः सोत्र प्रत्यक्ष विनयो मतः ।।४५॥ अर्थ-विद्वाम लोग मन-वचन-काय को शुद्धता पूर्वक मन-वचन-काय तीमों से जो श्रेष्ठ गुरुनों को प्रत्यक्ष विनय करते हैं उसको प्रत्यक्ष विनय कहते हैं ॥१९४५।। परोक्ष विनय का स्वरूपपरोक्ष सद्गुरूणां यत प्रणामकरणाविकम् । कायेनवचसा निस्मंस्तवाविगुण कीर्तनम् ॥४॥ हवाज्ञापालनं सम्यक् सबगुरणप्रामचिन्सनम् । इत्याधिक्रियतेऽन्यत्सपरोधिमयोऽखिलः ।।१६४७।। अर्थ-इसोप्रकार गुरुओं के परोक्षमें शरीर से तथा वचन से नित्य हो उनको प्रणाम करना, उनकी स्तुति करना, उनके गुण वर्णन करना, हृदय से उनकी आज्ञा का पालन करना, उनके श्रेष्ठ गुणों के समूहको अच्छी तरह चितवन करना तथा और भी उनकी परोक्षमें उनकी विनय करना परोक्ष विनय कहलाती है ।।१९४६-१९४७॥ शारीरिक, वाचनिक एवं मानसिक विनय के भेदअथवा सप्तधानोक्तः कायिको विनयो जिनः । वसु(वाधिक सारो डिभामानसिकोमहत् ॥४॥ मर्थ अथवा भगवान जिनेन्द्रदेव ने शरीर से होनेवाली विनय के सात भेद बसलाये हैं । वाचनिक विनय चार प्रकारको बललाई है और मानसिक विनय दो प्रकार बतलाई है ।।१९४८॥ ६ प्रकार के कायिक विनय का स्वरूपप्रभ्युत्थानप्रणामोहासमयान महागुरोः। पुस्तकादिप्रदानं च क्रियाकर्मत्रिभक्तिजम् ॥१४॥ स्वोच्चासनपरित्यागः पृष्टोनुव्रजन कियत् । बिनयाः कायिका एते सप्तमेदा वपुर्भवाः ॥१९५०॥ अर्थ--महा गुहनों के मानेपर उठकर खड़े हो जाना, उनको प्रणाम करना, उनको प्रासन देना, पुस्तक देना, श्रतभक्ति प्राबि तीनों भक्तियां पढ़कर उनकी वंदना करना उनके सामने अपने प्रासनको छोड़ देना, और उनके जाते समय थोड़ी दूर तक उनके पीछे जाना यह गारीर से होनेवाली सात प्रकार को कायिक विमय है ॥१९४६१९५०॥ ४ प्रकार के वाचनिक विनय का स्वरूप और धर्म वृद्धि का कारणहितभाषणमेकं द्वितीयमितभाषणम् । पयः परिमितं वनानुधीधीभाषण स्फुटम् ।।१९५१।। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३०२) [षष्ठम अधिकार वाचिका धिनया एते चतुभेवा वचोभवाः । निरवधाविधातारः स्वान्येषां धर्ममूजितम् ॥१९५२॥ ___ अर्थ-हिलरूप भाषण अर्थात् धर्मरूप वचन कहना, मित भाषण अर्थात् थोड़े अक्षरों में बहुत सा अर्थ हो ऐसे वचन कहना, परिमित भाषण अर्थात् कारसा सहित वचन कहना और सूत्रानुवाची भाषण अथात् श्राम के अधिरथम कहना यह चार प्रकार की वाचनिक विनय है । जो मुनि इन चारों प्रकार की विनयों को निरवच (पापरहित) रोति से पालन करता है वह अपने और दूसरों के श्रेष्ठ धर्म को बढ़ाता है ॥१९५१-१९५२॥ २ प्रकार के मानसिक विनय का स्वरूपपापादानमनोरोषो धर्मध्यानप्रवर्तनम् । हवेति बिनयो ने द्विधामानसिकोऽमलः ॥१६५३।। अर्थ-जिस मनसे पाप कर्मों का प्रास्रव होता है ऐसे मन को रोकना और अपने मनको धर्मध्यान में लगाना दो प्रकार की मानसिक विनय है । यह मानसिक विमय अत्यंत निर्मल है ॥१९५३॥ प्रणाम आदि के द्वारा अपने से बड़े का विनय करना चाहिये--- बीक्षाषिकयतीनां च तपोषिकमहात्मनाम् । भ्रताधिकमुनीनां च सद्गुणाधिकयोगिनाम् ॥५४॥ वोक्षाशिक्षाश्रुतज्ञानगुरूणां यत्नतोऽनिगम् । कार्यः सर्वः प्रणामाय : विनयोत्रषसंयसः ।।१६५५। अर्थ-जो मुनि अपने से अधिक कालके दीक्षित है, ओ महात्मा बहुत अधिक तपस्थी हैं, जो मुनि अधिक श्रुतवान को धारण करते हैं, जो मुनि अधिक गुणों को धारण करते हैं, जो दीक्षा गुरु हैं, शिक्षा के गुरु हैं, वा श्रुतज्ञान के मुरु हैं, उनके लिये प्रणाम आदि करके मुनियों को प्रतिदिन प्रयत्नपूर्वक सब तरह की विनय करनी चाहिये ॥१९५४-१६५५।। अपने से छोटे को भी यथायोग्य बिनय करना चाहिएमालधुतपोहोनम्वल्पश्रुतापयोगिनाम् । यथायोग्य सदा कार्यो विनयो मुनिपुंगवः ।।१६५६॥ अर्थ-जो मुनि दीक्षा से छोटे हैं, जो तपश्चरण में भी अपने से होन हैं और जो थोड़े से श्रुतझानको धारण करते हैं ऐसे मुनियों के लिये भी श्रेष्ठ मुनियों को यथा. योग्य रीति से सदा विनय करते रहना चाहिये ॥१९५६॥ मायिका और श्रावक का भी यथायोग्य विनय करने चाहियेमार्मिकाधाविकावीनां ज्ञान धर्मादिदेशमैः । जिनमार्गानुरागेण यथार्ह कार्य एव सः ॥१९॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___+ मूलाचार प्रदीप ( ३०३ ) [ षष्ठम अधिकार अर्थ--इसी प्रकार मुनियों को जान वा धर्माविक का उपदेश देकर वा जिन मार्ग में अमराग कर हाजिरा और. आरमों का मिल भी यथायोग्य रीति से करते रहना चाहिये ॥१९५७॥ चतुर्सघ का यथायोग्य विनय की प्रेरणा.... सर्वथा विनयो वक्षः कर्तव्यः कार्यसाधकः । चातुर्षणस्वसंधानांयथायोग्यो हिसंकरः ॥१६५८।। अर्थ-चतुर पुरुषों को चारों प्रकार के.संघ का विनय यथायोग्य रीति से सर्वथा करते रहना चाहिये । क्योंकि यह विनय समस्त कार्यों को सिद्ध करनेवाला है और सबका हित करनेवाला है ।।१६५८॥ _ विनय रहित जीव के शिक्षा निरर्थक हैयतो विनय होनाना शिक्षानिरथिकाखिला । श्रुताविपठनं व्यर्थमकोतिर्वर्वतेतराम ||१६५En अर्थ-इसका भी कारण यह है कि जो पुरुष विनय रहित हैं उनकी समस्त शिक्षा निरर्थक समझनी चाहिये तथा उनका शास्त्राविक का पढ़ना भी व्यर्थ समझना चाहिये । इसके सिवाय अविनयी पुरुषों की अपकीति सवा बढ़ती रहती है ।।१९५६॥ बिनय रूपी जहाजपर बैठकर ही आगम रूपी महासागर को पार करते हैंमहाविन्यपोलेनगम्भौरमागमार्णवम् । भवाम्बुषि च बुस्तीरं तरन्तियमिनोऽचिरात् ।।१९६०॥ अर्थ-मुनिलोग इस महा विनय रूपी जहाजपर बैठकर अत्यन्त गम्भीर ऐसे आगमरूपी महासागर को बहुत शीन पार कर लेते हैं तथा अत्यन्त कठिन ऐसे संसाररूपी समुद्र को भी बहुत शीघ्र पार कर लेते हैं ॥१९६०॥ विनय से अनेक गुणों की प्राप्ति होती हैविद्याविवेक कोपाल्यशमायाः प्रवरा गुणाः । विनायासेम जायन्ते विश्व विनयशालिनाम् ॥११॥ दिनयोत्था महाकोतिःप्रसर्पति जगात्रयम् । उत्पद्यते पराबुद्धिः सतां विश्वार्थदीपिका ॥१९६२।। स्वसंघे मान्यता पूजा ख्याति च स्तवनाविकान् । तपोरत्नत्रयं शुद्ध लभन्ते विनयांकिताः ॥३॥ चतुराराधनामंत्री शान्त्याजवादिलक्षरणान् । मनोवाक्कायसंशुद्धीः श्रयन्ति विनयाबुधाः ॥६४।। विनयाचारिणां नूनं शत्रुर्गच्छत्सुमित्रताम् । उपसर्गाविलायन्तेदोकन्तेविजच्छ्यिः ॥१९६५।। अहोसदिनयाकृष्टा मुक्तिस्त्री योगिनांस्वयम् । एस्यात्रालिंगनंदत्ते का कयामरयोषिताम् ॥६६॥ इत्यादिप्रवरं नात्या विनयस्य फलं विदः । कुर्वन्तुसवंसंघामां मुक्तये विनयं सदा ॥१९६७।। अर्थ-विनय धारण करनेवाले पुरुषों के विधा विवेक, कुशलता और उपशम Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप] ( ३०४ ) [ षष्ठम अधिकार आदि अनेक उत्तम गुण बिना ही परिश्रम के अपने आप आ जाते हैं । इस विनय से उत्पन्न होनेवाली महा कौति तीनों लोकों में फैल जाती है तथा इसी विनय से सज्जनों के समस्त पदार्थों को जानने वाली सर्वोत्कृष्ट वुद्धि उत्पन्न हो जाती है । विमय धारण करनेवाले मुनियों को अपने संघ में भी मान घा पावर सत्कार मिलता है, बड़प्पन मिलता है, कीति मिलती है, सब लोक उनको स्तुति करते हैं तथा विनय से मुनियोंको शुद्ध तपश्चरण और शुद्ध रत्नत्रय की प्राप्ति होती है। विद्वान् पुरुषोंको इस विनय से हो चारों आराधनाओं की प्राप्ति होती है, मंत्री प्रमोद आदि गुण प्रगट होते हैं, क्षमा, मार्दव, प्रार्जव आदि गुण प्रगट होते हैं और मन-वचन-कायको शुद्धता प्राप्त होती है। विनय करने वालों के शत्रु भी मित्र बन जाते हैं, उपसर्ग सब उनके नष्ट हो जाते हैं और उनको तीनों लोकों की लक्ष्मी आकर प्राप्त हो जाती है। सबसे बड़ा प्राश्चर्य तो यह है कि इस श्रेष्ठ विनयसे अपने आप खिची हुई मुक्तिरूपी स्त्री स्वयं प्राकर मुनियों को प्रालिंगन देती है । फिर भला देवांगनाओं को तो बात ही क्या है । इसप्रकार इस विनय का प्रत्यन्त श्रेष्ठ फल जानकर चतुर पुरुषोंको मोक्ष प्राप्त करने के लिये समस्त संघ को सवा बिनय करते रहना चाहिये ॥१९६१-१९६७।। __ यावृत्य का स्वरूपप्राचार्यपाठकेषुस्थविरप्रवर्तकेषु च । शवल्या गणधरेष्वत्रगच्छे वालेतराकुले ॥१९६८।। कापिण्डाविष्ानहान्य सद्धपानवृद्धये। सुश्रूषाक्रियतेथाम्यवंशवृत्यं सवुझ्यते ।।१६६६॥ अर्थ-जो मुनि अशुभ ध्यान को नाश करने के लिये और श्रेष्ठ घ्यान को बुद्धि के लिये आचार्य उपाध्याय वृद्ध मुनि प्रवर्तक प्राचार्य और गणघर आदि महा मुनियों को तथा बाल मुनि वा वृद्ध मुनियों के कारण व्याकुल रहनेवाले गच्छ वा संघ को आहार औषधि मावि देकर तथा अन्य अनेक प्रकार से उनको सेवा सुश्रुषा करना वैयावृत्त्य कहलाता है ॥१९६८-१९६६॥ दश प्रकार के मुनि का स्वरूप और १० प्रकार की वैयावृत्य का स्वरूपषट्त्रिंशद्गुणपंचाचारान्विसाः सूरयोस ताः। पाठकाः सवपूर्वागपारगाः पाठनोयताः ॥७०॥ सर्वतोभद्रघोरावितपसाचतपस्विनः । सिद्धान्तशिक्षणोक्ताः शिष्यकाः मुक्तिमागंगाः ।।१६७१|| समाथिव्याप्तसांगा ग्लाना व्रतगुणच्युताः । समवायोगणोम्यों बालवृद्धावियोगिमाम् ॥७२।। प्राचार्यस्य च शिष्यस्यस्वाम्नायः कुलमुत्तमम् । ऋष्याविश्रमणानां निवहः संघाचतुर्विषः ॥७३॥ त्रिकालयोगपातारः साधबोमुक्तिसापकाः। प्राचार्यसाधुसंधानां प्रियोमनोज कजितः ।।१६७४। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप ] ( ३०५ ) [ षष्ठम अधिकार श्रमीषां दशमैदानां रोगक्लेशादिकारणे । संजाते सति कर्तव्यं वैयावृत्यं वशात्मकम् ।।१९७५ ।। अर्थ - जो आचायों के छत्तीस गुर और पंचाचारों का पालन करते हैं उनको उत्कृष्ट प्राचार्य कहते हैं, जो ग्यारह श्रंग और चौदह पूर्व के पारगामी हैं तथा शिष्यों के पढ़ाने में सदा तत्पर रहते हैं उनको उपाध्याय कहते हैं । जो सर्वतोभद्र आदि घोर तपश्चरण करते हैं उनको तपस्वी कहते हैं । जो सिद्धांतशास्त्रोंके पढ़ने में तत्पर हैं और मोक्षमार्ग में लगे हुए हैं उनको शंक्य कहते हैं। जिनका शरीर किसी रोग से रोगी हो रहा है तथा जो अपने व्रत रूपों गुणों से च्युत नहीं हैं उनको ग्लान कहते हैं । बाल और बुद्ध मुनियों के पूज्य समुदाय को गरा कहते हैं। आचार्यों के शिष्यों की परम्परा को उत्तम कुल कहते हैं। ऋषि मुनि यति और अनगार इन चारों प्रकार के मुनियोंके समुदाय को संघ कहते हैं। जो मुनि त्रिकाल योग धारण करते हैं और मोक्षकी सिद्धि में लगे रहते हैं उनको साधु कहते हैं । जो श्राचार्य साधु और संघ को प्रिय हों उनको उत्तम मनोज्ञ कहते हैं । ये वश प्रकार के मुनि होते हैं । इनके लिये रोग क्लेश आदि का कारण आ जानेपर उन सबका वैयावृत्य करना सेवा सुश्रूषा करना दश प्रकार का यावृत्य कहलाता है ।। १६७० १६७५ ।। अनेक प्रकार की वैयावृत्य करने की प्रेरणा पावाविमर्वनेर्वः सुश्रूषाकरणाविभिः । धर्मोपवेशनंश्चान्यविण्मूत्राद्यप कवंरांः ।। १९७६ ।। दुर्माश्रमखाना चोरपारिदुर्जनः । सिंहादिजोपसर्गपीडितानां सुयोगिनाम् ।।१६७७ ।। संग्रहानुग्रहैदशिकणैः पालनादिभिः । वैयावृत्यं विघातव्यं धमंबुद्धधासमाधये ॥१६७८ ॥ अर्थ- जो मुनि कंकरीले वा ऊंचे नीचे मार्ग में चलने के कारण खेद खिन्न हो रहे हैं अथथा जो किसी चोर वा राजा वा शत्रु वा दुष्ट अथवा सिंह आदि के उपसर्ग से अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं, ऐसे मुनियों के पांव बाजना सेवा सुश्रूषा करना उनको धर्मोपदेश देना उनका भिष्ठा, सूत्र, कफ प्रावि हटाना उनको अपने पास रखना उनका अनुग्रह करना, उनकी रक्षा करना, आवश्यकतानुसार उनको उपकरण देना, उनके निर्वाह का प्रबन्ध कर देना आदि अनेक प्रकार का वैयावृत्य चतुर पुरुषों को ध्यानकी प्राप्ति के लिये केवल धर्म बुद्धि से सदा करते रहना चाहिये ।।१६७६-१६७८॥ पुनः वैयावृत्य का स्वरूप तपोदुग्तान चारित्र ध्यानाध्ययनकर्मसु । पुस्तकावि सुदानंश्चव्या स्थाषर्मोपदेशनः ॥ १६७६ ॥ यत्साह्यकरणयुक्त्यै साथमा विधीयते । मिराकक्षितथा सर्व वैषामृत्यं तदुच्यते ॥ १६८० ॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( ३.६ ) [पाटम अधिवार - __ अर्थ- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, तप, ध्यान, अध्ययन प्रावि सामियों के कार्य के लिये पुस्तक प्रावि उपकरणों को देना, शास्त्रोंको व्याख्या करना, पर्मोपदेश देना तथा युक्ति पूर्णक और भी सामियों को सहायता करना तथा यह महायता बिना किसी बवले की इच्छा के करना सो सब गैयावृत्य कहलाता है। ॥१९७६-१९८०॥ वैया कृत्य करने का फलयावत्पविषाणां विचिकित्सापरिक्षयः । तीपंकराक्सिरपुण्यंगशःस्वसंघमान्यता ॥१९८१॥ रत्नत्रयविक्षिप्रवचनस्य च जायते । बरसलत्वं तपोवृद्धिः परोपकार अमितः ॥१९५२॥ प्राचार्यपाठकादौा वयावृत्पेन संभवेत् । धर्मध्यानं मनः स्वस्थ पौडावुनिनाशनम् ।।१९८३॥ अर्थ-यावृत्य करने वालों के विचिकित्सा का सर्मथा नाश हो जाता है अर्थात् निविचिकित्सा अंगका पूर्ण पालन होता है, तीर्थकर प्रकृति आदि श्रेष्ठ पुण्य का बंध होता है समस्त संसार में यश फैलता है, अपने संघ में मान्यता बढ़ती है, रत्नत्रय को विशुद्धि होती है, साधर्मो जनों के साथ अत्यन्त प्रेम बढ़ता है, तपश्चरण को वृद्धि होती है और सर्वोत्कृष्ट परोपकार होता है । प्राचार्य वा उपाध्याय आदि को यावृत्य करने से धर्मध्यान उत्पन्न होता है मन निराकुल होता है तथा पीड़ा और दुान का सर्भपा नाश हो जाता है ।।१९८१-१९८३॥ वैयावृत्य करने की प्रेरणा-- इत्यत्र स्वाम्ययोमत्मा वैयावृत्यं हितं महत् । सबलाः सर्वशकास्वेनान्यः कुतुयुद्धये ॥१६॥ . अर्थ-इसप्रकार यावृत्य के करने से अपना भी महा हित होता है और अन्य जीवों का भी महा हित होता है । यही समझकर बलवान और पूर्ण शक्तिशाली पुरुषों को अपना आत्मा शुरु करने के लिये स्वयं यावृत्य करना चाहिये और दूसरों से भी गैयावत्य कराते रहना चाहिये ।।१९८४॥ __स्वाध्याय तपका स्वरूप उसके भेदस्वस्य वा परभग्याना हितोष्यायो विषोयते । शानिभिर्योधयाताय स स्वाध्यायोगुणाकरः ।।५।। बाचनापृाछनाल्योऽनुप्रेक्षाशम्नायजितः । धर्मोपवेशएवेति स्वाध्यायः पंचधा मतः ।।१६६६।। अर्थ-जो जानी पुरुष अपना पाप नाश करने के लिये अपने आत्मा का हित करने के लिये तथा अन्य भष्य जीवों का हिल करने के लिये सिडांत पाक्षि प्रषों का Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूला चार प्रदीप [ षष्ठम अधिकार पठन-पाठन करते हैं उसको गुणों की खानि स्वाध्याय कहते हैं। वाचना, पृष्छना, अनुप्रेक्षा, श्रेष्ठ आम्नाय और धर्मोपदेश ये पांच स्वाध्याय के भेव हैं ।।१९८५-१९१६॥ वाचना नामक स्वाध्याय का स्वरूपअंगपूर्वादिशास्त्राणां यथातथ्येन मुक्तये । ध्याण्यानं क्रियतेयस्यमरसतां वाचमात्र सा ||१९८७॥ अर्थ- जो मुनि मोक्ष प्राप्त करने के लिये सज्जनों को अंग पूर्व आदि शास्त्रों का यथार्थ व्याख्यान करते हैं उसको वाचना नामका स्वाध्याय कहते है ।।१६५७॥ पृच्छना नामक स्वाध्याय का स्वरूपसन्देह हानयेन्येषां पावें प्रश्न विधीयते । सिद्धासार्थमहागू भूयते पृष्छमात्र सा ॥१९८८॥ अर्थ-अपना सन्देह दूर करने के लिये किसी अन्य के पास जाकर प्रश्न पूछना अथवा महागूढ़ सिद्धांतशास्त्रों के अर्थ को सुनना पृच्छना नामका स्वाध्याय है ॥१६ ॥ मक स्वाध्याय का स्वरूपसप्तायः पिडसादरमेनकानापित चेतसा । अभ्यासोधीतशास्त्राणां योनुप्रेक्षात्रसोतमा १९८९॥ अर्थ-तपाये हुए लोहे के गोले के समान एकाग्रचित्तसे पड़े हए शास्त्रों का बार-बार अभ्यास करना उत्तम अनुप्रेक्षा नामका स्वाध्याय कहलाता है ॥१९॥ प्राम्नाय नामक स्वाध्याय का स्वरूपतलवितमालाविष्युतवीषातिगं च यत् । परिवर्तनमम्बस्तागमस्याम्नाय एव सः ॥१६॥ अर्थ-पढ़े हुए शास्त्रों का बार-बार पाठ करना और ऐसा पाठ करना जो न सो धीरे-धीरे हो, न जल्दी हो और न अक्षर माना प्रादि से रहित हो ऐसे पाठ करने को आम्नाय नामका स्वाध्याय कहते हैं ॥१९६०॥ धर्मोपदेश नामक स्वाध्याय का स्वरूप-- ख्यातिपूजादिलाभादीन् विना तीर्थकृतांस्ताम् । सरकथाख्यापनं यच्छ धर्मोपदेश एव सः ।।१।। अर्थ-अपनो कीति बड़प्पन वा लाभ आदि की इच्छाके बिना तीर्थंकर आदि सज्जन पुरुषोंको कमा का कहना धर्मोपदेश नामका स्वाध्याय कहलाता है ।।१९६१॥ ५ प्रकार की स्वाध्याय करने की प्रेरणाइत्येवं पंचमा बक्षी स्वाध्यायोविश्वदीपकः । कर्तण्या प्रत्यहं सिव स्वान्येषां हितकारकः ॥१२॥ » Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সুলালাৰ স'? ] ( ३०८ ) [टम अधिकार अर्थ- इसप्रकार यह पांच प्रकार का स्वाध्याय अपना और दूसरों का हित करनेवाला है और समस्त तत्वों के स्वरूप को दिखलाने के लिये दीपक के समान है। इसलिये चतुर पुरुषों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये प्रतिदिन स्वाध्याय करना चाहिये । ॥१६६२।। स्वाध्याय ही परम ताप और इसके फल का निरूपणसमस्ततपसां मध्ये स्वाध्यायेन समं तपः । परनास्ति न मूतं न भविष्यति बिदस्विचित् ॥१३॥ यतः स्थाप्यायमत्यम कुवंतां निग्रहो भवेत् । पंचाक्षारात्रिगुप्तश्वसंवरो निर्जरा शिवम् ॥४॥ स्वाध्यायेनात्र जायेत योगशुशिश्चयोगिमाम् । तथा शुक्लं महाव्यानं ध्यानादयातिविधक्षयः ।।५। तद्घातात्केवलज्ञान लोकालोकार्थवीपकम् । शक्रादिपूजनं तस्माद्गमन मुक्ति बामनि ॥१६६६।। इत्यादि परमं ज्ञात्वाफलमस्य विवोधहम् । निष्प्रमादेन कुर्वतु स्वाध्याय शिवशर्मणे ॥१६॥ ___ अर्थ-समस्त तपश्चरणों में विद्वान् पुरुषों को इस स्वाध्याय के समान न तो अन्य कोई तप आज तक हुआ है, न है, और न आगे होगा। इसका भी कारण यह है कि स्वाध्याय करने वालों के पंचेन्द्रियों का निरोध प्रछी तरह होता है तथा तीनों गुप्तियों का पालन होता है और संवर, निर्जरा तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस स्वाध्याय से ही मुनियों के योगों को शुद्धि होती है, तथा महाशुक्लध्यान प्राप्त होता है, शुक्लध्यान से धातिया कर्मों का नाश होता है, घातिया कर्मोके नाश होने से लोक प्रलोक सबको प्रगट करनेवाला केवलज्ञान प्रगट होता है, केवलज्ञान के होने से इन्द्र भी प्राकर पूजा करता है तथा अंत में मोल की प्राप्ति होती है । इसप्रकार इस स्वाध्याप का सर्वोत्कृष्ट फल समझकर विद्वान् पुरुषों को मोक्षके सुख प्राप्त करने के लिये प्रमाद छोड़कर प्रतिदिन स्वाध्याय करना चाहिये ।।१९६३-१९६७॥ उत्तम कायोत्सर्ग का स्वरूपबाह्याम्यन्तरसंगाश्च स्यवस्थामा वपुषासताम् । ध्यानपूर्वास्थितिर्मान कायोत्सर्गः स उत्तमः ।। प्रावश्यकाधिकारेप्राक् तस्य लक्षणमंजसा । गुणदोषादिकं प्रोक्त उपासेन नव वेधुना ॥१९६६1 अर्थ-बाह्य और प्राभ्यंतर परिग्रहों का त्याग कर तथा शरीर का ममत्व छोड़कर सज्जन पुरुष जो ध्यान पूर्णक स्थिर विराजमान होते हैं उसको उत्तम कायोरसगं कहते हैं । पाषश्यकों के अधिकार में पहले विस्तार के साथ इसका लक्षण तथा इसके गुण दोष आदि सब कह चुके हैं। इसलिये अब यहाँपर नहीं कहते हैं ॥१९९८. १६६६॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३०७ ) [ षष्ठम अधिकार पठन-पाठन करते हैं उसको गुणों को खानि स्वाध्याय कहते हैं। वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा श्रेष्ठ आम्नाय और धर्मोपदेश ये पांच स्वाध्याय के भेद हैं ।। १६६५ - १६८६ ।। याचना नामक स्वाध्याय का स्वरूप अंगपूर्वादिशास्त्राणां यथातथ्येन मुक्तये | व्याख्यानं क्रियतेयस्मयस्सल वाचनात्र सा ।। १६८७ ।। अर्थ- जो मुनि मोक्ष प्राप्त करने के लिये सज्जनों को अंग पूर्ण आवि शास्त्र का यथार्थ व्याख्यान करते हैं उसको वाचना नामका स्वाध्याय कहते हैं ।। १६८७।। पृच्छना नामक स्वाध्याय का स्वरूप सन्देह हानयेन्येषां पाश्र्व प्रश्न विधोयते । सिद्धातार्थमहागदं भूयते पृच्छना सा ॥ १६६॥ अर्थ-- श्रपना सन्देह दूर करने के लिये किसी अन्य के पास जाकर प्रश्न पूछना अथवा महागूढ़ सिद्धांतशास्त्रों के अर्थ को सुनना पृच्छना नामका स्वाध्याय है ।। १६८ ।। श्रनुप्रेक्षा नामक स्वाध्याय का स्वरूप सप्लाय पडसादश्येनाग्रापित चेतसा । अभ्यासोधीतशास्त्राणां योनुप्रेक्षात्रसोत्तमा ।।१६८९ ।। अर्थ -- तपाये हुए लोहे के गोले के समान एकाग्रचित्तसे पढ़े हुए शास्त्रों का बार-बार अभ्यास करना उत्तम अनुप्रेक्षा नामका स्वाध्याय कहलाता है ।। १६८९ || आम्नाय नामक स्वाध्याय का स्वरूप वितमात्रादिच्युत दोषातिगं च यत् । परिवर्तनमस्यस्तागमस्याम्नाय एव सः || १६६० ॥ अर्थ - पढ़े हुए शास्त्रों का बार-बार पाठ करना और ऐसा पाठ करना जो न तो धीरे-धीरे हो, न जल्दी हो और न अक्षर मात्रा आदि से रहित हो ऐसे पाठ करने की आम्नाय नामका स्वाध्याय कहते हैं ।। १६६०।। धर्मोपदेश नामक स्वाध्याय का स्वरूप ख्यातिपूजाविलाभाबीन् बिना तोयंकृतसिताम् । तत्कयास्यापनं यच्च धर्मोपदेश एव सः ॥ ६१ ॥ अर्थ-अपनी कीर्ति बड़प्पन वा लाभ आदि की इच्छा के बिना तोर्थंकर आदि सज्जन पुरुषोंको कथा का कहना धर्मोपवेश नामका स्वाध्याय कहलाता है ॥१६६१॥ ५ प्रकार की स्वाध्याय करने की प्रेरणाइत्येवं पंजा दक्ष स्वाध्यायो विश्वदीपकः । कर्तग्या प्रत्यहं सिद्धच स्वान्येषां हितकारकः ।। ६२ ।। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुगाचार प्रदीप ] [पाठम अधिकार यह ध्यान निध कहलाता है । अशुभ करनेवाली संसार की अशुभ वस्तु हो इसका ध्येय है, सैकड़ों क्लेशों से व्याकुल हुमा और कषायों से कलुषित हुमा प्रात्मा ही इसका ध्याला है और समस्त क्लेशों से भरा हुमा तिगननि का साप्त होना ही इसका फल है । मिथ्याष्टियों के प्रत्यंत क्लेश से यह ध्यान होता है । तथा सम्यादृष्टियों के बिना क्लेशके होता है । यह आर्तध्यान कृष्ण, नील, कापोत इन तीन अशुभ लेश्याओं के बल से उत्पन्न होता है, अंतर्मुहूर्त इसका समय है, मनुष्यों के बिना ही यस्न के यह उत्पन्न होता है और बुःखाविक का होना ही इसका कारण है ।।२०१४-२०१७।। प्रार्तध्यान का स्वामी एवं उससे उत्पन्न दोष का वर्णन भायोपशमिको भावो दुष्प्रमावावलम्बनम् । दुध्यानानाममीषां स्थायभवभ्रमणकारिणाम् ॥१८॥ उत्कृष्टं ध्यानमेतद्गुणस्थाने प्रथमे मवेत् । प्रमत्ताल्ये जघन्यं च तयोर्मभ्येषुमध्यमम् ॥२०१६॥ निसर्गजनितं निद्य पूर्वसंस्कारयोगतः । विश्वदुःखाकरीसूत कृत्स्नपापनिबंधमम् ॥२०२०।। समाधि धर्मशुक्लादिहंह निमंजसा । त्यजन्तु दुस्त्य दक्षा धर्मध्यानवलात्सदा ॥२०२१॥ अर्थ--संसार में परिभ्रमण कराने वाले इन सम दुानों में क्षायोपशामिक भाव होता है और अशुभ प्रमाव ही इनका अवलंबन होता है । यह प्रातध्यान उत्कृष्टता से पहले गुणस्थान में होता है, प्रमत्त नामके छठे गुणस्थान में जघन्य होता है और भाती के गुणस्थानों में मध्यम होता है। यह प्रार्तध्यान पहले के संस्कारों के निमित्त से स्वभाव से ही उत्पन्न होता है, निथ हैं, समस्त दुःखों को खानि है और समस्त पापों का कारण है । यह प्रासंध्यान, अशुभध्यान है और समाधि, धर्मध्यान शुक्लध्यान को नाश करनेवाला है मतएव चतुर पुरुषों को धर्मध्यान के बल से इस कठिनता से छूटमे योग्स आर्तध्यान को सवा के लिये छोड़ देना चाहिये ॥२०१८-२०२१॥ रौद्रध्यान का स्वरूप एवं उसके भेदरौतध्यानमपिढेधा बाह्याध्यात्मिकमेवतः। रक्ताक्षनिष्ठुराकोशनिर्भत्सनादिलक्षणम् ॥२०२२॥ क्षपन्धाग्यपोडाविकर माहामनेकधा । अन्तर्मथनशील बसवेशाध्यास्मिकमतम् ।।२०२३॥ अर्थ-आर्तध्यान के समान रौद्रध्यान के भी बाह्य और आम्यंसर के भेद से से भेद हैं, लाल नेत्र होना, कठिन पचन कहना, किसी की निंदा करना, किसी का तिरस्कार करना, किसी को मारमा वा बांधना वा और भी किसी प्रकार की पीड़ा वेना बाह्य रीतध्यान है और वह अनेक प्रकार का है। जो अंतरंग में पीड़ा उत्पात करता रहे तथा किसी को मालूम न हो उसको अभ्यन्तर रौप्रध्यान कहते हैं। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ३१२) [पष्ठम अधिकार २०२२-२०२३॥ बादपार के भेदः - हिसानन्मृषानन्दस्तेयानन्दसमाह्वयम् । विषयायतसंरक्षणानन्वंतच्चतुर्विधम् ॥२०२४।। अर्थ-हिसानंद, मृषानंद, स्तेयानंद और विषय संरक्षणानंद के भेद से इस रौद्रध्यान के भी चार भेद हैं ॥२०२४॥ रौद्रध्यान का स्वरूपहिसायो परपीबायां संरम्भाचं कापनः। संकल्पकरणंयता बाधितेष्वांगिराशिषु ॥२०२५॥ कालोहर्षरचसंग्रामे जयाजयादिचिन्तनम् । तद् धियां समस्तं च हिंसामन्वं प्ररूपितम् ।।२०२६।। अर्थ-हिंसा में प्रानंद मानना, दूसरे की पीड़ा में आनंद मानना, जीवों के छिन्न-भिन्न करने का संकल्प करना, अथवा किसी ऐसे काम का संकल्प करना जिसमें जीवधात होता हो, अथवा जीवोंकी राशिके घात होनेपर मानंद मानना, कलहमें आनंद मानना, युद्ध में जीत हार का चितवन करना आदि रूपसे जो बुर्बुद्धियों के ध्यान होता है उसको हिसानंद नामका ध्यान कहते हैं ।।२०२५-२०२६॥ मृषानन्द रौद्रध्यान का स्वरूपशिकल्पनायुषायापरवंचनहेतवे । व पलेयन्मषामादपरवंचनपंडितः ।।२०२७।। भूषावावेऽथवा प्रोक्त केनचित्कटकाक्षरंः । हृवानुमननंयत्तामषानन्वकिलाखिलम् ॥२०२८।। अर्थ-दूसरों को ठगने में प्रत्यंत चतुर पुरुष दूसरों को ठगने के लिये अपनी दुर्बुद्धि की कल्पना और युक्ति से जो मिथ्या वचन बोलते हैं अथवा कोई अन्य पुरुष कड़वे शब्दों से मिच्या मनन कहते हैं उसमें जो हृषयसे अनुमोदना करते हैं उस सबको भृषानंद नामका रौद्रध्यान कहते हैं ।२०२७-२०२८।। स्तेयानन्द रौद्रध्यान का स्वरूपपरी। स्वीसुबस्त्वाविहरणे सोभिमिशम् । संकल्पः क्रियते पिसे गोयुभोपात्रतस्करः ।।२।। मौतेसलिएरण्ये धमेवथामुमोदनम् । रौरवानं च तस्सवस्तयानन्दमघप्रवम् ।।२०३०॥ अर्थ-जो लोभी वा चोर दूसरों को लक्ष्मी, स्त्री वा अच्छी वस्तुओं के हरण करने के लिये अपने घिस में अशुभ संकल्प करते हैं अथवा कोई बहुत सा द्रव्य मार लाथा हो उसकी अनुमोक्ना करते हैं उस सबको पाप उत्पन्न करनेवाला स्तेयानंड नाम का रौद्रध्यान कहते हैं ॥२०२६-२०३०॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३१३ ) [ षष्ठम अधिकार विषय संरक्षणानन्द रौद्रध्यान का स्वरूपमवीया वस्तुसदायरामानाविसम्पथः । यो हरेतं दुरास्मान हन्मि पोषयोगतः ॥२०३१।। इतिस्ववस्तुरक्षायांसंकल्पकरणहृदि । बुधियां तत्समस्तं विषयसंरक्षणाभिषम् ॥२०३२।। अर्थ--"ये पदार्थ, यह राज्य, यह सेना, यह स्त्रो और यह सम्पत्ति सब मेरी है जो छात्मा इसे हरण करेगा उसे मैं अपने पुरुषार्थ से मारूगा" इसप्रकार दुर्बुद्धि लोग अपने पदार्थों की रक्षा करने के लिये अपने हृदय में संकल्प करते हैं, वह 'सव विषयसंरक्षणानंय नामका रौद्रध्यान कहलाता है ।।२०३१-२०३२।। रौद्रध्यान के ध्यानादि के भेद से चार प्रकार एवं उनका लक्षणध्यानं ध्येयंभवेद्ध्याताफलमस्याठात्मनाम् । ध्यानमध्यवसानं च रोनं वाणिस्तकायजम् ।।३३॥ ध्येयंलोकत्रयोन तं रौद्रवस्तुकदम्बकम् । रौद्रस्तोत्रकषायीस्याध्यातास्याद्रक्तलोचनः ।।२०३४।। अनन्तदुःखसन्तामति मरकप्रदम् । बसागरपर्यंतफलमस्यबुरामनाम् ॥२०३५।। अर्थ-इस रौद्रध्यान के भी ध्यान, ध्येय, ध्याता और फल के भेद से चार भेद होते हैं । मूर्ख लोगों के रुद्ररूप मन-वचन-कायसे जो चितवन होता है उसको रौद्रध्यान कहते हैं । तीनों लोकों में उत्पन्न हुये रौद्र पदार्थों के समूह ही इसके ध्येय है तथा तीव्र कषाय और लाल नेत्रों को धारण करनेवाला रौद्र परिणामी जीव इसका ध्याता होता है । उन दुष्टों को अत्यन्त दुःख और संताप से भरे हुए नरक में अनेक सागर पयंत डाल रखना इसका फल है ।।२०३३-२०३५॥ रौद्रध्यान की सामग्री और उसके स्वामी का कथनउस्कृष्टाशुभलेश्यात्रयावलाधानमस्य च । भाव मौयिकोनिद्यः क्षायोपमिकाथवा ॥२०३६।। यशपंचप्रमादाधिष्ठानं कषायजम्मणम् । अन्तर्मुहूर्तकालयच चतुर्विधरय नान्यया ॥२०३७।। प्राविमे च गुणस्थानेत्रतदुत्कृष्टमंजसा । जघन्य पंचमेस्यावद्वित्रचतुर्थे च मध्यमम् ।।२०३८।। अर्थ- इस ध्यानमें उत्कृष्ट अशुभ लेश्याएं होती हैं। इसका समय अंतर्मुहूर्त है, भाव निंद्य औदायक है अथवा क्षायोपमिक है, पन्द्रह प्रमाद ही इनका आधार है, कषायों से यह उत्पन्न होता है । इसप्रकार इन चारों प्रकार के रौद्रध्यान को सामग्री है । पहले गुणस्थान में उत्कृष्ट और पंचम गुणस्थान में जघन्य होता है और दूसरे तीसरे चौथे में मध्यम होता है ।।२०३६-२०३८॥ रौद्रध्यान से उत्पन्न दोष और इसे त्यागने की प्रेरणारौद्रकर्मम सैकर्मभावमिवन्धनम् । रौद्रतुःखकर रोगतिवरौद्रयोगमम् ।।२०३६।। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A मूलाधार प्रदीप ] ( ३१४ ) [ षष्ठम अधिकार रौद्रपापारिन्तानं ध्यानं चतुविधम् । श्यायं सर्वत्र यत्नेन धमंध्यानेनमभिः || २०४० ॥ अर्थ - यह चारों प्रकार का रौद्रध्यान रौद्रकर्मों से उत्पन्न होता है, रौद्रकर्म और रौद्रभावों का कारण है, रौद्र या भयानक दुःख उत्पन्न करनेवाला है, नरकादिक रौद्रगति में उत्पन्न करानेवाला है, रौद्ररूप मन-वचन-कायसे उत्पन्न होता है और रौद्ररूप पाप शत्रुओंको उत्पन्न करनेवाला है । इसप्रकार का यह चारों प्रकार का रौद्रध्यान धर्मात्मा पुरुषों को धर्मध्यान धारण कर बड़े प्रयत्न से सर्वत्र छोड़ देना चाहिये । सब जगह इसका त्याग कर देना चाहिये ।।२०३६- २०४० ।। ध्यान का स्वरूप और उसके बाह्य श्रभ्यन्तर भेदों का लक्षण बाह्याध्यात्मिकमेवेन धर्मध्यानमपि द्विधा । दृढवलसदाचार तस्व सिम्ता दिलक्षणम् ।।२०४१ ।। मनोवाक्कायनिःस्पन्दं बाह्य व्यक्त सतांभुवि । प्राध्यात्मिकत्वसंवेद्यम तः शुद्धिकरं परम् ।।४२ ॥ अर्थ-व्रतों में वृढ़ रहना, सदाचार पालन करना और तत्वों का चितवन करना धर्मध्यान का लक्षण है । इस धर्मध्यानके भी बाह्य और अभ्यंतर के भेद से दो भेद हैं । ध्यान करते समय सज्जन लोगों के मन-वचन-कायकी क्रियाओं का जो बंद हो जाना है उसको बाह्य धर्मध्यान कहते हैं तथा जो अपने आत्माके हो गोचर है और प्रकरण को शुद्ध करनेवाला है उसको अंतरंग धर्मध्यान कहते हैं ।।२०४१ २०४२ ।। धर्मध्यान के १० भेदों का कथन - प्रायवित्रयं ध्यानमुपश्यविश्रयं ततः । ओबादिविश्वयध्यानमजीव विश्वयाह्वयम् ।।२०४३ ।। farmers ध्यानं विरागविद्ययं महत् । भावादिविषयं ध्यानं संस्थानविषयाभिवम् ॥। २०४४ तथाशा विचयंहेतु चित्रयास्यमितिस्फुटम् । धमंध्यानंमहाधर्माकरं वशविधं महत् ।। २०४५।। अर्थ - अपायविचय, उपायवित्त्रय, जीवविचय, अजीवविचय, विपाकविचय, विरागविचय, भवविचय, संस्थानविचय, श्राज्ञाविचय और हेतुविचय इसप्रकार इस धर्मध्यान के महा धर्म उत्पन्न करनेवाले दश भेद हैं ।।२०४३ २०४५।। अपायवित्रय धर्मध्यान का लक्षण दुःखार्णवे भवेनामष्ट चारिणो मम् । अन्यस्य वा पुर्वाक्य मनोजित कुकर्मणाम् ॥। २०४६ ॥ factशः स्यात्कथंnter ध्यानेन तपसायवा । इतिचिन्ता प्रबंधों योऽत्रापायविचयं हि तत् ॥ ४७॥ अर्थ - अनेक दुःखों का समुद्र ऐसे इस अनादि संसारमें मैं तथा ये अन्य जीव अपनी इच्छानुसार परिभ्रमण करते चले आ रहे हैं। इसलिये ध्यान से अथवा तपश्वरण Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदोप] [पाठय अधिकार से मेरे अथवा अन्य जीवों के मन-वचन-कायसे उत्पन्न होनेवाले अशुभ कर्म शीघ्रता के साथ कब नष्ट होंगे इसप्रकार का चितवन करते रहना अपाय विचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ।।२०४६-२०४७॥ उपायविचय धर्मध्यान का क्षरणमनोवाकाययोगादि प्रशस्तं मे भवेत्कथम् । फर्मास्त्रविनिष्कासंध्यानेनाध्ययनेन वा ।।२०४८।। इन्युपायोऽत्र तमद्धयं चिन्त्यते यो मुभुक्षुभिः । नानोपायः श्रुसाम्यासरुपाविषयं हि तत् ।।४६ । अर्थ- मोक्षको इच्छा करनेवाले पुरुष अपने मन-वचन-काय को शुद्ध करने के लिये यह चितवन करते हैं कि किस ध्यान वा अध्ययन से मेरे मन-वचन-काय शुभ हो जायेंगे अथवा मेरे मन-वचन-कायसे कर्मों का आस्रव कब रुक जायगा, इसप्रकार के चित्तवन करने को तथा श्रुताभ्यास आदि अनेक उपायों से योगों को शुद्ध करने का उपाय करना उपायविषय नामका धर्मध्यान कहलाता है ।।२०४८-२०४६॥ __ जीवविचय धर्मध्यान का लक्षणउपयोगमयोजोधोमूतोंमूर्तोगुणीमहान् । शुभाशुभविधेभोक्तामोक्षगामी च तस्यात् ।।२०५०।। सूक्ष्मोसंख्यप्रवेशोऽनपराधीनोऽनिशंभ्रमेत् । इत्याध गिस्वभावानां चिन्तनं तृतीयं हि तत् ।।५।। अर्थ-यह जीव उपयोगमय है, अमूर्त है, कर्म के सम्बन्ध से मूर्त है, गुणी है, समस्त पदार्थों में उत्कृष्ट है, शुभ-अशुभ कर्मों का भोक्ता है और उन कर्मोके नाश होने से उसी समय में मोक्षमें जा विराजमान होता है । यह जीव अत्यंत सूक्ष्म है, असंख्यात प्रदेशी है, और कोके अधीन होकर इस जन्म मरण रूप संसार में निरंतर परिभ्रमण करता रहता है। इसप्रकार जीवों के स्वरूप का चितवन करना जीवविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ॥२०५०-२०५१॥ अजीवविचय धर्मध्यान का लक्षणधर्माधर्मनभः कालयुगलाना जिमागमे । अचेतनमयानां च धर्मध्यानाय योगिनाम् ।।२०५२।। अनेकगुणपर्यायः स्वरूपचिन्तनं हृदि । ध्रौव्योत्पादध्ययैर्यत्तदजीवधिचयं परम् ।।२०५३॥ अर्थ-योगी लोग अपने धर्मध्यानकी प्राप्ति के लिये अपने हृदय में जिनागम में कहे हुए धर्म अधर्म आकाश काल और पुद्गलरूप अचेतन समस्त पदार्थों का स्वरूप उनके अनेक गुण पर्यायों के द्वारा चितवन करते अथवा उनके उत्पाद व्यय प्रौव्य गुणों के द्वारा चितवन करते हैं उसको अजीवविच्य नामका उत्कृष्ट धर्मध्यान कहते हैं। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ३१६ । [षष्ठम अधिकार ।।२०५२-२०५३॥ विपावित्रय धर्मध्यान का लक्षणसत्पुण्यप्रकृतीनां गुडखंडशकरामतः । सभोधप्रकृतीनां च निम्बाविसवशोशुभः ॥२०५४।। दिपाको बहुधाचश्चिन्त्यले यत्रमानसे । तद्विषाकजयायोचविपाकविचयं हि तत् ।।२०५५।। अर्थ- श्रेष्ठ पुण्य प्रकृतियों का विपाक गुड़, खांड, मिश्री और अमृतके समान उत्तरोत्तर शुभ होता है तथा पाप प्रकृतियों का विपाक नीम, विष, हलाहल आदि के समान अत्यंत अशुभ होता है । इसप्रकार चतुर पुरुष कमों के विपाक को जीतने के लिये बार-बार चितवन करते हैं उसको विपाकविषय नामका धर्मध्यान कहते हैं । ।।२०५४-२०५५॥ __ विरागविचय धर्मध्यान का लक्षणसप्तधातुमयाबिंद्यात कायाद मेव्यमग्विरात । अतृप्तजनकावभ्रकारणाद्भोगसंचयात् ॥५६।। अनन्तदुःखसम्पूर्णाहसंसाराच्चसुखच्युतात् । विरक्ति या सता विते विरागविनयं हि सत् ।।५७।। अर्थ- यह शरीर सप्त धातुओं से भरा हुआ है, अत्यंत निथ है और भिष्टा का घर है तथा ये भोगों के समूह नरक के कारण हैं और इनसे कभी तृप्ति नहीं होती और यह संसार भी अनंत दुःखों से भरा हुआ है और सुखसे सर्वथा दूर है, इसप्रकार चितवन करते हुए सज्जनों के हृदय में जो संसार शरीर और भोगों से वैराग्य उत्पन्न होता है उसको विरागविचय धर्मध्यान कहते हैं ॥२०५६-२०५७।। भवविनय धर्मध्यान का लक्षणअनन्तदुःखसंकीर्णे भवेनावोमुखातिगे । सचित्तापिसमिधादिनानायोनिषुकर्मभिः ।।२०५८॥ भ्रमन्ति प्रारिंगनोश्रान्तकमपाशावता इति । भवभ्रमणदुःखानुचिन्तनध्यामसप्तमम् ।।२०५६॥ अर्थ-यह संसार अनादि है सुखसे सर्वथा रहित है और अनंत दुःखों से भरा हुधा है ऐसे इस संसार में कर्मों के जाल में फंसे हुए ये प्राणी अपने-अपमे कर्मों के उदय से सचित अचित्त मिश्र आदि अनेक प्रकार की योनियों में निरंतर परिभ्रमण करते रहते हैं । इसप्रकार संसार के परिभ्रमण के दुःखों का बार-बार चितवन करना भवविचय नामका धर्मध्यान है ॥२०५८-२०५६।। संस्थानविनय धर्मध्यान का लक्षणअमित्याचा अनुप्रेक्षा द्वादसामन्त शर्मवाः । वैराग्यमातरो रागनाशिन्योमुक्तिमातृकाः ॥२०६०।। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ षष्ठम अधिकार L सुलाचार प्रदीप } ( ३१७ ) चिन्त्यते रागनाशाय यववैराग्यबुद्धरे । योगिभियोगसंसिद्ध संस्थान विचर्याहि तत् ।।२०६१।। अर्थ-योगी पुरुष अपने योग की सिद्धि के लिये, वैराग्य की वृद्धि के लिये और रागद्वेषको नष्ट करने के लिये मोक्षको देनेवाली, रागद्वेष को नाश करनेवाली, राग्य को उत्पन्न करनेवाली और अनंत सुखको देनेवाली ऐसी अनित्य अशरण आदि बारह अनुप्रेक्षाओं का जो चितवन करते हैं उसको संस्थानवित्रय नामका धर्मध्यान कहते हैं ।।२०६०-२०६१॥ आज्ञावित्रय धर्मेध्यान का लक्षण प्रमाणीकृत्य तीर्थेशान् सर्वतान्योषदूरगान् 1 तत्प्रीतेषु सूक्ष्मेषुविश्वदृग्गोचरेषु च ।। २०६२ ॥ लोकालोका दिखेषु धर्मेषु मुक्तिवत्सु । रुचिः श्रद्धाप्रतीतिर्या तदाशाविषयंसताम् || २०६३ । अर्थ- - भगवान तीर्थंकर परमदेव सर्वज्ञ हैं और समस्त दोषों से रहित हैं, इसलिये भगवान तीर्थंकर परमदेव को प्रमाण मानकर उनके कहे हुए केवलज्ञान वा केवलवर्शन के गोचर ऐसे सूक्ष्म तत्वों में लोक- अलोक आणि तत्त्वों में, उनके कहे हुए धर्म में वा मोक्षमार्ग में जो रुचि श्रद्धा वा प्रतीति करना है वह सज्जनों के लिये श्राज्ञाविचय नामका धर्मध्यान कहा जाता है ।।२०६२-२०६३।। हेतु विजय धर्मध्यान का लक्षण स्माद्वावनयमा लक्ष्य हेतुदृष्टसमुक्तिभिः । पूर्वापराविरोधेन तर्कानुसर्गर घोषनंः | २०६४ ।। सर्वज्ञोक्ताः पार्थाद्याः स्थाप्यन्ते यत्र भूतले । यथातथ्येनविसेवा तद्ध सुविधदाभिधम् ॥। २०६५ ।। अर्थ- स्याद्वाद नयको आलंबन कर हेतु दृष्टांत और युक्तियों से अथवा तर्क वा अनुमानसे बुद्धिमान लोग पूर्वापर विरोध रहित भगवान सर्वज्ञवेव के कहे हुए पदार्थों को जो संसारभर में स्थापन कर देते हैं अथवा उनके यथार्थ स्वरूप को अपने हृदय में स्थापन कर लेते हैं उसको हेतुविचय नाम का धर्मध्यान कहते हैं ।1२०६४२०६५ ।। १० प्रकार के ध्यान करने की प्रेरणा एतदृशविधं धर्मध्यानं शुक्ल निबन्धनम् । ध्यातव्यं व्यानिभिनित्यं विश्वश्रेयस्करं परम् ।।२०६६।। अर्थ - इसप्रकार यह दश प्रकार का धर्मध्यान मोक्ष का कारण है, समस्त जीवों का कल्याण करनेवाला है और परम उत्कृष्ट है । इसलिये ध्यान करनेवालों को सदा इसका ध्यान करते रहना चाहिये || २०६६ ॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( ३१८ ) [ षष्टम अधिकार ध्यानादि के भेट में चार प्रकार के धर्मध्यान का स्वरूप - ध्यानं ध्येयंबुधध्याता फरनमस्पनिगद्यते । ध्यान प्रशस्तसंकल्पंपरमानन्दकारकम् ।।२०६७।। विश्वध्यपवार्यादिश्रीजिनागममूजितम् । परमेष्ठिस्वरूप च ध्येयमस्याखिलभतम !॥२०६८।। व्रतशीलगुणःपूर्णोविरागो विश्वतत्त्वरित । एकान्तवाससंतुष्टोधीमानध्यातास्यकथ्यते ॥२०६६।। स्वार्थसिद्धिपर्यन्तम् सर्वाभीष्टार्थसाधकम् । तीर्थकृताविसस्पुण्यकरं ध्यानस्य सत्फलम् ।।२०७०।। अर्थ-ध्यान, ध्येय, ध्याता और फलके भेद से इसके भी चार भेद हैं । जो परमानंद उत्पन्न करनेवाला शुभ संकल्प है उसको बुद्धिमान लोग ध्यान कहते हैं। श्री जिनागम में कहे हुए जो सर्वोत्कृष्ट जीवाजीवादिक समस्त तत्त्व वा पदार्थ हैं अथया परमेष्ठियों का जो स्वरूप है वह सब इस भ्यानका ध्येय समझना चाहिये । जो व्रत शील और गुणों से सुशोभित है, जो धीतराग है, समस्त तस्थों को जानने वाला है, बुद्धिमान है और एकांतदासमें सदा संतुष्ट रहता है, वह इस ध्यानका ध्याता कहलाता है । तीर्थंकर आदि श्रेष्ठ पुण्य प्रकृतियोंको उत्पन्न करनेवाला और समस्त इष्ट पदार्थों को सिद्ध करनेवाला ऐसे सर्वार्थसिद्धि पर्यंत स्वर्गों का सुख प्राप्त होना इस ध्यान का फल समझना चाहिये ॥२०६७-२०७०॥ धर्मध्यान के स्वामी का निरूपणपीतावित्रिकलेश्योस्थेवलाथानंकिलास्य च । क्षायोपशमिको भावः काल प्रान्समुहतंकः ॥२०७१।। गुणस्यानेषुतत्स्यानाधिरतादिषुनिश्चितम् । सरागेषुकुरागनं धर्मध्यानं गुभाकरम् ॥२०७२।। अर्थ-पोत, पर, शुक्ल ये तीन लेश्याएं इस ध्यान का प्रालंबन है, इसमें क्षायोपशमिक भाव होते हैं और इसका काल अंतर्मुहूर्त है । यह अशुभ रागको नाश करनेवाला और शुभ वा कल्याण करनेवाला धर्मध्यान चौये गुणस्थान से लेकर सातव गुणस्थान तक रहता है ॥२०७१-२०७२।। धर्मध्यान का फल एवं उसे करने की प्रेरणामोहप्रकृतिसप्तानां ध्यानमेतार्यकरम् । एकविंशतिमोहप्रकृतीनां शमकारणम् ।२०७३।। यत्नेन महता जातमेतदक्ष्यानं सुखाकरम् । कुर्धन्तुध्यानिनो निस्म शुक्ल विश्वद्धिधर्मदम् ॥२०७४।। अर्थ-यह धर्मध्यान सम्यग्दर्शन को नाश करनेवाली मोहनीय को सातों प्रकृतियों को नाश करनेवाला है और बाकी की मोहनीय की इक्कीस प्रकृतियों को उपशम करने का कारण है । यह धर्मध्यान बड़े प्रयत्न से उत्पन्न होता है, सुख को खानि है तथा शुक्लध्यान समस्त ऋद्धियां और उत्तम धर्मको देनेवाला है । इसलिये Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३१६ } [ षष्ठम अधिकार ध्यान करने वालों को सवा इस ध्यान को धारण करना चाहिये ।।२०७३-२०७४।। शुक्लध्यान के भेद, प्रभेदों का वर्णनशुषलपरमशुपलं ध शुपयामिति द्वधा । सपृश्य वितकाढध' बांधार शुक्लमादिमम् ।।७।। तयकस्ववितर्कावीचारशुक्ल द्वितीयकम् । इतिगुगलविषाध्यानं केवलशाननेत्रदम् ॥२०७६11 प्रतिपातिचिनिष्क्रान्तं शुक्लसूक्ष्माफियालयम् । समुचिन्न क्रियं शुक्स द्विति परमं स्मृतम् ।।७७।। तद्वाह्माध्यामिकाभ्यां च शुक्लध्याममपिद्विधा । अत्यन्तसाम्यसापन्न नेत्रस्पंवावि जितम् ।।७८|| सबद्वन्द्वातिगं बाह्य शुक्लं व्यक्तं सा भुभि । मनः शुद्धिकरं तत्स्यसंवेधात्मिकंमहत् ।।२०७६।। अर्थ- शुक्लध्यान के दो भेद हैं एक शुक्लध्यान और दूसरा परम शुक्लध्यान । उसमें भी पहले शुक्लध्यान के दो भेद हैं एक पृथक्त्ववितर्फवीचार और दूसरा एकत्ववितर्कअबीचार । इसप्रकार पहले शुक्लध्यान के दो भेद हैं और दोनों केवलज्ञानरूपी नेत्रों को प्रगट करनेवाले हैं। पहले शुक्लध्यान के समान दूसरे परम शुक्लध्यान के भी दो भेद हैं, एक सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती और दूसरा समुच्छन्नक्रियानिवृत्ति । इसके सिवाय बाह्य और अभ्यंतर के भेद से भी इस शुक्लध्यान के दो भेद हैं । जिस ध्यानमें अत्यंत उत्कृष्ट साम्यभाव प्रगट हो जाय, नेत्रोंका स्पंदन प्रादि सब छूट जाय, सज्जनों के सब संकल्प विकल्प छट जाय और जो सज्जनोंको प्रगट मालूम हो उसको बाहर शुक्लध्यान कहते हैं । तथा जो अपने प्रात्मा के ही गोचर है और मनको शुद्ध करनेवाला है, उस महान् शुक्लध्यानको अभ्यंतर शुक्लथ्यान कहते हैं ।।२०७५-२०७६॥ पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक शुक्ल ध्यान का स्वरूप ---- नानाभेवपृथक्त्वं च वितकाचाधिलश्रुतम् । अर्थव्यंजनयोगानां वीचारः संक्रमो भवेत् ॥२०८०॥ यत्पृथक्त्यषिसज्यिायोचारणमुमीवराः । ध्यायन्ति ध्यानमात्मज्ञाः शुक्संतत्प्रयमंमतम् ।।८।। अर्थ-पृथक्त्ववितकवीचार ध्यानमें अनेक अव्योंका वा अनेक प्रकार के द्रव्यों का ध्यान होता है तथा मन-वचन-काय तीनों योगों से होता है इसलिये इस ध्यानको पृथक्त्व कहते हैं। वितर्क शब्दका अर्थ श्रुतज्ञान है, इस ध्यानको नौ बश वा चौदह पूर्व को जाननेवाला ही प्रारम्भ करता है । अर्थ शब्द और योगों के संक्रमण को वीचार कहते हैं, इस पहले ध्यानमें शब्दों से शब्दांतर, योग से मोगांतर और अर्थ से अतिर का चितवन होता है इसलिये यह ध्यान सवीचार है । प्रास्माको जानने वाले जो मुनिराज पृथक्त्व वितर्क और वीवार के साथ-साथ ध्यान करते हैं उसको पृथक्त्ववितर्कवोचार नामका पहला शुक्लध्याम कहते हैं ॥२०५०-२०५१।। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ३२०) [ षष्ठम अधिकार एकत्ववितर्कप्रवीचार नामक शुक्लध्यान का स्वरूपएकत्येन वितरण वीचारेणातिनिश्चलम । ध्यायन्ति सीपमोहाय ध्यान द्वितीयमेवतत् ।।२।। __ अर्थ-मोहनीय कर्मको क्षय करनेवाले जो मुनिराज शब्द अर्थ और योग के संक्रमण से रहित तथा नौ दश वा चौदह पूर्व श्रुतज्ञानके साथ-साथ किसी एक ही द्रव्य का निश्चल ध्यान करसे हैं उसको एकस्ववितर्कअवीचार नामका शुक्लध्यान कहते हैं । ॥२०८२॥ सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती शुक्लध्यान का स्वरूपकाययोगेति सूक्ष्मसंस्थितस्ययस्सयोगिनः । कथ्यतेऽत्रोपचारेण तृतीयं निश्चलं हि तत् ॥२०८३॥ अर्थ-जिस समय संयोगिकेवली भगवान अत्यन्त सूक्ष्म काय योग में निश्चल विराजमान होते हैं उस समय उनके निश्चल होने को उपचार से ध्यान कहते हैं । यह तीसरा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती नामका शुक्लध्यान है ॥२०१३॥ व्युपरीतक्रिया निवृत्ति शुक्लध्यान का स्वरूपयेन ध्यानेन चायोगोनिधिकयो योगभितः। यालिमुक्तिपर्व शुक्लं सच्चतुर्य क्रियासिगम् ।।४।। ___ अर्थ-प्रयोगकेवली भगवान क्रियारहित और योगरहित होकर जिस ध्यानसे मोक्ष पव प्राप्त करते हैं उसको व्युपरीत क्रियानिवृत्ति नामका चौथा शुक्लध्यान कहते हैं ॥२०६४॥ ध्यानादि के भेद से शुक्लध्यान के भेद व स्वरूपध्यानध्येयमयास्यापिध्याताम्यानफलं भवेत् । सर्वसंकल्पनिका ध्यानस्वारमानुचिन्तमम् ॥५॥ स्वात्मतत्त्वं परम्पेयं ध्यानाधयोपचपूर्ववित् । प्रन्सयोः केवलीप्रोक्त उपचाराज्निमाधिपः ।।६।। याधिसंहनमस्या सुक्लमेकस्य सस्त्रियम् । फलंसर्वार्थसिध्यन्तमाघशुक्लस्य कम्यते ।।२०६७।। केवलज्ञानसामाज्यं द्वितीयस्य परंफलम् । कृत्स्नकर्मभयो यस्यान्त्यस्यमुक्तिपदंघ्र वम् ॥२०६८) अर्थ-ध्यान, ध्येय, ध्याता और फल के भेव से इस ध्यान के भी चार भेद होते हैं। समस्त संकल्प विकल्पोंसे रहित होकर अपने आत्माको चितवन करना शुक्लध्यान है । अपना आत्मतत्त्व ही इस ध्यामका ध्येय है। भगवान जिनेन्द्रदेव ने पहले के वो शुक्लध्यानों ध्यान करनेवाला ध्याता ग्यारह अंग चौदह पूर्वोका जानकार बतलाया है तथा अंतके दो शुक्लध्यानों के ध्याता उपचार से केबली भगवान बतलाये हैं। पहले के तीन संहनन वालों के पहला शुक्लध्यान होता है, तथा प्रथम संहनन बालों के शेष Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] । पठन प्रधिकार में तीन शुपालन हो। है । प्रथम शुमध्यान का फल सर्वार्थसिद्धिपर्यंत गमन करना है, दूसरे शुक्लध्यान का फल केवलज्ञान की प्राप्ति होना है। तीसरे शुक्लध्यान का फल समस्त कर्मों का क्षय होना है और चौथे शुक्लध्यान का फल मोक्षको प्राप्ति होना है ।।२०८५-२०६८।। शुक्लध्यान के स्वामी श्रादि का प्रपेक्ष कथनउपशान्तकषायस्य शुक्समाधजिनो दिलम् । तथा क्षीरणकषायस्य निकषायल्म चापरम् ॥२०८६। शुक्ललेश्या बलाधान स्थितिरान्तमुहलिको। सायोपशमिकोभाव प्रायशुक्लस्य कथ्यते ।।१०।। ___एतच्चतुर्षियं ध्यानंतसंहनना भुवि । यथातध्येम कुर्वन्तु विकलातोतरेतसः ॥२०६१।1।। भावनां भावयन्यत्रशुक्लानां स्वात्मतासमम् । होनसहननादक्षाः शुक्लध्यानाप्तपेनिशम् ।।२।। अर्थ-भगवान जिनेन्द्रदेव ने उपशांत कषाय वाले के पहला शुक्लध्यान बतलाया है तथा क्षीण कषाय वा अकषाय वाले के बाकी के तीनों शुक्लध्यान होते हैं । शुक्ललेश्या इस ध्यानका पालंबन है इसकी स्थिति अंतर्मुहर्त है, तथा पहले शुक्लध्यान में क्षायोपशमिक भाव रहते हैं। जिनके हृदय में किसी भी प्रकार की विकलता नहीं है और जो दृढ़ संहनन को धारण करनेवाले हैं उनको यह चारों प्रकार का शुक्लध्यान यथार्थ रीसिसे धारण करना चाहिये । जो हीन संहननको धारण करनेवाले चतुर पुरुप हैं उनको इस शुक्लध्यानको प्राप्ति के लिये अपनी आत्माके साथ-साथ निरन्तर शुक्ल. ध्यानकी भावना का चितवन करते रहना चाहिये ॥२०८६-२०१२॥ ध्यानकी महिमायावर्श सिद्धसादृश्यस्वारमानध्यायतिस्फुटम् । तावृशं निर्मलयोगी निश्चितलभतेऽचिरात् ॥१३॥ निजारमध्यानमात्रेणानन्तदुष्कर्मपुड्गलाः । सोयन्सेध्यानिनां मून यमा बजेग चायः ॥२०६४।। ध्यानप्रवोपयोगेनमोहाशानतमोखिलम् । प्रणश्यतिसतां शीघ्र नायन्ते जानसम्मः ।।२०६५।। योगशुद्धिः प्रजायेत सध्यानेन ययायथा । पुंसां महवंयः सर्वा उत्पद्यन्ते तथा तथा ॥२०६६॥ अर्थ-योगी पुरुष सिद्धके समान अपने निर्मल प्रात्मा का जैसा ध्यान करते हैं वैसे ही शीघ्र निर्मल प्रात्माको प्राप्ति उन्हें अवश्य हो जाती है। जिसप्रकार बन्न से पर्वत चूर-चूर हो जाते हैं, उसीप्रकार अपने आत्मा का ध्यान करने मात्रसे ध्यानी पुरुषों के अनन्त प्रशुभ कर्मों के पुद्गल क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं । इस ध्यानापी दोपफ के सम्बन्ध से सज्जन पुरुषों का मोह और अज्ञान रूपी समस्त अंधकार रहत शीघ्र नष्ट हो जाता है और बहुत ही शीघ्र जानरूपी संपत्ति प्रगट हो जाती है । इस Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाचार प्रदीप ] ( ३२२ ) [ षष्ठम अधिकार श्रेष्ठ ध्यानके द्वारा जैसे-जैसे मनुष्यों के योगों को शुद्धि होती जाती है वैसे ही वैसे उनको समस्त बड़ी-बड़ी ऋद्धियां प्राप्त होती जाती है ॥२०६३-२०६६॥ ध्यान के अभाव में कार्यसिद्धि का अभावभग्नदम्तोमथाहस्ती दंष्ट्राहीनो मृगाधिपः । स्वकार्मसाधनेऽशस्तो ध्यानहीनस्तथायतिः ॥२०६७।। अर्थ --जिसप्रकार बिना दांत का हाथी और मिना दाढ़का सिंह अपना कार्य सिद्ध नहीं कर सकता उसीप्रकार मुनि भी बिना ध्यान के अपना कार्य सिद्ध नहीं कर सकता ।।२०६७।। ध्यान करने को प्रेरणामत्वेतिप्रवरंध्यान कारालिनिकन्दनम् । ध्यायन्तु योगिनो नित्यं मनः कृत्वातिनिश्चलम् ॥१८॥ अर्थ-इसप्रकार इस ध्यानको प्रत्यंत उत्तम और कर्मरूपी शत्रुनों को नाश करनेवाला समझकर योगियों को अपना मन निश्चल कर सदा इस ध्यान को धारण करते रहना चाहिये ॥२०१८॥ प्रतः १२ प्रकार के तपको धारण करने की प्रेरणाषोत्यभ्यन्तरं प्रोक्त सपोन्तः शत्रुघातकम् । विधेमंपरया भक्त्यातस्यारि हानये वर्षः ।।२०६६।। एतद्दारशमा प्रोक्त समासेन मया सपः । सर्वयत्नेन भुक्त्यर्थमाचरन्तु तपोधमाः ॥२१००।। अर्थ-~-इसप्रकार भगवान जिनेन्द्रदेव ने अंतरंग शत्रुओं को नाश करनेवाला यह अभ्यन्तर तप छह प्रकार का बतलाया है । अतएव बुद्धिमानों को अपने अंतरंग शत्रुओंको नाश करने के लिये परम भक्तिसे इस तपश्चरणको धारण करना चाहिये । इस प्रकार बारह प्रकार का यह तपश्चरण हमने अत्यंत संक्षेप से कहा है। तपस्वियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये पूर्ण प्रयत्न कर इन तपश्चरणों को पालन करना चाहिये। ॥२०६६-२१००॥ यह तप स्वणं के लिये अग्नि, मलिन वस्त्र के लिये जल एवं जन्मादि रोग के लिये औषध सदृश्ययथाग्निविधिनातप्स वृतं शुमति कांचनम् । तथा कर्मकलंकी च स्वात्मा तपोग्निना भृशम् ।। वस्त्राधाः समलाब्या यबीताश्चवारिणा । भवन्ति निर्मला सहयोगी तपोछयारिणा ।। तपोमेषजयोगेन जन्ममत्युमराहणः । पंचामारातिभिःसा विलीयन्तेषराशयः ।।२१०३॥ चतुनिषरोमुतिगामीशकगणचितः । स्ववीयं प्रकटीकृत्य करोत्येव परं तपः ।।२१०४।। अर्थ-जिसप्रकार अग्निसे तपाया हुआ सोना शीघ्र ही शुद्ध हो जाता है उसी Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३२३ ) [ प अधिकार प्रकार यह कर्ममलसे कलंकित हुआ आत्मा तपश्चरण रूपी श्रग्निसे बहुत शीघ्र शुद्ध हो जाता है । जिसप्रकार मलिन वस्त्र पानी से धोनेपर निर्मल हो जाते हैं उसीप्रकार योगी पुरुष भी तपश्चरण रूपी स्वच्छ जलसे अत्यंत निर्मल हो जाते हैं । इस तपश्चरण रूपी श्रौषधि से जन्म-मरण - बुढ़ापा श्रादि समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं, पंचेन्द्रिय रूपी शत्रु नष्ट हो जाते हैं और समस्त पापों की राशि नष्ट हो जाती है । जो मोक्षगामी पुरुष चारों ज्ञानों को धारण करनेवाले हैं और समस्त इन्द्र जिनकी पूजा करते हैं ऐसे योगी ges प्रपनी शक्तिको प्रगट कर सदा उत्कृष्ट तपश्चरण करते हैं ।। २१०१-२१०४॥ तीर्थंकरादि के तपों का वर्णन- श्रादिदोषोऽपि पासवान् मुविं । अन्येरपि जिनाधीशैः सर्वैः कृतं तपो महत् ।।२१०५ ॥ arrage कृत्वा वर्षेकप्रोषधानुपररन् । व्युत्सर्गस्यः सुयोगेन केवलज्ञानमापभोः ।।२१०६ ।। इत्याध्याः प्रवशः सर्वे पुराणपुरुषा श्रहो । बलाद्यन्ये तपः कृत्वा घोरं मुक्तिपर्ववयुः ।।२१०७ ।। अर्थ --- देखो भगवान वृषभदेव ने एक वर्षके बाद पारणा किया था । तथा अन्य समस्त तीर्थंकरों ने सर्वोत्कृष्ट तपश्चरण किया था । अत्यंत धोरवोर बाहुबलि ने भी एक वर्षका उत्कृष्ट उपवास किया था तथा श्रेष्ठ योग धारण कर कायोत्सगं से विराजमान होकर केवलज्ञान प्राप्त किया था। इसप्रकार समस्त श्रेष्ठ महापुरुष अपनी शक्ति के अनुसार घोर तपश्चरण करके ही मोक्ष पद में जा विराजमान हुए हैं। ॥२१०५-२१०७॥ तप से ही जीव तीनों काल में सिद्ध हुए हैं--- या याति च पास्यन्ति मुसि पेत्र मुमुक्षवः । कर्माशम् केवलं हत्मातपोभिस्ते न चान्यथा ॥ ८ ॥ अर्थ --- मोक्षकी इच्छा करनेवाले जो पुरुष आज तक मोक्ष गये हैं, अब जा रहे हैं वा आगे जायेंगे वे सभ तपश्चरण से ही कर्मरूप शत्रुओं को नाश कर मोक्ष गये हैं या जायेंगे। बिन्दा तपके न तो कोई मोक्ष गया है और न कभी जा सकता है । ।।२१०६ ॥ तप का महात्म्य - मुक्तिमार्गे प्रवृत्तानां त्रिरत्न श्रीयुतात्मनाम् । विघटन्ते क्षौराखास्तपः सुभटताहिताः ।।२१०६ ।। सहायकृत्य यो धीमान् तपःसुभटमूजितम् । व्रजेन्स क्तिपपेक्षाचं विध्यं तस्य न जातुचित् ।। १०: तपोलंकारि नूनमस्यासता शिवात्मजा । क्षरणोत्यत्र न संदेहः का वार्ता शक्रयोषिताम् ।।११।। अहमिन्द्रपर्व पूज्यं देवराजपदं महत् । चकनाथपदं चाभ्यदूलदेवादिसत्पदम् ।।२११२ ।। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३२४ ) [षष्ठम अधिकार लोकान्तिकपर्वसारं गणेशादिपदंपरम् । तपः फलेन जायेत तपस्विनां जगन्नुतम् ।।२११३।। अनन्तमहिमोपेसास्तीर्थनाविभूतयः । तपसा धीमतांसर्वा जायन्ते मुक्तिमातृकाः॥२११४॥ त्रिजगन्नायसंसेथ्यान् भोगाम पंचाक्षपोषकान् । तपोधना सभन्ते च सौख्यं वरावामगोचरम् ।।१५।। तपोमंत्रवराकृष्टासम्पल्लोकत्रयोडवा । तरोमहात्म्यलो गुर्षी सपद्यत तपस्विनाम् ।।२११६।। तपश्चिन्तामगिदिथ्यस्तपः कस्पद्रुमोमहान् । तपो नित्यं निधानं तयः कामधेनुरूजिता ।।२११७।। यहरं यह राराध्यं यच्च लोकद्रये स्थितम् । अनध्य वस्तु तत्सर्व प्राप्यते तपसाचिरात् ।।१८। ___ अर्थ- जो पुरुष मोक्षमार्ग में लग रहे हैं और रत्नत्रयकी लक्ष्मी सुशोभित है, उनके इन्द्रियरूपी चोर पाप रूपी सुटका होशार अपने पाप भाग जाते हैं । जो बुद्धिमान इस तपश्चरण रूपी उत्कृष्ट योद्धा को साथ लेकर मोक्षमार्ग में गमन करता है उसके लिये इन्द्रियां आदि कभी भी विघ्न नहीं कर सकतीं । जो पुरुष तपश्चरणरूपी अलंकार से सुशोभित हैं उनको मोक्षरूपी कन्या अत्यंत आसक्त होकर स्वयं पाकर स्वीकार करती है इसमें कोई सन्देह नहीं है । फिर भला इन्द्रको इन्द्राणियों को तो बात ही क्या है । तपस्वी पुरुषोंको इस तपश्चरणके ही फलसे तीनों लोकों के द्वारा पूज्य ऐसा पूज्य अहमिन्द्रपद उस्कृष्ट इन्द्रपद, चक्रवर्ती का पद, श्रेष्ठ बलभद्र का पद, सारभूत लोकान्तिक का पद और उत्कृष्ट गणघरका पर प्राप्त होता है । इस तपश्चरण से ही बुद्धिमानों को अनंत चतुष्टय की महिमा से सुशोभित सबको सुख देनेवाली और मोक्षको जननी ऐसी तीर्थकरकी उत्कृष्ट विभूति प्राप्त होती है । तपस्वो पुरुषों को इस तपश्चरण के ही प्रभाव से तीनों लोकों के इन्द्रों के द्वारा सेवन करने योग्य और पांचों इन्द्रयों को पुष्ट करनेवाले ऐसे भोग प्राप्त होते हैं और वाणी के अगोचर ऐसे सुख प्राप्त होते हैं । तपस्वी पुरुषों को इस तपश्चरण के हो माहात्म्य से तपश्चरणरूपी श्रेष्ठ मंत्रसे प्राकृष्ट हुई तीनों लोकों को सर्वोत्कृष्ट संपसियां प्राप्त हो जाती है । यह तपश्चरण ही चिंतामणि रत्न है, तपश्चरण ही महान् कल्पद्रुम है, सप ही सदा रहने वाला निधान वा खजाना है और तप ही उस्कृष्ट कामधेनु है। तीनों लोकों में रहनेवाले जो बहुमूल्य पदार्थ अत्यन्त दूर हैं और जो कठिनला से प्राप्त हो सकते हैं ये सब पदार्य इस तपश्चरण से बहुत शोघ्र प्राप्त हो जाते हैं ।।२१०६.२११८।। ___ तपके अभाव में हानिये तपः कुर्वते नाहो सत्वहीनाः खलपटाः । भवेनोग व्रजस्तेषामन्त्र संघनराशिदः ।।२११६।। ततस्तोत्रमहादुःखलेशाविशतसंकुलम् । प्रक्षोस्वपापपाकेन जन्मावभाविदुगतौ ।।२१२०।। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूवाचार प्रदीप ( ३२५) [ षष्ठम अधिकार अर्थ- इन्द्रियों में लंपटी और शक्तिहीन जो मनुष्य तपश्चरण नहीं करते हैं उन्हें अनेक लंघन कराने वाले बहुत से कठिन रोग पाकर प्राप्त हो जाते हैं। उन इन्द्रियों से उत्पन्न हुए महापाप के फलसे उन लंपटियों का जन्म नरकादिक दुर्गतियों में होता है, जहां कि तीव्र महा दुख और सैकड़ों महा क्लेश हर समय प्राप्त होते रहते हैं ।।२११६-२१२०॥ तपाचरण करने को प्रेरणाइति मत्वा बुधानित्यंजित्वापंचाक्षतस्करान् । स्वक्ति प्रकटीकृत्यचरन्त्वन्न तपोनधम् ।।२१२१।। ____ अर्थ-यही समझकर बुद्धिमान पूरुषों को अपने पांचों इन्द्रियरूपी चोरों को जीतकर और अपनी शक्तिको प्रगट कर निरंतर पापों से सर्वथा रहित ऐसा तपश्चरण ___ करते रहना चाहिये ।।२१२१॥ वीर्याचार का स्वरूपवलं वयं निजं सर्व प्रकटीकृत्य योगिनाम् । संयमाचरणं यस्सयोर्याचारोजिनमतः ॥२१२२।। अर्थ-योगी लोग जो अपना बल वीर्य आदि सब प्रगट करके संयमाचरणका पालन करते हैं उसको भगवान् जिनेन्द्र देव वीर्याचार कहते हैं ॥२१२२॥ बल और वीर्य का स्वरूप-- रसाहारौषधाचं श्चमनितं बलमुख्यते । वीर्य वीर्यान्तरायस्यक्षयोपशमसम्भवम् ।।२१२३।। अर्थ-सरस पाहार और औषधि प्राति से जो सामथ्र्य उत्पन्न होती है उसको बल कहते हैं तथा वीर्यातराय कर्मके क्षयोपशम से जो सामर्थ्य उत्पन्न होती है उसको वीर्य कहते हैं ।।२१२३॥ तपादि ग्रहण करने की प्रेरणाअनमोः प्राप्यसामन्यं तपोयोगादिसंघमान् । अयुत्सव:श्च कुर्वनवनिग्रहितपराक्रमा ॥२१२४॥ ___ अर्थ-इन दोनों की सामर्थ्य प्राप्त कर तथा अपनी शक्ति को न छिपा कर मुनियों को तप, योग, संयम और कायोत्सर्ग आदि धारण करना चाहिये ।।२१२४।। संयम के भेद का कथनप्रारगीन्द्रियविभवाम्यां संयमोतिषियोमतः । सत्प्रारिणसंयमः सप्तवशप्रकार एव हि ।।२१२५।। अर्थ-यह संयम प्राण संयम और इन्द्रिय संयम के मेव से दो प्रकार का है। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३२६ ) उसमें भी प्राणिसंयम के सत्रह भेद हैं ।। २१२५ ॥ काय, त्रस एवं प्रजीव संयम का स्वरूप [ षष्ठम अधिकार पृष्यतेजोमहकायानां वनस्पतिदेहिनाम् । यत्नेनरक्षणं यत्सपंचधा कायसंयमः ।। २१२६ ।। द्वित्रियक्ष पंचेन्द्रियाणां यत्प्रतिपालनम् । त्रसमेवेन सप्रोतश्चतुद्ध संयमः सताम् ।।२१२७ । जीवानां तृणादीनामच्छेदनं नखादिभिः । यत्ससंयमिनां प्रोक्तः संयमोऽशोषकः ।।२१२८ ।। अर्थ - पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों की प्रयत्न पूर्वक रक्षा करना पांच प्रकार का काय संयम है । दोइन्द्रिय, सेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों की रक्षा करना सज्जन लोगों के लिये चार प्रकार का त्रस संयम कहलाता है । संयमी लोग जो तृण आदि अजीब पदार्थों को भी नासून आदि से भी कभी नहीं छेवते उसको अजीवसंयम कहते हैं ।। २१२६-२१२८ ।। प्रतिलेखन एवं दुःप्रतिलेखन संयम का स्वरूप - ज्ञानोपकररणादीनां वासस्प्रतिलेखनम् । नेत्रेणादर्शनं तस्ययत्नात्संयमनं महत् ।। २१२६ ।। पिच्छिका वारं वारं यत्प्रतिलेखनम् । दर्शनं नयनाभ्यां सः प्रतिलेखनसंयमः ॥२१३० ॥ जीवमदनबाधादिकरं शुष्प्रतिलेखनम् । तस्यसंयमनंसतंप्रभावम सरेायत् ।।२१३१ ॥ सूक्ष्मप्राणिवयाहेतु प्रमार्जनंमुहुर्मुहुः । उक्तः स जिननायेषु प्रतिलेखन संवनः । २१३२ ।। अर्थ--- ज्ञानादिक के उपकरणों का ठीक-ठीक अच्छी तरह प्रतिलेखन न हुआ हो वा वे उपकरण नेत्रों से अच्छी तरह न देखे गये हों ऐसे पवार्थों को कोमल पोछी से प्रतिलेखन करना बार-बार प्रतिलेखन करना और बार-बार नेवोंसे देखना इसप्रकार प्राणियों की रक्षा करना प्रतिलेखन संयम कहलाता है । जीवोंको मर्दन करनेवाला वा जीवों को बाधा देनेवाला जो किसी मे प्रतिलेखन किया है उसके लिये संयम पालन करना, सब तरह के प्रमाद छोड़कर सूक्ष्म प्राणियों को दया पालन करने के लिये उन पदार्थों को बार-बार प्रमार्जन करना पोछी से शोधना भगवान जिनेन्द्रदेव के द्वारा दुः प्रतिलेखन नामका संयम कहा जाता है ॥२१२६-२१३२ ।। उपेक्ष संयम एवं अपहरण संयम का स्वरूप उपेक्षरणमुपेक्षा च धर्मोपकरणाविकम् । व्यवस्याप्यातिकालेमादर्शनं सम्रजन्मिनाम् ।।२१३३ ।। सम्मुनं विलोक्योपेक्षायाः संयमनं मुदुः । प्रत्यहं वनंयत्किलोपेक्षासयमोऽत्र सः । २१३४ ।। श्रथापहरणं पिछककाक्षाविवेहिनाम् । श्रन्यत्रक्षेपणं तस्मात्तस्य संयमनं परम् ।।२१३५ ।। अनिराकरणं मात्र परिरक्षणम् । यत्सोपहरस्योत्रसयमो यमिनां स्मृतः ।।२१३६ ।। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] . ( ३२७ ) [ षष्ठम अधिकार ____ अर्थ-संयममें मन न लगाना उपेक्षा है । धर्मोपकरणों को रखकर बहुत दिन सक भी उनको न देखा हो तो उनमें उत्पन्न हुए सम्मूर्धन जीवों को देखकर उपेक्षा का संयमन बा मिग्रह करना प्रतिदिन बार-बार उसे देखना उपेक्षासंयम कहलाता है। एकेन्द्रिय, बोइन्द्रिय आदि जोधों को पीछी से हटाकर धूसरी जगह स्थापन करना अपहरण कहलाता है उसका संयमन वा निग्रह करना, जीवों को न तो अन्यत्र स्थापन करना न जाने से रोकना प्रयत्न पूर्वक वहींपर उनकी रक्षा करना मुनियों का अपहरण नामका संयम कहलाता है ।।२१३३-२१३६।। तीन प्रकार के योग संयम का स्वरूपमनो वधनकायानांनिसर्ग चचलात्मनाम् । ध्यानाचं निग्रहो यः सः त्रिवियो योगसंपमः ।।२१३७।। अर्थ-मन-वचन-काय ये तीनों स्वभाव से हो चंचल हैं उनको ध्यानाविक द्वारा निग्रह करना तोन प्रकार का योगसंयम कहलाता है ।।२१३७॥ गणधरादिकदेव ने संयम के १७ भेद कहे हैं-- एतेऽत्रयोगिनां सप्तमाभेदाः प्रपिताः। संममस्यगणाधीशरागमे वतरिवाः ।।२१३८॥ अर्थ---भगवान गणधरदेव ने अपने आगम में योगियों के लिये व्रतों को शुद्ध करनेवाले ये संयम के सत्रह मेव बतलाये हैं ॥२१३८।। इन्द्रिय संयम का स्वरूपपंचाक्षवजतस्विस्वविषयेषु विरागिभिः । व्रताच मनं मस्स पंधर्षेन्द्रियसंपमः ।।२१३६।। अर्थ-पांचों इंद्रियां जो अपने-अपने विषयों में गमन करती हैं उनको रागरहित व्रतो पुरुष जो वमन करते हैं उसको पांच प्रकार का इन्द्रियसंयम कहते हैं ॥२१३६।। मन संयम का स्वरूप स्वेछयागच्छतो लोके मनसो मनिरोधनम् । ध्यानाध्ययनकर्माचे मनः संयम एव सः ॥२१४॥ अर्थ---इसप्रकार यह मन भी तीनों लोकों में अपनी इच्छानुसार परिभ्रमण करता है उसको ध्यान अध्ययन आदि कार्यों से निग्रह करना मनसंयम कहलाता है । ॥२१४०॥ उत्कृष्ट प्राणी संयम का स्वरूपचतुविधा जीवसमासा यत्र यत्नतः । रक्यन्ते योगिभिर्मुक्त्यै स प्राणिसंयमोजतः ॥२१॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ३२८ ) [ षष्ठम अधिकार अर्थ-योगी पुरुष मोक्ष प्राप्त करने के लिये जो जीव समासों के भेद से चौदह प्रकार के जीवों को प्रयत्न पूर्वक रक्षा करते हैं उसको भी उत्कृष्ट प्राणिसंयम कहते हैं ॥२१४१॥ ___ संयम पालन करने की प्रेरणाइत्येते संयमाः सर्वे प्राणोनियाभिषाबुधैः । विधेया बलबीर्यान्या संवराय शिवाय च ।।२१४२५॥ अर्थ-बुद्धिमान पुरुषों को कर्मों का संवर करने और मोक्ष प्राप्त करने के लिये अपना बल और वीर्य प्रगट कर ऊपर लिखे हुए प्राणी और इन्द्रिय के भेद से अनेक प्रकार के संयमों का सवा पालन करते रहना चाहिये ।।२१४२॥ तपश्चरण करने में शक्ति नहीं छिपानी चाहिएअनुगृहितवीर्याणां स्युविश्वसंयमाः पराः । सत्तपांसि च सर्वारिणगुणा ज्येष्ठाः शिवादयः ।।४३।। मानिसमाचारे पक्ष करण खिन : योगासन्या का कार्य में वीर्याच्छादनंमना ।।२१४४।। अर्थ-जो संयमी अपनी शक्तिको नहीं छिपाते हैं उन्हीं के समस्त उत्कृष्ट संयम होते हैं, उत्कृष्ट समस्त तपश्चरण होते हैं, उसम गुण प्रगट होते हैं और उन्हीं को मोक्षको प्राप्ति होती है । यही समझकर संयमोंके पालन करने में समस्त तपश्चरणों के करने में वा प्रातापनादि योग धारण करने में अथवा और ऐसे ही कार्यों में अपनी शक्तिको कभी नहीं छिपाना चाहिये । अपने वीर्य को कभी ढकना नहीं चाहिये । ॥२१४३-२१४४॥ पंचाचार पालन करने की प्रेरणा और उसकी महिमा - एवंपंचविधामभिनेवागवतानाचारमेवात्परान, मुक्त्यं ये निपुणा भजन्ति परया भक्त्यात्रिशुबथाखिलान् । हत्वाधातिरिपून्समाप्यपरमें मानं सुरैः पूजनं, तेऽन्त्यांगाश्चमिहत्यकर्मयपुसोयान्येवमुक्त्यालयम् ॥२१४५।। येन्येश्रीमुनिनायकाः सुरवताः शश्या चरम्स्युजितान्, एतान्पंचविधानविमुक्तिजनकाम् प्राचारसारानता। ते मुक्त्वात्रिजगद्वषं वरसुखसर्वार्थसिद्धचाविज, राज्यं चानुसमाप्यसंयममतोगच्छन्तिमोक्षकमात् ॥२१४६।। इति विस्तितवाः पंचधाचारसारान्, शिवसुखगतिहेतून् कर्ममातंगतिहान् । फुगतिगृहकपाटान तीनाथः निषेव्यान, भजत शिवसृखाप्त्यमोहशत्रु निहत्य ।।२१४७४ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप] [पष्टम अधिकार अर्थ-ये पांचों प्रकार के आचार भगवान जिनेन्द्रदेव के कहे हुए हैं और सर्वोत्कृष्ट हैं इसलिये जो चरम शरीरी चतुर पुरुष मन-वचन-कायको शुद्ध कर परमभक्ति से मोक्ष प्राप्त करने के लिये इन पांचों आचारों का पालन करते हैं वे महापुरुष घातिया कर्मरूपी शत्रुओं को नाश कर परम केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, उस समय वे देवोंके द्वारा पूजे जाते हैं और अंतमें समस्त कर्म और शरीर को नाशकर परम मोक्ष. स्थान में जा विराजमान होते हैं । पने देष मिल्यो नमाता करते हैं और भी अनेक मुनिराज जो अपनी शक्ति के अनुसार मोक्ष देनेवाले सर्वोत्कृष्ट इन सारभूत पांचों आचारों का पालन करते हैं, वे तीनों लोकों में उत्पन्न होनेवाले सर्वार्थ सिद्धि आदि के श्रेष्ठ सुख भोगते हैं, श्रेष्ठ राज्य का अनुभव करते हैं और अंतमें संयम पालन कर अनुक्रम से मोक्ष प्राप्त करते हैं । ये पांचों आचार सारभूत हैं, स्वर्ग मोक्षके कारण है. कर्मरूपी हाथियों के लिये सिंह के समान हैं, कुगति रूपो घर को बंद करने के लिये कपाटके समान हैं और तीर्थकर परमदेव भी इनका पालन करते हैं। प्रतएव इन पंचाचारों के अर्थ को समझने वाले पुरुषों को मोक्ष सुख प्राप्त करने के लिये मोहरूपी शत्र को नाश कर इन पांचों आचारों का पालन करना चाहिये ॥२१४५-२१४७॥ तीर्थकर देव प्ररूपित पंचाचार का फल - मामेयाचं जिमेशस्त्रिभुनहित यःप्रणीताधरित्र्यामाचारामुक्तिसिद्ध गणधरसहितस्तत्फलेतान लन्धः । मोक्षो यः सिद्धनाथस्त्रि विषमुनिगणरादता येऽत्र, परमात् ते सर्वधर्मनाभास्प्रिनगलिगुरुवो मेप्रदुध स्वभूतीः ।।२१४८।। इति श्रीमूलाचारप्रदीपकाल्ये महाप्रथे भट्टारक भीसकलकोतिविरचिते पंचाचार यावर्णने जानचारित्रवपो वीर्याचार वर्णनो नाम षष्ठोधिकारः । अर्थ- तीनों लोकों के द्वारा पूज्य ऐसे जिन वृषभदेव आदि तीर्थंकरों ने वा जिन गणधरदेवों ने मोक्षकी सिद्धि के लिये इन पांचों आचारों का इस लोक में निरूपण किया है तथा जिन सिद्ध भगवान ने इन पंचाचारों के फल से मोक्ष की प्राप्ति की है और जिम आमार्ग उपाध्याय साधुओं ने प्रयत्नपूर्वक इन प्राचारों का पालन किया है, वे सब धर्मके स्वामो और तीनों लोकों के गुरु भगवान पंचपरमेष्ठी मेरे लिये अपनीअपनी विभूति प्रदान करें ॥२१४८।। इसप्रकार प्राचार्य सकल कीति विरचित मूलाचार प्रकोप नामक महानन्थ में पंचाचारके वर्णनमें ज्ञान नारिय तप वीर्याचार को निरूपणा करनेवाला यह छठा अधिकार समाप्त हुआ। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोधिकार मंगलाचरण श्रीमतस्तीर्थनाषांश्वसमाचारग्ररूपकान् । सिद्धान्साधूनजगत्पूज्यान गुणाधोनोमिसिद्धये ॥४६॥ __ अर्थ---मैं अपने कार्य की सिद्धि के लिये अंतरंग बहिरंग विभूतिसे सुशोभित और समाचार नीतिको प्ररूपण करनेवाले तीर्थकर भगवान को नमस्कार करता हूं, जगतपूज्य सिद्धों को नमस्कार करता हूं और गुणों के समुद्र ऐसे साधुओं को नमस्कार करता हूं ॥२१४६॥ समाचार के स्वरूप का निर्देशपथ य: सम्धगाचारः समानः सर्वयोगिनाम् । समजालोथवा येसमाचाराण्यमेव सम् ।।२१५०॥ अर्थ-~जो समस्त मुनियों को समान रीति से पालन करने पड़े ऐसे श्रेष्ठ आचरणों को समाचार कहते हैं । ऐसे समाचारों को अम आगे इस अध्याय में निरूपण करते हैं ।।२१५०॥ समाचार के मूल उत्सर भेद का कथनएक: प्रोधिकः संगोद्वितीय पविभागिकः । इत्यत्र स समाचारोद्विधोक्तः श्रीजिनागमे ।।२१५१।। प्रोधिकोऽपिसमाचारो दशभेदोजिनाधिपः । मलोऽनेकविधीमूलाचारेपषिमागिमः ॥२१५२।। अर्थ-यह समाचार भगवान जिनेन्द्र देव के प्रागममें दो प्रकार का बतलाया है । एक औधिक और दूसरा पदविभागिक । भगवान जिनेन्द्रदेव ने औधिक समाचार के वश भेष बतलाये हैं और मूलाधार प्रयों में पविभागिक के अनेक भेद बतलाये हैं ॥२१५१-२१५२॥ प्रोधिक समाचार के इच्छाकारादि भेदइच्छाकारो हि मिध्याकारस्तथाकार प्रासिका। मिषेधिका किलापृच्छाप्रतिपृच्छा च छन्दनम् ।। सनिम्नत्रण एच वायोपसंपयोगिनामिमे । बशमेवा:समाख्याता प्रोधिकस्य समासत: ।।२१५४।। अर्थ-इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, मासिका, निषेधिका, प्रापृच्छा, प्रतिपृच्छा, छंदन, सनिमंत्रण और उपसंपत् ये पौधिक समाचार के संक्षेप से वश भेद कहलाते हैं ।।२१५३-२१५४॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारार प्रदीप ] [ सप्तम अधिकार एकन्दाकारादि भदों के स्वरूप का निर्देश--- इष्टे रत्नत्रयादीवेच्छाकारः शुभकर्मरिण । अपराधेऽखिले मिथ्याकारोक्तातिन मे ।।२१५५।। प्रतिश्रवणयोगेसिद्धान्तार्थानां तथैव हि । गुहाशून्यगृहानिर्गमनेत्रासिकास्मृता ।।२१५६।। देवगेहगुहायतःप्रवेशे घ निषेधिका । स्वकार्यारम्भनेकार्या पृच्छागुर्वादियोगिनाम् ।।२१५७॥ गुरुसामिकायन्यैः पूर्व नि:सृष्टवस्तुनि । पुनस्तद्ग्रहणे युक्त्या प्रतिपृश्छा शुभप्रवा ॥२१५८।। सूरिसार्धामकादीनांगहीते पुस्तकादिके । सेवन तदभिप्रायेण मच्छंदनमेव तत् ॥२१५६।। गुरूपाध्यायसाधूनां धर्मोपकरणे शुभे । अग्रहोते तदर्थ या यांचा सा सनिमंत्रणा ॥२१६०।। युष्माकमह मेवेतिनिजेगुरुकूलेशुभे । निप्तर्ग:स्वात्मनस्त्याग उपसम्यत्सुवामा ॥२१६१।। अर्थ-रत्नत्रयाविक इष्ट पदार्थों में वा शुभ कामों में इच्छाकार किया जाता है । व्रतोंके अतिचारों में वा अपराध हो जानेपर मिथ्याकार किया जाता है । सिद्धांत. शास्त्रके अर्थ सुनने पर वा ग्रहण करनेपर तथाकार किया जाता है। किसी गुफा वा सूने मकान में से जाते समय आसिका की जाती है। किसी देव के मंदिर में वा गुफादिक में प्रवेश करते समय निषेधिका की जाती है । अपने किसी कार्य के प्रारम्भ करते समय गुरु प्रावि योगियों से आपृच्छा की जाती है। किसी गुरु वा साधर्मो मुनिके पास पहले कोई वस्तु रखवी हो और फिर उसके लेने की इच्छा हो तो शुभ वेनेवाली प्रतिपृच्छा युक्तिपूर्वक की जाती है। किसी प्राचार्य वा अन्य साधर्मी मुनि की पुस्तक आदि वस्तु उनकी इच्छानुसार अपने कामके लिये लेनी हो तो छंबन नामका समाचार किया जाता है । प्राचार्य उपाध्याय वा साधु के शुभ धर्मोपकरण अपने काम के लिये लेने हों तो उसके लिये जो याचना करना है, उस समय सनिमंत्रण नामका समाचार किया जाता है । में आपका हूं इसप्रकार कहकर अपने शुभ गुरुकुल में स्वभावसे अपने प्रात्मा को समर्पण कर देना, श्रेष्ठ वचनों को कहलाने वाला उपसंपत् नाम का समाचार कहलाता है ॥२१५५-२१६१॥ पविभागी समाचार के कथन की प्रतिज्ञाएष उक्तः समाचारोवशधौधिक प्रागमे । समासेन ततश्योर' वक्ष्ये पदविभागनम् ।।२१६२।। अर्थ-इसप्रकार जिनागम में संक्षेप से औधिक समाचार के वश मेद बतलाये हैं । अब आगे पदविभागी नामके समाचार को कहते हैं ॥२१६२।। पदविभागो समाचार का स्वरूपसूर्यस्योद्गममारभ्य कृत्स्मेऽहोरात्रमडले । यनियमादिकं सर्वमाचरन्ति निरन्तरम् ।।२१६३।। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाचार प्रदीप] ( ३३२ ) [ सप्तम अधिकार प्राधारांगभयानाच्छमणाभवहानये । समाचारो जिनः सोऽत्र प्रोक्तः पविभागकः ॥२१६४।। अर्थ-मुनिलोग अपने संसारको नाश करने के लिये सूर्योदय से लेकर समस्त दिन और रात में आचारांग सूत्र के अनुसार जो यत्नपूर्वक समस्त नियमों का पालन करते हैं उसको भगवान जिनेन्द्रदेव पविभागिक नामका समाचार कहते हैं ।।२१६३२१६४॥ पुनः इच्छाकार समाचार का स्वहन निर्देशपुनयेप्रोदिताःपूर्वमिच्छाकारादयो वश । संक्षेपाद्विस्तरेणात्र वक्ष्ये तेषांसुलक्षण । २१६५ । ___ संयमझानधर्मोपकरणादिकयाचने । मातापनादियोगनामहणेतपसां सताम् ।।२१६६।। करणेपठनंगानां सर्वत्रशुभकर्मणि । इच्छाकारश्च कर्तव्यः परिणामोमुमुक्षुभिः ।।२१६७।। अर्थ--ऊपर औधिक समाचार के जो संक्षेप से दश भेद बतलाये हैं अब प्रागे विस्तार के साथ उन्हीं का लक्षण कहते हैं । संयमोपकरण, ज्ञानोपकरण वा धर्मोपकरण की याचना करते समय आतापन प्रादि योगों को ग्रहण करते समय, किसी तपश्चरण को ग्रहण करते समय, अंगों का पठन-पाठन करते समय वा अन्य समस्त शुभ कार्यों में मोक्षको हमला करनेवाले मनिकों को मापने काम गप पनिणराष्ट्र रखने चाहिये । ॥२१६५-२१६७॥ मिथ्याकार समाचार का स्वरूपप्रतीचारे व्रतावीनां जालेंगवाक्यमानसः । अशुभेचप्रमावाक्षरेतम्मेवुष्कृसंकृतम् ।।२१६८ । मिथ्यास्तुनिष्फलंसकरिष्यजातुनेदृशम् । त्रिशुद्धयत्यपराधयामण्याकारः सतांमतः ॥२१६६।। ___ अर्थ-अशुभ मन-वचन-कायसे, प्रमादसे वा इन्द्रियों से प्रतादिकों में अतिचार लग जाय तो यह मैंने बुरा किया था पाप किया यह सब मिथ्या हो, निष्फल हो, अब मैं ऐसा पाप कभी नहीं करूगा । इसप्रकार मन-वचन-कायको शुद्धता पूर्वक अपराधका पश्चात्ताप करना सज्जनों के द्वारा मिथ्याकार कहलाता है ॥२१६८-२१६६।। तथाकार का स्वरूपसिद्धांतादिमहानां श्रवणेचोपदेशने । गुरुणाक्रियमाणेवितयविपितम् ।।२१७०।। भवद्भिः सकलाय तदेवमेव न घाग्यथा। इत्युक्त्वा प्रवणतेवोयत्तयाकार एव सः ।।२१७१।। अर्थ-सिद्धांत आदि महा शास्त्रों के अर्थ सुनने पर अथवा गुरु के यथार्थ उपदेश देनेपर यह कहना कि "आपने जो कहा है सो सब यथार्थ कहा है वह अन्यथा Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३३३ ) [ सप्तम अधिकार नहीं" इसप्रकार कहकर उन शास्त्रोंका सुनना तथाकार कहलाता है ।। २१७०-२१७१।। निषेधिका एवं प्रासिका का स्वरूप - गिरिकन्दरजीर्णोद्यानगुहापुसिनादि । प्रवेशसमये काग्यवधाय निषेधिका ।।२१७२॥ तेभ्योद्रादिप्रवेशेभ्योन्ये निर्गमनेसदा । विधातव्यासिका व्यंतरादिप्रीत्यविचक्षणः ।।२१७३ ।। 1 अर्थ - किसी पहाड़ की गुफामें, पुराने वनमें, कंदरा में किसी नदी के किनारे पर प्रवेश करना हो तो उस समय जीवों का बध न हो इसलिये मुनियों को निषेधिका करनी चाहिये । पिसही जिसही ऐसा उच्चाररण करना चाहिये। चतुर मुनियों को व्यंतराविक देवों को प्रसन्न करने के लिये पर्वत की गुफा सूने मकान आदि से बाहर जाते समय श्रसही असही ऐसा कहकर आसिका करनी चाहिये ।।२१७२-२१७३॥ श्रपृच्छा नामक समाचार का स्वरूप --- प्रतापनादियोगानग्रहणे तपसां भुवि । करणे काय स्थित्यंचर्यादिवजनेवरे || २१७४ | ग्रामादिगमने वान्याखिले कार्यशुमैनिजे । सूर्यादीन् विनयेनेत्याच्या कार्याध्यकः ।। २१७५ ।। अर्थ - शिष्य मुनियोंको आतापन श्रादि योगके धारण करते समय, तपश्चरण धारण करते समय शरीर को स्थिर रखने के लिये चर्या करने को जाते समय, दूसरे गांव को जाते समय तथा और भी अपने शुभ समस्त कार्यों के करनेपर विनयपूर्वक आचार्यो से पूछना चाहिये, इसी को आपृच्छा नाम का समाचार कहते हैं ।। २१७४२१७५।। प्रतिपृच्छा नामक समाचार का स्वरूप महत्कार्ये दुष्करं धर्मसम्भवम् । करणीयंत्रसाम्यात्भगुर्वाचार्यादिका खिलान् ॥ २१७६ ।। पृष्ट्वान वासाधूनुसाघुपृच्छति सिद्धये । निजकार्यस्य तविद्धि प्रतिपृच्छां शुभप्रदाम् ।।२१७७।। अर्थ -- यदि किसी साधु को धर्म सम्बन्धी कोई अत्यंत कठिन और बहुत बड़ा कार्य करना हो तो वह पहले अपने गुरु आचार्य वा वृद्ध मुनि आदि सबको पूछ लेता है तथा अपने कार्य की सिद्धि के लिये फिर भी वह साधु अन्य साधुओं को भी पूछता है, इस कल्याण करनेवाले समाचार को प्रतिपृच्छा कहते हैं ।। २१७६-२१७७।। छंदन नामक समाचार का स्वरूप -- generaहोतेषु निषेवन्दनादिके । अनागमपदार्थानां प्रश्नेऽन्येषमं कर्मणि ॥ २१७८ ।। गणेशवृषभावना विश्वभव्य हितात्मनाम् । दक्षैरिच्छानुवृत्तिर्याचयते चन्दनं च तत् ।। २१७६ ।। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप ( १३४ ) {अधिकार अर्थ- चतुर मुनि किसी आचार्य प्रादि से पुस्तकादि के ग्रहण करते समय, विनय करते समय, वंदना आदि करते समय, प्रथवा जैन शास्त्रों में कहे हुए पदार्थों के स्वरूपको पूछते समय अथवा और भी किसी शुभ कार्यों के करले समय समस्त भव्य जीवों का हित करनेवाले वृषभसेन आदि गणधरों की वा प्राचार्य आदि की इच्छानुसार अपनी प्रवृत्ति करना अथवा उस उपकरण के स्वामी को इच्छानुसार उस उपकरण को सेना छंदन नामका समाचार कहलाता है ।।२१७८-२१७६ ।। निमंत्रण नामक समाचार का स्वरूप गुरुसाधकान्येषां पुस्तकाविपरिग्रहम् । धर्मोपकरणं वान्यविच्छन् गृहीतुमात्मवान् ।।२१६० ।। तदाम विनयेनेत्य तेषां नत्या पदाम्बुजान् । कुर्यानिमंत्ररपयोगी याचना कार्यसिद्धये ।।२१८१ ।। अर्थ - यदि किसी साधु को अपने गुरु से वा अन्य साधनों मुनियों से कोई पुस्तक वा कोई धर्मापकरण लेने की इच्छा हो तो लेते समय उस साधुको उन गुरु वा अन्य साधम साधुओं के समीप विनयपूर्वक जाना चाहिये उनके चरण कमलों को नमस्कार करना चाहिये और फिर अपने कार्य की सिद्धि के लिये उनसे याचना करनी चाहिये इसको निमंत्रण नामका समाचार कहते हैं ।।२१८०-२१८१ ।। उपसम्पत् समाचार के भेद उपसम्पज्जिनेः प्रोक्ता पंचधा विनयेसताम् । क्षेत्रेमार्गे तथासौरूषुः सूत्रे महात्मनाम् ॥२१६२३| अर्थ - भगवान जिनेन्द्रदेव ने सज्जन पुरुषोंके लिये उपसंपत् नामका समाचार पांच प्रकार का बतलाया है । विनय, क्षेत्र, मार्ग, सुखदुःख और सुखके विषय में महामाओं के लिये अपनी सेवा का निवेदन करना पांच प्रकार की उपसंपत् है ।।२१८२ ॥ विनमोपसम्पत् समाचार का स्वरूप यतीनां विनयोषवार ऊजितः । श्रंगांघ्रिमईनः संस्तरासनादिनिवेदनम् ।।२१८३ ।। श्रावास भूमिपृच्छा पुस्तकादिसमर्पणम् । इत्यादिकराय द्विनयोपसम्यदेव सा ।। २१८४ ।। अर्थ - जो मुनि बाहर से आये हैं और अपने स्थान में आकर ठहरे हैं उनका उत्कृष्ट विनय और उपचार करना, उनके शरीर को दाबना, पैरों को दाना, उनके लिये सोने तथा बैठने का प्रासन देना, उनके स्थानको वा उनके गुरु स्थानको पूछना तथा उनके मार्गको पूछना ( कहां से आये कहां जायेंगे आदि पूछना ) उनके लिये पुस्तक उपकरण आदि देना आदि कार्योंके करने को विनयोपसंपत् कहते हैं ।। २१८३-२१८४ ।। 老 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ মৃন্ম সৰী ]। [ सप्तम अधिकार क्षेत्रसम्पत् समाचार का स्वरूपदज्ञानसंयमाद्याश्चमसपोनियमावयः। यमशीलताचाराः मादिगुरगराया ।।२१८५॥ पस्मिन्साम्पेशुमक्षेत्रेय तेषीमसां सप्ताम् । तस्मिनभेनिवासो यः क्षेत्रोपसम्पदेव सा ॥२१८६।। अर्थ-जिस शुभ और समानशीतोष्ण क्षेत्रमें बुद्धिमान सज्जनों के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, संयम, श्रेष्ठतप, यम, नियम, शील, बत, प्राचार, क्षमा आदि अनेक गुण बढ़ते जांय ऐसे क्षेत्रमें निवास करना क्षेत्रसंपत् कहलाता है ।।२१८५-२१८६॥ ___ मार्गोसम्पत समाचार का स्वरूपपावोरणागतवास्तव्यमुनीनां योगधारिणाम् । तपः संयमयुक्तानां गमनागमनादिकः ॥२१८७॥ परस्परं सुखप्रश्ने प्रतदृग्ज्ञानयजये । यो जिनर्गदिता शास्त्रे मार्गोपसम्पदेव सा ॥२१८८। अर्थ--जो मुनि तप और संयमको धारण करनेवाले हैं और योग को धारण करनेवाले हैं तथा बाहर से प्राकर अपने स्थान में ठहरे हैं अथवा अपने ही संघके मुनि बाहर जाकर पाए हैं उनके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और प्रतों को वृद्धि के लिये आने जाने के समय को कुशल पार्ता पूछना, परस्पर सुखका प्रश्न करना भगवान जिनेन्द्रदेव ने अपने शास्त्रों में मार्गोपसंपत् बतलाई है ॥२१८७-२१८८।। सुखदुःखोपसम्पस् समाचार का स्वरूप---- उपचारोमुनीन्द्राणानिमित्त सुखदुःखयोः । मठपुस्तकधर्मोपदेशदानादिभिः परैः ।।२१८६।। युरुमाकमहमवाणुकरिष्येनिखिलं वचः । इत्याविकयनशर्मदुःखोपसम्परेव च ॥२१६०।। अर्थ-यदि किसी मुनि पर कोई सुख वा दुःख पा पड़े तो उस समय मठ पुस्तक धर्मोपदेश वा आवश्यकतानुसार अन्य पदार्थों को (आहार औषधि आदि को) देकर उनका उपचार वा उपकार करना अथवा हम सब आपके हैं, हम लोग मापके कहे हुए सब वचनों का पालन करेंगे इसप्रकार उनसे कहना सुखदुःखोपसंपत् कहलाती है ।।२१८६-२१९०॥ सूत्रसम्पत् समाचार के भेद एवं उनका स्वरूपसूत्रोपसम्पदेकाम्पार्थोपसम्पत्समाह्वया । तदा तदुभयात्रेपासूत्रोपसम्पदित्यपि ।।२१६१।। यः सूत्रपठनेयानःसूत्रोपसम्पयत्र सा। अर्थावानेन यो यत्नः सार्थोपसम्पणिता ||२१६२।। यत्नस्सनुभयेयोत्रसोपसम्पद्वयास्मिका। अधुनालसकिंचित्र क्षेपविभागिनः ।।२१६३।। अर्थ---सूत्रसंपत्के तीन भेद हैं-सूत्रसंपत्, अर्थसंपत् और उभयसंपत् । सूत्रों Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( ३३६ ) [सप्तम अधिकार के पढ़ने में प्रयत्न करना सूत्रसंपत है | अर्थ के पढ़ने में प्रयत्न करना श्रेष्ठ अर्थसंपत है। सूत्र और अर्थ दोनों के पढ़ने में प्रयत्न करना तदुभयसंपत् है। अब आगे पदविभागी समाचार का थोड़ा सा लक्षरण कहते हैं ॥२१९१-२१६३॥ पविभागी समाचार का लक्षणप्रथपिचवमहाप्राशः समर्थः सकलगुणः। वीर्यधयंतपोयोगोत्सहाय :संयताप्रणीः ।। २१६४ । स्वगु/दिगतंस असमास्वापरागमम् । शातुमिच्छन्प्रणम्योच्च:पृष्लोतिनिजंगुरुम् ।।२१६५॥ । युष्मत्प वप्रसादेन' भवन्सूरिमूजितम् । सागमपरिशाम कुशलं चापरं प्रति ।।२१६६।। गन्तुमिच्छामिराश्याश्यागमाध्ययनहेतवे । इतितिम्रोयथा पंच षट्वापृच्छाः करोति सः ॥२१६७॥ अर्थ- जो कोई उत्तम मुनि अत्यंत बुद्धिमान हो, समस्त गुणों से, वोर्य, धर्म, तप, योग और उत्साह आदि समस्त गुणोंसे सुशोभित हो और उसने अपने गुरुसे उनके जाने हुए समस्त शास्त्र पढ़ लिये हों तथा फिर अन्य शास्त्रों के पढ़ने को उसकी इच्छा हो तो वह अपने गुरुको प्रणाम कर पूछता है कि हे प्रभो ! अब मैं आपके चरणों को प्रामानुसार किसी ऐसे उत्तम और पूज्य प्राचार्य के पास जाना चाहता हूं जो समस्त पागम के ज्ञानमें कुशल हों तथा वहां आकर अपनी शक्तिके अनुसार अन्य आगमों का अध्ययन करना चाहता हूं। इसप्रकार वह शिष्य तीन बार, पांच बार वा छह बार पूछता है ।।२१६४-२१६७॥ अन्य संघमें मुनि को अकेला नहीं जाना चाहिएएवमापृच्छ्ययोगीन्यप्रेषितोगुरुणा बतिः । प्रात्मचतुर्थएवात्मतृतीयो वा जिसेन्द्रिय: २१६८।। अपवास्मद्वितीयोसोनवाचार्यादिपाठकान् । निर्गच्छति ततः संघारेकाको नसुजाचित् ॥२१६६।। अर्थ-इसप्रकार वह अपने गुरुसे पूछता है और यदि गुरु जाने की प्राजा दे देते हैं तो वह मुनि अन्य तीन साधुओं को अपने साथ लेकर अथवा अन्य दो साधनों को अपने साथ लेकर अथवा कम से कम एक अन्य मुनिको अपने साथ लेकर अत्यन्त जितेन्द्रिय यह साधु आचार्ग और उपाध्यायों को नमस्कार कर तथा वृद्ध मुनियों को नमस्कार कर उस संघ से निकलता है। किसी भी मुनिको अकेले कभी नहीं निकलना चाहिये ॥२१९८-२१६६।। १ विख्यात Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ३३७ ) [ सप्तम अधिकार जिनेन्द्र भगवान प्ररूपित गृहीतार्थ विहार एवं गृहीतार्थाश्रित विहार का स्वरूपयत: एकोगहीतार्थोविहारोखिलसद्गुणः । समर्थानां द्वितीयोन्योगृहीतार्यनसंषितः ।।२२००॥ सामान्ययोगिनांयुक्त्यात्रताभ्यां मापरः क्वचित् । बिहारस्तृतीयःसबरनुमातोजिनेश्वरः ।।२२०१।। अर्थ-इसका भी कारण यह है कि भगवान जिनेन्द्रदेव ने दो प्रकार का हो विहार बतलाया है-एक गहीतार्थ बिहार और दूसरा गृहोतार्थ के आश्रय होनेवाला विहार । जो समर्थ मुनि हैं, समस्त तत्वोंके जानकार हैं, अपने मार्ग का चरणानुष्ठान अच्छी तरह कर सकते हैं ऐसे मुनियों का समस्त गुणों से सुशोभित होनेवाला विहार गृहीतार्थ विहार कहलाता है । यदि ऐसी सामर्थ्य न हो फिर समस्त मार्गानुष्ठान को जानने वाले किसी मुनि के साय विहार करना चाहिये । इसको गृहीताश्रित विहार कहते हैं । यह विहार सामान्य मुनियों के लिये निरूपण किया गया है । इन दो विहारों के सिवाय तीसरा कोई भी विहार भगवान् जिनेन्द्रदेव ने नहीं बतलाया है ।।२२००॥२२०१।। कैसे गुणों से युक्त मुनि एकल विहार करने योग्य हैसर्वोत्कृष्टतयावादशांगपूर्वाखिलार्यवित् । सदीयंतिसस्वाथस्यादिसंहननोवली ॥२२०२॥ एकत्वभावनापनः शुरभाषोजितेन्द्रिया। चिरप्रवृजितो धीमान् जिताशेषपरीषहः ।।२२०३।। इत्याचम्यगुणग्रामोमुनिः समतो जिनः । धुतेत्रकविहारोहि नान्यस्तद्गुणवनितः ॥२२०४।। अर्थ-जो मुनि अत्यन्त उत्कृष्ट होने के कारण ग्यारह अंग और धौवह पूर्व के पाठी हैं, श्रेष्ठ वीर्ग, श्रेष्ठ धैर्य और श्रेष्ठ शक्ति को धारण करते हैं जो पहले के तीन संहननों में से किसी एक संहनन को धारण करनेवाले हैं, बलवान हैं, जो सदा एकत्व भावना में तत्पर रहते हैं, शुद्ध भावों को धारण करते हैं जो जितेन्द्रिय हैं, चिरकाल के दीक्षित हैं, बुद्धिमान हैं, समस्त परीषहों को जीतनेवाले हैं तथा और भी अन्य समस्त गुरषों से सुशोभित हैं, ऐसे मुनियों को शास्त्रोंमें एकविहारी (अकेले विहार करनेवाले) होने को प्राता है । जो इन गुणों से रहित है उनको भगवान जिनेन्द्रदेव ने एकविहारी होने की प्राजा नहीं दी है ॥२२०२-२२०४॥ __मेरे शत्रुओं को भी अकेले विहार नहीं करना चाहिएभिक्षोत्सर्गादिकालेबुगमनागमनविकम् । प्रकालेशयमियमुपवेशनमास्मनः ॥२२०५॥ विकथाकरणं यस्यस्वेच्छया जल्पनंसच। मामूवोदृशएकाको मे शत्रुरपि भूतले ॥२२०६॥ अर्थ-जो मुनि भिक्षाके समय में वा मल मूत्राविकके समय में गमन प्रागमन Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + मुलाचार प्रदीप ( ३३८ ) [ मप्तम अधिकार करते हैं, असमय में सोते हैं वा निंदनीय आसन लगाकर बैठते हैं, जो विकथायें कहते हैं और अपनी इच्छानुसार बहुत बोलते हैं, ऐसे मेरे शत्रुओं को भी अकेले विहार नहीं करना चाहिये फिर भला मुनियों को तो बात ही क्या है ॥२२०५-२२०६।। अकेले विहार करने से हानिगुरोः परिभवः शास्त्रज्युच्छेदो अडताभुवि । मलिनत्र म तीर्थस्यविह्वलत्वकुशीलता ।।२२०७॥ पायस्थताप्यनाचारइस्याडम्योगुणवजः । स्वेच्छयास्वगुणं त्यक्त्वाजायतकविहारिणः ॥२२० ।। अर्थ---अकेले विहार करने से गुरु का तिरस्कार वा उनकी निंदा होती है, श्रुतज्ञान का विच्छेद होता है, मूर्खता घा अज्ञानता बढ़ती है, जिनशासन मलिन होता है, विह्वलता तथा कुशीलता बढ़ती है, पावस्थ प्रादि मुनियों में रहनेवाले अवगुण प्रा जाते हैं और अनाचार बढ़ जाते हैं । इसप्रकार अकेले विहार करने से गुण सब चले जाते हैं और गुणों का समूह सम बहाता है ।।२२०७-२२०८।। केला विहार अनेक भापति का कारणकंटकप्रत्यनोकश्चमवादिसर्पभूरिभिः । म्लेच्छा दुजन टविसूधिकाविषादिकः ।।२२०६।। अन्यरुपदवोररेकाकोविहरन् भुषिः । प्राप्नोत्यारमविपत्ति म गाविसद्गुणं समा ॥२२१०।। अर्थ-इसके सिवाय अकेले विहार करने से प्रापत्तियां भी बहत पाती है, कांटे, शत्रु, कुत्ते, पशु, सर्प, बिच्छ, म्लेच्छ प्रादि दुर्जन, दुष्ट प्रादि अनेक जीवों के द्वारा तथा विसूचिका आवि रोगों के द्वारा विषादिक प्राहार के द्वारा तथा और भी अनेक घोर उपद्रयों के द्वारा अनेक प्रकार की आपत्तियां पाती हैं। तथा सम्यग्दर्शनाविक श्रेष्ठ गुणों के साथ-साथ अन्य गुण भी सब नष्ट हो जाते हैं ॥२२०९-२२१०।। __ शिथिल मुनि अन्य को सहायता नहीं चाहताकश्चिदगौरवकोमन्वोद्धिकः कुदिलामामः । एकभ्युसोविषयासक्तोमायावीशिथिलोधमः ।।२२११।। आलस्यग्रसितोषोनिर्धर्मः पापधी: शठः । स्वेच्छाचारगोशोत्र सधेगादिगुणातिगः ॥२२१२।। कुशीलः कुत्सिताचारोजिनाजादूरगोनिजे । संचसन्नामि पच्छे मच्छति संघाटकपरम् ॥२२१३।। अर्थ-जो मुनि गौरव सहित है अर्थात् किसी ऋद्धि आदि का जिसको अभिमान है, जो मंदबुद्धि है, लोभी है, हृदय का कुटिल है, सम्यग्दर्शन से रहित है, विषयासक्त है, मायादारी है, शिथिल है, नीच है, आलसी है, संपटी है, धर्महीन है, पापी है, मूर्ख है, जो इच्छानुसार अपने आचरण करता है, संवेग आदि गुणोंसे रहित है, कुशील Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] [ मातम अधिकार है, कुत्सित पाचरणोंको पालन करनेवाला है और भगवान जिनेन्द्रदेव की आज्ञासे दूर रहता है, ऐसा कोई मुनि अपने गच्छमें रह जाय वा निवास करता हो तो वह अन्य किसी को भी सहायता नहीं चाहता । क्योंकि वह स्वयं शिथिल है ॥२२११-२२१३।। अकेले बिहार फरना पांच पाप के स्थान का कारणजिनामोल्लंघनचकममवस्थास्वशासने। मिथ्यात्वाराधनंस्वात्मनाश:साद गादिभिः ॥२२१४।। समस्तसंघमस्यात्रविराधनाामूनि भोः । निकाषितानिपंचस्यु स्थानान्येकविहारिणः ॥२२१५॥ अर्थ-अकेले विहार करनेवाले भुनि के पांच पापों के स्थान उत्पन्न हो जाते हैं । एक तो भगवान जिनेन्द्रदेव को प्राज्ञा का उल्लंघन होता है, दूसरे जिन शासन में अव्यवस्था हो जाती है अर्थात् सभी मुनि अकेले विहार करने लग जाते हैं, तीसरे मिथ्यात्व की वृद्धि होती है, चौथे सम्यग्दर्शनादिक गुणों के साथ-साथ अपने प्रात्माका ज्ञान चारित्र प्रादि सब गुणोंका नाश हो जाता है और पांचवें समस्त संयम को विराधना हो जाती है । इसप्रकार एक विहारी के पांच पापों के स्थान उत्पन्न हो जाते हैं। ।।२२१४-२२१५॥ ___ किस गुरुकुल में सज्जन मुनि नियास नहीं करेंन तन्त्र कल्पते वास: सता गुरुकुले भुवि । यतेगुणवृद्ध न पंचाधाराभवात्यहो ।।२२१६॥ महान्मरिहपाध्यायः प्रवतंको गुणाकरः 1 स्थविरश्चगणाधीशः पंचामारापराइमे ॥२२१७।। अर्थ-जिस गुरुकुल में गुणों की वृद्धि के लिये महान प्राचार्य उपाध्याय, गुणोंके समुद्र प्रवर्तक स्थविर और गणाधीश ये पांच उत्कृष्ट प्राधार न हों उस गुरुकुलमें सज्जन मुनियों को कभी निवास नहीं करना चाहिये ।।२२१६-२२१७।। प्राचार्य एवं उपाध्याय का लक्षणपंचाचाररतःशिष्यानुग्रहे कुशलोमहान् । दीक्षाशिक्षादिसंस्कार राचार्यः स्याद्गुणार्णवः ॥२२१८।। धर्मोपदेशकोधीमान् धीमतांपाठनोद्यतः । अंगपूर्वप्रकारांनायोव्रत विहिपाठकम् ।।२२१६।। अर्थ-जो पंचाचार पालन करने में तत्पर हों, जो शिष्यों का अनुग्रह करने में कुशल हों, जो दीक्षा शिक्षा आदि संस्कारों से सर्वोत्कृष्ट हों और जो गुणों के समुद्र हों, उनको प्राचार्य कहते हैं। जो सवा धर्म का उपवेश देते हों, अत्यन्त बुद्धिमान हों और बुद्धिमान शिष्यों के लिये जो अंग पूर्व वा प्रकोक शास्त्रोंके पढ़ाने में सदा तत्पर १-तीन मुनियों का गण और सात मुनियों का गच्छ कहलाता है । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] { ३४०) [ सप्तम अधिकार रहते हों उनको पाठक वा उपाध्याय कहते हैं ॥२२१८-२२१६॥ प्रवर्तक एवं स्थविर मुनि का लक्षा-- चतुःषमएसंघामाचर्याविमर्गवेशने । प्रवृत्याच पकारान् यः करोति स प्रवर्तकः ।।२२२०।। बालबाविशिष्याणासन्मार्गस्योपदेशकः । यः सर्वज्ञानमायुक्यास्यविरःसोन्यमानितः ॥२१॥ अर्थ--जो श्रेष्ठ मुनि चारों प्रकार के मुनियों को चर्या आदि के मार्ग को दिखलाने में वा प्रवृत्ति कराने में उपकार करते हों उनको प्रवर्तक साधु कहते हैं । जो मुनि सर्वज्ञदेव की प्राज्ञाके अनुसार युक्तिपूर्वक बालक वा वृद्ध शिष्यों को श्रेष्ठ मार्गका उपदेश देते हैं तथा जिन्हें सब मानते हैं उनको स्थविर कहते हैं ॥२२२०-२२२१॥ गणधर मुनि का लक्षणगणस्थ सर्वसंघस्य पालकः परिरक्षकः । यो नानोपायशिक्षाय योगणपरोनसः ।।२२२२॥ अर्थ--जो शिक्षा आदि अनेक उपायोंसे समस्त संघकी रक्षा करते हों, सबका पालन करते हों, उनको गणधर कहते हैं ।।२२२२॥ कैसे प्राचार्य का साभिप्य ही गुण वृद्धि का कारण हैप्रमोषां निकटेनूनवसतांगुणराशयः । पर्वतेसाहचर्येरणयथारमौवायुनोमयः ॥२२२३।। अर्थ-जिसप्रकार वायुसे समुद्र की लहरें बढ़ती हैं, उसीप्रकार इन आचार्य प्रावि के समीप निवास करने से उनके सहवास से अनेक गुणों के समूह बढ़ते हैं । ।।२२२३॥ इच्छानुमार विहार करोड़ों दोषों का कारण हैस्वेच्छावासविहारादिकृतामेकाकिनांभुवि । होयन्सद्गुणानित्यं ते दोषकोटमः ।।२२२४।। अर्थ-जो मुनि अकेले ही अपनी इच्छानुसार चाहे जहां निवास करते हैं, चाहे जहां विहार करते हों उनके श्रेष्ठ गुण सब नष्ट हो जाते हैं और करोड़ों दोष प्रतिदिन बढ़ते रहते हैं ।।२२२४॥ पंचम कालमें २-३ साघु सहित विहार ही कल्याणकारी है-- प्रवाहोपंचमेकालेपिम्पादगदुष्टपूरिते। होमसंहननानां च मुनीनां चंचलास्मनाम् ।।२२२५५। विनितुर्याक्सिंगपेमसमुशायेन क्षेमकृत् । प्रोक्तोगासोविहारमपुत्सर्गकरणादिकः ।।२२२६।। अर्थ- मह पंचमकाल मिच्यादृष्टि और दुष्टों से ही भरा हुआ है । तया इस Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ३४१) [सप्तम अधिकार कालमें जो मुनि होते हैं वे हीन संहनन को धारण करनेवाले और चंचल होते हैं । ऐसे मुनियों को इस पंचम कालमें दो तीन चार प्रादि की संख्या के समुदाय से ही निवास करना समुदायसे ही विहार करना और समुदाय से ही कायोत्सर्ग आदि करना कल्याण कारी कहा है ॥२२२५-२२२६॥ प्रागम विरुद्ध अन्यथा प्रवृत्ति करने का निषेधसतिशुभाचारो पत्याधारो जिनावरैः । प्राचारगुणविव्यच नाग्यथाकार्यकोटिभिः ।।२०॥ अर्थ-भगवान जिनेन्द्रशेव ने यत्नाचार प्रयोंमें यतियोंके समस्त शुभ आचार गुण और आत्माकी शुद्धता को । वृद्धिके लिये कहे हैं इसलिये करोड़ों कार्यों के होनेपर भी अन्यथा प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिये ।।२२२७।। पुनः संघ सहित विहार करने की प्रेरणामतोवविषमेकालेशरोरेचानकोट । निसर्गचचले चित्तसरबहीनेखिले भने ॥२२२८॥ जायतकाकिनां नवनिविछनेनवतादिकः । स्वप्नेपि न मनः शुशिः निष्कालकनीक्षणम् ।।२२२६।। विज्ञापेरपणिलाः कार्याः संधाटकेन सयतः । विहारस्थितियोगाचासनिविघ्नायरमे ।।२२३०।। प्रर्ष-क्योंकि यह पंचम काल विषम काल है, इसमें मनुष्यों के शरीर अन्न के कीड़े होते हैं, तथा उनका मन स्वभाव से हो चंचल होता है और पंचमकाल के सब ही मनुष्य शक्तिहीन होते हैं । अतएव एकाकी बिहार करनेवालों के प्रतादिक स्वप्न में भी कभी निविघ्न नहीं पल सकते । तथा उनके मनको शुद्धि भी कभी नहीं हो सकती और न उमकी दीक्षा कभी निष्कलंक रह सकती है। इन सब बातों को समझकर मुनियों को अपने विहार निवास वा योगधारण प्रादि समस्त कार्य निर्विघ्न पूर्ण करने के लिये तथा उनको शुद्ध रखने के लिये संघके साथ ही विहार आदि समस्त कार्य करने चाहिये, अकेले नहीं ॥२२२८-२२३०॥ सोर्यकर परमदेव की मात्रा उल्लंघन से हानिइमा तीर्थकतामाज्ञामुल्लंघ्य ये कुमागंगाः । स्वेच्छावासविहारादीपुर्वतवृष्टिरमाः ॥२२३१॥ तेषामिहब ननस्पादनामचरणापः । कलंकला व दुमाया पहालः पोपडे ॥२२३२॥ परलोकेसर्वज्ञाशोल्लंघनातिकापतः। स्वभापितुर्मतीपोरं भलं पाविरंगहनु ।।२२३३॥ अर्थ-जो कुमार्गगामी इस तीर्थकर परमदेव की माला को उल्लंघन कर अपनी इच्छानुसार विहार वा निवास प्रादि करते है उनको सम्बमर्शन से ही रहित Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . मूलाचार प्रदीप ] ( ३४२ ) [सप्तम अधिकार समझना चाहिये । ऐसे मुनियों के सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्न इसी लोकमें नष्ट हो जाते हैं, इसी लोकमें वे कलंकित हो जाते हैं, संघके बाहर करने योग्य हो जाते हैं और पदपद पर उनका अपमान होता है । भगवान सर्वज्ञदेव की माशा को उल्लंघन करने रूप महापाप से वे लोक-परलोक में भी नरकादिक दुर्गतियोंमें चिरकास तक महा घोर परिभ्रमण किया करते हैं ॥२२३१-२२३३॥ ___ जिनेन्द्रदेव की आज्ञा उल्लंघन का निषेधइस्यपायं निविदानामुत्रविहारिणाम् । अनुसंध्याजिनेन्द्रामांप्रमाणीकृतमानसे ।।२२३४।। ___अर्थ-इसप्रकार अकेले विहार करनेवाले मुनियों का इस लोकमें नाश होता है गौरलोज भी नष्ट होता है, तो समझकर अपने मनमें भगवान जिनेन्द्रदेव की इ.ाजाको ही प्रमाण मानना चाहिये और उसको प्रमाण मानकर उसका उल्लंघन कभी नहीं करना चाहिये ।।२२३४॥ पुनः अकेले रहने का एवं विहार करने का निषेध-- स्थितिस्थानविहारावीनसमुदायेनसंयताः। कुर्वन्तुस्वगुणादीनां वृसमे विघ्नहानये ।।२२३५।। अर्थ-मुनियों को अपने गुणों की वृद्धि करने के लिये तथा विघ्नों को शांत करने के लिये अपना निवास वा विहार आदि सब समुदाय के साथ ही करना चाहिये अकेले न रहना चाहिये, न विहार करना चाहिये ।।२२३५॥ विद्या प्राप्ति हेतु, मुनि कैसे प्राचार्य के निकट जायें-- गच्छतातेनपल्लकिचिविद्यार्थिनायवि । सचिनाचित्तमिश्रं च द्रव्यं सत्पुस्तकादिकम् ।।२२३६।। अन्तरालेत्र तस्याहः एषसूरिननापरः । एवं गुणविशिष्ट स्यात्सोपि विश्वहितंकरः ॥२२३७१। संग्रहानुग्रहाभ्यां च कुशलोधर्मप्रभावकः । साविल्यातकोतिमिमनत्रार्थविशारदः ॥२२३८।। सकियाचरणाधारः षट्त्रिंशब्गुणभूषितः । गम्भीरोभिरिवालोम्यःसमयामासमोमहान् ॥३६।। सौम्येन चन्द्रसादृश्यःस्वच्छाम्बुवप्रशान्तवान् । पंचाक्षारि जयेशूरोमिथ्यास्वधातकः ।।४।। इस्यायन्यगुणाधारोयोत्राचार्योजगदितः । प्रजम्यःप्राप्तवाशिष्या स विद्याप्त्यैकमेणतम् ॥४१॥ अर्थ-मार्ग में चलते हुए उस विद्यार्थी मुनि को पुस्तक आवि अचित्त वा विद्यार्थी प्रादि सचित्त अथवा मिले हुए पदार्थ मिले तो उसको ग्रहण करने के अधिकारी प्राचार्य ही होते हैं । तथा थे आचार्य भी ऐसे होने चाहिये जो समस्त जीवों का हित करनेवाले हों, संग्रह (बीक्षा देकर अपना बनाना वा संघ बढ़ाना) और अनुग्रह (संस्कारों Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( ३४३ ) [ सप्तम अधिकार से दीक्षितों के गुण बढ़ाना ) करने में कुशल हों, गर्म पो मनाना नेनाले हों, सज्जनों में जिनकी कीति प्रसिद्ध हो, जो जिनसूत्रों के अर्थ कहने में निपुण हों, श्रेष्ठ क्रिया और पाचरणों के प्राधार हों, छत्तीस गुणोंसे विभूषित हों, समुद्रके समान गंभीर हों, परंतु जो कभी भी क्षुध न होते हों, क्षमा पुरसके कारण जो पृथ्वी के समान सर्वोस्कृष्ट हों, सौम्यता गुणसे जो चन्द्रमा के समान हों, निर्मल जलके समान अत्यन्त शांत वा शीतल हों, पंचेन्द्रिय रूपो शत्रुओं को जीतने में जो प्रत्यन्त शूरवीर हों, मिथ्यात्व रूपी शत्रुओं को घास करनेवाले हों, तथा और भी अनेक गुणों के प्राधार हों, तोनों लोकों का हित करनेवाले हों और जो किसी से भी नहीं जीते जा सकते हो, उनको प्राचार्य कहते हैं । वह शिष्य अपनी विद्या की प्राप्ति के लिये अनुक्रम से चलता हुमा ऐसे प्राचार्य के समीप पहुंचता है ।।२२३६-२२४१॥ पर संघ से पाये मुनि को देखकर संघ के मुनि किस प्रकार उसका विनय करेंपागम्छन्तनिवास्थानंप्रापूर्णकं सुसंपतम् । सं वीक्ष्यसहसासर्वसमुत्तिष्ठन्तिसंपताः ।।२२४२।। धात्सल्यहेतवेवसाजिनामापालनाय च । परस्परंप्रपामायास्मोपकरणाय वा ॥२२४३॥ अर्थ-उस शिष्यके यहां पहुंचनेपर उस संघके सब मुनि अपने स्थान में आए हुए उन अभ्यागत मुनि को देखकर अपना वात्सल्य दिखलाने के लिये, भगवान् जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का पालन करने के लिये उनके साथ परस्पर नमस्कार करने के लिये और उनको अपना बनाने के लिये एक साथ उठकर खड़े हो जाते हैं ॥२२४२२२४३।। ___ वन्दना प्रतिवन्दना योग्यता अनुसार करते हैंसत सप्तप्रदान्गस्था भरमा सरसन्मुखं च ते । प्रकुर्वन्तियथायोग्यं चंदनाप्रतिवदनाम् ।।२२४४।। अर्थ-तवनन्तर ये सब मुनि भक्तिपूर्वक सास पेंड तक उनके सन्मुख जाते हैं तथा अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार वेदना प्रथवा प्रतिपंदना करते हैं ।। २२४४।। तदनन्तर प्रागन्तुक मुनि की रत्नत्रय विशुद्धि पूछेयस्थागतस्य यत्कृत्यंकृत्यांनिमर्दनादितत् । रत्नत्रयपरिप्रश्नप्रीत्यायुस्तपोवना ।।२२४५।। अर्थ-फिर संघके वे सब मुनि उन आये हुए मुनिके पातमन (पर रावना) आदि करने योग्य कार्य करते हैं और फिर अपना प्रेम विखसाने के लिये रत्नत्रय को विशुद्धि पूछते हैं ॥२२४५।। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । मूलाचार प्रदीप ] ( ३४४ ) [सप्तम अधिकार तीन रात दिन तक आगन्तुक मुनि की सहायता करते हैंमायातस्यत्रिरात्रंसरपरीक्षाकरणाय च । संघाटकः प्रदातव्योनियमात्तेन सूरिणा ॥२२४६॥ अर्थ-तदनंतर उस संघके प्राचार्य आये हुए, उन मुनि को परीक्षा करने के लिये तीन रात तक नियम से उनकी सहायता करते हैं । रहने, चर्या करने, साथ रहने भादि में सहायता करते हैं ॥२२४६॥ आगन्तुक मुनि के चारित्रादि की परीक्षा करना चाहियेमाग तुफारच वास्तम्याः परीक्षन्ते परस्परम् । अयमोपायवृत्तानांयरनेनाचरणाय च ॥२२४७॥ मावाश्यकतनत्सर्गस्वाध्यायकरणादिषु । भिक्षाकाले मलोत्सर्गसमित्यादिप्रपालने ॥२२४८।। अर्थ-उन आये हुए मुनियों को अपने यहां निवास कराना चाहिये और उनके चारित्रका ज्ञान तथा परस्पर का ज्ञान करने के लिये प्रयत्नपूर्वक आचरण कराने के लिये आवश्यक करते समय, कायोत्सर्ग करते समय, स्वाध्याय करते समय, भिक्षा करते समय, मलमूत्र त्याग करते समय और समितियों के पालन करते समय उनकी परीक्षा करनी चाहिये ।।२२४७-२२४८।। आगन्तुक मुनि भी प्राचार्य की परीक्षा कर अपने प्रयोजन का निवेदन करेविधान्तस्तहिन स्थिरवा परीक्ष्याचार्यमुत्तमम् । स्वाध्यागमनकार्य स विनयेन निवेदयेत् ।।२२४६।। ___अर्थ-वे पाये हुए मुनि उस दिन रहर कर विश्राम लेते हैं अथवा दो तीन दिन तक विधाम करते हैं और फिर उत्तम प्राचार्य की परीक्षा कर बड़ी विनयके साथ उनसे अपने प्राने का प्रपोजन निवेदन करते हैं ॥२२४६॥ प्राचार्य आगन्तुक मुनि से नाम आदि पूछते हैंततस्तस्यफुलनामगुरु दीक्षादिनानि च । श्रुतागमनकष्टाटीनगरणीपूच्छतिचादरात् ॥२२५०।। अर्थ- तदनंतर वे आचार्य आवर के साथ उनसे पूछते हैं कि तुम्हारा नाम क्या है, तुम किस गुरुके शिष्य हो, दीक्षा किससे ली है, दीक्षा लिये कितने दिन हो गये, तुम्हारा श्रुतज्ञान कितना है और किस दिशा से कहांसे आये हो । ये सब बातें आचार्य उनसे पूछते हैं ॥२२५०॥ प्रागन्तुक मुनि परीक्षा में शुद्ध हृदय घाना सिद्ध हो जानेपर श्रुतके पठनादि करने की माझा देते इतिप्रश्नपरीक्षाचं यंयचौगुबमानसः । विनीतोषीमान् व्रतमीलापरिमयुतः ॥२२५१।। तपास्यरिणा तेम मिणशक्रयासमीहितम् । भूतानिपाठनसर्वविविधिपूर्वकम् ॥२२५२।। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] । ३४५) सप्तम प्रोधकार अर्थ-इसप्रकार के प्रश्नों से तथा परीक्षा प्रावि से यदि वे मुनि शुद्ध हृदय वाले सिद्ध हो जाते हैं तथा वे मुनि विनयवान उद्यमी बुद्धिमान हैं, व्रतशील से परिपूर्ण हैं तो वे आचार्ग उनसे कह देते हैं कि तुम जो अपनी इच्छानुसार श्रुतादिका पठन-पाठन करना चाहते तो वह अपनी शक्तिके अनुसार विधि पूर्वक करो ॥२२५१-२२५२।। व्रताचरण से अशुद्ध आगन्तुक मुनि को छेदोपस्थापना आदि तपश्चर | प्रायश्चित ] देन हैंयद्यशुद्धो व्रताचाररागन्तुकस्ततोस्य च । धातव्यगरिगना छंदोपस्थापनादिक तपः ।।२२५३।। अर्थ-यदि उस परीक्षा में आचार्य यह समझते हैं कि इनके व्रत प्राचरण प्रादि शुद्ध नहीं है तो वे प्राचार्य उनको व्रतोंकी शुद्धि के लिये छेदोपस्थापना प्रादि तपश्चरण करने के लिये कहते हैं ।।२२५३॥ प्रायश्चित्त स्वीकार नहीं करनेवाले मुनि को संघ में नहीं रखतेयदीच्छति न शिष्योसो तत्प्रायश्चित्तमंजसा । वजनीयस्ततस्तेनस्वसंघालिथिलोवृतम् ॥२२५४।। अर्थ-यदि वे पाये हये शिष्य मुनि उन प्राचार्यों के दिये प्रायश्चित्त को स्वीकार नहीं करते हैं तो वे प्राचार्य ऐसे शिथिलाचारियों को शीघ्र ही छोड़ देते हैं अपने संघमें नहीं रखते ।।२२५४।। शिथिलाचारियों को सथ में रखने से प्राचार्य छेद प्रायश्चित्त के भागी होते हैंध्यामोहेनाथवाधार्योऽशुद्ध गलातितादृशम् । तत: सोपि गणो ननछेदाहःस्थाप्नवान्यषा ।।२२५५।। __ अर्य-यदि वे प्राचार्य किसी मोह वा अज्ञानता के कारण उस प्रशुद्ध प्राचरण बाले शिथिलाचारी को अपने संघ में रख लेते हैं तो फिर वे प्राचार्य भी छेद नाम के प्रायश्चित्त के भागी हो जाते हैं। फिर बिना छेद प्रायश्चित्त के वे प्राचार्य भी शुद्ध नहीं हो सकते । २२५५॥ प्रागन्तुक मुनिको आत्मशुद्धि के लिये द्रव्यादि शुद्धि पूर्वक पागम का अभ्यास करना चाहिए-- एषमुक्तामणषप्राघूर्णकउपस्थितः । गृहोसोविधिनानेनकुर्यादेवं ततश्चिदे ।।२२५६।। सम्पद्रध्यवरांगाद्यान् प्रतिलेल्यप्रयत्नतः । क्षेत्रकालविशुद्धिच भावविश्रुताम्बिकाम् ॥२२५७|| विधायसूरिमानम्योपमारविनयादिभिः । शिष्येणावत्रिशुधासदाध्येतव्यंजिनागमम् ।।२२५८।। __ अर्थ-यवि प्राचार्य ने विधि पूर्वक उन पाए हुए मुनियोंको ग्रहण कर लिया हो तो फिर उन आये हुये शिष्यों को अपनी आत्मशुद्धि के लिये नीचे लिखे अनुसार कार्य करने चाहिये। सबसे पहले उपकरण प्रादि द्रव्यों को, पृथ्वी को, अपने शरीर Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप ] ( ३४६ ) [ सप्तम अधिकार आदि को प्रतिलेखन करना चाहिये, फिर क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि और भावशुद्धि धारण कर आचार्य और जिनवाणी माता को नमस्कार करना चाहिये । और उस शिष्य को उपचारादिक विनय के साथ मन-वचन-कायकी शुद्धता पूर्वक जिनागमका सदा अभ्यास करते रहना चाहिये ।।२२५६-२२५८ ।। विनयपूर्वक जिनागम अभ्यास का निषेध एवं उससे होनेवाली हानि का निर्देशसुसुत्रार्थाश्म संस्कार शिक्षालोभादिभिर्म सः । कुर्यात्परिभवं शास्त्रा र प्रिय्या दिष्यतिक्रमः ।। २२५६।। यतः परिभवान्नूमंज्ञानस्याचार्य शिष्ययोः । प्रप्रीतिषु द्विनाशश्च ज्ञानावरणकर्म च ।। २२६० ।। असमाधिजिनेन्द्राज्ञोल्लंघनंबूग्विनाशनम् । कलहः भुतहा निश्च रुग्थियोगादिकं भवेत् ॥ २२६१ ॥ अर्थ - उस शिष्य को सूत्र और अर्थके ज्ञानके लोभसे द्रव्य क्षेत्र प्रादि के safare शास्त्रोंका अविनय वा तिरस्कार कभी नहीं करना चाहिये । क्योंकि ज्ञानका प्रविनय करने से श्राचार्य और शिष्यों में प्रेम नहीं रहता, बुद्धि का नाश हो जाता है, ज्ञानावरण कर्मका आस्रव होता है, समाधि का नाश होता है, भगवान जिनेन्द्रदेव की श्राज्ञा का उल्लंघन होता है, सम्यग्दर्शन का नाश होता है, परस्पर गुरु शिष्यों में कलह हो जाती हैं, श्रुतज्ञान की हानि हो जाती है, अनेक रोगाविक हो जाते हैं और इष्ट वियोग हो जाता है ।।२२५६-२२६१।। कालशुद्धि पूर्वक आगम श्रभ्यास करने की प्रेरणा विज्ञायेत्याखिलैर्वक्षः कालादिशुद्धमंजसा । कृत्वाजिनागमं मिस्य मध्येतव्यविशुद्धये ।।२२६२ ।। श्रर्थं - यही समझकर समस्त चतुर पुरुषों को अपने आत्माको शुद्ध करने के लिये कालशुद्धि आदि को धारण कर प्रतिदिन जिनागम का अभ्यास करते रहना चाहिये ॥ २२६२॥ संस्तर वृद्धि की प्रेरणा संस्रावास कादीनामुभयोः कालयोः सदा । प्रकाशे वसता सत्र कर्तव्यंप्रतिलेखनम् ।। २२६३ ।। अर्थ- वहां पर रहते हुए उस शिष्यको प्रातः काल और संध्याकाल दोनों समय अपने संस्तर और रहने के अवकाश को प्रकाश में ही प्रतिलेखन कर लेना चाहिये । पीसे शोध लेना और नेत्रोंसे देख लेना चाहिये ।।२२६३ ॥ परगण में भी आचार्य से पूछकर ही भिक्षादि चर्मा करनी चाहियेग्रामादिगमनेभिज्ञावाने कार्य मे खिले । उत्तराविसुयोगचा पृच्छाकार्यात्रपूर्ववत् ।।२२६४ ।। 平 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३४७ ) [ सप्तम अधिकार अर्थ- किसी गांवको जाते समय भिक्षार्थ वर्याके लिये जाते समय वा और भी समस्त शुभ कार्यों के करते समय उस आये हुए शिष्य को पहले के समान प्राचार्य से वा अन्य साधुओं से पूछना चाहिये। जिसप्रकार अपने गणमें रहकर श्राचार्य श्रादि से पूछकर कार्य करता था उसीप्रकार परगणमें रहते हुए भी आचार्य मावि से पूछकर हो सब काम करना चाहिये ।।२२६४|| आचार्यादि की वैयावृत्य करने की प्रेरणा बसतान्यगतेमात्र पर्यादि तपोभृताम् । व्यावृत्ययथायोग्यं कर्तव्यं दशधावशत् ।। २२६५ ।। अर्थ-दूसरे के गणमें रहते हुए भी उस शिष्य मुनिको आचार्य तपस्वी आदि ar प्रकार के मुनियों का वैयावृत्य यथायोग्य रीति से आदर के साथ करते रहना चाहिये ।। २२६५।। प्रतिक्रमणादि एवं मिथ्याकारादि द्वारा व्रत शुद्धि करने की प्रेरणाअहोरात्रभवाः पक्ष चतुर्मासान्यगोचराः । सर्वाक्रिया विषासव्यास्तेन संयोगिभिः समम् ।।२२६६ ॥ पस्मिन् गच्छेतिचारोत्र जातोवाक्कायमानसे । मिथ्याकाराविभस्त कार्यंतस्थ विशोषनम् ।। ६७ ।। अर्थ - उस समय आए हुए शिष्यको उस संघके मुनियों के साथ ही देवसिक रात्रिक पाक्षिक चातुर्मासिक वा वार्षिक प्रतिक्रमरण आलोचना आदि समस्त क्रियाएं करनी चाहिये। जिस गण वा गच्छ में अतिचार लगा हो उसको मन-वचन-कायसे होने वाले मिथ्याकाराविक के द्वारा उसी गण वा गच्छ में शुद्ध करना चाहिये ।।२२६६२२६७॥ अकेले मुनि को आर्यिका के साथ ठहरने का निषेध - प्रायिकाद्यमिवो कालेचागमने क्वचित् । स्थातव्यं विजने नैव मुनिर्नकाकिना भुवि ||६८ || अर्थ-जिका आदि समस्त स्त्रियां यदि आने के समय भी आये तो भी निर्जन स्थान में अकेले सुमि को कभी नहीं ठहरना चाहिये ।।२२६८ ॥ rait for से बातचीत करने से उत्पन्न दोषों का कथन --- ताभिर्यावियोषिद्भिः महालापोतिदोषकृत् । प्रकार्येण न कर्तव्योमुनिभिनिर्मलाशयैः ।। २२६६ ॥ अर्थ-उन भजिका आदि स्त्रियों के साथ बातचीत करना भी अनेक दोष उत्पन्न करनेवाला है । अतएव निर्मल हृदय को धारण करनेवाले सुनियोंको बिना काम के उनके साथ कभी बातचीत नहीं करनी चाहिये ।।२२६६ ॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३४८ ) [ सप्तम अधिकार मुनि आयिका को कव प्रश्न का उत्तर देवें और कब नहीं देखेंएकाकिन्यायिकामाश्च कृतं प्रल्न सुसूत्रजम् । मुनि काकिना जातु कथनीयं न शुद्धये ॥२२७० गणिनीमग्रतः कृत्वा यदि प्रानं करोतिसा । तवास्याः कश्येन्ननं तदर्थसंयमीस्फुटम् ।।२२७१।। अर्थ-यदि कोई अकेली अजिका अकेले मुनि से शास्त्र के भी प्रश्न करे तो उन अकेले मुनि को अपनी शुद्धि बनाये रखने के लिये कभी उसका उत्तर नहीं देना चाहिये । यदि वह जिका अपनी गणिनी को (गुराणी को) आगे कर कोई प्रश्न करे तो उन अकेले संयमी मुनि को उस सूत्रका अर्थ समझा देना चाहिये वा प्रश्न का उत्सर दे देना चाहिये ॥२२७०-२२७१॥ तरुण मुनिको तरुण आर्यिका से बातचीत करने से पांच दोष लगते हैं उसका वर्णनतरुणोयविसद्योगीतरुण्यापिकयासमम् । कथालापादिकं कुर्यात्तस्येवं दोषपंचकः ।।२२७२।। आशाभंगोजिनेन्द्रस्यानयासिशास। माया पानामा गुणवतः ।।२२७३।। समस्तसंयमत्यवाविराधनानिकाचिताः । इमे पंच महादोषाः कृतास्तेनवृथात्मनः ॥२२७४।। । अर्थ---यदि कोई तरुण श्रेष्ठ मुनि किसी तरुणी अजिका के साथ कथा वा बातचीत करे तो उसको नीचे लिखे पांचों वोष लगते हैं । पहल तो भगवान जिनेन्द्रदेव को आज्ञा का भंग होता है । दूसरे जिनशासनमें अव्यवस्था हो जाती है सब लोग ऐसा ही करने लग जाते हैं। तीसरे मिथ्यात्व की आराधना हो जाती है । चौथे गुण और प्रतों के साथ-साथ उसके प्रात्माका नाश हो जाता है और पांचवं उसके समस्त संयम को विराधना हो जाती है । इसप्रकार महापापों के स्थान ऐसे पांचों दोष उस मुनिको व्यर्थ ही लग जाते हैं ॥२२७२-२२७४॥ मुनिको आर्यिका की एवं आयिका को मुनिकी वसतिकामें स्वाध्यायादि क्रियायें नहीं करना चाहिये--- मुनीनामार्यकास्थानेस्थातु जातुमयुज्यते । स्वाध्यायश्चतनत्सर्गोगृहोतु शयनासनम् ।।२२७५।। विधातु नोचिकितप्रतिकमरपस रिफया । प्रायद्वा घुतपाठाविरोगक्लेशाविकारणे: ।।२२७६॥ एताः सर्वाः क्रिया चान्ये पाचप्रक्षालनाक्यः । ज्ञातुकतुं न युज्यन्तेनार्याणसिंयताश्रमे ।।२२७७।। अर्थ-मुनियों को अजिकानों के स्थान में कभी नहीं ठहरना चाहिये, न यहां स्वाध्याय करना चाहिये, न कायोत्सर्ग करना चाहिये, न शयन वा प्रासन ग्रहण करना चाहिये, प्रतिकमण आदि श्रेष्ठ कियाएं भी वहां नहीं करनी चाहिये अथवा शास्त्रों का पठन-पाठन भी वहांपर नहीं करना चाहिये। किसी रोग वा क्लेश हो जाने के कारण Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३४६) [ सप्तम अधिकार भी ये सब क्रियाएँ अजिकानों के आश्रम में मुनियों को नहीं करनी चाहिये । तथा इनके सिवाय पावप्रक्षालन प्रावि क्रियाएं भी मुनियों को जिकाओं के प्राश्रम में नहीं करनी चाहिये । इसी प्रकार अजिकाओं को भी मुनियों के आश्रम में ये सब क्रियाएं नहीं करनी चाहिये ॥२२७५-२२७७।। काम बिकार से मलिन मुनि सबका तिरस्कार कर गुणों को नष्ट कर देता हैपतःस्मविरमात्मानचिरप्रजिसं गुरुम् । बन्नुश्रुतागमसंचाचार्यपूज्यतपस्विनम् ॥२२७८।। महागुणपदारुढ़वंद्य न गरायेद्यमी । कामात:मलिनः शोघ्र कुलं चापि विनाशयेत् ॥२२७६।। अर्थ--इसका भी कारण यह है कि जिसका हृदय काम के विकार के दुःख से मलिन हो रहा है, ऐसा मुनि न तो किसी वृद्ध मुनिको समझता है, न अपने प्रात्मा को समझता है, न चिरकाल के दीक्षित मुनि को गिनता है, न गुरु को गिनता है, महा श्रुतज्ञान और आगम को जानने वाले उपाध्याय को गिनता है, न प्राचार्य को गिनता है, न किसी पूज्यको समझता है, न घोर तपस्बो को गिनता है, न महा गुण और महा पदों पर प्रारूढ़ हुए महा मुनियों को गिनता है और न किसी वंदनीय मुनि को गिनता है । वह काम सेवन को इच्छा करनेवाला मुनि शोघ्न ही अपने कुल तक को नाश कर देता है । भावार्थ-वह मुनि सबका तिरस्कार करता है और अपने समस्त गुणों को नष्ट कर देता है ॥२२७८-२२७६॥ स्त्रियों के साथ बातचीत निंदा का कारण हैकन्यको विषय बुद्धास्वैरिणीयौवनारिमकाम् । रानी विलासिनीवासीलिगिनी वा तपस्विनीम् ।। वार्ताविजल्पनैरेषोलीयमामो चिरादपि । अपवायमवाप्नोसिसयमी विश्वनिन्धितम् ।।२२८१।। ___ अर्थ-जो संघभी किसी कन्या, विधवा, वृद्धा, इच्छानुसार घुमने वाली, यौवनवती, रानी, वैश्या, दासी, तपस्विनी, स्वमत वा अन्य मतकी बोक्षिता प्रादि किसी भी प्रकार की स्त्रियों के साथ बातचीत कर उनके साथ संलग्न होता है वह मुनि बहुत ही शीघ्र संसारभर में अत्यन्त निंदनीय अपवाद को प्राप्त होता है अर्थात् तीनों लोकों में उसकी निदा फैल जाती है ।।२२८०-२२८१॥ आर्यिकाओं को प्रतिक्रमणादि करवाने वाले प्राचार्य का लक्षणवृषर्मोसिसविग्नोऽवद्यभीरमहातपाः । पौरःस्थिरमनाः शुशोबिक्रियाकौतुकातिगः ।।२२८२॥ संभहानुभहावी व कुशलः संघयोगिमाम् । गम्भीरोमितवादी व ज्येष्ठो बोक्षाश्रतादिभिः ॥३॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३५०) [ सप्तम अधिकार इत्याद्यन्यगुणःपूर्णीयोजय्यःसूरिश्त्तमः । सः स्याद्गणधरोत्रार्याणांप्रतिकमरणदिषु ।।२२८४॥ अर्थ-अतएव जो अपने धर्म में वृढ़ हैं, जो धर्म और धर्मके फलमें हर्ष मनाने वाले हैं, जो पापोंसे भयभीत हैं, महातपस्वी हैं, पीर वीर हैं, जिनका मन अत्यंत स्थिर है जो प्रत्यंत शुद्ध हैं, जो विकार और कौतुक से सर्वथा दूर रहते हैं जो संग्रह और अनुग्रह करने में कुशल हैं, गम्भीर हैं, मावश्यकता के अनुसार उतना ही भाषण करले हैं, जो दीक्षा और श्रुतज्ञान से सबसे बड़े हैं, जो अजेय हैं तथा जो ऐसे ही ऐसे अन्य अनेक गुणोंसे परिपूर्ण हैं, ऐसे जो सर्वोत्कृष्ट प्राचार्य हैं उनको गणधर कहते हैं। समस्त संघके मुनि और अजिकानों के प्रतिक्रमण आदि कार्यों को ऐसे गणधर हो कराते हैं। ॥२२८२-२२८४॥ गुणरहित प्राचार्य चार उत्तम कालों को विराधना करता है-- एवंसूरिगुरणःसारंव्यतिरिक्तः करोतियः । मुघागरणपरत्वसंयतीनासस्क्रियादिषु ॥२२८५।। गणपोषरणमेवात्मसंस्कार कालकाजतः । सल्लेखनातवोत्तमार्थकाल इमेपराः ।।२२८६।। घरबार उत्तमाःकालाःपरमार्षविधायिनः । विराषिता निजास्तेमगुणरिक्त नसूरिणा ॥२२८७।। अर्थ- इसप्रकार उत्तम प्राचार्यों के सारभूत गुणों से रहित जो आचार्य अजिकाओं के प्रतिक्रमण प्रादि क्रियाओं में गणधर बनकर बैठता है वह प्राचार्य गणपोषण काल, उत्तमप्रात्मसंस्कार काल, सल्लेखना काल और उत्तमार्थ काल इन परमार्थ को सिद्ध करनेवाले चारों उत्तम कालों की विराधना करता है । गुणरहित आचार्म इन सबका नाश कर देता है ॥२२८५-२२८७॥ आगन्तुक साधुको परगण के आचार्य को इच्छानुसार प्रवृत्ति करना चाहिये-- बहुनोतन कि सायंयेच्छाचार्यस्यताखिला। कर्तव्या बसतातत्रतेन पुण्याकरोषिता ॥२२८८।। __ अर्थ-बहुत कहने से क्या लाभ थोड़े से में इतना समझ लेना चाहिये कि वहां रहते हुए उस शिष्यको, पुण्यको बढ़ाने वाली और उचित ऐसी प्राचार्य की जोजो इच्छाएं हैं वे सब करनी चाहिये ॥२२८८॥ पुनः परगण के आचार्य की वन्दना, सुश्रूषा करने की प्रेरणासुभूषापंदनाभवत्यनुकूलाचरणाविभिः । एषएव विधिः कार्यरतच्छिण्यापरयोगिभिः ॥२२८६।। अर्थ-उन बाहर से आए हुए शिष्यों को तथा अन्य योगियों को अपनीअपनी भक्ति के अनुसार प्राचरणादि करके प्राचार्य की सुभूषा और बंदना करनी Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३५१) [सप्तम अधिकार पाहिये ॥२२८६॥ आयिका समाचार विवरण नीति-- अयमेवसमाचारो ययाल्यातस्तपस्विनाम् । तथैवसंयतीनां च यथायोग्यविचक्षणः ॥२२६०।। अहोरात्रेषिलो मुपायशिक्षयोहितकारकः । वलमलादिमघोगरहितोखिमभाषितः ॥२२६१॥ परस्परानुकूलाः सदान्योन्यरक्षरशोधताः । समानर्यावसंयुक्तामायारागादिदूरगाः ।।२२६२।। प्राचारादिसुशास्त्रारणां पठनेपरिवर्तने । तवर्षकथनेविश्वानुप्रेक्षा गुणचिन्तने ।। २२६३।। सारार्थधवणेशुखध्यानेसंयमपालने । तपोधिनयसोगेसदाकृतमहोद्यमाः ।।२२६४।। अर्थ---यह जो समाचार मुनियों के लिये कहा है उसीप्रकार चतुर पुरुषों ने प्रजिकाओं के लिये भी यथायोग्य रीतिसे यही समाचार बतलाया है । अजिकाओं को मोक्ष प्राप्त करने के लिये हित करनेवाला यही समाचार दिन रात करना चाहिये । वृक्षके नीचे योग धारण करना आदि कठिन योग अजिकानों को नहीं करने चाहिये ऐसा भगवान जिनेन्द्रदेव ने कहा है । अजिकाओंको परस्पर एक दूसरे के अनुकूल रहना चाहिये, परस्पर एक दूसरे की रक्षा करने में तत्पर रहना चाहिये, लज्जा और मर्यादा के साथ रहना चाहिये, मायाचारी, लोभ, राग प्राति से अलग रहना चाहिये, आचारादिक शास्त्रोंके पढ़ने में, पाठ करने में, उसके प्रर्थ कहने में, समस्त अनुप्रेक्षाओं के तथा गुणों के चितवन करने में उन शास्त्रों के श्रेष्ठ अर्थ सुनने में, शुद्धध्यान में, संयम के पालन करने में, तप और विनयके करने में और योग धारण करने में सदा महा उद्यम करते रहना चाहिये ॥२२६०-२२६४॥ प्रायिका को बारीर संस्कार त्याग, विकार जनिन वस्त्रों के धारण करने का निरोध, मंबेदादि भावना में नत्पर रहने की प्रेरणामलजल्लविलप्तांगा वपुसंस्कारजिताः । विक्रियातिगवस्त्रवताः शान्ताचलासमाः ।।२२६५।। संगतत्परावक्षाःधर्मध्यानपरायणाः । कुलकोतिमिनेन्द्राशारक्षणोखतमामसाः ।।२२६६।। दुबलीकृतसर्वांगास्तपसासकालायिकाः । वि श्यादिगणनायुक्ता निवसन्तिभाशया। 1१२२९७।। अर्थ-यदि उनके शरीर पर पसीना आ गया हो वा उस पसीना पर धन जम गई हो वा अन्य किसी अंग का नाक, कान आदि का मल लगा हो तो कोई हानि नहीं परन्तु उन अजिकानों को अपने शरीर का संस्कार नहीं करना चाहिये, जिनसे विकार उत्पन्न न हों ऐसे वस्त्रोंसे अपना शरीर ढकना चाहिये, शांत और अचल मासन से बैठना चाहिये, संसार से भयभीत रहने रूप संवेग में सदा सत्पर रहना चाहिये, - - Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३५२ ) [सप्तम अधिकार चतुरता से रहना चाहिये, धर्मध्यानमें लीन रहना चाहिये, अपने मन में कुल, कीति और भगवान जिनेन्द्र देवकी आशा की रक्षा करने में सवा तत्पर रहना चाहिये, उनको इतना तपश्चरण करना चाहिये जिससे उनका शरीर भी दुर्बल हो जाय । उन अजिकाओं को शे तीन वा अधिक इस बीस प्रादि अजिकाओं के साथ रहना चाहिये अर्थात् तीन से कम नहीं रहना चाहिये । इसप्रकार अपने हृदयको शुद्ध कर उन अजिकाओं को निवास करना चाहिये ॥२२६५-२२६७॥ अजिका कैसी वसत्तिका में निवास करेअसंयतजनातीतेगृहस्थपशुवजिते । एकान्तस्थेगुहेगडेमलोत्सर्गाहं भूयुसे ।।२२६८।। अर्थ-उन अजिकाओं को ऐसे एकांत और गूढ था छिपे हुए घर में रहना चाहिये जो असंयमी लोगों से दूर हो, गृहस्थ और पशुओं के स्थान से दूर हो और मलमूत्रके लिये पोग्य स्थान की जहां व्ययस्था हो ॥२२६८।। धर्म कायं बिना मुनि आदि के आश्रम में जाने का निषेधस्वासच सामुन्ति गायत: हर निलय वा कुलिन्यन्तसंयताश्रमम् ॥२२६६।। अर्थ-जिकात्रों को बिना अपने काम के न तो गृहस्थोंके घर जाना चाहिए न किसी कुलिगिनी के घर जाना चाहिए और न मुनियों के आश्रम में कभी जाना चाहिए ॥२२६६॥ धर्म वार्य के लिये भी आचार्याणी की आज्ञा लेकर २-३ आयिका के साथ जावेअवश्यंगमनेकायें सतिभिक्षादिगोचरे । सिद्धान्ताविपृच्छावोप्रायश्चितादियाचने ।।२३००।। प्रापृच्छयगणिनों नरवा संघाठकेनतद्गृहे । गन्तव्यमायिकाभिश्चधर्मकार्यायनान्यथा ॥२३०१।। अर्थ-भिक्षा लेने के लिये किसी शास्त्र के अर्थ आवि को पूछने के लिये वा प्रायश्चित्त लेने के लिये जाना आवश्यक हो तो अपनी आचार्याणी को पूछकर उनको नमस्कार कर दो घार अजिकाओं के साथ ही जाना चाहिये, सो भी धर्म कार्य के लिये हो जाना चाहिये, अन्य किसी काम के लिये कभी नहीं जाना चाहिये ।।२३००२३०१॥ निरंकुश घूमने में दोषया हो निरंकुशा नार्यो भ्रमन्तिस्वेच्छयाभुवि । गहियत्याधमादौ क्व तासांशीलशुभाक्रिया ॥ अर्थ-जो निरंकुश स्त्रियां अपनी इच्छानुसार गृहस्थों के घर वा मुनियों के Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( ३५३ ) [ मानम अधिकार आश्रम में धूमती फिरती हैं, उनका शोल और उनकी शुभ क्रियाएं कभी नहीं फल सकती ॥२३०२३ अकेली प्रायिका को इच्छानुसार घूमने का निषेध गवं उसमे होने वाली हानि का निर्देश-- यतोयथासिद्धान्नभोक्तु सुखेनशक्यते । तथापास्वामिकांना स्वाश्रमेस्वयमागताम् ॥२३०३।। मतो जातु न विद्यतत्वचित्काले निजेच्छया । एकाकिन्यापिकायाश्चबिहारोगमनादिकः ।।२३०४। अर्थ-जिसप्रकार पकाया हुआ भात आसानी से खाया जा सकता है उसी प्रकार बिना स्वामी की स्त्री यदि स्वयं अपने आश्रम में वा घर में प्रा जाय तो वह आसानीस भोगी जा सकती है। इसलिये अकेली अजिका को अपनी इच्छानुसार किसी भी समय में विहार और गमन आदि कभी नहीं करना चाहिये ॥२३०३-२३०४॥ मुनिको धिना प्रभोजन आयिका के आश्रम में जाने का निरोधसंयता वा गृहस्पानामायिकाणां च मन्विरम् । कसकशंकया जातुविनाकार्य न पान्सिभोः ।। अर्थ-इसीप्रकार संयमी मुनियों को भी कलंक के डरसे बिना काम के न तो गृहस्थोंके घर जाना चाहिये और न अर्जिकाओं के आश्रम में ही कभी जाना चाहिये । ॥२३०५॥ ___ मुनि, आयिकाओं को घर-घर घूमने का निषेधयतो रंडरसमा येत्र वानवस्थवृषोपमाः । स्त्रीवृन्दसंकुसरागाविगेहंगेहमटन्ति छ ।।२३०६।। अर्थ- क्योंकि जो साधु रागपूर्वक स्त्रियों के समूह से भरे हुए घरों में घूमते रहते हैं उन्हें जंगली बैलों के समान समझना चाहिये । इसीप्रकार घर-घर घूमने वाली प्रजिकाओं को भी रंडात्रों के समान समझना चाहिये ॥२३७६।। घर-घर धूमने से मुनिका ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाता है . निर्विकारंस्थिरंचितवस्त्रोथगारदर्शनात् । ब्रह्मचर्य न नश्येतिकतेषांकुटिलचेतसाम् ॥२३०७।। अर्थ---जो साधु बिना कामके घर-घर फिरते हैं उनका चित्त स्त्रियोंके सुमार देखने से विकार रहित और स्थिर कभी नहीं रह सकता तथा कुटिल हृदय को धारण करनेवाले उन साधुओं का ब्रह्मचर्य भी अवश्य नष्ट हो जाता है ।।२३०७।। अजिका को दूसरे घर जाकर हीनक्रिया नहीं करना चाहियेस्लपनरोदन!ष्ठान्नादिपाकनिवर्तनम् । सत्सूत्रकरणंगीतगानंघाविद्यवादनम् ॥२३०८।। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३५४ ) [ सप्तम अधिकार द्विधारम्भ कर्माणि पवप्रक्षालनादिकान् । संयतानां च बालानां स्नेहलोभादिकारणः ||२३०२|| great विकादो निहोत्याद्या अपराक्रियाः । परगेहं गता जातु न कुर्यु राधिकाः शुभाः ।। २३१०१ । अर्थ -- श्रेष्ठ अजिकायों को दूसरे के घर जाकर स्नान नहीं करना चाहिये, रोना नहीं चाहिये, श्रेष्ठ श्रन्न पानके बनाने का काम या पकाने का काम नहीं करना चाहिये, सूत नहीं कातना चाहिये, गीत नहीं गाना चाहिये, बाजे नहीं बजाना चाहिये, प्रसि मसि आदि छहों प्रकार के कार्य नहीं करने हिंगे, किसी के स्नेह या लोभाविक के कारण भी किसी संयमी वा बालक के पादप्रक्षालन (पैर धोना) आदि कार्य नहीं करने चाहिये, शृंगारादिक की कथाएं वा विकथाएं या और भी ऐसी हो ऐसी होन क्रियाएं कभी नहीं करनी चाहिये ।।२३०८-२३१०॥ आर्थिक की भिक्षा एवं वन्दना विधि का वर्णन - तिस्रः पंचायवासस्थविरान्सरिताभुषि । अन्योन्यरक्षरगोध काः शुद्ध। हारगवेषिकाः ।।२३११।। पर्यटन्प्रियत्नेन भिक्षार्य गृहपंक्तिषु । षा व्रजन्तिमुनीद्वारा बंधनायैव क्षान्तिकाः । १२३१२ ।। अर्थ- वे प्रजिकाएं शुद्ध प्रहार ढूंढने के लिये जब भिक्षाके लिये जाती हैं। तब लोन पांच या सात वृद्ध श्रमिकाओं के बीच में चलती हैं अर्थात् कुछ अजिकाएं श्रागे पीछे कुछ अंतर से रहती हैं उस समय में भी वे सब एक दूसरे की रक्षा करने में तत्पर रहती हैं। इसप्रकार वे अजिकाएं प्रयत्न पूर्वक पंक्तिबद्ध घरों में भिक्षाके लिये जाती इसीप्रकार जाती हैं ।।२३११-२३१२।। हैं । श्रथवा मुनियों की वंदना के लिये भी आर्जिका, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु की वन्दना कितनी दूर बैठकर करेंपंचषट्सप्तहस्तान्तमन्तराले महोतलम् । सूरिपाठकसाधूनां भक्तिपूर्वकर्माजिकाः ।। २३१३ ।। सूगवासनेनेव प्रणामं कुर्वतेन्वहम् । विनयेयोग्यकाले या श्रुतार्थश्वरगाबि ।। २३१४ ।। अर्थ- वे प्रजिकाएं प्रतिदिन वंदना करने के लिये या शास्त्रों के अर्थ को सुनने आदि के लिये योग्य समय पर जब मुनियों के पास जाती हैं तब वे श्राचार्य से पचि हाथ दूर, उपाध्याय से छः हाथ दूर और साधुनों से सात हाथ दूर गवासन से बैठ कर मस्तक झुकाकर उनको भक्तिपूर्वक नमस्कार करती हैं ।।२३१३-२३१४॥ समाचार की महिमा एवं उसको पालन करने का फल - एवयुक्तः समाचारः समासेन तपस्विनाम् बहुमेदोखुर्धर्ज्ञेयो विस्तरे जिनागमात् ।।२३१५॥ विश्वंसगुणाकरं शिवकरं चेममया वणितं, ह्याचारं च चरन्तियेत्र निपुणाः सद्योगिनोचायिकाः । ५ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( ३५५ ) [ गप्नम अधिकार तेतादिन्यसुखंजगत्त्रयभवं,भुक्त्यापुनःसंयम, मासाद्यानु च केवलंसुतपसायान्त्येवमोसंक्रमात् । २३१६। अर्थ-इसप्रकार अत्यंत संक्षेप से मुनियों का समाचार बतलाया। बुद्धिमानों को इसके विस्तार पूर्वक बहुत से मेव जिनागम से जान लेना चाहिए । यह समाचार जो मैने बतलाया है वह सब समस्त गुणोंकी खानि है और मोक्ष प्राप्त करानेवाला है। जो चतुर और उद्योगी मुनि वा अजिकाएं इन समाचारों का पालन करते हैं वे मुनि वा अजिकाएं पहले तो तीनों लोकों में उत्पन्न होनेवाले दिव्य सुखोंका अनुभव करते हैं और फिर संयम धारण कर अनुक्रमसे केवल श्रेष्ठ तपश्चरणसे ही मोक्षपद प्राप्त करते हैं ।।२३१५-२३१६॥ मनार की उपसंहारात्मक महिमा एवं उसे धारण करने की प्रेरणा असमगुणनिधानं नाकनिर्वाणहेतु', जिनवरमुखजातं धारितं सर्वशक्त्या । गरपधरमुनिवृन्वमुक्तिकामा प्रयत्नात्, चरतशिवसुसाप्त्ये करस्नमाचारसारम् ।।२३१७॥ इति श्रीमूलाचारप्रवोपकाख्येमहाग्रंथे भट्टारक श्रीसकलकोतिविरचितेसमाचारवर्णनो नाम सप्तमोऽधिकारः। अर्थ-ये समस्त समाचार अनुपम गुणोंके निधान हैं, स्वर्ग मोक्षके कारण हैं, भगवान जिनेन्द्रदेवके मुखसे प्रगट हुए हैं, और गणधरवेव वा मुनियों के समूह ही अपनी शक्ति के अनुसार इमको धारण करते हैं। इसलिए मोक्ष की इच्छा करनेवाले मुनियों को या अजिकानों को मोक्ष सुख प्राप्त करने के लिए प्रयत्नपूर्वक इन समस्त सारभूत समाचारों का पालन करना चाहिए ॥२३१७॥ इसप्रकार आचार्य श्री सकलकीति विरचित मूलाचार प्रदीप नामके महाग्रन्थ में समानारों को वर्णन करनेवाला यह सातवां अधिकार समाप्त हुआ । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट मोधिकारः मंगलाचरण त्रैलोक्य तिलकान्सर्वान् जगन्मंगलकारिणः । लोकोत्तमान् शरभ्यांश्चार्हतः सिद्धाश्रमाम्यहम् ॥ अर्थ -- जो अरहंत या सिद्ध भगवान् तीनों लोकों के तिलक हैं, तीनों लोकों में मंगल करनेवाले हैं, तीनों लोकों में उत्तम हैं और तीनों लोकों में शरणभूत हैं ऐसे समस्त अरहंत और सिद्धों को मैं नमस्कार करता हूं ||२३१८ । । प्रकार की शुद्धि के लिये आचार्यादि की स्तुति - दशषाशुद्धिमापन्नास्त्रिजगच्छद्धिदायिनः सुरश्चिपाठकान् साधूनुमंगला विकरान्स्तुये ।।२३१६ ।। अर्थ - जो प्राचार्य उपाध्याय साधु दश प्रकारको शुद्धिको प्राप्त हुए हैं, तीनों लोकों को शुद्ध करनेवाले हैं और तीनों लोकोंमें मंगल करनेवाले हैं ऐसे समस्त प्राचार्य उपाध्याय और साधुओं की मैं स्तुति करता हूं ।। २३१६ ॥ सरस्वती देवी की हृदय में स्थापना - श्री जिनेन्द्रमुखत्वादेवभुवनाम्बिकाम् । विश्वशुद्धि करोचि लेस्थापयाम्यसिद्धये ।। २३२० ॥ अर्थ -- जो सरस्वती देवी भगवान जिनेन्द्रदेव के मुखसे प्रगट हुई है जो तीनों लोको की माता है, और समस्त भव्य जीवों को शुद्ध करनेवाली है ऐसी सरस्वती देवी को मैं अपने अर्थको सिद्धि के लिये अपने हृदय में स्थापन करता हूं ॥ २३२०॥ मुनि भावना के निरूपक अध्याय के निरूपण की प्रतिज्ञाइत्यसिद्धगुर्वावत्वामांगल्यहेतवे । श्रभगारमहर्षीणा मिन्द्रनागेन्द्र चक्रिभिः ।। २३२१ ।। भभ्यवद्यासंसेव्यपादाब्जानां हिताप्तये । वक्ष्याम्यहमनागारभावनाग्रंथमुत्तमम् ।।२३२२ ।। अर्थ - इसप्रकार मैं अपनी मंगल कामना के लिये अरहंत सिद्ध और गुरुत्रों को नमस्कार करता हूं और फिर इंद्र नागेन्द्र चक्रवर्ती और समस्त भव्य जिनके चरण कमलों की पूजा करते हैं, वंदना करते हैं और सेवा करते हैं, ऐसे महा ऋषि महा मुनियों का हित करने के लिये मुनियों की भावनाओंोंको निरूपण करनेवाला उत्तम ग्रंथ ( श्रध्याय ) निरूपण करता हूं ||२३२१-२३२२।। * + Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३५७ ) ग्रन्थ सुनने मात्र का फल - सेनमेन भखा महापापकलंकिताः । श्रग्निनाकन काली वयुद्ध पन्तिभद्ध या मृशम् ।।२३२३ ।। [ अष्ठम अधिकार अर्थ- जिराकार लिये सोना शुद्ध हो जाता है उसीप्रकार श्रद्धा पूर्वक इस ग्रन्थ के सुनने मात्र से महा पाप से कलंकित हुए समस्त भव्य जीव शुद्ध हो जाते हैं । ।।२३२३॥ भावनाओं के प्राचरण का फल --- यावर योगेन हत्याकर्मकवम्बकम् । यातिघोराह्निनिर्वाणतस्य कावर्णनापरा ।।२३२४ ॥ अर्थ --- जिन भावनाओं के आचरण करने से धीर वीर मुनि अपने समस्त कर्मों के समूहको नाश कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं उन भावनाओं की प्रशंसा भला क्या करनी चाहिये ।। २३२४ ॥ दश प्रकार की शुद्धि के नाम निर्देश fare शुद्धीवसतिकाशुद्धिरूजिता । विहारशुद्धिसंज्ञाथभिक्षाज्ञानसमाह्वये ।।२३२५ ।। शुद्धिज्मनाम्नी वाक्तपः ध्यानाख्यशुद्धयः । इमा दर्शविषाः प्रोक्ताः शुद्धयोव महात्मनाम् ।। अर्थ - लिंगशुद्धि, श्रेष्ठव्रत शुद्धि, वसतिकाशुद्धि, उत्तमविहारशुद्धि, भिक्षाशुद्ध, ज्ञानशुद्धि, उज्झनशुद्धि, वचनशुद्धि, तपशुद्धि और ध्यानशुद्धि । इसप्रकार मुनियों के लिये ये दस शुद्धियां कही गई हैं ।।२३२५-२३२६॥ लिंग शुद्धि का स्वरूपविरसावृश्यं जीवितं धनयौवनम् । स्वजनाविकमन्यद्वा जाश्वाहत्वा जगद्विषम् ।।२३२७।। तयुगसंमोहनात्मज्ञेद्वायतेमुदा । विशुद्ध जिनलिंग सा गिशुद्धिः सुयोगिनाम् ||२३२८ ।। अर्थ - यह धन, जीवन, यौवन, कुटुम्बो लोग तथा और भी यह समस्त संसार बिजली की चमक के समान क्षणभंगुर है यही समझकर और इस जयतरूपी शत्रुको मारकर जो आत्माको जाननेवाले धीर वीर पुरुष प्रसन्न होकर उस धन यौवन आदि से मोह का त्याग कर देते हैं और विशुद्ध जिनलिंग धारण कर लेते हैं वह मुनियों की लिंगशुद्धि कहलाती है ।।२३२७-२३२८।। जिनसिंग शुद्धि का स्वामी कौन होता है प्रस्वेदलग्नसर्वागमला कर्ममलातिगाः । सीमशीतोष्णतापाविदग्धक्षोपमाविदः ।।२३२६ ।। निर्विण्णाः कामभोगावौ वपुःसहकारदूरगाः । विगम्बरधरा धीराः कृत्स्नसंगप राम्मुखाः ||२३३० ॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप [ अष्टम अधिकार जन्ममृत्युजरोद्विग्नाभवाब्धिपातमीरवः । निविकारमनोनेत्रमुलाः सपिसिएकांकिताः ॥२३३१॥ लिंगशुद्धि निधायोचचेः प्रवर्तन्तेमहर्षयः । निर्ममा निरहंकाराधर्मशुक्लपरायणाः ॥२३३२।। अंगपूर्वामतःपूर्णस्वान्तः कर्ममलापहम् । जगद्धिकरं धर्मतीर्थ तीर्थकृर्तापरम् ।।२३३३।। भावयन्ति विशुद्धचाले भवाग्निदाहशान्तये । प्रस्मानान्यद्धितं श्रेष्ठं मत्वे तित्रिजगत्यपि ।।२३३४।। द्विषड्भेवेमहाघोरे लपस्युत्साहकारिणः । पंचाक्षशमंछायाः सर्वदानि ग्रहोचताः ॥२३३५।। समादिलक्षणःसाध्यं वशभिधर्ममुत्तमैः। पारिवाचरण शुद्धं निष्प्रमादाश्चरन्ति च ।।२३३६।। इत्याचं निमलन्यैिः शुद्धाचारान् भजन्ति ये । लिंगशुद्धिमतातेषांवृतार्हल्लिगयोगिनाम् ।।२३३७॥ अर्थ-जिन मुनियों के समस्त शरीर पर पसीने का वा पसीने में मिली हुई धूलि का मल लगा हुआ है, परन्तु जो कर्म मलसे सर्वथा दूर रहते हैं, जो अत्यन्त चतुर हैं, अत्यन्त तीव शीत वा उष्णता के संताप से जले हुए वृक्ष के समान हो रहे हैं, जो काम और भोग से सदा विरक्त रहते हैं, अपने शरीर का संस्कार कभी नहीं करते, जिन्होंने दिगम्बर मुद्रा धारण कर रखी है, जो धीर वीर हैं, समस्त परिग्रह से रहित हैं, जन्म-मरण और बुढ़ापे से जो अत्यन्त दुःखी हैं, जो संसाररूपी समुद्र में पड़ने से बहुत डरते हैं, जिनके नेत्र मन और मुख में कभी विकार उत्पन्न नहीं होता जो श्रेष्ठ पीछी धारण करते हैं, जो महा ऋषि हैं, जो लिंगशुद्धि को धारण कर ही सदा अपनी प्रवृत्ति करते हैं, जो मोह रहित हैं, अहंकार रहित हैं, जो धर्मध्यान वा शुक्लध्यान में सदा लीन रहते हैं, जो संसाररूपी अग्निके वाह को शांत करने के लिये मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक ग्यारह अंग और चौवह पूर्व रूपी अमृतसे भरे हुए, अपने अंतःकरणके कर्ममलको यूर करनेवाले तीनों लोकों को शुद्ध करनेवाले और सर्वोत्कृष्ट ऐसे तीर्थंकरों के धर्म तीर्थ को ही जो सवा चितवन करते रहते हैं, इस तपश्चरण से बढ़कर तीनों लोकों में और कोई श्रेष्ठ हित करनेवाला नहीं है यही समझकर जो बारह प्रकार के महा घोर तपश्चरण के करने में सवा उत्साह करते रहते हैं, जो पंचेन्द्रियों के सुख में उत्पन्न हुई इच्छा का निरोध करने में सदा उद्यत रहते हैं और जो प्रमाद रहित होकर शुद्ध पारित्राचरण को पालन कर तथा उत्तम क्षमा आदि दस प्रकार के उत्तम घों को धारण कर सर्वोत्तम धर्म का पालन करते हैं । ऐसे भगवान अरहंतदेव के लिंग को ( निग्रंथ अवस्था को ) धारण करनेवाले महा मुनि ऊपर लिखे अनुसार निर्मल उपायों से अपने शुद्ध पाचरणों को पालन करते हैं उनके ही लिंगशुद्धि मानी गई है। ॥२३२६-२३३७।। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३५६ ) व्रतशुद्धि का स्वरूप - प्रवचनापाभिर्मातृभियंसि मातृभिः । त्रिशुद्धया सार्द्धं मावाथमहाव्रतानि पंच च ।। २३३८ || यरम प्रतिपात्यते यत्रागातिर्गषुः । श्रप्रमत्तः सवामुक्त्यैवसद्धिः स्मृता ।।२३३६ ।। [ श्रम अधिकार अर्थ-रागन ेष रहित प्रमाद रहित जो बुद्धिमान् मुनि मोक्ष प्राप्त करने के लिये मन-वचन-कायको शुद्धता पूर्वक मुनियों की माताके समान अष्ट प्रवचन मातृकाओं के साथ-साथ ( पांच समिति और तीन गुप्तियों के साथ-साथ ) पंच महाव्रतों को धारण करते हैं और फिर उनका पालन करते हैं उनके ही व्रतशुद्धि आचायों ने बतलाई है ।। २३३८- २३३६।। शुद्धि का स्वामी कौन होता है I समस्तग्रंथनिर्मुक्तास्त्रिरत्नप्रन्यभूषिताः । त्यक्तदेहप्रतीकाशः सर्वारम्भविवजिताः ||२३४० ॥ मौनव्रतधराः सत्यधर्म सूचनतत्पराः । अदत्तं तृणमात्रं न गृह्णन्ति शीलमंडिता: ।। २३४१ ।। बालकोटमा श्रामण्यायोग्यं परिग्रहम् । स्वप्नेपि जातुनेच्छन्ति सन्तोबिरगोदिगम्बराः ॥ ४२ ॥ कामे वा तत्प्रतीकारे ममतां जातु कुर्वते । न निस्पृहा य यथाजातरूपालंकृत विग्रहाः ।। २३४३ ।। यत्रारम्येश्मशाने या रविरस्तं प्रयातिभोः । तत्रैवाप्रतिवद्धास्ते वसन्तियत शुद्धये ।।२३४४ ॥ इत्यार्थ निर्मलाचार निर्मलावितान थे। चरन्ति सर्वथा तेषां व्रतशुद्धिर्मतागमे ।। २३४५ ।। अर्थ - जो मुनि समस्त परिग्रहों से रहित हैं, किन्तु रत्नत्रय रूपी परिग्रह से सुशोभित हैं, जो अपने शरीर का प्रतिकार कभी नहीं करते, जो समस्त आरम्भों से रहित हैं, सदा मौनव्रत धारण करते हैं, जो सत्यधर्मका उपदेश देने में सदा तत्पर रहते हैं जो बिना दिया हुआ तृणमात्र भी कभी ग्रहण नहीं करते और जो शोलों से सदा सुशोभित रहते हैं जो मुनियों के प्रयोग्य बाल के अग्रभाग के करोड़ों भाग के समान परिग्रह को धारण करने को स्वप्न में भी कभी इच्छा नहीं करते, जो अत्यन्त संतोषी हैं दिगम्बर अवस्था को धारण करते हैं जो अपना निस्पृहत्व गुण धारण करने के लिये शरीर में वा शरीर की स्थिरता के कारणों में कभी भी मोह वा ममता नहीं करते और जो उत्पन्न हुए बालक के समान निधिकार दिगम्बर शरीर को धारण करते हैं । जो मुनि अपने व्रतों को शुद्ध रखने के लिये जिस बनमें वा जिस श्मशान में सूर्य अस्त हो जाता है वहीं पर बिना किसी के रोके निवास कर लेते हैं । इसप्रकार जो सर्वया निर्मल आचरणों को पालन कर अपने व्रतोंको निर्मल रीतिसे पालन करते हैं उनके ही जैन शास्त्रों में व्रतशुद्धि बतलाई है ।। २३४०-२३४५ ।। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीर] ( ३६० ) [अष्ठम अधिकार वसतिका शुद्धि का स्वरूप निर्देश -- प्ररण्येनिजस्थाने शून्यगेहे गुहादिषु । निरव प्रदेश वा श्मशानेतिभयकर ।।२३४६॥ यासो यः क्रियतेपोरैनिःसंगनिर्मलाशयः । एकान्ते ध्यामसिरपंसा शुधियसतिकाह्वया ।।२३४७॥ अर्थ-जो समस्त परिग्रहों से रहित शुद्ध हृदय को धारण करनेवाले धोर चीर मुनि अपने ध्यानकी सिद्धि के लिये किसी वनमें, निर्जन स्थानमें, सूने घरमें किसी गुफा में, वा अन्य किसी एकान्त स्थान में, वा अत्यन्त भयंकर श्मशान में निवास करते हैं उसको वसतिका शुद्धि कहते हैं ॥२३४६-२३४७॥ बसतिका शुद्धि का स्वामी से मुनिराज होते हैंग्राभेकमहोरानं नगरेविमपंधकम् । वसन्ति प्रासुकायासाविविक्त कान्तवासिनः ||२३४८।। अन्वेषयन्तएकान्तं शुक्लध्यानापिताशयाः । लभन्ते त्रैवगन्धेभाध्यानानन्दसुखमहत् ।।२३४६।। महोनमानसाधीराएकाकिनो हाविसलाः । वपुरादी न कुर्वन्सोममरवं वनवासिनः ॥२३५०।। सर्वनाप्रतिवद्धापच मोमाद्रिकन्दराविषु । तिष्ठन्तिरममारणास्तेभीवीरवचनेन्वहम् ।।२३५१।। सिंहम्याघ्राविचाराधी श्मशानकन्दरादिषु । भोतिषुप्रवेशेषु नां कापुरषाल्मनाम् ॥२३५२।। सवा इससिको पीरमहापुरवसे विलाम् । महापुरसिंहाच सेवाले ध्यानसिसमे ॥२३५३।। एकान्तेविगुहादी ते वसन्तोनिशिभीषणम् । शृण्वन्तः शम्बसंघातमत्यासम्भयानकम् ।।२३५४॥ सिंहध्यानाविदुष्टानां नरसिंहाचनिर्भयाः । चलन्ति न मनारध्यानादचलाइवसंस्थिताः ।।२३५५।। अनुद्विग्नाशया वक्षा महोपरयकोटिभिः । श्रद्दधानाजिनेन्द्राज्ञां वसन्स्यनिगुहादिषु ।।२३५६।। ध्यानाध्ययनसंयुक्तामागरूका अहनिशम् । अप्रमादाजिताक्षास्ते यान्ति निद्राक्शं न च ।।२३५७।। पर्यकिरणाद्ध पर्यकरणसद्वीरासनेन च । उत्कटेन तथा हस्तिौडेन च निषधया ॥२३५८।। प्रासनर्मकरस्या:कायोत्सर्गेण चापरः । शत्रिनयन्ति ते प्रधादाधेकपाश्र्वाधिशम्यया ॥२३५६॥ उपसर्गाग्निसंयाते महापरीषहा फुले। रौप्रसस्वभृतेभीमे धमादौसुष्ट दुष्करे ॥२३६०॥ वसन्तिमोक्षमार्गस्था यासंहनना प्रहो । शुद्धि वसतिकात्यो चापन्नाः सवधामसिद्धये ॥२३६१।। इत्याद्यामसमांशुद्धो पति मे श्रयन्तिभोः। तेषां क्ससिकाशुद्धिर्भवेविरागयोगिनाम् ॥२३६२।। ___ अर्थ-प्रासुक स्थान में रहनेवाले और विविक्त एकांत स्थानमें निवास करने वाले मुनि किसी गांव में एक दिन रहते हैं और नगर में पांच दिन रहते हैं । सर्वधा एकांत स्थानको ढूढने वाले और शुक्लध्यान में अपना मन लगाने वाले मुनिराज इस लोक में भी गंध गज (मयोन्मस) हाथी के समान ध्यानके आनन्व का महा सुख प्राप्त करते हैं । जिन मुनियों का हृदय विशाल है, जो घोर वीर हैं, एकषिहारी हैं, अत्यन्त निर्भय हैं, जो वनमें हो निवास करते हैं अपने शरीर आदि से कभी ममत्व नहीं करते Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३६१ [ अष्ठम अधिकार और जो सर्वत्र विहार करते हैं कहीं किसी से रोके नहीं जा सकते ऐसे मुनि प्रतिदिन भगवान महावीर स्वामी के वचनों में क्रीड़ा करते हुए भयानक गुफाओं में वा कंदराओं में ही निवास करते हैं । ये महा पुरुषरूपी सिंह मुनिराज प्रपने ध्यानकी सिद्धिके लिये सिंह, बाघ, सर्प और चोर आदि के द्वारा पुरुष वा भयभीत मनुष्यों को अत्यन्त भय उत्पन्न करनेवाले श्मशान कंदरा श्रादि प्रदेशों में धीर वीर महापुरुषों के द्वारा सेवन की हुई वसतिका को ही सदा सेवन करते हैं अर्थात् सदा ऐमी हो बसलिका में ठहरते हैं । प्रत्यन्त निर्भय और नरसिंह वृद्धि को धारण करनेकाले वे महा मुनिराज रात्रि में पहाड़ों की गुफा प्रादि अत्यन्त एकान्त स्थान में रहते हुए तथा सिंह, बाघ प्रादि अत्यंत दुष्ट जीवों के भयानक और भीषरण शब्दों को प्रत्यन्त समीप ही सुनते हुए भी अपने ध्यान से रंचमात्र भी चलायमान नहीं होते हैं, पर्वत के समान वे निश्चल ही बने रहते हैं । करोड़ों महा उपद्रव होनेपर भी जो अपने मनमें कभी चंचलता धारण नहीं करते ऐसे चतुर मुनिराज भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञा पर अटल श्रद्धान रखते हुए पर्वतों की गुफाओं में ही निवास करते हैं। सदा ध्यान और अध्ययन में लगे रहनेवाले तथा रात दिन जगने वाले और प्रभाव रहित जितेन्द्रिय वे मुनिराज निद्रा के वश में कभी नहीं होते । वे मुनिराज पहाड़ों पर ही पर्यकासन, अर्धपर्धकासन वा उत्कृष्ट वीरासन धारण कर वा हाथी की सूंडके समान प्रासन लगाकर प्रथवा मगर के मुखकासा ग्रासन लगा कर अथवा कायोत्सर्ग धारण कर वा अन्य किसी आसन से बैठकर प्रथवा एक कवंट से लेटकर अथवा अन्य कठिन श्रासनों को धारण कर पूर्ण रात्रि बिता देते हैं। वसतिका शुद्धि को धारण करनेवाले, वस्त्रवृषभनाराच संहनन को धारण करनेवाले और मोक्षमार्ग में निवास करनेवाले वे मुनिराज अपने श्रेष्ठ ध्यानकी सिद्धि के लिये संकड़ों उपसर्ग आ जानेपर, अग्नि लग जानेपर तथा महा परीषहों के समूह आ जानेपर भी भयानक जीवों से भरे हुए भयंकर और प्रत्यंत घोर दुष्कर वनमें हो निवास करते हैं । इसप्रकार जो बीतराग मुनि अत्यन्त शुद्ध और ऊपर कहे अनुसार विषम वसतिका का आश्रय लेते हैं उन्हीं के वसतिका शुद्ध होती है ।।२३४८-२३६२।। उत्तम विहार शुद्धि का स्वरूप उदयेस तिसूर्यस्या के पय्यन्नस्तमे । धर्मप्रवृतयेलोकेगमनंयद्विषयते ।। २३६३॥ महोतले मुनीन्द्रः सरस्वच्छंदबिहारिभिः । युगान्तरेअपाभ्यां सा विहारेशुद्धिरुत्तमा ।२३६४ ।। अर्थ- स्वतंत्र बिहार करनेवाले एक विहारी मुनिराज सूर्य उदय होने के बाद Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूनाचार प्रदीप ] ( ३६२ ) [अष्टम अधिकार तथा सूर्य अस्त होने के पहले प्रासुक मार्ग में केवल धर्म की प्रवृत्ति के लिये गमन करते हैं तथा आगे की चार हाथ भूमि अपने दोनों नेत्रों से देखते हुए ही गलन करते हैं । उन मुनियोंके ऐसे शुद्ध गमन करने को उत्तम विहार शुद्धि कहते हैं ।।२३६३-२३६४ । उत्तम बिहार शुद्धिके धारक मुनि नदकोटि से समम्त जीवों की विराधना नहीं करनेजीवयोनिसमासादीन् सूक्ष्मघायरकायिकान् । ज्ञानेनसुष्टुविज्ञायविश्वजन्तु कृपापराः ॥२३६५। ज्ञाननेत्रा मरुत्तुल्या सावध विविधन च । यत्नात्परिहरग्तस्ते कस्यचित्कारमादिभिः ।।२३६६।। एकेन्द्रियाविजन्तूनां वार्धा वात्रविराधनम् । विहरतोपिभूभागे न कुर्यु: कारयन्ति न ।।२३६७।। तृणपत्रप्रवालादिहरितांकुरजस्मिनाम् । कंदवीजफलादानांवनस्पत्यखिलागिनाम् ।।२३६८।। पाबा ममं नन छेदनं यातिपोडनम् । स्पर्शन वा न कुर्वन्ति कारयन्ति न सयताः ॥२३६९।। पृथिव्याः खनना अलानांप्रक्षालनादिभिः । अग्नेविध्यापनायश्च वातक्षेपादिभिः क्वचित् ॥७॥ बायोस्त्रसारममांस्थाननिशधागमनादिभिः । पीडांविराधना दक्षाः कृताचे नच कुर्वते ॥२३७१।। अर्थ--जो मुनि जोधों को योनि, जीवसमास, सूक्ष्मकाय, वादरकाय आदि जीवों को अपने ज्ञानसे जानकर समस्त जीवों पर कृपा करने में तत्पर रहते हैं, जो ज्ञानरूपी नेत्रों को धारण करते हैं और वायुके समान परिग्रह रहित हैं, ऐसे मुनि मनः वचन-कायसे प्रयत्नपूर्वक पापों का त्याग करते रहते हैं । वे मुनि समस्त पृथ्वीपर विहार करते हुए भी किसी भी कारण से एकेन्द्रियादिक जीवों की बाधा वा विराधना न तो कभी स्वयं करते हैं और न कभी किसी से कराते हैं। वे मुनिराज तृण, पत्र, प्रवाल (कोमल पत्ते) हरे अंकुरे, कंद, बोज, फल प्रादि समस्त वनस्पतिकायिक जीवों को पर आदि से न तो कभी मईन करते हैं, न मर्दन कराते हैं, न उनको छेदते हैं, न छिदवाते हैं, न स्पर्श करते हैं, न स्पर्श कराते हैं और न उनको पीड़ा पहुंचाते हैं वा पहुंचवाते हैं । वे चतुर मुनि न तो खोद पोट कर पृथ्वीकायिक जीवों को बाधा पहुंचाते हैं, न प्रक्षालनादि के द्वारा जलकायिक जीवों को बाधा पहुंचाते हैं, न बुझाकर वा जलाकर अग्निकायिक जीवों को बाधा पहुंचाते हैं, न पंखाविक से हवा कर वायुकायिक जीवों को बाधा पहुंचाते हैं और न गमम करने बैठने या सोने में प्रस जीवोंको बाधा पहनाते हैं । वे चतुर मुनि मन-वचन-काय और कृतकारित अनुमोदना से इन समस्त जीवों को कभी भी पोड़ा वा विराधना नहीं पहुंचाते ॥२३६५-२३७१॥ व मुनि शस्त्र रहित निःर्मक होकर बिहार करते हैंदण्डाधिसहिसीपकरणालीतसत्करा: । निमंमाभवभीमाघेः पतनाच्छकित्ताशयाः ॥२३७२।। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( ३६३ ) [ अष्टम अधिकार अर्थ-उन मुनिराज के श्रेष्ठ हाथों में दंडा आदि हिंसा का कोई उपकरण नहीं होता, थे सर्वथा मोह रहित होते हैं और संसाररूपी भयानक समुद्र में पड़ने में सदा शंकित और भयभीत रहते हैं ।।२३७२।। चापरिषद को जानते हार आमाके परिभ्रमण का चित्त बन करते हैं... तीक्ष्णःपाषाणखण्डेश्चकंटकाचं : क्रमादिषु । पोड्यमाना अपि प्राज्ञा मनःक्लेशादिदूरगा: 1.७३॥ चर्यापरोषहारातैविजये कृतसूधमाः । चतुर्गतिषुरोद्रासुरीश्वनादियोनिषु ।।२३७४।। भ्रमण सुचिरनिद्य कृत्स्नदुःखभराकरम् । पराधीनविधेः रक्षेषाधिन्सयन्सोनिरन्तरम् ।।२३७५।। ___ अर्थ-यदि उनके पैर में कांटा लग जाय वा तीक्ष्ण पत्थर के टुकड़ों की धार छिद जाय और उनसे उनको पीड़ा होती हो तो भी वे बुद्धिमान मुनि अपने मन में कमी क्लेश नहीं करते हैं । क्लेश से वे सदा दूर ही रहते हैं। वे मुनिराज चर्यापरीषह रूपी शत्रओं को जीतने के लिये सदा उदोग करते रहते हैं, तथा मेरा यह प्रात्मा भयानक रूप चारों गतियों में चिरकालसे परिभ्रमण करता रहता है अथवा भयानक नरकादिक योनियों में चिरकालसे परिभ्रमण करता रहा है, यह मेरे आत्मा का परिभ्रमण अत्यंत निध है, समस्त दुःखों को खानि है और कर्म के आधीन है। इसप्रकार वे मुनिराज अपने प्रात्माके परिभ्रमण को निरंतर चितवन करते रहते हैं ॥२३७३-२३७५॥ परीषहों को जीतने के लिये मुनिराज पृथ्वीपर विहार करते हैंसंवेगं त्रिविचिसे भावयन्तोखिलागमम् । जानध्यानसुधापानं कुर्वन्तोतिनिराकुलाः ॥२३७६।। पुरपत्तनखेटानिग्रामाटवीपमादिषु । रम्यारम्येषु सर्वत्र विहन्तोनिजेच्छया ।२३७७।। पश्यन्तोपिपथं चा-घा रामारूपादिवोक्षणे । वजन्तोपि सुतीर्थावको कुलीपरावोवियः ।।२३७८॥ सुकया: कपयन्तोपिमूकार्षिकथादिषु । उपसर्गमयेशूराः कातरा:कर्मबन्धने ॥२३७६ ।। निस्पृहा निअवेहावीसस्पृहामुक्तिसाधने । सर्वधाप्रतिववाः प्रतिबद्धा जिनशासने ।।२३८०।। निममस्वाय दुष्कर्मपरोषहजयाय च । विहरन्तिमहों पह्वीमतन्द्रामुनिनायकाः ॥२३८१।। अर्थ- अत्यंत निराकुल हुए वे मुनिराज अपने हृदय में संसार शरीर और भोगों से संवेग धारण करते रहते हैं, समस्त आगम का चितवन करते रहते हैं, और ज्ञान तथा ध्यानरूपी अमृत का पान सवा करते रहते हैं । वे मुनिराज अपनी इच्छानुसार नगर पसन, खेट, पर्वत, गांव, जंगल, वन आदि सुन्वर असुन्दर समस्त स्थानोंमें विहार करते रहते हैं, उस समय यधपि वे मार्ग को देखते हैं तथापि स्त्रियों के मप प्रावि को देखने में वे अंधे ही बने रहते हैं। यद्यपि के चतुर मुनि श्रेष्ठ तीर्थों की वंदना Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ( ३६४ ) । माटम अधिकार के लिये विहार करते हैं, चलते हैं तथापि फुतीर्थों के लिये बे लंगड़े ही बने रहते हैं, यद्यपि वे श्रेष्ठ कथाओं को कहते हैं तथापि विकथाओं को कहने के लिये वे गूगे बन जाते हैं । यद्यपि उपसर्गों को जीतने के लिये वे शूरवीर हैं तथापि कर्म बंधन करने के लिये वे कायर बन जाते हैं । यद्यपि अपने शरीर आदि से वे अत्यन्त निस्पृह हैं तथापि मुक्ति को सिद्ध करने के लिये वे तीव लालसा रखते हैं । यद्यपि वे सर्वत्र अप्रतिबद्ध हैं, किसी के बंधे हुए वा किसी के प्राधीन नहीं हैं तथापि वे जिनशासन के सदा प्राधीन रहते हैं। ऐसे वे प्रभाव रहित मुनिराज मोहका ममत्व का सर्वथा त्याग करने के लिये तथा अशुभ कर्म और परोषहों को जीतने के लिये बहुत सी पृथ्वी पर विहार करते हैं ।।२३७६-२३८१॥ ___ यत्नाचार रहित चलने वाले मुनि के विहार सृद्धि नहीं होती-- सिंहसादृश्यवृत्तीनां निष्पापमार्गचारिणाम् । विहारशुधिरेवाश्रामीषां नायमचारिणाम् ।।२३८२ __ अर्थ-इसप्रकार सिंहके समान अपनी निर्भय वृत्ति रखनेवाले और पापरहित मार्गमें चलने वाले इन मुनियों के बिहार शुद्धि कही जाती है। जो मुनि यत्नाचार पूर्वक नहीं चलते उनके विहार शुद्धि कभी नहीं हो सकती ।।२३८२॥ भिक्षाशुद्धि का स्वरूपकृतायः सफलदोषयतः शुद्धोमलातिगः। भुज्यते भिक्षयाहारोयोग्यगेहे जिलेन्द्रियः ।।२३८३।। तपोयोगमपु:स्पिस्पषष्ठाष्ठमपारणे । पक्षमासोपवासायो वा भिक्षाशुद्धिरेव सा ।।२३८४।। अर्थ-जो जितेन्द्रिय मुनिराज तपश्चरण योग और शरीर की स्थिति के लिये वेला, तेला के बाद के पारणा के दिन, एक पक्षके उपवास के बाद के पारणा के दिन अथवा महीना दो महीना के उपवास के बाद पारणा के दिन योग्य घरमें जाकर कृतकारित अनुमोदना आदि के समस्त दोषों से रहित वा अपना समस्त दोषों से रहित अत्यंत शुद्ध आहार भिक्षावृत्ति से लेते हैं उसको भिक्षाशुद्धि कहते हैं ॥२३८३-२३८४।। ३. मुनि नवकोटि से शुद्ध ४६ दोषों को डालकर आहार लेते हैं - नवकोटिविगुरदम्यकविशुद्धोषवनितम् । संयोजनाप्रमाणास्थयमांगारमलोभितम् ।।२३८५॥ अशनं विधिनावसं योग्य कालेसुगेहिभिः । पाणिपात्रेस्पिति करवाते भजन्तिशिवाप्तये ।।२३८६।। ___ अर्थ-वे मुनिराज केवल मोक्ष प्राप्त करने के लिये सागृहस्थों के द्वारा योग्य कालमें विधि पूर्वक पाणिपात्रमें दिया हुआ मन-वचन-काय और कृत कारित अनुमोदना Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार प्रदीप ! ( ३६५ ) [ अष्ठम अधिकार की शुद्धता पूर्वक व्यालोस दोषों से रहित, संयोजना प्रमारण धूम अंगार नामके दोषों से रहित शुद्ध आहार खड़े होकर करते हैं ||२३८५-२३८६ ।। कैसे शाहार को मुनिराज छोड़ देते हैं उद्देश तथा ज्ञात कृतभस' स्वशंकितम् । दूरागतंसदोषं ते वजयन्तिविधानवत् ॥ २३८७ ॥ अर्थ- वे मुनिराज विष मिले हुए अन्न के समान सदोष आहार को छोड़ देते है दूरसे श्राए हुए आहार को छोड़ देते हैं जिसमें कुछ शंका उत्पन्न हो गई हो उसको भी छोड़ देते हैं, उद्दिष्ट और जाने हुए आहार को भी छोड़ देते हैं और स्वयं बनाये हुए को भी छोड़ देते हैं ।। २३८७|| मुनिराज भोजन की चर्या में छोटे बड़े का भेद नहीं करते विज्ञातानुमतातीतं नीोच्चगृहपंक्तिषु । मौनेनेवव्रजन्तोत्रभिक्षां गृह्णन्ति निस्पृहाः ।। २३८८ || अर्थ-से निस्पृह मुनि जाने हुए और अनुमोदना किये हुए श्राहार को भी छोड़ देते हैं तथा मौन धारण कर छोटे बड़े सब घरों की पंक्तियों में घूमते हुए आहार ग्रहण करते हैं ||२३८८ ।। रसना इन्द्रियजयो मुनि बाचक वृत्ति से शुद्ध आहार लेते हैं उवा शीतलक्षंमुख रसान्वितम् । क्षारं वा लवरणालीतंसुस्वास्वावदूरगम् ।।२३८६ ॥ श्रयाचितंयथालमाहारंपारणादिषु । स्वायं त्यक्त्वा च भुजन्तिजिह्वाहिकोलमोद्यताः ।। २३६० । अर्थ - जिल्हा आदि समस्त इन्द्रियों को कीलित करने में (च करने में ) सदा उद्यत रहनेवाले ये मुनिराज पारणा के दिन बिना याचना किया हुआ ठंडा, गर्म, सूखा, खा, सरस, लवरण सहित, लवण रहित, स्वादिष्ट, स्वाद से रहित ऐसा जो शुद्ध श्राहार मिल जाता है उसकी ही विना स्वाद के प्रहण कर लेते हैं ।। २३८६ २३६० ॥ मुनिराज स्वाद के लिये आहार नहीं लेते हैं प्राणों की रक्षा के लिये आहार लेते हैंअक्षम्रक्षणमात्रात प्राणस्थित्थभजन्ति ते । प्राणान् रक्षन्तिधर्माषं धर्मचरन्तियुक्तये ।। २३६१ ।। इत्यादिलाभसंसिद्ध तत्परंपरया विवः । भ्रयंत्यशनमात्मानमवाविहेतवे ।। २३६२ ।। अर्थ - जिसप्रकार गाड़ी को चलाने के लिये पहिया श्रोंगते हैं, उसमें तेल देते हैं, उसी प्रकार प्राणों को स्थिर रखने के लिये वे मुनिराज घोड़ासा श्राहार लेते हैं। वे मुनिराज धर्मके लिये प्राणों की रक्षा करते हैं और मोक्ष के लिये धर्म का साधन करते Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] अष्ठम अधिकार हैं । ये मुनिराज परम्परा से चले आए इसप्रकार के लाभ की सिद्धि के लिये तथा आत्मा शुद्ध करने के लिये आहार लेते हैं स्वाद के लिये आहार नहीं लेते ॥२३६१. २३६२।। मुन्दर-असुन्दर प्राहार मिलने पर मुनि गन्तुष्ट और खेद खिन्न नहीं होत– आहारेसोभनेलसंतुष्टास्ते भवन्ति । अलामेवाशुभानाप्तेदुर्मनस्का न मातुधित् ।।२६६३।। अर्थ-यदि अच्छा सुन्दर प्राहार मिल जाय तो वे सन्तुष्ट नहीं होते और यदि आहार न मिले वा मिले भी तो अशुभ अन्न मिले तो वे मुनिराज अपने मन में कभी खेद खिन्न नहीं होते हैं ॥२३६३॥ प्राण जानेपर भी मुनिराग भोजन की याचना नहीं करतेदेहीति चीनवाक्यं ते प्राणान्तेपि बदन्ति न । स्तुवात्मन्यं न दानायसम्मौनव्रतधारिणाः ।।२३६४॥ अर्थ-'मुझे दो' इसप्रकार के दीन बचन वे प्राण नाश होनेपर भी कभी नहीं करते हैं तथा श्रेष्ठ मौनव्रत को धारण करनेवाले वे मुनिराज दानके लिये कभी किसी को स्तुति भी नहीं करते ॥२३६४।। मुनि अयोग्य आहार की इच्छा नहीं करतेअनशनीयमाहार कंदवोजफलादिकम् । अपक्वमम्मिनाकिचिद्वीरानेच्छन्तिदोषतम् ।।२३६५।। अर्थ-जो प्राहार ग्रहण करने योग्य नहीं है ऐसे अग्निमें बिना पके हुए और इसीलिये अत्यन्त दोष उत्पन्न करनेवाले कंद, बीज, फल आदि को ग्रहण करने की कभी इच्छा भी नहीं करते हैं ।।२३६५॥ मुनि कसा भोजन ग्रहण नहीं करतेरात्रोस्थितंयवन्नादिसुस्वाद चलित तथा । तद्दिनौत्य न गृहन्तितरसर्व मुनयः क्यचित् ।।२३१६॥ अर्थ-वे धीर वीर मुनिराज रात्रि में रक्खे हए अन्न को कभी ग्रहण नहीं करते, तथा उसो दिन के बनाये हुए परन्तु स्थाद से चलित हुए प्रश्नको भी कभी ग्रहण नहीं करते हैं ।।२३६६।। निदोष अाहार करके भी मुनि प्रतिक्रमण करते हैंनिदोषाशनमप्यत्र भुक्त्वा तदोषशंकिताः । प्रतिक्रमणमात्मशाः कुर्वन्ति व्रतयुद्धमे ।।२३६७।। अर्थ-प्रारमाके स्वरूप को जानने वाले वे मुनिराज अपने पत्तों की शुद्धि के Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( ३६७ ) [ अध्ठम अधिकार लिये पाहार के दोषों से सदा डरते रहते हैं और निर्दोष आहार को ग्रहण करके भो प्रतिक्रमण करते हैं ।।२३६७॥ भिक्षाशुद्धि किम मुनि के होती है ? इत्यादि यत्नजांभिक्षामेषरणाशुद्धिपूधिकाम् । ये श्रयन्ति सदातेषां भिक्षाशुद्धिनं चान्यया ॥२३६६।। अर्थ- इसप्रकार जो मुनिराज एषणाशुद्धि पूर्वक, यत्नाचार पूर्वक प्राहार ग्रहण करते हैं उन्हीं के यह भिक्षाशुद्धि होती है, अन्य किसी के नहीं ।१२३६८।। ज्ञानशुद्धि का स्वरूपकालक्षेत्राबियाविनयेनैकाग्रचेतसा । अंगपूर्यादिसूत्राणां पठन परिवर्तनम् ॥२३६६॥ पाठन व सतां मुक्त्य क्रियते यन्मुनीश्वरः । ज्ञाननेत्रर्मदातोतानशूहिःस्मतानसा ॥२४००।। अर्थ-ज्ञानरूपी नेत्रों को धारण करनेवाले और ज्ञानके अभिमान से सर्वथा रहित ऐसे मुनिराज मोक्ष प्राप्त करने के लिये कालशुद्धि, क्षेत्रशद्धि प्रादि समस्त शुद्धियों के साथ-साथ विनयपूर्वक एकाग्रचित्त से अंगपूर्व वा सूत्रों का जो पठन-पाठम करते हैं वा पाठ करते हैं उसको सज्जन पुरुष ज्ञानशुद्धि कहते हैं ॥२६६६-२४००॥ ज्ञान शुद्धि धारी मुनिराज को प्रवृत्तिमहातपोभराकांता दृढ चारित्रधारिणाः । शुष्कधर्मास्थिसर्वांगाविश्वासाल्यातिजिताः ।२४०१। महाष्टांगनिमित्तशाःसर्वांगमाधिपारगाः । द्वादशांगार्यवेसारः परापापितत्रेतसः ।।२४०२।। धारणपणे सक्ता अंगार्थानां मतेर्वलात् । पादानुसारिणो बीजबुद्धयः कोष्ठबद्धयः ।।२४०३।। संभिन्नबद्धयोरक्षा सप्तदिभूषिता विचः । श्रुतामृतात्तसत्करमहाबुद्धिविशारदाः ।।२४०४।। मतिश्रुताबधिज्ञानमनःपर्ययमंडिताः । ज्ञातविश्वार्थसाराचसद्धथानलोनमानसाः ॥२४०५॥ त्रिशुद्धयानिधिनांगामापठन पाठनःतताम् । तदर्थचिन्तनर्लोके वर्तन्ते शानिनोम्यहम् ॥२४०६।। अर्थ-जो मुनिराज महातपश्चरण के बोझ से दबे हुए हैं, बढ़ चारिन को धारण करनेवाले हैं, जिनका धमड़ा, हड्डी प्रादि समस्त शरीर सूख गया है, जो अपने मनमें विश्वास और प्रसिद्ध आदि को कभी नहीं चाहते, जो महा अष्टांग निमित्तशास्त्रों के जानकार हैं, समस्त प्रागम रूपी समुद्र के पारगामी हैं, द्वादशांग के अथं को जानने वाले हैं, अपने मनको सदा दूसरे के उपकार में ही लगाते रहते हैं, जो अपनी बुद्धि की प्रबलता से अंगों के अर्थ को ग्रहण करने पर धारण करने में समर्थ हैं, जो अत्यन्त चतुर हैं, पादानुसारी बीजबुद्धि, कोष्ठबुद्धि, संभिन्नबुद्धि प्रादि सासों प्रकार को ऋषियों नाम Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३६८ ) [ अष्ठम अधिकार से सुशोभित हैं, जो महाज्ञानी हैं, शास्त्ररूपी हैं, अमृतके पान से जिन्होंने अपने कानों को प्रत्यन्त श्रेष्ठ बना लिया है, जो महा बुद्धिमान और महा चतुर हैं, मलिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान इन चारों ज्ञानों से सुशोभित हैं जो समस्त पदार्थों के सार को जानते हैं और जो अपने मनको सदा श्रेष्ठ ध्यान में ही लोन रखते हैं, ऐसे महाज्ञानी पुरुष मन-वचन-कायको शुद्धता पूर्वक समस्त अंगों को स्वयं पढ़ते हैं, सज्जनों को पढ़ाते हैं और अनेक अर्थों को चितवन करते रहते हैं । इसप्रकार इस संसार में ज्ञानी पुरुषों को प्रतिदिन प्रवृत्ति रहती है ।। २४०१-२४०६ ॥ मुनिराज जिनवाणी रूपी अमृत का पान करते एवं करवाते हैं विदोपि सकलांगानां तद्गतं न मनारमदम् । कुर्वन्ति न सहन्ते स्वतपूजादिकं क्वचित् ॥ ७॥ जिवाक्सुधापनं जन्ममृत्युविषापहम्। विश्वक्लेशहरं पंचेन्द्रियतृष्णाग्नि वारिम् ।।२४०६८ ।। विज्ञाय जन्मवाहातिशान्तये शिवशर्मणे । कुर्वन्ति कारयन्मयन्यात् विस्तारयन्ति ते भुवि ।। २४०६ ।। अर्थ- मुनिराज यद्यपि समस्त अंगों को जानते हैं तथापि वे किचित भो उसका अभिमान नहीं करते तथा उससे अपनी प्रसिद्ध वा बड़प्पन पूजा श्रादि की भी कभी इच्छा नहीं करते | यह जिनवाणी रूपी अमृत का पान करना जन्ममृत्युरूपी विष को नाश करनेवाला है, समस्त क्लेशों को दूर करनेवाला है, और पंचेन्द्रियों की तृष्णा रूपी अग्नि को बुझाने के लिये मेघ के समान है । यही समझकर वे मुनिराज जन्ममरणरूपी दाह को शांत करने के लिये श्रीर मोक्ष सुख प्राप्त करने के लिये स्वयं freerणी रूपी अमृत का पान करते रहते हैं, दूसरों को उसका पान कराते रहते हैं और इस लोक में उस जिनवाणीरूपी अमृतका विस्तार करते रहते हैं ।। २४०७-२४०६ ।। ज्ञान शुद्धि का स्वामी कौन मुनि होते हैंप्रत्यभीषण महाशानोपयोगवशवर्तिनाम् । ज्ञान शुद्धिमंतासर्नान्येषां च प्रभाविनाम् ।। २४१० ।। धर्म- जो मुनिराज निरंतर ही महाज्ञानमय अपने उपयोग के वशीभूत हैं अर्थात जो निरंतर ज्ञानमें ही अपना उपयोग लगाये रहते हैं, उन्हीं सज्जन मुनियों के ज्ञानशुद्धि कही जाती है, अन्य प्रमादी पुरुषों के ज्ञानशुद्धि कभी नहीं हो सकती । ॥२४१० ॥ उज्भन शुद्धि का स्वरूप मोथे यः शरीरेपि संस्कारः क्षालनादिभिः । वध्वादिविवयेस्नेहो मोहारि जनकोऽशुभः ।। ११ ।। संगममत्वभावो वा निचेः किमले न च । क्वचित्कामताः शुद्धिः सावोज्झनाभिधा ||१२|| Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३६६ ) [ अष्ठम अधिकार अर्थ-- अपने शरीर में प्रक्षालन आदि का संस्कार करना भी स्त्रियों में स्नेह उत्पन्न करनेवाला है, मोहरूपी शत्रु को उत्पन्न करनेवाला है और अत्यंत अशुभ है, इसलिये चतुर मुनिराज शरीर का संस्कार कभी नहीं करते हैं तथा किसी भी परिग्रह में किसी समय भी ममत्य भाव धारण नहीं करते इसको आचार्य लोग उज्झन शुद्धि कहते हैं । २४११-२४१२ ।। उज्झन शुद्धिधारी मुनिराज शरीर संस्कार नहीं करते - धावनंमुखवतानाम॒द्वर्तनं च सर्वनम् । पावप्रक्षालन नेवांजनं च कायपनम् ॥ २४१३ ।। मज्जनं मंडनं जातु वमनं च विरेचनं । इत्याखापरसंस्कारं निर्ममास्ते न कुर्वते ।। २४१४ ।। अर्थ - मोहरहित वे मुनिराज मुख और दांतों को न कभी धोते हैं, न कुल्ला करते हैं, न घिसते हैं, न पैर धोते हैं, न नेत्रों में अंजन लगाते हैं, न शरीर को प में सुखाते हैं, न स्नान करते हैं, न शरीर की शोभा बढ़ाते हैं, न वमन विरेचन करते हैं तथा और भी ऐसे ही ऐसे शरीर के संस्कार से मुनिराज कभी नहीं करते ।। २४१३२४१४ ॥ वे मुनिराज रोग प्रतिकार के लिये औषध की इच्छा नहीं करते कुष्ठवर मदश्विताद्यसाध्यरुकशतादिषु । दुस्सहेष्वत्र जातेषु पूर्वासातोवयेम भोः ।। २४१५ ।। स्वकर्मपाकने सारः प्रौषधाद्यं मं जातुचित् । तच्छान्तयेप्रतीकार मिच्छन्तिपात हानवे ।। २४१६ ॥ अर्थ - अपने कर्मों के विपाक को जानने वाले थे मुनिराज पहले के असाता कर्मके उदय से प्रत्यन्त असह्य और असाध्य ऐसे कोढ़, ज्वर, बायु का विकार वा पित्त का विकार आदि सैकड़ों रोग उत्पन्न हो जांय तो वे मुनि अपने पापों को नाश करने के लिये उस दुःख को सहते रहते हैं उन रोगों को दूर करने के लिये औषधि आदि के द्वारा कभी प्रतिकार नहीं करते, तथा न कभी प्रतिकार करने की इच्छा ही करते हैं । ।। २४१५-२४१६॥ वे मुनिराज रोगके होनेपर भी वेदखिन नहीं होते दुर्व्याधिवेदनायासर्वांगा श्रपि निस्पृहाः । भवन्ति दुर्मनस्का न स्वस्था प्राणप्रचान्यथा । २४१७॥ करनेवाले उन मुनिराजों का समस्त शरीर रहा हो तो भी वे अपने मनमें लेद खिन्न नहीं होते वे पहले के हो समान स्वस्थ बने रहते हैं उन रोगों से उनके मनमें कभी अर्थ -- निस्पृह वृत्ति को धारण अनेक असाध्य रोगों की बेदमा से व्याप्त हो Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] विकार उत्पन्न नहीं होता है ॥२४१७॥ ( ३७० ) वे मुनिराज सदा रत्नत्रय श्रीषध का सेवन नहीं करते [ अष्ठम अधिकार तपोरत्नत्रयं जन्ममृत्युकृत्स्नरुजान्तकम् । विश्वक्लेशहरं खेकं लेवन्ते ते तचापरम् ।। २४१८ ।। अर्थ- वे मुनिराज समस्त क्लेशों को दूर करनेवाले और जन्ममरणरूपी समस्त रोगों को नाश करनेवाले रत्नत्रय को तथा तपश्चरण को सेवन करते रहते हैं, रत्नत्रय और तपके सिवाय वे अन्य किसी का सेवन नहीं करते ।। २४१८ || बें मुनिराज सदा शरीर के स्वरूप का विचार करते हुए उसे भात्मा से भिन्न मानते हैंरोगोरगविनिद्य कृतान्तमुखमध्यगम् । शुकधोति वोजोरथसप्तधातु कुलालयम् ।।२४१६ ।। क्रमिकोटिशताकीर्ण बीभत्सं च घृणास्पदम् । विष्ठादिनिचितासारं मलमूत्राविभाजनम् | २४२० पंचाक्षतस्करावासं विश्वतुः ख निबन्धनम् । कृत्स्नाशुष्याकरीभूतं शुचिद्रव्याशुचिप्रदम् ।। २४२१ ।। aeroinsोपाग्निषितं भवन् । रागादिपूरितं इतिकर्मकारम् ॥। २४२२ ।। इत्याद्यन्महावोषमूलं कामकलेवरम् । पश्यन्तश्चिन्तयन्तस्ते भावयन्तोनिरन्तरम् ।।२४२३ ।। तस्मात्सदापूर तस्वात्मानं सद्गुणार्णवम् । कथं कुर्वन्ति रागाची निर्विष्णाः काय शर्मणि ॥ २४ ॥ अर्थ - यह शरीर रोगरूपी सर्पों का बिल है, अत्यंत निद्य है, यमराजके मुख में ही उसका सदा निवास है, यह शुक्र रधिर रूपी बीजसे उत्पन्न हुआ है, सप्ल धातुनों से भरा हुआ है, करोड़ों अरबों कीड़ों से अत्यन्त भयानक है, अत्यन्त घृणित है, मल मूत्र आदि असार पदार्थों से विष्ठा आदि अपवित्र पदार्थों का पात्र है, पांचों इन्द्रियरूपी चोर इसमें निवास करते हैं, समस्त दुःखों का यह कारण भरा हुआ है, भरा हुआ है, है, समस्त अपवित्र पदार्थों की खानि है, पवित्र पदार्थों को भी अपवित्र करनेवाला है. भूख, प्यास, काम, क्रोधरूपी अग्नि से सदा जलता रहता है, जन्ममरणरूप संसार को बढ़ाने वाला है । रागद्व ेष से भरा हुआ है, दुर्गंध और अशुभ कर्मों का कारण हैं, तथा और भी अनेक महा दोषों का मूल कारण ऐसे शरीरको देखते हुए वे मुनिराज निरंतर उसी रूपसे चितवन करते हैं तथा अनन्त गुणोंका समुद्र ऐसे अपने श्रात्माको उस शरीर से सदा भिन्न मानते हैं । इसप्रकार शरीर के सुखसे विरक्त हुए वे मुनिराज उस शरीर में राग कैसे कर सकते हैं ।। २४१६-२४२४॥ भोगों की प्रसारता का चिन्तवन करते हुये वे मुनिराज भोगों को इच्छा नहीं करतेस्वाम्यांगज नितान्भोगांश्चतुर्गतिनिबन्धनान् । जगद :शाकरीभूतान् महापापकशन् बुधः ।।२५।। निधात् वाहान पशुम्लेच्छाविसेवितान् । निचकर्म भवान् शत्रुभिहन्ते न से वचित् ॥ २६ ॥ ॥ * Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३७१ ) ( মঠম মক্কিা । ___अर्थ- अपने शरीर से वा अन्य पदार्थों से उत्पन्न हुए ये भोग चारों गति के कारण हैं, संसार के समस्त दुःखों को खानि हैं, महापाप उत्पन्न करनेवाले हैं, विद्वान लोग सदा इनकी निंदा करते रहते हैं, दाह दुःख और अनेक रोगों के ये कारण हैं पशु और म्लेच्छ लोग ही इनका सेवन करते हैं और निध कर्मों से ये उत्पन्न होते हैं इस प्रकार शत्रु के समान इन भोगों को इच्छा वे मुनिराज कभी नहीं करते हैं ।। २४२५२४२६॥ बन्धुवर्ग में भी स्नेह नहीं करतेमोहशात्रवसन्तानेबंधूवर्गे तिदुस्त्यजे । धर्मज्ने पापवीजे ते स्नेहं जातु न कुर्वते ।।२४२७।। अर्थ- ये बंधुवर्ग भी मोहरूपी शत्रु की संतान हैं, पाप के कारण हैं, धर्म को नाश करनेवाले है और अत्यन्त कठिनता से छोड़े जा सकते हैं, ऐसे बंधुवर्ग में वे मुनिराज कभी स्नेह नहीं करते ॥२४२७॥ कौन मुनिराज उज्झन शुद्धि के धारी होते हैंइत्यादि निर्मलाचारः स्वत्तो विश्वान्यवस्तुषु । त्यतरागाश्च घे तेषांस्याद्धिरुज्झनासया ।।२८।। अर्थ-जो मुनिराज इसप्रकार स्वयं निर्मल माचरणोंको पालन करते हैं और अन्य समस्त पदार्थों में कभी राग नहीं करते ऐसे मुनियों के उज्झन नाम को शुद्धि होती है ।।२४२८।। वाय शुद्धि का स्वरूपजिनसूत्राविरुद्ध यदनेकांतमताधितम् । एकांतदरगं तभ्यं विश्वजन्तुहितावहम् ॥२४२६ ।। मितं मन यतेसार बचन धर्मसिद्धये। उन्मार्गहानये वक्षः सा वाक्मशुद्धिरुतमा ॥२४३०॥ अर्थ-चतुर मुनि कुमार्गको नाश करने के लिये और धर्म की सिद्धि के लिये सदा ऐसे वचन बोलते हैं जो जिनशास्त्रों के विरुद्ध न हों, अनेकांत मतके माधय हों, एकांत मतसे सर्वथा दूर हों, यथार्थ हों, समस्त जीवों का हित करनेवाले हों, परिमित हों और सारभूत हों । ऐसे वचनों का कहना उत्तम वाक्यशुद्धि कहलाती है ॥२४२६. २४३०॥ कैसे वचन मुनिराज नहीं बोलतेबामयं च विनयातीतं धर्महीनमकारणम् । धिकरते परैः पृष्टा प्रपृष्टा वा बस्ति न ॥२४३१।। अर्थ-जो बचन विनय से रहित हैं, धर्म से रहित हैं, विरुद्ध हैं और जिनके Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ३७२ ) [ अष्ठम अधिकार कहने का कोई कारण नहीं है ऐसे वचन दूसरों के द्वारा पूछने पर वा बिना पूछे वे । मुनिराज कभी नहीं बोलते हैं ॥२४३१॥ वे मुनिराज दुमरों की निंदा स्तुति में गूगे समान होते हैंपश्यन्लोविविधानान्नः श्रृण्वन्तजितान् । कर्णश्च ते हि जानन्तश्चित्तेतारेतरान भुवि ॥३२।। मूकीमत्ता इवात्यर्थ लोके तिष्ठन्ति साधवः । कुर्वन्स्यन्यस्य निन्वा न वार्ता स्तुत्यकारणम् ॥३३॥ __अर्थ-यद्यपि वे मुनिराज अपने नेत्रों से अनेक प्रकार के अनर्थ देखते हैं, कानों से बड़े-बड़े अनर्थ सुनते हैं, और अपने हृदय में सार प्रसार समस्त पदार्थों को जानते हैं तथापि वे साधु इस लोकमें गूगेके समान सदा बने रहते हैं, वे कभी किसी की निवा नहीं करते और न किसी की स्तुति करनेवाली बात कहते हैं ।।२४३२-२४३३॥ व मुनिराज विकथा नहीं तो करते हैं एवं न ही सुनते हैंस्त्रोकथाकथाभक्तराजचौरमषाकथाः । खेटकर्षटवेशाद्रिपुराकरादिजा: कथाः ।।२४३४॥ नठानां सुभटानां च मल्लानामिन्द्रजालिमाम् । धृ तकारकुशोलाना बुष्टम्लेच्छादिपापिनाम् ।। परिणां पिशुनानां च मिथ्यावृशां कुलिगिमाम् ! रागिरणाषिणामोहाधिीनांत्रिकथाः था ।। इत्याग्रा प्रपरा वशीः कथाः पापखनोविदः । कथयन्ति म मौनावयाः जातुअण्वन्तिमाशुभाः ।। अर्थ-मौन धारण करनेवाले वे मुनिराज स्त्रीकथा, अर्थकथा, भोजनकथा, राजकथा, चोरकथा वा मिथ्या कथाएं कभी नहीं कहते हैं। इसीप्रकार खेट, कर्वट, देश, पर्वत, नगर, खानि आदि की कथाएं भी कभी नहीं कहते हैं । तथा के मुनिराज नट, सुभट, भल्ल इन्द्रजालिया, जत्रा खेलने वाले, फुशील सेवन करनेवाले, दुष्ट, म्लेच्छ, पापी, शत्र, चुगलखोर, मिथ्याष्टि, कुलिंगी, रागी-षी, मोही और दुःखी जीवों की व्यर्थ की विकथाएं कभी नहीं कहते हैं। वे चतुर मुनि पाप की खानि ऐसी और भी अनेक प्रकार की विकथाएं कभी नहीं कहते हैं तथा न कभी ऐसी अशुभ विकथाओं को सुनते हैं ॥२४३४-२४३७॥ विकथा करनेवाले की मुनिराज संगति भी नहीं करते हैं--- विकथाचारिणो स्वायत्थाजन्मविषायनाम् । दुषियो क्षणमात्र म संगमिच्छन्ति पोषनाः ।।३।। ___ अर्थ--जो विकथा कहने वाले लोग अपना और दूसरों का जन्म व्यर्थ ही खोते हैं, ऐसे मूर्ख लोगों को संगति वे बुद्धिमान मुनिराज एक क्षणभर भी नहीं चाहते ॥२४३८॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप ] [प्रष्ठम अधिकार मुनिराज कसे वचन नहीं कहतेकौस्कुच्यममकन्वर्ष मोख्य साधुमिन्वितम् । हास्याविप्रेरक जातु दुवंशी न प्रवन्ति ते ॥२४३६॥ अर्थ-वे मुनिराज शरीर में विकार उत्पन्न करनेवाले वचन कभी नहीं कहते, कामवासना को बढ़ाने वाले बचन कभी नहीं कहते, साधुनों के द्वारा निंदनीय ऐसी बकवाद कभी नहीं करते और हंसी को उत्पन्न करनेवाले वुर्वचन कभी नहीं कहते हैं । ॥२४३६॥ वे मुनिराज धर्मोपदेश एवं श्रेष्ठ कथा ही कहते हैंनिविकाराविचारशाः शिवधीसाधनोगताः । शिवाय धीमतां नित्यं शिक्षान्तिधर्मवेशनाम् । ४०॥ श्रीजिनेन्द्रमुखोस्पन्नामहापुरुषसम्भवाः । संवेगजननी:सारास्तत्त्वगर्भाः शिवंकराः ।।२४४१॥ रागारिनाशिनीश्चित्तपंचेन्द्रियमिरोषिनी: । सस्फयाः धर्मसंबद्धाः कथयन्तिसतां विवः ॥२४॥ अर्थ-विकार रहित, विचारशील और मोक्ष लक्ष्मी को सिद्ध करने में सरा तत्पर ऐसे वे मुनिराज मोक्ष प्राप्त करने के लिये बुद्धिमानों को सदा धर्मोपदेश ही देते हैं । जो धर्म संबंधिनी श्रेष्ठ कथा भगवान जिनेन्द्रवेव के मुख से प्रगट हुई है, जिसमें तीर्थंकर ऐसे महापुरुषों का कथन है, जो संवेग को उत्पन्न करनेवासी है, सारभूत है, तस्वों के स्वरूपको कहने वाली है, मोक्ष बेनेवाली है, रागढष रूपी शत्रुको नाश करने वाली है, तथा मन और पंचेन्द्रियों को रोकने वाली है, ऐसो श्रेष्ठ कथा हो वे चतुर मुनिराज सज्जनों के लिये कहते हैं ॥२४४०-२४४२।। कैसे मुनिराज वाक्यशुद्धि धारी होते हैंसस्वाघिका प्रनगारभावनारतमामसाः । स्वारमध्याणपरास्तेस्युस्तत्त्वचिस्तावलम्बिनः ॥२४४३॥ इत्यामन्यगुणप्रामा: मे मौनव्रतधारिणः । मका इवात्र तिष्ठन्ति से वाक्यद्विधारका ॥२४॥ अर्थ-जो मुनिराज समर्थशाली हैं, अपने मनको सदा मुनियों को भावना में लगाये रहते हैं जो अपने प्रास्मध्यानमें सदा तत्पर रहते हैं और तत्त्वोंके चितवन करने का ही जिनके सदा अवलंबन रहता है। इसप्रकार के और भी अनेक गुणों को जो धारण करते हैं तथा गूगे के समान मौनव्रत धारण कर ही अपनी प्रवृत्ति रखते हैं ऐसे मुनियों के उत्तम वाक्यशुद्धि कही जाती है ।।२४४३-२४४४॥ तपशुद्धि का स्वरूपद्विषड्भेदं तपः सारं सर्वशक्त्याजिनोवितम् । दुष्कर्मारातिसन्तानोन्मूलनंशिवकारणम् ।।२४४५॥ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है मूलाचार प्रदीप ] ( ३७४) [अष्ठम अधिकार अप्रमत्तमहायोगवतगुप्त्याविमंडितैः । क्रियते कानपूर्व यत्सा तपः शविरुद्ध ता ।।२४४६।। अर्थ-महायोग व्रत और गुप्ति समिति आदि से सुशोभित रहनेवाले और प्रमाद रहित जो मुनि अपनी शक्तिके अनुसार अशुभ कर्मरूप शत्रुओं की संतान को भी जड़मूल से उखाड़ देनेवाले तथा मोक्ष के कारण, भगवान जिनेन्द्रदेव के कहे हुए और सारभूत ऐसे बारह प्रकार के तपश्चरण को ज्ञानपूर्वक धारण करते हैं उसको उत्तम तप शुद्धि कहते है ॥२४४५-२४४६।। __वे मुनिराज अनेक उपवास धारण कर तप करते हैं-- तपोग्निशष्ककर्मणांप्राचुर्भूतास्थिसंचयाः । साविका निकषायास्ते शोरणगानाधतेलात् ।।४।। बहन षष्ठाष्टमावींश्च पक्षमासादिगोचरान् । उपवासाश्चरम्यवनिःशक्ता अपि मुक्तये ॥२४४८।। अर्थ----तपरूपी अग्निसे जिनके कर्म सब सूख गये हैं, जिनके शरीर में हड़ीमात्र रह गई है जो कषाय रहित हैं तथापि जो शक्तिशाली हैं, ऐसे शरीर से अशक्त मुनि भी केवल मोक्ष प्राप्त करने के लिये अपने धैर्यके बलसे वेला, तेला, पंद्रह दिन का उपवास, एक महीने का उपवास, वो महीने का उपवास इसप्रकार अनेक उपवासों को धारण करते हैं ।।२४४७-२४४८।। बे मुनिराज तपशुद्धि के लिये उनोदर एवं वृति-संख्यान तप करते हैंपक्षमासोपवासादि पारणाहनिनिस्पृहाः। प्रासमात्रादिकाहारं भुजन्ति शिवशर्मणे ॥२४४६।। कृत्वामासोपवासावीन्पारणे वस्वरादिभिः । गृह्वात्यवग्रहं पोराभिमालाभाय दुर्घटम् ।।२४५०।। अर्थ-वे निस्पृह मुनिराज मोक्ष सुख प्राप्त करने के लिये पंद्रह दिन का वा एक महीने का अथवा और भी अधिक उपवास करके पारणा के दिन एक ग्रास वा दो ग्रास पाहार लेकर ही चले जाते हैं । वे धीर वीर मुनि मासोपवास आवि करके भी पारणा के भिक्षा लेने के लिये "अाज चौराहे पर आहार मिलेगा तो लंगा नहीं तो महीं" अथवा "पहले घरमें आहार मिलेगा तो लगा नहीं तो नहीं" इसप्रकार पड़गाहन को प्रतिज्ञा कर वृत्तिपरिसंख्यान तप धारण करते हैं ॥२४४६-२४५०॥ वे मुनिराज रस परित्याग एवं विविक्त शय्यासन तप करते हैंस्यास्वापंपरसान षड्या धौतान्नमुष्पवारिणा । पंचामसुखहान्य ते भजन्ति पारणे भुवा ।२४५१॥ भीमारण्ये श्मशाने वा मांसाशिफू रसंकुले । स्याविठूरे भयातीताः अयन्तिशयमासमम् ॥२४५२।। अर्थ-अथवा वे मुनिराज पांचों इन्द्रियों के सुख नष्ट करने के लिये पारणा Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३७५ ) [ अष्ठम अधिकार के दिन छहों रसों का त्याग कर अथवा पांचों रसों का त्याग कर आहार लेते हैं प्रथवा गर्म जल से धोये हुए अन्नको ही वे ग्रहण करते हैं। वे निर्भय मुनिराज स्त्रियों के संसगं से प्रत्यन्त दूर तथा हड्डी मांस वा क्रूर जीवों से भरे हुए श्मशान में वा भयानक वनमें अर्थात् एकांत स्थान में ही शयन वा आसन ग्रहण करते हैं ।। २४५१-२४५२ ।। शीतकाल में चौराहे पर खड़े होकर ध्यान करते हैं हेमन्ते चत्वरे घोरे शीतवन्ध मे निशि । ध्यानोष्मणाष्टदिग्वस्त्राः शीतवाषां जयन्ति ते ।।४३। अर्थ- वे मुनिराज जिसकी ठंडसे वृक्ष भी जल जाते हैं, ऐसे जाड़े के दिनों में रात के समय आठों दिशारूपी वस्त्रों को धारण कर तथा ध्यानरूपी गर्मी से तपते हुए घोर चौराहे पर खड़े होकर शीतबाधा को जीतते हैं ।। २४५३ ।। कालमें पर्वत के शिखर पर ध्यान करते हैं सूर्यांशु संत तु गाविस्मशिलासले | तापक्लेशासहाधी रास्तिष्ठन्सिभानुसम्मुखाः ।। २४५४ ।। अर्थ- गर्मी के क्लेश को सहन करने में प्रत्यन्त घोर वीर ने मुनिराज गर्मी के दिनों में सूर्य की किरणों से तप्तायमान ऐसे ऊंचे पर्वतों को शिलापर सूर्य के सामने खड़े होते हैं ।। २४५४। वर्षा काल में वृक्ष के नीचे ध्यान करते हुए उपद्रव सहते हैं किरेवृक्षमूले सपविचेष्टिले । प्रावृटकालेस्थिताः शक्त्याभयन्त्युपद्रवान् बहून् ।। २४५५ ।। अर्थ- वे मुनिराज वर्षा के दिनों में जहां पर बहुत देर तक पानी की बूंदें भरती रहती हैं और जिसकी जड़ में अनेक सर्पादिक जीव लिपटे हुए हैं ऐसे वृक्षों के नीचे खड़े रहते हैं तथा यहांपर अपनी शक्ति के अनुसार अनेक उपद्रवों को सहन करते रहते हैं ।। २४५५ ।। तीनों कालों में योग धारण करते हुए उपसर्ग एवं परीषदों को सहन करते हैं-एवं त्रिकालयोगस्या ऋतुजोषवान्परान् । क्षुत्तृशीतोष्णदेशाहि वृश्चिकादिपषाम् ।।५६ ।। देवग्निरानीत्योपसर्गसंयान् । सहन्ते सर्वशक्त्या व मनाक क्लेशं व्रजन्ति न ।। २४५७ ।। अर्थ - इसप्रकार तीनों ऋतुओं में योग धारण करनेवाले वे मुनिराज ऋतुझों से उत्पन्न हुए अनेक उपद्रवों को सहन करते हैं, क्षुधा, तृष्णा, शीत, उष्ण को परोषह सहन करते हैं, सांप, बिच्छुओं के काटने की परीषह सहन करते है देव मनुष्य तिच और अचेतनों से उत्पन्न हुए घोर दुर्जय उपसर्गों को सहन करते हैं। वे मुनिराज अपनी Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ३७६ ) [ অঞ্চম স্থগ্ৰিকৰ पूर्ण शक्ति से उपसर्ग और परीषड़ों को सहन करते हैं, अपने मन में रंधमात्र भी खेद उत्पन्न नहीं करते ॥२४५६-२४५७।। ___ अन्तरंग तपों को कौन मुनि धारण करने में समर्थ होते हैंइति पाहातपोधोरमाचरम्तस्तपोषनाः । प्रायश्चित्सावि सर्वेषां षडन्सस्तपसा कमात् ।।२४५८ ।। आरोहन्ति परां कोटि निष्प्रमादा जितेन्द्रियाः । हिधारत्नत्रयाशक्ताः बाह्यान्सः संगदूरगाः ।।६।। अर्थ-व्यवहार निश्चय दोनों प्रकार के रत्नत्रय को धारण करने में लोन रहनेवाले, बाह्य, अभ्यंतर दोनों प्रकार के परिग्रह से सर्वथा हर तथा जितेन्द्रिय और प्रभाव रहित के मुनिराज ऊपर लिखे अनुसार बाह्य घोर तपश्चरणों को धारण करते हुए भी प्रायश्चित्त आदि छहों प्रकार के समस्त अंतरंग तपश्चरणों को अनुक्रम से सोंस्कृष्ट रूपसे धारण करते हैं ॥२४५८-२४५६॥ घे मुनिराज दुर्जनों के दुष्ट वचनों से क्षुब्ध नहीं होतेमिथ्याग्दु नारोनादुर्वाक्यावन्तकोपमात् । ताहनासर्जनाधाताधान्ति क्षोभं न ते क्वचित् ।।६।। अर्थ-वे मुनिराज यमराज के समान मिथ्यादृष्टि और दुष्ट मनुष्यों के दुर्वचनों से उनकी ताड़ना से, तर्जना से, वा उनकी मार से कभी भी क्षुब्ध नहीं होते हैं ॥२४६०॥ इन्द्रियों को वैराग्य जाल से बांधत हैंपंचाक्षविषयाकांक्षाविश्वानर्यलनी नणाम् । या तो वैराग्यपानतेवघ्नन्तिमगीमिय ।।२४६१।। अर्थ-जिसप्रकार किसी जाल से हिरण को बांध लेते हैं उसी प्रकार वे मुनिराज समस्त अनर्थों को खानि ऐसो मनुष्यों की पांचों इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाली विषयों की आकांक्षा को अपने वैराग्य रूपी जाल से बहुत शीघ्र बांध लेते हैं । ॥२४६१॥ सपशुद्धि का अधिकारी कौन होता हैइत्यासन्यमहाधोरोग्रतपश्चरितात्मनाम् । जिताक्षाणां सपः शुद्धि केवलं विद्यतेनघा ॥२४६२।। अधं-जो मुनिराज इनके सिवाय और भी महा घोर और उग्र तपश्चरणों को धारण करते हैं तथा समस्त इन्द्रियों को जीतते हैं, उन्हीं मुनियों के पापरहित निर्दोष तपःशुद्धि होती है ।।२४६२।। . Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलावार प्रदीप ] ( ३७७ ) [ अष्ठम अधिकार ध्यान शुद्धि का स्वरूप-- निर्विकल्पं मनः कृत्वा त्यक्त्वार्तरोनमंजसा । स्थित्वागिरिगुहादीसलपानमेकाप्रचेतसा ॥२४६३।। धर्मशुक्माभिधं वक्षः सिद्धमे यद्विधीयते । कर्मारण्ये ज्वलवालाध्यानद्धिरिहास्ति सा ॥६४॥ अर्थ-जो चतुर मुनि अपने मनके समस्त संकल्प विकल्पों को दूर कर तथा मार्तध्यान और रौद्रभ्याम की मांग कर पर्वतो की गुफा आदि में बैठकर एकाग्रचित्त से धर्मध्यान वा शुक्लध्यान को धारण करते हैं तथा इन दोनों ध्यानों को मोक्ष के हो लिये धारण करते हैं, उनके कर्मरूपी वन को जलाने के लिये की ज्याला के समान ध्यानशुद्धि कही जाती है ॥२४६३-२४६४॥ बुद्धिमान लोग मनरूपी हाथी को किससे वश करते हैंभ्रमतिविषयारण्ये दुद्ध र स्वमनोगजम् । ध्यानाकुशेनचाहत्यानयन्ति स्वशं बुधाः ॥२४६५।। अर्थ-यह अपना मनरूपी दुर्धर हाथी विषयरूपी वनमें घूमता रहता है। इसको ध्यानरूपी अंकुश से पकड़ कर बुद्धिमान लोग ही अपने वश में कर लेते हैं । ॥२४६५।। योगोजन इन्द्रिय और कषाय रूपी सेना को किसके द्वारा जीतते हैंचंचलान् कुर्वतः कोड पंचेन्नियजलोद्भवान् । रत्यब्धौ ध्यानमालेनवघ्नन्तिथ्यानिनोवृतम् ।।६६।। कषायतस्करानीकं मनोभूपेन्द्रपालितम् । विश्वसन्तापिनं ध्वन्तिघ्यानखड्गेनयोगिनः ॥२४६७।। अर्थ-पंचेन्द्रियरूपी जलसे उत्पन्न हुई और रति रूप समुद्र में कोड़ा करती हुई चंचल मछलियों को ध्यानी पुरुष ही ध्यानरूपी जालमें शीर बांध लेते हैं । मनरूपी उत्कृष्ट राजा के द्वारा पाली हुई और समस्त जीवों को दुःख देनेवाली ऐसी इस कषायरूपी चोरों की सेना को योगी पुरुष ही ध्यानरूपी तलवार से मारते हैं ॥२४६६२४६७॥ योगीजन ध्यान के द्वारा क्या-क्या करते हैंध्यानेन निखिलानयोगानमूलोत्सरगुणानपरान् । शमेन्द्रियषमादीश्व नन्ति पूर्णता विवः ॥६॥ अर्थ-चतुर पुरुष इस ध्यान के हो द्वारा समस्त योगों को, उत्कृष्ट मूलगुण तथा उत्तरगुणों को उपशम परिणामों को और इन्द्रियों के दमन को कमरूप से धारण कर लेते हैं ॥२४६८॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३७८ ) [ अष्ठम अधिकार योगीजन ध्यान के द्वारा श्रशुभकर्म पर्वतों को चूर्ण करते हैंसद्ध्यानवाघातेन द्रुतं बुष्कर्मपर्वतान् । सार्द्धं मोहादिवृक्षैः प्राप्यतिशतचूर्ण ताम् ।।२४६६ ।। अर्थ- मुनिराज श्रेष्ठध्यानरूपी यन्त्र की चोट से मोहादिक वृक्षों के साथ साथ अशुभकर्मरूपी पर्वतों के सैकड़ों टुकड़े कर डालते हैं ।।२४६६ ।। मुनिराज किसी भी अवस्था में ध्यान नहीं छोड़ते गच्छन्ता वा सुखासीना बहोः सुखसुखादिकाः । अवस्था मुनयः प्राप्ताः क्वचिद्ध्यानं त्यजन्ति न ॥ अर्थ -- वे मुनि चाहे चल रहे हों, चाहे आराम से बैठे हों वा सुख दुःख की बहुत सी अवस्था को प्राप्त हो रहे हों तथापि वे ध्यान को कभी नहीं छोड़ते हैं । १२४७० ॥ शुभयान को करनेवाले मुनि अशुभध्यान के दश नहीं होते I प्रातरौ कुलेश्यानां धर्मशुक्ला पिताशयाः । स्वप्नैपि न वशं यान्ति शुक्ललेश्यामहोदयाः || २४७११ – शुक्ललेश्या को धारण करनेवाले और अपने मन में धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान को चितवन करनेवाले थे मुनिराज स्वप्न में भी कभी आर्तध्यान और रौद्रध्यान के वश में नहीं होते हैं ।। २४७१|| परीषादिकों के आनेपर भी ध्यान से च्युत नहीं होते - परोषमहाम्पसवजेः क्वचित् । चलन्ति न मनागुध्यानावीन्द्रद्दवनिश्चलाः ॥ २४७२ ।। अर्थ- मेरा पर्वत के समान निश्चल रहनेवाले वे मुनिराज परीषहों की महासेना तथा उपसर्गों के समूह या जानेपर भी अपने ध्यानसे रंचमात्र भी कभी चलायमान नहीं होते हैं ।। २४७२ ॥ ध्यान रूपी रथमें कौनसे घोड़े जोतते हैं राषों दुष्टी नयन्तादुत्पथं वलात् । सद्ध्यानर थमारमध्यान रज्वा स्थापयति ले ।। २४७३ ।। अर्थ-ये रागद्व ेष रूपी घोड़े बड़े ही दुष्ट हैं, ये मनुष्यों को जबर्दस्ती कुमार्ग में ले जाते हैं, ऐसे इन घोड़ों को योगी पुरुष ही अपने श्रात्मध्यानरूपी लगाम से श्रेष्ठ ध्यानरूपी रथ में जोत देते हैं ।। २४७३ | ध्यान रूप परमानन्द को पीने से क्षुधा तृषा को नहीं जानते पिपत्तः परमात्मोत्थं ध्यानानन्दामृतं सदा । मुख्यश्मा न जानन्ति क्षुत्तृषादिपरीषान् || २४७४ ॥ + Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप] [अष्ठम अधिकार अर्थ-थे मुनिराज परमात्मा से उत्पन्न हुए ध्यानरूपी आनंशमृत को सदा पोते रहते हैं, इसलिये वे क्षुधातृषा आदि की परीषहों को मुख्यवृत्ति से कभी नहीं जानते ॥२४७४॥ श्रेष्ठ ध्यानरूपी नगर एवं उसके स्वामी का वर्णन--- जिनशासनभूमिस्यं चारित्नशीलवेष्ठितम् । विवेकगोपुराकोणजिन ज्ञासातिका घृतम् ।।२४७५।। गुप्तिवधकपाटसत्तपः सुभटपूरितम् । क्षमादिमंत्रिवर्गाढय सदशानतलरक्षकम् ।।२४७६।। सयमारामसीमान्तं ह्यगम्यं भगवजितम् । कषायमदनारातियजः पचानतस्करः ।।२४७७।। साधुलोक भृतरम्यंसध्याननगरंपरम् । अधिष्ठितामहाशीलसन्नाहाखिलचमिताः ।।२४७८।। समतुगगजाहदा धैर्यचापकरांकिताः । रत्नत्रयशरोपेलाःमुनीन्द्रमुभटोत्तमाः ।।२४७६।। अर्थ-देखो यह श्रेष्ठध्यान एक उत्कृष्ट नगर है, यह नगर जिनशासन की भूमि पर बसा हुआ है, चारित्ररूपी परकोट से घिरा हुआ है, विवेकरूपी बड़े दरवाजों से सुशोभित है, भगवान जिनेन्द्र देव की प्राज्ञारूपी खाई से वेष्ठित है, इसके गुप्तिरूपी वनमय किवाड़ हैं, श्रेष्ठ तपश्चरणरूपी योद्धामों से यह भर रहा है, उत्तम क्षमा आदि मंत्रियों के समूह से यह सुशोभित है, सम्यग्ज्ञानरूपी कोतवाल इसकी रक्षा करते हैं, इसको सीमा के अंतमें संयमरूपी बगीचे लग रहे हैं, कषाय और कामरूपी शत्रुनों के समूह तथा पंचेन्द्रियरूपी चोर इसमें प्रवेश नहीं कर सकते, न इस नगर का भंग कभी हो सकता है, यह ध्यानरूपी नगर साधु लोगों से भरा हुआ है और परम मनोहर है, इस नगर के स्वामी वे ही मुनि होते हैं जो महाशीलरूपी उत्तम कवचों को सदा पहने रहते हैं जो समतारूपी ऊंचे हाथी पर चढ़े रहते हैं, जिनके हाथ में घर्षरूपी धनुष सा सुशोभित रहता है तथा जो रस्नत्रयरूपी वाणों को धारण करते रहते हैं, ऐसे उत्तम सुभट रूपी मुनिराज इस श्रेष्ठध्यानरूपी नगर के राजा होते हैं ॥२४७५-२४७६।। दे ध्यान रूपी नगरी के स्वामी मोहरूपी शत्रुको जीतकर मोम साम्राज्य को प्राप्त करते हैं... निःशंकगुरामाकृष्यवृगाविशरवर्षणः । मोक्षराज्याय निम्नन्तिमसम्यं मोहविविषम् ॥२४०।। ततोहतमहामोहानिबूतकर्मशात्रवाः । अस्ति मुक्तिसाम्राज्यं शाश्वतं ते सुराचिताः ।।२४८१॥ अर्थ-वे ध्यानरूपी नगर के स्वामी मुनिराज निःशंकितरूपी डोरी को खींच कर रत्नत्रयरूपी वाखों की वर्षा करते हैं और मोक्षरूपी राज्यको प्राप्त करने के लिये समस्त सेना के साथ मोहरूपो शत्रु को मार डालते हैं। तदनंतर मोहरूपी महाशत्रु के मर जानेपर उन मुनियों के कर्मरूपी सब शत्र नष्ट हो जाते है और देवों के द्वारा पूज्य Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] (३८०) [ अष्ठम अधिकार वे मुनिराज सदाकाल रहनेवाले मोक्षरूपी साम्राज्यको प्राप्त कर लेते हैं ।२४८०-२४८१॥ मुनिराज को श्रमरण आदि अनेक सार्थक नामों का स्वरूप-- धमयन्ति तपोभिर्ये स्वारमानं श्रमणा हि ते । शमयन्तिकषायान् पा खानि ये तेत्रसंयताः ।।१२॥ अपंथन्ति स्वकर्माणि गमयन्ति फिसर्षयः । मन्यन्ते स्वपराना सिद्धि ये मुनयोत्र ॥२४८३।। मत्या : पंचसझानैर्युता वा मुनयोन ताः ॥२४६४।। साधयन्तिदगादीनि ओरिग ये क्षेत्रसाषवः । येषां न विद्यतेगारमनगारास्तएव हि ॥२४८५।। येषां वोतोविनष्ठो हि रागोदोषाखिलः समम् । वीतरागास्सेएवान त्रिजगन्नायपूजिताः ॥२४८६।। अर्थ-वे मुनिराज तपश्चरण करके अपने प्रात्माको श्रम वा परिश्रम पहुंचाते हैं इसलिये वे श्रमण कहलाते हैं । वे कषाय तथा इन्द्रियों को शांत करते हैं इसलिये संयत कहलाते हैं । वे मुनिराज अपने कर्मों को प्रर्पण करते हैं, भगा देते हैं वा नष्ट कर देते हैं, इसलिये ऋषि कहे जाते हैं । वे सप्त ऋद्धियों को प्राप्त होते हैं इसलिये महषि कहे जाते हैं । वे मुनिराज अपने प्रात्मा का अथवा अन्य पदार्थों का मनन करते हैं इसलिये मुनि कहलाते हैं अथवा मतिज्ञान श्रुतज्ञान आदि पांचों ज्ञानों से वे सुशोभित रहते हैं इसलिये भी वे मुनि कहलाते हैं । के मुनिराज सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय को सिद्ध करते हैं इसलिये साघु कहे जाते हैं। उनके रहने का कोई नियत स्थान नहीं रहता इसलिये वे अनगार कहलाते हैं । उनके रागद्वेष आदि समस्त दोष नष्ट हो जाते हैं इसलिये वे वीतराग कहलाते हैं और तीनों लोकों के इन्द्र उनकी पूजा करते हैं । ॥२४५२-२४८६।। वीतरागी के ध्यान की सिद्धि एवं रागी के ध्यानकी सिद्धि का अभाव इतिसाकिनामाप्तवीतरागतपस्विनाम् । ध्यानिना परमाध्यामशुद्धिनरागियोगिनाम् ॥२४६७।। अर्थ-इसप्रकार अनेक सार्थक नामों को धारण करनेवाले वीतराग ध्यानी तपस्वियों के परम ध्यानकी शुद्धि होती है, रागी मुनियों के ध्यानकी सिद्धि कभी नहीं हो सकती ॥२४॥७॥ दशों शुद्धियों को उपसंहारात्मक महिमाइतिजिनमुखजाता येत्र शुद्धिदशव ाशुभसकलहंत्रोस्वर्गमोक्षाविकों। परम चरणमनेपालमन्त्यास्मगुखय रहितविधिमलागास्तेऽचिरात्स्युर्महान्तः ।।२४८८।। अर्थ-इसप्रकार भगवान जिनेन्द्र देव के मुख से प्रगट हुई ये दस शुद्धियां Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( ३८१) [अष्ठम अधिकार समस्त अशुभों को नाश करनेवाली हैं और स्वर्गमोक्ष की देनेवाली हैं। जो महापुरुष अपने प्रात्माको शुद्ध करने के लिये प्रयत्नपूर्वक धारण किये हुए परम चारित्र के द्वारा इन क्शों शुद्धियों को पालन करते हैं, वे बहत हो शीघ्र कर्ममल कलंक से सर्वथा रहित हो जाते हैं ॥२४५८॥ ____ मुनियों की श्रेष्ठ भावनात्रों की महिमा - एता मुक्तिवथूसखोश्चपरमानागारसद्भावना ये श्रृण्वंति च भावयन्तिनिपुरणाः शक्रमाचरन्त्युचताः । से सद्धर्मवशाजगत्त्रयपरसर्वार्थसिद्धयादिज भुक्त्वासौख्यमनारतसुतपसामुक्तिप्रयान्तिकमात् ॥ __ अर्थ-ये मुनियों की श्रेष्ठ भावनाएं सर्वोत्कृष्ट हैं और मोक्षरूपी स्त्री को सखी हैं । जो चतुर मुनि इनको सुनते हैं, इनका चितवन करते हैं और उद्योगी बनकर अपनी शक्ति के अनुसार इनका पालन करते हैं, वे उस धर्म के निमित्त से तीनों लोकों में श्रेष्ठ ऐसे सर्वार्थसिद्धि आदि के सुखों को निरंतर भोगते रहते हैं और फिर अंतमें श्रेष्ठ तपश्चरण धारण कर मोक्ष में जा विराजमान होते हैं ।।२४८६।। अन्तमें सम्पूर्ण भावनायें एवं प्रात्मशुद्धि प्राप्ति की याचना-- ये सर्वे जिननायिकाश्च परयाशुद्धघावभूवुः पुरा, सिद्धान्तविजितानिरुपमा प्राप्ताः शिवस्त्रोंपराम् । येनागारसुभावतारतमहायोगास्त्रिधासाधवः से, स्तुत्याममभावनापनसकलाः शुखोः प्रवध निजाः ।२४६०।। इति धीमूलाधारप्रयोपकाल्येमहाग्रंथे भट्टारफ श्रीसमलकोतिविरचिते अनगारभावमा वर्णनो नामाष्टमोधिकारः। अर्थ-~-पहले समय में आज तक जितने तीर्थंकर हुए हैं, वे सब इन परम शुद्धियों से ही हुए हैं तथा उपमा रहित अनंत सिद्ध हुए हैं और उन्होंने जो सर्वोत्कृष्ट मोक्ष स्त्री प्राप्त की है, वह भी सब इन परम शुद्धियों का हो फल समझना चाहिये । इसीप्रकार प्राचार्य उपाध्याय साधु भी जो महा योगीश्वर कहलाते हैं वे भी मुनियों को इन भावनाओं में लीन होने से ही महा योगीश्वर कहलाये हैं । इसलिये मैं इन अरहंत सिद्ध प्राचार्य उपाध्याय और साधुनों को स्तुति करता हूं, ये पांचों परमेष्ठी अपनी सय भावनाएं मुझे प्रदान करें तथा अपनी समस्त प्रात्मशुद्धि प्रदान करें ।।२४६०।। इसप्रकार प्राचार्य श्री सकलकोति विरचित मूलाचार प्रदीप नामके महाग्रन्थ में मुनियों की भावनामों को निरूपण करनेवाला यह आठवां अधिकार समाप्त हुआ। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोधिकारः मंगलाचरण सिवान्ससमयादीनांप्रणेतृनुपरमेष्ठिनः । त्रिजगप्नायपूज्याघ्रीनवंबेतद्गुणसिद्धये ॥२४६१।। अर्थ---जो पांचों परमेष्ठी सिद्धांत और समय आदि को निरूपण करनेवाले हैं और तीनों लोकों के इन्द्र जिनके चरण कमलों को नमस्कार करते हैं ऐसे पांचों पर भेष्ठियों को मैं उनके गुण प्राप्त करने के लिये नमस्कार करता हूं ॥२४६१॥ समयसार अध्याय के कथन की प्रतिज्ञाप्रचाखिलागमस्यात्रदर्शनज्ञानयोः परः। चारित्रतपसो सारभूतः श्रीजिनभाषितः ॥२४६२॥ महान् यो ग्रंथसार: समयसाराभिधः सताम् । सर्वार्थसिद्धिवोवक्ष्येसमासेनतमूजितम् ।।२४६३।। अर्थ-यह समयसार नामका महा ग्रंथ (अध्याय) सब ग्रंथों का सारभूत है, समस्त प्रागम का सार है, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का सार है, चारित्र और तपश्चरण का सार है, सबका सारभूत है, भगवान जिनेन्द्र देव का कहा हुआ है, सर्वोत्कृष्ट है और सज्जनों को समस्त पुरुषार्थों की सिद्धि करनेवाला है इसलिये अब मैं उसको संक्षेप से कहता हूं ॥२४६२-२४६३॥ कौन मुनि शौन मोक्ष प्राप्त करता हैव्रव्यशुचिपरी क्षेत्रकालशुद्धी व निर्मले । भावद्धि समाश्रिय ढसहन परम् ।।२४६४॥ धारिश्रेयसतेनित्यदर्शनशानपूर्वके । य स्तपस्वी विरागी स निर्वाणलभतेचिरात् ॥२४६५।। अर्थ-जो वीतराग तपस्वी निर्मल द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि और भावशुद्धि का आश्रय लेकर तथा उत्कृष्ट दृढ़ संहननों का आश्रय लेकर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक चारित्र के धारण करने में सदा प्रयत्न करता रहता है, वह मुनि शीघ्र हो मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।।२४६४-२४६५।। चारित्र के बिना कोई शुद्ध नहीं हो सकताधोरोसैराग्यप्तस्पनः शिक्षित्वास्तोकमागमम् । चारित्राचरणसम्यग्दृष्टिः शुद्धपति नापरः ।।१६। वैराग्यजितो बानी पठित्वा सकलापमम् । चारित्रविकलो जातु म शुद्धपति विर्षगात् ।।६७॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३८३ ) [ नवम अधिकार अर्थ-जो धीर बीर और वैराग्य को धारण करनेवाला सम्यवष्टि थोड़ा सा आगम भी पढ़कर पारित्र का पालन करता है वह पुरुष उस चारित्र को पालन करने से ही शुद्ध होता है, बिना चारित्र के कोई भी मनुष्य शुद्ध नहीं हो सकता । जो ज्ञानी पुरुष वैराग्य से रहित है वह समस्त मागम को पढ़कर भी यदि चारित्र धारण न करे तो वह कर्म के बंधन से कभी शुद्ध नहीं हो सकता ॥२४६६-२४६७।। मुनि धर्म के पालने योग्य क्रियाओं की प्रेरणाभिक्षा चर वसारण्ये स्तोकं स्वादातिगंजिम् । माषिधेहि व्यासारं बहजल्पममात्मवान् ।।२४६८॥ सहस्वसकलं दुःखं जयनि च भाथय । मैत्री च सुष्टुवराग्यं कुरुकृत्यंषाप्तये ॥२४६६ एकाकीध्यानसंलोनोनिष्कषायोऽपरिग्रहः । निष्प्रभावो निरालम्बो जिताक्षा भवसन्मने ॥२५००।। अर्थ- प्रतएव हे मुने ! त भिक्षावृत्ति धारण कर, वनमें निवास कर, स्वाद रहित थोड़ा भोजन कर तथा व्यर्थ और असारभूत बहुत सी थकबाद मत कर । हे प्रात्मा के स्वरूप को जानने वाले तू सब दुःखों को सहन कर, निद्रा को जीत, मंत्री भावना को चितवन कर, उत्कृष्ट वैराग्य धारण कर, जो कुछ कर वह धर्म को प्राप्ति के लिये कर, एकाको होकर ध्यान में लीन हो, कषायरहित हो, परिग्रह रहित हो, प्रमाव रहित हो, प्रालंबन या किसी के प्राथय से रहित हो और जितेन्द्रिय बन । ।। २४६८-२५००॥ चित्त की एकाग्रता धारण करने की प्रेग्गानिस्सगस्तत्वधिल्लोकव्यवहारातिगोयते । भयंकाप्रस्थचित्तस्त्वं वृथा सत्कल्पनश्चकिम् ॥२५०१॥ अर्थ-हे मुने ! तू समस्त परिग्रहों से रहित हो, तत्त्वों का जानकार बन, लोकव्यवहार से दूर रह और चित्त की एकाग्रता धारण कर । क्योंकि स्मथ को अनेक कल्पनाएं करने से क्या लाभ है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ॥२५०१।। चारित्र सहित अल्प ज्ञान सिद्धि का कारण एवं चारित्र रहित बहुमान भी मुक्ति प्रदाता नहींयो योगीवळचारित्रःपठित्वाल्पजिनागमम् । वशपूर्वधर सोन्यं जयेन्मुफ्त्याविसापनरत् ॥२५०२।। चारित्ररहितो गोत्र श्रुतेम बहुनापिकिम् । साध्यं तस्य यतो नूनं मज्जन भषयारिषौ ।।२५०३।। अर्थ-जो योगी वृद्ध चारित्र को धारण करता है वह थोड़े से पागम को भी पढ़कर जानकार ऐसे अन्य मुनि को स्वर्गमोक्ष को सिद्ध करने के कारण वस पूर्व के जानकार को भी जीत लेता है । जो पुरुष चारित्र रहित है वह यदि बहुत से श्रुतमान Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३८४) नवम अधिकार को पढ़ले तो भी उससे कोई लाभ नहीं होता क्योंकि बिना चारित्र के वह संसाररूपी समुद्र में ही डूबता है ॥२५०२-२५०३॥ मृमिरज कैसे संसार समान से पार होते हैं.माननिर्जीविकेनानध्यानवातेन धोधनाः । चारित्रपोतमारूढास्तरन्त्याशुभवार्णवम् ।।२५०४॥ अर्थ-जो बुद्धिमान पुरुष चारित्ररूपी जहाज पर सवार हो जाते हैं वे ज्ञानरूपी पतवार से और ध्यानरूपी वायु से बहुत ही शीघ्र संसाररूपी समुद्र के पार हो जाते हैं ॥२५०४॥ ज्ञान, ध्यान, संयम के कार्य का निर्देशशानं प्रकाशकं विश्व सत्वातत्वादिकर्मणाम् । दुष्कर्मनाशकंध्यानं संयमः संयरप्रदः ॥२५०५॥ अर्थ-ज्ञान समस्त तस्वों को, प्रतत्त्वों को और कर्मों को प्रकाशित करता है। तथा ध्यान अशुभ कर्मों का नाश करता है और संयम प्राते हुए कर्मों को रोकता है। ॥२५०५।। ज्ञान, ध्यान, संयम की एकता होनेपर नियम से मोक्ष होता हैसंघोगेसस्यमीषां च त्रयाणां स्यान्महामुनेः । विनेनशासने मोक्षो मान्यथाभवकोटिभिः ।।२५०६॥ अर्थ-यदि किसी महा मुनि के ज्ञान ध्यान और संयम इन तीनों का एक साथ संयोग हो जाय तो भगवान जिनेन्द्रदेवके शासन में उसी मुनि को मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है बिना इन तीनों के मिले करोड़ों भवों में भी कभी मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती ।।२५०६॥ चारित्रादिक के बिना जिनलिंग धारण करना व्यर्थ हैचारित्रवजितम् ज्ञानं लिंगग्रहणमूजितम्। विधासंयमहीनं च सपोदर्शनरगम् ॥२५०७॥ योजः करोति कुर्यात् स केवलं हि निरर्थकम् । यतो न निर्जरा मोझो नास्य कत्रिवालवचित् ।। अर्थ-जो नजानी चारित्रहीन ज्ञानको धारण करता है और दोनों प्रकार के संयम से रहित तथा तप और सम्यग्दर्शन से रहित उत्कृष्ट जिन लिंग धारण करता है वह निरर्थक ही जिन लिंग धारण करता है क्योंकि बिना चारित्र के निरंतर कर्मों का आस्रव होता रहता है इसलिये उनके न तो कर्मोंकी निर्जरा हो सकती है और न मोक्ष हो सकती है ॥२५०७-२५०८॥ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८५ ) उत्कृष्ट ध्यान करने की प्रेरणा सल्लेश्याध्यान चारित्रविशेषैस्तपसा सताम् । सद्गतिः स्वाध्यतेभ्योऽविध्यानं कार्यबुर्धः परम् ||६|| अर्थ -- उत्तम, शुभ लेश्या, ध्यान और चारित्र को विशेषता से तथा तपश्चरण से सज्जनों को श्रेष्ठ प्रति प्राप्त होती है तथा उनमें भी बुद्धिमानों को उत्कृष्ट ध्यान ही करना चाहिये ।। २५०६ ।। मूलाधार प्रदीप ] [ नवम अधिकार सम्यग्ज्ञान एवं व्रतादिक के लिये सम्यग्दर्शन मुल कारण I सम्यक्त्वाज्जायते ज्ञानं ज्ञानात्सर्वार्थदर्शिनी । उपलब्धिः पदार्थानां सर्वेषां स्वपरात्मनाम् ।।२५१० ।। उपलब्धपदार्थोगीयोश्रेयश्च वेत्तिवे । श्रेयोश्रेयो वेतो तदुःशीलः सुशीलवान् ।। २५११।। शीलेनाभ्युदयः सर्वस्तलोमोक्षंल मेत सः । प्रतोज्ञानव्रतादीनां सम्यक्स्थमूलमुच्यते ।। २५१२ ।। अर्थ- देखो सम्यग्वर्शन से सम्यग्ज्ञान को प्राप्ति होती है, सम्यग्ज्ञान से समस्त पदार्थों को दिखलाने वाली स्वकीय और परकीय समस्त पदार्थों की उपलब्धि प्राप्त होती है। जिसको समस्य पयारों की उपलब्धि प्राप्त हो जाती है वह मनुष्य अपने कल्याण-अकल्याण को जान लेता है । तथा कल्याण प्रकल्याण को जान लेने से शील रहित मनुष्य भी शीलवान बन जाता है । शील पालन करने से सब तरह के अभ्युदय प्राप्त हो जाते हैं तथा प्रभ्युदय प्राप्त होने से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है । प्रतएव कहना चाहिये कि सम्यग्ज्ञान और व्रतादिकों के लिये सम्यग्दर्शन ही मूल कारण है ।। २५१०-२५१२।। ज्ञानकी अपेक्षा सम्यग्वारित्र प्रधान है— कृत्स्नं चापि श्रुतज्ञानं पठितं सुष्ठुसंधितम् । गुषितं भ्रष्ट चारित्रं ज्ञानवन्संयति क्वचित् । २५१३१ सद्गतिनेनुमत्यर्थं न समर्थ भवेद्भवान् । यतो ज्ञानात्प्रधानत्वं चारित्रविद्धि मोक्षदम् ।। २५१४ ।। अर्थ - जिस किसी यति ने सम्पूर्ण श्रुतज्ञान पढ़ लिया है तथा अच्छी तरह उसको धारण कर लिया है, मनन कर लिया है तो भी चारित्र से भ्रष्ट उस ज्ञानी पुरुष को श्रेष्ठ गति में पहुंचाने के लिये आप कभी समर्थ नहीं हो सकते। अतएव हे मुने ! ज्ञानकी अपेक्षा तु सम्यक् चारित्र को ही प्रधान समझ । क्योंकि यह निश्चित है कि मोक्ष सम्यक्चारिन से ही प्राप्त होती है ।। २५१३-२५१४॥ चारित्र नहीं पालन करनेवाले का श्रुतज्ञान निष्फल है यहिस्तो यः पतेरकूपेप्रमादवान् । तस्यवीपफलं किल्यास किंचिदपि भूतले ।। २५१५ ।। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ३८६ ) [नवम अधिकार शिक्षित्वायोखिलं ज्ञानं यदि चारित्रमंजसा । पालयेक्षात्र कि तस्य श्रुतशानफलंभुधि ॥२५१६॥ अर्थ- जो कोई प्रमादी मनुष्य हाथ में दीपक लेकर भी कुए में पड़ जाय तो फिर उसने उस दीपक का फल हो क्या पाया अर्थात् इस लोक में उसे दीपक का फल कुछ नहीं मिला । इसी प्रकार जो मनुष्य समस्त ज्ञान को पढ़कर भी यदि चारित को पालन नहीं करता है तो समझना चाहिये कि उसे इस संसार में श्रुतज्ञान का फल कुछ नहीं मिला ॥२५१५-२५१६।। उद्गमादि दोषों से रहित उपकरणादि ग्रहण करनेवाले के ही शुद्ध चारित्र होता हैपिण्डं वसतिको ज्ञानसंबमोपधिमात्मवात् । उगमोत्पाबना दिभ्योदोषेभ्यःप्रत्यहं सुधीः ।।२५१७॥ शोषयेव्योतिनिर्योषचारित्रशुद्धयेमुनिः । विशुद्ध तस्स चारिणामते शिवकारणम् ।।२५१८।। अर्थ--जो आत्मा के स्वरूप को जाननेवाला बुद्धिमान अपने निर्दोष चारित्र को सिद्ध करने के लिये प्राहार वसतिका ज्ञानोपकरण और संयमोपकरणों को उद्गम उत्पादन आदि वोषों से प्रतिदिन शुद्ध करता है, आहार भी निर्दोष ग्रहण करता है तथा उपकरणों के ग्रहण में भी कोई दोष नहीं लगाता उसी मुनि के मोक्ष का कारण ऐसा अत्यन्त शुद्ध चारित्र होता है ॥२५१७-२५१५॥ जिनलिंग के चिह्न निर्देश-- पूर्णमचेलकरवं च लोम्रोवराग्यवर्ट कः । सर्वसंस्कारहीनापराव्युत्सृष्टारोरसा ।।२५१६ ।। प्रतिलेखनमित्येषलिंगकल्पश्चतुर्विधः । जिनेन्द्रलिगिना व्यक्तो लोकेसंगसूचकः ॥२५२०॥ अर्थ-पूर्णरूप से नग्नता धारण करना, वैराग्य को बढ़ाने वाला केशलोच करना, सब तरह के संस्कारों से रहित शरीर से भी निर्ममता धारण करना और प्रतिलेखन के लिये पोछी धारण करना ये चार लिंगकल्प कहे जाते हैं, ये चारों ही भगवान जिनेन्द्रदेव के लिंग को प्रगट करते हैं और लोक में वैराग्य के चिह्न हैं ॥२५१६२५२०॥ मयूर पिच्छ के ५ गुणों का निर्देशरजःप्रवेवयो सुष्ट्वग्रहणंमदुतापरा । सौकुमार्य लघुत्वं च यत्रपंचगुणाइमे ।।२५२१।। सन्ति मयूरपिच्छेत्रप्रतिलेखनमूजितम् । तं प्रशंसन्तितीर्थेशाचयाय योगिनां परम् ।।२५२२॥ अर्थ-जिसपर न तो धूल लग सके, न पसीना लग सके, जो अत्यन्त कोमल हो, सुकुमार हो और छोटी हो, ये पांच गुण जिसमें हों वही प्रतिलेखन उत्तम गिना Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ३८७) [ नवम अधिकार जाता है। ये पांचों गुण मयूरपिच्छ में हैं इसलिये भगवान जिनेन्द्रदेव जीवों की दया पालन करने के लिये मुनियोंको मयूरपिच्छ को पीछी की हो प्रशंसा करते हैं ॥२५२१. २५२२॥ निर्गन्य मुनि कैसे प्रतिलेखन को ग्रहण करेंप्रक्षिप्तं चक्षुषोर्यनमनापोडां करोति न । निर्गनिर्भयरम्यं तद्प्राय प्रतिसेखनम् ॥२५२३।। ___ अर्थ-जिसको आंख में डाल देने पर भी रंचमात्र पीड़ा न हो वही निर्भय और मनोहर प्रतिलेखन निग्रंथ मुनियों को ग्रहण करना चाहिये । ( जिसके रखने में कोई भय न हो मूठ में सोना चांदी न लगा हो उसको निर्भय कहते हैं।) ॥२५२३॥ प्रतिलेखन [पिच्छी] के अभाव में हिंसा से निवृत्ति नहीं हो सकतीउत्थायशमनावात्रौ विनात्रप्रतिलेखननात् । कृत्वाप्रस्त्रावणाश्चपुनः स्वपनवजनभुवि ॥२५२४ ।। उदर्शनपरावर्तनानि कुर्वनगोचरे । नेत्राणां वा यतिः सुप्तो जीवघातं कथं त्यजेत् ॥२५२५।। अर्थ-यदि मुनि के पास प्रतिलेखन वा पीछी न हो तो जब कभी रात्रि में वह अपनी शय्या से उठेगा, मूत्र की बाधा दूर करने जायगा, फिर प्राकर सोयेगा, चलेगा, किसी पुस्तक कमंडलु आदि को उठावेगा, रक्खेगा, उठेगा, कर्बट बदलेगा अथवा ये सब क्रियाएं न भी करे तो भी नेत्र से न दिखने वाले स्थान में सोवेगा, इन सब त्रियानों में वह यति बिना पीछी के जीवों के घात को कैसे बचा सकेगा । अर्थात् मुनि के पास पीछी हर समय होनी चाहिये, बिना पीछी के जीवों को हिंसा का त्याग हो ही नहीं सकता ॥२५२४-२५२५॥ मुनियों का खास चिह्न पिच्छी हैभत्वेति कातिकेमासि कार्य सत्प्रतिलेलनम् । स्वयंपलिपिन्छानो लिंगचिह्नव योगिभिः ॥२६॥ अर्थ-अतएष मुनियों को कार्तिक महीने में स्वयं गिरे हुए पंखों को पीछो बनानी चाहिये क्योंकि यह मुनियों का खास चिह्न है ॥२५२६॥ कायोत्सर्गादि करते समय पिच्छो से प्रमार्जन करना चाहियेअसने शयनेस्थाने व्युत्सर्गगमनारिके । ग्रहणे स्थापने ज्ञानशीचोपकरणात्मनाम् ।।२५२७।। उनसनपरावर्तनांगकडूयनाविषु । कृपयायरनतः कार्यदृष्टिपूर्वप्रमार्जनम् ।।२५२८।। अर्थ-मुनियों को सोते समय, बैठते समय, खड़े होते समय, कायोत्सर्ग करते समय, गमनागमन करते समय, ज्ञानोपकरण वा शौचोपकरण के उठाते रखते समय, Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूलाचार नदीम ] । ३८८ ) [ नवम अधिकार उठते समय, कर्वट बदलते समय और खुजाते समय कृपापूर्वक प्रयत्नपूर्वक, प्रांख से देखकर पीछी से प्रमार्जन करना चाहिये ।।२५२७-२५२८।। अशुद्ध पाहार को ग्रहण करनेवाला मुनि मूल स्थान को प्राप्त होता हैयो विशोष्यमुनि तेपिण्डापध्याश्रयादिकान् । मूलस्थानं सएवाप्तो यतिस्वगुणदूरगः ॥२५२६।। अर्थ--जो मुनि श्राहार के प्राश्रित रहनेवाले पदार्थों को ( आहार को वा उच्चासन मादि को) बिना शुद्ध किये आहार ग्रहण कर लेता है, वह मुनि मुनिपने के गुणों से बहुत दूर रहता है तथा मूल स्थान को प्राप्त होता है ( उसे फिर से दीक्षा देनी चाहिये ।) ॥२५२६।। अशुद्ध आहार ग्रहण करनेवाले के अन्य संयमादिक क्रिया व्यर्थ हैपिण्डोपध्याधिशुद्धिपोऽकृत्वातिमूढमानसः । कायक्लेशं सपः कुर्यातिचरप्रवृजितोपिसन् ॥२५३०॥ तस्मसंयमहीनं तत्तपो व्यययमादि च । न चारित्रं लियाश्रेष्ठा नस्यात्पापासवाड्या ॥२५३१॥ अर्थ-जो अज्ञानी मनि चिरकाल का वीक्षित होकर भी आहार ग्रहण करने को सामग्री को बिना शुद्ध किये कायक्लेश तपाचरण को करता है, उसका वह तपश्चरण संयम रहित कहलाता है और इसीलिये वह व्यर्थ है । इसीप्रकार उस मुनि के किये हुये यम नियम पारित्र भी सब व्यर्थ समझने चाहिये । उसको कोई भी क्रिया श्रेष्ठ नहीं कही जा सकती। क्योंकि संयम होन मुनि के सदा पापकर्मों का पालव होता रहता है और इसीलिये उसको सब क्रिया व्यर्थ हो जाती है ।।२५३०-२५३१॥ मूलगुण रहित उत्तरगुण फल प्रदाता नहींहिस्वामूलगुणानाधानल्या तिपूजाविहेतुना । वृक्षमूलावियोगान् यो बाह्यान् गृहातिबुद्ध'रान् ।। तस्योत्तरगुणा:सर्वेमूलहीना द्रुमा इव । समीहितफलं किं ते करिष्यन्ति जगस्त्रये ।।२५३३।। । अर्थ-जो मुनि अपनी कीति के लिये अथवा अपना बड़प्पन वा पूज्यपना दिखलाने के लिये महाव्रतरूप मूलगुणों का तो भंग कर देता है और वर्षाऋतु में वृक्षके नीचे योपधारण करना आदि अत्यन्त कठिन बाह्य तपश्चरणों को धारण करता है, उसके मूलगुण रहित उत्तरगुण ऐसे ही समझने चाहिये जैसे बिना जड़के वृक्ष होता है। जिसप्रकार बिना जड़ का वृक्ष न ठहर सकता है, न बढ़ सकता है और न फल सकता है उसी प्रकार मूलगुण रहित उसरगुण तीनों लोकों में कभी इच्छानुसार फल नहीं दे सकते ॥२५३२-२५३३॥ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ३८६) [ नवम अधिकार अप्रासुक आहार ग्रहण करनेवाला मुनि मोक्ष का इच्छुक नहीं वह अघम हैहत्वाप्राणान् बहन कुर्यादात्मनो यो महाबलम् । अप्रासुकं सुखाकाशी मोक्षाकांक्षी न स चित् ।। एकहिनिमगावींश्च सिंहल्याप्रादिकोत्र यः। निहत्य खावयेत्पापी नौष स कम्यते यदि ।।२५३५। यो मुनिः प्रत्यहं हत्वा वहूंश्वस्थावरवासान् । भक्षयेत्स कथंपाची नोयो वा नाघमोभवेत् ॥३६।। अर्थ- जिसप्रकार कोई मनुष्य अनेक प्राणियों को मारकर अपने को महाबली प्रगट करता है उसीप्रकार अप्रासुक पदार्थों को ग्रहण करनेवाला मुनि सुख को चाहने वाला कहा जाता है, वह मोक्षको चाहने वाला कभी नहीं कहा जा सकता। देखो सिंह बाघ प्रावि जीव एक दो तीन चार आदि हिरण वा अन्य पशुओं को मारकर खा जाता है इसलिये वह पापी और नीच कहलाते हैं । इसीप्रकार जो मुनि बिना शुद्ध किया हुआ नाहार हम EFFER है सदि अनेक प्रस, स्थावर जीवों की हिंसा कर प्राहार ग्रहण करता है, वह क्यों नहीं पापी, नीच और प्रधम कहलावेगा अर्थात् अवश्य कहलावेगा। ॥२५३४-२५३६॥ आरम्भ से होने वाले दोषप्रारंभाजीवराशोनों वघोवधावघंमहत् । प्रधादयोभवेत्वस्यदुर्गतीतीवकुःसादः ।।२५३७॥ अर्थ-और देखो आरंभ करने से जीवराशियों की हिंसा होती है, हिंसा होने से महापाप उत्पन्न होता है और उस महापाप से अपने ही प्रात्मा को नरकादिक दुर्गतियों में तीन दुःख देनेवाला फर्मबंध होता है ।।२५३७॥ हिंसा त्याग की प्रेरणातस्मायास्मा न हंतथ्यः स्वयं स्वेनवनाविना । सेनप्राणिवधोनित्यमोक्तम्पोयत्नतोवर्षः ॥२५३८॥ अर्थ--इसलिये बुद्धिमानों को जीवों की हिंसा करके अपने मात्मा को हिंसा नहीं करनी चाहिये और इसके लिये प्रयत्न पूर्वक सदा के लिये प्राणियों की हिंसा का त्याग कर देना चाहिये ।।२५३८।। ___ अधःकमं दोषयुक्त आहार करनेवाले मुनि के तपश्चरण निरर्थक हैये स्थानमौनवीरासनाचा हि दुष्कराः कृताः। मातापनावियोगाश्चसध्यानाध्ययनारया Men षष्ठाष्टमाविमासान्ताउपत्रासापाचावात् । स निरर्थकानूनमाकमिसेविनाम् ॥२५४०॥ अर्थ-जो भुमि प्रधःकर्म नामके बोष से दूषित पाहार को ग्रहण करते हैं, वे चाहे कायोत्सर्ग धारण करें, चाहे मौन धारण करें, चाहे वीरासन धारण करें, चाहे Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप] [नवम अधिकार आतापन प्रावि कठिन-कठिन योग धारण करें, चाहे श्रेष्ठ ध्यान और अध्ययन आदि शुभ कार्यों में लगे रहें और चाहे वेला सेला करें, पन्द्रह दिन बा महीने भरका उपवास करें, परन्तु उनके सदा पापकर्मो का ही आलब होता रहता है, इसलिये उनका सब तपश्चरण निरर्थक हो समझना चाहिये ॥२५३६-२५४०॥ पंच पापके त्याग बिना वस्त्र त्याग निष्फलमपोसजति रोद्राहिः कंचुकं न विषं तया । कश्चित्तास्त्यजेवस्त्रपंचसूना न मंषोः ।।२५४१।। अर्थ-जिसप्रकार दुष्ट सर्प कांचली को छोड़ देता परंतु विषको नहीं छोड़ता उसीप्रकार कोई-कोई साधु वस्त्रों का त्याग तो कर देते हैं परंतु वे मूर्ख पंचपापों का स्याग नहीं करते ॥२५४१॥ हिमा करनेवाले पंच पाप का निर्देशउधूखलस्तथा चुल्होप्रेषरणी च प्रमाणिनी । उचकुम्भः इमा:पंचसूना। सत्त्वक्षयंकराः ॥२५४२॥ अर्थ-चक्की, ऊखली, चूली, बुहारी और पानो रखने का परंडा ये पांच अनेक जीवों की हिंसा करनेवाले पंछ पाप कहलाते हैं ।।२५४२।। इन पापों की अनुमोदनादि करनेवाले को दीक्षा व्यर्थ है--- प्रासुप्रवर्ततेयोऽधीः कृतकारितमोवनः । सुस्वादानायतस्याहो वृथादीक्षाबुरात्मनः ॥२५४३।। अर्थ-जो मुख मनि अपने स्वादिष्ट प्रश्न के लिये कृत कारित अनुमोदना से इन पंचपापों में अपनी प्रवृत्ति करते हैं, उन दुष्टों की दीक्षा लेना भी व्यर्थ समझना चाहिये ॥२५४३॥ कौन श्रावक उभय लोक में भ्रष्ट माना जाता हैयोषःकर्मादिनिष्पन्न भुपतेन्मरसनांधधीः । जाडोविराधना करवा षड्जीवाना व घातनम् ।।४।। श्रावक: सोधमोजातः पापारम्भप्रपर्तनात् । उभयभ्रष्टतामाप्तोवाम पूजादिवर्जनात् ॥२५४५।। अर्थ--जिह्वा इन्द्रिय को लंपटता के कारण अंधा हुआ जो मूर्ख श्रावक हों प्रकार के जीवों की विराधना करके वा छहों प्रकार के जीवों का घात करके अधःकर्म से उत्पन्न हुए अन्नको भक्षण करता है वह पापारंभ में प्रवृत्ति करने के कारण अधम कहलाता है और उस द्रष्यसे यह दान पूजा करने का भी अधिकारी नहीं रहता इसलिये वह इस लोक और परलोक दोनों लोकों से भ्रष्ट गिना जाता है ॥२५४४-२५४५॥ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप] ( ३६१) [नवम अधिकार अध:कर्म दोष को करनेवाला मुनि उभय लोक में भ्रष्ट हैपबनेपाधनेनानासवानुमनने शठः । पतंतेवाङ मनःकायस्तस्माखोर विमेति न ॥२५४६।। मिथ्याष्टिः स मन्तव्योविरुद्धाचरणाझवि । न तस्यह लोकोस्तिकुकीतिवर्तनात क्वचित् ।। परलोकों न जायेत संयमाचरणाद्विना । किन्तु स्याह.गंतो नूनं गमनं पराभंगतः ॥२५४८) अर्थ-जो मूर्ख मन-वचन-कायसे अनके पकाने, पकवाने का अनुमोदना करने में प्रवर्त होते हैं, इन ऊपर लिखे पंचपापों से नहीं डरते उनको मिथ्याष्टि ही समझना चाहिये । क्योंकि वे विरुद्ध प्राचरणों को ही धारण करते हैं और इसीलिये इस लोक में भी उनकी अपकीति फैल जाने के कारण उनका यह लोक भी बिगड़ जाता है तथा संगमहा दानाम धारण न करने के कारण उनका परलोक भी बिगड़ जाता है । इस प्रकार उनके दोनों लोक बिगड़ जाते हैं और व्रतभंग होने के कारण वे नरकादिक दुर्गतियों में अवश्य पहुंचते हैं ।।२५४६-२५४८।। प्रायश्चित लेकर पुन: अध:कर्म दोष करनेवाले के तप व्यर्थ हैप्रायश्चित विधायोच्चर्यानक्तिपुनः शठः। प्रथःकर्मकृताहारं तस्य तनिष्फलं भवेत् ।।२५४६।। अर्म-जो मूर्ख अधःकर्म दोष से दूषित पाहार ग्रहण करने के कारण प्रायश्चित्त ले लेते हैं और प्रायश्चित्त लेकर फिर भी अधःकर्म जन्य प्राहार को ग्रहण करते हैं, उनका भी वह सब तपश्चरण निष्फल समझना चाहिये ।।२५४६।। कौन मुनि, मुनियों के गुणों से रहित हैयः साध्यंत्र देशाचौ शुऽशुद्ध थवोभयोः । प्राहारोपधिवासादि यथालन्धं निजेच्छया ।।२५५०॥ शुद्ध वा शुद्धमावत्तेधवत्परीक्षया बिना । मुक्तोयतिगुणःसोऽपि प्रोक्तः संसारषद्धं का ।।२५५१॥ अर्थ-जो मुनि शुद्ध वा अशुद्ध देश में प्रथवा शुद्ध-अशुद्ध मिले हुए देश में आहार उपकरण वसतिका आदि अपनी इच्छानुसार जैसा प्राप्त हो जाय चाहे वह शुद्ध हो या अशुद्ध हो उसको अंधे के समान बिना परीक्षा किये हुए ग्रहण कर लेता है, उसको भी मुनियों के गुणों से रहित ही समझ लेना चाहिये । उसको भगवान जिनेन्द्रदेव ने संसार को बढ़ाने वाला ही बतलाया है ॥२५५०-२५५१॥ ___ कैसा प्राहार लेने पर मुनि शुद्ध व प्रशुद्ध होता हैयोगोध:कमजाहारे नित्यं परिणतः क्वचित् । प्राप्सेपिप्रासुकेहारे बंधकः स हो भवेस् ॥२५५२।। शु मृगयममाणो योनादि कृताविरगम् । प्रषःकर्मकृतान्नाप्तेश्वविच्छ बोहदोत्र सः ॥२५५३।। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार प्रदीप ] ( ३६२ ) [ नवम अधिकार अर्थ — जो मूर्ख प्रतिदिन अधःकर्म जन्य आहार को ग्रहण करता है उसे यदि किसी दिन प्राक आहार भी मिल जाय तो भी हृदय से वह कर्मों का बंध करनेवाला ही समझा जाता है । इसीप्रकार यदि कोई मुनि कृत कारित अनुमोदना से रहित शुद्ध आहार को ढूंढता है और देवयोग से उसे अधः कर्म जन्य श्राहार मिल जाता है तो भी उसे हृदय से शुद्ध ही समझना चाहिये ।। २५५२-२५५३ ।। शुद्धको ना मूलोतरगुणेष्वत्र भिक्षाचयविताजिनैः । प्रवरा तां बिना विश्वे ते कृताः स्युनिरर्थकाः । २५५४ ।। अर्थ - भगवान जिनेन्द्रदेव के समस्त मूलगुण और उत्तरगुणों में भिक्षा के लिये चर्या करना हो उत्तमगुण माना जाता है, उस शुद्ध भिक्षाचर्या के बिना बाकी के समस्त गुण निरर्थक ही बतलाये हैं ।। २५५४ ।। सदोष आहार का निषेध - प्रत्यहं वरमाहारो भुक्तो दोषासिंगः सताम् । पक्षमासोपवासादिपाश्णदोषो न च ।। २५५५ ।। अर्थ- सज्जनों को दोषरहित प्रतिदिन प्रहार कर लेना अच्छा परंतु पन्द्रह दिन वा एक महीने के उपवास के बाद पारणा के दिन सदोष आहार लेना अच्छा नहीं ।। २५५५ ।। श्रमदान की महिमा - मृत्याविभयभीतानां सर्वयाखिलदेहिनाम् । स्वात्यभयवानं यस्तस्यैव सकला गुणाः ।। २५५६ ।। अर्थ- जो मुनि मृत्यु के भयसे भयभीत हुए समस्त प्राणियों को अभय दान देता है, उसी के समस्त गुण अपने आप श्रा जाते हैं ।। २५५६ ।। आचार्य रूपी वैद्य ही मुनिरूपी रोगों का इलाज करते हैं प्राचार्यों ज्ञानवान्वयः शिष्यो रोगीविरक्तषान् । चयौधयं च निष्पापं क्षेत्र सावद्यवजितम् ।। ५७ ।। यात्राः साह्यकर्त्ताराः परवानया । सामग्रधाम मंत्यक्तं कुर्यात्सूरिमुनि व्रतम् ॥१२५५८६ ।। अर्थ -- संघ में प्राचार्य तो महाज्ञानी बंद्य हैं, संसार से विरक्त हुआ शिष्य रोगी है, पापरहित चर्या ही औषधि है, पापरहित स्थान हो उसके लिये योग्य क्षेत्र है और वैयावृत्य करनेवाले उसके सहायक हैं। ये आचार्यरूपी वैद्य इस सामग्री से उस रोगो मुनिको कर्मरूपी रोग को नष्ट कर शीघ्र ही निरोग सिद्ध बना देते हैं ।। २५५७२५५८ ।। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३६३ ) [ नवम अधिकार भिक्षाशुद्धि धारण करने की प्रेरणाभिक्षाशुद्धि सुचर्याय धूमांगारमलोजिझसाम् । प्रागुक्त सोषातीतां कुर्वन्तु मुमुक्षवः ॥२५५६।। अर्थ-प्रतएव मोक्ष की इच्छा करनेवाले मुनियों को अपनी चर्या के लिये पहले कहे हुये समस्त दोषों से रहित तथा घूप अंगार प्रादि दोषों से रहित भिक्षाशुद्धि धारण करनी चाहिये ॥२५५९॥ जुगुप्सा का स्वरूप एवं अतिचारों की शुद्धि की प्रेरणाजुगुप्सा लौकिकी बाह्या व्रतभंगादिजापरा । लोकोसरा जुगुप्सात स्त्रिरत्नशुद्धिहामिना ।।२५६०॥ यतातिचारसंशुशिः प्रायश्चित्तादिनिन्दमः । कर्तव्यास्वोत्तमाचारलोकनिन्दाविहानये ॥२५६१॥ अर्थ-इस संसार में लौकिक घृणा तो बाह्य जुगुप्सा है व्रतों के भंग होने से उत्पन्न होनेवाली घृणा अंतरंग जुगुप्सा है और रत्नत्रय की शुद्धि को हानि होना लोकोतर जुगुप्सा है। मुनियों को लोक निंदा दूर करने के लिये प्रायश्चित्त धारण कर आत्मनिदा कर तथा उत्तम आचरण पालन कर अपने व्रतों में लगे हुए मसिचारों को शुद्धि करनी चाहिये ।।२५६०-२५६१॥ लोकोत्तर निंदों के त्याग को प्ररणाशंकादीन्दूरतस्त्यक्त्या शुद्धि रस्मत्रये पराम् । कृरवा लोकोत्तरानिम्दाहेयासंसारदिनी ॥२५६२।। अर्थ-मुनियों को शंकाविक दोषों का दूर से ही त्याग कर लेना चाहिये और रत्नश्रय की परम विशुद्धि धारण कर संसार को बढ़ाने वाली लोकोत्तर निदा का भी सदा के लिये त्याग कर देना चाहिये ॥२५६२॥ मुनिको कैसा क्षेत्र छोड़ना चाहियेयत्रोत्पत्तिः कषायाणायान्तिस्वखानिविक्रियाम् । दुर्जनाभक्तिहीनाश्वसन्स्युपद्रवणायः ।।२५६३॥ जायन्तेद्वेषरागाधाः विघ्नाध्यानाविफर्मणाम् । प्रतभंगश्चलं चित्तं तरक्षेत्र वर्जयेद्यतिः ॥२५६४।। अर्थ-जिस क्षेत्र में कषायों की उत्पत्ति हो, अपनो इन्मियां प्रबल हो जाय वा विकृत हो जाय जहाँपर दुष्ट और भक्तिहीन मनुष्य रहते हों, जहांपर अनेक उपद्रव होते रहते हों, जहांपर रागद्वष प्रादि दोष उत्पन्न होते रहते हों, जहांपर ध्यान अध्ययन प्रादि कार्यों में विघ्न उपस्थित होते हों, महापर व्रतों का भंग होता हो और जहांपर चित्त चंचल हो जाता हो ऐसा क्षेत्र मुनियों को छोड़ देना चाहिये ॥२५६३२५६४॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३८४ ) कैसे क्षेत्र में मुनिराज निवास करते हैं- एकान्ते निर्जने स्यामेवं शग्मगुणवृद्धिषे । श्मशानाद्विगुहाव स शून्यगेहे बनादिषु ।। २५६५ ।। पशुस्त्रोक्लीष्टादिहीने शाम्ये शमप्रदे। क्षेत्रे वासं प्रकुर्वन्लिमुनयोध्यान सिद्धये ।। २५६६ ।। [ नवम अधिकार अर्थ- मुनि लोग अपने ध्यान की सिद्धि के लिये एकांत और निर्जन स्थानमें वैराग्य गुण को बढ़ाने वाले श्मशान पर्वत की गुफाएं सुने मकान और वन में अत्यन्त शांत और परिणामों को शांत करनेवाले तथा पशु स्त्री नपुंसक तथा दुष्ट जीवोंसे रहित क्षेत्र में निवास करते हैं ।। २५६५-२५६६॥ पुन: कैसे क्षेत्र में मुनि निवास नहीं करें मुपहीनं च यत्क्षेयत्र दुष्टो नृपो भवेत । यत्र स्त्रीवासराजा च तत्र वासो न युज्यते ।। २५६७ ॥ दीक्षाग्रहणशीलाश्च मत्रसन्ति न धर्ममकाः । हानयः संयमादीनां स्थातव्यं तत्र नोजितः ।। ६६ ।। अर्थ -- जिस क्षेत्र में कोई राजा न हो, जहां का राजा दुष्ट हो और जहांपर स्त्री राज्य करती हो अथवा बालक राजा राज्य करता हो वहां पर मुनियों को कभी निवास नहीं करना चाहिये। जहां पर वीक्षा ग्रहण करनेवाले लोग न हों, जहां पर धर्मात्मा लोग निवास न करते हों और जहां पर संयम की हानि होती हो ऐसे स्थानमें उत्कृष्ट मुनियों को कभी नहीं रहना चाहिये ।। २५६७-२५६८ ।। श्रयिका के निवास में मुनिराज को ठहरने का निषेध स्त्रीक्षान्तिका क्षरणमात्रं न कल्पते । यतीनां प्रासनस्थानस्वाध्यायप्रहरणादिभिः ।। ६६ ।। संसर्गगायिकास्त्रीयवहाराभिधा भुवि । जुगुप्सापरमार्थाभ्या जायते यमिनां व्रतम् ।। २५७० ।। अर्थ-मुनियों को बैठने कायोत्सर्ग करने लिये भी स्त्रियों के अथवा प्रजिकाओं के श्राश्रम में ratfe after वा स्त्रियों के संसर्ग से मुनियों को और लोकोत्तर जुगुप्सा भी प्रगट होती है ।। २५६६-२५७०।। अथवा स्वाध्याय ग्रहण करने के क्षरणमात्र भी नहीं ठहरना चाहिये । व्यवहार जुगुप्सा भी प्रगट होती है कैसे पुरुषों के संसर्ग से रत्नत्रय की वृद्धि एवं हानि होती है— जलकुम्भैषया पश्चसम्पर्करेण ध वर्द्धते । सुशोतत्वं सुगंधित्वं हीयतेऽनलसंगमात् ४२५७१।। तोत्तमाश्रमेणान सोषिद्धतेतराम् । श्रीयन्ते नवसंगेनगुणदोषाश्चयोगिताम् ।। २५७२ ॥ अर्थ - जिसप्रकार जलके घड़े में कमल के संसर्ग से उसका शीतलपना और सुगंधितपना गुण बढ़ता है तथा अग्नि के संयोग से ये दोनों गुण नष्ट हो जाते हैं उसी Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाचार प्रदीप ] ( ३१५ ) [ नवम अधिकार प्रकार उत्तम पुरुषों के आश्रय से मुनियों का रत्नत्रय अत्यन्त बढ़ता है और नीच पुरुषों के आश्रय से रत्नत्रय गुण घटता है वा मलिन होता है ।। २५७१-२५७२॥ महान को पाखो मुनिका संगति का निबंध - प्रचण्डश्च पलो मन्दः पृष्टमांसादिभक्षकः । गुर्वादिमहुलोमूर्खोबुरायः सतां पतिः ।। २५७३ ॥ भान्वितमदोषाणां दोषो खूवनतत्परम् | मारणत्रास नो वटन वशीकररणाशयम् ।। २५७४ ।। वैद्यज्योतिष्क सावद्यारम्भाविपरिवर्तकम् । पिशुनं कुत्सिताचा रंमिश्रमाश्षोपनसंशयम् ।।२५७५ ।। लोकलोकोशराचाराजानन्तं स्वेच्छयायुतम् । चिरप्रवृजिसं चापीत्याद्यन्यदोष भाजनम् ।। २५७६ ।। संयतं वर्जयेद्द रसवाचारो महामुनिः । पापापवादिभीतात्मा तासं नाथषेत्स्यचित् ।। २५७७ ॥ अर्थ - जो मुनि नीच लोगों की संगति करता है वह क्रोधी, चंचल, मंद, पीठका मांस भक्षरण करनेवाला अर्थात् पीठ पीछे निंदा करनेवाला और मूर्ख होता है तथा वह अनेक गुरुयों का शिष्य होता है। जो मुनि पाखंडी है, निर्दोषों को भी दोषी कहने के लिये तत्पर रहता है, जो मारण, त्रासन, उच्चाटन, वशीकरण आदि करने की इच्छा रखता हैं, जो वैद्य ज्योतिष्क और पापरूप प्रारम्भों में प्रवृत्ति करता है, जो चुगलखोर है, जिसके श्राचरण निंदनीय हैं, जो मिथ्यादृष्टि है, मूर्ख हैं, जो लौकिक और लोकोत्तर श्राचरणों को नहीं जानता, जो अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति करता है और चिरकाल का दीक्षित होनेपर भी अन्य अनेक दोषों का भाजन है, ऐसे मुनि का दूर से ही त्याग कर देना चाहिये । जो सदाचारी महामुनि हैं और पाप तथा अपवाद से सदा भयभीत रहते हैं वे महामुनि ऊपर कहे हुए पांखडी मुनियों की संगति कभी नहीं करते हैं ।। २५७३-२५७७॥ कैसा पापी मुनि दुर्गति का पात्र है सुरेखा कुल मोका की भ्रमे विजेच्छया । उपदेशं न गृह्णाति पापश्रम एव सः ॥ २५७८|| यः शिष्यस्थमस्थान पूर्वस्वस्पाठाशयः । त्वरितः कर्तु माचार्यश्वं हिति मिच्छ्रया ।। २५७६॥ घोंघाचार्यः स एवोक्तो मत्तवन्तोव पापथः । निरंकुशो गुर्णहनः स्वान्यदुर्गतिकारकः ।। २५८०|| अर्थ- जो मुनि श्राचार्य के कुल को छोड़कर अपनी इच्छानुसार अकेला परिभ्रमण करता है तथा किसी का उपदेश नहीं मानता उसको पापी मुनि कहना चाहिये । जो मूर्ख पहले किसी श्राचार्य का शिष्य तो बनता नहीं और शीघ्र ही आचार्य पद धारण करने के लिये अपनी इच्छानुसार घूमता है उसको घोंघाचार्य वा दंभाचार्य समता चाहिये । वह पापी है और मदोन्मत्त हामी के सम्मान गुणों से रहित होकर Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ३९६ ) [ नवम अधिकार निरंकुश होता हुआ घूमता है । ऐसा मुनि स्वयं भी दुर्गति में जाता है और अन्य जीवों को भी दुर्गति में पहुंचाता है ॥२५७८-२५८०।। कैसा मुनि स्वपर की प्रात्मा को नष्ट करता हैप्राचार्यस्वं नयतेस्यस्पालानन मः जिनागमम् । स कुत्सितोपदेशश्चात्मानं परं विनाशयेत् ।।१।। प्रर्थ-जो मुनि श्री जिनागम को तो जानता नहीं और आचार्य बन बैठता है वह मुनि अपने निद्य उपदेश से अपने प्रात्मा को भी नष्ट करता है और अन्य जीवों को भी नष्ट करता है ।।२५८१॥ हेतु पूर्वक अहंकार त्यागने का उपदेशवर्षादिगणनाबाहं सर्व ज्येष्ठोत्र दोक्षया । मत्सोन्ये लघवोहीतिगर्वः कार्यों न संयतैः ।२५८२।। यतो वर्षाणिगण्यन्ते न मुक्तिसाधनेसताम् । केचिदन्तर्मुहूर्तेन गता मोक्षं वृद्धव्रताः ।।२५८३।। अर्थ-"मैं इतने वर्षका बोक्षित हूं अतएव मैं इन सब मुनियों में बड़ा हूं, ये सब मुनि दीक्षा में मुझसे छोटे हैं" इसप्रकार का अभिमान मुनियोंको कभी नहीं करना चाहिये । क्योंकि मोक्षको सिद्ध करने के लिये सज्जन पुरुष वर्षोंकी गिनती नहीं करते। अपने व्रतों को दृढ़ता के साथ पालन करनेवाले बहुत से मुनि ऐसे हो गये हैं जो अंतमुहूर्त में हो मोक्ष चले गये हैं ॥२५८२-२५८३॥ जीव के कर्मबन्ध का कारण-- रागपालमोहावीनिष्टोयोगीतिदुरः । करोति कर्मणा बन्धं कषायःसहदेहिनाम् ॥२५८४।। जीवस्यपरिणामेनारणवः परिणमन्ति नुः । कर्मत्वेन स्वतोनांगो तन्मयत्यं प्रपद्यते ॥२५८५।। अर्थ-राग'ष इन्द्रियां और मोहादिक में लगे हुए दुर्धर मन-वचन-काय के योग कषायों का संबंध पाकर जीवों के कर्मों का बंध करते हैं। तीनों लोकों में भरे हुये कर्म परमाणु जीवों के परिणामों को निमित्त पाकर जीवों के कर्मरूप परिणित हो जाते हैं । यह आत्मा बिना योग और बिना कषायों के स्वयं कर्मरूप परिणित नहीं होता ॥२५८४-२५८५॥ कैसी प्रात्मा कर्मबन्ध नहीं करती एव संसार से पार होती हैशामचारित्रसम्पन्नः सयानाध्ययने रतः । निष्कषायः स्पिरात्मानकर्मबन्धकरोति न ।।२५८६।। किन्तुसंवरपोतेन तपसाखिलकर्मणाम् । विधायनिगरां ध्यानी तरत्याशुभवाम्बुधिम् ।।२५८७।। अर्थ-जो आत्मा सम्यग्ज्ञान और सम्याचारित्र से सुशोभित है, श्रेष्ठ ध्यान . Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ३९७ ) [ नवम अधिकार और अध्ययन में लीन है, कवायरहित है और स्थिर है अर्थात् मन-वचन-काय के योगों से रहित है वह प्रात्मा कभी कर्मों का बंध नहीं कर सकता। किंतु ऐसा कषायरहित स्थिर ध्यानी प्रास्मा संवररूपी जहाज पर चढ़कर तपश्चरण के द्वारा समस्त कर्मो की निर्जरा सा है और गोत्र ही संसारकली मासे पार हो जाता है ॥२५८६-२५८७॥ विनय पूर्वक स्वाध्याय मादि करने का फलकुर्वनस्वाध्यायमात्मज पचाक्षसंवतोभवेत् । त्रिगुप्तश्चकचित्तोत्रविनयमनिरामयः ।।२५८८।। अर्थ-प्रात्मा के स्वरूप को जानने वाला जो मुनि विनय के साथ स्वाध्याय करता है वह पांचों इन्द्रियों को वश में करता है, तीनों गुप्तियों को पालन करता है और एकाग्रचित्त होने के कारण कर्मों के आय से रहित हो जाता है ।।२५८८।। तीनों काल में स्वाध्याय ही सर्वश्रेष्ठ तप है-- विषड्मेवातपोभ्योपिस्वाध्यायेन ममं तपः । न भूतं परमं नास्ति न भविष्यतिमोक्षवम् ।।२५८६॥ अर्थ-बारह प्रकार के तपश्चरण में भी स्वाध्याय के समान अन्य कोई सपचरण उत्कृष्ट और मोक्ष देनेवाला न आज तक हुआ है न है और न आगे कभी हो सकता है ॥२५८६।। सिद्धान्त शास्त्रों के अध्ययन का फलससूचा च यथा सूचिन नश्यतिप्रमावतः । तथा ससूत्रएवारमा जानीरस्मत्रयांकितः ।।२५६।। प्रर्य-जिसप्रकार सूत्रसहित (डोरा सहित) सुई प्रमाव के कारण नष्ट नहीं होती, खोती नहीं उसीप्रकार सूत्रसहित सूत्रों का वा सिद्धांतशास्त्रों का स्वाध्याय करने बाला ज्ञानी प्रास्मा रत्नत्रय से सुशोभित होता है ।।२५६०।। निद्रा के दोष एवं उसे जीतने की प्रेरणायामेम जयनिता स्वं पसो निद्रा ह्यचेतनम् । कृत्वावराक्षासोबाशुणिलेजनंगतक्रियम् ॥२४६१॥ सथानिद्रावाःप्राणीलावस्यखामंजसा । प्रगम्मगमनं कुर्याद्विश्वपापेषु बसते १२५६२॥ अर्थ-हे मुने ! तू प्रयत्नपूर्वक निद्रा को जीत क्योंकि यह निद्रा राक्षसी के समान है । राक्षसी जिसप्रकार मनुष्यों को मारकर खा जातो है उसीप्रकार यह निद्रा भी मनुष्य को अचेतन के समान कियारहित बनाकर निगल जाती है । इसके सिवाय इस निद्रा के वशीभूत हुए प्राणी अभक्ष्य भक्षण करते हैं, अगम्य गमन करते हैं और समस्त पापों में प्रवृत्ति करते हैं ॥२५६१-२५९२॥ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६८ ) कौन मुनि मनको सरल रखता है- ऋकारे यथा धसे ऋजु चेषु स्वचक्षुषा । तथेकाप्रत्वमापन्नंध्यानेष्यानी मिसनः ।। २५९३ ॥ अर्थ – जिसप्रकार बाण चलाने वाला भांख से देखकर अपना माण सीधा रखता है उसीप्रकार ध्यान करनेवाला मुनि अपने ध्यान में एकाग्रता को प्राप्त हुए अपने मनको सरल ही रखता है ।। २५६३॥ मूलाचार प्रदीप ] [ नवम अधिकार कैसे मुनि ध्यान से उत्पक्ष अमृत का पान करते हैं अध्याक्षेत्रामो कालाद्भवाद्भावाद्भयेन्वहम्। विश्व खाकरे कस्यचिन्तयेत्परिननम् ।। २५९४ ।। महामोहाग्निनानित्यंदमामे जगत्त्रये । विरक्ताः स्वसुखाद्वीराः पिवन्तिध्यानामृतम् ।। २५६५।। अर्थ - यह समस्त संसार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव से प्रतिदिन दुःखों की खानि बना रहता है फिर भला ध्यान करनेवाला किसको बदल कर चितवन करे । ये तीनों लोक महा मोहरूपी अग्निसे जल रहे हैं, इसलिये जो धीर वीर मुनि अपने हुए अमृत का पान करते रहते हैं । के रिक्त हैं, वे ही न ।। २५६४-२५६५॥ ध्यान पुरुष तृणादि के समान कषायों को निकाल देते हैं यथा ने समुद्राचा सहन्तेन्तर्गलं स च । सुखादीनि तथा दक्षाः कषायाक्षसुखादिकान् ।। २५६६ ।। अर्थ --- जिसप्रकार नेत्र और समुद्र आदि पदार्थ अपने भीतर आए हुए तृणादिकों को सहन नहीं कर सकते हैं, बाहर निकाल कर फेंक देते हैं उसी प्रकार चतुर पुरुष भी कषाय और इन्द्रियों के सुखों को सहन नहीं करते बाहर निकाल कर फेंक देते हैं ।। २५६६ ।। कैसे मुनि आत्मा का एकाचित्त से ध्यान करते हैं केवल्यवर्शन ज्ञानमयं स्वात्मानमूर्जिसम् । प्रनादिनिधनं कर्मातिगं निश्वयवेदिनः ॥२४७॥ पृथकृत्वा शरीरादिपर्यायेभ्योमुमुक्षवः । ध्यायन्ति स्मेकचित्तेन निर्विकरूपपवाश्रिताः ।। २५९८६ ॥ अर्थ - जो मुनि मोक्षकी इच्छा करनेवाले हैं, निश्वयनयसै आत्माके स्वरूपको जानते हैं और जिन्होंने निधिकल्पक पदका प्रश्रय ले लिया है वे मुनि केवलदर्शनमय, heatre, प्रनादि अनिधन कर्मों से रहित श्रौर सर्वोत्कृष्ट ऐसे अपने आत्मा को शरीराविक पर्यायों से सर्वथा अलग समझते हैं और एकाग्रचिससे उस आत्माका ध्यान करते हैं ।। २५६७-२५६८ ।। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६६ ) काय के वशीभूत आत्मा असंयमी मिथ्यादृष्टि है uri garfi कषायवश ब्रात्मवान् । भवेदसंयतो नूनं मिध्यादृष्टि । कुमामंगः || २५६६॥ मूलाधार प्रदोष ] [ नवम अधिकार अर्थ -- चारित्र उसी को कहते हैं जो कषायरहित होता है, इसीलिये जो आत्मा कषाय के दशीभूत हैं वह अवश्य ही असंयमी हैं तथा कुमार्गगामी मिथ्यादृष्टि है ।। २५६६ ।। कैसा सुनि मोक्षमार्गी है दोपिशमितो विश्व कषाये ज्योतिशान्तघोः । तवेवसंयतः पूजयोभवेद् मानो शिवाध्वगः ।।२६००॥ अर्थ - अत्यन्त शांत बुद्धि को धारण करनेवाला भुमि जब अपने कषायों को अत्यन्त शांत कर लेता है तभी वह संयमी, पूज्य, ज्ञानी और माक्षमार्ग में चलने वाला कहलाता है || २६०० ॥ अन्तिम समय गया में प्रवेश करने का निषेध काले यतैः स्वस्थ प्रवेशती वरम् । प्रवेशनं विवाहेत रागोत्पतिविवाहतः ।। २६०१ ।। अर्थ- सुनियों को अंतिम समय में ( समाधि मरण के समय ) अपने गरग में प्रवेश नहीं करना चाहिये । उस समय अपने गण में प्रवेश करने को अपेक्षा विवाह में प्रवेश करना अच्छा क्योंकि विवाह में भी राग की उत्पत्ति होती है और अपने गण में भी राग की उत्पति होती है ।। २६०१ ।। गण में प्रवेश करने से उत्पन्न दोषों का निर्देश भवेत्पुनः सर्वदोषोत्पत्यादिहेतुकः । शिष्यादिमोहसंयोगातस्मान्मृत्यो गणं त्यज ॥। २६०२ ॥ अर्थ- अपने गण में शिष्यादिक का मोह उत्पन्न हो जाता है इसीलिये अपने गण में सब तरह के दोष उत्पन्न हो सकते हैं अतएव हे मुने ! समाधिमरण के समय तू अपने गरका त्याग कर ।।२६०२ ।। परगण में समाधिमरण करने से लाभ - वीजलादीनामभावे जायतेऽत्र न अंकुरोखिल बीजानां वृद्धिहेतुः फलप्रदः ।। २६०३ ।। कर्मणां च कषायाणांतोत्पत्तियमिनां भवेत् ॥ २६०४ ।। + तथा शिष्या दिगोत्यरागढ़ बाद्यभावतः के अर्थ - जिसप्रकार मिट्टी और जल नहीं हो सकता तथा बिना अंकुर के वह न बढ़ अभाव में बीज से अंकुर उत्पन्न सकता है और न उस पर फल लग Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप] ( ४००) [ नवम अधिकार सकते हैं उसीप्रकार शिष्य आदि के संगसि से उत्पन्न हुए रागद्वेष के अभाव से परगण में मुनियों को कर्म और कषायों की उत्पत्ति कभी नहीं हो सकती ॥२६०३-२६०४।। मुनि क्षमादि गुणों से कषाय उत्पन्न न होने देकषायहेतु सूतश्चाविश्परिप्रहादयः । जायन्तेमानसे नृणामनर्थशतकारिणः ॥२६०५।। तेषांसर्वकषापालामनुत्पत्त्यमुनीश्वरः । विषेयपरमबस्नक्षमातोषाविभिः सदा ॥२६०६।। अर्थ-इन मनुज्यों के हपयों में संक्षा अमर्थ फरसेवाले समस्त परिग्रह इन कषायों के ही कारणों से होते हैं इसलिये मुनियों को क्षमा और संतोष आदि प्रात्मगुण धारण कर समस्त कषायों को उत्पन्न न होने देने के लिये परम प्रयत्न करते रहना चाहिये ॥२६०५.२६०६॥ इन्द्रिय लम्पटी ४-४ अंगुलप्रमाण जिह्वाइन्द्रिय एवं क मेन्द्रिय से अनन्त दुःखों की परम्परा को प्राप्त होते हैंअर्थार्थ गरेषितार्थ च जिह्वाकामार्थमंजसा । मियतेनन्तधारान् भो मारयेसचापरान् जनः ।२६०७॥ जिहोपस्यनिमित्तं जीवोनाविभवार्णधे । प्राप्तीधोरतरं दुःखमज्जनोस्यमनस्तशः ॥२६०८॥ चतुरगुलमानात्रजिह्वाही विश्वभक्षिका । चतुरंगुलमानोपस्योमम्भववर्ष कः ॥२६०६।। एतेरष्टांगुलोत्पन्न दोषदोषनिवन्धनः । अनन्तदुःखसन्तानप्राप्नुवन्तिखलम्पटाः ॥२६१०॥ अर्थ- देखो ये मनुष्य धन के लिये, जीवन के लिये, जिह्वा इन्द्रिय के लिये और कामेन्द्रिय के लिये अनंतबार स्वयं मरता है और अनंतबार ही दूसरों को मारता है । इस जिह्वा इन्द्रिय और कामेन्द्रिय के कारण यह जीव अनादि कालसे इस संसाररूपी समुद्र में अनंतबार डूबा है और इसने अनंतबार ही अत्यंत महा घोर दुःख पाये हैं । यह जिह्वा इन्द्रियरूपी सपिणी यद्यपि चार अंगुलप्रमाण है तथापि समस्त संसारको खा जानेवाली है । इसीप्रकार यह कामेन्द्रिय भी चार अंगुलप्रमाण है तथापि अनंत संसारको बढ़ाने वाली है । इसप्रकार इन पाठ अंगुलप्रमाण जिह्वाइन्द्रिय और कामेन्द्रिय से जो दोष उत्पन्न होते हैं वे अनेक दोषों को उत्पन्न करनेवाले होते हैं और उन्हीं से यह इन्द्रियलंपटी जीव अनंत दुःखों की परंपरा को प्राप्त होते हैं ॥२६०७-२६१०॥ ___ कैसे मन्त्र के द्वारा इन्हें कोल देना चाहियेज्ञात्वेतिरसनोपस्थसर्पो त्रैलोक्यभीतिदी। दृढवैराग्यमंत्रेण कीलयन्तु तपोधनाः ॥२६११।। अर्थ- यही समझकर तीनों लोकों को भय उत्पन्न करनेवाले ये जिह्वाइन्द्रिय Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] (.१ नवम अधिकार और कामेन्द्रियरूपी सर्प वैराग्यरूपी मन्त्र के द्वारा तपस्वियों को कोल देने चाहिये । ॥२६११॥ ___ काठादि स्त्रियों के संयोग से उत्पन्न हानिकाष्ठाविणांपनारूपाङ्गतम्यं संयतः सदा । मतस्तद्दर्शनान्ननचित्तकोभोभवेन्नरणाम् ॥२६१२॥ सपितघटाभोंगीस्त्रीज्वलन्याससनिभा । तयोः सम्पर्कतः किं किमनर्थो जायते न नुः ॥१३॥ स्त्रीसभीपं गतायेनहास्यवार्ताविलोकनः । नष्टास्ते भ्रष्टचारित्राइतरे च शिवंगताः ॥२६१४।। अर्थ-मुनियों को काठ को बनी हुई स्त्री से भी सदा डरते रहना चाहिये । क्योंकि उसके देखने से भी मनुष्यों के हृदय में अवश्य ही क्षोभ उत्पन्न हो जाता है । यह मनुष्य घो से भरे हुए घड़े के समान है और यह स्त्री जलती हुई अग्नि की ज्वाला के समान है। इन दोनों के संबंध से मनुष्यों को भला क्या-क्या अनर्थ नहीं हो सकते हैं अर्थात् सब कुछ तरह के अनर्थ हो सकते हैं । जो मनुष्य हंसी की बातचीत को सुनने वा देखने के लिये स्त्रियों के पास जाते हैं, वे चारित्र से भ्रष्ट होकर अवश्य ही नष्ट हो जाते हैं । तथा जो ऐसा नहीं करते स्त्रियों से अलग रहते हैं वे अवश्य मोक्ष जाते हैं ।।२६१२-२६१४॥ ___ मुनि, माता आदि स्त्रियों के संसर्ग का भी त्याग करेंमातृभग्नीसुतामूकायद्धास्त्रीरूपतोमिशम् । मेतध्वंमुनिभियस्मा रक्षोभ स्यान्नेत्रचित्तयोः ॥२६१५। हस्तपाषपरिछिन्ना कर्णनासाविजिताम् । शतवर्षमा नारी दूरतोवजयव्रतो ।।२६१६।। अर्थ-मुनियों को माता, भगिनी, पुत्री, गूगी और वृद्धा आदि स्त्रियों के रूप से भी सदा डरते रहना चाहिये क्योंकि स्त्रियों के रूपसे भी नेत्र और हृदय में क्षोभ उत्पन्न हो जाता है । जिस स्त्री के हाथ पैर कटे हुए हों और जिसके नाक, कान भी कटे हों तथा ऐसी स्त्री सौ वर्ष की हो तो भी वलियों को ऐसी स्त्री का दूरसे ही त्याग कर देना चाहिये ।।२६१५-२६१६।। भावों से विरक्त ही वास्तविक विरक्त हैभावेनविरतोयोगोविरक्तीविश्ववस्तुषु । भवेत्स्वमुतिगामी च ज्येण भववकः ।।२६१७।। अर्थ-जो मुनि अपने भाषों से विरक्त है उसे सब वस्तुभों से विरक्त समझना चाहिये तथा उसे ही स्वर्गमोक्ष जानेवाला समझना चाहिये । जो मुनि ऊपर से विरक्त है, भावों से विरक्त नहीं है, उसे संसारको बढ़ानेवाला हो समझना चाहिये ।।२६१७।। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४०२ ) [ नवम अधिकार ब्रह्माचर्य के घात करनेवाले १० कारणविपुलाहारसेवा पपुलारिशोधनम् । गंधमाल्याविकावानंगीतवाद्याबिसंभूतिः ।।२६१८।। सरगचित्रशालाबोकोमलेशयनासनम् । स्त्रोसंसर्गोवस्त्राविग्रहणंभोगसिद्धये ।।२६१९॥ पूर्वसेवितभोगानुस्मरणस्वस्थमानसे । इन्द्रियार्यरतो हा सर्वष्ठरस सेवनम् ।।२६२०॥ इमानब्रह्महेतून पो दशवोषांस्त्यजेत्सदा । बुढवतो यतिः सोऽत्र भवत्येवनयापरः ।।२६२१॥ अर्थ-बहुत सा पाहार खाना, अपने शरीर को तथा मुख को स्वच्छ शुद्ध रखना, गंध लगाना वा माला पहनना, गीत बाजे सुनना, राग को उत्पन्न करनेवाली और स्त्री पुरुषों के चित्रों से सुशोभित भवन में कोमल शय्यापर सोना या बैठना, स्त्रियों की संगति करना, भोग भोगने के लिये धन और वस्त्रादिक का ग्रहण करना, पहले भोगे हुए भोगों का अपने मनमें स्मरण करना, इन्द्रियों के विषयों में रत होनेकी लालसा रखना और समस्त रसों का सेवन करना, ये दश ब्रह्मचर्य को घात करने के कारण हैं । जो मुनि इन दशों दोषोंका त्याग कर देता है वहीं दढ़वती कहलाता है, अन्य नहीं ॥२६१८-२६२१॥ द्विविघ परिग्रह त्याग की प्रेरणामोहाविककषापागतात्यंगोपरिपहान् । अस्माठाह्याम्सरा: संगाः सर्वत्याज्याः शिवापिभिः ।। ___ अर्ध-यह जीव मोह कषाय और इन्द्रिय प्रादि के द्वारा परिग्रहों को ग्रहण करता है इसलिये मोक्ष की इच्छा करनेवाले मुनियों को बाह्य और अभ्यंतर सब तरह के परिग्रहों का त्याग कर देना चाहिये ॥२६२२॥ श्रमण का स्वरूप एवं उनके भेदमिस्संगोऽत्रनिरारम्भो भिक्षाचर्याशुभाशयः । सद्ध्यानरतएकाकीगुणातयः श्रमणो भवेत् ।।२३॥ नाम्नास्थापनया प्रम्यभाषाभ्यां श्रमणस्य च । चतुविधोऽवनिक्षेपोगुणिभिर्गुणसम्भवः ॥२६२४॥ अर्थ-जो मुनि समस्त परिग्रहों से रहित है, समस्त प्रारम्भों से रहित है, भिक्षार्थ चर्या करने के लिये जिसके हृदय में शुद्धता है, जो श्रेष्ठ ध्यानमें लोन रहता है, एकाकी है। प्रात्माको सबसे भिन्न समझता है और अनेक गुणों से सुशोभित है उसीको श्रमण कहते हैं । गुणी पुरुष नाम स्थापना द्रव्य और भाव निक्षेप के भेव से अपने-अपने गुणों के अनुसार इन श्रमरणों के चार मेव बतलाते हैं ॥२६२३-२६२४॥ भाव श्रमणपना ही मोक्ष को प्राप्त करते हैंभाषश्रमणएकोऽत्र गुवरानत्रयांकितः । विश्वाम्युझ्यसौल्यावीन् मुमरवास्यान्मुक्तिवल्लभः ॥२५॥ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४०३ ) [ नवम अधिकार नामाचा:अमणा शेषाः गुणहीनाविधेवंशात् । भ्रमम्ति संसृतौनवलभन्तेस्वेष्टसम्पदः ॥२६२६॥ अर्थ- इनमें से एक भावभ्रमण हो शुद्ध रत्नत्रय से सुशोभित है वही मुनि समस्त अभ्युदयों के सुखों को भोगकर मोक्ष का स्वामी बनता है । बाकी के नामश्रमण, स्थापनाश्रमण वा द्रव्यश्रमण गुणों से रहित है और अपने-अपने कर्मों के निमित्त से संसार में परिभ्रमण ही करनेवाले हैं । इसलिये वे अपनो मोक्षरूप इष्ट सामग्रीको कभी नहीं पा सकते ॥२६२५.२६२६॥ भावलिंगी बनने को प्रेरणामत्वेतिभावलिगी त्वं भवरत्नपातितः । त्यत्वायोगिविषासंगंयदीच्छसिशिवधियम् ।२६२७॥ अर्थ-इसलिये हे मुने ! यदि तू मोक्षलक्ष्मी को चाहता है तो ऊपर कही हुई सब बातों को समझकर और बाह्य अभ्यंतर दोनों प्रकार का परिग्रह छोड़कर भावलिंगी बन और शुद्ध रत्नत्रय को धारण कर ॥२६२७।। भिक्षाचर्या को महत्ता एवं उसे धारण करने की प्रेरणावतशीलगुणाः सर्वेस्युभिमाचर्यया परा: । भिमाचर्या विशोध्यातो बिहरन्तु शिवाधिनः ।।२६२६॥ ___ अर्थ---भिक्षाके लिये होनेवाली चर्या की शुद्धि से प्रतशील आदि समस्त उत्कृष्ट गुण प्रगट होते हैं । अतएव मोक्षकी इच्छा करनेवाले मुनियों को भिक्षाके लिये होनेवाली चर्या को विशुद्धतापूर्वक धारण करते हुए विहार करना चाहिये ॥२६२८।। किसे गुणों की खानि कहते हैंभिक्षावाक्यमनोयनामोविशोध्यचरेसदा । चारित्रं स जिनः प्रोक्तो मुनिश्विगुणाकरः ॥२६॥ अर्थ-जो मुनि भिक्षा वचन मन और चारित्र को प्रयत्नपूर्वक शुद्ध कर अपनी प्रवृत्ति करता है उसको भगवान जिनेन्द्रवेष समस्त गुणों को खानि कहते हैं। ॥२६२६॥ शक्ति अनुसार ध्यानादि पालना चाहियेद्रव्यं क्षेत्र तथा कालं मा शक्ति नियुष्य च । ध्यानाष्पयनमात्य वृत्तपरन्तुपन्डिताः ।।२६३०॥ अर्य-प्रतएव विद्वान् मुनियों को व्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और अपनी शक्ति को समझकर ध्यान अध्ययन और चारित्र को अच्छी तरह पालन करना चाहिये । ॥२६३०॥ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०४ ) मुक्ति स्त्री के प्राप्ति हेतु किसका त्याग करें कलत्रसंगमेवाभ्यां द्विधात्यागो भवेद्वियः । कृत्वातवुभयत्यागंलभतेमु किकामिनीम् ।।२६३१।। मूलाधार प्रदीप ] [ नवम अधिकार अर्थ - भगवान जिनेन्द्रवेष ने स्त्री का त्याग और परिग्रहों का त्याग इस प्रकार वो तरह का त्याग बतलाया है, श्रतएव विद्वान पुरुष इन दोनों का त्याग कर मुक्तिस्त्री को प्राप्त करते हैं ।।२६३१ ।। मुनि को ५ स्थावर के विराधना नहीं करने की प्रेरणा पृथ्याविकायिकाजीवा ये पृग्ध्यादिवपुः श्रिताः सतिपृष्ठ्या विकारम्ने ध्रुवं तेषां विराधना ||३२|| तस्मात्पृध्यादिकारम्भोद्विविधस्त्रिविधेन च । यावज्जीवं न कल्पेत जिनमार्गानुचारिणाम् ||३३|| अर्थ-यदि पृथ्वीके खोदने श्रादि का आरंभ किया जायगा तो पृथियोकायिक जीवों का तथा पृथिवीकायके आश्रित रहनेवाले जीवों का अवश्य ही नाश होगा उनकी विराधना अवश्य होगी। अतएव जिनमार्ग के अनुसार चलने वाले मुनियों को मनaar-कायसे जीवन पर्यंत दोनों प्रकार का ( पृथिवीकायिक और पृथिवो कायाश्रित) पृथिवी आदि का आरम्भ सवा के लिये छोड़ देना चाहिये तथा इसीप्रकार जलकायिक, अलकायाश्रित, वायुकायिक, वायुकायाश्रित, अग्निकायिक, अग्निकायाश्रित, वनस्पतिकायिक और वनस्पतिकायाश्रित जीवों की विराधना का भी त्याग कर देना चाहिये । ॥२६३२-२६३३॥ कौन मुनि रत्नत्रय से भ्रष्ट है-पृथ्यादिकामिकान्सत्त्वानेतान् श्रोजिनभाषिताम् । नचषषति यः स्याद्भ्रष्टो रश्नत्रयात्कुश्री ॥ अर्थ - जो मुनि भगवान जिनेन्द्रदेव के द्वारा कहे हुए इन पृथिवीकायिक, पृथिवीकायाश्रित, जलकायिक, जलकायाश्रित, अग्निकायिक, अग्निकायाश्रित, वायुकायिक, वायुकायाश्रित और बनस्पतिकायिक, वनस्पतिकायाश्रित जीवों का श्रद्धान नहीं करता है उस दुर्बुद्धि को रत्नत्रय से भ्रष्ट हो समझना चाहिये ।। २६३४॥ जीवराशि से भरे लोक में मुनि कैसी प्रवृत्ति करें विश्ववाकुले लोके कथं वरेयसंयमी । कथं तिष्ठेत् कथं कुर्याच्छयनं चोपवेशनम् ।।२६३५ ।। कथं कथं माहारं कममाचरेत् । कथं धसे क्रियाकर्मकवध्नातिनाशुभम् ।। २६३६ ।। अर्थ - कदाचित् कोई यह प्रश्न करे कि इस लोक में सब जगह जीवराति भरी हुई है, फिर भला मुनियों को किस प्रकार अपनी प्रवृत्ति करनी चाहिये, किस ५ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४०५) [ नवम भधिकार प्रकार खड़े होना चाहिये, कैसे सोना चाहिये, कैसे बैठना चाहिये, कसे आहार लेना चाहिये, कैसे बोलना शहिये, कैसे विहार करना चाहिये, किसप्रकार प्राचरण पालन करना चाहिये, किसप्रकार बंदमा प्रतिक्रमण आदि क्रियाकर्म करना चाहिये और किस प्रकार अशुभ कमोसे दूर रहना चाहिये ॥२६३५-२६३६॥ मुनिराज को यरनाचार पूर्वक प्रवृत्ति करने की प्रेरणाखरेत्सर्वप्रयत्नेनतिष्ठेचत्नेन मतले । यत्नेन प्रासुकेवघ्याच्छयनं च वृक्षासनम् ।।२६३७॥ भिक्षाशुवधा जोस वारसमित्या यत्नतो भजेत् ।।२६३८।। प्रयत्लेन क्रियाकर्म करोति सफलं सवा । इति पापं न बध्नातिक्षपयेत्प्राक्तनाशुभम् ।।२६३६॥ अर्थ-तो इसका उत्तर यह है कि मुनियों को यलाचार पूर्वक अपनी प्रवृत्ति करनी चाहिये, यत्नाचार पूर्वक पृथिवीपर बैठना चाहिये, यलाचार पूर्वक प्रासुक स्थान पर सोना चाहिये और प्रासुक स्थान पर ही दृढ़ आसन से बैठना चाहिये । इसीप्रकार उनको भिक्षा भी शुद्धता पूर्वक प्रहण करनी चाहिये, भाषासमिति पूर्वक वचन बोलने चाहिये और बिहार इसिमिति पूर्वक दिन में ही यत्नाचार पूर्वक करना चाहिये । इसो प्रकार मुनियों को यत्नाचार पूर्वक ही वंदना प्रतिक्रमण आदि सब क्रियाकर्म सदा करते रहना चाहिये । इसप्रकार करने से वह मुनि पापों से लिप्त कभी नहीं होता कितु पहले के अशुभ कर्मों को नाश ही करता है ॥२६३७-२६३६॥ परम समयसार को पालने का फलइति कथितमदोषं ये घरग्यात्मशक्त्या परमसमयसारं प्रथमाप्तः प्रणीतम् । त्रिभुवनपति भूति सुष्ठविकायभुक्त्वा सालघरणयोगात्स्युश्च ते मुक्तिनाथाः ।।२६४०।। अर्थ--इसप्रकार भगवान जिनेन्द्र देवके द्वारा कहे हुए इस परम समयसार को जो मुनि अपनी शक्ति के अनुसार निर्दोष रीति से पालन करते हैं, वे पूर्ण चारित्र को धारण करने के कारण भगवान जिनेन्द्रदेव को विभूति को प्राप्त करते हैं प्रौर मंतमें मोक्षलक्ष्मी के स्वामी होते हैं ॥२६४०॥ पुनः परम समयसार को पालने की प्रेरणासर्वासातहरंविशुद्धजनकं पापारिनाशंकरं स्थर्मोक्षकनिबंधनंसुविमलसंसारतापापहम् । धोतीर्थस्वरभाषितमुनियरः सेव्यं सवा पत्नतः सेवम्वनिपुणाःपरंसमपसारास्मंशिवारस्फुटम् ॥ मर्थ यह ऊपर कहा हुआ परम समयसार समस्त दुःखों को दूर करनेवाला Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] नवम अधिकार है, विशुद्धियों को उत्पन्न करनेवाला है, पापरूप शत्रुको नाश करनेवाला है, स्वर्ग मोक्ष का एक अद्वितीय कारण है, अत्यन्त निर्मल है, संसार के संताप को नाश करनेवाला है, भगवान जिनेन्द्र देव का कहा हुआ है और श्रेष्ठ मुनियों के द्वारा सदा सेवन धारण करने योग्य है । अतएव चतुर मुनियो को मोक्ष प्राप्त करने के लिये प्रयत्नपूर्वक इस परमसमयसार को अच्छी तरह पालन करते रहना चाहिये ॥२६४१॥ अरहतादि की भक्ति का फल श्रेष्ठ गुणों की प्राप्ति की अभिलाषा -- नामेयाथाजिनेन्द्रास्त्रिभवनजिताः धम् चकाधिपा, ये सिमालोकाग्रताहतावधिवपुषोत्रान्तहीनाः प्रसिद्धाः । प्राचार्याःपाटका ये गुणगरणसदनाः सामवोमुक्तिकामाः प्राचारांगागमशाममनिजसुगुणानसंस्तुतास्तेप्रवचः ॥२६४२।। इति श्रीमूसाचारप्रदीपकास्येमहाप्रथेमवारकोसकलकोतिविरचिते समयसार वर्णनो नाम नषयोषिकारः।। अर्थ- इस संसार में जो धर्मचक्र के स्वामी और तीनों लोकों के द्वारा पूज्य ऐसे वृषभदेव प्रादि चौबीस तीर्थकर हुए हैं तथा लोक शिखर पर विराजमान, समस्त कर्म और शरीर से रहित, संसार के परिभ्रमण से रहित और सर्वत्र प्रसिद्ध ऐसे अनंत सिद्ध परमेष्ठि विराजमान हैं और प्राचारांग आदि समस्त भागम के जानकार मोक्षको इच्छा करनेवाले और अनेक गुणों के समूह के स्थान ऐसे प्राचार्य उपाध्याय और सर्व साधु विद्यमान हैं, इसप्रकार के पांचों परमेष्ठियों की मैं स्तुति करता हूं, इसके बदले में वे पांचों परमेष्ठि मुझे अपने-अपने श्रेष्ठ गुण प्रदान करें ।।२६४२।। इसप्रकार आचार्य श्री सकलकीति विरचित मूलाचार प्रदीप नामके महाग्रन्थ में समयसार को वर्णन करनेवाला यह नौवां अधिकार समाप्त हुमा । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोधिकारः मंगलाचरण प्रर्हतः सिद्धनाथांश्च समाधिघोषिपारगान् । जन्ममृत्युजरान नौमि योषिसमाषये ॥२६४३ ॥ अर्थ - अब मैं रत्नत्रय और समाधि की प्राप्ति के लिये जन्म मरण तथा बुढ़ापे को नाश करनेवाले और रत्नत्रय तथा समाधि पारगामी ऐसे भगवान् अरहंतदेव को तथा सिद्ध भगवान को नमस्कार करता हूं ।। २६४३ ।। प्रत्याख्यान संस्तर के कथन की प्रतिज्ञा संक्षेपेाचयामि सद्यतीनां समाधये । अधिकारं परं प्रस्थात्मान संस्त र संज्ञकम् ।। २६४४ ।। अर्थ - अब मैं श्रेष्ठ सुनियों को समाधि प्राप्त करने के लिये संक्षेप से प्रत्यानारा के काम करता हूं ।। २६४४ ॥ किन कारणों के माने पर सन्यास धारण करें उपसर्गेतियुमिवृद्धत्येच्या बिसंचये । प्रसाध्येनिष्प्रतीकारमन्वाक्षे सति कारणे ।। २६४५ ।। व्रतभंगा विकेन्यस्मिन् वा सन्यासं तपस्विनाम् । विधातु युज्यते नूनं प्रयत्नेन हिताप्तये || २६४६॥ अर्थ -- किसी उपसर्ग के मा जानेपर, घोर बुभिक्ष पड़ जानेपर, अत्यन्त वृद्धावस्था मा जानेपर, अनेक प्रसाध्य और उपायरहित व्याधियों के आ जानेवर, नेत्रों की ज्योति मंद हो जानेपर वा व्रतभंग के कारण मिल जानेपर वा और भी ऐसे ही ऐसे कारण आ जानेपर, तपस्वियों को अपना ग्रात्महित करने के लिये प्रयत्नपूर्वक सन्यास धारण करने के लिये प्रयत्न करना चाहिये ।।२६४५-२६४६।। मरण निकट जानकर समाधि का उद्यम व क्षमा मांगना चाहिये- प्रसन्न मरणं स्वस्य कश्चिद्विशामसन्मुनिः । निमित्तार्थ: समाध्यर्थं कुर्याद्य श्रममंचसा ।। २६४७० प्रापृच्छ्यस्वसुगुबीन्ामयित्वाखिलान्परान् । त्रिशुद्धायुक्तिमावः स्वयं स्थास्वमान || अर्थ- श्रेष्ठ मुनियों को किसी निमित्तशास्त्र आदि के द्वारा अपना मरण निकट जानकर समाधि के लिये बहुत शीघ्र उद्यम करना चाहिये । इसके लिये सबसे पहले उन मुनियों को अपने श्रेष्ठ गुरुसे पूछना चाहिये और फिर मन-वचन-काय की Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४०८ ) [दशम अधिकार शुद्धतापूर्वक मुक्तिपूर्वक पचनों से समस्त मुनियों से क्षमा मांगनी चाहिये तथा अपने मनमें सबको क्षमा कर देना चाहिये ॥२६४७-२६४८॥ ___ स्वमण के त्याग की प्रेरणाहिश्यावियोयिभिः साई परित्यज्य निजंगणम् । मोहाविहामयेसोस्मानिर्गच्छसिसमाषये ॥४॥ अर्थ-तदनंतर अपना मोह नाश करने के लिये दो तीन मुनियों को साथ लेकर तथा अपने गणका त्याग कर समापि धारण करने के लिये वहां से चल देना वाहिये ।।२६४६।। परीक्षा करके ही आचार्य से समाधि का निवेदन करना चाहियेकमात्परगणस्यं स विख्यातंसूरिघुगषम् । प्रसाद्य संपरीक्ष्योधनवा कार्यनिदेवपेत् ।।२६५०॥ अर्थ-फिर अनुक्रम से चलकर किसी परगण में विराजमान प्रसिद्ध प्राचार्य के समीप पहुंचना चाहिये और उन प्राचार्य की अच्छी तरह परीक्षा कर तथा उनको नमस्कार कर उनसे अपना कार्य निवेदन करना चाहिये ।।२६५०।। नौसे गुणों से युक्त आचार्य को निर्यापकाचार्य बनानेविश्वभष्यहितोच क्तः पंचापारपरोमहान् । भागमे कुशली बीमामलोभ्यःपरमायषित् ।।२६५९।। भालोचितरहत्यापरिखानीसूरिसत्तमः । यः स निर्यापकः कार्यः उत्तमः स्वसमाधये ।।२६५२।। ___ अर्थ-जो समस्त भव्य जीवों के हित करने में तत्पर हों, पंचाचार पालन करने में तत्पर हों, सर्वश्रेष्ठ हों, आगम में कुशल हों, बुद्धिमान हों, कभी क्षुब्ध न होते हों, परमार्थ को जाननेवाले हों, जो किसी मुनि के द्वारा बालोचना किये हुये दोषों को कभी प्रगट न करते हों और जो सर्वोत्तम हों ऐसे उत्तम प्राचार्य को अपनी समाधि के लिये निर्यापकाचार्य बनना चाहिये ॥२६५१-२६५२॥ निर्यापकाचार्य की आवश्यकतायमापत्तनमासन्नाः कर्णधार विनाबुधो । रत्नहेमभुता मायः प्रमज्यन्ति प्रमावतः ॥२६५३॥ तपाक्षपनावोऽत्र मुक्तिद्वीपसमीपगा। । ज्ञानबरणामरत्नपूर्णा भवाम्बुषो ॥२६५४॥ निमण्जन्ति न संबेहो विना निर्माप वि । प्रमादेन सतो मम्मामयौनिर्यापकाः बुधः ॥२६५५॥ अर्थ-जिसप्रकार रत्न और स्वर्ण से भरी हुई सभा नगर के समीप पहुंची हुई कोई मात्र बिना मल्लाहों के अपने प्रमाद से ही समुद्र में डूब जाती है उसीप्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूपी अमूल्य रत्नों से भरी हुई और मोक्षपी Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४०६) [ दशम अधिकार द्वीप के समीप पहुंची हुई क्षपक रूपी नाव बिना निर्यापकाचार्य के अपने प्रमाद से हो संसाररूपी समुद्र में डूब जाती है इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है, इसलिये बुद्धिमान मुनियों को समाधिभरण धारण करने के लिये निर्यापकाचार्य अवश्य तलाश कर लेना चाहिये ॥२६५३-६६५५।। आचार्य परीक्षा करके प्रागन्तुक साधु को स्वीकार करते हैंप्राचार्यः सोऽपि तं युक्त्या प्रपरीक्ष्यपरार्थकृत् । स्वीकुर्यात्स्थगणपृष्टबोत्तमार्षसाधनोद्यतम् ।।५।। अर्थ-तदनंतर परोपकार करने में तत्पर वे आचार्य भी युक्तिपूर्वक उसकी परीक्षा करते हैं फिर अपने गण को पूछकर मोक्ष के सापन में लगे हुए उन मुनि को अपने पास रहने की स्वीकारता देते हैं ॥२६५६॥ मुनि एकान्त में दोषों की आलोचना करता हैततोसोक्षपको नया रकान्तेसूरिसन्निधौ । ऋमित्तःस्वशुसमयकुबालोधर्मस्फुटम् ।।२६५७।। अर्थ-तदनंतर सरल हृदय को धारण करनेवाला वाह क्षपक भी किसी एकांत में प्राचार्य के समीप नमस्कार कर बैठता है और अपने आत्मा को शुद्धि के लिये स्पष्ट रीति से अपने दोषों की आलोचना करता है ॥२६५७।। रस्मय में लगे दोषों की आलोचना करेंमूलोप्तरगुरणादीनारमयाम मातुषित् । प्रतीचाराः कृताः स्वेन कारिता ये परेण च ।।२६५८।। हृदनुमानिता ये तानत्रिशुद्धपासकलानमलान् । त्यस्वालोचमदोषान् स सर्वान् पूरि निवेदयेत् ।। __ अर्थ-मूलगुण वा उत्तरगुणों में वा रत्नत्रय में कभी भी जो अतिचार लगाये हों, वा दूसरों से लगवाये हों वा हृश्य से उनकी अनुमोदना की हो उन सबको पालोचना के समस्त दोषोंसे रहित होकर मन-बचम-कायकी शुद्धतापूर्वक प्राचार्य से निवेदन कर देना चाहिये ।।२६५८:२६५६।। ___ बालक बत् मायाचारी आदि दूषण रहित पासोचना करें--- अनुतिर्यमा पालो प्रयास्यस्यानोगतम् । याथालव्येन चानामन् वात्र्या पाध्यादिकं वयः ।। मायाभिमानलज्माबीसत्यवत्वानिमलिस्तमा । यथाणासान् तथा बोवान् भाषतेसरिसनिषौ ।६१।। अर्थ-जिसप्रकार सरल बुद्धिको धारण करनेवाला मालक कहने योग्य पान कहने योग्य वचनों को नहीं जानता हुआ यथार्थ रीतिसे अपने मनकी बात बतला देता है उसोप्रकार शुद्ध बुद्धि को धारण करनेवाले उन मुनियों को भी मायाचारी अभिमान Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मूलाचार प्रदीप ( ४१०) [ दशम अधिकार और लज्जा को छोड़कर प्राचार्य के समीप समस्त दोषों को यथार्थ रीति से कह देना चाहिये ॥२६६०-२६६१॥ सदनन्तर माचार्य क्षपक को प्रायश्चित देते हैंतदेवागमदृष्टयासीगणी तद्दोषणान्तये । ददातिविधिना सम्म प्रायश्चित्तं यथोचितम् ।।२६६२।। अर्थ-सथनंतर उन दोषों को शांत करने के लिये वे प्राचार्य भी आगम में कहे अनुसार विधिपूर्वक यथायोग्य प्रायश्चित्त उनके लिये देते हैं ॥२६६२।। तदनन्तर प्राचार्य एवं क्षपक क्या करते हैंसतः स सपकः शरत्यारलापविशुद्धये । योदत्तः सरिणावपस्तं सर्वमाचारेकमात् ॥२६६३।। समाचार्योमुनेस्तस्पहिसायाह शुभाशुभान् । मत्युमेवान्भुतात्सप्तदशनीचोच्चजन्मदान् ।।२६६४।। अर्थ--तदनंतर वाह क्षपक भी अपने रत्नत्रय को शुद्ध करने के लिये प्राचार्य के द्वारा लिये हुये समस्त बण्ड को अपनी शक्तिके अनुसार अनुक्रम से पालन करता है । इसके बाद वे आचार्य उन मुनिराज का हित करने के लिये ऊंच और नीच योनि में जन्म देनेवाले और इसीलिये शुभ-अशुभ ऐसे मृत्यु के सत्रह भेदों को शास्त्र के अनुसार कहते हैं ॥२६६३-२६६४॥ जिनेन्द्रदेव उपदिष्ट मरण के १० भेदप्रायोचिस्तयाख्यं चावषिरावतसंगकम् । सशल्पं गज्रपृष्टाख्यं जिघ्रासगर सत्तः ।।२६६५।। व्युत्सष्टं हि वसाकाख्यसक्लिश्यमरण मणाम् । मरणानिदर्शतानि भाषितानि जिनेश्वरैः ।।१६।। अर्थ-प्रायोचिमरण, भवमरण, अवधिमरण, आघतमरण, सशल्यमरण, गृद्धपृष्ठमरण, जिघ्रासमरण, प्युरस्टष्टमरण, बलाकामरण और संक्लिश्यमरण इसप्रकार ये वश प्रकार के मरण भगवान जिनेन्द्र देव ने बतलाये हैं ॥२६६५-२६६६॥ बालबाल मरणादि मरण के सात भेदमालबालमति लो बालपंडितनामकम् । बलुथं मरणं भरूप्रत्याख्यानाभिधानकम् ।।२६६७।। इंगनीमरणं नाम प्रयोपगमनाभिषम् । मरण सप्तमं सर्वश्येष्टं पण्डितपण्डितम् ॥२६६८।। अर्थ-बालबालमरण, बालमरण, बालपंडितमरण, भक्तप्रत्याख्यानमरण, गिनीमरण, प्रायोपगमममरण और सर्वोत्तम पंक्तिपंडितमरण इसप्रकार सात मरण ये बतलाये हैं ॥२६६७२६६॥ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४११) [ दशम अधिकार १७ प्रकार के सारण पिस लाया? इमानि येहिनांसप्तदशोक्तानिलिमागमे । सद्गलीता कहुं रिणमरणानि गणेशिना ।।२६६६।। अर्थ-इसप्रकार भगवान गणघरदेव ने अपने जिनागम में प्राणियों को सबगति और प्रसद्गति देनेवाले ये सत्रह प्रकार के मरण बतलाये हैं ॥२६६६॥ आवीघिमरण का स्वरूपययावधी जलौघाना वीषयः सथमं प्रति । उद्ध योज पतत्रवविलीयन्तप्तयांगिनाम् ।। २६७।। उद्भ,योद्ध यकर्मायुः पुद्गलागषु यः क्षयः । रसनांप्रत्यहं शेयमावोधिमरणं हि तत् ।।२६७१३॥ अर्थ-जिसप्रकार समुद्र में पानी के समूह को लहरें समय-समय पर उठती हैं और उठ-उठकर उसी में लीन हो जाती हैं उसीप्रकार संसार जोबों का प्रायुक्रर्म प्रत्येक समय में उदय होता रहता है और अपना रस देकर खिर जाता है, इसको प्रावीचिमरण कहते हैं। यह प्राचीधिमरण प्रतिदिन प्रति समय होता रहता है ॥२६७०. २६७१॥ भव मरण एवं अवधिमरण का स्वरूपभुज्यमानायुषः सो योऽन्तिमेसमयेभुवि । प्राणप्पागो हि तद्विसिमरणं सपासपम् ।।२६७२।। प्रकृत्यायं श्चतुविषयवृशःप्राम्भो मृतः । यस्तस्य तावीर्यच्चावास्यंमरणं हि तत् ।।२६७३॥ अर्थ-जो मनुष्य अपनी आयु को भोगकर अंतिम समय में प्राण त्याग कर देता है उसको भवमरण कहते हैं । इस जीव ने पहले भव में जैसे प्रकृति स्थिति प्रावि चारों प्रकार के कर्मों का बंध कर मरण किया था यदि वैसे ही कर्मोका रंध कर मरण करे तो उसको अवधिमरण कहते हैं ।।२६७२-२६७३॥ आधत मरण एवं सशल्य मरण का स्वरूपप्राक्तनास्स्वभवावंषरन्यावश्चतुर्विधः । प्रत्याध मलिनुराधम्ममरण हि तत् ।।२६७४।। मायामिथ्यानिदानाय : शल्यः माईकषापिरणाम् । यत्प्राणमोचनं निय' सशल्पमरणं हि तत् ॥ अर्थ-पहले भव में जैसे प्रकृति स्थिति प्रादि कर्मों का बंध किया या उससे भिन्न प्रकृति स्थिति माधि कर्म प्रकृतियों का बंध कर जो मरण करता है उस मरणको प्रायंत मरण कहते हैं । कषायों को धारण करनेवाले जीव माया, मिम्मा, निशन इन तीनों शल्यों के साथ-साथ जो प्राण त्याग करते हैं उसको निच सशल्यमरण कहते है। ॥२६७४-२६७५॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( ४१२) [ दशम अधिकार गृध्रपृष्ठ मरण एवं जिघ्रासमरण का स्वरूप-- भत्यु यः क्रियतेहस्तिकलेबराविषुवचित् । प्रविष्य प्रारिणभिप्रपृष्टास्यंमरणरवतत् ।।२६७६।। स्वस्यस्वेनदुराचारः कृत्वा प्राणनिरोषनम् । क्रियतेस्वात्मघातो यो जिघ्नासमरणं हि तत् ।।७७।। __ अर्थ-हाथी प्राधि पशुओं के कलेवरों में प्रवेश कर जो प्राणी मर जाते हैं उसको गृध्रपृष्ठमरण कहते हैं । जो मनुस्य अपने ही पुराचारों से सांस रोक कर आत्मघात कर लेते हैं उसको जिघ्रासमरण कहते हैं ।।२६७६-२६७७।। ____ व्युत्स्टष्टमरण एवं बलाकामरण का स्वरूपदर्शनशानधारित्रत्रयमुक्रवाशजस्मभिः । विधीयतेमुतिर्यात्रभ्युत्सष्टमरणं च तत् ॥२६७८।। पावस्थेनानपरमाणमोचशिपिलात्मनाम् । दीक्षिसानांदुराधारर्वलाकामरण हि तत् ।।२६७६।। अर्थ-जो मूर्ख सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीनों रत्नत्रयों को छोड़कर मर जाते हैं उसको ग्युत्स्टष्टमरण कहते हैं । शिथिल आचरणों को धारण करनेवाले वीक्षित मुनि अपने दुराधरण के कारण प्राण त्याग करते हैं अयवा पार्श्वस्थ आदि पांच प्रकार के स्याज्य मुनि जो प्राण त्याग कर करते हैं उसको बलाकामरण कहते हैं ॥२६७८-२६७६।। संमलेश मरण एवं बालबास मरण का स्वरूपबुगशामघाणाचारेणुसक्लेशं विधाय यः। मृत्यस्तपस्विनां चित्तेस क्लिपमरण स तत् ।।२६८०॥ सम्याशानवताचारावृते प्राणविसर्जनम् । मिप्यावृशां हि यद्वालबालात्यमरणं च तत् ।।२६८१॥ अर्थ-अपने हाय में सम्पग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र में या अपने आचरणों में संक्लेश उत्पन्न कर जो तपस्वियों की मृत्यु होती है उसको संक्लेशमरण कहते हैं । सम्यग्दर्शन, सम्पग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से रहित मिथ्याष्टियों को जो मृत्यु होती है उसको बालबालमरण कहते हैं ॥२६८०-२६८१॥ बालमरण का स्वरूपशामे सति सदुष्टोस्पेतरवतादिना । शिशोरिवषपुस्त्यागस्तवालमरसायम् ।।२६६२।। अर्थ-सम्पादृष्टि पुरुष सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के रहते हुए भी अणुव्रत वा महानतों के बिना बच्चे के समान जो मृत्यु को प्राप्त होते हैं उसको बालमरण कहते हैं ॥२६॥२॥ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४१३ ) [ दशम अधिकार वालपण्डित मरण का स्वरूपस्थावरध्यसमार्ये सूक्ष्मपंचायपतनः। बालास्त्रसांगिरमाध: स्यूलपंचाधानः ।।२६८३॥ पण्डिताःभावकारचावप्रोग्यन्ते बालपण्डिताः । अणुव्रत मुषां तेषामरणं बालपण्डितम् ।।२६॥ अर्थ-श्रावक लोग स्थावर जीवों को हिंसा सूक्ष्म मिथ्याभाषण प्रादि सूक्ष्मरूप से पांचों पार्यों की प्रवृत्ति करने के कारण बालक कहलाते हैं तथा उस जीवों की रक्षा करते हैं, स्थूल मिथ्याभाषण का त्याग करते हैं, इसप्रकार स्थूल रोति से पांचों पापों का त्याग कर देते हैं, इसलिये वे पंडित कहलाते हैं । इसप्रकार दे श्रावक बालपंडित कहलाते हैं, उन अणुव्रत धारण करनेवाले सम्यग्दृष्टि श्रावकों का जो मरण है उसको बालपंडितमरण कहते हैं ।।२६८३.२६८४॥ भक्त प्रत्याख्यान एवं इंगिनीमरण का स्वरूप - मद्भक्ताहारपानावीस्त्यक्त्वा स्वस्यप्रतिभया ! प्राणोन्भनं च सा भक्तप्रत्यास्यानाहयाभूतिः ।।८५॥ पाएमनोगिताकारेणाभिप्रायेण्योगिभिः । साध्वते मरणं यातदिगिरणीमरणं हि तत् ।।२६८६।। अर्थ-जो मुनि प्रतिज्ञापूर्वक चारों प्रकार के श्राहार का त्याग कर प्रारण त्याग करता है उसको भक्तप्रत्याख्यान नामका मरण कहते हैं । जो योगी अपने आत्मा के इशारे से प्रात्मा के अभिप्राय के अनुसार अपने मरण को सिद्ध कर लेते हैं उसको इंगिनीमरण कहते हैं ।।२६८५-२६८६।। प्रायोपममल मरण का स्वरूप प्रायेगोपगमं कृत्वा जना स्थानानान्तरे । पापा काकिनाषीरयमिनायल्वभाव्यते ॥२६८७॥ मरणस्वमपुःभिपवा हकस्मिन्नचलासने । कस्मिरिचन्मरणं तस्मात्प्रायोपगमनाह्वयम् ॥१८॥ अर्थ-जो धीर वीर एकाको मुनि पापरूप मनुष्यों के स्थान को छोड़कर प्राय: निर्जन वनमें चले जाते हैं और अपने शरीर को किसी एक ही निश्चल आसन से विराजमान कर उस शरीर का त्याग कर देते हैं उसको प्रायोपगमन मरण कहते हैं । ॥२६८७२६८॥ पण्डित मरण के भेद एवं उसके स्वामी कौन ? भक्तोम्झनादिनामामोमस्यूमेवास्नयोध्यमी । शेया पण्डितमृत्योरचप्रमत्तादिमहात्मनाम् ||२६५६॥ अर्थ-भक्तप्रत्याख्यानमरण, इंगिलीमरण और प्रायोपनमन मरण ये तीनों मरण पंजितमरण के मेव हैं और प्रमससंयमो का अप्रमत्तसंयमियों के होते हैं ।२६८६॥ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४१४ ) [दशम अधिकार पण्डित पण्डित मरण का स्वरूपस्यवस्था केवलिना प्रारणानगमनपछिवालये। मरगतम्जगजन्मेण्ट व पण्डितपण्डितम् ।।२६६०।। अर्थ-केवली भगवान जो अपने शरीर को छोड़कर मोक्ष के लिये गमन करते हैं, वह तीनों लोकों में उत्तम और बंदनीय पंडित पंडितमरण कहलाता है । ॥२६६०॥ सैकड़ों जन्म को नष्ट करनेवाले पण्डित मरण की प्रेरणाअमीषा भरणा मध्य यमांसाहसम् । भरणं क्षपक त्वं सत्साधयात्रातियत्नतः ।।२६६१।। साधितं मरणं ह्ये कंपण्डिताख्यप्रयत्नतः । बहजन्मशतावनिक्षपकारण छिनस्यहो ॥२६६२।। अर्थ-हे क्षपक 1 इन सब मरणों में जो पंडितमरण है उसी को तू प्रयत्नपूर्वक सिद्ध कर । यदि यह एक पंडितमरण ही प्रयत्नपूर्वक सिद्ध कर लिया जायगा तो उससे उस क्षपक के अनेक संफड़ों जन्म-मरण क्षणभर में नष्ट हो जायेंगे ।।२६६१२६६२॥ कैसे मरण युक्त मरण करना चाहिये ? प्रतःसम्मररमेनात्र मर्तब्य सेन धोधनः । येनोपत्तिः पुन न स्याजन्ममृत्युभराविधा ।।२६६३॥ अर्थ-अतएव बुद्धिमानों को श्रेष्ठ मरण से ही मरना चाहिये जिससे कि जन्म-मरण और बुढ़ापे को उत्पन्न करनेवाला जन्म फिर कभी न हो ॥२६६३॥ कैसे जीव समाधिमरण रहित मरण करते हैंये प्रगष्टमतिज्ञानाश्चतु:समाविउंविताः। कौटिल्यपरिणामाश्चमोहारिसिताःराठाः ॥२६६४।। करायाकुलचेतस्काः सनिदानाद गुस्मिताः । प्रातरौद्रविदुर्लेश्याः शुभध्यानातिगा नरा: ॥२६६५।। असमाधिहदा बलेशननियन्से समाधिमा । पाराध गते प्रोक्तामृतौ ससृतिय नात् ।।२६६६।। अर्थ-जिन जीवों का भतिज्ञान नष्ट हो गया है, जो आहार, भय, मथुन, परिग्रह इन चारों संज्ञानोसे विडंवित हैं, जिनके परिणाम कुटिल रहते हैं, जो मोहरूपी शत्रु से दबे हुये हैं, जो मूर्ख हैं, जिनके हवय कषाय से आकुलित रहते हैं, जो सवा निदान करते रहते हैं, जो सम्यग्दर्शन से रहित हैं, जो प्रातध्यान तथा रौद्रध्यानमें लीन रहते हैं, पहिली तीन मशुभलेश्याओं को धारण करते हैं, जो शुभध्यान से बहुत दूर रहते हैं और जिनके हरूप में सभी मो समाधि को स्पाम नहीं मिलता ऐसे लोग बिना समाधिमरण के केवल गलेशपूर्वक ही मरते हैं । इसलिये आराधना करनेवालों को मरण Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] (४१५) [ दशम अधिकार के समय इन सबका त्याग कर देना चाहिये । क्योंकि ये सब जन्म मरणरूप संसार को बढ़ाने वाले हैं ॥२६६४-२६६६।। कौन जीव देव दुर्गतियों में उत्पन्न होते हैंमरणेनष्टमुखीनाविराषितेसतिस्फुटम् । देवदुर्गतयोनूनंभवत्यात्रशुमाकरा: । २६६७॥ अर्थ-दष्ट बुद्धि को धारण करनेवाले जो लोग अपने मरण की विराधना कर देते हैं वे जीव महा पाप की खानि ऐसी देव दुर्गतियों में उत्पन्न होते हैं ।।२६६७॥ रत्नत्रय की प्राप्ति इस लोक में दुर्लभ है-- बोधिसम्यक्त्वमस्मन्तदुर्लभं भवकोटिभिः । मागमिष्यसि काहानन्तावुभवपतिः ।।२६६८॥ ____ अर्थ-इस लोक में रत्नत्रय और सम्यक्त्व का प्राप्त होना अत्यंत दुर्लभ है, करोड़ों भवों में भी प्राप्त नहीं होता यदि प्राप्त होता है तो काललब्धि के अनुसार प्राप्त होता है। तथा नीच जन्मों की परम्परा अनंतबार प्राप्त होती चली आ रही है ।।२६६८।। देव दुर्गति आदि क्या है, शिष्य ऐसा प्रश्न करता हैदेवदुर्गतयः काश्च का बोधिमरणं हगा। विनश्यतिमुमुक्षाकीदृशेन भवोभवेत् । २६९६॥ अनन्तः केनशिष्पेरणपृष्टः मूरिरितिस्फुटम् । उवाच देवदुर्गत्यारिक सर्व साहितम् ।।२७००॥ अर्थ-यहाँपर कोई शिष्य अपने आचार्य से पूछता है कि हे प्रभो ! वेद दुर्गति क्या है ? रत्नत्रय किसको कहते हैं ? मोक्षकी इच्छा करनेवाले मुनियोंका मरण फैसे हृदय से नष्ट हो जाता है जिससे कि उसको अनंत संसार की प्राप्ति होती है। इसके उत्तर में आचार्य उस शिष्य की इच्छानुसार देव दुर्गति आवि का स्वरूप कहते हैं ॥२६६९-२७००॥ देव दुर्गति एवं उसमें उत्पन्न जीव का स्वरूपकंदर्पमाभियोग्यं च कैल्वियं किल्बिषाकरम् । स्वमोहत्वतर्थवासुरम्वमेतः कुलक्षणः ॥२७०१॥ सम्पन्नावुद्धिमोमृत्वागच्छन्ति देवदुर्गतिः । कंबधाइति प्रोक्ता नीषयोमिभवाविवि ।।२७०२।। अर्थ-जो मूर्ख कंवर्ष जाति के कुलक्षणों को अभियोग्य जाति के कुलमानों को पापकी खानि ऐसे किल्विष रूप कुलक्षणोंको स्वमोहत्य और असुर प कुलक्षणोंको धारण कर मरते हैं वे देव दुर्गतिमें उत्पन्न होते हैं । स्वर्गों में वर्ष आदि भीच मोनि में उत्पन्न होनेवाले जो वेव हैं उन्हीं की गति को देव दुर्गति कहते हैं ।२७०१-२००२॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप ] [ দাশ ঘিাৰ कैसे पाखण्ष्टी साधु कंदर्पभय क्रिया करनेवाले देव होते हैप्रसत्यं यो व यन् हास्यसरागमनाविकान् । कन्दपोद्दीपकाल्लोकेमंदपर तिरंजितः ।। २७०३॥ कम्वाःसन्सिदेवा ये नग्नाचार्याः सुरालये । कवर्षकमभिस्तेषु पद्यतेसतस्समः ॥२७०४।। अर्थ- ओ साधु होकर भी असत्य वचन बोलते हैं, हंसो ठट्ठा के वचन कहते हैं, राग बढ़ाने वाले वचन कहते हैं, कामदेव को बढ़ाने वाले उत्तेजित करनेवाले वचन कहते हैं और जो कामसेवन में लीन हो जाते हैं, ऐसे जीव मरकर स्वर्ग में कंदपं जाति के देव होते हैं वहां पर भी वे काम को बढ़ाने वाली क्रियाएं ही करते रहते हैं । इस प्रकार कंदर्पमय क्रियाओं के करने से वे पाखंडी स्वर्ग में भी बसे हो कंपमय क्रियाएं करनेवाले होते हैं। ऐसे देवों को नानाचार्य भी कहते हैं ॥२७०३-२७०४।। कैसे साधु वाहन जाति के देव बनते हैंमंत्रतंत्राविकर्माणि यो विषते बहनि च । ज्योतिएकमेषजावोनिपराकार्याशुभानि च ॥२७०५।। हास्यकौतूहलाचीनि करोतिस्वेच्छया वदेत् । हस्त्यावधाहनेष्वत्र जायते सोमरोषमः ।।२७०६।। अर्थ-जो मनुष्य साधू होकर भी मंत्र तंत्र आदि अनेक कार्यों को करता है, ज्योतिष्क या वैद्यक करता है तथा ऐसे ही ऐसे और भी बहुत से अशुभ कार्य करता है, हंसी करता है, कौतूहल तमाशे प्रादि करता है. और इच्छानुसार चाहे जो बोलता है, वह मर कर हाथी, घोड़ा प्रावि बनने वाले वाहन जाति के नोच देवों में उत्पन्न होता है ।२७०५-२७०६॥ कैसा आचरण करने से माधु मरकर किल्बिष जाति के देवों में उत्पन्न होता हैतीर्थकृता व संघस्य चत्यचैत्यालयस्य च । प्रागमस्याविनीतो यः प्रत्पनीक: सुमियाम् १२७०७। मायावी किल्विषाकान्तः किल्विषादि कुकर्मभिः । स किल्विषसुरो नीचो भवेकिल्विष मातिषु ।। अर्थ- जो तीथंकरों की अविनय करता है, संघ की अविनय करता है, चैत्य चैत्यालयों की प्रविनय करता है, प्रागम की. प्रविनय करता है, धर्मात्माओं के प्रतिफल रहता है, जो मायाचारी है और महापापी है वह अपने महापापों के कारण किल्विष जाति के देवों में नीच किस्विष देव होता है ॥२७०७-२७०८॥ कैसे माधु मरकर नीच व मोह जाति में उत्पन होते हैंउन्मार्गदेशको योऽत्र जिनमागविनाशकः । सन्मार्गाविपरीतोऽत्र दृष्टहोनः कुमागंगः ।।२७०६।। मिभ्यामायादिमोहेन मोयनमोहपीडितः । जायते स स्वमोहे स्वभंजामरजातिषु ॥२७१०॥ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४१७ ) [ दशम अधिकार अर्थ --- जो साधु कुमार्ग का उपदेश देता है, जिनमार्गका नाश करता है, श्रेष्ठ मोक्षमार्ग से सदा विपरीत रहता है, जो सम्यग्दर्शन से रहित है, कुमार्गगामी है, जो मिथ्यात्व मायाचारी आवि तीव्रमोह से मोहित है, जो तीव्रमोह के कारण अत्यंत दुःखी है वे स्वच्छन्द देवों में उत्पन्न होते हैं। देवों की स्वभंड नामकी नीच जाति में स्वमोह वाश्वमोह ( कुत्ते के समान इधर-उधर स्वच्छंद फिरने वाले ) देव होते हैं ।।२७०६२७१०॥ बम्बावरीष जाति में एवं असुरकुमारों में कैसे कर्म वाले साधु उत्पन्न होते हैंक्षुद्रः क्रोषी लोमानीमायावी दुर्जमोयतिः । युक्तोनु बद्ध में रेत पश्चारित्रक मंत्र ।।२७११ ।। संक्लिष्टसनिदानो यः उत्पद्यतेऽघकर्मणा । रौद्रासुरकुमारेलोस्वरादि कुतिषु ।। २७१२ ।। अर्थ- जो साधु क्षुत्र हैं, क्रोधी हैं, दुष्ट हैं, अभिमानी हैं, मायाचारी हैं, दुर्जन हैं, जो पहले जन्म के बा इसी भव के पहले वैरभावों को धारण करते हैं जो तपश्चरण और चारित्र की क्रियाओं में संक्लेशता धारण करते हैं और जो निदान करते रहते हैं पापरूप कर्मों के कारण अंबावरीष जाति के नीच और रौद्र असुरकुमारों में उत्पन्न होते हैं ।।२७११-२७१२ ।। रत्नत्रय की प्राप्ति कैसे साधु को दुर्लभ हैमिथ्यादर्शनरता मे सनिदानाः कुमागंगा । कृष्णले श्योद्धतारोद्रपरि लामागुरातिगः ।।२७१३ ।। रक्षा सद्दर्शनंसंपलेश्यान्मृयन्तेसमाधिना । ससारे भ्रमतां तेषां बोधिश्वातीबदुलभा ।। २७१४।। अर्थ- जो जीब मिध्यावर्शन में लीन रहते हैं, जो सदा निदान करते रहते हैं जो कुमार्गगामी हैं, कृष्णलेश्या की धारण करने के कारण जो अत्यन्त उद्धत रहते हैं, जो रौद्र परिणामों को धारण करते हैं और गुणों से सर्वथा दूर रहते हैं, ऐसे जो जीव सम्यग्दर्शन को छोड़कर बिना समाधि के संक्लेश परिणामों से मरते वे जीव सदा इस संसार में परिभ्रमण किया करते हैं। उनको रत्नत्रय की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ हो जाती है ।। २७१३-२७१४ ।। रत्नत्रय की प्राप्ति दूसरे भव में भी कैसे जीवों को 'सुलभ हैसम्यग्दर्शनसम्पन्ना श्रभिधानाः शुभाशयाः । शुक्ललेश्या: शुभध्यानरताः सिद्धान्तवेदिनः ।। १५ ।। धर्मध्यामादिभ्यासूयन्तेसमाधिना । तेषामासप्रभव्यानां सुलभावोषितमा ॥२७१६।। अर्थ- जो सम्यग्दर्शन से सुशोभित हैं, कभी निदान नहीं करते, जिनका हृदय Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] [ दशम अधिकार शुद्ध है, जो शुक्ललेश्या धारण करते हैं, शुभध्यान में सदा लीन रहते हैं और सिद्धांतशास्त्रों को जानते हैं, ऐसे जो मुनि समाधि पूर्वक धर्मध्यान वा शुक्लध्यान धारण कर सन्यास से मरण करते हैं उन आसन्न भव्य जीवों के उत्तम रत्नत्रय की प्राप्ति अत्यन्त सुलभ रीति से हो जाती है ॥२७१५-२७१६॥ कैसे जीव अनन्त संसार में भ्रमण करते हैंगुरूणांप्रत्यनीका ये दीर्घमिथ्यात्ववासिलाः । महमोहातादृष्टा प्रातरौद्रपरायणाः ।।२७१७।। मदोद्धताः कुगीलाश्चम्यन्तेऽत्रासमाधिमा । स्युस्तानन्तसंसारा विश्वदुःखशताकुलाः ।।२७१८।। अर्थ-जो जीव प्राचार्य वा गुरु से सदा प्रतिकुल रहते हैं, जो दीर्घमिथ्यात्व को धारण करते हैं, जो तीन मोह से घिरे हुए हैं, जो दुष्ट हैं, आतरौद्र परिणामों को धारण करते हैं, मद से मवोन्मत्त हैं, जो कुशीली हैं, ऐसे जीव बिना समाधि के मर कर अनंत संसार में परिभ्रमण किया करते हैं और सब तरह के सैकड़ों महा दुःखों से घ्याकुल रहते हैं ॥२७१७-२७१८।। कैसे जीब संसार से शीघ्र पार हो जाते हैंजिनवाचनुरक्ता ये गुरूपा भक्तितत्पराः। शुद्धभावाः सदाचारा रत्नत्रर्यायमूषिताः ।।२७१६॥ गुर्वाशापालकुदिक्षा घमण्यानसमाधिना । उसमं मरणं यान्ति स्पुस्ते संसारपारगाः ॥२७२०॥ अर्थ-जो जीव जिनवाणी में सदा अनुरक्त रहते हैं, गुरुओं की भक्ति करने में तत्पर रहते हैं, शुद्ध भावों को धारण करते हैं, समाचार पालन करते हैं, रत्नत्रय से सुशोभित हैं, गुरु की आज्ञा को सदा पालन करते रहते हैं और जो चतुर हैं, ऐसे जीव धर्मध्यान और समाधि पूर्वक उसम मरण को प्राप्त होते हैं और शीघ्र ही संसार से पार हो जाते हैं ॥२७१६-२७२०॥ दुर्मरण से मरने का फलबालवालाशुभानमत्युन्मरिष्यन्तिचाहूंश्च ते । जिनवाण्यं न जानन्ति बराका येऽशवंचिता। ॥२१॥ स्वान्यशस्त्राविधानविषाविभक्षणेन च । जलानलप्रवेशाम्यामनाचाराविकोटिभिः ।।२७२२॥ उच्छ्वासरोधनाचं दुमृतिस्वस्यकुर्वते । जन्ममृत्युभरादुःखौघस्तेषां वर्ड तेतराम् ॥२७२३।। अर्थ-जी जीव अनेक बार अत्यन्त अशुभ ऐसे बालबालमरण से मरते हैं, जो ज़िनवचनों को मानते ही नहीं, जो नीच हैं, पाप से ठगे हुए हैं, जो अपने ही शस्त्र से या दूसरे के शस्त्र धातसे मरते हैं या विषभक्षण से मरते हैं, जलमें डूबकर वा अग्नि Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४१६) [ दशम अधिकार में जलकर मरते हैं वा करोड़ों अनाचारों के कारण श्वास रोक कर मरते हैं, इसप्रकार जो दुर्मरण से मरते हैं, उनके जन्म-मरण-जरा आदि अनेक दुःखों के समूह निरंतर बढ़ते रहते हैं ।।२७२१-२७२३।। आचार्य क्षपक को बालबालमरण का स्वरूप उसके त्याग हेतु समझाते हुये पंडितभरण की प्रेरणा उद्व गभयसंक्लेशरुषिस्त्रिजगत्स्वपि । त्रिसस्थावर जीवेषु पराधीनतया त्वया ॥२७२४।। मरणानि ह्यनन्तानिबालबालाशुभानि च । अन्यः प्राप्तानि च सर्वरक्षार्बोधिदूरगैः॥२७२५।। अर्थ-हे क्षपक | इस ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक रूप तीनों लोकों में तथा त्रसस्थावर प्रादि अनेक जीव योनियों में पराधीन होकर उट्ठग भय और संक्लेश रूप परिणामों से अनंतबार अशुभ बालबालमरण किये हैं तथा इसीप्रकार रत्नत्रय से रहित और जीवों की रक्षा करने में अंधे ऐसे अन्य समस्त जीवों ने अनंतयार बालबालमरण किये हैं ।।२७२४-२७२५॥ क्षपक त्रियोगद्धि पूर्वक ४ आराधना को शुद्धि करता हैज्ञात्वेति क्षपकेह स्वं भूयस्वाखिलयत्नतः । पण्डितेनमुदायेनमुत्युघ्नपचभविष्यसि ।।२७२६।। इत्याचार्योपदेशेन योग्यस्थाने महादिक । समाधिसिद्धये युक्त्यासंस्तरं स प्रपद्यते ।।२७२७।। अर्थ-यही समझकर हे क्षपक तू प्रसन्न होकर प्रयल पूर्वक पंडितमरण से मर जिससे कि तेरा जन्ममरण सदा के लिये नष्ट हो जाय । इसप्रकार प्राचार्य का उपदेश सुनकर वह भपक अपनी समाधि धारण करने के लिये युक्तिपूर्वक किसी मठ आदि योग्य स्थान में अपने बनाये हुये सांथरे पर पहुंचता है ॥२७२६-२७२७।। क्षपक ४ आराधना की शुद्धि एवं धारण करने के लिये कैसा चितवन करता हैतदेवाराथनाशुद्धोश्चतुविधागादिकाः । मनोवाक्कायसंशुवधा कतुंमारभतेसुधीः ।।२७२८।। शंकादिवोषदूरस्थाः सद्गुणाष्टविभूषिताः । धर्मरत्नलनीमेस्तु विशुदिई ढापरा ।।२७२६।। सर्वज्ञध्वनिसम्भूतास्वांगपूर्वादिगोचरा । शुरुया भवतुमेशामाराधनाचारपूर्विका ।।२७३०|| त्रयोदशविधा पूर्णा प्रतः समितिगुप्तिभिः । सर्वः बोपातिगा चास्तुचारिबाराषनामम् ।।२७३१॥ समस्तेच्छामिरोधोत्यां तपः पाराषमापराम् । उप्रोनाल्या विषड्मेवां कुर्वहं कर्महानये ।।२७३२।। ___ अर्थ-तदनंतर वह बुद्धिमान मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक सम्यग्दर्शन आदि चारों प्रकार की प्राराधनाओं को शुद्धि करना प्रारंभ करता है। वह चितवन करता है कि शंकाविक दोषों से रहित तथा निःशंकित प्रादि माठों गुणों से सुशोभित Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४२०) [ दशम अधिकार और धर्मरत्न की खानि ऐसी सम्यग्दर्शन को विशुद्धि मेरी सवा उत्कृष्ट और दृढ़ बनी रहे । जो ज्ञानाराधना भगवान सर्वज्ञदेव को दिव्यध्वनि से प्रगट हुई है, जो ग्यारह अंग और बारह पूर्व के धोबर है। एक कापार धूर्षः मेरी ज्ञानाराधना सदा शुद्धि बनी रहे। पांच महायत तीनगुप्ति और पांच समितियों से परिपूर्ण ऐसी तेरह प्रकार की मेरी चारित्राराधना समस्त दोषों से रहित हो । मैं अपने कर्म नष्ट करने के लिये समस्त इच्छाओं के निरोध करने से उत्पक्ष हुई तथा धोर वा उग्र उग्न रूप को धारण करने घाली और बारह प्रकार के भेदों से सुशोभित ऐसी तप आराधना को धारण करूंगा। ॥२७२८-२७३२॥ पुनः क्षपक ४ महा आराधना को धारण करता हैपाराधनाइमासारामहतोश्चचतुविषाः। सर्वोत्कृष्टाः करोत्येष विशुद्धामुक्तिमातृकाः ॥२७३३।। अर्थ-इसप्रकार चितवन करता हुआ वह क्षपक मोक्ष की इच्छा देनेवाली, अत्यन्त विशुद्ध, सर्वोत्कृष्ट और सारभूत ऐसी इन चारों प्रकार की महा पाराधनाओं को धारण करता है ॥२७३३॥ क्षपक पुनः कषाय एवं काय का सल्लेखना करता हैतथाकषायकायाभ्यां द्विधासल्लेखनां कृती । विधत्ते भुवि निःशल्पः क्षमातेषादिभिः परः ॥३४।। अर्थ-तदनंतर शस्यरहित वह बुद्धिमान वह क्षपक क्षमा संतोष आदि श्रेष्ठ गुणों को धारण कर कषाय और काय बोनों की सल्लेखना करता है अर्थात् कषायों को घटाता है और शरीर से ममत्व का त्याग करता है ।।२७३४।। कषाय सल्लेखना करने की विधिप्रादौ कुर्यास्कषायारणा परां सल्लेखनामिति । क्षमेहं विश्वजीयानामपराधकिलाजसा ।।२७३५॥ कृतं मयापराधं में क्षम्यतांत्रिजगज्जनाः। सर्वभूतेषु मंत्री च ममास्तुसुखकारिणी ॥२७३६।। अर्थ-वह क्षपक सबसे पहले कषायों की सल्लेखना करता है वह कहता है कि मैं समस्त जीवों के अपराध को क्षमा करता हूं तथा मुझसे जो अपराध बने हों, उनको लीनों लोकों के समस्त जीव समा कर देखें । तथा सुख देनेवाली मेरी मंत्री समस्त जोषों में हो ॥२७३५-२७३६॥ पुनः भपक सम्पूर्ण विकारों का त्याग पूर्वक समस्त पदार्थों में निर्ममत्व भाव धारण करता है पुरणानुरागएषालं न घर केम वित्समम् । राग कवायसम्बन्ध प्रद्वेषहर्षमंगसा ॥२७३७॥ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप ] ( ४२१ ) [ दशम अधिकार अर्थ -- समस्त गुणों में मेरा रखता, दोन भावं भयं शोकं सोत्सुकत्वं कुचिन्तनम् । कालुष्यं कृत्स्नमुर्ध्यानंस्नेहं रत्यरतिद्वयम् ।।२७३८ ।। जुगुप्सादिकमन्यद्वा विशुद्धधा व्युत्सृजाम्यहम् । सर्वभूतदयाचितः शत्रु मित्रादिवजितः ।। २७३६|| ममत्वं निजबेहाथी जहामि सर्वथालिन् । निर्ममत्वं सदा चितेप्रकुर्वे त्रिजगत्स्वपि ॥। २७४० ॥ अनुराग हो, मैं किसी के साथ बैरभाव नहीं मैं राग को, कषायों के संबंध को द्वेष को हर्ष को दीनतारूप परिणामों को, भय, शोक को, उत्सुकता को, अशुभध्यान को, कलुषता को, सब तरह के दुध्यन को, स्नेह को, रति तथा अरति को, जुगुप्सा को तथा और भी कर्म जन्य जो आत्मा के विकार हैं, उन सबका मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक त्याग कर देता हूं। मैं अपने हृदय में समस्त जीवों के लिये दया धारण करता हूं, तथा सबसे शत्रुता वा मित्रता का त्याग करता हूं। मैं अपने शरीर से भी ममत्व का सर्वथा त्याग करता हूं, मैं तीनों लोकों के समस्त पदार्थों में निर्ममत्व धारण करता हूं ।।२७३७-२७४०।२ अपक किस प्रकार का आत्म-चितवन करता है थाकालम्बनमेऽस्तुसाद्धं दृगादिसद्गुणं । सं बिना त्रिजगज्जालं सर्वद्रव्यंत्यजाम्यहम् ।।२७४१।। प्रात्मैव मे परं ज्ञानमात्मा क्षायिकवर्शनम् । श्रात्मा परमचारिप्रत्याख्यानं व निर्मलम् | २७४२ ॥ प्रात् सकलो योग श्रात्मैवमोक्षसाधनः । यतोऽगुणाः सन्ति विनात्मानं न जातुचित् । २७४३ ॥ एकratfar देही के उत्पद्यले विधेः । एका भ्रमति संसारे एकः शुद्धधति नोरनाः ।। २७४४॥ एको मे शाश्वतात्मा ज्ञामवर्शनलक्षणः । शेषा मेंगादयोभावा बाह्याः संयोगसम्भवाः ॥४५ अर्थ-ब मैं सम्यग्दर्शन आदि गुणोंके साथ साथ एक आत्मा का ही श्राश्रय लेता हूं, उसके सिवाय तीनों लोकों में भरे हुए समस्त द्रव्यों का मैं त्याग करता हूं । मेरा यह आत्मा ही परम ज्ञान है, श्रात्मा ही क्षायिक सम्यग्दर्शन है, श्रात्मा ही परम चारित्र है और आत्मा ही परम निर्मल प्रत्याख्यान है । मेरा यह श्रात्मा ही समस्त योग रूप हैं और यही श्रात्मा मोक्ष का साधन है । क्योंकि आत्मा में जितने गुण हैं वा मोक्ष के कारणभूत जितने गुण हैं वे बिना आत्मा के कभी हो हो नहीं सकते हैं। यह प्राणी इस संसार में कर्म के निमित्त से अकेला ही भरता है, अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही परिभ्रमण करता है और कर्म रहित होकर अकेला ही शुद्ध होता है । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानस्वरूप यह मेरा एक आत्मा ही नित्य है, बाकी के शरीराविक जिसने मेरे बाह्य भाव हैं वे सब मुझसे भिन्न हैं और सब कर्मादिक के संयोग से उत्पन्न हुए हैं ।। २७४१ - २७४५।। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४२२) [ दशम अधिकार पुनः क्षपक संयोगों का त्याग करके निंदा पूर्वक प्रतिक्रमण करता हैयेनसंयोगमूलने प्राप्तादुःखपरंपरा । मया तं कर्मजंसर्वसंयोग व्युत्सजाम्यहम् ।।२७४६।। मूलोसरगुरणादोमामध्येनाराधितागुणः । यः कश्चित्तं त्रिधादोषं गहें प्रतिकमामि च ।।२७४७।। अर्थ-जिस कर्म के संयोग से मुझे प्रनादि काल से आज तक दुःखों की परंपरा प्राप्त हुई है, उन कर्मों से उत्पन्न हुए समस्त संयोगों को मैं त्याग करता हूं। मूलगुण और उत्तरगुणों में जो कोई गुण मैंने अाराधन न किया हो उस दोष को मैं मनवचन-कायसे गर्दा करता हूं, निंदा करता हूं और उसके लिये प्रतिक्रमण करता है। ॥२७४६-२७४७॥ पुनः सात भयादि की निंदा करता हैभयान सप्लमवानष्टौ चतुः संशास्त्रिगौरवाम् । गहेंहं च त्रयस्त्रिशदाताधना हि सर्वथा ॥२७४८॥ अर्थ-- बाबों को ही निदा करता है, आठों मदों की निंदा करता हूं, चारों संज्ञाओं की निंदा करता हूं, तीनों गौरव वा अभिमानों की निंदा करता हूँ और तेतीस आसादनाओं की सर्वथा निदा करता हूं ॥२७४६।। पुनः सप्त भय एवं अष्ट मदों का त्याग करता हैइहामुत्रभयोचारणागुप्तिमृत्युभयानि च । वेदनाकास्मिकश्चते जहामि भयसप्तकम् ।।२७४६।। विज्ञानेश्वयंमाझा च कुलजासितपोबलाः । रूपं सस्सु गुणवत्रतेषु गच्छामि नो मदम् ।।२७५०।। अर्थ-इस लोक का भय, परलोक का भय, अपनी रक्षा न होने का भय, अगुप्ति ( नगर में परकोट के न होने ) का भय, मृत्यु का भय, वेदना का भय और श्राकस्मिक भय ये सात भय हैं, मैं इन सातों भयों का त्याग करता हूं । ज्ञान का मद, ऐश्वर्य का मद, पाशा का मद, कुल का मद, जाति का मद, तप का मक, बल का मद और रूप का मद ये आठ मद हैं । मैं इन गुरणों में होनेवाले सब मदों का त्याग करता हूं ॥२७४६-२७५०।। क्षषक ३३ प्रासादनावों के त्याग का संकल्प करता है-- पंचवावास्तिकायाश्चषड्जीवजातयस्ततः । महावतानिपंचप्रवचनस्याष्टमातरः ।।२७५१॥ पदार्था मन बोक्ता हि त्रस्त्रिशवितिस्फुटम् । पासावमा जिन जातु मनाक कार्यामया न भो ।५२॥ ___ अर्थ-भगवान जिनेन्द्रदेव ने पांच अस्तिकाय, छह प्रकार के जीव, पांच महावत, पाठ प्रवचन मातृकाएं नौ पदार्थ बतलाये हैं, इन सबको संख्या तेंतीस होती Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४२३ ) [ दशम अधिकार है इन तेतीसों से संबंध रखना वा इनसे ममत्व रखना इनका तिरस्कार करना इनके निमित्त से रागद्वेष उत्पन्न करना तेतीस प्रासादनाएं बतलाई हैं इन आसाइनाओं का मैं रचमात्र भी नहीं लगने दूंगा ॥२७५१-२७५२॥ ___ कैसे ध्यान पूर्वक हृदय में सल्लेखना धारण करनी चाहियेनिन्वनीमं च यत्किचित्सर्वनिन्दामि तहृदि । पहरणीयमकृत्यंयाहेतवगुरुसन्निधौ ।।२७५३।। इत्याचम्यशुभध्यानैः कृत्वा सल्लेखना यतिः ॥२७५४।। अर्थ-- इस संसार में जो कुछ निंदनीय है, उसको मैं अपने हृदय में निदा करता हूं तथा जो गहीं करने योग्य दुष्कृत्य हैं उनको मैं गुरु के समीप में गर्हा करता हूं। इसप्रकार के ध्यान से अथवा और भी शुभध्यानों से अपने हृदय में कषायों की सल्लेखना करनी चाहिये और फिर उस मुनि का काय की सल्लेखना करनी चाहिये। ॥२७५३-२७५४॥ क्षपक शरीर को कैसे कृश करेंषष्टाष्टमादिपक्षकमासाथमशनः परः। तपोभेवद्विषभिश्चशोषयेतकमतो वपुः ।।२७५५॥ अर्थ-बेला तेला करके वा पंद्रह दिन वा एक महिने का उपवास करके तया और भी तपश्चरण के बारह भेदों को धारण करके अनुक्रम से अपने शरीर को कृश करना चाहिये ॥२७५५॥ किस क्रमसे क्षपक अन्नादिक का त्याग करता है-- ततस्त्यवत्याक्रमेणाग्नस्तोकरतोकेनधर्मधीः । गृह्णाति केवलं नीर धर्मध्यानसमाधये ।।२७५६।। परवाच क्याम्पानं च परित्यज्यकरोति सः । परलोकोत्तमार्थाप छपवासाभिरन्तरम् ।।५७॥ अर्थ-तवनंतर उस धर्मबुद्धि को धारण करनेवाले यति को धर्मघ्यान और समाधि की प्राप्ति के लिये थोड़ा थोड़ा करके अन्न का सर्वथा स्याग कर देना चाहिये और केवल उष्ण जल रख लेना चाहिये । तदनंतर बह मुनि परलोक में उत्तम गति प्राप्त करने के लिये वा मोक्ष प्राप्त करने के लिये युक्तिपूर्वक जल पीने का भी त्याग कर देता है और फिर सवा के लिये उपवास धारण कर लेता है ॥२७५६-२७५७।। किस विधि से क्षपक इन्द्रिय आदि का मुंडन करता हैमुण्डनवशमुण्डामा करोत्येषुसुयक्तितः । संकोच्येन्द्रियवाक्कायमनोऽवपरपंचसात् ।।२७५८।। स्वस्वाक्षविषयेष्वा प्रातः पंचखाल्मकान् । जिस्वा शवस्था स पंचेनियमुण्डानुकुलोबलात् ।।६।। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४२४ ) अधिकार मौनेन वचसः कृत्वामुण्डनहस्तपादयोः । वषुषोरोधनयुक्त्यास्वस्वेच्छाचलनाद्वधः ॥२७६०।। निरुध्यश्रुतपाशेन भ्रमन्तं चित्तमकटम् । पंचेति मुण्डनान्येषकरोति च शिवाप्तये ॥२७६१।। अर्थ तदनंतर बह क्षपक पांचों इन्द्रिय मन-वचन-काय और शरीर की चंचलता को छोड़कर युक्तिपूर्वक वस प्रकार का मुंजन धारण करता है। पांचों इन्द्रियां अपने अपने विषयों में दौड़ लगाती हैं उनको अपनी शक्तिके अनुसार जीतकर जबर्दस्ती पांचों इन्द्रियोंको मुंडन करता है । इसीप्रकार मौन धारण कर बचन का मुंडन करता है, हाथ पैरों की क्रियाओं को रोक कर हाथ पैरों का मुंडन करता है तथा यह बुद्धिमान अपनी इच्छानुसार चलायमान होनेवाले शरीर को रोक कर शरीर का मुंडन करता है । चारों ओर कूदते हुए इस मनरूपी बंदर को भी श्रुतज्ञान के जाल में बांध कर मनका मुंडन कर लेता है । इसप्रकार मोक्ष प्राप्त करने के लिये वह यति हाथ पर शरीर मन और वचन इन पांचों का नुसन्द करना है ।। २७५:-२५६१५ मुडन के भेदपंचेन्द्रियारिमुण्डास्त्रिमण्डाहस्तांघ्रिकायजाः । मनो वचोद्विमुण्डौचामोमुण्डादशरिणताः ।२७६२१ अर्थ-पांचों इन्द्रियरूपी शत्रुओं का मुंडन, हाथ पैर और शरीर का मुंडन तथा मन और वचन का मुडन इसप्रकार आचार्यों ने दश प्रकार का मुंडन बतलाया है ।।२७६२॥ किमका मुडन व्यर्थ हैअमोभिमुराउने दीक्षासफलामुक्तिदा सताम् । एभिविनाजिलाक्षारणांशिरसोमुण्डनं वथा ।।२७६३॥ ___ अर्थ-सज्जन पुरुषों को मोक्ष देनेवाली दीक्षा इन्हीं दश मुडनों से सफल मानी जाती है । इन मुंजनों के बिना इन्द्रियों को न जीतने वाले लोगों के मस्तक का मुंडन करना व्यर्थ ही है ॥२७६३॥ अधिक भूखादि की वेदना होनेपर क्षपक किस प्रकार चितवन करता हैतस्मिनबहपवालानां करणेतीववेचना । क्षधाचं यदि आयेत सवेतिचिन्तयेत्सुधीः ।।२७६४॥ अहो विनाश्वभ्रे साध्याविश्वान्नभक्षणः । अधिनौरंस्तृषा पोडाचानुभुतामयाचिरम् ।।२७६५।। मपात्रारण्यशलादी मगाविपशुजातिषु । मृगतृष्णादिभिः प्राप्ता तीवाक्षसटफुवेदना ।।२७६६।। श्याचा अपरा धोराः क्षत्तषादिपरोषहाः । भ्रमताभवारण्येनुभूता बुस्सहा मया ॥२७६७॥ सर्वा पुद्गलराशिश्चामाचात्रभक्षिता मया । क्षत्तवाशान्तयेपीतमध्यम्बोरधिकं जलम् ॥२७६८।। तथापि न मनागासीत्तप्सिनाविभक्षणः। किन्तुमित्यंबते तीन अतफुवेरने ॥२७६९।। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] [ दशम अधिकार अर्थ-इसप्रकार उपवास धारण करने से यदि भूख प्यास की वेदना अधिक होती हो तो उस बुद्धिमान् क्षपकको भी नीचे लिखे अनुसार चितवन करना चाहिये। देखो मैंने नरकों में भूख की इतनी महा वेदना सहन की है कि यदि उस समय तीनों लोकों का समस्त अन्न खाने को मिल जाता तो भी वह मूख नहीं मिटती तथा वहाँ पर प्यास की भी इतनी वेदना सही है कि यदि तीनों लोकों के समुद्रों का जल भी पीने को मिल जाता तो यह प्यास नहीं मिटती । इसीप्रकार जंगल और पर्वतों पर हिरण आदि पशुओं की पर्याय मगतृष्णा के द्वारा अत्यन्त तीन भूख और प्यास को वेदना सहन की है। इस संसाररूपी वनमें परिभ्रमण करते हुए मैंने इनके सिवाय और भी भूख प्यास की असह्य और धोर वेदनाएं वा परीषहें सहन की है। अनादि कालसे परिभ्रमण करते हुए मैंने भूख की वेदना मिटा देने के लिये अन्न को समस्त पुद्गल राशि भक्षण करलो है तथा प्यास की वेदना मिटाने के लिये समुद्रों के जल से भी अधिक जल पी डाला है । तथापि इस अन्न जल के भक्षण करने से रंचमान भी मेरो तृप्ति नहीं हुई है, किंतु ये भूख प्यासको दोनों कुवेदनाएं प्रतिदिन बढ़ती ही जाती हैं ॥२७६४-२७६६।। काम भोग माताती हैं कर दि : त के गर । ... यथेन्धनचयरग्निः समुद्रश्च नदीशतः । तृप्ति नेति तथा जीव: कामभोगः प्रमातिगः ।।२७७०।। कांक्षितो मूच्छितो रोगो कामभोगश्चमानसे । नित्यं कलुषितोभूतो भुआनोऽपिकुमागंगः ॥७१॥ भोगान् दुष्परिणामेनश्वभ्रदुःखनिबन्धनम् । दुरन्त पापंसन्तापवघ्नाति केवलं यथा ।।२७७२॥ अर्थ-जिसप्रकार ईंधन के समूहसे अग्नि तृप्त नहीं होती और सैकड़ों नदियों से समुद्र तृप्त नहीं होता उसीप्रकार प्रमाण से अधिक काम भोगों का सेवन करनेपर भी यह जीव कभी तृप्त नहीं होता। यह जीव अपने मनमें काम भोगों के ही कारण अनेक पदार्थों की इच्छायें करता है, भूछित होता है, रोगी होता है तथा वह कुमार्गगामी भोगों को नहीं भोगता हुन्मा भी सदा कलुषित परिणामों को धारण करता है, उस कलुषितरूप अशुभ परिणामों के कारण व्यर्थ हो नरक के महा दुःखों के कारण और अत्यंत कठिन ऐसे अनेक पाप कर्मों का बंध करता है ।।२७७०-२७७२।। __ कैसे मुनि धन्य हैं पाहारस्य निमित्तन नरकं यान्ति सप्तमम् । मत्स्यायदि सतो ननमाहारोनथसागरः ।।२७७३।। पूर्व कृतसपोभ्यासश्चानिवानः शिवाप्तये । पश्चाई तकषायो यो जिस्वासर्वान परीषहान् ।।७४।। अतषाविभवास्तीवान साधयेन्मरणोत्तमम् । धन्यःसएवलोकेऽस्मिनसायंतस्यतपोखिसम् ॥७५।। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] (४२६ ) .. [ दशम अधिकार ___ अर्थ-देखो इस प्राहार के ही निमित्त से बड़े-बड़े मत्स्प सातवें नरक तक पहुंचते हैं, इसलिये कहना चाहिये यह आहार ही अनेक अनों का समुद्र है । जिन्होंने पहले बहुत से तपश्चरण का अभ्यास किया है तथा कभी निवान किया नहीं है और मोक्ष प्राप्त करने के लिये जिन्होंने कषायों को नष्ट कर भूख प्यास आदि से होनेवाली समस्त तीव्र परीषहों का सहन किया है तथा अंत में जिन्होंने उत्तम पंडितमरण सिद्ध कर लिया है वे ही मुनि इस संसार में धन्य हैं और उन्हीं का समस्त तपश्चरण सार्थक है ।।२७७३-२७७५॥ कैसे मुनि संसार समुद्र में डूबते हैंपूर्वकृततपोधोराः प्रतिपालितसव्रताः । पश्चात्कर्मगुरुस्वेनावाद्यतिपरीषहः । २७७६।। ये पतन्तिरवर्यादेत्युकाले भवार्णवे । मज्जनंनिश्चितं तेषां वृथातपोयमादिकम् ॥२७७७।। अर्थ-जिन्होंने पहले घोर तपश्चरण किये हैं और श्रेष्ठ व्रतों का अच्छी तरह पालन किया है, परंतु पोछे कर्मों के तीन उदय से क्षुधादिक कठिन परीषहों के कारण मरण के समय में अपने धैर्य से गिर जाते हैं वे इस संसाररूपी समुद्र में अवश्य डूबते हैं तथा उनका तप यम प्रादि सब व्यर्थ समझा जाता है ॥२७७६-२७७७॥ क्षपक क्षुधादि परीषहों को सहता हैइत्यादिचिन्तनैरेपोत्रासेम्यः शुद्धचेतसा । सहत्तेपरयाशक्त्यानुषातृषादिवेदनाम् ।।२७७६।। अर्थ- इसप्रकार शुद्ध हृदय से चितवन करता हुआ वह पति कभी क्षुब्ध नहीं होता और अपनी परम शक्ति प्रगट कर क्षुधा तृषा आदि परीषहों को सहन करता है। ॥२७७॥ क्षपक को पूर्व में किये गये भ्रमण के चितवन की प्रेरणाशुष्काघरोवरस्यास्यक्षीणमात्रस्ययोगिमः । चर्मास्थिमात्रशेषस्यकाठिन्यसंस्तरेण च ।।२७७६।। उत्पद्यतेमहायुःखपषमानसे तदा । चिन्तयेत्प्राक्तनस्वस्य भवनमरणमंजसा ।।२७१०।। ___ अर्थ-जिसके ओठ पेट सब सूख रहे हैं, जिसका शरीर अत्यंत क्षीण हो रहा है और केवल हड्डी चमड़ा ही बाकी रह गया है, ऐसे उस क्षपक योगी को कठिन सांथरे का महा दुःख उत्पन्न होता है, उस समय उसको अपने हृदय में पहले किए हुए संसार के परिभ्रमण का चितवन करना चाहिये ।।२७७६-२७८०॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४२७) [ दशम अधिकार किस प्रकार के चितवन से क्षपक संस्तर की वेदना को सहन करते हैंमहोजसस्थलाकाशेकटकाविभवाभधि । प्राग्भवे वसता भक्तामहतीवेदनामया | २७६१॥ वनकंटकसंकीर्णश्व परवशेम भोः। स दुःखंषसितंपापच्चिरकालमयविधेः ।।२७८२॥ कियन्मात्रा ततोत्रेयवेवनासंस्तरादिजा। विचित्येति सदुःखंसहतेसंस्तरोलपम् ।।२७८३॥ अर्थ-उसको चितवन करना चाहिये कि देखो पहले भवों में मैंने जल, स्थल, प्राकाश और पर्वतों पर निवास किया है तथा उनसे उत्पन्न हुई अनेक महा वेदनाएं मैंने सहन की है । कर्म के परवश हुए मैंने पापकर्म के उदय से वन्नमय कांटों से भरे हुए नरक में चिरकाल तक निवास किया है और वहांपर अनेक महा दुःख भोगे हैं। फिर भला यह कठिन संस्तर से उत्पन्न हुई वेदना कितनी है, यही चितवन कर वह क्षपक कठिन संस्तर से उत्पन्न हुए समस्त दुःखों को सहन करता है ॥२७८१-२७८३।। क्षाक क्या करके मनको निराकुल बनाता हैइत्यादिसद्विचाराचं निधर्मशतः परः । परमेष्ठिपबध्यानरनुप्रेक्षापंचिन्सनैः ॥२७६४।। प्रागमामृतपानरम तर्पयित्वा निजमनः । स्वस्थं कुर्यात्स तत्त्वज्ञः स्वात्मध्यानसमाधये ।।२७५५।। अर्थ-तत्वों को जाननेवाला वह क्षपक अपने आत्म ध्यान और समाधि के लिये ऊपर कहे अनुसार श्रेष्ठ विचारों को धारण कर, सैकड़ों उत्कृष्ट धर्मध्यानों को धारण कर, परमेष्ठी के चरण कमलों का ध्यान कर अथवा परमेष्ठी के वाचक पदोंका ध्यान कर या अनुप्रेक्षाओं का चितवन कर अथवा आगमरूपी अमृत का पान कर अपने मनको संतुष्ट करता है और उसको सब तरह से निराकुल बना लेता है ॥२७८४२७८५॥ निराकुल मन वाला क्षपक किसका ध्यान करता हैनिर्विकल्पमनाः ध्यानी चिदानन्दमयंपरम् । च्यातुमारमतेचित्ते परमात्मानमंजसा ॥२७८६॥ अर्थ- जिसका मन सब तरह के संकल्प विकल्पों से रहित है, ऐसा ध्यान करनेवाला वह क्षपक शीघ्र ही अपने मनमें चिदानंदमय सर्वोत्कृष्ट परमात्मा का ध्यान करना प्रारम्भ करता है ॥२७८६॥ अभ्यन्तर योग धारण करने की प्रेरणाअस्मिन्नवसरे योगी कोणवेहपराक्रमः । बाह्ययोगविधातु सोऽशक्तः सन्नपि धोधनः ।।२७८७।। योगमन्यन्सरं सारं सर्वाराधनपूर्वकम् । एकचिलेममुक्त्यर्थं विषसनिरन्तरम ॥२७॥ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४२८ ) [ दशम अधिकार अर्थ- जिसका शरीर और पराक्रम क्षीण हो गया है ऐसा वह बुद्धिमान योगी यदि उस समय बाह्य योग धारण करने में असमर्थ हो जाय तो फिर मोक्ष प्राप्त करने के लिये उस योगी को एकाग्रचित्त से निरन्तर समस्त आराधनाओं की आराधना पूर्वक सारभूत अभ्यन्तर योग धारण करना चाहिये ।।२७०७-२७८८।। पञ्चपरमेष्ठी वाचक पदके चितवन की प्रेरणाएतस्मिन्समयेवोवादया।गाखिनागमम् । चित्तें चिन्तयितु धीरः सोऽशक्तोपिमहामनाः ।।२७६॥ सर्वसिद्धान्तमूलंयत्पदमेकरयादिकम् | सारं तच्चिन्तयेच त्या प्रशस्तध्यानसिद्धये ॥२७६०॥ अर्थ-यवि उस समय वह महामना धीर वोर चतुर क्षपक अपने मनमें द्वादशांग श्रुतनान को चितवन करने में समर्थ न हो तो उसको प्रशस्त ध्यान की सिद्धि के लिये समस्त सिद्धांतों का मूलकरण और सारभूत ऐसा पंचपरमेष्ठी का वाचक एक पद का वा दो पद का युक्तिपूर्वक चितवन करना चाहिये ।।२७८६-२७६०॥ क्षपक को दुष्ट व्याधि मानेपर कैसी औषधि सेवन करना चाहियेक्षीणगारे तदा तस्य दुधियितेवदि । सोधपाकेततबाम्य होवं गृह्णाति धौषधम् ॥२७६.१॥ अर्थ-कदाचित् पापकर्म के उदयसे उस समय उस क्षपक के क्षीण शरीर में कोई दुष्ट व्याधि उत्पन्न हो जाय तो उसको दूर करने के लिये उस क्षपक को नीचे लिखे अनुसार औषधि ग्रहण करनी चाहिये अर्थात् नीचे लिखे अनुसार चितवन करना चाहिये ॥२७६१।। क्षपक को जिनवचन रूपी अमृतरस का ग्रहण करने की प्रेरणाजिनेन्द्रवचनं तथ्यं जन्ममृत्युपरास्तकम् । रोगग्लेशहरयत्स्याद्विश्वदुःखक्षयंकरम् ॥२७६२।। प्राह्य तखिमयासारं रोगक्लेशातशान्तये । जन्मादिदाहनाशायसुधारसमियोजितम् ।।२७६३॥ अर्थ-उसे चितवन करना चाहिये कि इस संसार में भगवान जिनेन्द्र देव के वचन ही तथ्य हैं वे ही जन्म मरण और बुढ़ापे को नष्ट करनेवाले हैं, रोग और क्लेश को दूर करनेवाले हैं और समस्त दुःखों को क्षय करनेवाले हैं । अतएव रोग और क्लेर्मो के दुःखों को दूर करने के लिये और जन्ममरण का संताप शांत करने के लिये उत्कृष्ट अमृतरस के समान सारभूत जिनवचन मुझे ग्रहण करने चाहिये ॥२७६२-२७६३॥ क्षपक रोगों से उत्पन्न क्लेशों को शांत करने के लिये किसकी शरण लेता हैअस्मा द्रोगभवाले शायरथामिसंप्रति । सहित्सिवसाधूनाशरण्यानावगरसताम् ॥२५॥ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४२६ । [ दशम अधिकार केलिप्रोक्तधर्मस्यशरण्यस्याखिलापदि । तपोरस्तत्रयादीनां विश्वसातारिघातिनाम् ॥२७६५।। अर्थ-अब मैं इन रोगों से उत्पन्न हए क्लेशों को शांत करने के लिये तोनों लोकों के सज्जनों को शरणभूत ऐसे समस्त प्ररहत सिद्ध और साधुओं को शरण लेता हूं तथा समस्त प्रापत्तियों में शरणभूत ऐसे केवली भगवान के कहे हुए घमं की शरण लेता हूं और समस्त दुःखरूपी शत्रुओं को नाश करनेवाले तप और रस्नमय की शरण लेता हूं ॥२७६४-२७६५॥ रत्नत्रय आदि शरणभूत क्यों ? पतो लोकोसमा ये ते विश्वमंगलकारिणः । शरण्या भध्यजीयानाममापिसन्तुसिद्धिदाः ॥२७६६।। अर्थ-क्योंकि संसार में ये हो लोकोत्तम हैं, ये हो समस्त मंगल करनेवाले हैं और ये ही भव्य जीवों को शरण हैं । इसलिये ये सब मेरे लिये भी समस्त कार्यों की सिद्धि करें अथवा मुझे सिद्ध अवस्था प्रदान करें ॥२७६६॥ धीर वीरता के साथ रोमादि सहना हो श्रेष्ठ हैधीरत्वेनापि मर्तव्यं कातरत्वेन वा यदि । कातरत्वं सुवा त्यक्त्वा धीरत्वे मरणं वरम् ।। २७६७॥ घोरत्वेनापिसोडव्यं रोगादिफर्मजं फलम् । कातरस्वेन वा पुंसां धीरत्वेन बरं च यत् ।।२७६८।। अर्थ-वेखो मरना धीर वीरता के साथ भी होता है और कातरता के समय (रो रो कर) भी होता है। परन्तु कातरता का त्याग कर धोरवीरता के साथ भरण करना अच्छा है, इसीप्रकार रोग क्लेश कर्मों का फल धीरवीरता के साथ भी सहन किया जाता है और कायरता के साथ भी सहन किया जाता है, परन्तु कायरता को छोड़कर धीरवीरताके साथ रोग वा क्लेशों को सहन करना मनुष्यों के लिये हितकारक है ॥२७६७-२७६।। शील पूर्वक मरण करना ही श्रेष्ठ हैशोलेनाप्पत्र मतव्यं निःशीलेनापिचेत्सताम् । निःशीलत्वं परित्यज्य शोलने मरनवरम् IIEIL अर्थ-इसीप्रकार शीलादिक व्रतों को धारण कर भी मरण होता है और बिना सील व्रतोंको धारण किये भी मरण होता है, परंतु सज्जन पुरुषों को निःशीलता का त्याग कर शील धारण कर मरना अच्छा ।।२७६६॥ पुनः क्षपक को मन स्थिर करने की प्रेरणाइत्यादिचिन्सनयानः कुर्वम् स स्वननःस्थिरम् । ददाति चातुगन्तुं न मनालासतिषिम् ॥ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४३०) [ दाम अधिकार अर्थ-उस क्षपक को इसप्रकार चितवन कर तथा ध्यान धारण कर अपने मन को स्थिर रखना चाहिये और अपने मन को क्लेश और दुःखों के समीप रंचमात्र भी नहीं जाने चाहिये ॥२८००॥ निरोहवृत्ती धारक क्षपक महा लोभ के लिये कैसी उत्तम याचना करता हैतदासोति निरोहोपिमहालोभकृतोद्यमः। उत्तमामुत्तमाप्त्यियांचाकुर्यादिमांभुवि ।।२८०१।। अहंतांवीतमोहानामकाथनां च या गतिः । पंचमीनिलगत्प्राा सा मे भवतुशमणे ।।२८०२।। सोयशसिद्धनिर्मोहयोगिनां ये परागुणाः । अनन्तज्ञानदृष्टयाद्यास्ते मे सन्तुशिवाप्तये ॥२८०३॥ अर्थ-उस समय यद्यपि वह क्षपक निरीह वृत्ति को धारण करता है तथापि वह किसी महा लोभ के लिये उद्यम करता है और इसीलिये वह उत्तम अर्थ अर्थात् मोक्षकी प्राप्ति के लिये नीचे लिखे अनुसार सबसे उत्तम याचना करता है । वह याचना करता है कि भगवान वीतराग अयोगकेवलो अरहंतदेव को जो तीनों लोकों के द्वारा प्रार्थनीय पंचम गति होती है वही सुख देने के लिये मुझे प्राप्त हो । भगवान तीर्थकर परमदेव, भगवान सिद्ध परमेष्ठी और मोह रहित मुनियों जो अनंतज्ञान, अनंतदर्शन आदि उत्सम गुण हैं वे सब मोक्ष प्राप्त होने के लिये मेरे आत्मा में प्रगट हों ॥२८५१२६०३॥ क्षपक को उत्तम याचना के लिये कैसा चितवन करना चाहियेरस्मत्रमयुता बोषिःसमाधिः शुक्लपूर्वकः । यावधास्याम्यहं मोक्ष तावन्मस्तु भवेभवे 11२८०४।। अमोभिर्दु डराधारः कृत्स्नदुष्कर्मणांक्षयः । चतुर्गतिजदुःखानां मे वास्तुमुक्तिहेतवे ।।२०५॥ जिननाथजगत्पूज्य देहि त्व सन्मृतिमम् । प्रधुना त्यगुणानसर्वास्त्वद्गसिंचाशुभक्षयम् ।।२८०६॥ ___ अर्थ-जब तक मैं मोक्ष प्राप्त न कर ल तब तक मुझे भवभव में रत्नत्रय सहित बोधि को प्राप्ति होती रहे और शुक्लध्यान पूर्वक समाधि की प्राप्ति होती रहे । मैंने जो मोक्ष प्राप्त करने के लिये कठिन-कठिन तपश्चरण किये हैं, उनके फल से मेरे समस्त कर्मों का नाश हो तथा चारों गतियों के समस्त दुःखों का नाश हो । हे जिननाथ ! हे जगत्पूज्य ! आप मुझे इस समय श्रेष्ठ मरण देखें, अपने सब गुण देवें, अपनी सब सद्गति देखें और मेरे सब अशुभों को नाश करें। इसप्रकार उस क्षपक को चितवन करना चाहिये ।।२८०४-२८०६॥ मृत्यु के निकट आनेपर पञ्चपरमेष्ठी का जग एवं ध्यान करने की प्रेरणामुत्ययस्यां कमानाप्य परमेष्ट्मास्यसत्पदाम् । पंचवात्रजपेद्वाघासचकव्याक्सित्पबम् ॥२८०७३ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुलाचार प्रदीप ] ( ४३१ ) [ दशम अधिकार यदि सन् जपितु योगो सोऽसमर्या गिरा तथा । ध्यायेत्पंच नमस्कारश्चेतसा परमेष्ठिनाम् १२८०८ | अर्थ - इसप्रकार चितवन करते हुए उस क्षपक की यदि मृत्यु अवस्था अत्यंत समीप श्रा जाय तो उसे अपने वचन से परमेष्ठी के वाचक पांचों श्रेष्ठ पदों का जप करना चाहिये अथवा किसी भी एक दो पद का जप करना चाहिये । यदि वह योगी उन परमेष्ठी के वाचक पदों को उच्चारण पूर्वक जप करने में असमर्थ हो जाय तो उसको अपने हृदय में ही पंचपरमेष्ठी के त्ाचक पंच नमस्कार मंत्र का ध्यान करना चाहिये ।। २८०७-२८०८६ ।। क्षपक किस प्रकार प्राणों का त्याग करे - इत्यादिसर्वयत्नेनध्यामन् जपन्पवोत्तमान् । कुर्वन् वा स्वात्मनोध्यामंसृण्वन् निर्यापैकास्यजान् ॥ सारधर्माक्षरान् ध्यानी निःशल्योनिर्भयः सुधीः । ध्यानाम्यां धर्मशुक्लाभ्यां स्वजेत्प्राणान्समाधिना ॥ अर्थ - इसप्रकार शल्य रहित, भय रहित, ध्यान करनेवाले उस बुद्धिमान् क्षपक को ऊपर लिखे अनुसार सब तरह के प्रयत्न पूर्वक पंच परमेष्ठी के वाचक उत्तम पदों का जप करते हुए, ध्यान करते हुए, वा श्रपने आत्मा का ध्यान करते हुए अथवा उन निर्यापकाचार्य के मुखसे निकले हुए सारभूत धर्म के अक्षरों को सुनते हुए धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान को धारण कर समाधि पूर्वक अपने प्राणों का त्याग करना चाहिये । ॥२८०६-२६१०॥ श्रेष्ठ मृत्यु को सिद्ध करनेवाले क्षपक मरकर कहां उत्पन्न होता है ततोसौ शुद्धिमानोऽहमिन्द्रपदभूजितम् । नाकं सर्वार्थसिद्धि वा गच्छेत् सम्मृतिसाधनात् ।। २८११॥ अर्थ - तदनंतर अत्यंत शुद्ध अवस्था को प्राप्त हुआ वह क्षपक श्रेष्ठ मृत्यु को सिद्ध कर लेने के कारण उत्कृष्ट अहमिद्र पद प्राप्त करता है या सर्वार्थ सिद्धि में उत्पन्न होता है अथवा स्वनों में उत्तम देव होता है ॥२८११॥ समाधिमरण से उत्पन्न श्रेष्ठ धर्म से किसकी प्राप्ति होती है- सन्यासोस्थ सुधसुदेवनगतोसुखम् । महत्त्रिभवपर्यन्तंसुरेशचक्रसूतिजम् ॥ २६१२ ॥ भुक्त्वाहस्यास्वकर्माणि तपसस्यान्तिनिर्वृतिम् । पण्डिता मुनयः प्राप्यह्मष्ठसिद्धगुणान् परान् ॥ अर्थ - इस समाधिमरण से उत्पन्न हुए श्रेष्ठ धर्म से विद्वानों को वा मुनियों को उत्तम क्षेत्र गति वा उत्तम मनुष्यगति में सर्वोत्तम सुख मिलते हैं तथा तीन भव तक a ra और चक्रवर्ती की विभूतियों का अनुभव कर अंत में अपने तपश्चरण के द्वारा Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४३२) [ दशम अधिकार समस्त कर्मों को नष्ट कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं और सिद्धों के आठों परमगुणों को प्राप्त कर लेते हैं ।।२८१२-२८१३॥ " जघन्य प्राराधन का फल मन्याराधना येषां तेऽपि भुक्त्वा परंसुखम् । सप्ताभवपर्यन्तंहिगीयान्तिनि तिम् ।।२९१४।। - अर्थ-जो भव्य जीव जघन्य रीति से आराधनाओं की आराधना करते हैं वे भी सात पाठ भव तक परम सुखों का अनुभव करते हैं और अंत में कर्मों को नष्ट कर मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥२८१४॥ उत्तम मरण को सिद्ध करने की प्रेरणाइतिशास्था फलं सारं मरणस्योसमस्य च । साधयन्तुविदोषस्नाशिवायमरणोत्तमम् ॥२८१५।। अर्थ---इसप्रकार उत्तममरण का ऐसा अच्छा फल समझकर विद्वान लोगों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये प्रयत्न पूर्वक उत्तम मरण को सिद्ध करना चाहिये । ॥२८१५॥ सर्प काटने आदि उपसगं के आनेपर दो प्रकार के सन्यास धारण करने की प्रेरणायविसर्पविषाांश्च चौपसर्गेन पादिजः । मरणं जायते स्वस्य ससन्देहं तदासुधीः ॥२८१६॥ समासेन अगजन्तुन अममित्या स्वमानसे । कृतकारिसयोषादीविनिसानिन्दनादिभिः ॥२८१७।। भूत्यासवंत्रनिःशल्योनिर्ममत्वंविधाय च । सन्यास निषिधंहीवगृह्णातिशिवसिद्धये ।।२८१८॥ अर्थ---यदि सर्प काट ले वा विष भक्षण करले वा राजा आदि का घोर उपसगं प्रा जाय और अपने मरने में सन्देह हो जाय तो उस बुद्धिमान को संक्षेप से ही अपने मन में संसार के समस्त प्राणियों को क्षमा कर देना चाहिये, तथा कृत, कारित, अनुमोदना से हुए समस्त दोषों की निधा गर्दा के द्वारा पालोचना करनी चाहिये तथा सर्वत्र शल्यरहिल, ममत्वहित होकर मोक्ष प्राप्त करने के लिये नीचे लिखे अनुसार दोनों प्रकार का सन्यास धारण करना चाहिये ॥२८१६-२८१८।। पहले सन्यास मरण धारण करने का स्वरूप--- अस्मिनदेशेऽवधौकाले यदि मे प्राणमोचनम् । तदास्तु जन्मपर्यन्तंप्रत्याख्यानं चतुविषम् १२६१६ जीविष्यामिचिदाहं पुण्येनोपद्रवात्परात् । करिष्ये पारणे नूनं धर्मघारित्रसिद्धये ।।२८२०॥ अर्थ-उसको पहला सन्यास तो इसप्रकार धारण करना चाहिये कि इस देश में इसने काल तक यदि मेरे प्राण निकल जांय तो मेरे जन्म पर्यत चारों प्रकार के Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप] ( ४३३ ) [ दशम अधिकार आहार का त्याग है । तथा दूसरा सन्यास इसप्रकार धारण करना चाहिये कि यदि मैं अपने पुण्य से इस घोर उपद्रव से कदाचित बच जाऊंगा तो मैं धर्म और चारित्न की सिद्धि के लिये इतने काल के बाद अवश्य ही पारणा करूगा ।।२८१६. २८२०॥ तीन प्रकार के आहार के न्याग की विधियदि नोरं बिनाप्रत्याख्यानमावातुमिच्छति । तदा समाधयेस्वास्येदंप्रत्याख्यानमाचरेत् ॥२८२१॥ प्रत्याख्यामि बिना नीर चतुर्धाहारमामृतौ। अन्तर्वाहोपधीन सर्वान् सावध त्रिविषेन च ॥२२॥ यः कश्चिदुपधिर्मेब्राह्मोवाभ्यन्तरोऽशुभः । समाहारं शरीरं च पावजीवं त्यजाम्यहम् ।२८२३।। अर्थ-पदि वह क्षपक उस समय पानी को रखना चाहता है, पानी को छोड़ कर बाकी का त्याग करना चाहता है तो उसे अपनी समाधि धारण करने के लिये नीचे लिखे अनुसार प्रत्याख्यान वा त्याग करना चाहिये । मैं अपने मरण पर्यंत पानी को छोड़कर बाकी के चारों प्रकार के आहारों का त्याग करता हूं तथा मैं मन-वचन-काय से अंतरंग और बाह्य समस्त परिग्रहों का त्याग करता हूं और समस्त पापों का त्याग करता हूँ। इस समय मुझसे संबंध रखने वाला जो अशुभ बाह्य और प्रभ्यंतर परिग्रह है, मैं उसका जीवन पर्यंत तक के लिये त्याग करता हूं तथा जीवन पयंत ही आहार और शरीर का त्याग करता हूं, शरीर से ममत्व छोड़ता हूं ॥२८२१-२८२३॥ ___ मरण के निश्चित होनेपर ४ आहार के त्याग की प्रेरणाअथवा स्यस्यनिश्चिरयमरणं प्रागतं भुवि । प्रत्याख्यानमितिमाहा वक्षः सिद्ध चतुर्विधम् ॥२४॥ अर्थ-अयवा यदि अपने मरने का अवश्य निश्चय हो जाय तो चतुर पुरुषों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये चारों प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान ग्रहण कर लेना चाहिये ॥२८२४॥ प्रथम समाधिधारण करनेवाले का पहले बतायी विधि से मरण करने की प्रेरणा एवं उसका फलएषोऽपि पूर्ववत्सर्वान् धर्मध्यानाविकान्परान् । स्वीकृत्य साधयित्वायु चतुराराधमा: पराः ।। समाधिना वपुरल्यात्वासन्यासाजिनधर्मतः । सौधर्माबिसपासिम्पन्तंघमंधीवजेत् ।।२८२६।। अर्थ-इस क्षपक को भी पहले के समान उत्कृष्ट धर्मध्यानाविक सब धारण करने चाहिये, चारों प्रकार की प्राराधनाओं को प्राराधन करना चाहिये और समाधिपूर्वक सन्यास से शरीर का त्याग करना चाहिये । इसप्रकार समाधिमरण करनेवाला Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४३४ ) [ दशम मधिकार धर्मात्मा जिनधर्म के प्रमाद से सौधर्म स्वर्ग से लेकर सर्वार्थ सिद्धि लक उत्तम देवों में जन्म लेता है ।।२८२५-२८२६।। पण्डित मरण करने का फलइलिगरावरजातंपण्डितारूपंप्रयत्नावनधारणसारं साधयेद्या स्वसिस ।। सुरनरपतिसौख्यं प्राप्पमुक्त्यंगम स श्रर्यात परमयोगात्कृतस्नकर्मारिणहत्वा ।।२८२७।। अर्थ- इसप्रकार जो भव्य जीव अपने आत्मा को सिद्धि के लिये भगवान गणधरदेव के द्वारा कहे हुए पाप रहित और सारभूत इस पंडितमरण को प्रयत्नपूर्वक सिद्ध कर लेता है वह जीव इन्द्र और चयत्तियों के सुख भोगकर तथा अंतमें परमयोग धारण कर समस्त कर्मो को नाश करता है और फिर मोक्षस्त्री को प्राप्त कर लेता है ॥२८२७॥ बुद्धिमानों को पण्डित मरण की पुनः प्रेरणामत्वेतोह अधाप्रयरनमानसास्वमुक्तिसंसिद्धये, कृत्वा सत्सपजितंनिरुपमंसा समस्सर्वतः । जन्मान्तेकिलसापपन्तुमरणसत्पण्डिताल्यपरं, स्याय नावनजम्मसनततपःसर्वार्थसिद्धिप्रदम् ।२८॥ अर्थ-यही समझकर बुद्धिमानों को स्वर्ग मोक्ष सिद्ध करने के लिये प्रयत्नपूर्वक समस्त प्रतों के साथ-साथ उपमारहित ऐसा सर्वोत्कृष्ट तपश्चरण करना चाहिये, तथा अंत में सर्वोत्कृष्ट पंडितमरण को सिद्ध कर लेना चाहिये जिससे कि श्रेष्ठ व्रत, उत्तम तप और समस्त पुरुषार्थों को सिद्ध करनेवाला मनुष्य जन्म प्राप्त हो जाय । ॥२८२८।। चार आराधना की महिमा एवं उसकी प्राप्ति की भावनाविश्चार्या विश्वकन्या शिवसुखजननीधर्मरत्नाविखानो, सेव्यानित्यमुनीन्द्र सकलविधिहराभर्गलाश्वगेहे । सारा सोपाममालाः सुरगृहगमनेसद्गुरणप्रामधात्रो:, घन्वेशराधनाप्त्येजिनवरपददाराषनादेवता वै ॥२८२६।। इति श्रीमूलाचारप्रदीपकाख्येमहाग्नये भट्टारक श्रीसकलकोतिविरचितेप्रत्याख्यान संस्तरवर्णनो नाम वशमोऽषिकारः। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४३५ ) [ दशम अधिकार अर्थ-यह चारों प्रकार की प्राराधनारूपी देवता तीनों लोकों में पूज्य है, तीनों लोकों में वंदनीय है, मोक्ष सुख देनेवाली है, धर्मरत्न की खानि है, श्रेष्ठ मुनिराज ही नित्य इसका सेवन करते हैं, यह समस्त कर्मों को नाश करनेवाली है, नरक के घर को बंद करने के लिये वेंडा है, सबमें सार है, स्वर्ग की सीढ़ी है, अनेक सदगुणों को उत्पन्न करनेवाली है और तीर्थकर हो पाती है। ऐसी इस पाराधना को मैं प्राराधना प्राप्त करने के लिये नमस्कार करता हूं ॥२८२६॥ इसप्रकार प्राचार्य श्रीसकलकीति विरचित मूलाचार प्रदीप नामके महाग्रन्थ में प्रत्याभ्यान संस्तर को वर्णन करनेवाला यह दसवां अधिकार समाप्त हुआ। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोधिकारः मंगलाचरण सर्व शीलगुणाधारान् विश्वातिशयभूषितान् । वन्देऽहं तहामुनत्रिजगच्छर्मकारकान् ।। २८३०॥ अर्थ- जो भगवान अरहंतदेव समस्त शील और समस्त गुणों के आधार है, जो समस्त अतिशयों से विभूषित हैं और इस लोक तथा परलोक में तीनों जगत के जीवों का कल्याण करनेवाले हैं उन भगवान् श्ररहंतदेव को मैं नमस्कार करता हूं । ।। २८३०।। शील एवं गुणों के कथन की प्रतिज्ञा प्रवक्ष्ये समासेनशीला निसकलान्यपि । गुरणांश्चनिखिलान्युक्त्या संख्ययोत्तमयोगिन१म् ॥ २८३१॥ अर्थ- - अब मैं उत्तम योगियों के लिये युक्ति और संख्या पूर्वक समस्त शोलों को कहता हूं और समस्त गुणों को कहता हूं ॥२६३१ ॥ शील के १८००० भेदों का निर्देश त्रियोगाः करणंत्रेघा चतुः संज्ञालपंच थे। दशपृष्वया विकायाश्चधर्माः क्षमादयो दश २८३२॥ श्रभ्योऽन्यं गुणिता एते योगाद्याः भुतकोविदः । भ्रष्टादशसहस्त्राणिशीलानि स्युर्महात्मनाम् ||३३|| अर्थ-तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, पांच इन्द्रियां, पृथ्वीकायिक आदि दश प्रकार के जीव और उत्तम क्षमादिक दशधर्म इन सब योगादिकों को परस्पर गुणा कर देने से अठारह हजार मेद हो जाते हैं, ये ही महात्माओं के शील हैं, ऐसा श्रुतज्ञान के विशारद गणधराबिक देव कहते हैं ।। २८३२-२८३३॥ & योगों के भेदों का कथन -- मनोयोगोवचोयोगः काययोगोऽशुभाश्रितः । योगानांया निपापादिक्रियाप्रवर्तकानि च ।। २८३४ ॥ तानित्रिकरणाम्यत्रो ध्यम्ले कर रणरोधनः । श्रभ्यस्तास्तेत्रयोगानवभेदा भवन्ति वै ।। २८३५ ।। अर्थ- शुभ मनोयोग, शुभ वचनयोग और शुभ काययोग ये तीन तो योग कहलाते हैं तथा उन योगों के द्वारा जो पुण्य पापरूप क्रिया होती है उनको यहां पर तोल करण कहते हैं । यदि उन मन-वचन-काय की होनेवाली क्रियाओं को, करणों को - feer जाय तो योगों के नौ सेव हो जाते हैं ।। २८३४-२८३५ । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ] ( ४३७ ) [ एकादश अधिकार योगों को ४ संज्ञा से गुणा करनेपर शील के ३६ भेदों का कथनआहारभयसंज्ञे संज्ञे मैथुनपरिग्रहे । चतुरन्नादिसंज्ञानां चतुर्षाविरतो जयः ॥ २८३६ ।। क्रियन्ते मुनिभिस्ताभिश्चतुभि खिता नव । मेदाभवन्तिशीलस्य षत्रिंशत्संख्यकाः सताम् ।। ३७।१ अर्थ--- श्राहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये संज्ञा के चार भेद हैं, इनका त्याग करना अर्थात् आहार संज्ञा का त्याग करने के लिये अन्नादिक का त्याग कर देना, भय के त्याग के लिये परिग्रह नहीं रखना, मैथुन के त्याग के लिये ब्रह्मचर्य धारण करना और परिग्रह के त्याग के लिये ममत्व छोड़ना संज्ञाओं का त्याग है । ऊपर कहे हुए योग निरोधों के नौ भेदों से इन चार के साथ गुणा करने से शील के छत्तीस भेद हो जाते हैं ||२८३६-२८३७।। ३६ भेदों को ५ इन्द्रिय से गुणा करनेपर १८० भेद होते हैं-स्पर्शाक्षरसनप्रारण चक्षुः भोत्र निवारणः । षट्त्रिंशङ्खगिता मेदाः स्पुरणोत्यधिकशतम् ॥ २८३८ ।। अर्थ- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु श्रौर ओत्र ये पांच इन्द्रियां कहलाती हैं । इनको वश में करना इन्द्रियों का त्याग है । इसलिये छत्तीस से इन पांचों को गुणा करने से शील के एकसौ अस्सी भेद हो जाते हैं ।। २८३८ || शील के १८०० भेदों का कथन -- पृथ्य पुत्रेआमप्रत्येकानन्तकायिकाः भुवि । द्विवितुर्ये न्द्रियाः पंचाक्षरचे निवशभागिनः ।। २६३६ ।। अमीषा रक्षणान्यत्र विधीयन्ते सुनीश्वरः । यत्नेनयानि तानिस्युदंशशीलानि घोमताम् ॥२८४० ॥ क्रियाशीत्यधिकशतम् । अष्टादश शतान्युत्पद्यन्ते शीलानियोगिनाम् ।।२८४१ ॥ अर्थ - पृथिवीकायिक, जसकायिक, वायुकायिक, अग्निकायिक प्रत्येक वनस्पतिकायिक, साधारण वनस्पतिकायिक, वोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये यश प्रकार के जीव हैं । मुनिराज इन दशों प्रकार के जीवों की रक्षा प्रयत्न पूर्वक करते हैं । इसलिये ये बश मेद भी शील के ही गिने जाते हैं। ऊपर जो शील के एकसौ अस्सी भेद बतलाये हैं उनसे इन दश के साथ गुणा कर देने से शोल के अठारहसौ भेव हो जाते हैं ।। २८३६-२६४१ ।। शील के १८००० भेदों का कथन -- उत्तमाद्याश्रमामा सारं चार्जयोत्तमम् । सत्यं शौचं महत्संयमस्तपस्तपागऊजितः ॥२६४२ ॥ wifierमोह्मचर्यं दशविषः परः । एषधर्मो जगत्पूज्यः श्रमरणानां शिवप्रवः || २८४३ ॥ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४३८ ) [ एकादश अधिकार वशभिगुणितान्येभि प्रष्टावशशतानि च । अष्टादशसहस्राणि सन्ति शीलानियोगिमाम् ।२०४४।। अर्थ-उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम प्रार्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उसम संयम, उत्तम तप, उत्सम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य यह दश प्रकार का धर्म है । यह धर्म जगत्पूज्य है और मुनियों को मोक्ष प्रदान करनेवाला है । कपर जो शील के अठारहसो मेद बतलाये हैं उनसे इन दश धर्मों के साथ गुणा कर वेने से अठारह हजार भेद हो जाते हैं । ये सब मुनियों के शील कहलाते हैं ॥२८४२२८४४॥ यि महिमा... इत्यादिगणनाभिश्च जायन्ते प्रतधारिणाम् । सुशीलानां यतीशानां शोलानि निखिलान्यपि ४२॥ अष्टादशसहस्रप्रमाणाम्यामि नाकिभिः । निर्मलामीह त्रैलोक्ये नन्तशकिराणि ॥२८४६।। अर्थ-इसप्रकार की गणना से व्रतों को धारण करनेवाले और शोलों को पालन करनेवाले मुनिराजों के शीलों के सब भेव हो जाते हैं। ये अठारह हजार झील इन्द्रों के द्वारा भी पूज्य हैं, अत्यंत निर्मल हैं और तीनों लोकों में अनंत कल्याण करने वाले हैं ॥२८४५-२८४६।। ___शील के पालने वाले की महिमा एवं उस पालने की प्रेरणाशोलाभरणयुक्तांश्च त्रिजगच्छी। स्वयंमुदा। वरणोत्पत्य जिनौषधमुक्तिरालोकतेमुहः ।।२८४७॥ प्रकम्पातेसुरेशामा शोलेनाथासतानि भोः। किंकराइवसेवन्ते पायान् शील जुषासुराः ।।२८४८।। विघटन्ते सुशीलानां सर्वोपदवकोटयः । निरर्गला भ्रमेकीतिश्चन्द्राशुवज्जगत्त्रये ।।२८४६।। जीवितव्यंदिनकं च वरं शीलवतां भुवि । निःशीलानां क्या नूनं पूर्वकोटिशतप्रभम् ॥२८५०॥ मत्वेतीमानिशीलानि सर्वाणि कृत्स्नयत्नतः । पालमन्तु बुधा मुक्त्यदुर्लभान्यल्पञ्चेतसाम् ।२८५१॥ अर्थ---जो महा पुरुष इन अठारह हजार शीलों से सुशोभित हैं उनको तीनों लोकों की संपदा प्रसन्नता के साथ स्वयं आकर स्वीकार करती है तथा भगवान जिनेन्द्रदेव की लक्ष्मी और मुक्तिरूपी लक्ष्मी बार-बार उनको देखती है। इन शीलों के प्रभाव से इन्द्रों के प्रासन भी कंपायमान हो जाते हैं तथा शोल पालन करनेवालों के धरण कमलों की देव लोग भी सेवन के समान सेवा करते रहते हैं । शील पालन करनेवालों के समस्त करोड़ों उपनय स्वयं नष्ट हो जाते हैं और चन्द्रमा के समान उनकी निर्मल कोति निरर्गल होकर तीनों लोकों में फैल जाती है। शील पालन करनेवालों का एक दिन भी जीना अच्छा परंतु बिना शील के सैकड़ों करोड़ वर्ष भी जोना व्यर्थ है । यही Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४३६ ) [ एकादश अधिकार समझकर बुद्धिमानों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये प्रयत्न पूर्वक इन समस्त शीलों का पालन करते रहना चाहिये । जो छोटी बुद्धिको धारण करनेवाले हैं उनके लिये तो इन शोलों का पालन करना अत्यन्त कठिन है ।।२८४७ - २६५१॥ मुनिराज के ८४ लाख गुणों के भेद एकविंशतिसाद्याश्चत्वारीतिकमारयः । शतपृथ्व्यादिकायाश्चदश ब्रह्म विराधनाः ।। २६५२ ।। दशालोचनमा दोषा दयाशुद्धिकरा इमे । श्रन्योन्यंर्वागिता लक्षा प्रशीतिश्चतुरुत्तराः ॥२०५३ ।। अर्थ - हिंसादिक के इक्कीस भेद हैं। प्रतिक्रमणादिक के चार भेद हैं, पृथ्वीकायादि के सौ भेद हैं, ब्रह्मचर्य की विराधना के दश भेद हैं, आलोचना के दश दोष है और इनके त्याग को शुद्ध करनेवाले दश गुण हैं । इन सबको गुणा करने से चौरासी लाख हो जाते हैं ।। २८५२-२८५३ ।। प्राणिहिंसादिक के २१ मेदों का निर्देश प्राणिहिंसामृषावादोऽवत्तावानं च मंथुनम् । संगः क्रोषोमदोमायालो भोभयोरतिस्ततः ।। २८५४ ।। रतिस्तथाजुगुप्साथ मनोवाक्काय चंचलाः । मिथ्यादर्शनमेवप्रमादः पशून्यमेव हि ।। २८५५ ।। अज्ञानकारणमनिग्रह इमेभुवि। एकविंशति दोषाः स्युनं खां दोषविधायिनः ।। २८५६ ॥ अर्थ -- प्राणियों की हिंसा करना १, झूठ बोलना २, चोरी करना ३, मैथुन सेवन करना ४, परिग्रह रखना ५, क्रोध ६, सब ७, माया ८, लोभ है, भय १०, अरति ११, रति १२, जुगुप्सा १३, मन की चंचलता १४, वचन की चंचलता १५, काय की चंचलता १६, मिथ्यादर्शन १७, प्रमाद १८, पंशुन्य १६, अज्ञान २० और पंचेन्द्रियों का निग्रह न करना ये समस्त दोषों को उत्पन्न करनेवाले प्राणिहिंसादिक इक्कीस दोष हैं। ।। २८५४-२८५६ ॥ किसके गुरण हो जाते हैं या दिवसाचा विपरीताः कृता इमे । दोषागुणा हि तेषां स्युस्त्रिजगत्पूज्ययोगिनाम् ।। २८५७।। अर्थ-यदि दया श्रादि व्रतों को पालन कर इन दोषों के विपरीत आचरण किये जांब तो तीनों जगत के द्वारा पूज्य मुनियों के लिये वे ही सब गुण हो जाते हैं। ॥२८५७॥ अतिक्रमणात्रि दूषणों के त्यागने से व्रतादि धर्म की वृद्धि होती हैप्रतिक्रमणमेकं व्यतिक्रमा एव हि । मसौधारोप्यमाचाबोवाश्चत्वारो ।। २६५८ ।। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४४० ) [ एकादश अधिकार ताबीनांप्रयत्नेन सहिता ये जितेन्द्रियाः । जयन्ते ते गुणास्तेषां व्रतादिधर्मवृद्धिदाः ।। २८५६ ।। अर्थ - अतिक्रमण, व्यतिक्रमरण, प्रतिचार और अनाचार ये चार प्रतिक्रम श्रादि वोष कहलाते हैं । जो जितेन्द्रिय पुरुष इन दोषों का त्याग कर देते हैं, उनके व्रतावि धर्म की वृद्धि करनेवाले वे गुण हो जाते हैं ।। २८५८ - २८५६ ॥ गुणों के ८४ भेदों का निर्देश- गुणंग चतुभिरेभिस्तेप्राग्गुलाएकविंशतिः । गुणाश्चतुरशीतिश्च भवेयुनुं खिताः सताम् ।। २=६० । अर्थ- पहले जो हिंसा का त्याग श्रादि इकईस गुण बतलाये हैं, उनके साथ इन चार अतिक्रमादि के त्याग से गुणा कर देने से गुणों के चौरासी भेद हो जाते हैं । ।। २८६० ।। जीवादि की विराधना से १०० भेद पृथ्व्यपसे जोम रत्प्रत्येकानन्तकायदेहिनः । द्वीप्रियास्त्रीन्द्रियास्तु में न्द्रियाः पंचेन्द्रियादश ।। २८६१ ।। इमे मेवा किला यस्ताः पृथ्थ्याद्याः परस्परम् । शस मेदाभवन्मयत्रदोषास्तेषाविराधनात् ।।२८६२। श्रमतिर्मायोषास्तावन्तः गुंगा हि ते ।। २६६३ ।। अर्थ - पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय ये दस जीवोंके भेव होते हैं तथा इन दशों प्रकार के जीवों की विराधना के वश भेव हो जाते हैं, इनको परस्पर गुणा कर देने से दश प्रकार के प्राणी और उनकी दश प्रकारकी विराधना इन दोनों को परस्पर गुणा कर देने से सौ भेद हो जाते हैं। श्रेष्ठ व्रतोंको धारण करनेवाले जो मुनि प्रयत्न पूर्वक इन दशों प्रकार के प्राणियों की रक्षा करते रहते हैं और उनको दश प्रकार की विराधना से बचाते रहते हैं, उनके उत्तरगुणोंके सौ गुण माने जाते हैं । ।।२८६१-२८६३॥ ८४०० भेदों का कथन निर्देश गुणा मचतुरशीतिस्ते शतेनानेनवगिताः । गुणाभवन्ति वक्षैश्चतुराशीतिशतप्रमाः || २६६४ ।। अर्थ --- पहले उत्तरगुणों में चौरासी गुण बतला चुके हैं, उनको इन सौ से गुणा कर देने से चौरासी सौ भेव हो जाते हैं ||२८६४॥ ब्रह्मचर्य की विराधना करनेवाले १० भेदों के कथन निर्देश -- स्त्रीसंसगों महास्वाद र साधाहार भोजनम् । गंधमाल्यादिसंस्पर्श. कोमसंशयनासनम् ।। २८६५ ।। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४४१) [एकादश अधिकार शरीरमण्डनं गोतवाद्यादिश्रवणं ततः । अर्थहेमाविसम्पर्मः कुशीलवुननाशयः ।।२०६६॥ राजसेवाक्षसौल्यायरात्रिसंचरणं वृथा । एते विराषनायोषाब्रह्मचर्यस्य वै दश ॥२८६७॥ अर्थ-स्त्रियों की संगति करना १, महा स्वाविष्ट सरस प्राहार का भोजन करना २, गंध माला आदि को सूचना ३, कोमल शयन और प्रासन पर सोना बैठना ४, शरीर को सुशोभित बनाये रखना ५, गीत बाजे प्रादि का सुनना ६, सोना चांदी प्रादि धन से संबंध रखना ७, कुशीली दुष्टों को संगति रखना ८, राजसेवा करना । और इन्द्रियों के सुख के लिये व्यर्थ ही रात्रि में घूमना १०, ये दश ब्रह्मचर्य की विराधना करनेवाले दोष हैं ॥२८६५.२८६७॥ ८४००, भेदों का कथन निर्देशत्रिशुखपा ये त्यजन्ले तान्वशदोषांस्लपस्थिनः । जायन्सेसद्गुणास्तेषां वशेष व्रतशुद्धिवाः ।२०६८। एलेर्दशविकल्परचतुरशीतिशतान्यपि । गुणितानिसहकाश्चतुरशीतिप्रमाणकाः ॥२५६६।। अर्थ-जो तपस्यो मन-वचन-काय को शुद्धतापूर्वक इन बश दोषों का त्याग कर देते हैं, उनके व्रतों को शुद्ध करनेवाले दश गुण प्रगट हो जाते हैं, ऊपर गुणों के चौरासीसो भेद बतलाये हैं, उनसे इन दश को गुणा कर देने से गुणों के चौरासी हजार भेद हो जाते हैं ॥२८६८-२८६६॥ आलोचना के दस भेदों का कथनप्रापितश्वदोषोनुमानितोऽदृष्टवावरौ । सूक्ष्मः प्रच्छन्नशोषोशवाकुलितसंज्ञकः ॥२८७०॥ दोषो बहजनोऽध्यक्तस्तत्सेवीसि यशस्फुटम् । बोषा मालोचनस्यैव भैया एतेषकारकाः ॥२७॥ अर्थ-आकंपित, अनुमानित, प्रदृष्ट, बाबर, सूक्ष्म, प्रच्छन्न, शम्दाकुलित, बहुजन, अध्यक्त, तत्सेवी ये वश पाप उत्पन्न करनेवाले आलोचना के वश बोष हैं। ॥२०७०-२८७१॥ ८ लाख ४० हजार गुरगों के कथन का निर्देशप्रमीयां दशदोषायित्नेनत्यमनास्सताम् । उत्पश्चन्तगुणाः शुद्धिकरास्तावन्त एव हि ॥२८७२।। एलेश्चतुरगीतिश्च सहनागितागुणः । वस्वारिंशसहस्राणि ह्यष्टलकाधिकान्यपि ॥२०७३॥ अर्थ-जो सज्जन पुरुष प्रयत्नपूर्वक इन दश दोषोंका त्याग कर देते हैं, उनके व्रतों को शुद्ध करनेवाले वस गुण प्रगट हो जाते हैं। ऊपर चौरासी हजार गुण बतला चुके हैं, उनके साथ इन बस का गुणा कर देने से प्राठ लाख चालीस हजार गुण हो Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४४२ ) [एनादश अधिकार जाते हैं ।।२८७२-२८७३।। प्रायश्चित के दश भेदमालोचनं त्रिशुद्धमाप्रतिक्रमणं च तद्वयम । विधेकोयतनसर्गस्तपच्छेद: म्वदीक्षया ।।२८७४। मूल च परिहारोयथद्धानंदशसंख्यकाः । प्रायश्चित्तस्य भेदा हि भवाश्येते विशुद्धिदाः ।।२८७५ ।। अर्थ-मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक पालोचना करना, प्रतिक्रमण करना, बीनों करना, विवेक, ध्युत्सर्ग, तप, स्वदीक्षा का छेद, भूल, परिहार और श्रद्धान ये दस समस्त व्रतों को शुद्ध करनेवाले प्रायश्चित्त के भेद होते हैं ॥२८७४-२८७५।। प्रायश्चित के १० भेद किसके गुण व किसके दोष रूप होते हैंविपरीता प्रमोयोषा जायन्तेमप्रमादिता ! सम्पगारिता मग तुशाः पुलिस राम् ।।७६।। अर्थ-यदि इन प्रायश्चित्तों के विपरीत प्राचरण किया जाय तो ये ही दश दोष हो जाते हैं तथा ये दोष प्रमादियों को अवश्य लगते हैं। यदि इन्हीं प्रायश्चित्तों के भेदों को अच्छी तरह पालन किया जाय तो सज्जनों के बसों को शुद्ध करनेवाले ये ही बस गुण हो जाते हैं ।।२८७६॥ मुक्ति के कारणभूत ८४ लाख गुणों का कथनएतवंशगुणचश्वारिंशत्सहस्रसद्गुणाः । अष्टलक्षाधिका युक्त्याप्राक्तनागुणिता युधे ।।२८७७।। लक्षाश्चतुरशीतिश्वभवेयुःपिण्डिसागुणाः । सर्वदोषारिहतारोमुनीनां मुक्ति हेतवः । २८७८।। अर्थ- ऊपर जो पाठ लाख चालीस हजार गुणों के भेद बतलाये हैं उनके साथ इन दस से गुणा कर देने से चौरासी लाख गुण हो जाते हैं। ये सब गुण मुनियों के समस्त दोष रूपी शत्रुनों को नाश करनेवाले हैं और मुक्ति के कारण हैं । २८७७. २०७०1 कैसे गुणों को धारण करनेवाले पूज्य पद प्राप्त होते हैंएतर्महागुणान्तित्रिजगत्पूज्यतापवम् । गणेशजिनचा याविमूर्ति च गुणशालिनः ॥२८७६।। अर्थ-जो महा पुरुष इन गुणों को धारण कर अपनी शोभा बढ़ाते हैं वे पुरुष इन गुणों के माहात्म्य से तीनों लोकों के द्वारा पूज्य पदको प्राप्त होते हैं और गणधर सीकर संवा पत्रावर्ती भादि को महा विभूति को प्राप्त होते हैं ॥२८७६॥ उत्तम गुणों के धारण करनेवाले महापुरुषों की उभय लोक में कैसी महिमा होती हैपंपाच प्रमातहोयसकारपूजनम् । नमस्कारस्तवादीनिगुणिमश्चपदेपदे ॥२८४०।। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप { ४४३ ) [एकादश अधिकार तथाहमिन्द्र देवेन्द्रनागेन्नाधिपवानि च । प्राप्यामुन्नश्रयन्ते ते पूजास्तुतिशतानि च ।।२८८१।। अर्थ-जो पुरुष इन उसम गुणों को धारण करते हैं, उनका इस लोकमें यश फैलता है, लोग पद-पचपर उनका आदर सत्कार करते हैं, उनकी पूजा करते हैं, उनको नमस्कार करते हैं और उनकी स्तुति करते हैं । तथा इसीप्रकार परलोकमें भी अहमिद्र, देवेन्द्र, नागेन्द्र आदि के उसम उत्तम पद उनको प्राप्त होते हैं और वहांपर भी सैकड़ों बार उनकी पूजा होती है और सैकड़ों बार उनको स्तुति होती है ।।२८८०-२८८१।। कोन जगत में पूज्य है और कौन अपूज्य हैगुणाःसर्वत्रपूज्यन्तेदक्षःसत्पुरुषाश्रिताः । निर्गुणा मच लोकेस्मिन् सस्कुलादियुतानपि । २८८२।। अर्थ-सत्पुरुषों के प्राधित रहनेवाले गुण विद्वान पुरुषों के द्वारा सर्वत्र पूजे जाते हैं और जो पुरुष निर्गुण होते हैं ते चाहे कितने हो अच्छे कुल में उत्पन्न क्यों न हुए हों तथापि उनकी पूजा कोई नहीं करता ॥२८८२॥ मर जानेपर भी कौन सदा जीवित एवं कौन जीवित रहने पर भी मरे के समान है ? इहामुत्र च जीवन्तिजीवन्तो वा मताः स्फुटम् । गुरिणतोगुरिंगसंयोगाजगद्विख्यातकीर्तितः ॥८॥ जीवन्तोपिमसाज्ञेया मिर्गन्धकुसुमोपमाः। दृक्तपोशानवृत्तादिगुणहीनाः कुकीर्तितः ॥२४॥ अर्थ---गुणी पुरुष उन गुणों के निमित से तीनों लोकों में प्रसिद्ध हो जाते हैं और तीनों लोकों में उनको कीति फैल जाती है । इसलिये वे इस लोक में भी जीते हैं और परलोक में भी जीते हैं । वे मर जानेपर भी सदा जीवित ही रहते हैं । जो पुरुष सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकमारित्र, सप नादि गुणों से रहित हैं, उनकी अपकीति चारों ओर फैल जाती है इसलिये वे जीवित रहते हुए भी सुगंध रहित पुष्प के समान मरे हुए के समान समझे जाते हैं ॥२८८३-२८५४॥ सम्यग्दर्शन आदि गुणों की प्राप्ति की प्रेरणामत्वेति धौषनानित्यं पालयन्तगुणोत्तमान् । गुणिनां पदससिद्धय गाधान्यस्मतोभुवि ।२६८५॥ ____अर्थ-यही समझकर बुद्धिमान पुरुषोंको गुणियों का पद प्राप्त करने के लिये सम्यग्दर्शन प्रादि उत्तम गुणों को प्रतिदिन प्रयत्न पूर्वक पालन करते रहना चाहिये । ॥२८१५॥ दश प्रकार के धर्मों का स्वरूप एवं नामों का निर्देशअथधर्म प्रवक्ष्यामि वंशभेदं सुखाम्बुषिम् । सामान्मुक्तिपरोंगन्तु पाषेयपपि योगिनाम् ॥२८८६॥ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप] ( ४४४ ) [एकादश अधिकार प्राधाक्षमोसमा श्रेष्ठं मायावोत्तमम् । सत्यं माधमहान संयमस्तपस्त्यागससमः ॥२८८७॥ प्राचिन्यं परं ब्रह्मवर्षसल्समरणान्यपि ! इमानि धर्ममूलानि श्रमणानां दशव हि ।।२८८८।। अर्थ-अथानतर--अब आगे दश प्रकार के धर्मों का स्वरूप कहते हैं । ये वश प्रकार के धर्म मुनियों के लिये सुख के समुद्र हैं और मोक्षरूपी नगर में जाने के लिये मार्ग का साक्षात् पाभेय है, मार्ग व्यय है । उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जय, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम प्राकि. चन्य, उत्तम ब्रह्मचर्य यह मुनियों के दश धर्म हैं और समस्त धर्मोका मूल है ॥२८८६२८८८।। उत्तम क्षमा धर्म का स्वरूप निर्देशमिथ्पादकशवदुष्टाछ कृसत्यत्युपाये। अपकीतिभयादिभ्यः सहोताउमाविकम् ।।२८।। संयतैरिह लोकार्थं न परमार्थसिद्धये । यत्सा क्षमोच्यते सद्भिः सामान्यपुरुषाश्रिता ।।२८६०।। अर्थ-यदि कोई मिथ्यादृष्टि, शत्र वा दुष्ट लोग किसी मुनि पर घोर उपद्रव करें, उनकी अपकीर्ति करें, उन्हें भय दिखलावे वा ताड़नादिक करें तो जो मुनि केवल इस लोक के लिये उसको सहन करते हैं, परलोक के लिय सहन नहीं करते उसको सज्जन पुरुष सामान्य पुरुषों के आश्रित रहनेवाली क्षमा कहते हैं ॥२८८६-२८६०।। किसके उत्तम क्षमा होती हैप्रास्यवृष्टि विषवर्षादीनांसमर्थवसत्यपि । केवलंकर्मनाशायसाते को महात्मभिः ॥२८१॥ प्राणनाशकरोघोरोपसगों दुर्जनः कृतः । उत्तमाल्याक्षसासोक्ताधर्मरस्नसनीपरा । २८६२।। अर्थ-परंतु जो मुनि उसी विष ऋद्धि दृष्टि विष ऋद्धि प्रादि अनेक ऋद्धियों के कारण समर्थ होनेपर भी केवल कर्मों को नाश करने के लिये दुष्टों के द्वारा किये हुये प्राणों को नाश करनेवाले घोर उपसर्गों को भी सहन करते हैं, उन महात्मानों के धर्मरत्न की स्वानि ऐसी सर्वोत्तम उत्तम क्षमा होती है ।।२८६१-२८६२॥ उत्तम क्षमा धारण करने की प्रेरणास्वदोषगुणाचिन्ता प्रत्यक्षाविविचिम्तनः। विधार चतुरैः कार्यासर्वत्रका समापरा ॥२८६३॥ अर्थ-अपने गुण दोषों को चितवन कर अथवा प्रत्यक्ष परोक्ष के गुण दोषों को चितवन कर विचारशील चतुर पुरुषों को सर्वत्र एक उत्तम क्षमा हो धारण करनी चाहिये ।।२८६३॥ । Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] (४४५) [एकादश अधिकार साधु किस प्रकार चितवन करते हुये निदा आदि के बचन सहते हैंपविकस्विस्कुधीः कुर्यात्सायोनिम्दा तवाममी ! हबीतिचिन्तयेतेयोषाःसन्ति न वा मयि ॥४॥ विद्यते पवियोषोमे नचास्यसत्यभाषणात् । बोषाभावेथवाऽज्ञामाद्वक्त्येष ममदूषणम् ।।२८६५।। न मारपतिमा मे न किधिद्गृह्णातिसद्गुणम् । इत्याविचिन्तनस्तेन सोढव्यंनिन्दनादिकम् ।।६६॥ अर्थ-यदि कोई दुष्ट पुरुष किसी साधु को निवा करता हो तो उस समय उस साधु को अपने मनमें विचार करना चाहिये कि मुझमें ये दोष है वा नहीं । यदि मुझमें ये दोष है तो इसका कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह तो सत्य भाषण कर रहा है । यदि सपने में ये दोष न हों तो उनको विचार करना चाहिये कि यह अपने अज्ञान से मेरे दोषों को कहता है, मुझे मारता तो नहीं है अथवा मेरे श्रेष्ठ गुणों को तो ग्रहण नहीं करता अथवा नहीं छीनता, इसप्रकार चितवन कर उन मुनियों को अपनी होने वाली निवा को सहन करना चाहिये ॥२८९४-२८६६॥ किस प्रकार के चितवन से गाली प्रादि के वचन सहते, क्षमा भाव धरते हैंयवि कश्चित्परोक्षेणमुनिमाकोशतिधा । तदेति मुनिना ध्येयकोषाग्निजलवोपमम् ॥२८१७॥ प्राक्रोशति परोक्षेसं प्रत्यक्षे मां न पापधीः । साभोस्मान्मम मवेतिक्षतव्यं तेन तस्कृप्तम् ।। अर्थ-यदि कोई दुष्ट पुरुष क्रोध में आकर परोक्ष में किसी मुनि को गालो देता हो वा कड़वे बुरे वचन कहता हो तो कोष रूपी अग्नि को बुझाने के लिये मेघ के समान उन मुनि को इसप्रकार चितवन करना चाहिये कि यह पापो परोक्ष में ही मुझे गाली देता है, प्रत्यक्ष में आकर तो गाली नहीं देता मेरे लिये यही बड़ा लाभ है । यही समझ कर उन मुनियों को उस दुष्ट का अपराध क्षमा कर देना चाहिये ।।२८९७२८६८।। दुष्ट दुर्वचन सहन करने की प्रेरणाभाक्रोशतियति कश्चित्प्रत्यक्षेण दुरात्मकः । तदेतिचिन्तनोमंसन्मुनिना कोपनाशकम् ॥२८६६।। ददाति केवल मेयंगाली हन्ति न मां शाठः । गालीभिः किरणान्यत्र जायन्समेऽशुभानि का।। प्रतोत्रामुनहानिएचास्वनिन्दनतो न मे। विधिस्येतिस्वमानेन सोडव्यं तेन दुर्वचः ।।२९०१॥ __अर्य-यदि कोई दुरात्मा प्रत्यक्ष में ही आकर किसी मुनि को गाली देवे तो उस मुनि को क्रोध को नाश करनेवाला इसप्रकार का चितवन करना चाहिये कि यह मूर्ख मुझे गाली ही देता है, मुझे मारता तो नहीं है, गाली से मेरे घाव थोड़े ही हुए जाते हैं अथवा मेरी कुछ हानि थोड़ी ही होती है। पवि वास्तव में देखा जाय तो मेरी Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदोप] ( ४४६ ) [एकाददा अधिकार निदा करने से इस लोक में भी इसकी हानि होती है और परलोक में भी इसकी हानि होती है । इसमें मेरी कुछ हानि नहीं होती इसप्रकार चितवन कर और मौन धारण कर उन मुनिराज को उस दुष्ट के दुर्षचन सहन कर लेने चाहिये ।।२८६६-२६०१॥ क्रोध से ताड़नादि करनेपर मुनिराज किस प्रकार चितवन करते हैंअथवायधयोःकश्चित्साधुताडयतिकुषा । सदेत् साधुना निसे चिन्तनीयक्षमाकरम् ॥२६०२।। हन्त्येवायंकुषीमित्राणान हरतिनजिसा । अस्मान्मे लाभएबावनबहानिरक्षयात् ।।२९०३।। पात्रायवषबंधाध में पापं हरतिस्फुटम् । नच पुण्यमतोस्यवहानि डिममोजिता ॥२६०४॥ अथवामनिपुरवायाभवे ताडितो भया । ततो मा ताडयत्यत्रोषोमेऽस्य न जातुचित् ।।२६०५।। अर्य-यदि कोई मूर्ख क्रोध में आकर किसी साधु को ताड़ना करे मारे तो उन मुनिराज को अपने चित्तमें क्षमा की खानिरूप ऐसा चितवन करना चाहिये कि यह मूर्ख मुझे मारता ही है, मेरे प्राणों का हरण तो नहीं करता अतएव इसमें मेरा लाभ ही है, मेरी हानि कुछ नहीं है, मेरे तो इसमें पाप नष्ट होते हैं, असाताकर्मों को निजरा होती है । इसप्रकार चितवन करना चाहिये । अपना इसका विगतमा गहिये कि यह मूर्ख मुझे मारकर वा बांधकर मेरे पापों का हरण करता है, मेरे पुण्य को तो हरण नहीं करता ? इसलिये ऐसा करने में इसकी तो हानि है और मेरे लिये लाभ हैं। अथवा उन मुनिराज को इसप्रकार चितवन करना चाहिये कि यह मेरे पहले भव का शत्र है, मैंने पहले भय में इसको मारा होगा इसलिये यह इस भव में मुझे मारता है, यह तो मेरा ही दोष है इसमें इसका क्या दोष है ।।२६०२-२६०५॥ अपने ही कर्म का उदय जान मुनिराज क्षमा धारण करते हैंप्राग्भवे वा कृतं कर्म घसन्मयंवभुज्यते । निमित्तमात्रमत्रेमं मन्ये दुःखादिकारकम् ।।२९०६।। मदोयमपिच्चित्तं व्रजेत्क्रोधाग्निसन्निधिम् । प्रज्ञस्यास्यविदोमेत्र कोविशेषस्तवापृयक् ।। २६०७।। अर्थ- अथवा उन मुनिराज को इसप्रकार चितवन करना चाहिये कि मैंने पहले भवों में जो कर्म किए हैं वे मुझ ही भोगने पड़ेंगे। यह प्राणी तो उन कर्मों के उदय से होनेवाले दुःखों में केवल निमित्त कारण है। मुख्य कारण तो मेरे ही कमों का उदय है। यदि इस समय मेरे हृदय में भी क्रोध उत्पन्न हो पाये तो फिर इस मूर्ख में और मुझ ज्ञानी में अलग-अलग विशेषता क्या होगी? फिर तो दोनों ही समान हो जायेंगे ।।२६०६-२६०७।। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूलाचार प्रदीप ] ( ४४७) [ एकादश अधिकार क्रोध करने से पूर्व साधना भी व्यर्थ हो जाती है..कोषहालाहलकान्तं निविधीकतु मनमः । अहं यदि कथं क्रोधविष पिवामिलाम्प्रतम् ॥२६०८॥ अभ्यस्तो यः शमः पूर्व बहुकष्टमयाधुना। वैफल्यं तस्य जायेत यवि कोपं करोम्यतः ।।२६०६।। अर्थ--यदि मैं क्रोधरूपी महा विषसे प्रांत हुए इस पुरुष को निर्विष करने में समर्थ नहीं हूं अर्थात् यदि मैं इसका क्रोधरूपी विष दूर नहीं कर सकता हूं तो फिर मैं इस समय क्रोधरूपी विष का पान क्यों करू । यदि मैं इस समय क्रोध करता हूं तो मैंने पहले अनेक कष्ट सहन कर जो उपशम रूप (अत्यंत शांत) परिणामों का अभ्यास किया है वह सब व्यर्थ हो जाता है ॥२६०४-२६०६॥ स्थिरचित्त से उपद्रव सहने की प्रेरणाइत्याविचिन्तनश्चित्तस्थिरीकृत्याशुसाधुना । सोढव्य निखिललोके ताडन दुर्जनोद्भवम् ।।२६१०॥ अर्थ- इसप्रकार चितवन कर उन मुनिराज को अपना चित्त स्थिर कर लेना चाहिये और इस लोक में सुधटी के द्वारा उत्पन्न हुए मारण लाइन मावि सब उपद्रव सहन कर लेने चाहिये ॥२६१०।। प्राण हरण करने के अवसर पर भी मुनिराज क्षमा धारण करते हैं --- यदि कश्चियऋषेःप्राणान् गृह्णातिवनमायकः । ऋषिणेवं तवा चिन्तनोधकोपानि नोरवम् ॥ प्रादयं ममप्राणान नच धर्म शिवप्रदम् । अस्माद्वालादि मे लाभो महानिर्धर्मवद्धनात् ॥१२॥ अर्थ- यदि कोई नरक को जाने वाला दुष्ट किसी मुनि के प्राण ही हरण करता हो तो उन मुनिराज को उस समय क्रोधरूपी अग्नि को शांत करने के लिये मेघ के समान इसप्रकार का चितवन करना चाहिये, यह मूर्ख मेरे प्राणों को लेता है, मोक्ष देने वाले मेरे धर्म को तो नहीं लेता इसलिये इस मूर्ख से मेरी कोई हानि नहीं है, किंतु मेरे धर्म को वृद्धि होने से मेरा लाभ हो है ।।२६११-२६१२।। मुनिराज मारने वाले को भी मित्र एवं हितु मानते हैंजरा अर्जरितकायहत्वादिष्यगुणाकरम् । वपुरते वषा में कथं स न सुहहरः ।।२९१३।। बंधाच: पापकर्मम्योयायं मां न मावयेत् । तवामोक्षः कुतस्तेभ्योमेमाविषहितकरः ॥२६१४।। कारागारनिभात्कायान्मोचयित्वाशुमा हि यः । स्वर्गावोस्थापयत्येव कथं स शत्रुरुच्यते ॥२६१५॥ अर्थ-और बेखो यह प्राणी मुझे मारकर जरासे जर्जरित हए मेरे शरीर को नाश करता है और अनेक गुणों को खानि ऐसा दिव्य शरीर मुझे देता है इसलिये यह Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] (४४८ ) [एकादश अधिकार तो मेरा सबसे बढ़कर मित्र है। यदि यह प्राणी मुझे मारकर पाप कर्मों से मुझे नहीं छड़ाता तो मैं उन पापों से कैसे छटता? इसलिये कहना चाहिये कि यह तो मेरा सबसे अच्छा हित करनेवाला है । अरे जो पुरुष कारागार के समान इस शरीर से मुझे शीघ्र ही छड़ाकर मुझे स्वर्गादिक में पहुंचा देता है, यह मेरा शत्रु कैसे हो सकता है उसे तो मैं अपना मित्र समझता हूं ॥२६१३-२६१५॥ पुन: उत्तम क्षमा धारण करने की प्रेरणाइस्यादिसद्विचारोघः प्राणनाशेपि साधुना । क्षमका सर्वथा कार्या कोपः कार्यो न जातुधित् ।।१६।। अर्थ--इसप्रकार अनेक तरह से अपने श्रेष्ठ विचार धारण कर प्राण नाश होनेपर भी मुनिराज को एक उत्तम क्षमा ही धारण करनी चाहिये । उन मुनिराज को क्रोध कभी नहीं करना चाहिए ॥२६१६।। मुनिराज 'चन्दन के वृक्ष एवं पृथ्वी के समान अधिकारी और अचल होते हैंछेवनैः कसनेहि विक्रिोयातिचन्दनम् । न यथान तथा योगी सर्वोपद्रवराशिभिः ॥२६१७।। कम्पते न यथा पृथ्वोस्खननज्वालनादिभिः । उपसर्गस्तथाविश्वानस्थोषीरसंपमी ।।२६१८।। अर्थ-जिस प्रकार चंदन को छेदने से, काटने से वा जलाने से घंदन में कोई विकार उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार समस्त उपद्रवों के समूह आ जानेपर भी योगी के हुक्ष्य में कभी विकार उत्पन्न नहीं होता । जिसप्रकार पृथ्वी को खोदने वा जलाने से पृथ्वी कभी कंपायमान नहीं होती उसी प्रकार समस्त उपसगों के प्रा जानेपर भी ध्यान में स्थिर हुए धीरवीर संयमी अपने ध्यान से कभी चलायमान नहीं होते हैं। ।।२९१७-२६१८॥ __संकड़ों उपसों के आनेपर भी साधु विकृत नहीं होते हैंक्वचिदम्बामतादीनिविषायन्ते विधेशात् । नोपसर्गेश्यसाधूनांचितानन्दामृतामि भोः ॥२६१६।। अर्थ---कभी कभी कोंके निमित्त से वा अन्य किसी कारण से दूध वा अमृत आदि उत्तम पदार्थ भी विवरूप हो जाते हैं, परंतु साधुओं के हृदय से उत्पन्न हुआ प्रानंदामृत सैकड़ों उपसर्गों के प्रा जानेपर भी कभी विषरूप चा विकाररूप नहीं होता। ॥२६१६॥ क्रोध की निंदा एवं क्षमा की महिमा का वर्णनन कोपसदृशोवन्हिविश्वप्रम्बालमसमः । प्रमृतं न क्षमातुल्यंत्रिजयात्रीणमझमम ॥२६२०॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप ] ( ४४९ ) [ एकादश अधिकार श्रयं - इस संसार में क्रोध के समान अन्य कोई अग्नि नहीं है क्योंकि यह क्रोध समस्त संसार को जला देने में समर्थ है । इसीप्रकार क्षमा के समान इस संसार में कोई प्रभृत नहीं है क्योंकि इस क्षमा से तीनों लोकों के प्राणी अत्यन्त संतुष्ट हो जाते हैं ।।२२० ।। क्रोध करनेवाले जीवों की हानि -- द्वीपायनः कोपेनवाद्वारावतीं मुनिः । सर्वा स्वस्य शरीरचागासेजसेन दुर्गतिम् ।।२६२१।। क्रोधेनाघार्जनं कृत्वा बहवो नारवादयः । 'रौद्रध्यानाद्गताः श्वभ्रं स्त्रीश्यनाविरहिता श्रपि ॥ २२ ॥ अर्थ- देखो द्वीपायन मुनि ने क्रोध कर तेजस समुद्धात के द्वारा समस्त में परो नरकरूप दुर्गति द्वारिका नगरी जला डाली, अपना शरीर में जाना पड़ा। इनके सिवाय स्त्री धन श्रादि से रहित ऐसे नारद आदि बहुत से प्राणी क्रोध के कारण अनेक पापों को उपार्जन कर अंत में रौद्रध्यान से मर कर नरक पहुंचे हैं ।। २६२१-२६२२॥ फोध अग्नि के समान आत्मिक गुणों को नष्ट करता है कोपाग्नि साधस्य कायकुटोरके । तस्यदृष्टद्यादिरत्नानि भस्मीभावंत जन्त्यतः | २६२३|| पूर्व दहति कोपाग्निहं ततोपरान् जनान् । इहपुंसां च धर्मावीन् वत्तेमुत्रह्मषोगतिम् ।।२१२४ ॥ अर्थ - जिस साधु के शरीररूपी झोंपड़ी में क्रोधरूपी अग्नि लग जाती है, उसके सम्यग्दर्शन आदि समस्त रत्न अवश्य ही जलकर भस्म हो जाते हैं । यह क्रोधरूपी अग्नि पहले तो अपने शरीर को जलाती है, फिर अन्य प्राणियों को जलाती है और फिर उन साधुनों के धर्मादिक गुणोंको नष्ट करती है तथा फिर अंतमें परलोक में नरकादिक अधोगति को देती है ।।२६२३-२६२४।। जिनेन्द्रदेव क्रोध करनेवाले को क्या समझते हैं यदि को क्वचित्कुर्यान्नग्नो वा श्रीवराष्टतः । सदा नीचो जिनेः प्रोक्तः सोमयजावपिपापचीः ।। अर्थ – यदि कोई नग्न साधु वा एक कोपीन मात्र रखने वाला एलक वा क्षुल्लक कहीं पर क्रोध करता है तो भगवान जिनेन्द्रदेव उस पापी को चांडाल से भी नोध समझते हैं ।। २६२५।। अनेकों दोषों को उत्पन्न करनेवाले क्रोध को मुनि कैसी तलवार से नाश करते हैंन क्रोधेन सभो मेरो सर्वानर्थाकोशुभः । इहामुत्रमनुष्याणां सप्तमम्वनकारकः ।। २९२६ ।। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदोप] ४५ ) इल दाग नाकार इत्यादिदोषकर्तारं क्रोधशत्रु तपोधनाः । क्षमाखड्नेनमोक्षायदुर्जयनन्तुस्तितः ।।२६२७।। अर्थ-इस संसार में क्रोध के समान मनुष्यों का अन्य कोई शत्रु नहीं है । क्योंकि यह क्रोध इस लोक में भी समस्त अनर्थों को करनेवाला और अशुभ पा पाप उत्पन्न करनेवाला है और परलोकमें भी सातवें नरक तक पहुंचाने वाला है । इसप्रकार अनेक दोष उत्पन्न करनेवाले और अत्यन्त दुर्जय ऐसे क्रोधरूप शत्र को तपस्वी लोग मोक्ष प्राप्त करने के लिये अपनी शक्ति से क्षमारूप तलवार के द्वारा नाश कर डालते हैं ॥२६२६-२६२७॥ क्षमा की महिमा और किसने इसे धारण करके केवल ज्ञान को प्राप्त कियाक्षमामुक्तिसखी प्रोता जिनमुक्तिवशीकरा। कल्पवल्लीममा नरा संकल्पितसुखप्रदा ।।२९२८।। क्षमा रक्षापरापुंसां शत्रुभ्यः शममातृकाः । भमा धर्मसुरत्नानां खनीलाराशुभकरा ॥२६२६।। पार्वेशसंजयन्लास्यशिवभूत्यादियोगिमः । क्षमयात्राधिसम्जित्वाबरपसगनिवरिजान् ।।२६३०॥ केश्लासगमंप्राप्यत्रिजगभव्यपूजनम् । लोकाप्रशिखरजग्मुर्वहवः शर्मसागरम् ।।२६३१।। अर्थ-भगवान जिनेन्द्रदेव ने इस क्षमा को, मोक्ष को वश करनेवाली ऐसी मोक्ष की सखी बतलाई है । तथा यही क्षमा मनुष्यों के लिये इच्छानुसार सुख देनेवाली कल्पलता के समान है। मनुष्यों को शत्रुओं से रक्षा करनेवाली यह क्षमा ही सबसे उत्तम है । यह क्षमा उपशम की माता है, सबमें सारभूत है, शुभ करनेवाली है और धर्मरूप रत्नों को खानि है । देखो भगवान पार्श्वनाथ स्वामी, संजयंत मुनि और शिवभूत आदि कितने ही मुनि इस क्षमा को धारण कर ही शत्रुओं से उत्पन्न अनेक उपसगों को जीतकर शीघ्र ही केवलज्ञान को प्राप्त हुए हैं तथा तीनों लोकों के भन्य जीवों के द्वारा पूजे जाकर अनंत सुखों के समुद्र ऐसे लोक शिखर पर जा विराजमान हुए हैं। ॥२६२८-२६३३॥ सर्वश्रेष्ठ गुणों का समूह रूप क्षमा को धारण करने की प्रेरणा-- आमासम सपोनास्तिक्षमातुल्यं न सव्रतम् । क्षमामं न हितकिंचित्क्षमामिभं न जीवितम् ।।३।। इत्यावीपरमान जारवा मायाः गुणसंचयान । फुर्धन्तुसुधियो नित्यं क्षमा कृस्नप्रयत्नतः ॥३३॥ अर्थ-इस संसार में क्षमा के समान अन्य कोई तप नहीं है, क्षमा के समान . मन्य कोई श्रेष्ठ व्रत नहीं है, क्षमा के समान कोई हित नहीं है और क्षमा के समान कोई जीवन नहीं है। इसप्रकार इस क्षमा के सर्वोत्कृष्ट गुणों के समूह को समझकर Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूसाचार प्रदोप] ( ४५१) [एकादश अधिकार बुद्धिमानों को पूर्ण प्रयस्न के साथ नित्य ही क्षमा धारण करनी चाहिये ।।२६३२२६३३॥ उत्तम मार्दव धर्म के कथन की प्रतिज्ञाइत्येक लक्षणं सारं धर्मस्यास्यायधीमताम् । क्षमास्यं धर्ममूलं व द्वितीयं मार्दवं बधे ॥२६३४॥ अर्थ-इसप्रकार बुद्धिमानों के लिये धर्मका मूल और सारभूत ऐसे एक उत्तम रूप धर्मका लक्षण कहा । अब आगे दूसरे उत्तम मार्दव का लक्षण कहते हैं ।।२६३४।। मार्दव धर्म का लक्षणसत्ससमेषुसर्वेषुसमात्यादिषुचाष्टसु । मृदुनिश्चित्तवाककानिहस्य तन्कृतंमदम् ।।२६३५॥ क्रियतेमभावोयोस्खिलाहकारजितः । तबमलक्षणं नेयं मार्दवं सस्कृपाकरम् ।। २६३६।। अर्थ-ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर ये अभिमान के आठ कारण बतलाये हैं, इन सबको उत्तमता प्राप्त होनेपर भी मुनियों को अपने कोमल मन-वचन-काय को धारण कर इन पाठों मदों का त्याग कर देना चाहिये तथा सब तरह के अभिमानों का त्याग कर अपने कोमल परिणाम धारण करने चाहिये । श्रेष्ठ दया को पालन करनेवाला यही मार्दव धर्म का लक्षण है ॥२६३५-२६३६॥ कोमल एवं कठोर परिणामों के फम का निर्देशअसशीलसमस्तानि यान्तिसम्पूर्णता मताम् । सुमार्ववेन मुक्तिस्त्रीदत्ते चलिंगनं दृढम् ।।२६३७।। त्रियोगमावस्वेन भिणां धर्मउल्वणः । उत्पश्यतेगुणविश्वः साद्धं विश्वसुखाकर: ।।२९३८।। काठिन्यपरिणामेन जायते पापसूजितम् । क्षयोखिलनतावोनानि च स्वभ्रसंबलम् ॥२६३६।। अर्थ- इस मार्दव धर्म के कारण सज्जनों के समस्त व्रत और शील पूर्ण हो जाते हैं तथा इस मादव धर्म से ही मुक्तिस्त्री दृढ़ प्रालिंगन देने को तत्पर रहती है । मन-वचन-काय तीनों को कोमल रखने से धर्मात्मा पुरुषों के समस्त गुणों के साथ-साय समस्त सुखों को देनेवाला सर्वोत्कृष्ट धर्म प्रगट होता है । तथा कठिन परिणामों को रखने से प्रबल पाप उत्पन्न होता है, समस्त नतों का नाश होता है और प्रत्यन्त निद्य ऐसा मरक गति का साधन प्रगट हो जाता है ।।२६३७-२६३९॥ ___ मार्दव धर्म के धारण करने की प्रेरणाइतिसन्मदुकाठिन्यचित्तयोःफलमंजसा। गुभाशुभंविदित्याहोहत्याकठिनमानसम् ।।२६४०।। विश्वसस्वकृपामसं मावं सुष्ठपत्नतः । कुर्वन्सुमुनयोधर्मशिवश्रीसुझड़यये ॥२६४१॥ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४५२ ) [ एकादश अधिकार अर्थ- इसप्रकार कोमल परिणामों का फल शुभ और कठिन परिणामों का फल अशुभ समझकर कठिन परिणामों का त्याग कर देना चाहिये और उन मुनियों को धर्म तथा मोक्ष की लक्ष्मी और सुख बढ़ाने के लिये प्रयत्नपूर्वक समस्त जीवों की कृपा से परिपूर्ण ऐसा मार्दव धर्म धारण करना चाहिये ।।२९४०-२६४१॥ पुनः जिनेन्द्रदेव कथित आर्जव धर्म का स्वरूप निर्देशहृदियस्संस्थितकार्यव्र यते वचसा च तत् । वपुषाचर्यतेतथ्यमबुद्धिभिरंजसा ।।२६४२।। एतवार्जवमत्यर्थमुत्तमं धमलक्षरणाम् । प्रणोतं धर्मनाथेन सतां धर्मकुलालयम् ॥२६४३॥ अर्थ-अपनी सरल बुद्धि को धारण कर अपने मनमें जो कार्य जिस रूप से चितवन किया है, उसको उसी रूप से कहना और शरीर के द्वारा उसी रूप से करना, उत्तम प्रार्जव धर्म कहलाता है । धर्मको परंपरा का घर ऐसा यह आर्जय धर्मका लक्षण सज्जनों के लिये भगवान जिनेन्द्रदेव ने कहा है ॥२६४२-२६४३॥ आर्जव धर्म की महिमा एवं उसका फलपुमा चार्जवभावेन जायन्ते निर्मला गुणाः । त्रिजमत्सुखसाराणि तीर्थशादिविभूतयः ॥२६४४॥ मिरणामृजुवित्तेनोत्तमो धर्मोभवान्तकः । साक्षान्मुक्तिबधूवाताभवेत्सर्वार्थसाधकः ॥२६४५॥ प्रार्या प्रार्जवयोगेनह्यवसापिभोगिमः । यान्तिदेवालयं नूनं ? मतोस्याप्यमातृकः ॥२६४६।। अर्थ- इस आर्जव धर्म के निमित्त से मनुष्यों को अत्यन्त निर्मल गुरप प्राप्त होते हैं, तीनों जगत के सारभूत सुख प्राप्त होते हैं और तीर्थकरादिफ की विभूतियां प्राप्त होती हैं । सरल हृदय को धारण करने से धर्मात्माओं को, संसार को नाश करने वाला साक्षात् मोक्षस्त्री को देनेवाला और समस्त पुरुषार्थों को सिद्ध करनेवाला उत्तम धर्म प्राप्त होता है । देखो सदा भोगोपभोग सेवन करनेवाले और प्रयती ऐसे भोग भूमिया भी मन-वचन-कायको सरल रखने के कारण स्वर्ग में ही जाकर जन्म लेते हैं । ॥२६४४-२६४६।। ___किमके ध्यानादि तप निष्फल हैकौदिल्यपरिणाममा कुटिलामाग्लिदुर्गतिम् । प्रहोपामार्णनंकृत्यामा रमकरादिकाः ॥२६४७। फूटायमियष्पमिफलस्वप्नराज्यवत् । विषमिश्रितबुग्धं वा तपोध्यामादिपियाम् ॥२६४८।। अर्प-तथा बिल्ली, मगर आदि भायाचारी कुटिल जीव अपने कुटिल परिणामों के ही कारण अनेक पापों को उत्पन्न कर दुर्गति में जाकर जन्म लेते हैं। जो Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( ४५३ ) [एकादश अधिकार सरल बुद्धि को धारण नहीं करते, उनके तप और ध्यानादिक सब नित्य द्रव्य के समान व्यर्थ हैं, स्वप्न में मिले हुए राज्य के समान निष्फल हैं और विष मिले हुए दूध के समान हानि करनेवाले हैं ।।२९४७-२६४६।। मायाघारी रूप क्रियानों का फल एवं असे त्यागने की प्रेरणामायाविनां तपोधर्मसंसमो वा शुभक्रिया । स्वयतो मिश्वितमायानतियंगतिभवेत् ॥२४॥ मत्वेति दूरतस्त्यवत्वामायावाक्यादिमंजसा । ऋजुयोगेन कुर्वाध्वमानवमुक्तयेषाः ।।२६५०॥ अर्थ-मायाचारी पुरुषों के तप, धर्म, संयम धा शुभ क्रियाएं कुछ नहीं बन सकती, क्योंकि यह निश्चित है कि मायाचारी से उत्पन्न हुए पाप के कारण मायाचारियों को लियच गति की ही प्राप्त होती है। यही समझकर बुद्धिमानों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये मायाचारी से मिले हुये मन-वचन-काय को दूर से हो त्याग कर देना चाहिये और मन-वचन-काय की सरलता धारण कर प्रार्जव धर्मका पालन करना चाहिये ॥२६४६-२६५०॥ ___ सत्यधर्म का लक्षण एवं उसे धारण करने का फलस्वान्येषां हितमुद्दिश्य धर्मतत्त्वार्यगभितम् । यतेयवचस्तथ्यं सारं सिद्धान्तवेदिभिः ।।२९५१ भाषासमितिमालंव्य सत्सत्यं धर्मलक्षणम् । ज्ञानबोजं जगन्मान्यं कर्मघ्नं मोक्षकारणम् ।।२६५२॥ सत्येन विमला कोतिभ्र मेल्लोकत्रयेसताम् । महाधनश्च जायेत ज्ञानाय : सद्गुणः सह ।२६५३।। विजगच्छीः परं सौख्यं जगत्पूज्या च भारतो । सर्वसवंभवंसत्याल्सभ्यतेसत्यवादिभिः । २६५४।। अर्थ-सिद्धांत को जाननेवाले जो मुनि अपने और दूसरों के हित को ध्यान में रखते हुए धर्म और तत्वों के अर्थों से सुशोभित यथार्थ और सारभूत वचन कहते हैं तथा भाषा समिति को आलंबन कर वचन कहते हैं, वह सत्यधर्म का लक्षण है। यह सत्यधर्म ज्ञानका बीज है, तीनों लोकों में मान्य है, को को नाश करनेवाला है और मोक्ष का कारण है। इस सत्यधर्म के कारण सज्जनों की निर्मल कोति तीनों लोकों में फैल जाती है और सम्यग्ज्ञानाविक श्रेष्ठ गुणों के साथ-साथ उनको महाधर्म की प्राप्ति होती है। सत्यवादियों को इस सत्यधर्मके प्रभाव से तीनों लोकों की लक्ष्मी प्राप्त होसी है, परम सुख की प्राप्ति होती है, तीनों लोकों में पूज्य ऐसी सरस्वती की प्राप्ति होती है और सर्वज्ञ को विभूति प्राप्त होती है ॥२६५१-२६५४॥ असत्य बोलने का फल एवं सत्य बोलने की प्रेरणा-- माजस्वमुखरोगस्वं स्वाकोतिदुःसमंजसा । दुर्गति ध महत्पापलभन्तेमतभाषिणः ॥२९५५।। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप ] { ४५४ ) [एकादश अधिकार इत्येतयोःफलं ज्ञात्वा त्यक्स्वामृषाषछो खिलम् । वदन्तुनिपुणाः सत्यं मधुरंसमोहितम् ।।२९५६।। अर्थ-मिथ्या भाषण करनेवालों को अज्ञानता की प्राप्ति होती है, मुख के अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं, संसारमें अपकीति फैल जाती है, अनेक दुःखों की प्राप्ति होती है और महा पाप उत्पन्न होता है। इसप्रकार सस्य असत्य बोनों का फल समझ कर बुद्धिमानों को सब तरह के मिथ्या भाषण त्याग कर देना चाहिये और हित करने वाले मधुर सत्य वचन कहने चाहिये ॥२६५५-२६५६।। शौध धर्म का लक्षणइन्द्रियार्थेष्वनासक्त निस्पृहं विशववस्तुषु । सर्वागिकरणाकान्तमनः कृत्यायनितम् ॥२९५७।। लोभशत्रु निहत्योपः सन्तोषो यो विषीयते। विश्वार्थस्वसुखादौतच्छौथं सद्धमंलक्षणम् ।।५।। अर्थ-जो मुनि अपने मनसे इन्द्रियों के विषयों की आसक्ति का त्याग कर देते हैं, अपने ही मन में समस्त पदार्थों की निस्पृहता धारण करते हैं और समस्त जीवों की दया पालन करते हैं । इसप्रकार अपने मनको पाप रहित बनाकर लोभ रूपो शत्रु को सर्वथा नाश कर डालते हैं और समस्त पदार्थों में तथा अपने सुखादिक में पूर्ण संतोष धारण करते हैं, उसको शौच नामका धर्म कहते हैं ।।२६५७-२६५८।। लोभ के चार भेद एवं उन्हें त्यागने की प्रेरणाजोवितारोग्य पंचेन्द्रियोपभोगेश्चतुबिषः । स्वान्ययोरत्रलोभोवक्षस्त्याज्यः समुक्तये ॥२९५६॥ अर्थ-इस संसार में लोभ चार प्रकार का है, जीवित रहने का लोभ, मारोग्य रहने का लोभ पंचेन्द्रियों का लोभ और भोगोपभोगों की सामग्री का लोभ । चतुर पुरुषों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये अपने तथा दूसरों के दोनों के लिये चारों प्रकारके लोभ का त्याग कर देना चाहिये ।।२६५६॥ किसको शौच धर्म की प्राप्ति होती हैनिर्लोभानां जिताक्षाणां शौचधर्मोहिकेवलम् । जायतेपरमोमुक्य न कामाशक्तचेतसाम् ।२६६०॥ अर्थ-~-जो इन्द्रियों को जीतनेवाले निर्लोभी हैं, उन्हीं के मोक्ष प्राप्त करनेवाले परमोत्कृष्ट शौचधर्म की प्राप्ति होती है, जिनका हृदय कामवासना में लगा हुमा है, उनके शौचधर्म की प्राप्ति कभी नहीं होती ।।२९६०॥ निर्लोभी एवं लोभी पुरुषों को संसार में किसकी प्राप्ति होती हैशोधन महतो लक्ष्मो वनत्रयगोचरा । मुक्तिस्त्रोस्वयमायातिनिर्लोभरिचयमाःपरम् ।।२९६१॥ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप] [ एकादश अधिकार लोभिना लोभपापेनदारिन दुःखमुल्बम | बुगंतो भ्रमणं पापंदुनिं चाशुभो भवेत् ।।२६६२॥ अर्थ-निर्लोभी पुरुषों को इस शौचधर्म के प्रभाव से तीनों लोकों में उत्पन्न होनेवाली महा लक्ष्मी प्राप्त होती है तथा मोक्ष लक्ष्मी स्वयं आकर प्राप्त हो जाती है और उनका सर्वोत्कृष्ट यश तीनों लोकों में फैल जाता है । लोभी पुरुषों को लोभ रूप पाप से दरिद्रता उत्पन्न होती है, घोर दुःख प्राप्त होते हैं, अनेक दुर्गतियों में परिभ्रमण होता है, महा पाप उत्पन्न होता है, निध अशुभध्यान होता है और अशुभ कर्मों का बंध होता है ।।२६६१-२६६२।। किसके द्वारा लोभ रूपी शत्रु को नष्ट करना चाहियेमवेत्याहत्यलोमारिसम्सोषखड्गधासतः । अन्तः शौचं विधातष्यवृधमुक्त्यै नमाइते ।।२६६३॥ अर्थ--यही समझकर बुद्धिमान् मुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये संतोष रूपी तलवार की चोट से लोभ रूपी शत्रु को मार डालना चाहिये और बिना जल के अंतरंग शौच को धारण करना चाहिये ।।२६६३॥ ____ संयम धर्म का स्वरूप निदेशमनः पञ्चेन्द्रियाणायद्रोधनपरिरभरणम् । षड्जीवानांत्रिशुद्धघा घाचर्यतेत्रममभिः ॥२९६४॥ संपमः स जिनः प्रोक्तः सामाग्मुक्तिनिवन्धनः । तपोशानधर्मादिगुणानांशुद्धकारकः ।।२९६५।। अर्थ-मोक्ष की इच्छा करनेवाले मुनि लोग मन-वचन-काय को शुद्धतापूर्वक जो मन और पांचों इन्द्रियों का निरोध करते हैं तथा छहों काय के जीवों की रक्षा करते हैं उसको भगवान जिनेन्द्रदेव संयम कहते हैं । यह संयम मोक्ष का साक्षात् कारण है तथा तप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और धर्माविक समस्त गुणों को शुद्ध करनेवाला है ।।२९६४-२६६॥ संयम के भेद एवं उनके स्वामी का निर्देशउपेक्षापहृताभ्यां स संयमोद्विविधोमतः । पायउत्कृष्टकायामांद्वितीयोऽपरयोगिनाम् ।।२९६६।। अर्थ-अथवा उपेक्षा संयम और अपहृत संयम के भेद से इस संयम के वो भेद हैं । उत्कृष्ट शरीर को धारण करनेवालों के उपेक्षा संयम होता है और अन्य मुनियों के अपहृत संयम होता है ।।२६६६।। उपेक्षा संयम एवं अपहृत संयम का स्वरूप निर्देशउत्कृष्टांगवलावस्यविदस्त्रिगुप्तिधारिणः । रागद्वेषाधभाषो यः उपेक्षासंयमोम सः ॥२९६७॥ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ] ( ४५६ ) [ एकादश विकास क्षैः समयः पंच यत्रसंवर मातृकाः । यत्नेन प्रतिपालयन्तेऽपहृसाक्ष्यः स संयमः || २६६८ ॥ अर्थ -- महा ज्ञानी और तीनों गुप्तियों को पालन करनेवाले महा मुनियों के उत्कृष्ट शरीर में बल होने के कारण जो रागद्वेषका सर्वथा अभाव हो जाता है उसको उपेक्षा कहते हैं । जो चतुर मुनि प्रयत्नपूर्वक संबर को उत्पन्न करनेवाली पांचों समितियों का पालन करते हैं उसको अपहृत संयम कहते हैं ॥२६६७ - २६६८ ।। संयम के उत्कृष्ट ५ भेद सामाविकाभिषं छेदोपस्थापनसमाह्वयम् । परिहारविशुद्धि सूक्ष्म साम्परायन्नामकम् । २६६६।। यमाख्याताथ्य चारित्रं पंचमेवा इमेपराः । संयमस्य याचारितास्यः शिवंकराः ।। २६७० ।। अर्थ – सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसांवराय और यथापात ये चारित्र के उत्कृष्ट मेव हैं। ये सब मोक्ष की प्राप्ति करानेवाले हैं और संयम के हो उत्कृष्ट भेव कहलाते हैं। ऐसा बुद्धिमानों को समझ लेना चाहिये ।।२६६६२६७०॥ सामायिक चारित्र का स्वरूप सर्वसाद्ययोगानां सर्वयायच्चवजितम् । निवास्तुतिसुहृच्छत्रु दृषद् स्नादिवस्तुषु ।। २६७१ ।। सुखदुःखादिसंयोगे समता करणं बुधैः । विधीयते त्रिशुष्या तद् वृत्तंसामायिकाह्वयम् ॥१२६७२ ॥ अर्थ- जहां पर बुद्धिमान पुरुष मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक समस्त सावद्यरूप (पापरूप) योगों का सर्वथा त्याग कर देते हैं तथा निंदा स्तुति में, शत्रुमित्र में, रत्न और पाषाण में और सुख दुःखादि के संयोग में समता धारण करते हैं, उस चारित्र को सामायिक नामका चारित्र कहते हैं ।।२६७१-२६७२॥ छेदोपस्थापना संयम का स्वरूप देशकाल निशेधार्थ : प्रमादेन च कारणं । अंगीकृतव्रतादीनां जातात चारदोषतः १२९७३ ॥ प्रायश्चित्तस्वनिन्दार्थ : यद्विशोधनमंजसा । क्रियतेवतिभिस्तद्धि देवोपस्थापनमतम् ।।२९७४ ॥ अर्थ--- किसी देश काल के कारण वा किसी की रुकावट के कारण या प्रमाद से अथवा और किसी कारण से यदि स्वीकार किये हुए व्रतों में कोई अतिचार लग जाय तो अपनी निंदा, गर्हा आदि के द्वारा प्रायश्चित्त धारण कर उस प्रतिचार संशोधन करना, दोषों की शुद्धि कर व्रतों को शुद्ध करना छेदोपस्थापन नाम का संयम कहलाता है ।।२६७३-२६७४।१ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] (४५७) [ एकादश अधिकार परिहार विशुद्धि चारित्र कौन धारण कर सकता है ? निसमापुस्त्रिवाणामपरिस्फुटम् । अधस्तलेनवाष्टानां पादसेवी जितेन्द्रियः ।।२६७५।। तोर्थकरस्य सङ्घयवीर्यकायवलांकितः । योनेकदेशभाषादिचतुरो नवपूर्वषित ..२६७६।। निष्प्रभावो महादुःखचर्या सप्तपसायुतः । परिहारविशुद्धि सः कर्तुमर्हति नापरः ॥२६७७।। अर्थ-जिस मुनिकी आयु कम से कम तीस वर्ष की है, जो तीन वर्ष से ऊपर पाठ नौ वर्ष तक भगवान तीर्थंकर परमदेव के समीप चरण कमलों के समीप रह चुका हो, जो जितेन्द्रिय हो, श्रेष्ठ धैर्य, श्रेष्ठ पराक्रम, श्रेष्ठ बल और श्रेष्ठ शरीर से सुशोभित हो तो अनेक देश की भाषाओं के जानने में चतुर हो, ग्यारह अंग और नौ पूर्वका पाठी हो, प्रमाद रहित हो, जो अत्यन्त कठिन और दुःखमय चर्या करता हो और श्रेष्ठ तपश्चरण करता हो वही मुनि परिहार विशुद्धि नाम के चारित्र को धारण कर सकता है । जिसमें ये गुण नहीं है, वह परिहार विशुद्धि चारित्र को कभी धारण नहीं कर सकता ॥२६७५-२६७७॥ ___परिहार विशुद्ध चारित्र का स्वरूप-- बर्जयित्वात्रिसंध्यांचानेकदेशविहारिणा । एकाकिना प्यनेनैवयोगिना बमवासिना ||२६७।। गम्यते पत्रयत्नेन गम्यूतिद्वयमन्वहम् । परिहारविशुध्यात्यंतच्चारित्रं विशुद्धिदम् ।।२६७६।। अर्थ- परिहार विशुद्धि संयम को धारण करनेवाला मुनि सामायिक को तीनों संध्याओं को छोड़कर बाकी के समय में अकेला ही अनेक देशों में विहार करता है, वन में ही निवास करता है और प्रतिदिन प्रयत्न पूर्वक दो गन्यति अवश्य गमन करता है, वह आत्मा को अत्यन्त विशुद्ध करनेवाला परिहार विशुद्ध नामका चारित्र कहलाता है ।।२६७८.२६७६।। सूक्ष्म साम्पराम नामक चरित्र का स्वरूएसूक्ष्मीकृतस्वलाभेन शुक्लध्यानविधायिना । क्षपकोपशमश्रेण्यारूढेनमोहघातिना ।।२६८०॥ सूक्ष्मात्मानुभावोयोऽप्रक्रियतेशुद्धचेतसा । तत्सूक्ष्मसाम्परायाख्यचारित्रलोभघातकम् ॥२६८१॥ अर्थ--जिन महा मुनि ने अपना संज्वलन लोभ कषाय अत्यंत सूक्ष्म कर लिया है, जो शुक्लध्यान धारण कर रहे हैं, जो क्षपकश्रेणी वा उपशम श्रेणी में विराजमान हैं, जो मोहनीय कर्मको घात करनेवाले हैं, ऐसे मुनिराज जो शुद्ध हृदय से सूक्ष्म प्रात्मा का अनुभव करते हैं उसको लोभ को घात करनेवाला सूक्ष्म सापराय नाम का चारित्र कहते हैं ॥२६८०-२६८१॥ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] [ বুকা শিকার यथाख्यति चारित्र का स्वरूपयथातथ्येन सर्वेषो वतादीनां च पालनम् । प्रागमोक्श्यान्तरेस्वानुभवनं परमात्मनः ।।२६८२।। निर्मोहाना भवेद्यत्र शुक्ल ध्यानसुधाशिनाम् । तच्चारित्रं यथाख्यानाभिधंघातिथियातक्षम ||३|| अर्थ--जो मुनिराज मोहनीय कर्म से रहित हैं और जो शुक्लध्यानरूपी अमृत का पान कर रहे हैं, ऐसे मुनिराज जो समस्त धताधिकों को यथार्थ रीति से पालन करते हैं और गम में कहे अनुसार अपने प्रात्मा में परमात्मा का अनुभव करते हैं उसको घातिया कमों को नाश करने वाला यथाख्यात चारित्र कहते हैं ॥२६८२२९.३॥ ___ संयम की महिमा एवं उसको पालने की प्रेरणाचारित्रापंचभिरतश्चतुभिर्वाशियोगमा । ध्यानिभिलम्यते नूनं समस्तगुण मूषिता ।।२९८४॥ संयमेनसतांस्याच्च संघरोखिलकर्मणाम् । निजरासद्गुणग्रामः सुखं वाचामगोचरम् ||२६८५।। संयमेनसमं स्वल्पं कृतं तपोमहाफलम् । फलत्यत्र न संदेहो धीमता स्वशिवादिषु ।।२९८६॥ सयमेन विना पुसा तपोध्यानप्रसादिकम् । वृषा भवेन्न घ सार्थसर्वपापभवाश्रयात् ॥२९८७।। विदित्वे विधायन समिति पुरस्कारले पयरत्नत्रयविशुद्धये ॥२६८।। अर्थ-इन पांचों प्रकार के चारित्र से अथवा चार प्रकार के चारित्रसे ध्यानी पुरुषों को समस्त गुणों से विभूषित ऐसी मुक्तिरूपी स्त्री अवश्य प्राप्त हो जाती है । इस संयम को धारण करने से सज्जन पुरुषों के समस्त कर्मों का संवर होता है, समस्त कों को निर्जरा होती है, समस्त गुणों के समूह प्राप्त होते हैं और वाणी के अगोचर सुख प्राप्त होता है। इस संयमके साथ-साथ थोड़ासा किया हुमा तप भी बुद्धिमानों को मोक्षादिक की प्राप्ति में महा फल देता है, इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है। इस एक संयम के बिना मनुष्यों के तप, ध्यान और व्रतादिक सब व्यर्थ हो जाते हैं, सार्थक नहीं होते क्योंकि बिना संयम के समस्त पापों का प्राव होता ही रहता है । यही समझकर संवर करने वालों को रत्नत्रय को विद्धि के लिये तथा मोक्ष प्राप्त करने के लिये पूर्ण प्रयत्न के साथ इस संयम का पालन करना चाहिये ॥२६८४-२६८८।। तप का स्वरूप और उसके भेदपंसाक्षविषयाणांयस्समस्तेहानिरोधनम् । ततपः सूरिभिः प्रोक्त परं सतर्मकारणम् ||२६८९ll प्रागुक्त पहिषामेवविस्तरेण तपोलिलम् । पापिभिविषेय तत्मसर्माय भवापहम् ॥२६९|| अर्थ-पांचों इन्द्रियों के विषयों में अपनी समस्त धानों का निरोष करना - - Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४५१ ) [एकादश अधिकार आचार्यों के द्वारा तप कहलाता है, यह तप उत्कृष्ट धर्म है और श्रेष्ठ धर्म का कारण है । पहले इस तप के बारह भेद विस्तार के साथ कह चुके हैं । यह सब तप संसार को नाश करनेवाला है, इसलिये धर्मात्मा पुरुषों को श्रेष्ठ धर्म धारण करना चाहिये । ॥२९८६-२६६०॥ त्याग धर्म का स्वरूप एवं ज्ञान दान का निर्देशअन्तर्वाह्योपधीनांयन्मूत्यिजनमंजसा। मनोवाक्काययोगः स त्यागउत्तमधर्मदः ।।२६६१॥ तयाज्ञानहर जानवानसिद्धान्तगोचरम् । शब्दार्थोमयसम्पूर्ण यत्सत्पात्राय दीयते ॥२६॥२॥ अर्थ-मन-वचन-काप के तीनों योगों से अंतरंग और बाह्य सब तरह के परिग्रहों में मूर्छा वा ममत्व का त्याग कर देना त्याग कहलाता है । यह त्याग सबसे उत्तम धर्म को देनेवाला है। अज्ञान को हरण करनेवाला दूसरा त्याग ज्ञानदान है । यह शानदान सिद्धांत शास्त्रके गोचर है अर्थात् सिद्धांत शास्त्रोंका पढ़ाना ज्ञानवान है । सिद्धांत शास्त्र के शब्द अर्थ वा शब्द अर्थ दोनों जो श्रेष्ठ पात्रों के लिये दिए जाते हैं उसको ज्ञानदान कहते हैं ॥२६६१.२६६२॥ अभय दान का स्वरूप एवं ज्ञान दान एवं अभय दान का फलप्रभयास्य महदानं भयभीताखिलात्मनाम् । स्याग: स उच्यते सद्भिः केवलज्ञानमेत्रवः ॥२६६३।। ज्ञानदानेन लम्यन्ते श्रुतशानादपोखिलाः । बुधेश्यनिर्भयस्थानं दयादानेननिश्चितम् ।।२९६४॥ अर्थ-तीसरा त्याग अभयदान है, भयसे भयभीत हुए समस्त जीवों को अभय दान देना अभय दान है, यह सब दानों में उत्तम दान है और केवलज्ञान रूपी नेत्रों को देनेवाला है ऐसा श्रेष्ठ पुरुषों ने कहा है । विद्वान पुरुषों को ज्ञानदान देने से पूर्ण श्रुतज्ञान की प्राप्ति होती है तथा दयावान देने से मोक्षरूप निर्भय स्थान की प्राप्ति होना अवश्य ही निश्चित है ।।२६६३-२६६४॥ परिग्नह त्याग से लाभसंगत्यागेन जायेत चित्तशुद्धिः परासताम् । तथाध्यान प्रशस्तं च ध्यानाकर्ममयस्ततः ।।२६९५॥ केवलज्ञानलक्ष्मीश्चततोमुक्तिवस्तया । अनन्तमुझमात्मोरपंसिद्धश्रियागुणःसमम् ||२९६६॥ अर्थ-परिग्रहों का त्याग करने से सज्जनों का मन अत्यन्त शुद्ध हो जाता है, मन के शुद्ध होने से ध्यान की प्राप्ति होती है, ध्यान से कर्मों का भय होता है, कर्मों का क्षय होने से केवलज्ञान लक्ष्मी प्राप्त होती है, केवलज्ञान लक्ष्मी प्राप्त होने से मुक्ति Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] [एकादश अधिकार - रूपी स्त्री की प्राप्ति होती है और मुक्ति के प्राप्त होने से अनंत गुण और अनंत लक्ष्मी के साथ-साथ आत्मा से उत्पन्न होनेबाला अनंत सुख प्राप्त होता है ।।२६६५-२६६६॥ परिसह ग्रहण से हानिसंगादिमूकछया पुसा दुनिंजायतेतराम् । दुानाच्चमहापापं पापादनुःसपरंपरा ।।२९६७॥ अर्थ-परिग्रहादिक में ममत्व रखने से मनुष्यों के अशुभध्यान होता है, अशुभध्यान से महा पाप होता है और पाप से अनेक दुःखों की परंपरा प्राप्त होती है ।।२९६७।। __ परिग्रह त्याग की महिमा आकांक्षा पूर्वक परिग्रह के त्यागने को प्रेरणासंगत्यागसमो धर्मो न जगच्छौसुखाकर।। संगमू निभं पापं न महछवभ्रवःमदम् ॥२६॥ विज्ञायेतिनिहत्यानुसंगाकारहनिमः । शर्मामाणिजपामगागं कुर्वन्तु धर्मदम् ।।२६६६ अर्थ- इस संसार में परिग्रह के स्याग के समान अन्य कोई धर्म नहीं है, क्योंकि यह धर्म तीनों लोकों की लक्ष्मी और सुख की खानि है । इसीप्रकार परिग्रह में मूर्छा रखने के समान अन्य कोई पाप नहीं है, क्योंकि परिग्रह में मूच्र्छा रखना महा नरक के छुःख देनेवाली है । यही समझकर सुख चाहने वाले पुरुषों को धर्म की प्राप्ति के लिये समस्त परिग्रहों की आकांक्षा का त्याग कर देना चाहिये और उसके साथ समस्त परिग्रहों का त्याग कर देना चाहिये । यह परिग्रहों का त्याग ही धर्म की प्राप्ति करानेवाला है ॥२६६८-२६६६।। आकिंचत्य धर्म का स्वरूपदेहोपषिखशर्मादौममत्वं त्यज्यतेत्रयत् । निस्पृहयोगशुद्धया ताकिच्चन्यसुखाकरम् ।।३०००। अर्थ--जो निस्पृह मुनि मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक शरीर परिग्रह और इन्द्रियों के सुख में ममस्व का त्याग कर देते हैं उसको सुख देनेवाला आकिंचन्म धर्म कहते हैं ।।३०००। पुनः परिग्रह के ममत्व के त्यागने की प्रेरणायथा यथा शरीरावौनिर्ममवप्रवर्वते । तया तथा निरोधश्चपापामानिरासताम् ।।३००१॥ प्रक्षार्थोपधिशर्माविस्यक्तु यच्छक्यसे एषैः । तत्त्याज्यसकलं बस्तुमनोवास्कायद्धभिः ।।३००२।। स्पक्तु पच्छक्यले नाहो कायाविपुस्तकादिकम् । त्याज्यं सेषांममत्वं च सर्वयादोषकारणम् ।। अर्थ-जैसे-जैसे शरीराविक में निर्ममत्व बढ़ता जाता है, वैसे हो वैसे सज्जनों Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] [एकादश अधिकार के पापों का निरोध होता रहता है और कर्मों को निर्जरा होती रहती है । बुद्धिमान पुरुष इन्द्रियों के विषयों को और परिग्रहों के सुखको जितना त्याग कर सकते हैं उनको उतना त्याग मन-वचन-कायकी शुद्धता पूर्वक अवश्य कर देना चाहिये । तथा जो शरीर वा पुस्तक आदि ऐसे परिग्रह हैं जिसका त्याग किया ही नहीं जा सकता उनमें समस्त दोषों का कारण ऐसा ममत्व अवश्य छोड़ देना चाहिये ।।३००१-३००३।। परिग्रह में ममत्व धारने से हानिएवं ये कुर्वते नित्यंह्याभिचन्यं परं भवेत् । तेषां धर्मार्णवंदोषसंचयंममकारिणम् ॥३०॥४॥ अर्थ-इसप्रकार जो परिग्रह का त्याग वा ममत्वका त्याग कर देते हैं, उनके धर्मका सागर ऐसा सर्वोत्कृष्ट आफिचन्य धर्म होता है तथा जो परिग्रहादिकों में ममत्व धारण करते हैं उनके समस्त दोषों के समूह आ उपस्थित होते हैं ॥३००४॥ उत्कृष्ट प्राकिचन्य धर्म धारने की प्रेरणामस्वेति ममता त्यक्त्वास कायाधिवस्तुषु । निर्ममत्वाशयः कार्यमाकिवयंशिवाप्तये ॥३००। अर्थ- यही समझकर निर्ममत्व धारण करनेवाले पुरुषों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये शरीरादिक समस्त पदार्थों में पूर्ण ममत्व का त्याग कर उत्कृष्ट प्राचिन्य धर्म धारण करना चाहिये ।।३००५॥ सर्वोत्कृष्ट ब्रह्मचर्य का लक्षणदृश्यन्ते सकला मार्यो यत्रमात्राविसनिभाः। त्यक्तरागैमनोनेत्रब्रह्मचर्य सवुसरम् ॥३००६।। ब्रह्मचर्यरगमुक्तिस्त्री वृणोति ब्रह्मचारिणम् । सधैःगुणः समं शीघ्र स्वर्गश्रियोन का कथा 14001 ___ अर्थ-रागद्वेष को त्याग करनेवाले जो पुरुष अपने मनरूपी नेत्रों से समस्त स्त्रियों को अपनी माता के समान देखते हैं उनके सर्वोत्कृष्ट ब्रह्मचर्य होता है । ब्रह्मचारियों को इस ब्रह्मचर्य के प्रभाव से मुक्तिस्त्री समस्त गुणों के साय-साथ आकर स्वयं स्वीकार करती है फिर भला स्वर्ग की लक्ष्मी की तो बात ही क्या है ॥३०.६. ३००७॥ किसका हृदय शुद्ध एवं किसका हृदय अशुद्ध रहता हैउत्पद्यतेपरोधों हमछापा ब्रह्मचारिणाम् । कामिना विसशुद्धिः कव तयाविनाशुभंकुतः ।। अर्थ- ब्रह्मचारियों का हृदय शुश रहता है इसलिये उनको परम धर्म को Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४६२ ) [ एकादश अधिकार प्राप्ति होती रहती है तथा कामी पुरुषों का हृदय कभी शुद्ध नहीं हो सकता इसलिये उनका कल्याण भी नहीं हो सकता ।।३००८॥ ब्रह्मचर्य पालने की प्रेरणाजास्वेसिधीधना नित्यंयोगशुढचाविमुक्तये । पालयन्तुविरक्त्याहो ब्रह्मचर्य सुधर्मदम् ।।३००६।। ___ अर्थ-यही समझकर विद्वान् पुरुषों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये मन-वचनकाय की शुद्धता पूर्वक तथा परिणामों में विरक्तता धारण कर श्रेष्ठ धर्म देनेवाला यह ब्रह्मचर्य सदा पालन करते रहना चाहिये ।।३००। दश धर्म पालने की प्रेरणाएषोदश विधोधर्मोमुक्तिस्त्रीहृदयप्रियः । क्षमा दलक्षणविश्वः कर्तव्योमुत्तिफाक्षिभिः ॥३०१०॥ अर्थ-इसप्रकार यह दश प्रकार का धर्म है और मुक्तिस्त्रीके हृदय को अत्यंत प्रिय है अतएव मोक्ष की इच्छा करनेवाले मुनियों को उत्तम क्षमा आदि समस्त धर्मों को धारण कर सवा इसका पालन करते रहना चाहिये ।।३०१०।। धर्म की महिमा एवं उसे पालने की प्रेरणान घमंसशोधुरिहामुत्रहितंकरः । नावधर्मसमः कल्पमः कल्पितभोगदः ।।३०११॥ चिन्तामरिण न धर्मामाश्चिन्तिलार्यशतप्रदः । धर्मतुल्योनिधिनास्तिहाखण्डो या सुहद्वरः ॥३०१२।। नधर्मसग्निभं पुंसां पाथेयं परजन्मनि । सहगामोमवचिन्नान्योपद्विाशर्मवः शुभः ॥३०१३॥ धर्माद्विना न कोयन्यो मोक्ष नेतुनराधमः । उपतुं नरकाद्वाही दातु चेन्नाविसत्पवम् ।३.१४॥ इस्माथस्य फलं शास्त्राप्रबरंसुष्ठशक्तितः। भजध्वधर्ममेकं च त्यक्त्यापापसुलार्थिनः ।।३०१५।। अर्थ-इस संसार में इस लोक और परलोक दोनों लोकों में हित करनेवाला धर्म के समान अन्य कोई बन्धु नहीं है तथा इसी धर्म के समान इच्छानुसार भोगों को देनेवाला अन्य कोई कल्पवृक्ष नहीं है। इस धर्म के समान सैकड़ों चितित पदाओं को देनेवाला कोई चिंतामणि रत्न नहीं है, अथवा इस धर्म के समान कोई अखंर निषि नहीं है और इस धर्म के समान अन्य कोई श्रेष्ठ मित्र नहीं है। मनुष्यों को परजन्म में जाने के लिये इस धर्म के समान कोई पाथेय ( मार्ग का व्यय ) नहीं है तथा कल्याण करनेवाला शुभ रूप ऐसा वा साथी भी इस धर्म के सिवाय अन्य कोई नहीं है । धर्म के सिवाय अन्य कोई भी मनुष्यों को मोक्ष ले जाने में समर्थ नहीं है.अथवा से उद्धार करने के लिये भी तथा इन्द्रादिक श्रेष्ठ पद देने के लिये भी धर्म : Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " मुलाचार प्रदीप ] ( ४६३ ) { एकादश अधिकार अन्य कोई समर्थ नहीं है । श्रतएव सुख की इच्छा करने वालों को इस धर्म का ऐसा श्रेष्ठ फल समझकर अपनी शक्ति के अनुसार पापों का त्याग कर इस एक धर्म का ही सेवन करना चाहिये । ३०११-३०१५३॥ किसको धारण कर मोक्ष स्थान प्राप्त किया जा सकता है सुविसु धर्म विश्वनार्थसुं दार्यं दशविघमगदोषं ये चरन्त्यात्मशक्त्या । त्रिभुवनपतिसेव्यंशमसारं च भुक्त्या जिनप्रतिविभवं ते यान्तिमोक्षगुणाविधम् ॥३०१६ ॥ अर्थ - इसप्रकार यह दश प्रकार का धर्म तीनों लोकों के इन्द्रों के द्वारा पूज्य है और समस्त दोषों से रहित है। ऐसे इस धर्म को जो अपनी शक्तिके अनुसार धारण करते हैं वे तीनों लोकों के इन्द्रों के द्वारा सेवनीय ऐसे सारभूत सुखों का अनुभव कर तोर्थंकर की विभूति को प्राप्त करते हैं और अंतमें अनेक गुणों के समुद्र ऐसे मोक्षस्थान में जा विराजमान होते हैं ।। ३०५६ अन्तमें धर्म को नमस्कार करके प्राचार्य पापों के नाश की याचना करते हैंefutureferri धनदो धर्मयन्ते विदो, धर्मवसदाप्यतेवरसुखं धर्माभक्त्या नमः । धर्मान्नास्यप रोगुणाष्टजनको धर्मस्थलानिः क्रिया: धर्म मेदतोमनः प्रतिदिनं धर्म पापं जहि ।। ३०१७ । । इति श्रीमूलाधारोपकारूपे महाग्रंथे भट्टारक श्रीसकल कोर्तिविरचिते शीलपुरादशलाक्षणिक धर्मवर्णनो नामेकादशमोऽधिकारः । अर्थ - यह धर्म लक्ष्मी और धन की इच्छा करने वालों को धन देता है, विद्वान लोग ही इस धर्म को धारण करते हैं, इस धर्म से हो श्रेष्ठ सुखों को प्राप्ति होती है, इसीलिये मैं इस धर्म के लिये भक्ति पूर्वक नमस्कार करता हूं। इस धर्म के सिवाय सम्यक्त्व आदि भाठों गुणों को देनेवाला अन्य कोई नहीं है, क्रियाकर्म या धर्मानुष्ठान ही इस धमकी खानि है प्रतएव मैं अपने मनको प्रतिदिन धर्ममें ही लगाता हूं, हे धर्म तू मेरे पापों को नाश कर ।।३०१७ इसप्रकार आचार्य श्रीसकलकोति विरचित भूलाचार प्रदीप नामके महाग्रन्थ में शीलगुण दशलक्षण धर्म को निरूपण करनेवाला यह ग्यारहवां अधिकार समाप्त हुआ । Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशमोधिकारः मंगलाचरण वोतरागान्मुनीन्द्रधाननुप्रेक्षार्थचिन्तकान् । सद्ध्यानध्वस्तकारीन् बन्येविश्वहितोखतान ।१८।। अर्थ-जो मुनिराज वीतराग हैं, अनुप्रेक्षाओं का सदा चितवन करते रहते हैं, जिन्होंने अपने श्रेष्ठध्यान से कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट कर दिया है और जो समस्त संसार का हित करनेवाले हैं ऐसे मुनिराजों को मैं नमस्कार करता हूं ॥३०१८॥ . बारह अनुप्रेक्षाओं के कथन को प्रतिज्ञाप्रत्यहं या अनुप्रेक्षा द्वादशव मुनीश्वरः । चराग्यायसदाध्येयास्तावक्ष्येरागहानये ।।३.१६॥ अर्थ--मुनियों को अपना वैराग्य बढ़ाने के लिये बारह अनुप्रेक्षाओं का प्रतिदिन चितवन करना चाहिये । इसलिये रागद्वेष को नष्ट करने के लिये मैं उन अनुप्रेक्षाओं का निरूपण करता हूं ॥३०१६।। द्वादश अनुप्रेक्षाओं के नाम निर्देशअनिस्याख्या ह्य नुप्रेक्षा द्वितीयाशरणाभिधा । संसारसंज्ञिकक स्वान्यत्वाशुच्यास्रवाह्वया ।३०२०।। संवरो निर्जरा लोको बोधिदुर्लभनामकः । धर्मरातामनुप्रेक्षा भाषिला जिनपुगवः ॥३०२१।। अर्थ-अनित्य, प्रशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, मात्रय, संवर, निर्जरा, लोक बोधि दुर्लभ और धर्म ये बारह अनुप्रेक्षाएं भगवान जिनेन्द्र देव ने कही हैं ।।३०२०-३०२१॥ अनित्य अनुप्रेक्षा का स्वरूप निर्देशप्रनिस्मानिसमस्तानि वपुरायुः सुखानि च । इन्नचापसमानानि राज्यसौधधनानि च ॥३०२२।। योधर्म जरयाकान्तं स्वायुर्यममुनेस्थितम् । रोग: सम्मिपिता भोगाःसौख्यं दुःखपुरस्सरम् ॥२३॥ इन्द्रचकिवलेशादिपदानि शापवतामि न । इन्द्रियारोग्यसामर्थ्यवलायनोपमानि च ।।३०२४॥ अचलाभाश्चलानार्यः कुटम्बस्वविडम्बकम् । पुत्राः पाशोपमा गेह वासो बन्दिगृहोपमः ।३०२५॥ रूपं पुसा क्षणध्वंसि संपावञ्चललीवितम् । सम्पदोविपवोन्तेस्युभगुरंनिखिलं जगत् ॥३०२६।। माजन्मदिनमारभ्य जोवान् स्थान्तनयत्यहो। समयाय: सदापापीयमोखण्डप्रयापकः ॥३०२७१। परिकचिवम्यतेवस्तु सुन्दरं भुवननये । कालानसेनतत्सर्व भस्मीभावभवेद्विषः ॥३०२॥ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ( ४६५ ) [ द्वादश अधिकार अर्थ-पह शरीर, आयु, सुख, राज्य, भवन और धन आदि सब अनित्य हैं और इन्द्रधनुष के समान क्षणभंगुर हैं । यह यौवन बुढ़ापे से घिरा हुआ है, अपनी प्रायु यमराज के मुख में हो रह रही है. भोग सब रोगों से मिले हुए हैं और सुखों के आगे सदा दुःख ही बने रहते हैं । इन्द्र चक्रवर्ती, बलदेव आदि के जिसने उत्तम पद हैं वे भी सबा रहनेवाले नहीं हैं, तथा इन्द्रिय, आरोग्य, सामर्थ्य और बल सब बादल के समान थोड़ी देर तक ही ठहरने वाले हैं । चंचल स्त्रियां संकल के समान बंधन में डालने वाली हैं, कुटम्ब सब विडम्बना मात्र है, पुन जाल के समान बांधने वाले हैं और घर का निवास कारागार के समान है । मनुष्यों का यह रूप क्षणभंगुर है, जीवन बिजली के समान चंचल है, संपत्तियां सब विपत्तियों के मध्य में रहती हैं । इसप्रकार यह समस्त जगत क्षणभंगुर है । यह महापापी यमराज समय समय के अनुसार थोड़ा थोड़ा चल कर सरसापर्यंत सदेने से रात तक बक जीवोंको अपने पास बुला लेता है । इस संसार में तीनों लोकों में जो कुछ सुन्दर पदार्थ दिखलाई पड़ते हैं वे सब कालरूपी अग्नि से जलकर भस्म हो जाते हैं ।।३०२२-३०२८॥ ___ अनित्य शरीरादि से नित्य मोक्ष सिद्ध करने की प्रेरणाइत्यनित्यं जगवशात्या मित्यमोशंसुलोभिनः । प्रनित्य स्वशरीरा: साषयन्तुगादिभिः ।३०२६। अर्थ-इसप्रकार जगत को अनित्य समझ कर मोक्ष के लोभी पुरुषों को सम्यग्दर्शनादिक धारण कर इस अनित्य शरीरादिक से नित्य स्वरूप मोक्ष को सिद्ध कर लेना चाहिये ॥३०२६।। प्रशरण अनुप्रेक्षा का स्वरूपबनेव्याघ्रगृहोतस्यमृगस्येव जगत्रये । समारातिगृहीतस्य जन्तोनं शरणं पयचित् ।।३०३०॥ __ अर्थ-जिसप्रकार किसी वनमें किसी हिरण को सिंह पकड़ लेता है, उस समय उस हिरण का कोई शरण नहीं है, उसी प्रकार जब इस जोव को यमरूपी शत्र पकड़ लेता है तब इसको बचाने वाला शरणभूत तीनों लोकों में कोई दिखाई नहीं देता ।।३०३०॥ समस्त आपत्तियों में शरणभूत कौन ? अहम्लोत्राशरीराश्चत्रिविधा साधबोलिलाः । इहामुत्रशरण्याः स्युःसर्वत्रापविधीमताम् ॥३०३१।। तथा तश्च प्रणीसो यो धर्मोरत्नत्रयात्मकः । सहगामीरारम्पः स सतां यमान्तकोमहान् ।।३०३२।। संसारभयभीतानांजिनशासनम तम् । शरण्यंविधतेषु सो जम्ममृत्युसुखापहम् ॥३०३३॥ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूसाचार प्रदीप] ( ४६६) [ द्वादश अधिकार मंत्रतंशेषधाबीमि व्यानिनिखिलान्यपि । सन्मुखेसति जन्तूनायमेऽकिञ्चित्कराणि च ।।३०३४॥ अर्थ- इसलिये बुद्धिमानों को इस लोक और परलोक दोनों लोकों में सर्वत्र समस्त आपत्तियों में अरहंत सिद्ध प्राचार्य उपाध्याय और साधु ही शरण हैं । अथवा उन्हीं पंच परमेष्टियों के द्वारा कहा हुआ तथा परलोक में भी इस जीव के साथ जाने वाला, सर्वोत्कृष्ट और यमराज को नाश करनेवाला ऐसा रत्नत्रय रूप धर्म ही सज्जनों को शरण होता है । जीव संसार से भयभीत हैं उनके लिये जन्ममृत्यु के दुःखों को दूर करनेवाला सर्वोत्कृष्ट यह जिनशासन ही शरणभूत है । जिस समय यमराज इन जीवों के सन्मुख होता है, उस समय मंत्र, तंत्र और औषधि आदि सब न कुछ करनेवाली व्यर्थ हो जाती हैं ।।३०३१-३०३४॥ मृत्युरूपी यमराज से कोई नहीं बचा सकतामीयमानोयमेनांगोवराकः स्वासयंप्रति । इन्द्रचकिखगेशाध : क्षणं प्रातुन शक्यते ॥३०३५।। यवेन्द्राद्यायमेनावः पाल्यन्सेस्वपक्षालास् । कस्तोखरतेन्योऽस्मात्सर्वजीवनयंकरात् ।। ३०३६।। अर्थ-जिस समय यह यमराज इस दुःखिया जीव को अपने घर ले जाता है उस समय इन्द्र चक्रवती विद्याधर प्रादि कोई भी क्षणभरके लिये भी नहीं बचा सकता। अरे जब यह यमराज इन्द्र को भी जबर्दस्ती अपने पैरों के नीचे डाल लेता है तो फिर समस्त जीवों को क्षय करनेवाले यमराज से और कौन बचा सकता है ॥३०३५३०३६॥ पच परमेष्टी की शरण लेने की प्रेरणाविज्ञायेतिजिनेन्द्रोक्तधर्मस्पपरमेष्ठिनाम् । नित्यं मोक्षं यमादिभ्योवजन्तु शरणं बुषाः ।।३०३७।। अर्थ-यही समझकर विद्वान पुरुषों को भगवान जिनेन्द्र देव के कहे हुये धर्म की शरण लेनी चाहिये, पांचों परमेष्ठियों को शरण लेनी चाहिये और यम नियम पालन कर सदा रहनेवाली मोक्ष प्राप्त कर लेनी चाहिये ॥३०३७॥ ५ परावर्तन रूप संसारानुक्षा का स्वरूपद्रव्यक्षेत्राभिधे कालभवभावाह्वयेऽशुभे । संसारे दुःखसम्पूर्ण भ्रमन्ति कर्मरणागिनः ।।३०३८।। कर्मनोकर्मपर्याप्तिभिग होता न पुद्गला: । न मुक्ता बहशो जीवयं ते न स्युजंगद्गहे ।।३०३६॥ अधोमभ्यो लोकेषुधभन्तोनिखिलोगिनः । पत्रोत्पन्नामृतानेव स प्रदेशो न विद्यते ।।३०४०।। चस्मपिण्यवसपियो हिनः कर्मणा धुताः । येषु जातामृताहो न नस्युस्तेप्तमथाभुवि ॥३०४१।। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४६७ ) [ द्वादश अधिकार चतुर्गतिषु जोवैश्याद्वेय कान्तिमम् । न गृहोता न मुक्ता या सा योनितिले ।। ३०४२।। मिष्यादिरतिदुर्योगकषायैश्च निरन्तरम् । प्रमावैविषयान्षाः स्वं निम्नम्ति कर्मपुः ।।२०४३ ।। अर्थ - यह संसार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के भेद से पांच प्रकार का है, यह संसार दुःखों से परिपूर्ण है और अशुभ है, ऐसे संसार मैं ये प्राणी अपने कर्मों के उदय से सदा परिभ्रमण किया करते हैं। इन तीनों लोकोंमें ऐसे कोई पुद्गल नहीं हैं जो इस जीव ने कर्म नोकर्म और पर्याप्तियों के द्वारा अनंतबार ग्रहण न किये हों और अनंतबार ही न छोड़े हों । ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक में ऐसा कोई लोक का प्रवेश नहीं है जहांपर संसार में परिभ्रमण करते हुए ये जीव उत्पन्न न हुए हों अथवा मृत्यु को प्राप्त न हुए हों। इसीप्रकार इस उत्सर्पिणी और अवसर्पिण काल का कोई ऐसा समय नहीं है जिसमें ये प्राणी अपने-अपने कर्मों के उदय से न जन्में हों और न मरे हों । इस संसार में चारों गतियों की योनियों में से प्रवेयक विमान के अंत तक ऐसी कोई योनि नहीं हैं जो इस जीव ने न ग्रहण की हो न मरकर छोड़ी हो । विषयों में अंधे हुए ये जीव मिथ्यात्य, अविरत कषाय, प्रभाव और योगों के द्वारा निरंतर पुद् गलों के द्वारा बने हुए कमों का बन्ध करता रहता है ।।३०३८-३०४३।। संसार में परिभ्रमण का कारण इति संसारकान्तारेऽनादघोरेवमन्त्य हो । धर्मरत्नत्रयोयेतं प्राप्येद्विलो सुपाः || ३०४४ || अर्थ — इसप्रकार इन्द्रियों के लोलुपी जीब रत्नत्रय से सुशोभित धर्म को न पाकर अनादि काल से चले आये घोर दुःखमय संसाररूपी वनमें सदा परिभ्रमरण किया करते हैं ।।३०४४।। संसार में भ्रमरण करते जीव कैसे-कैसे कष्ट भोगते हैं जन्ममृत्युजरादु खं रोगवलेशतानि च । इष्टवस्तुवियोगं जानिष्ट संयोगसंश्रयम् ||३०४५ || अपमानादीनिवारिय विरहाम्बहून वौर्भाग्यादिमहादुः षान्प्राप्नुवन्तिभयां गिनः ।। ३०४६ ।। अर्थ - ये संसारी जीव सैंकड़ों जन्म-मरण जरा दुःख रोग और क्लेशों को प्राप्त होते हैं, इष्ट पदार्थो के वियोग और अनिष्ट पदार्थों के संयोग को प्राप्त होते हैं, सैकड़ों अपमानों को प्राप्त होते हैं, दरिद्रता को प्राप्त होते हैं, अनेक प्रकार के विरहों को प्राप्त होते हैं, दुर्भाग्यता को प्राप्त होते हैं और अनेक महा दुःखों को प्राप्त होते हैं ।। ३०४५ - ३०४६ । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचार प्रदीप ( ४६८ } [द्वादश अधिकार संसार का स्वरूप समझ विवेकीजन को क्या करना चाहियेश्वभ्रस्थलजलाकाशेजायमालाविषेर्वशात् । म्रियमाणाः पराधोनालभन्तेदुःखमुल्बरणम् ।।३०४७।। सुखदुःखद्वयंभान्ति संसारेनिविवेकिनाम् । किम्बल्सुखलवेनवसवंदुःखंविकिनाम् ।।३०४८।। इत्यशर्माकर ज्ञास्वाभवमोक्षसुखार्णवम् । साधयन्तु बुधाः शोघ्र तपोरत्नत्रयादिभिः ।।३०४६।। प्रथं-ये जीव अपने-अपने कर्म के निमित्त से नरक में उत्पन्न होते हैं, जल, स्थल वा अाकाश में उत्पन्न होते हैं और फिर पराधीन होकर मरते हैं इसप्रकार महा दुःखों को प्राप्त होते हैं । इस संसार में जो निविवेको पुरुष हैं, उनके लिये सुख दुःख दोनों अच्छे लगते हैं और विवेको पुरुषों को सुख किचिन्मान दिखाई देता है, बाकी समस्त संसार महा दुःखमय प्रतीत होता है। अतएव विद्वान पुरुषों को इस संसार को अनेक दुःखों का घर समझकर तपश्चरण और रत्नत्रय के द्वारा बहुत शीघ्र सुख का समुद्र ऐसा मोक्ष सिद्ध कर लेना चाहिये ।।३०४७-३०४६।। एकत्व भावना का स्वरूपएको रोगभराकान्तोरुदन दोनोयमालयम् । गच्छेत्स्वजनमध्यान्न कोपि तेनसमग्रजेत् ।।३०५०।। एकोवघ्नाति कर्मारिप ह्यं कोभ्रमतिसंसृतौ । एकोन जायते वेहो एकश्चमियतेसदा ।।३०५१।। यत्नानाहितभॊगर्यः कायः पोषितोपि सः । पादेकं न बजेदेहिनासा दुजनादिवत् ॥३०५२।। क्षत्र ये स्वजना जाताःस्वस्वकार्यपरायणाः । कर्मायत्ता यं यान्ति जोवेनसहते खिलाः ।।३०५३।। एकः पापाजनान्द्रच्छन्नरकं दुःखपूरितम् । पुण्यपावशादेकः स्वर्गसर्वसुखांकितम् ।।३०५४।। प्रसस्थावरकायेध्वेकाकीभ्रमतिदुःखभाक । प्रायम्लेच्छकुलेष्वत्रनगतौविधिवंचितः ।।३०५५।। एकस्तपासिनाहत्याकारातोन स्वपौरुषात् । मोहेनसहभव्योत्र व्रजेन्मोक्षं गुणाकरम् ।।३०५६।। अर्थ-यह जीव अकेला ही रोगी होता है, अकेला हो रोता है, अकेला हो दरिद्री होता है और अकेला ही मरता है, उस समय कुटम्ब परिवार के लोगों में से कोई इसके साथ नहीं जाता । यह जीव अकेला ही कर्मबंध करता है, अकेला ही संसार में परिभ्रमण करता है, सदा अकेला ही उत्पन्न होता है और अकेला ही मरता है। यह जीव जिस शरीर को अनेक सुख देनेवाली भोगोपभोग सामग्री से पालन पोषण करता है वह शरीर उन जीवों के एक पैड भी साथ नहीं जाता, दुष्ट के समान वह वहीं पड़ा रहता है । इस संसार में कर्मों के उदय से प्राप्त हुए कुटम्बी लोग जो अपने-अपने कार्य सिद्ध करने में सदा तत्पर रहते थे वे सब इस जीव के साथ भला कैसे जा सकते हैं अर्थात् कभी नहीं ? यह जीव इक? किए हुए पाप कर्म के उदय से अकेला ही दुःखों Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४६६) [ द्वादश अधिकार से भरे हुए नरकों में जाता है और पुण्यकर्मके उदय से अकेला ही समस्त सुखों से भरे हुए स्वर्ग में जाता है । कर्मों से ठगा हुआ वह प्राणी अकेला ही दुःखी होता हुमा त्रस और स्थावरकायिक जीवों में परिभ्रमण करना है और अकेला ही मनुष्यगति में प्रार्य या मलेच्छ कुलों में उत्पन्न होता है । इसी प्रकार यह अकेला ही भव्यजीव अपने पौरुष से तपश्चरणरूपी तलवार के द्वारा मोह के साथ-साथ समस्त कर्मरूपी शत्रुओं को मार कर अनंतगुणों से भरे हर मोक्ष में जा विराजमान होता है ।।३०५०-३०५६॥ एकत्व भावना के चितवन की प्रेरणाइत्येवंपरिज्ञायस्वस्पसर्वनधोधनाः । एकत्वं भावयन्त्वात्मनोत्रकस्वपदाप्तये ।।३०५७।। अर्थ---इसप्रकार सर्वत्र अपने अकेलेपन का परिज्ञान करके बुद्धिमानों को मोक्षरूप एकत्व पर प्राप्त करने के लिये इस एकत्व भावना का चितवन करते रहना चाहिये ।।३०५७॥ __ अन्यत्व अनुप्रेक्षा का स्वरूपयत्रदेहास्पृषाभूतोमतःसाक्षाथिल्लोक्यते । वही जडेतरस्तत्र किं स्वकोयः पृथग्जनः ।।३०५८।। जोधात्पचेन्द्रियाण्यत्रभिन्नरूपाणि तत्त्वतः । कर्मजात्यन्यवस्तूनि मनः कायवचांसि च ।।३०५६।। प्रन्यामातापिताप्यन्योन्याभार्यास्वजनोखिलः । पुश्राद्यन्यत्कुटंबं च स्याद्देहिनां चतुर्गतौ ।।३०६०।। प्रात्मानंदर्शनशामवत्तापिगुणभाजनम् । मुक्त्वा किचिन्न वस्तुस्यारस्वकोयभवनवये ।।३०६१॥ अर्थ- जहाँपर मरने पर यह शरीर से साक्षात् भिन्न दिखाई देता है फिर भला जड़ और चैतन्यमय अन्य पदार्थ वा कुटम्बी लोग जो साक्षात भिन्न दिखाई देते हैं वे इस आत्मा के फैसे हो सकते हैं। वास्तव में देखा जाय तो पांचों इन्द्रियां, मनवचन-काय तथा अन्य समस्त पदार्थ इस जीव से भिन्न हैं और अपने-अपने कर्मके उदय से प्राप्त हुए हैं। चारों गतियों में परिभ्रमण करते हुए इन जीवों के माता भी भिन्न हैं, पिता भी भिन्न हैं, स्त्री भी भिन्न हैं, समस्त कुटम्ब वर्ष भी भिन्न हैं और पुत्रादिक भी सब भिन्न हैं । इन तीनों लोकों में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप गुणों से सुशोभित अपने प्रात्माको छोड़कर बाकी का और कोई भी पवार्थ अपना नहीं है ।।३०५८-३०६१।। __ अन्यत्व भावना के स्वरूप को जाननेवाले को क्या करना चाहिये - इत्यन्यायविदित्वास्वंदेहावेस्तत्त्ववेदिनः । पृथक्कृत्यांगतोऽम्यन्तरेध्यायन्तुस्वचिन्मयम् ।।३०६२।। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४७० ) [ द्वादश अधिकार अर्थ-तन्नों को जानने वाले पुरुषों को इसप्रकार अपने मात्मा को शरीरादिक से भिन्न समझकर अपने उस शुद्ध चैतन्यस्वरूप प्रात्मा को अपने अंतरंग में हो शरीर से भिन्न समझते हुए उसका ध्यान करना चाहिये ॥३०६२॥ अशुचि भावना का स्वरूपदृश्यते यत्रदुर्गधेस्वदेहेप्यशुभाकरे । विश्वाशुचित्वबाहुल्यंभार्यावो तन्त्र कि शुचिः ।।३०६३।। एकान्सतोऽशुभं तीन नरकेंछेदनादिजम् । नारकांगेऽशुचित्वं च कृत्स्नदुःखनिबन्धनम् ।।३०६४।। देहछेद गमारारोपणाघशुभमुल्यणम् । तियंगतीतदंगावो चाशुचिस्वकृमिवाम् ।।३०६५।। बीभत्सेश्वभ्रमादृश्ये गर्भ बसन्तिदेहिमः । नवमाप्तान ततो जन्मसमन्तेऽशुधियोनिला ॥३०६६॥ बालत्वेऽशु चिमध्येप्रलोटन्ति यौवन नराः । सेवन्ते चाशुचिद्वारस्त्रीणांकामार्तपीडिताः ॥३०६७।। रक्तमांसाशुभाकोणं धर्मवास्तिसंचयम् । विश्वाशुभाकरीमतं मला पावभाजनम् ।।३०६८।। रोगोरगवित निश्रमशुभं स्वकलेवरम् । विद्धि त्वं दुःखयंस नर्थानां मूलमंजसा १३०६६।। स्मशुचिद्वार जाता ये भोगाश्चस्वान्यवयोः । कदर्थनाभवास्तेषामशुभवर्ण्यतेत्रकिम् ।।३०७० ।। अर्थ-जहांपर अनेक अशुभों को खानि और दुगंधमय अपने शरीर में हो समस्त अपवित्रता की बहुलता दिखाई देती है फिर भला स्त्रियों के शरीर में पवित्रता कसे आ सकती है। देखो नरक में नारकियों के शरीर में तीन अपवित्रता है, वह अपवित्रता स्वभाव से ही अशुभरूप है, छेदन भेदन से उत्पन्न होती है और अन्य समस्त दुःखों के कारणों से उत्पन्न होती है । तियंचगति में भी तियंचों का शरीर छेदा जाता है, अधिक भार से वह थक जाता है, अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं, उसमें कीड़े पड़ जाते हैं, इसप्रकार तिर्यचों का शरीर भो अत्यन्त अपवित्र है । मनुष्यभव में यह प्राणी नौ महिने तक तो नरक के समान अत्यन्त वीभत्स गर्भ में निवास करता है और फिर अत्यन्त अपवित्र योनिके द्वारा जन्म लेता है । फिर बालकपन में अपवित्र स्थानों में ही लोटता फिरता है और यौवन अवस्था में काम से पीड़ित होकर स्त्रियों की महा अपवित्र योनि का सेवन करता है । हे जीव देख तेरा यह शरीर रुधिर मांस आदि अशुभ पदार्थों से भरा है, ऊपर चमड़े से ढका है, भीतर हड्डियों का ढेर भर रहा है, मल-मूत्र का भाजन है, समस्त अशुभ पदार्थों की खानि है, रोगरूपी सो का बिल है, अत्यन्त निथ है, अनेक दुःख वेनेवाला है और समस्त अनर्थोंको जड़ है। हे जीव तू अपने शरीर को ऐसा समझ । जो भोग स्त्रियों को अत्यन्त अपवित्र योनि से उत्पन्न हुए हैं तथा अपने और दूसरों के शरीर को संघदित करने से उत्पन्न होते हैं उन भोगोंको अपवित्रता Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४७१ ) [ द्वादश अधिकार का भला क्या बन करना चाहिये । श्रर्थात् वै तो अत्यन्त अपवित्र हैं हो ।। ३०६३३०७० ॥ अपवित्र शरीर से पवित्र मोक्ष पद की सिद्धि की प्रेरणा इत्याद्यशुचिसम्पूर्णजगद्ज्ञात्वा विरागिणः । वपुषः शुचिना मोक्षं साधयन्तु शुचिप्रदम् ॥ ३०७१ ॥ अर्थ -- इसप्रकार समस्त जगत को अपवित्रस्य जानकर विरक्त पुरुषों को इस अपवित्र शरीर से अत्यन्त पवित्र ऐसी मोक्ष सिद्ध कर लेनी चाहिये ।।३०७१ ॥ कौन संसार समुद्र में डूबते हैं ? भयदुःखशताकीर्णे घोरेसंसारसागरे । कर्मास्त्र वै निमज्जन्ति घर्मो सातिगा जनाः ।।३०७२ ।। अर्थ - जिन मनुष्यों ने धर्मरूपी जहाज को छोड़ दिया है वे कर्मों के प्राव होते रहने से सैकड़ों भय और दुःखों से भरे हुए इस घोर संसार समुद्र में अवश्य डूबते हैं ।। ३०७२ ।। स्र के कारणों के त्यागने की प्रेरणा रागद्वेषद्विषामोहःखामि संज्ञाश्चतुः प्रमाः । गौरवारिकषायामश्वयोगहिंसावयोरणाम् ।।३०७३ ।। एते तकरीभूतावुस्त्याज्याः कालरांगिनाम् । स्याज्याः कर्मादिभीतः कृत्स्नकर्मास्त्र हेतवः ॥ ७४ ॥ अर्थ -- राग, द्वेष, दोनों प्रकार का मोह, इन्द्रियां, चारों प्रकार की संज्ञा, गौरव, कषाय, योग और हिंसादिक पाप ये सब मनुष्यों के अनेक अनर्थ उत्पन करने वाले हैं और कातर पुरुष बड़ी कठिनता से इसका त्याग कर सकते हैं इसलिये कर्मरूपी शत्रुनों से भयभीत रहनेवाले मनुष्यों को इन समस्त कर्मों के भाव के कारणों का अवश्य त्याग कर देना चाहिये ।। ३०७३-३०७४ ।। आव अनुक्षा का चितवन करनेवाला भव्यजीव रागद्वेष संज्ञादि की बार-बार निंदा करता हैयेनात्र तुष्यति द्रव्ये कुत्सिते द्वेष्टि दुर्जनः । दुग्वृत्तादोच तो रागद्वेषधिग्भवतोऽशुभौ ।। ३०७५।। येनावसे न सन्मार्ग कुमार्गमम्यते जमः । प्रामिषे सुख वेत्ति द्विधामोहोधिगस्तु सः ।।२०७६ ।। श्रभिभूता जीवा वारं वारं चतुर्गती । स्वं जानन्ति न येस्ता मिखा नियन्तुक्षयं सताम् ॥७७॥ संज्ञाभिर्याभिरत्यर्थंपी जिताजतवो खिलाः । भयन्ति महापापं ता यान्तु प्रलयं स्वतः ||३०७ गारवयलंडाः पापं घोरं गुरुतरं बुषा उपायं नरकं यान्ति मच्छन्तु नाशमाशु ते ।। ३०७९ ।। कषायरिपवस्तेय श्रजन्तुक्षयमंजसा । येर्बुष्कर्मस्थिति कृत्वा पतन्ति नरकेंगिनः ॥ ३०८० ॥ दुर्योगे निजात्मानं निबद्ध कर्मबन्धनैः । क्षयन्तियुचतों जीवास्तेविग्भवन्तु चंचलाः ॥ ३०८१ ॥ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४७२ ) [ द्वादश अधिकार अर्थ-जिस रागद्वेषके कारण दुष्ट पुरुष धनादिक द्रव्यों में संतोष मनाते हैं और कुत्सित द्रव्य में द्वष करते हैं अथवा सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्र में द्वेष करते हैं, ऐसे अशुभ रागद्वेष को बार-बार धिक्कार हो । जिस मोह के कारण यह जीव श्रेष्ठ मार्ग को तो ग्रहण नहीं करता और कुमार्ग को बहुत अच्छा मानता है तथा जिस मोह इन्द्रियों के विषयों में ही सुख मानता है, ऐसे दोनों प्रकार के मोह को बार-बार धिषकार हो। जिन इन्द्रियों के कारण ये जीव चारों गतियों में परिभ्रमण कर बार बार तिरस्कृत होते हैं और अपने आत्मा के स्वरूप को नहीं जान सकते, ऐसी इन सज्जनों की इन्द्रियों का शीघ्र ही नाश हो। जिन आहारादिक संज्ञाओं के कारण ये समस्त जीव अत्यन्त पीड़ित वा दुःखी हो रहे हैं और महापाप उत्पन्न कर रहे हैं उन संज्ञाओं का भी अपने आप नाश हो । जिन गारव तथा अभिमानों से ये अज्ञानी जीव व्यर्थ ही महापाप उपार्जन कर नरक में जाते हैं उन अभिमानों का भी शीघ्र ही नाश हो । जिन कषायों है ऐ मौत को दो हि बांधफर सर में पड़ते हैं वे कषायरूपी शत्र शीघ्र ही नाश को प्राप्त हों । जिन चंचल योगों से ये जीव अपने आत्मा को कमरूपी बंधनों से बांधकर दुर्गति में गिर पड़ते हैं उन चंचल योगों को भी धिक्कार हो । ॥३०७५-३०८१॥ अल्प आसब भी संसार का ही कारण हैहिसार : पंचभि|रयरुपाात्रकिल्बिषम् । गच्छन्तियुधियःण प्रलयंयान्तु ते ॥३०८२॥ इत्या प्रत्ययःसर्वेः कस्त्रिवर्गले धुताः । भ्रमन्तोत्र शठाः नित्यं लभन्ते दुःखमुल्वरणम् ।३०८३॥ पावस्कर्भासयोस्पोपिकुर्वतामपि सत्तपः । न तावच्छाश्वतस्थान किन्तुसंसारएव हि ॥३०६४।। अर्थ-जिन हिंसादिक पांचों पापों से ये मूर्ख जीव घोर पापों का उपार्जन कर नरक में पड़ते हैं उन पांचों पापों का भी शीघ्र ही नाश हो । इसप्रकार कर्मालव के समस्त कारणों से जकड़े हुए मूर्ख प्राणी इस संसार में सदा परिभ्रमण किया करते हैं और घोर दुःखों का अनुभव किया करते हैं। श्रेष्ठ तपश्चरण करनेवाले मुनियों के भी जब तक थोड़े से कर्मों का भी प्रालय होता रहता है, तब तक उमको मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं होती किंतु उनका संसार ही बढ़ता रहता है ।।३०८२-३०८४॥ त्रियोग की शुद्धता पूर्वक आस्रव रोकने की प्ररणाइत्यास्रवमहादोषान् शास्थानिध्यप्रत्ययान् । योगशुद्धधात्रयान्विश्वान् निराकुर्वन्तुधोधनाः ।। अर्थ- इसप्रकार प्रास्त्राव के महा दोषों को समझकर बुद्धिमान मुनियों को Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप] ( ४७३ ) [ द्वादश अधिकार मन-वचन-काय की शुद्धता से प्रास्रव के सब कारणों को रोक कर समस्त प्रास्रव को बंद कर देना चाहिये ।।३०८५॥ ___ संवर अनुप्रेक्षा का स्वरूपराग षाविपूर्वोक्तान निध्यात्रवकारणान् । कर्मानब निरोधे यः संबरः स शिवकरः ॥३०८६॥ अर्थ-पहले जो रागद्वेष आदि आस्रव के कारण बतलाये हैं उन समको रोक कर कर्मों के प्रास्त्रव का निरोध करना चाहिये । कर्मों के आस्रव का निरोध होना ही मोक्ष देनेवाला संवर है ।।३०८६॥ आसव को किसके द्वारा रोका जाता हैरागद्वेषौमिरुध्येतेसोवा ज्ञानमंत्रतः । दग्दत्तायांविधामोहो ष्यते दुष्टर तिवत ॥३०८७।। तपसेन्द्रियसंशानिरानियन्तेजितेन्द्रियः । गौरवाधिनयेनान्नस्यश्यन्ते वैरिणोयथा ॥३०६८।। निगृह्यन्तेकषायाधक्षमाशस्त्ररिवारयः । निरुध्यन्ते बलायोगागुप्तिपाशेन वा मगाः ॥३०८६॥ हिसादीनिनिवार्यन्सेसमितिवससंयमः । प्रशस्तव्यानलेश्याध कम्यतेसालास्त्रवः ॥३०६॥ अर्थ-ये रागढषरूपी सर्प ज्ञानरूपी मंत्र से रोके जाते हैं तथा सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र से दुष्ट हाथी के समान दोनों प्रकार का मोह रुक जाता है । जितेन्द्रिय पुरुष तपश्चरणके द्वारा इन्द्रिय और संज्ञाओं को रोकते हैं और गारवों वा अभिमानों को शत्रुओं के समान विनय से रोकते हैं। इसी प्रकार कषायरूपो शत्रुओं को क्षमा, मार्दव मादि शस्त्रों से वश में करते हैं, गुप्तिरूपी जाल से हिरणों के समान चंचल योगों को वश में कर लेते हैं । इसी प्रकार व्रत समिति और संयम से हिसादिक पांचों पापों को निवारण करते हैं और प्रशस्त ध्यान तथा शुक्ललेश्यासे समस्त प्रास्त्रव को रोक देते हैं ।।३०८७-३०६०॥ __ किसके निर्जरा के साथ मोक्ष की प्राप्ति होती हैइतियुश्त्यासुयोगाध निरुध्यनिखिलास्त्रवान् । ये कुयु : संवरं तेषां निर्वाणंनिर्जरायुतम् ।।३०६१॥ ___ अर्थ-इसप्रकार योग धारण कर युक्तिपूर्वक जो समस्त प्रास्रवों को रोक लेते हैं और संवर धारण कर लेते हैं, उनके कर्मों की निर्जरा के साथ ही मोक्ष की प्राप्ति होती है ।।३०६१॥ संवर की महिमा एवं उसे सिद्ध करने की प्रेरणासेन कर्मास्त्रवोल्टः संवरोयुक्तिभिः कृतः । तस्यवेष्टसिद्धिः स्यालेविनानिष्कलं तपः ॥३०६२।। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४७४ ) [ द्वादश अधिकार मत्वेति संवरं बक्षाकुर्वन्त्येक शिवाप्तये । परीवह जयज्ञानसद्धपानसंयमादिभिः ।।३०६३।। अर्थ-जिस महात्मा ने युक्तिपूर्वक अपने कर्मों को रोक कर संवर धारण किया है, उसीके समस्त इष्ट पदार्थों की सिद्धि होती है। उस संवर के बिना तपश्चरण भी सब निष्फल समझना चाहिये । यही समझकर चतुर पुरुषों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये परीषहों को जीतकर, सम्यग्ज्ञान की बात कर, श्रेष्ठध्यानको धारण कर और संयम को पालन कर एक संवर ही सिद्ध कर लेना चाहिये ।।३०६२-३०६३।। निर्जरा का स्वरूप एवं उसके भेदरुखास्रवमहर्षे चारित्रसदगुणभागिनः । तपोभिकरेंमुक्तिजननोनिर्जराभवेत् ॥३०१४॥ निर्जरा सा द्विधाशेयादेशतः सर्वतोनणाम् । स्वकर्मवंशतोवेशनिर्जरान्यतपो भवा ॥३०६५॥ अर्थ-जिन महामुनियों ने समस्त प्रालय को रोक दिया है और जो चारित्ररूपी श्रेष्ठ गुण को धारण करते हैं उनके कठिन-कठिन तपश्चरणों के द्वारा मोक्ष को देनेवाली निर्जरा होती है । बह निर्जरा दो प्रकार की है-एक एकदेश निर्जरा और दूसरी सर्वदेश निर्जरा । उनमें से एकदेश निर्जरा अपने-अपने कर्मों के उदय से होती है और सर्वदेश निर्जरा तपश्चरण से होती है ।।३०६४-३०६५॥ एक देश एवं सर्वदेश निर्जरा का लक्षणचतुर्गतिःसर्वेषांभ्रमतां कर्मणां क्षयात् । श्रमाद्यानिर्जराजाला साहेयावेशनिर्जरा ॥३०६६।। संवरेण समं यत्नात्तपोभिर्याबुधः कृता। विपुला मुक्तिसंसिद्ध सा प्राशासनिजरा ॥३०६७।। ___अर्थ-चारों गतियों में परिभ्रमण करसे हुए जीवों के कर्मों के क्षय होने से जो निर्जरा होती है उसको देश निर्जरा कहते हैं । ऐसी निर्जरा सदा त्याग करने योग्य है । बुद्धिमान् लोग जो मोक्ष प्राप्त करने के लिये संवर के साथ-साथ तपश्चरण के द्वारा प्रयलपूर्वक बहुत से कर्मों को निर्जरा करते हैं उसको सर्वनिर्जरा कहते हैं। वह निर्जरा ग्रहण करने योग्य है ॥३०६६-३०६७॥ ___ कौन जीव अत्यन्त शुद्ध होता है-- अग्निना धातुपाषाणो यथाशुद्धपतियोगतः । तथा तपोग्निनाभव्यः कृतःसंदरनिजरः ।।३०१८॥ अर्थ-जिसप्रकार अग्निके द्वारा धातुपाषाण (जिस पाषाणमें सोना वा चांदी निकले) युक्तिपूर्वक शुद्ध करने से शुद्ध हो जाता है उसीप्रकार तपश्चरणरूपी अग्नि से संवर और निर्जरा को करनेवाला भव्य जीव अत्यन्त शुद्ध हो जाता है ॥३०६८ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] [ द्वादश अधिकार मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति किसको होती है ? यथा यथामुनीन्द्राण जायते कर्मनिर्जरा । सथातथा च मुक्तिस्त्रीमुदायातिस्वयंवरा ॥३०६६।। ध्यानयोगेनभव्यानां समस्तकर्मनिर्जरा । यदातदेव जायेत मोक्षलक्ष्मी गुणःसमम् ।।३१००।। अर्थ-मुनियों के जैसी-जैसी कर्मों को निर्जरा होती जाती है वैसे ही वैसे स्वयं वरण करनेवाली मुक्तिस्त्री प्रसन्न होकर उसके समीप पाती जाती है । जिस समय भव्य जीवों के ध्यान के निमिस से समस्त कर्मों की निर्जरा हो जाती है, उसी समय अनंत गुणों के साथ-साथ मोक्षलक्ष्मी प्राप्त हो जाती है ॥३०६६-३१००। संवर पूर्वक निर्जरा करने की प्रेरणामत्वेसिनिर्जरा नित्यं कतव्यामुक्तयेजुधः । लपोयोगैः समाचारः सवसिंवरपूर्षिका ।।३१०१।। अर्थ- यही समझकर बुद्धिमानों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये तपश्चरण ध्यान पर सदाचार बारा वारा पूर्वक पूर्व कर्मों को निर्जरा सवा करते रहना चाहिये ॥३१०१॥ नोक अनुप्रेक्षा का स्वरूपअधोवेश्रासनाकारो मध्येस्थाझल्लरीसमः । मृदंगसदृशश्चाने सोकस्येतित्रिधास्थितिः ॥३१०२।। पापिनः पापपाकेनपज्यन्तेखेदनादिभिः । सप्तश्व वषोभागे नारका: नरकेसदा: ।।३१०३॥ पुण्येनपुण्यवन्तोस्यो भागेसुखमुल्वरणम् । कल्पकल्पातविष्वेषुभअन्तिस्त्रीमहद्धिभिः ।।३१०४॥ क्वचिरसौख्यं क्वचिद्दलं मध्येलोके स्वविश्यम् । प्राप्नुवन्तिन्तियंचपुण्यपापवशीकृताः ।। लोकाशाश्यतं धाम मनुष्यक्षेत्रसम्मिलम् । सिद्धा यालभन्तेहो प्रमन्तं सुखमात्ममम् ।।३१०६।। अर्थ- यह सोकाकाश नीचे येनासन के ( स्टूल के ) आकार है, मध्य में झल्लरी के आकार है और ऊपर मृदंग ( परवावज ) के आकार है। इसप्रकार यह लोक तीन भागों में बटा हुआ है । इस लोक के अधो भागमें सातों नरकों में महापापी नारको अपने पापकर्म के उदयसे छेदन भेवन आदि के द्वारा महा दुःख भोगा करते हैं। इसी प्रकार इस लोक के ऊपर के भाग में कल्पवासी देवों में अनेक पुण्यवान देव अपने पुण्य कर्म के उदय से देवांगना और महा ऋद्धियों के द्वारा उत्कृष्ट सुख भोगा करते हैं तथा कल्पातीत देवों में महा ऋद्धियों के द्वारा अत्यन्त उत्कृष्ट सुख भोगा करते हैं। इसी प्रकार मध्य लोक में पुण्य पाप के वशीभूत हुए मनुष्य और तिर्यच कहीं सुख भोगते हैं, कहीं वुःख भोगते हैं और कहीं सुख दुःख दोनों भोगते हैं । इस लोक के Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४७६ ) [बादश अधिकार शिखर पर मनुष्य लोक के समान एक निस्य स्थान है, जहाँपर सिद्ध भगवान शुद्ध आत्मा से उत्पन्न हुए अनंत सुखों का अनुभव किया करते हैं ॥३१०२-३१०६॥ लोक अनुप्रेक्षा को समझने वाले की प्रेरणाइति लोकत्रयं ज्ञास्वा तन्मूद्धस्थं शिधालयम् । हस्वामोहं गायश्चसाधयन्तुवियोवृतम् ।।३१०७।। अर्थ-इसप्रकार तीनों लोकों का स्वरूप समझकर और उसके मस्तक पर मोक्ष का स्वरूप समझकर विद्वान पुरुषों को सम्यग्दर्शनादिक धारण कर शीघ्र ही मोह का नाश कर मोक्ष प्राप्त कर लेनी चाहिये ।।३१०७॥ बोधिदुर्लभ भावना का स्वरूपयुगच्छिद्रेप्रवेश्वसमिलाया यथाम्बधी । दुर्लभोऽनन्तसंसारेनुभवोत्रतागिनाम् ।।३१०८।। अर्थ-यदि किसी समुद्र में एक और बैल के कंधे का जग्रा डाला जाय और उसी समुद्र में दूसरे किनारे पर उस जए के छिद्र में पड़ने वाली बांस की कोल डालो जाय जिसप्रकार उन दोनों का मिलना तथा उस जए के छिन्त्र में उस बांस की कील का पर जमालया डिन है. हा प्रसार में परिभ्रमण करते हुए जीवों को मनुष्य जन्म की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है ॥३१०८।। आर्यदेश उत्तम-कुल प्रादि की प्राप्ति की क्रमशः दुर्लभता का निर्देश - पचिल्लब्धेमनुष्यत्वेप्यायवेशोतिदुर्लभः । तस्मात्सुकुरनमत्ययं बुर्लभकल्पशाखिवत ।।३१०६ ।। कुलतोदुर्लभंरूपं रूपावायुश्चदुर्घटम् । प्रारोग्यमायुषोमारिएपटूनिसुलभानि न ।।३११०।। म्योपि सुमतिः साध्वी निष्पापासुष्ठदुर्लभा । मतेः कषायहोनत्वं विवेकातिदुर्लभम् ।।३१११॥ एतेभ्यः सद्गुरो सारः संयोगोदुलंभस्तराम् । संयोगादर्भशास्त्रापाश्रवणधारण नणाम् । ३११२॥ सुगम न ततः श्रद्धानंनिश्चयोतिवुर्लभः । ततःसद्दर्शनशानेविशुद्धिःसुष्टदुलभा ॥३११३॥ तप्तो निर्मलचारित्रंदुष्प्राप्यनिधिवत्तराम् । लब्धेष्वेतेषुसर्धेषुयावज्जीव निरन्तरम् ।।३११४॥ सर्वदामिरवद्याचरणमत्यन्तदुर्घटम् । तस्मात्समाधिमृत्युः स्यानिषिवर्सभःसताम् ।।३११५।। अर्थ- यदि कदाचित् किसी काल में मनुष्य जन्म की प्राप्ति भी हो जाय तो प्राय देश में जन्म होना अत्यंत दुर्लभ है । यदि कदाचित् आर्य देश में भी मनुष्य जन्म प्राप्त हो जाय तो कल्पवृक्ष की प्राप्ति के समान श्रेष्ठ उत्तम कुल में जन्म होना अत्यंत कठिन है । इसी प्रकार उत्तम कुल से सुन्दर रूप का प्राप्त होना दुर्लभ है, उससे पूर्ण प्रायु का प्राप्त होना दुर्लभ है । पूर्ण प्रायु से भी नीरोग शरीर का प्राप्त होना अत्यंत Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाचार प्रदीप ] ( ४७७ ) [ द्वादश अधिकार दुर्लभ है और नोरोग शरीर की प्राप्ति होनेपर भी इन्द्रियों की चतुरता प्राप्त होना कभी सुलभ नहीं हो सकता । कदाचित् इन्द्रियों की चतुरता भी प्राप्त हो जाय तो पापरहित श्रेष्ठ बुद्धि का मिलना अत्यंत दुर्लभ है । यवि काचित् निष्पाप बुद्धि भी प्राप्त हो जाय तो कषाय रहित होना और विवेक का प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है । इन समस्त संयोगों के मिल जानेपर भी सारभूत श्रेष्ठ गुरु का संयोग मिलना प्रत्यन्त दुर्लभ हैं । यदि कदाचित् श्रेष्ठ गुरु का भी संयोग मिल जाय तो धर्मशास्त्रों का सुनना तथा उनका धारण करना उत्तरोतर अत्यन्त दुर्लभ है । कदाचित इनका भी संयोग मिल जाय तो उन धर्मशास्त्रों में कहे हुए पदार्थों का श्रद्धान करना उनका निश्चय करना अत्यंत ही दुर्लभ है । तथा उस श्रद्धान से भी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में विशुद्धि रखना अत्यंत ही दुर्लभ है । कदाचित् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान की विशुद्धि भी प्राप्त हो जाए निधि के मिलने के निर्मन सात्रि का प्राप्त होना अत्यंत दुर्लभ है । कदाचित् इन सबका संयोग प्राप्त हो जाय तो अपने जीवन पर्यंत निरंतर सर्वदा निर्दोष चारित्र का पालन करना अत्यंत ही दुर्लभ है । यदि कदाचित् यह भी प्राप्त हो जाय तो सज्जनों को निधि मिलने के समान समाधिमरण का प्राप्त होना प्रत्यंत दुर्लभ है ।। ३१०६-३११५।। कौन जीव बोधि के फल को प्राप्त करता है - इतिदुर्लभवोधि ये प्राप्य यत्नेन षीधनाः । सायन्ति शिवावीनि तेषां बोधिफलं भवेत् ।। ३११६ । । अर्थ - इस प्रकार अत्यंत दुर्लभ ऐसे बोधि रूप रत्नत्रय को पाकर जो विद्वान् प्रयत्न पूर्वक मोक्षाबिक को प्राप्त कर लेते हैं उन्हीं को बोधि का फल प्राप्त हुआ सम कना चाहिये ॥३११६ ॥ कौन जीव संसार में परिभ्रमण करते हैं बोधिज्ञा मे कुर्वते मोक्षसाधने । प्रमायं वीर्धसंसारे ले भ्रमतिविषेशात् ।।३११७।। अर्थ --- जो सूर्ख पुरुष इस रत्नत्रय रूप बोधि को पाकर मोक्ष के सिद्ध करने में प्रमाद करते हैं वे पुरुष अपने कर्मों के उदय से वीर्घकाल तक इस महा संसार में परिभ्रमण किया करते हैं ।। ३११७।। किनका बोधि प्राप्त करना सफल है--- मवेतिबोधिसत्मंप्राध्यशोध शिवधियम् । साथमस्तु बुधायत्मार्थन सरसफलं भवेत् ।।३११८ ।। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४७८ ) [ द्वादश अधिकार अर्थ- यही समझकर विद्वानों को रत्नत्रयरूपी श्रेष्ठ रत्नों को पाकर प्रयल पूर्वक शीघ्र ही मोक्षलक्ष्मी को सिद्ध कर लेना चाहिये जिससे उनका बोधि का प्राप्त होना सफल हो जाय ॥३११८॥ पुनः दश धर्म पालन करने की प्रेरणाप्रागुतोवशवाधर्मः कर्तव्योधमकांक्षिभिः । भुक्तिमुक्तिप्रदोनित्यं क्षमादि लक्षणोत्तमः ।।३११६॥ अर्थ-धर्म की इच्छा करनेवाले पुरुषों को उत्तम, क्षमा, मार्दव आदि लक्षणों से सुशोभित तथा भुक्ति और मुक्ति दोनों को देनेवाला जो ऊपर कहा हुआ दश प्रकार का धर्म है वह सदा पालन करते रहना चाहिये ॥३११६॥ मोक्ष प्रदायिनी अनुक्षाओं के चिन्तवन की प्रेरणाअनुप्रेक्षा इमा सद्भिविशेष निरन्तरम् । वैराग्यवृद्धये ध्येया रागहान्य शिबंकराः ।।३१२०।। अर्थ-विद्वान् पुरुषों को अपना वैराग्य बढ़ाने के लिये और रागद्वेष को नष्ट करने के लिये इन बारह अनुप्रेक्षात्रों का निरंतर चितवन करते रहना चाहिये । क्योंकि ये अनुप्रेक्षाएं अवश्य मोक्ष प्रदान करनेवाली हैं ।।३१२०॥ द्वादश-अनुप्रेक्षा की महिमा एवं उनके चिन्तवन का फल-- एताद्वादशभावनाः सुविमलास्तोर्थेश्वर सेविता प्रोक्तामध्यन हिताय परमा वैराग्यपद्धयं बुधाः । ये घ्यायन्ति सवाऽमलेस्थहृदये तेषांमुदाबद्धं तेसंवेगोत्रपरोविनश्यतितरांरागः शिवधीभवेत् ॥२१॥ ___ अर्थ-ये बारह भावनाएं अत्यंत निर्मल हैं, तीर्थकर परमदेव भी इनका चितबन करते हैं और भव्य जीवों का हित करने और परम वैराग्य को बढ़ाने के लिये कही गई है। इसलिये जो विद्वान् अपने निर्मल हृदय में प्रसन्न होकर इन भावनामों का चितवन करते हैं उनका सर्वोत्कृष्ट संवेग बढ़ता है, राग नष्ट हो जाता है और मोक्षलक्ष्मी उनको प्राप्त हो जाती है ॥३१२१॥ उपसंहारात्मक अनुप्रंक्षाओं की महिमानिरुपमगुरगलानीर्मोक्षलक्ष्मीसखोरच जिनवरमुखमाताः सेविता: श्रीगणेशः। दुरितगिरिविघातेवनधाराः सदंव प्रभजतशियकामा भाषना द्वारशंता ॥३१२२॥ अर्थ- ये बारह भावनाएं अनुपम गुणों को खानि है, मोक्षलक्ष्मी को सखो है, भगवान जिनेन्द्रदेव के मुखसे उत्पन्न हुई है तथा गणधर देवों ने इनकी सेवा को है और पापरूपो पर्वों को चूर-चूर करने के लिये वन की धारा के समान है । अतएव मोल Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४७६ ) [ द्वादश अधिकार की इच्छा करनेवाले मुनियों को इन बारह भावनाओं का चितवन सदा करते रहना चाहिये ।।३१२२ । परीषों के कथन की प्रतिज्ञा मुनीनां येयसोढव्याः परोषहाश्चतानिह । मार्गाच्यवन शुष्क में निर्जरार्थं विशाम्यहम् ॥३१२३ ॥ अर्थ- मुनिराज अपने चारित्रमार्ग से वा मोक्षमार्ग से व्युत न होने के लिये तथा पाप कर्मों की निर्जरा करने के लिये जिन परीषहों को प्रवश्य सहन करते हैं। उनको मैं पहला हूँ १३ २२ परीषहों के नाम निर्देश- क्षु पिपासाशीतोष्णादयो वंशमशकालयः । नाग्न्यारत्यभिषौस्त्रीश्चर्या निषद्यापरीषही ॥३१२४॥ शय्याक्रोशो वषोर्याचाला भोरोगपरोषहः । तृास्पर्शोमलः सत्कारपुरस्कारसंज्ञकः ।। ३१२५ ।। प्रज्ञाशान्यभिधादर्शनान्येतेपरोषहाः । सोढय्या यतिभिनित्यंद्वाविंशतिः शिवालये ।। ३१२६ ।। अर्थ- क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्नन्य, अरति, स्त्रीचर्या, निषद्या, शय्या, श्राक्रोश, वध, यांचा, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार, पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और प्रदर्शन ये बाईस परोषह हैं । सुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये इन परीषहों को अवश्य सहन करना चाहिये ।। ३१२४-३१२६ ॥ क्षुधा परिषह को जीतने के लिये किस प्रकार चिन्तवन करना चाहिये - षष्ठाष्टकपक्षा पवासालाभकारणः । उत्पद्यतेमुनेः स्वान्तर्दाहिन्यग्निशिखेव भूत् ।।३१२७ ।। वातेन तदाश्वित्तेस्मरणीयमिवं स्फुटम् । ग्रहो परवशेनात्रयाप्ता देवनामया ।। ३१२८ ।। गतवन्दिगेहाथं : जलस्थलखगादिषु । तिर्यग्गतौतिरोषार्थश्वभूषु भ्रमता चिरम् ।।३१२९ ।। तस्या इयं किमात्रा विचिन्त्येति शिवापिना । जेसच्या वेवमा क्षुज्जा सम्तोषासेननान्यथा ||३०१ अर्थ - किसी मुनिराज ने वेला वा तेला किया हो अथवा पंद्रह दिन वा एक महीने का उपवास किया और पारणा के दिन भी आहार का लाभ न हुआ हो तो उस समय अग्नि की शिखा के समान उनके अंतरंग को जलाने वाली क्षुधा वेदना उत्पन्न होती है । उस समय उन मुनिराज को अपने हृदय में यह चितवन करना चाहिये कि मैंने परवश होकर जो भूख की वेदना सही है, मनुष्यगति में बंदीगृह में पड़कर भूख की वेदना सही है, जलचर, थलचर और नभचर के पशु पक्षियों की योनियों में जो मुख की वेदना सही है । तियंचगति में बांधे जाने था रोके जाने के कारण जो सूखकी वेदना Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४५० ) [ द्वादश अधिकार सही है तथा नरकगति में जो सूख की वेदना सही है, उसके सामने यह मूख कितनी है, कुछ भी नहीं है, इसप्रकार चितवन कर मोक्ष चाहने वालों को संतोष धारण कर भूख से उत्पन्न हुई वेदना को जीतना चाहिये, बिना संतोष के क्षुधा वेदना कभी नहीं जीती जा सकती ।।३१२७-३१३०।। सुनिराज को किस प्रकार के चितवन से तृषा परिषह जीतना चाहिये बहूपवास मार्गश्रमविरुद्धान्नसेवनैः । ग्रीष्मभानुकरेस्तीवापिपासा जायतेयतेः १३३१३१ ।। चिन्तनीयं सन्ना राया परागप्रमुख मया ॥ ३१३२ ।। नर तिर्यग्गतश्वभूप्रदेशनिर्जले बने । इति ध्यानेनयोरः सज्जयतात्तृपरोषम् ।।३१३३ ।। 1 अर्थ - अनेक उपवास करने से, मार्ग के परिश्रम से, विरुद्ध अत्र के सेवन करने से और ग्रीष्म ऋतु में सूर्य को तीव्र किरणों से मुनियों को तीव्र प्यास को वेदना होती है । उस समय उन मुनियों को इसप्रकार चितवन करना चाहिये कि मैंने परवश होकर मनुष्यगति में, तियंचगति में, नरक में और निर्जन वनों में चिरकाल तक बड़ीबड़ी कठिन प्यास की वेदना सही है । इसप्रकार चितवन कर उन धोरवीर मुनिराज को तृषा परीषह जीतनी चाहिये ।।३१३१-३१३३॥ प्यास को शांति के लिये मुख प्रक्षालनादि का निषेधशुष्ठमुख सस्तृषाग्निस्तपितोपिसन्। तच्छात्त्यं जातु न कुर्यान्मुखप्रक्षालनादिकम् ॥ ३१३४, अर्थ - यदि तृषारूपी अग्नि से उन मुनियों के प्रोठ सूख गये हों, मुख सूख गया हो, समस्त शरीर सूख गया हो तथा वे मुनिराज प्यास की अग्नि से संतप्त हो रहे हों तो भी वे उस प्यास की शांति के लिये अपना मुख प्रक्षालन आदि कभी नहीं करते हैं ||३१३४ ॥ मुनिराज को किस प्रकार के चितवन से शीत वेदना जीतनी चाहिये तुषारचहुले शीतकाले चतुःपथाविषु । स्थितस्यशीतवाताचं : शोतवाषापराभवेत् ।। ३१३५।। कारणांपासून नुवरिविणाम् । चिन्तनैः शीतदु क्रोधं सहते दृढ चेतसा ॥ ३१३६ ॥ अर्थ - जिस शीत ऋतु में बहुत हो तुषार पड़ रहा हो, बहुत ठंडी वायु चल रही हो और वे मुनिराज किसी चौराहे पर खड़े हों उस समय उनको शीत को अधिक वेदना होती है । उस समय से मुनिराज नारकियों के पशुओं के और दरिद्री मनुष्यों के शीतजन्य दुःस्यों को चितवन करते हुए अपने चित्त को दृढ़ बनाकर शीत की वेदना को 1 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४८१ ) [द्वादश अधिकार सहन करते हैं ।।३१३५-३१३६।। किस प्रकार की गर्मी से शीत वेदना दूर करते हैंतथाध्यानोमणा योगी शीतवाघानिवारयेत् । मनाप्रावरणान्यादीन्शीतशास्त्येचिन्तयेत् ।। अर्थ- उस समय वे मुनिराज ध्यानरूपी गर्मी से अपनी शीत वेदना को दूर करते हैं और उस शीत की वेदना को शांत करने के लिये न तो किसी के ओढ़ने का चितवन करते हैं और न अग्नि आदि शीत को दूर करनेवाले पदार्थों का चितवन करते हैं ॥३१३७॥ किस प्रकार के चितवन से उष्ण वेदना जीतते हैंग्रीष्मोग्रभास्करोषणांशुपित्तरोगपथनमः । प्रातापनमहायोगक्षारामाननादिभिः ॥३१३६॥ दुस्सहोष्णमहातापो जायते वनवासिनः । निराश्रयपशुनको नारकारणां विशात ।।३१३६।। जातीषणचिन्तनमासासबजानामृतपानतः । उष्णदुःखं जयेशाम्बसेकावगाहनादिभिः ॥३१४०।। अर्थ- गर्मी के दिनों में जब सूर्य की किरणे अत्यन्त तीव और उष्ण होती हैं वा पित्त रोग हो जाता है अथवा मार्ग के चलने से परिश्रम बढ़ जाता है या वे मुनिराज आतापन महा योग धारण कर लेते हैं अथवा वे अधिक लवण मिला हुआ अन्न ग्रहण कर लेते हैं उस समय वन में निवास करनेवाले उन मुनियों के प्रसह्य गर्मी का महा संताप उत्पन्न होता है। उस समय वे निराश्रय पशुओं के, मनुष्यों के वा नारकियों के कर्मों के उदय से होनेवाली तो उष्ण वेदना का चितवन करते हैं और श्रेष्ठ ज्ञानरूपी अमृतका पान करते हैं, इन दोनों कारणों से वे उस गर्मों को वेदना को जीतते हैं। वे मुनिराज पानो के छिड़काव से या पानी में नहाने से गर्मी को बाधा को कभी दूर नहीं करते ॥३१३८-३१४०॥ दंशमशक परीषह जय का स्वरूपदशेरचनशकः सर्वैर्मक्षिकारकादिभिः । भक्षमागोत्र हिरवस्त्रो आमूलाविषुस्थितः ॥३१४।। न मनाकखिचतेयन्त्रध्यानीध्यानचलेन च । परीषहजयो नेयः स दंशमशकालयः ।।३१४२॥ अर्थ-जो मुनि दिगम्बर अवस्था को धारण किये हुए किसी वृक्ष के नीचे विराजमान हैं, उस समय यदि कोई डांस, मच्छर, मक्खी, बोछु प्रावि कीड़े मकोड़े उन्हें काट लेते हैं तो ये मुनिराज अपने मन में रंघमात्र भी खेद खिन्न नहीं होते और न वे Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाचार प्रदीप ( ४८२ ) [ द्वादश अधिकार ध्यानी अपने ध्यान से चलायमान होते हैं इसको दंशमशक परोषह विजय कहते हैं । ॥३१४१-३१४२॥ नाम्न्य परीषह जय का स्वरूपनग्नस्वेन च ये जाताः शीतोष्णाबाउपद्रवाः । शरीरविक्रिया जोवभक्षणेहंसनादिभिः ॥३१४३॥ सह्यन्ते यत्रधर्येण ते संक्लेशाद्विनान्यहम् । विगम्बरधरंजेयो नाग्न्यदोषजयोत्र सः ॥३१४४॥ अर्थ-नग्न अवस्था धारण करने से बहुत से ठंडो गर्मों के उपद्रव होते हैं, अनेक जीव काट लेते हैं, शरीर में कोई विकार भी हो जाता है और अनेक दुष्ट लोग भी उनको देखकर हंसते हैं, इन सब उपद्रयों को वे दिगम्बर अवस्था को धारण करने वाले मुनिराज बिना किसी प्रकार के संक्लेश परिणामों के धैर्य के साथ प्रतिदिन सहन करते हैं इसको नाग्न्य परीषह जय कहते हैं ।।३१४३-३१४४।। अरति परीषह जय का स्वरूपअरण्यवासशीतोष्णोग्नतपश्चरणादिभिः । शब्दर्भयानकांतारतिः सिंहादिनिशि ॥३१४५।। मुनिभिर्जायते यात्र रति कृत्वागमामृते । ध्यानजानरतःस्याचारतिवाधाजमोऽत्र सः ॥३१४६।। अर्थ-वन का निवास, शीत उष्ण की बाधा, उग्र तपश्चरणादिक और सिंह व्याघ्र प्रादि के भयानक शब्दों से रात के समय प्रति के कारण प्राप्त होते हैं तथापि ज्ञान ध्यान में लीन रहनेवाले वे मुनिराज श्रागमरूपी अमृत में प्रेम करते हुए उस अरति को बाधा को जीतते हैं इसको अरति परीषह जय कहते हैं ॥३१४५३१४६॥ - स्त्री परीषह जय का स्वरूपहावभावविलासांगापभ्र विकार जल्पनैः । कटाक्षशरविक्षेपः शृंगाररसदर्शनः ।।३१४७।। उन्मत्तयौवनास्त्रीभिः कृतोनोंत्तान्तकः । सहतेयोगिभिर्योपस्त्रोवाधाजयएव सः ।।३१४८।। अर्थ-कोई मुनिराज किसी एकांत स्थान में विराजमान हों और वहां पर उन्मत्त यौवनवती स्त्रियां प्राकर हाव, भाव, बिलास, शरीर के विकार, मुखके विकार, भोहों के विकार, गाना बजाना बकवाद करना, कटाक्षरूपी वारणों का फेंकना और श्रृंगार रस का दिखाना प्रावि कितने ही कारणों से व्रतों को नाश करनेवाला अनर्थ करती हो तो भी वे मुनिराज निर्विकार होकर उस उपद्रव को सहन करते हैं। इसको . . .त्री परीषह जय कहते हैं ।।३१४७.३१४८॥ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४८३ ) [ द्वादश अधिकार चर्या परीषह जय का स्वरूपभीमारण्यादिषुर्गेषु मानावेशपुरादिषु । विहरविः साखंडपाषाणकंटकादिभिः ॥३१४६॥ जातपादथ्यथामा यः क्रियतेसर्वधाजय । नियम तयेचपिरीषह जयोत्रसः ।।३१५०।। अर्थ-जो मुनिराज भयानक धन में, पर्वत पर, फिलों में अनेक देश और नगरों में बिहार करते है तथा उस विहार में पत्थरों के टुकड़े वा कांटे प्रादि के लग जाने से पैरों में अनेक छोटे-छोटे घाव हो जाते हैं तथापि वे दिगम्बर मुनिराज मोक्ष प्राप्त करने के लिये उस समको सहन करते हैं, जीतते हैं इसको चर्यापरीषह जय कहते हैं ॥३१४६-३१५०।। निषद्या परीवह जय का स्वरूपबहुपसर्गसंजातः कन्दराद्विवनाविषु । कृतवज्रासनादिभ्योऽचलनं यन्महात्मनाम् ।।३१५१॥ घृतासनविशेषाध्यानारोपितचेतसाम् । सर्वनाचलयोगानां निषशाजय एव सः ॥३१५२॥ अर्थ-जो मुनिराज किसी गुफा में पर्वत पर या वनाविक में किसी बनासन आदि कठिन अासन से विराजमान होते है और उस समय भी अनेक उपसर्ग उन पर श्रा जाते हैं तथापि वे मुनिराज अपने प्रासन से कभी चलायमान नहीं होते, इसीप्रकार विशेष-विशेष कठिन प्रासन धारण करके भी वे अपने हृदय को ध्यान में ही लगाये रहते हैं और अपने योग को सदा अचल बनाये रखते हैं, उनके इस परिषह सहन करने को निषधा जय कहते हैं ॥३१५१-३१५२॥ दाय्या परीषह जय का स्वरूपस्वाध्यायध्यानयोगाध्वनमखेदाविहानये । निद्रा मोहूतिकी युक्त्यानुभवद्भिजिताशयः ॥३१५३।। वण्डकपाश्वंशय्यादौक्रियतेपरिवर्तनम् । न सिंहाझ पसगौर्यच्छच्या जयएव सः॥३१५४॥ ___ अर्थ-जो मुनि स्वाध्याय, ध्यान, योग और मार्ग का परिश्रम दूर करने के लिये युक्तिपूर्वक मुहर्तमात्र की निद्रा का अनुभव करते हैं, उस समय में भी अपने हृदय को अपने वश में रखते हैं, दंड के समान वा किसी एक कीट से सोते हैं, सिंहादिक का उपद्रव होनेपर भी जो कभी कर्वट नहीं बदलते उसको शय्या परिषह जय कहते हैं। ॥३१५३-३१५४॥ आक्रोश परीषह जय का स्वरूपमिभ्यादगम्लेच्छचांडालशशुपापितुरात्मनम् : पवाद्यवमानायज्ञाषिकारवांसि च ॥३१५५।। Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४८४ ) [द्वादश अधिकार आक्रोशादीनबहूत्वात्रिशुद्धधासहनंयित् । विनाक्लेशेन वारणामाकोशजय एव सः ॥३१५६॥ अर्थ-जी मुनिराज मिथ्यावृष्टि, म्लेच्छ, चांडाल, शत्र, पापी और दुरात्माओं के कठोर वचनों को अपमान जनक शब्दों को तिरस्कार वा धिक्कार के वचनों को वा अनेक प्रकार के गालीगलौच के शब्दों को सुन करके भी मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक उनको सहन करते हैं, उनको सुनकर कभी किसी प्रकार का क्लेश नहीं करते उन चतुर मुनियों के आक्रोश परिषह जय कही जाती है ॥३१५५-३१५६।। वध परीषह जय का स्वरूपमिथ्यावअनंदुष्टः शत्रुभिः श्वभ्रगामिभिः । कोपादिभिःप्रयुक्ताश्चवघवंधारिताहमाः॥३१५७॥ सधः प्रागहरायत्रसान्तेधोरयोगिभिः । योगशुद्ध माद्यनाशायधमरणमेवतत् ।।३१५८।। ____ अर्थ- जो मुनिराज अपने पापों को नाश करने के लिये मिश्यादृष्टि, दुर्जन, दुष्ट, नरफगामी और शत्रु आदि के द्वारा क्रोध पूर्वक किये गये बध, बंधन वा ताड़न प्रादि को सहन करते है तथा वे धीर धार मुनि नमवचन-काय की शुद्धता पूर्वक उसी समय प्राण हरण करनेवाले बघबंधनादि को भी सहन करते हैं उसको बघ परिषह जय कहते हैं ॥३१५७-३१५८॥ यांचा परीषह जय का स्वरूपच्याधिक्लेशशलायर्यहहूपवासपारणः । योच्यते नौषधाम्मवादियांचासहन मेवतत् ॥३१५६।। अर्थ-जो मुनि सैकड़ों व्याधि और क्लेशों के हो जाने पर भी तथा अनेक उपवासों के बाद पारणा करनेपर भी कभी औषधि वा जल प्रादि की याचना नहीं करते हैं उसको यांचा परिषह जय कहते हैं ॥३१५६ ।। अमाभ परीषह विजय का स्वरूपअलामो योन्नपानावेः षष्टाष्टमाविपारणे । विशुद्धया साले तुष्टगलाभविजयोत्र सः॥३१६०।। अर्थ--जो मुनिराज बेला तेला प्रादि अनेक उपवास करके पारणा को निकलें और अन्न पानादिक का लाभ न हो तो भी वे मुनिराज संतुष्ट होकर मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक उस भूख प्यासकी तथा आहारादिक के न मिलने को बाधा को सहन करते हैं इसको अलाभ परिषह विजय कहते हैं ॥३१६०॥ रोग परीषह अय का स्वरूपकुष्ठोदरप्पयावातपित्तज्वरादिरकपातः । दुस्सहः पापपाकोत्विश्वदुःखनिबन्धनः ॥३१६१।। Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४८५ ) [ द्वादश अधिकार जताया वेदमाया यम्महत्याः सहनं बुधैः । कर्महायंत्र तोकारं विना रोगजयोत्र सः ॥ ३१६२ ।। अर्थ -- जो मुनिराज अपने कर्मों को नाश करने के लिये कोढ़, उदर शूल, बातचर, पित्तज्वर प्रादि अपने पाप कर्मों के उदय से उत्पन्न हुए और समस्त दुःख को देनेवाले ऐसे सैकड़ों असह्य रोगों की महा वेदना को भी बिना प्रतिकार या इलाज कराये सहन करते हैं उन बुद्धिमानों के रोग परिषह जय कहलाती हैं ॥३१६१ ३१६२।। arrer परीष जय का स्वरूप शुकपणादीन स्पर्शनेश्चमखशः । जातकं विकारावेस्स्यतदेह महात्मभिः ।। ३१६३ ।। क्लेशावृतेघनाशाय सहनं यद्विधीयते । शिशुद्धभा स तृणस्पर्शपशेषह अयोत्रसः ॥ ३१६४ ।। अर्थ --- अपने शरीर से ममत्व का त्याग कर देनेवाले जो सुनिराज अपने पापों को नाश करने के लिये मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक वायु से उड़कर श्राये हुए सूखे पत्ते वा तृण आदि के स्पर्श से उत्पन्न हुई खुजली आदि के विकार को सहन करते हैं, उसमें किसी प्रकार का क्लेश नहीं करते उसको तृणस्पर्श परिषह जय कहते हैं । ।। ३१६३-३१६४ ॥ मल परीषद् जय का स्वरूप मलजल्ला विलिप्तांगंप्रियते यद्विशनिभिः । संस्कारक्षालमातीतमनुं दग्धवप्रमम् ।।२१६५ ।। स्नानादीन् दूरतस्त्यश्वायायैरागहानये । दुष्कर्ममलनाशायमलधारा मे वतत् ॥ ३१६६ ॥ अर्थ- जो वीतराग मुनिराज जीवों को दया पालन करने के लिये, राग को नष्ट करने के लिये और पापकर्म रूपी मल को नाश करने के लिये स्नान श्रादि को दूर से ही त्याग कर देते हैं और संस्कार वा प्रक्षालन आदि से रहित आधे जले हुए मुरदे के समान मल पसीना नाक का मल आदि से लिप्त हुए शरीर को धारण करते हैं उसको मल परिषद् जय कहते हैं ।। ३१६५.३१६६॥ सत्कार पुरस्कार परीषद् जय का स्वरूप नमःस्तवप्रशंसादि सरकारउच्यतेबुषं । प्रप्रतः करणं यात्रादेः पुरस्कारएव सः ।।३१६७ ।। ज्ञानविज्ञानसम्पन्नैस्तपः सद्गुखशालिभिः । द्विघवस्त्यमले सत्कार पुरस्कारएव सः ।।३१६८ ।। अर्थ - नमस्कार करना, स्तुति करना, प्रशंसा करना आदि सत्कार कहलाता है तथा चलते समय यात्राबिक में उनको आगे रखना स्वयं पीछे चलना पुरस्कार Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४८६) _[ द्वादश पशिकार कहलाता है । जो मुनिराज ज्ञान विज्ञान से सुशोभित हैं और तपश्चरण प्रादि अनेक सद्गुणों से विभूषित हैं, ऐसे मुनिराज इन दोनों सत्कार पुरस्कार का त्याग कर देते हैं, कोई सत्कार पुरस्कार न करे तो खेद नहीं करते उसको सत्कार पुरस्कार परोषह जय कहते हैं ॥३१६७-३१६८।। प्रज्ञा परीषह जय का स्वरूपमहविद्वान् जगद्वेता पलीवाइमे जडाः । फिचितत्त्वं न जानन्तिहीत्यादिगर्वएव यः ॥३१६६।। सर्वांगपूर्वविद्धिश्चनिधार्यतेमदान्तकः । सद्वादिभिमहाप्राज्ञः प्रजाजय स जितः ।।३१७०।। अर्थ-जो मुनि ग्यारह अंग चौदह पूर्व के जानकार हैं, महा बुद्धिमान है, वाव वियाद करने में सर्वश्रेष्ठ हैं और अभिमान से सदा दूर हैं तो भी वे अपने मन में ऐसा अभिमान कभी नहीं करते कि मैं विद्वान हूं, संसार के समस्त तत्त्वों को जानता हूँ, बाकी के ये लोग सब बैल के समान मूर्ख हैं, तत्त्वों का स्वरूप कुछ भी नहीं जानते इसप्रकार के अभिमान को वे सदा के लिये त्याग कर देते हैं उसको प्रज्ञा परोषह जय कहते हैं ॥३१६९-३१७०॥ अज्ञान परीषह जय का स्वरूपप्रज्ञोयं देतिकिचिन्न परमार्थपशूपमः । इत्याविकटकालापसहनयज्जनोबम् ।।३१७१॥ ईदृशंदुद्धरं घोरं तपो में कुर्वतोनघम् । अद्याप्युस्पद्यते कश्चिद जानातिशयो त्र न ।।३१७२।। इत्यावि बहुकालुष्यमनसोयभिहन्यते । स्वल्पशानिभिरज्ञानपरीषह जयोहि सः ।।३१७३।। अर्थ-जो मुनि स्वल्पज्ञानी हैं उनके लिये अन्य दुष्ट लोग “यह अज्ञानी है यह परमार्थ को कुछ नहीं जानता पशु के समान है" इसप्रकार कड़वे वचन कहते हैं तथापि वे उनको सहन करते हैं तथा "मैं इसप्रकार का दुर्धर और घोर और पापरहित तपश्चरण करता हूं तो भी मुझे ज्ञान का कुछ भी अतिशय प्रगट नहीं होता श्रुतज्ञान वा अवधिज्ञान प्रगट नहीं होता" इसप्रकार की कलुषता अपने मन में कभी नहीं लाते उसको अज्ञान परीषह जय कहते हैं ।।३१७१-३१७३॥ अदर्शन परीषह जय का स्वरूपप्रातिहार्यारिणकुर्वन्ति सुराःसद्योगधारिणाम् । महातपस्विनामेतत्प्रलापमात्रमेव हि ॥३१७४।। यतो मे बुद्ध रानुष्ठानसत्तपोषिधायिनः । विख्यातोतिशयःकश्चिज्जालेनामरैः कृतः ॥३१७५।। प्रज्यानथिकात्रेत्रमित्यादिस्त्यज्यते च यः। संकल्पोदग्विशुमधा हि सोऽदर्शनभयो बुधः ।।७६।। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४८७ ) [ তাহা অধিকার अर्थ-"शास्त्रों में यह सुना जाता है कि वे लोग श्रेष्ठ योग धारण करने वाले महा तपस्थियों के लिये प्रातिहार्य प्रगट करते हैं उनका अतिशय प्रगट करते हैं, परन्तु यह कहना प्रलापमान है यथार्थ नहीं है क्योंकि मैं बड़े बड़े घोर तपश्चरण तथा दुर्धर अनुष्ठान पालन करता हूं तो भी देव लोग मेरा कोई प्रसिद्ध अतिशय प्रगट नहीं करते इसलिये कहना चाहिये कि यह वीक्षा लेना भी व्यर्थ है" इसप्रकार के कलुषित संकल्प विकल्प को जो मुनिराज अपने सम्यग्दर्शन को विशुद्धि से कभी नहीं करते हैं उसको बुद्धिमान लोग प्रदर्शन परीषह जय कहते हैं ॥३१७४-३१७६॥ परीषहों को सहन करने की प्रेरणा--- एते कर्मोदयोल्पनादाविशतिपरीषहाः । सबंशयाघनाशाय सोढव्यामुक्तिगामिभिः ॥३१७७।। अर्थ-ये बाईस परीषह अपने-अपने कर्मों के उदय से प्रगट होसी हैं इसलिये मोक्ष प्राप्त करनेवाले मुनियोंको अपने पाप नाश करने के लिये अपनी सब शक्ति लगा कर ये परीषहों को सहन करना चाहिये ।।३१७७॥ किस-किस कर्म के उदय से कौन कौनसी परोषह होती हैज्ञानावरपरकेनप्रज्ञाशानपरोषही। वर्शनाभिधमोहोदयेनादर्शनसंजकः ॥३१७८।। लाभान्तरायपाकेनस्यावलाभपरीषहः । नान्याभिधानिषद्याचाकोशोयांचापरीषहः ॥३१७९॥ स्पास्सस्कारपुरस्कारोमानायकषायसः । श्ररत्यरतिनाम्नोवेदोक्यास्त्रीपरोषहः ॥३१८०।। अवनोयोदयेनात्र क्षुत्पिपासा परीषहः । शीतोष्णाख्यौ तथा वंशमशको हि परीषहः ॥३१८१।। शय्या पर्यावधोरोगस्तृरणस्पर्शोमलाह्वयः । एकादश इमे पुसांप्रजायन्ते परीषहाः ।।३१८२॥ अर्थ-इन परीषहों में से ज्ञानावरण कर्म के उदय से प्रज्ञा और प्रज्ञान परोषह प्रगट होती हैं। वर्शन मोहनीय कर्म के उदय से प्रदर्शन परीषह प्रगट होती है। लाभांतराय कर्मके उदय से अलाभ परीषह होती है । नाम्न्य परीषह, निषद्या, आक्रोश, यांचा और सरकार पुरस्कार परोषह मान कषाय नाम के चारित्रमोहनीय कर्मके उदय से होती है, परति परीषह परति नाम के.नोकधाय चारित्र मोहनीय के उदय से होती है और स्त्री परोषह वेद नाम के नोकषाय रूप चारित्नमोहनीय कर्म के उवय से होती है । इसप्रकार सात परीषह चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से होती है । क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, देशमशक, शय्या, चर्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल ये ग्यारह परीषह वेदनीय कर्म के उदय से होती है ॥३१७५-३१८२॥ 1 Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूलाचार प्रदीप ] ( ४८८ ) [ द्वादश अधिकार एक जीव के एक समय में एक माथ कितनी परीषह हो सकती हैएकस्मिन्समये होकजीवस्ययुगपद्ध.वि । परोषहा प्रजायन्तेगिना संकोनविंशति ।।३१८३।। मध्येशीतोष्णयोनमेकएषपरोषहः । शय्या धर्मानिषद्यानांतर्यकः स्यानचान्मथा ॥३१८४।। अर्थ-एक जोन के एक समय में एक साथ जीवों के उन्नीस परीषह हो सकती है। क्योंकि शीत और उष्ण परीषह में से कोई एक हो परीषह होती है तथा शय्या, चर्या, निषद्या इन तीनों परीषहों में से कोई एक परीषह होती है। इसमें कभी अंतर नहीं होता ।।३१८३.३१८४॥ ___किस-किस गुणस्थान में कौन-कौन से परीषह होते हैंमिथ्यात्वाधप्रमत्तान्तगुणस्थानेषुसप्तसु । सर्वेपरीषहाः सन्ति हापूर्वकरणेसताम् ।।३१८५॥ प्रादर्शनंविनाह्य कविशति स्युःपरोषहाः । विशतिश्चानिवृत्तौ हि विनारतिपरीषहात ।।३१८६।। शुक्लध्यानेन तत्रैवप्रनष्टे वेदकमरिग । स्त्र्याख्ये परीषहे नष्टे से स्थुरेकोनविंशतिः ॥३१८७॥ तलोमानकषायस्यक्षयात्तत्रैव वाशमात् । तान्यनामनिषद्यास्पाक्रोशयांचापरोषहाः १३१८८।। सरकारादिपुरस्काराचामीभि: पंचविन। । अभिवत्यारिषु क्षीणकषायान्तेषुनिश्चितम् ॥३१८६। गुणस्थानचतुष्केषु चतुर्दशपरीषहाः। छस्थवीतरागारणा भवन्त्यल्या:सुखप्रवाः ॥३१६०।। नष्टेधातिविधीक्षीणकवाये च परीषहाः । प्रजाज्ञानाह्वयालाभा नातिनातिधातिनः ॥३१६१।। केवलज्ञानिनोवेदनीयायविद्यमानत।। उपचारेण कथ्यन्तेत्रकादशपरोषहाः ।।३१९२१॥ अर्थ-मिथ्यात्व से लेकर अप्रमत्त गुणस्थान तक सात गुणस्थानों में सब परोषह होती है । अपूर्वकरण नाम के पाठयें गुणस्थान में प्रदर्शन को छोड़कर बाकी को इकईस परीषह होती है । अनिवृत्ति करण नामके नौवें गुणस्थान में अरति परीषह . को छोड़कर बाकी की बीस परीषह होती है । उसो नौवें गुणस्थान में जब शुक्लध्यान के द्वारा वेद कर्म नष्ट हो जाता है तब स्त्री परीषह भी नष्ट हो जाती है और उस समय नौवें गुणस्थान में उनईस परीषह ही रह जाती है । इसी नौवें गुणस्थान में आगे चलकर जब मान कषाय नष्ट हो जाता है अथवा मान कषाय का उपशम हो जाता है तब नाग्न्य, निषद्या, आक्रोश, यांचा और सरकार पुरस्कार ये पांच परीषह नष्ट हो जाती है, उस समय उसी नौवें गुणस्थानमें इन पांचों के बिना धौदह परोषह रह जाती है । ये चौदह परीषह नौवं गुणस्थानके इस भाग से लेकर क्षीण कषाय नामके बारहवें गुणस्थान तक चार गुणस्थानों में रहती हैं । परंतु छष्यस्थ वीतरागों के अर्थात् ग्यारहवें बारहवें गुणस्थान में ये परीषह बहुत ही थोड़ी रहती है और सुख देनेवाली ही होतो Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( Xse ) [ द्वादश अधिकार है दुःख नहीं देती । क्षीण कषाय के अंतमें जब घातिया कर्मों का नाश हो जाता है तथ न केवली भगवान के प्रज्ञा अज्ञान और प्रलाभ परीषह भी नष्ट हो जाती हैं अतएव केवली भगवान के वेदनीय कर्म के विद्यमान रहने से उपचार से ग्यारह परीषह रह जाती है ।।३१८५-३१९२॥ केवली भगवान के रंचमात्र भी दुःख का कारण परीषह नहींघातिकर्मवलापायात्स्वकार्यकरणेऽक्षमाः । बालु दुःखमशक्ताश्च विगतान्सामा ।।३१६३ ।। अर्थ - केवली भगवान के घातिया कर्मों का नाश हो जाने से वे परीषह अपना कुछ कार्य नहीं कर सकती । तथा उन भगवान के अनंत सुख की प्राप्ति हो जाती है इसलिये वे परोधह रंचमात्र भी दुःख नहीं दे सकती ।। ३१६३ ॥ नरकादि गति में कितनी परीषह होती है ? सर्वे शीततराः सन्ति सर्वोत्कृष्ट नारकारणां गतौ घोरास्तथातिर्यग्गतावपि ॥ ३१६४ ।। प्रशाज्ञानाभिधावर्शनालाभनान्यसंज्ञकाः । श्ररतिस्त्रीनिषद्याध्याक्रोश यांचा शेषहाः ।।३१६५ ।। सत्कारादिपुरस्कार: क्षुश्पिपासावधोप्यमी । सन्ति देवगसौस्वहपाश्चतु वंशपरोषहाः ।। ३१६६।। अर्थ - नरकों में नारकियों के और तियंचगति में तियंत्रों के समस्त परीषह होती हैं तथा प्रत्यन्त तीव्र और उत्कृष्ट होती हैं। देव गतिमें प्रज्ञा, अज्ञान, प्रदर्शन, अलाभ, नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, यांचा सत्कार पुरस्कार, क्षुधा, पिपासा और बध ये चौदह परीषह बहुत थोड़े रूपमें होती है ।। ३१९४-३१६६॥ ध्यानादि द्वारा परीषह सहने की प्रेरणा एते परोषहाविश्वे कर्मजाः कर्महानये । सोडण्याः संयतः शक्त्या ध्यानाध्ययनकर्मभिः ॥ ३१६७॥ अर्थ - ये समस्त परीषह कर्मों के उदय से उत्पन्न होती है । इसलिये मुनियों को अपने कर्म नष्ट करने के लिये अपनी शक्ति के अनुसार ध्यान और अध्ययन यादि कार्यों के द्वारा अवश्य सहन करनी चाहिये ॥३१६७॥ मुनिराज किस प्रकार परीषद् रूपी योद्धाओं को जीतते हैं चारित्रगरेबोरे परोष महाभटाः । वैजिताः ससपो कार्णवं तथावापितं हैः ।। ३१९८ ।। तेषां नश्यति कर्माणि पंचाक्षसस्करं : समम् । ठोकले त्रिजगरुलक्ष्मी किचिमास हाचिरात् ।।३१६९। अर्थ - अपने चारित्र में अखल रहनेवाले जो मुनिराज चारित्ररूपी घोर युद्ध में चारित्र रूपी धनुष पर श्रेष्ठ तप रूपी बाण चढ़ाकर परीषह रूपी महा योद्धाओं को Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार प्रदीप] ( ४९०) [ द्वादश अधिकार जीत संत है, उनके समस्त पर पांच सिपो चोरों के साथ-साथ अवश्य नष्ट हो माते हैं और बहुत ही शीघ्र मोक्ष लक्ष्मी के साथ-साथ तीनों लोकों की लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है ।।३१९८-३१६६॥ परीषहों को नहीं जीतने से हानिपरीषहभटेभ्यो ये भीता नश्यन्ति कातराः । सच्चारित्नरणात्प्राप्यतेपकीसिजगस्त्रये ॥३२.०11 हास्यं स्वजनसाधूनांमध्येचतुगताविह । प्रमुत्रपापराकेनस्युविश्वदुःखभाजनाः ।।३२०१॥ अर्थ-~-जो कायर मुनि परीषह रूपी योद्धाओं से डरकर भाग जाते हैं वे उस जारिकरूपी युद्ध में तीनों लोकों में फैलने वाली अपकीति प्राप्त करते हैं, अपने स्वजन और साधुओं के मध्य में उनकी हंसी होती है तथा परलोक में पापकर्म के उदय से उनको चारों गतियों के समस्त महा दुःख प्राप्त होते हैं ।।३२००-३२०१॥ धैर्य रूपी तलवार से परीषहों को जीतने की प्रेरणामत्वेति सुधियोनित्यंस्पारोमिवपरोषहान् । जयन्तु धंयंखड्गेन मुक्तिसाम्राज्यसिद्धये ॥३२०२।। अर्थ-- यही समझकर बुद्धिमान मुनियों को मुक्तिरूपी साम्राज्य सिद्ध करने के लिये अपनी धैर्य रूपी तलवार से अपने शत्रुओं के समान ये समस्त परोषह सदा के लिये जीत लेनी चाहिये ॥३२०२॥ ऋद्धियों के कथन की प्रतिज्ञा एवं उनके भेदमीरयमुनोन्त्रारामृषीणां सत्तयोभवाः । समासेन प्रवक्ष्यामि तपोमाहात्म्यव्यक्तये ॥३२०३॥ ऋद्धिबघाह्वया वाद्याक्रिविविक्रियाह्वया । तपऋजिलसिलौषद्धिरससंझका: ।।३२०४।। क्षेत्रहियोगिमामेताद्धयोष्टविधाःपराः । अनन्योखिलसहियाना तपःशुद्धिप्रभावाः ।।३२०५।। अर्थ- अथानंतर-मुनियों के, ऋषियों के श्रेष्ठ तप के प्रभाव से अनेक ऋद्धियां उत्पन्न होती हैं । अतएव उस तप का माहात्म्य प्रगट करने के लिये संक्षेप से उन ऋद्धियों का स्वरूप कहता हूं । बुद्धिऋद्धि, क्रियाऋद्धि, विक्रियाऋद्धि, तपऋद्धि, बलऋद्धि, प्रौषधिऋद्धि, रसऋद्धि और क्षेत्रऋद्धि ये पाठ प्रकार को ऋद्धियां मुनियों के होती हैं। ये सब ऋद्धियां सपश्चरण की शुद्धता के प्रभाव से प्रगट होती हैं और समस्त सुखों को उत्पन्न करनेवाली होती हैं ॥३२०३-३२०५।। बुद्धि ऋद्धि के भेद व क्रिया ऋद्धि के भेदकेवलावधिसनाने अनःपर्यबोधनः । मौजकोष्ठायेशुद्धीपावानुसारिसंशका ।।३२०६।। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनाया प्रदीप ४१) द्वादश प्रधिकार संभिमभोजबूरामबाबमस्मोनदाना: । प्रारहाणवल्समध्ये बसविस्वमेवहि ॥३२०७॥ सन्तुबिस्वबिपनाम महामारपूरणी महानिमित्तमातामा ३२०८।। HEATRESTINYWHAT TU TIMo सपासपुरपेकंजसा पुरा । बादित्वमद्धिभेदाःस्युवंटरव्दादशाप्यमी ॥३२०६।। . . ... ... . .। ... अर्थ-केवलज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, अधिशान, श्रीजधुद्धि, कोष्ठभुद्धि, पाशासारि, सभिन्नश्रोत्र, दूरास्वादन, दूरस्पर्शन, दूरदर्शन, दूरध्राण, दूरश्रवण, वशपूवित्व वा चतुर्दशपवित्व, समस्त पदार्थो के जानने की सामर्थ्य, अष्टांग महा निमित्त की पूर्णता, प्रज्ञाश्रमणत्व, प्रत्येक बुद्धता और श्रेष्ठ बावित्व इसप्रकार अठारह अतिशयों का प्राप्त होना बुद्धिवृद्धि के मेद हैं ॥३२०६-३२०६॥ क्रिया ऋमि का प्रथम भेद व रूप चारण ऋद्धि के भेद-- चारणस्वंतथाकारागामित्वं ध्योमगामिमाम् । द्विधानियषिरत्रेति सत्र चारणाः पराः ।।३२१०।। जलजंघाभिधास्तन्तुपुष्पपत्राल्पाचारणाः । बीजरिषफलाप्राग्निशिखाच परिगामिन: ॥३२११॥ अलमादाय वाप्याविष्वप्कायिकविराधनाम् । अकुर्वन्तोममाग्नमाविष कार्यायपाययोः ।।३२१२।। वअन्स्पुटारनिक्षेपाम्यां खिलागिरक्षकाः । महाकायचित्तास्ते भवन्ति जलधारणाः । ३२१३॥ भूमेहपरिचाकाशेषतुरंगुससम्मिते। स्वजंधोक्षेपनिक्षेपाम्यांयान्तिबहुपासमाम् ।।३२१४॥ विहारकर्मणे ये ले योगिनोअंघचारिणः । एवमन्येपिविशेसातत्वाविचारणाः पराः ॥३२१५।। अर्थ-चारण ऋद्धि और आकाशगामी द्धि ये दो प्रकार की क्रियाऋद्धियां आकाशगामी मुनियोंके होती हैं । अब आगे धारण ऋद्धियों का विशेष रीति से लिखते हैं। जलचारण, जंधाचारण, तंतुम्चारण, पुष्पचारण, पत्रचारण, बीजधारण, श्रेणीचारण, फलधारण, अग्निशिखाचारण आदि धारण ऋद्धिके अनेक मेद हैं । जो मुनि अपने कार्य के लिये बावड़ी, सरोवर आदि जल में जलकायिक जीवों की रंचमात्र भी विराघना न करते हुए पृथ्वी के समान उस जल पर पैरों को उठाते रखते हुए चलते हैं, ऐसे समस्त जोषों को रक्षा करनेवाले और हृदय में महा करुणा धारण करनेवाले वे मुनिराज जलचारण ऋद्धि को धारण करनेवाले कहलाते हैं। जो मुनि भूमि से चार अंगुल ऊपर आकाश में अपनी जंघाओं को उठाते रखते हुए विहार करते हैं और इसीप्रकार अनेक योजन चले जाते हैं उन मुनियोंको जंघाचारण ऋद्धिधारी कहते हैं। इसीप्रकार तंतुचारण, पुष्प, फल, चारण आदि चारण ऋद्धियोंके मेव समझ लेने चाहिये ॥३२१०-३२१॥ आकाशगामिनी ऋद्धि का स्वरूप-- पर्यकासनयुक्ता मा मिषष्णा वा सुधारणाः । कायोत्सर्गस्थिताः पादोद्वारनिक्षेपणेन वा ॥२१॥ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४६२) [ द्वादश अधिकार वा ताम्यामन्तरेणेवायोजनमामिनः । प्राकाशगामिनो झेयाः कुशलाः बजने च खे ।।३२१७॥ अर्थ-आकाशगामिनी ऋद्धि को धारण करनेवाले मुनि चलने में अत्यन्त चतुर होते हैं तथा पर्यकासन से बैठकर वा अन्य किसी आसन से बैठकर वा कायोत्सर्ग से खड़े होकर वा परों को उठाते रखते हुए वा परों को बिना उठाए रक्खे अनेक योजन चले जाते हैं, उसको आकाशमामिनी ऋद्धि कहते हैं ॥३२१६-३२१७।। विक्रिया ऋषि के भेदअरिणमा महिमा नाम्नी लघिमा गरिमा तत: । प्राप्तिा प्राकाम्यमो शित्वंवशित्वं वशकारकम् ।। तर्थवातिधातोन्तर्बानमवृश्यकारणम् । कामरूपित्यमित्याद्या विकिचिरनेकधा ।।३२१६।। अर्थ-विक्रिया ऋद्धि के अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्य, प्राकाम्य, ईशत्व, वश करनेवाली वशित्व, अप्रतिधात, अदृश्यता का कारण अंतधान और कामरूपित्य आदि अनेक भेद हैं ॥३२१८-३२१६॥ तपोतिशय ऋद्धि के ७भेद का कथनउपोधीप्ततपस्तप्तोमहघोरतपस्ततः । सर्वकार्यविधीशक्तस्तपोधोरपराक्रमः ॥३२२०॥ धोरायन्सगुणब्रह्मचर्यस्वप्नेप्यखवितम् । सत्तपोसिशद्धिश्चषामता सप्तपासताम् ॥३२२१॥ अर्थ-अग्रदीप्ततप, तप्ततप, महाघोरतप, समस्त कार्यों के सिद्ध करने में समर्थ ऐसा घोर तप, घोर पराक्रम, घोरगुण और स्वप्न में अखंडित रहनेवाला घोर ब्रह्मचर्य इसप्रकार तपोतिशय ऋद्धि के सात भेद हैं ॥३२२०-३२२१।। बल ऋद्धि का स्वरूप एवं भेदमनोवाक्कायमेवेन विषा बसविरुच्यते । सागपाठचिन्तादौसत्तपश्चरणक्षमाः ।।३२२२॥ अर्थ- मनोबल, वचनबल और कायबलके भेद से बलऋद्धि के तीन भेद हैं। वे मुनिराज इस बलऋद्धि के समस्त अंगों का पाठ और चितवन क्षणभरमें कर लेने के लिये समर्थ हो जाते हैं ॥३२२२॥ औषधि ऋद्धि के भेदप्रामखेलाव्यजल्लमलोविटसावपिस्ततः । तवास्यवियोवृष्टिवितरितियोगिनाम् ॥३२२३।। विश्वरोगहराजेयात्रौषशिः पराष्टयाः । सत्तपोवृत्तपादिमाहात्म्यष्यक्तिकारिणी ॥३२२४॥ अर्य-प्राम, खेल, जल्ल, मल, विट, सवौषधि, प्रास्य विष और दृष्टि विष ये समस्त रोगों को हरण करनेवाली औषधि ऋद्धियां आठ प्रकार की हैं। ये सब Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४६३) [ द्वादश भधिकार ऋद्धियां तप चारित्र और धर्म के माहात्म्य को प्रगट करनेवाली हैं ।।३२२३-३२२४॥ रस ऋद्धि के भेदपरा प्रात्यविषावृष्टिविषामहर्षयोद्भसा: । सन्क्षीसरामाविरगोमध्वाधामिण निगमाः ३२२५! सपिराधाविश्वामताथाविण अजिसाः । एवरसद्धिसंप्राप्ताः षड्विधाऋषयोमताः ॥३२२६॥ ___ अर्थ--रसद्धि के छह मेद हैं-प्रास्यविषा, दृष्टिविषा, क्षीरस्रावी, मधुस्रावो, सपिस्रावी और अमृतस्त्रावो । इनसे सुशोभित होनेवाले मुनि रसऋद्धिधारी कहलाते हैं ॥३२२५-३२२६।। क्षेत्र ऋद्धि के भेदद्विधान द्धिसंप्राप्ताः इत्यक्षीणमहानसाः । जनावगम्हवा:स्वस्याश्रमेक्षीरगमहालयाः ॥३२२७।। अर्थ-क्षेत्र ऋद्धि के दो भेद है-एक अक्षीण महानस और आश्रम में समस्त लोगों को जगह वेनेवाली प्रक्षीण महालय इनसे सुशोभित होनेवाले मुनि क्षेत्रऋद्धिधारी कहलाते हैं ॥३२२७॥ ऋद्धियों की महिमाहमा अष्टविधाः साराः ऋद्धयोषिविधास्तथा । तपोमाहात्म्यजा ज्ञेया ऋषीरणशिवशर्मवाः ॥२८॥ अर्थ-इसप्रकार ये पाठ प्रकार की ऋद्धियां कहलाती हैं इन सारभूत ऋद्धियों के अनेक भेव हैं तथा ऋषियों के तपश्चरण के माहात्म्प से प्रगट होती हैं और उन्हें मोक्ष देनेवाली होती हैं ॥३२२८॥ किनके ये ऋद्धियां प्रकट होती हैंनिराकांक्षास्त्रिशुरुपायेऽनघंकुर्वन्तिसत्तमः । श्यपः सकलास्तेषां जायन्ते स्वयमेव हि ॥३२२६।। अर्थ-जो मुनि मन-वचन-फाय की शुद्धता पूर्वक बिना किसी प्राकांक्षा के पापरहित श्रेष्ठ तपश्चरण करते हैं उनके अपने आप समस्त ऋद्धियां प्रगट हो जाती हैं ॥३२२६॥ तप नहीं करने से हानिजिनदीमामुगावाय तपोयेत्र म कुर्वते । सेवा रोगबजोमुत्रदुर्गतिमित्पभक्षणात् ।।३२३०॥ अर्थ-जो मुनि अपनी इच्छानुसार दीक्षा धारण करके भी तपश्चरण नहीं करते उनके अनेक रोग प्रगट होते हैं और नित्य भक्षण करने से परलोक में दुर्गति Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४६४) [ द्वादश अधिकार होती है ॥३२३०॥ __ तपश्चरण करने की प्रेरणामत्वेति शिवसिद्धयर्थ कुर्वन्तुसत्तपोन्यहम् । विश्वविजनशक्त्या भवभीताः शिवाधिनः ।।३२३१॥ अर्थ-यही समझकर संसार से भयभीत हुए और मोक्ष की इच्छा करनेवाले मुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये समस्त ऋड़ियों को प्रगट करनेवाला यह श्रेष्ठ तपश्चरण अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिदिन करते रहना चाहिये ।।३२३१॥ ____ऋद्धिधारी मुनिराज की वन्दना, स्तुतिइतिविमलमहर्षासंकृता ये महान्तः सकलगुरणसमुद्राः विश्वपूज्याऋषोन्याः । शिवगतिसुखकामा वंदिताः संस्तुतास्ते ममनिखिल निजामुक्तिसिद्धय प्रदय : १३२३२। अर्थ-इसप्रकार जो मुनि निर्मल महा ऋद्धियोंसे सुशोभित हैं, जो सर्वोत्कृष्ट हैं, समस्त गुणों के समुद्र हैं, तीनों लोकों में पूज्य हैं, ऋषिराज हैं और मोक्ष गति के सुखों की इच्छा करनेवाले हैं, उनकी मैं वंदना एवं स्तुति करता हूं । वे मुनिराज मोक्ष प्राप्त करने के लिये मुझे अपनी समस्त ऋद्धियों को प्राप्त करें ॥३२३२॥ ग्रन्थ की प्रामाणिकता एवं महिमा-- मूलाचारादिशास्त्रान्वरगरिणदितानसं विलोक्या येतो, वै मूलाचारप्रदोपाभिषममतसमं मानतीयमयात्र । सम्यक्त्वाचारदीपंजगतिसुयमिनाधर्मभोलंबुषार्थ्य, मेतत्स्वाण्यावहान्यदरितचयहरपसारं च चक्रे ।।३२३३।। अर्थ-मैंने श्रेष्ठ प्राचार्यों के द्वारा कहे हुए मूलाचार मादि अनेक शास्त्रोंको वेखकर तथा उनका सार लेकर अपने और अन्य जीवों के पाप नाश करने के लिये अमृत के समान यह मूलाचार प्रदीप नामका सारभूत अंथ मुनियों के लिये बनाया है । यह ग्रंथ ज्ञानका तीर्थ है, श्रेष्ठ आचारों को दिलाने वाला दीपक है, धर्म का बीज है, विद्वानों के द्वारा पूज्य है और पापों के समूह को नाश करनेवाला है ॥३२३३।। ग्रन्थ रचना का कारणम कोसिपूजादिफलाभवांच्छया नवा कवित्वाभिमानकाक्षया । पंथः कृतः किन्तुपरार्थसिद्धये स्वधर्मवृत्यै भुषि केवलंभया ।।३२३४।। अर्थ-यह ग्रंथ मैंने न तो अपनी कोति वा पूजा प्रावि के लाभ की इच्छा से Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४६५ ) [ द्वादश अधिकार बनाया है और न अपना कवित्व के अभिमान को दिखलाने की इच्छा से बनाया है । किंतु केवल दूसरों का उपकार करने के लिये और अपने धर्म की वृद्धि के लिये मैंने यह ग्रंथ बनाया है ।।३२३४।। पूज्य सरस्वती से क्षमा याचनायस्मिन्प्रम्यवरे सुमार्ग कप के किचिन्मयो मात्रामात चिखला नापमादादिभिः। आचारांग मसं विरुद्ध यदासर्वक्षमत्वान्वतं पूज्ये भारति तीर्थनाथमुत्खजे दोषमदीयं भूषि । ३२३५|| अर्थ- हे माता सरस्वती, हे तीर्थंकर के मुख कमल से उत्पन्न हुई देवो ! मैंने सुमार्ग को दिखलाने वाले इस श्रेष्ठ ग्रंथ में अपने पूर्ण अज्ञान वा प्रमाविक से श्राचारांग शास्त्र के frea कहा हो वा मात्रा संधि पद आदि कुछ कम कहा हो उस मेरे दोष को हे पूज्य सरस्वती तू क्षमा कर ।। ३२३५ ।। ग्रन्थ के पठन-पाठन का फल - hroffदोवरशास्त्रं धर्मरत्नमिथिमात्महिताय । आदिमांगजमिम निरवद्यं ते विबुध्ययतिमार्गसमग्रम् ।। ३२३६ ।। तब तो खरा दिवसोत्यं प्राप्यशक्रपवअंशुभवीजम् । चक्रिराजविभवं च निहत्य कृत्स्नकर्म किलयाप्तिशिवस्तम् ।।३२३७॥ पाठयन्ति निपुणा यमिनः शिवाय शुद्ध यथार्थसहितं वरशास्त्रमेतत् । ते ज्ञानदानजनिता तधर्मतः यु लग्ध्वा बिलागम मिह त्रिजगच्छरण्याः ।। ३२३८ ॥ अर्थ - यह मूलाधार प्रदीप नाम का शास्त्र धर्मरूप रत्नों का निधि है, पहले आचारांग अंग से उत्पन्न हुआ है और निर्दोष है । इसलिये जो बुद्धिमान पुरुष अपना हित करने के लिये इसको पढ़ते हैं वे मुनियों के समस्त मार्ग को जानकर और यथार्थ रीति से उसको श्राचरण कर स्वर्गमें उत्पन्न होते हैं तथा यहाँके सुखों को प्राप्त कर वा वहां के इन्द्रपद के सुखों को प्राप्त कर बचे हुए पुण्य कर्म से चक्रवर्ती की विभूति को प्राप्त करते हैं । तथा अंत में समस्त कर्मों को नाश कर मोक्ष में जा विराजमान होते हैं। जो चतुर मुनि मोक्ष प्राप्त करने के लिये इस शास्त्र को यथार्थं अर्थ सहित शुद्ध रीति से पढ़ाते हैं वे ज्ञानदान से उत्पन्न हुए अद्भुत धर्म के प्रभाव से समस्त श्रागम के पारगामी होकर तोनों लोकों को शरणभूत हो जाते हैं, अर्थात् अरहंत वा सिद्ध हो जाते हैं ।।३२३६-३२३८।। Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६६ ) अन्य को लिखने लिखवाने का फल ये संखिन्ति सुधियः स्वयमेव वेयं ग्रन्थं धनेन मिनः खलुले खयन्ति । ते ज्ञानतीर्थपरमोद्धरणाद्धरियां तीर्थेश्वराः किल भवेयुरहो क्रमेर ।। ३२३६ ।। मूलाचार प्रदीप ] अर्थ - इसीप्रकार जो बुद्धिमान इस ग्रंथ को स्वयं लिखते हैं वा जो धनी घन खर्च कर लिखाते हैं वे इस पृथ्वीपर ज्ञानरूपी तीर्थ के परम उद्धार करनेवाले कहे जाते हैं और इसीलिये वे अनुक्रम से तीर्थकर पद को प्राप्त करते हैं ।। ३२३६ ।। [ द्वादश अधिकार ग्रन्थकर्त्ता (सकलकीर्ति) शास्त्र शुद्धि के लिये विशेष ज्ञानियों से प्रार्थना करते हैंरहिल सकलदोषा ज्ञानपूर्णा ऋषीन्द्रा स्त्रिभुवनपतिपूज्याः शोधयन्त्वे वयत्नात् । विशदसकलकर्त्यास्ये नवाचारशास्त्रमिदमिर रिनासंकीर्तितं धर्मसिद्धयं ।। ३२४० ॥ अर्थ -- यह श्राचारशास्त्र ग्रंथ धर्म की सिद्धि के लिये अत्यन्त प्रसिद्ध ऐसे आचार्य सकलफीति ने बनाया है । जो मुनिराज समस्त दोषों से रहित हों, ज्ञान से परिपूर्ण हों और तीनों लोकों के द्वारा पूज्य हों वे इस ग्रंथ को प्रयत्न पूर्वक शुद्ध करें । ॥३२४० ॥ समस्त गुणों की प्राप्ति हेतु तीर्थंकर देव की स्तुति - सतीर्थकरा: परार्थजनका लोकत्रयोद्योतका विश्वहिता भवहराधर्मार्थकामादिवाः । अन्तातीतगुणार्णवा निरुपमामुक्तिस्त्रियोबल्लभा, atest वोनिजगुणापत्यसन्तु नोषः स्तुताः ।। ३२४१ ॥ अर्थ - इस संसार में आज तक जितने तीर्थंकर हुए हैं वे सब मोक्ष रूप परम पुरुषार्थ को प्रगट करनेवाले, तीनों लोकों के पदार्थों को प्रकाशित करनेवाले, तीनों लोकों के द्वारा वंदनीय, समस्त जीवों का हित करनेवाले, संसार को नाश करनेवाले, धर्म, अर्थ, काम आदि पुरुषार्थी को देनेवाले, अनंत गुणों के समुद्र, उपमारहित मुक्तिस्त्री के स्वामी और इस लोक में बिना कारण सबका हित करनेवाले बंधु रूप हुए हैं । इसीलिये मैं उनकी स्तुति करता हूं। वे तीर्थंकर परमदेव मेरे लिये अपने समस्त गुण प्रदान करें || ३२४१ ॥ समस्त सिद्धि के लिये सिद्ध भगवान की स्तुति - सिद्धामुक्तिवसुसंग सुखिमोऽनंतास्त्रिलोकाप्रगा धोयास्तत्पवकांक्षिभिः मुनिवरैः प्रातीनामपि । Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ] [ द्वादश अधिकार वंद्यामष्टगुणांकिता:शिषकरा:मूर्तातिगा निर्मला:, शानांगाममयोविशन्तुसकलासिदिनिजासंस्तुताः ॥३२४२।। अर्थ-- इसीप्रकार अनंत सिद्ध परमेष्ठी मुक्तिरूपी स्त्री के समागम से प्रत्यन्त सुखी हैं, तीनों लोकों के शिखर पर विराजमान हैं, सिद्ध पद की इच्छा करनेवाले मुनियों को ध्यान करने योग्य हैं, पहले भगवान तीर्थंकर परमदेव ने भी उनकी वंदना की है, वे सम्यक्त्व प्रावि पाठों गुणों से सुशोभित हैं, मोक्ष के देनेवाले हैं, प्रमुर्त हैं। विरल हैं और शामरूप शरीर को धारण करनेवाले हैं। ऐसे सिद्ध परमेष्ठी को मैं स्तुति करता हूं वे सिद्ध परमेष्ठी तुम लोगों के लिये अपनी समस्त सिद्धि प्रदान करें। ॥३२४२॥ समस्त साधुनों की स्तुति-- पंचाधारपरायणा: सुगरिएनः स्वाचारसंशिन, चाचारायशिलांगपाठनिपुणामध्यापकाः साधयः । विश्वेशक्तिभरण्योगसहिता: स्वाधारमार्गोचताः, ये ते विश्वहितंकराश्चममवोवध स्वकीपानगुणान् ।।३२४३॥ अर्थ--इस संसार में पंचाचारों के पालन करने में तत्पर तथा अपने प्राचारों को विखलाने वाले दूसरों से पालन कराने वाले जितने प्राचार्य है तथा प्राचारांगादि समस्त अंगों के पढ़ने पढ़ाने में निपुण जितने उपाध्याय हैं और अपनी शक्तिके अनुसार योगों को धारण करनेवाले अपने प्राचार मार्ग में उद्यत रहने वाले तथा समस्त जीवों का हित करनेवाले जितने साथ हैं वे सब तुम्हारे लिये और मेरे लिये अपने-अपने समस्त गुण प्रदान करें ॥३२४३॥ जन शासन की स्तुतिभरिपुभयभीतानां शरण्यं बुधाय निरुपमगुरंगपूर्णस्वर्गमोक्षकहेतुम् । गणपरमुमिसेव्यं धर्ममूख गरिष्ठं जयतु जगति बन शासनपापपूरम ॥३२४।। अर्थ-इस संसार में यह जनशासन संसाररूपौ शत्रु से भयभीत हुए जीवों के लिये शरणभूत है, विद्वानों के द्वारा पूण्य है, उपमारहित गुणों से पूर्ण है, स्वर्गमोक्ष का एक अद्वितीय कारण है, गणधर और मुनियों के द्वारा सेवा करने योग्य है, धर्म का मूल है, सर्वोत्कृष्ट है पौर पापों से रहित है । ऐसा यह जनशासन तीनों लोकों में जयवंत हो ॥३२४४॥ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४६८) [ द्वादश मधिकार प्राचार प्रदीप नामक ग्रन्थ की प्रामाणिकता एवं स्तुतिविावेरोनितीमहितमपमलं वन्दितं संस्तुतं च, विश्वाधारप्रदीपंगुणगरगजनकतोयनाथः प्रणीतम् । प्रबिंगाविपूर्वैगरणपरयमिभिर्यनिबद्ध मयातत् नित्यं, पास्वद्धिसकलपतिगणधर्मतीथं हि यावत् ॥३२४५।। अर्थ-जो प्राचार प्रदीप ज्ञान का तीर्थ है, तीनों लोकों के इन्नों के द्वारा पूज्य है, यंदनीय है, स्तुति करने योग्य है, समस्त आचारों को दिखलाने वाला दीपक है, अनेक गुणों के समूह को उत्पन्न करनेवाला है, अर्थरूप से भगवान तीर्थकर परमदेव का कहा हुआ है, तथा अर्थरूप से अंग पूर्व के द्वारा गणधर परमदेवों ने इसकी रचना की है, उसी को मैंने रचना रूप में प्रगट कर दिया है ऐसा यह प्रन्थ जब तक धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति रहे तब तक समस्त मुनियों के समूह के द्वारा सदा वृद्धि को प्राप्त होता रहे ॥३२४५॥ आचार्य स्वयं ज्ञान तीर्थ की स्तुति करते हुए स्तुति के फन की कामना कर रहे हैं-- एतद्ज्ञानसुतीर्थसारमतुलं प्रोक्तमयासंस्तुतं पंद्य मेति सुलोभिनः शिवपधरलनयंनिर्मलम् । शुद्धिवाक्तनुचेतसो च सुमति बोधिसमाषिगुरपान तीर्थशासुगतिववासकलं दुःखं निहत्य तम् ॥ अर्थ-यह वंदना करने योग्य, स्तुति करने योग्य, उपमारहित और सारभूत ऐसा मेरे द्वारा कहा हुआ ज्ञान तीर्थ अत्यन्त लोभ करनेवाले मेरे समस्त दुःखों को दूर कर मुझे मोक्ष मार्ग प्रदान करे, निर्मल रत्नत्रय प्रदान करे, मन-वचन-काय को शुद्धि प्रदान करे, पंडितमरण प्रदान करे, बोधि और समाधि को प्रदान करे, तीर्थंकरों के गुणों को प्रदान करे और सबसे उत्तम गति प्रदान करे ॥३२४६।। पश्च परमेष्ठी की स्तुति पूर्वक मंगल कामना करते हैंअसमगुणनिधानास्तोपनाषा: शरण्याः जगतिरहितवेहा विश्वलोकाप्रमूता: 1 त्रिविधगुणमहान्तः साश्वोयेशिलास्ते ममसकलसुलाप्रमेसन्तुमागल्यवा षः ।।३२४७।। अर्थ-इस संसार में अनुपम गुणों के निधान और सबको शरणभूत जितने तीर्थकर हैं तथा शरीर रहित और लोक शिखर पर विराजमान जितने सिद्ध हैं और अनेक गुणों से सुशोभित जितने प्राचार्य, उपाध्याय, साधु हैं वे सब मेरे लिये समस्त सुखों को देनेवाले हों और तुम्हारे लिये समस्त मंगलों को बेनेवाले हों ।।३२४७॥ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार प्रदीप ( Yee ) [वादश अधिकार शास्त्र के श्लोक संख्या का प्रमाणपंचषष्ठधषिका: इलोकास्त्रियस्त्रिशतप्रमा: / प्रस्थाचारसुशास्त्रस्य ज्ञेयाः पिण्डीकृताभुवि / / 324 / / इति श्रीमूलाचारप्रयोपकास्येमहापंथे भट्टारक श्रीसकलकोतिविरचितेनुप्रेक्षापरीषह ऋद्धिवर्णनो नाम द्वादशमोऽधिकारः। अर्थ-विद्वान् पुरुषों ने इस प्राचार शास्त्र के समस्त श्लोकों की संख्या तीन हजार तीन सौ सठ बतलाई है // 3248 / / इसप्रकार प्राचार्य श्रीसकलकीति विरचित मूलाचार प्रदीप नाम के महाग्रन्थ में अनुप्रेक्षा परीषह और ऋद्धियों को वर्णन करनेवाला यह बारहवां अधिकार समाप्त हुआ। DDH