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________________ मुलाचार प्रदीप ( ४६५ ) [ द्वादश अधिकार अर्थ-पह शरीर, आयु, सुख, राज्य, भवन और धन आदि सब अनित्य हैं और इन्द्रधनुष के समान क्षणभंगुर हैं । यह यौवन बुढ़ापे से घिरा हुआ है, अपनी प्रायु यमराज के मुख में हो रह रही है. भोग सब रोगों से मिले हुए हैं और सुखों के आगे सदा दुःख ही बने रहते हैं । इन्द्र चक्रवर्ती, बलदेव आदि के जिसने उत्तम पद हैं वे भी सबा रहनेवाले नहीं हैं, तथा इन्द्रिय, आरोग्य, सामर्थ्य और बल सब बादल के समान थोड़ी देर तक ही ठहरने वाले हैं । चंचल स्त्रियां संकल के समान बंधन में डालने वाली हैं, कुटम्ब सब विडम्बना मात्र है, पुन जाल के समान बांधने वाले हैं और घर का निवास कारागार के समान है । मनुष्यों का यह रूप क्षणभंगुर है, जीवन बिजली के समान चंचल है, संपत्तियां सब विपत्तियों के मध्य में रहती हैं । इसप्रकार यह समस्त जगत क्षणभंगुर है । यह महापापी यमराज समय समय के अनुसार थोड़ा थोड़ा चल कर सरसापर्यंत सदेने से रात तक बक जीवोंको अपने पास बुला लेता है । इस संसार में तीनों लोकों में जो कुछ सुन्दर पदार्थ दिखलाई पड़ते हैं वे सब कालरूपी अग्नि से जलकर भस्म हो जाते हैं ।।३०२२-३०२८॥ ___ अनित्य शरीरादि से नित्य मोक्ष सिद्ध करने की प्रेरणाइत्यनित्यं जगवशात्या मित्यमोशंसुलोभिनः । प्रनित्य स्वशरीरा: साषयन्तुगादिभिः ।३०२६। अर्थ-इसप्रकार जगत को अनित्य समझ कर मोक्ष के लोभी पुरुषों को सम्यग्दर्शनादिक धारण कर इस अनित्य शरीरादिक से नित्य स्वरूप मोक्ष को सिद्ध कर लेना चाहिये ॥३०२६।। प्रशरण अनुप्रेक्षा का स्वरूपबनेव्याघ्रगृहोतस्यमृगस्येव जगत्रये । समारातिगृहीतस्य जन्तोनं शरणं पयचित् ।।३०३०॥ __ अर्थ-जिसप्रकार किसी वनमें किसी हिरण को सिंह पकड़ लेता है, उस समय उस हिरण का कोई शरण नहीं है, उसी प्रकार जब इस जोव को यमरूपी शत्र पकड़ लेता है तब इसको बचाने वाला शरणभूत तीनों लोकों में कोई दिखाई नहीं देता ।।३०३०॥ समस्त आपत्तियों में शरणभूत कौन ? अहम्लोत्राशरीराश्चत्रिविधा साधबोलिलाः । इहामुत्रशरण्याः स्युःसर्वत्रापविधीमताम् ॥३०३१।। तथा तश्च प्रणीसो यो धर्मोरत्नत्रयात्मकः । सहगामीरारम्पः स सतां यमान्तकोमहान् ।।३०३२।। संसारभयभीतानांजिनशासनम तम् । शरण्यंविधतेषु सो जम्ममृत्युसुखापहम् ॥३०३३॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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