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________________ मूलाचार प्रदीप ] ( १९८) [चतुर्थ अधिकार अंगुलि चलित दोष का स्वरूपकायोत्सर्ग युतो योऽत्र विकारं कुरुतेयतिः । हातपाय गुजोणागिरो लागतमाः ३१ अर्थ-कायोत्सर्ग करता हुआ जो मुनि हाथ पैर वा अंगुली से विकार उत्पन्न करता रहता है उसके अंगुली नामका दोष लगता है ॥३१॥ भ्र -विकार दोष का स्वरूपव्युत्सर्गस्थोमयी नेत्रे भ्रू विकारं तनोति यः। नतनं बागुलीनां पादयोः सभ्रू विकारभार ॥३२॥ अर्थ-जो मुनि कायोत्सर्ग करते समय नेत्रों में या भोंहों में विकार उत्पन्न करता है अथवा अपने पैर की अंगुलियों को नचाता है उसको भ्र विकार नामका दोष लगता है ॥३२॥ ___ वारूणी-पायी दोष का स्वरूप-- सुरापायीव यो घूर्णमानास्तिष्ठतिसंयमी। व्यत्सर्गे धारुणीपायी दोषस्तस्य चलात्मनः ।। ३३॥ अर्थ-जो मुनि मध पीने वाले मनुष्य के समान लहरें लेता हुआ कायोत्सर्ग करता है उस चंचल मुनि के वारुणोपायो नाममा दोष लगता है ॥३३॥ दवा दिगालोकन के दश दोषों का स्वरूपध्युरसगंस्थः प्रपश्येद्यो नेत्राम्यां हि दिशोदश । लभते वमा दोषान् स दिगालोकनसंज्ञकाम् ॥३४॥ अर्थ- जो मनि कायोत्सर्ग करता हुआ भी अपने नेत्रों से दशों दिशाओं की ओर देखता है उसके दश दिगालोकन नामके दश दोष लगते हैं। भावार्थ-एक एक दिशाको देखना एक-एक दोष है । इसप्रकार दशों विशाओंको देखना दश दोष हैं ।।३४॥ पीवोन्नमन दोष का स्वरूपकायोत्सर्गरणसंयुक्तः स्वप्नीवोन्नमनंहि यः । करोति तस्य दोषः स्याग्रीवोन्नमन नामकः ।।३।। अर्थ-जो मुनि अपनी गर्दन को ऊंची कर कायोत्सर्ग करता है उसके ग्रोबोअमन नामका दोष लगता है ॥३॥ प्रगमन दोष का स्वरूपकायोत्सर्गाकितो यः प्रगमनं फुरतेपतिः । तस्यप्रणमनाख्योस्ति बोषो दोषकरोऽशुभः ॥३६॥ अर्थ-जो मुनि कायोत्सर्ग करता हुआ भी नीचे की ओर झुक जाता है उसके अनेक दोष उत्पन्न करनेवाला प्रणमन नामका अशुभ दोष होता है ॥३६॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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