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________________ मूलाचार प्रदीप] (.१ नवम अधिकार और कामेन्द्रियरूपी सर्प वैराग्यरूपी मन्त्र के द्वारा तपस्वियों को कोल देने चाहिये । ॥२६११॥ ___ काठादि स्त्रियों के संयोग से उत्पन्न हानिकाष्ठाविणांपनारूपाङ्गतम्यं संयतः सदा । मतस्तद्दर्शनान्ननचित्तकोभोभवेन्नरणाम् ॥२६१२॥ सपितघटाभोंगीस्त्रीज्वलन्याससनिभा । तयोः सम्पर्कतः किं किमनर्थो जायते न नुः ॥१३॥ स्त्रीसभीपं गतायेनहास्यवार्ताविलोकनः । नष्टास्ते भ्रष्टचारित्राइतरे च शिवंगताः ॥२६१४।। अर्थ-मुनियों को काठ को बनी हुई स्त्री से भी सदा डरते रहना चाहिये । क्योंकि उसके देखने से भी मनुष्यों के हृदय में अवश्य ही क्षोभ उत्पन्न हो जाता है । यह मनुष्य घो से भरे हुए घड़े के समान है और यह स्त्री जलती हुई अग्नि की ज्वाला के समान है। इन दोनों के संबंध से मनुष्यों को भला क्या-क्या अनर्थ नहीं हो सकते हैं अर्थात् सब कुछ तरह के अनर्थ हो सकते हैं । जो मनुष्य हंसी की बातचीत को सुनने वा देखने के लिये स्त्रियों के पास जाते हैं, वे चारित्र से भ्रष्ट होकर अवश्य ही नष्ट हो जाते हैं । तथा जो ऐसा नहीं करते स्त्रियों से अलग रहते हैं वे अवश्य मोक्ष जाते हैं ।।२६१२-२६१४॥ ___ मुनि, माता आदि स्त्रियों के संसर्ग का भी त्याग करेंमातृभग्नीसुतामूकायद्धास्त्रीरूपतोमिशम् । मेतध्वंमुनिभियस्मा रक्षोभ स्यान्नेत्रचित्तयोः ॥२६१५। हस्तपाषपरिछिन्ना कर्णनासाविजिताम् । शतवर्षमा नारी दूरतोवजयव्रतो ।।२६१६।। अर्थ-मुनियों को माता, भगिनी, पुत्री, गूगी और वृद्धा आदि स्त्रियों के रूप से भी सदा डरते रहना चाहिये क्योंकि स्त्रियों के रूपसे भी नेत्र और हृदय में क्षोभ उत्पन्न हो जाता है । जिस स्त्री के हाथ पैर कटे हुए हों और जिसके नाक, कान भी कटे हों तथा ऐसी स्त्री सौ वर्ष की हो तो भी वलियों को ऐसी स्त्री का दूरसे ही त्याग कर देना चाहिये ।।२६१५-२६१६।। भावों से विरक्त ही वास्तविक विरक्त हैभावेनविरतोयोगोविरक्तीविश्ववस्तुषु । भवेत्स्वमुतिगामी च ज्येण भववकः ।।२६१७।। अर्थ-जो मुनि अपने भाषों से विरक्त है उसे सब वस्तुभों से विरक्त समझना चाहिये तथा उसे ही स्वर्गमोक्ष जानेवाला समझना चाहिये । जो मुनि ऊपर से विरक्त है, भावों से विरक्त नहीं है, उसे संसारको बढ़ानेवाला हो समझना चाहिये ।।२६१७।।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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