________________
मूलाधार प्रदीप]
( ४००)
[ नवम अधिकार सकते हैं उसीप्रकार शिष्य आदि के संगसि से उत्पन्न हुए रागद्वेष के अभाव से परगण में मुनियों को कर्म और कषायों की उत्पत्ति कभी नहीं हो सकती ॥२६०३-२६०४।।
मुनि क्षमादि गुणों से कषाय उत्पन्न न होने देकषायहेतु सूतश्चाविश्परिप्रहादयः । जायन्तेमानसे नृणामनर्थशतकारिणः ॥२६०५।। तेषांसर्वकषापालामनुत्पत्त्यमुनीश्वरः । विषेयपरमबस्नक्षमातोषाविभिः सदा ॥२६०६।।
अर्थ-इन मनुज्यों के हपयों में संक्षा अमर्थ फरसेवाले समस्त परिग्रह इन कषायों के ही कारणों से होते हैं इसलिये मुनियों को क्षमा और संतोष आदि प्रात्मगुण धारण कर समस्त कषायों को उत्पन्न न होने देने के लिये परम प्रयत्न करते रहना चाहिये ॥२६०५.२६०६॥ इन्द्रिय लम्पटी ४-४ अंगुलप्रमाण जिह्वाइन्द्रिय एवं क मेन्द्रिय से अनन्त
दुःखों की परम्परा को प्राप्त होते हैंअर्थार्थ गरेषितार्थ च जिह्वाकामार्थमंजसा । मियतेनन्तधारान् भो मारयेसचापरान् जनः ।२६०७॥ जिहोपस्यनिमित्तं जीवोनाविभवार्णधे । प्राप्तीधोरतरं दुःखमज्जनोस्यमनस्तशः ॥२६०८॥
चतुरगुलमानात्रजिह्वाही विश्वभक्षिका । चतुरंगुलमानोपस्योमम्भववर्ष कः ॥२६०६।। एतेरष्टांगुलोत्पन्न दोषदोषनिवन्धनः । अनन्तदुःखसन्तानप्राप्नुवन्तिखलम्पटाः ॥२६१०॥
अर्थ- देखो ये मनुष्य धन के लिये, जीवन के लिये, जिह्वा इन्द्रिय के लिये और कामेन्द्रिय के लिये अनंतबार स्वयं मरता है और अनंतबार ही दूसरों को मारता है । इस जिह्वा इन्द्रिय और कामेन्द्रिय के कारण यह जीव अनादि कालसे इस संसाररूपी समुद्र में अनंतबार डूबा है और इसने अनंतबार ही अत्यंत महा घोर दुःख पाये हैं । यह जिह्वा इन्द्रियरूपी सपिणी यद्यपि चार अंगुलप्रमाण है तथापि समस्त संसारको खा जानेवाली है । इसीप्रकार यह कामेन्द्रिय भी चार अंगुलप्रमाण है तथापि अनंत संसारको बढ़ाने वाली है । इसप्रकार इन पाठ अंगुलप्रमाण जिह्वाइन्द्रिय और कामेन्द्रिय से जो दोष उत्पन्न होते हैं वे अनेक दोषों को उत्पन्न करनेवाले होते हैं और उन्हीं से यह इन्द्रियलंपटी जीव अनंत दुःखों की परंपरा को प्राप्त होते हैं ॥२६०७-२६१०॥
___ कैसे मन्त्र के द्वारा इन्हें कोल देना चाहियेज्ञात्वेतिरसनोपस्थसर्पो त्रैलोक्यभीतिदी। दृढवैराग्यमंत्रेण कीलयन्तु तपोधनाः ॥२६११।।
अर्थ- यही समझकर तीनों लोकों को भय उत्पन्न करनेवाले ये जिह्वाइन्द्रिय