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________________ मूलाचार प्रदीप ] । द्वितीय प्राधकार सबसे मुख्यक्त स्वरूप इस 'ई समिति' को छोड़कर इस पृथ्वी पर कभी गमन नहीं करना चाहिये ॥२८३॥ उपसंहार रूपमें 'ईयसमिति गुणसमुदाय खानि, स्वर्गसोपानमाला, शिवसुखजननी हिंसाविवरा पवित्राम् । जिनगणधरसेव्या, दोषरां भजध्वम् । समितिमिह सुयस्नादादिमा मुक्तिकामाः ॥२८४।। अर्थ--यह 'ईर्या समिति' समस्त गुणों को खान है : स्वर्ग की सीढी है; मोक्ष सुखको उत्पन्न करने वाली माता है; हिसादि पापों से सर्वथा दूर है; अत्यन्त पवित्र है; तीर्थकर और गणघर देवों के द्वारा सेवन करने योग्य है और समस्त दोषों से रहित है । इसलिये मोक्षको इच्छा करने वाले पुरुषों को बड़े प्रयत्न से इस 'ईर्या समिति' का पालन करना चाहिये ॥२८ २ भाषा समिति का स्वरूपहास्यकर्कशपशून्य, परमिन्दात्म शंसनात । विकथावीश्च संत्यज्य, धर्ममार्गप्रयत्तये ॥२८॥ स्वस्याम्येषां हितं सारं, मितं धर्माविरोधियत् । वचनं यते वशः, साभाषासमितियथा ।।२८६।। अर्थ-चतुर पुरुष, (१) हंसी के वचन (२) कठोर वचन (३) चुगली के वचन (४) दूसरे को निदा के वचन (५) और अपनी प्रशंसा के वचनों को तथा (६) विकथाओं को छोड़कर, केवल धर्म मार्ग की प्रवृत्ति करने के लिए तथा अपना और दूसरों का हित करने के लिए सारभूत परिमित और धर्म से अविरोधी जो वचन कहते हैं उसको 'भाषा समिति' कहते हैं ॥२८५-२८६॥ सत्य वचन के १० भेदसत्यं जनपदाख्याध, संमतं स्थापनाह्वयम् । मामरूपं प्रतीतं संभावना सत्यसंशकम् ॥२८७।। व्यवहाराभिषं भाष, मुपमासत्यमेव च । दशति वचो शाध्य, सत्यं सत्यागमोद्भवम् ॥२८॥ अर्थ- (१) पागम में निम्न लिखित सत्य वचनों के १० भेद बतलाये हैं यथा (१) जनपद सत्य (२) संमत सत्य (३) स्थापना सत्य (४) नाम सत्य (५) रूप सत्य (६) प्रतीत सत्य (७) संभावना सत्य (८) व्यवहार सत्य (6) भावसत्य और (१०) उपमा सत्य ॥२८७-२८॥ सत्य के १० भेदों के लक्षणनामादेशाविभाषाभिः, कथ्यते यच्छुभाशुभम् । वस्तु तच्च विरुद्ध' न, सायं 'जनपवाभिधम् ।।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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