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________________ मूलाचार प्रवीप] ( ८१ ) [द्वितीय अधिकार भ्रमराहारनामाथ, श्वभ्रपूरणसंज्ञकः । एत: पंचविधरत्र, भेदन के शन यतिः ।।५१७।। अर्थ-(१) गोचार (२) अक्षमृक्षण (३) उवराग्निप्रशमन (४) भ्रमराहार और (५) श्वभ्रपूरण इसप्रकार पांच प्रकार की वृत्ति रखकर मुनि पाहार ग्रहण करते हैं ॥५१६-५१७।। (१) गोचारवृति का स्पष्टीकरण-- यथोपनायमानं तृणादिकं दिध्ययोषिता। गौश्चाभ्यवहरत्यत्र, न तदंगं निरीक्ष्यते ॥५१८॥ तथालंकारधारिण्या, वियनार्योपढौकितम् । पिण्डं गलाति सद्योगीः, तस्यारूपं न पश्यति ॥ अर्थ-जिसप्रकार कोई सुन्दर स्त्री किसी गायको घास (भस) डालने पाती है तो वह गाय उस घास (भुस) को ही खाने लगती है वह गाय उस सुन्दर स्त्री के शरीरको नहीं देखती इसीप्रकार वस्त्राभूषणों को धारण करनेवाली किसी दिच्य सुन्दर स्त्री के द्वारा दिये हुये पाहारको श्रेष्ठ मुनिराज ग्रहण कर लेते हैं परन्तु उसके रूपको नहीं देखते ॥५१८-५१९।। गोचारवृत्ति का स्वरूप पुनः अथवा गौर्यथा नानातृणनीरादि संचयम् । न सर्वमोहते किंतु, यथालब्धं भजेत्सदा ॥५२०।। तथान्नरस सुस्वाद, व्यंजनादि समोहते । नेकीकृतं मुनि: किंतु, यथालन्धं भुनक्ति सत् ॥५२१।। ___ अर्थ-प्रथवा जिस प्रकार गाय अनेक प्रकार के पास भुसको वा पानी को चाहती नहीं है किन्तु जो सामने आ जाता है उसी को खा लेतो है उसी प्रकार मुनिराज भी अन्न रस स्वादिष्ट व्यंजन आदि किसी की इच्छा नहीं करते; किंतु जो कुछ दाता देता है उसे इकट्ठा कर खा लेते हैं । इसको 'गोचारवृत्ति' कहते हैं ॥५२०-४२१॥ (२) 'अक्षरक्षण' वृत्ति का स्वरूपस्निग्धेम केनचिद् यद, दक्षलेपं विधाय भोः । नये देशांतर परयः, शकटों रत्नपूरिताम् ।।५२२॥ गुणरत्नमृता ताछरीरं, शकटी मुनिः । स्वरूपाक्षमुक्षणेनास्मात, प्रापयेपिछवपत्तनम् ।।२३।। ____ अर्थ--जिस प्रकार कोई वैश्य, रत्नों से भरी हुई गाड़ी को, पहियो की धुरी में, थोड़ी सी चिकनाई लगाकर देशांतर में ले जाता है; उसी प्रकार मुनिराज भी गुण रत्नोंसे भरी हुई इस शरीर रूपी गाड़ी को चिकनाई के समान, थोड़ा सा माहार देकर इस आत्माको मोक्ष नगर तक पहुंचा देते हैं। इसको 'अक्षमृक्षरण' वृत्ति कहते हैं । ॥५२२-५२३॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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