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________________ गूनाचार प्रदीप ] ( ३६२ ) [अष्टम अधिकार तथा सूर्य अस्त होने के पहले प्रासुक मार्ग में केवल धर्म की प्रवृत्ति के लिये गमन करते हैं तथा आगे की चार हाथ भूमि अपने दोनों नेत्रों से देखते हुए ही गलन करते हैं । उन मुनियोंके ऐसे शुद्ध गमन करने को उत्तम विहार शुद्धि कहते हैं ।।२३६३-२३६४ । उत्तम बिहार शुद्धिके धारक मुनि नदकोटि से समम्त जीवों की विराधना नहीं करनेजीवयोनिसमासादीन् सूक्ष्मघायरकायिकान् । ज्ञानेनसुष्टुविज्ञायविश्वजन्तु कृपापराः ॥२३६५। ज्ञाननेत्रा मरुत्तुल्या सावध विविधन च । यत्नात्परिहरग्तस्ते कस्यचित्कारमादिभिः ।।२३६६।। एकेन्द्रियाविजन्तूनां वार्धा वात्रविराधनम् । विहरतोपिभूभागे न कुर्यु: कारयन्ति न ।।२३६७।। तृणपत्रप्रवालादिहरितांकुरजस्मिनाम् । कंदवीजफलादानांवनस्पत्यखिलागिनाम् ।।२३६८।। पाबा ममं नन छेदनं यातिपोडनम् । स्पर्शन वा न कुर्वन्ति कारयन्ति न सयताः ॥२३६९।। पृथिव्याः खनना अलानांप्रक्षालनादिभिः । अग्नेविध्यापनायश्च वातक्षेपादिभिः क्वचित् ॥७॥ बायोस्त्रसारममांस्थाननिशधागमनादिभिः । पीडांविराधना दक्षाः कृताचे नच कुर्वते ॥२३७१।। अर्थ--जो मुनि जोधों को योनि, जीवसमास, सूक्ष्मकाय, वादरकाय आदि जीवों को अपने ज्ञानसे जानकर समस्त जीवों पर कृपा करने में तत्पर रहते हैं, जो ज्ञानरूपी नेत्रों को धारण करते हैं और वायुके समान परिग्रह रहित हैं, ऐसे मुनि मनः वचन-कायसे प्रयत्नपूर्वक पापों का त्याग करते रहते हैं । वे मुनि समस्त पृथ्वीपर विहार करते हुए भी किसी भी कारण से एकेन्द्रियादिक जीवों की बाधा वा विराधना न तो कभी स्वयं करते हैं और न कभी किसी से कराते हैं। वे मुनिराज तृण, पत्र, प्रवाल (कोमल पत्ते) हरे अंकुरे, कंद, बोज, फल प्रादि समस्त वनस्पतिकायिक जीवों को पर आदि से न तो कभी मईन करते हैं, न मर्दन कराते हैं, न उनको छेदते हैं, न छिदवाते हैं, न स्पर्श करते हैं, न स्पर्श कराते हैं और न उनको पीड़ा पहुंचाते हैं वा पहुंचवाते हैं । वे चतुर मुनि न तो खोद पोट कर पृथ्वीकायिक जीवों को बाधा पहुंचाते हैं, न प्रक्षालनादि के द्वारा जलकायिक जीवों को बाधा पहुंचाते हैं, न बुझाकर वा जलाकर अग्निकायिक जीवों को बाधा पहुंचाते हैं, न पंखाविक से हवा कर वायुकायिक जीवों को बाधा पहुंचाते हैं और न गमम करने बैठने या सोने में प्रस जीवोंको बाधा पहनाते हैं । वे चतुर मुनि मन-वचन-काय और कृतकारित अनुमोदना से इन समस्त जीवों को कभी भी पोड़ा वा विराधना नहीं पहुंचाते ॥२३६५-२३७१॥ व मुनि शस्त्र रहित निःर्मक होकर बिहार करते हैंदण्डाधिसहिसीपकरणालीतसत्करा: । निमंमाभवभीमाघेः पतनाच्छकित्ताशयाः ॥२३७२।।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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