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________________ मूलाचार प्रदीप ( ३६३ ) [ अष्टम अधिकार अर्थ-उन मुनिराज के श्रेष्ठ हाथों में दंडा आदि हिंसा का कोई उपकरण नहीं होता, थे सर्वथा मोह रहित होते हैं और संसाररूपी भयानक समुद्र में पड़ने में सदा शंकित और भयभीत रहते हैं ।।२३७२।। चापरिषद को जानते हार आमाके परिभ्रमण का चित्त बन करते हैं... तीक्ष्णःपाषाणखण्डेश्चकंटकाचं : क्रमादिषु । पोड्यमाना अपि प्राज्ञा मनःक्लेशादिदूरगा: 1.७३॥ चर्यापरोषहारातैविजये कृतसूधमाः । चतुर्गतिषुरोद्रासुरीश्वनादियोनिषु ।।२३७४।। भ्रमण सुचिरनिद्य कृत्स्नदुःखभराकरम् । पराधीनविधेः रक्षेषाधिन्सयन्सोनिरन्तरम् ।।२३७५।। ___ अर्थ-यदि उनके पैर में कांटा लग जाय वा तीक्ष्ण पत्थर के टुकड़ों की धार छिद जाय और उनसे उनको पीड़ा होती हो तो भी वे बुद्धिमान मुनि अपने मन में कमी क्लेश नहीं करते हैं । क्लेश से वे सदा दूर ही रहते हैं। वे मुनिराज चर्यापरीषह रूपी शत्रओं को जीतने के लिये सदा उदोग करते रहते हैं, तथा मेरा यह प्रात्मा भयानक रूप चारों गतियों में चिरकालसे परिभ्रमण करता रहता है अथवा भयानक नरकादिक योनियों में चिरकालसे परिभ्रमण करता रहा है, यह मेरे आत्मा का परिभ्रमण अत्यंत निध है, समस्त दुःखों को खानि है और कर्म के आधीन है। इसप्रकार वे मुनिराज अपने प्रात्माके परिभ्रमण को निरंतर चितवन करते रहते हैं ॥२३७३-२३७५॥ परीषहों को जीतने के लिये मुनिराज पृथ्वीपर विहार करते हैंसंवेगं त्रिविचिसे भावयन्तोखिलागमम् । जानध्यानसुधापानं कुर्वन्तोतिनिराकुलाः ॥२३७६।। पुरपत्तनखेटानिग्रामाटवीपमादिषु । रम्यारम्येषु सर्वत्र विहन्तोनिजेच्छया ।२३७७।। पश्यन्तोपिपथं चा-घा रामारूपादिवोक्षणे । वजन्तोपि सुतीर्थावको कुलीपरावोवियः ।।२३७८॥ सुकया: कपयन्तोपिमूकार्षिकथादिषु । उपसर्गमयेशूराः कातरा:कर्मबन्धने ॥२३७६ ।। निस्पृहा निअवेहावीसस्पृहामुक्तिसाधने । सर्वधाप्रतिववाः प्रतिबद्धा जिनशासने ।।२३८०।। निममस्वाय दुष्कर्मपरोषहजयाय च । विहरन्तिमहों पह्वीमतन्द्रामुनिनायकाः ॥२३८१।। अर्थ- अत्यंत निराकुल हुए वे मुनिराज अपने हृदय में संसार शरीर और भोगों से संवेग धारण करते रहते हैं, समस्त आगम का चितवन करते रहते हैं, और ज्ञान तथा ध्यानरूपी अमृत का पान सवा करते रहते हैं । वे मुनिराज अपनी इच्छानुसार नगर पसन, खेट, पर्वत, गांव, जंगल, वन आदि सुन्वर असुन्दर समस्त स्थानोंमें विहार करते रहते हैं, उस समय यधपि वे मार्ग को देखते हैं तथापि स्त्रियों के मप प्रावि को देखने में वे अंधे ही बने रहते हैं। यद्यपि के चतुर मुनि श्रेष्ठ तीर्थों की वंदना
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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