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________________ मूलाचार प्रदीप] [पाठम अधिकार और मद को नाश करनेवाला रसपरित्याग नामका तप भगवान जिनेन्द्रदेव कहते हैं । ॥१८११-१८१२।। मद्यादि त्याग की प्ररणामद्यमांसमधुम्येवनवनीतमिमाः सा । मिद्या विकृतयस्त्याज्यास्यतनः पापखानय ।।१८१३।। अर्थ--मद्य, मांस, मघ और नवनीत ये चारों ही पदार्थ निध हैं, विकार उत्पन्न करनेवाले हैं और पापको खानि है । इसलिये इन चारों का सदा के लिये त्याग कर देना चाहिये ॥१८१३॥ प्राचाम्ल और निविकृत माहार का स्वरूप तथा उसे लेने को प्रेग्णासदुष्णेकांजिके शुखमाप्लाध्यभुज्यतेशनम् । जितेन्द्रियस्तपोथं यदाधाम्लउच्यतेत्रसः ।।१८१४॥ प्राहारो भुज्यते दुग्धाविकपंघरतातिगः। दमनापरक्षशत्रणा य सा निविकृतिमंता ।।१८१५।। प्राचाम्लनिर्विकृत्याये तपसे तेमधे म्यहम् । पंचाक्षारातिघाताय कसंन्येविधिवदुषः ।।१८१६ । अर्थ-जितेन्द्रिय पुरुष अपना तपश्चरण बढ़ाने वाले जो गर्म कांजी में (भात के मांड में) शुद्ध पाहार मिलाकर पाहार लेते हैं उसको आचाम्ल कहते हैं। मुनिराज अपने इन्द्रियरूपी शत्रुओं को दमन करने के लिये दूध, दही आदि पांचों रसों से रहित नीरस आहार लेते हैं उसको निर्विकृत कहते है । बुद्धिमान मुनियोंको अपना तपश्चरण बढ़ाने के लिये और पांचों इन्द्रियरूपी शत्रुओंको नाश करने के लिये विधि पूर्वक पापरहित ऐसे आधाम्ल और निर्विकृत नामका आहार प्रतिदिन लेना चाहिये ।।१८१४. १०१६॥ रस परित्याग तपका फल एवं उसे करने की प्रेरणा - रसत्यागतपोभिवचम्ति नियमिजयः। रसादिमहवीर्य जायते च शिवं सताम् ।।१८१७।। विविस्वेति फलं चास्य महत्कुर्वन्तु संयताः । एक शाबिरस त्यागैरसत्यागतपः सदा ॥१८१८।। ___ अर्थ- इस रसपरित्याग नामके तपसे प्रबल इन्द्रियों का विजय होता है, रस ऋद्धि आदि महा शक्तियां प्रगट होती हैं और सज्जनों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसप्रकार इस तपका फल समझकर मुनियों को एक दो आवि रसों का त्याग कर इस रसपरित्याग तपको सवा धारण करते रहना चाहिये ॥१८१७-१८१८॥ विविक्त शय्यासन तपका स्वरूप-- नारीश्वीपशुक्लीवगृहस्थाविविवजिते । शून्यागारेश्मशानेवा प्रदेशे निजवने ॥११॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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