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________________ मूलाचार प्रदीप] [ प्रथम अधिकार ( वायुकायिक जीवों का रक्षण ) उरिकल्युभद्रमगुजादि, वातकायिक जन्मिनां । वधोत्पत्तिकरं वातं. कुर्याज्जातु न संयतः ॥७॥ ___ अर्थ-मुनियों को अनेक प्रकार को वायु में रहने वाले वायुकायिक जीवोंका घात करनेवाली बायु कभी उत्पन्न नहीं करनी चाहिये ।।७।। कारयेभ च वस्त्रेण, व्यजनेन करेश था। वस्त्रकोणेन पत्रेण, सति दाहे परेण वा ॥०॥ अर्थ---मुनियों को अधिक दाह होनेपर भी, वस्त्रसे, पंखेसे, हाथसे, वस्त्र के कोने से, या पत्ते से, दूसरे के द्वारा भी कभी वायु उत्पन्न नहीं कराना चाहिये ॥६॥ ये वातकायिका जीवा, वासकामं च ये श्रिताः । वातकायसमारंभात्, हिंसा तेर्षा न धान्यथा ॥ अर्थ--मास का हे दामाथिमा जीवों की या वायुकाय के आश्रित रहने वाले जीवों की हिंसा अवश्य होती है, इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है ।।१॥ तस्मातातसमारंभो, द्विधा योगत्रयरपि। जिनमार्गानुलग्नाना, यावज्जीवं न युज्यते ॥२॥ अर्थ-इसलिये जिनमार्ग में लगे हए मुनियों को अपने जीवन पर्यंत मन, वचन, कायसे दोनों प्रकार की वायुका समारंभ कभी नहीं करना चाहिये ॥२॥ न श्रदधाति योऽत्रामून, जोवान् वातांगम मिश्रितान् । संसारसागरेमग्नो, द्रव्यलिंगी स केवलम् ॥ ____ अर्थ-जो मुनि इन वातकाय के प्राश्रित रहनेवाले जीवों का श्रद्धान नहीं करता है वह संसार सागर में डूबता है; उसे केवल द्रयलिगी हो समझना चाहिये । ।।३।। मरवेति स्वशरोरादौ, वातः कार्यों न जातु चित् । वातागियष दक्ष मुलाय रुरणपीडितः ।। अर्थ-यही समझकर चतुर मुनियों को उष्णता से पीड़ित होनेपर भी वातकायिक जीवों को नाश करने वाली वायु अपने मुख आदि से भी कभी उत्पन्न नहीं करनी चाहिये ॥४॥ हरिताकुर नौजाना, पत्रपुष्पादि कागिनाम् । वनस्पतिसरीराणा, मुनिर्जातु करोति न ।।८।। कारयेन त्रिशुध्यात, छेवनं मेदनं क्वचित् । प्रपोडनं वषं वाषां, स्पर्शनं ध विराधनाम् ।।८६॥ अर्थ-मुनिराज मन-वचन-काय की शुद्धता धारण करने के कारण हरित
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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