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________________ मूलाचार प्रदीप ] ११ ) [ प्रथम अधिकार में छहों प्रकारके समस्त जीवों को भस्म कर देती है ॥७३।। तस्य घोरेऽतिपापाढ्य, नेकसत्वक्षयंकरे। ईहते न यमी स्थातु, कदापि सति कारणे ।।७४॥ अर्थ--इस अग्नि का उधोत या प्रकाश जीवों का नाश करनेवाला और पाप स्प है इसलिये मुनिराज कारण मिलने पर भी उसके प्रकाश में कमी रहने की इच्छा नहीं करते ॥७४।। क्षेपक श्लोक -( दशकालिक मथे पाचीणं पच्छिम बाचि, मुदीचि वाहिणं तहा • अधो वहवि उड्डू, च दिसासु बिदिमा मुय ।।१।। अर्थ-यही बात देशवकालिक ग्रंथमें लिखी है यह अग्नि-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर, नीचे, दिशा, विदिशा में सब जीवों को जला देती है ॥१॥ अंपक गाथा नं. २ एसो जीवोत्ति प्रक्खादा, हव्यवाहो ए संसयो । तमुस्जीवपदा बड, मसावि रण परछए ॥२॥ अर्थ-अतएव अपने मन से अग्नि के प्रकाश की कभी इच्छा नहीं करनी चाहिये ॥२॥ ये तेजस्कायिकाजीवायेऽत्र तेजोंऽगमाश्रिताः। तेज: काय समारंभाद्, मुच तेषां विहिसिनम् ॥ अर्थ-इसलिये अग्नि का समारंभ करने से तेजस्कायिक जीवों की तथा तेजस्काय के आश्रित रहने वाले जीवों को हिंसा अवश्य होती है ।।७।। तस्मात्तेज; समारंभास्वियोगद्विविधः चित् । निग्रंथ संपतानां च, यावज्जीवं हि नोचितः ।। अर्थ-इसलिये निग्रंथ मुनियों को अपने पर्यंत मन, वचन, काय से दोनों प्रकारको अग्निका समारंभ कभी नहीं करना चाहिये ॥७॥ एतान यो मन्यते नवाप्तान, तेजोऽगं च वेहिनः । मिथ्यादृष्टिः स विजयो, लिंगल्योयतिपापभाक् ।। अर्थ-जो मुनि तेजस्काय में प्राप्त हुए जीवों को नहीं मानता वह मुनि होकर भी अत्यंत पापी मिथ्यावृष्टि है ॥७७॥ ज्ञात्वेत्यग्मि समारम्भोऽनंतजीवभयंकरः। मनोगवचनांतु, न कार्यः प्रेक्षणादिभिः ॥७॥ ____ अर्थ-इसलिये अग्निके समारंभको, अनंत जीवोंके नाश करनेवाला समझकर देखने प्रादि कार्योंके लिये भी मन-वचन-कायसे उसका समारंभ नहीं करना चाहिये ।७८।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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