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________________ मूलाचार प्रदीप] { द्वितीय अधिकार अर्थ-सोलह तो 'उद्गम दोष' कहलाते हैं, १६ "उत्पादन दोब' कहलाते हैं, १० भोजन के दोष कहे जाते हैं; १ संयोजन, १ अप्रमाण, १ अंगार, १ धूम और एक कारण । संक्षेप से इन ८ दोषों से रहित ही भोजन होना चाहिए -२१२॥ प्रवः कर्मातिगा पिंड, शुद्धिः स्यादष्टधा परा । निर्ममा च मुमुक्षूणा, कर्माना निरोधिनी ।। अर्थ- इसप्रकार अधःकर्म से रहित, पिशुद्धि प्राट प्रकार से मानी हैं। मोक्ष की इच्छा करने वाले मुनियों को ऐसी पिडशुद्धि ही निर्मल और कर्मों के आस्रव को रोकने वाली कही जाती है ।।३५३॥ एतर्दोषयहिभू तो, गृहि पाखंडिसंश्रितः । योधः कमबृहदोषः, बाट प्राणिवपकारकः ॥३५४॥ अर्थ-गृहस्थ और पाखंडियों के प्राश्रित रहने वाला तथा इन सब दोषों से भिन्न एफ अधःकर्म नामका सबसे बड़ा दोष है। तथा यह दोष छहों प्रकार के प्राणियों को हिसा करने वाला है ।।३५४॥ नोच कर्मोद्भवस्त्याज्यो, दूरतः सोऽत्र संपतेः । पापभीत महापापकरोऽकीति निर्वधनः ॥३५॥ अर्थ-पापों से डरने वाले मुनियों को, नीच कर्मों से उत्पन्न हुप्रा आहार दूर से ही छोड़ देना चाहिये क्योंकि ऐसा आहार, महा पाप उत्पन्न करनेवाला है और अपकोत्ति का कारण है ||३५५।। षडविधांगिनिकायानो, मारणं च विराषनम् । कृत्वा निष्पन्न मन्त्र, स्वयं कायेनानयत्कृतं ।। कारितं वचसा वानु, मतेन सफलं च तत् । नोचकर्म कर निद्य, मप्र: कर्म निगद्यते ।।३५७॥ अर्थ-छहों प्रकार के जीवों को स्वयं अपने हाथ से मारने अथवा उनको विराधना करने से या वचन के द्वारा दूसरों से मरवाने या विराधना कराने से अथवा अनुमोदना करने से जो अन्न उत्पन्न होता है ऐसे निदनीय और नीचकर्म से उत्पन्न होने वाते अन्न को 'अधकर्म' कहते हैं ॥३५६-३५७।। यह अधःकर्म महा दोष हैशाश्वेत्ययं महादोषो, प्रासंयतजनाश्रितः। सर्वयत्नेन संस्थाज्यः, सदाधः कर्मसंशकः ।।३५८॥ ___अर्थ-यह 'अधःकर्म' नामका महादोष असंयमी लोगों से उत्पन्न होता है; इसलिये इस 'अधःकर्म' नाम के दोष को अपने पूर्ण प्रयत्नों से सदा के लिये त्याग कर देना चाहिये ॥३५८॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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