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________________ मूलाचार प्रदीप ( २६४ } [पाठम अधिकार उसको केवलज्ञान प्रगट हो जाता है । इन आठ प्रकार के प्राचारों के साथ पढ़ा हुआ ज्ञान मुनियों के अनंत कोको नाश कर देता है यदि यही ज्ञान आठों प्रकार के आचारों के साथ न पढ़ा हो तो फिर उससे कर्मों का बंध ही होता है। यही समझकर विद्वान् पुरुषों को योग्य काल में विनयादिक के साथ मन-वचन-काय को शुद्ध कर ज्ञान का अभ्यास करना चाहिये तथा आत्म ज्ञान प्राप्त करने के लिये इसी प्रकार दूसरों को पढ़ाना चाहिये ॥७६-७६॥ ज्ञानाचार की महिमाज्ञानेन निर्मला कीति भ्रमस्येव जगत्त्रये । ज्ञानेन त्रिजगन्मान्य ज्ञानेमातिवियेकता ॥८॥ मानेन केवलज्ञान ज्ञानेनपूण्यतापवम् । शानेम त्रिजगल्लक्ष्मी जिनसक्रादिसत्पवम् ॥८॥ झानेनवप्रभुत्वं च ज्ञानेन सकसा कला। जायते शानिना भूनं विज्ञामादिगुणोत्करः ॥२॥ ज्ञानेन ज्ञानिनां सर्वेशमाधा: परमाः गुणाः । प्राश्रयस्तिक्षयाम्ति दोषाः क्रोधमदावयः ।।३।। सज्ञान खलाबद्धो मनोदन्ती भ्रमन् सका। दुर्घरोविषयारण्ये परामायाति मोगिनाम् ॥४॥ जानपाशेन बद्धाः स्युः पंचेन्द्रियकुतस्कराः। क्षमा न विकियां कर्तुं धर्मरत्नापहारिणः ।।५॥ भवनाग्निमहाज्वाला जमहाविधायनो । सिक्ता ज्ञानाम्धुना नूनं पुंसांशाम्यतितरक्षरणम् ।।६।। शामेन ज्ञायते विश्व हस्तरेखेव निस्तुषम् । लोकालोकं सुतस्वं च परतत्त्वं किलाखिलम् ॥७॥ हेयोपादेयसारिणहिताहिताश्च वोषला । कृतनधर्मविचारादीन् ज्ञानीवेसि नद्यापरः ||८|| विश्वोत्रसमर्थः स्यात्तरितु च भवाम्बुधिम् । परोस्तारयितु जानी ज्ञानोपेतेन नापरः || वीतरागस्त्रिगुप्तात्मान्तमुहर्तन कर्मयत् । क्षिपेशानी न त चाजस्तपसा भवकोटिभिः ॥१०॥ पतोझो कुकरं घोरं तपः कुर्वन्नपि क्वचित् । प्रालयाधपरिमानान्मुच्यते कर्मणा नहि ।।६१| हेयादेयं विधारं च तत्त्वातस्पंशुभाशुभम् । सारासारालवावोनि हाज्ञानी जातुयेति न ॥२॥ अर्थ- इस ज्ञानसे मनुष्य की निर्मल कीर्ति तीनों लोकों में फैल जाती है इस जानसे ही तीनों लोकों में मान्यता बढ़ जाती है और ज्ञानसे ही उत्कृष्ट विवेक शीलता आ जाती है । ज्ञानसे ही केवलज्ञान प्रगट हो जाता है, ज्ञानसे ही पूज्यताके पद प्राप्त होते हैं, ज्ञानसे ही तीनों लोकों को लक्ष्मी प्राप्त होती है और ज्ञानसे ही तीर्थकर और इन्द्र आदि के श्रेष्ठ पत्र प्राप्त होते हैं । ज्ञानसे ही प्रभुत्व प्राप्त होता है, ज्ञानसे हो मस्त कलाएं प्राप्त होती हैं तथा ज्ञानी पुरुषों के ही विज्ञान आदि गुणों के समूह प्रगट होते हैं । इस ज्ञानसे ही ज्ञानी पुरुषों को उपशम प्रादि समस्त परम गुण अपने आप प्रा जाते हैं तथा ज्ञानसे ही क्रोध मद श्रादिक दोष सब नष्ट हो जाते हैं । अत्यंत दुर्धर ऐसा यह मन रूपी हाथी विषयरूपी बनमें सदा परिभ्रमण किया करता है पवि उसको
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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