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हूमड़ थी। "होनहार विश्वान के होत चीकने पास" कहावत के अनुसार गर्भाधारण करने के पाचात् इनकी माता ने एक सुन्दर स्वप्न देखा और उसका फल पूछने पर करमसिंह मे इस प्रकार
"तजि वयण सुरणीसार, कुमर तुम्ह होइसिइए। निर्मल गंगानोर, चन्दन नन्दन तुम्ह तणए ॥६॥ जलनिथि गहिर गम्भीर खीरोपम सोहामणुए।
ते जिहि तरण प्रकारा जग उद्योलन जस किरणि ।।१०।" बालक का नाम पूनसिंह अथवा पूर्णासह रखा गया । एक पट्टावलि में इनका नाम पदर्थ भी दिया हुआ है। द्वितीया के चन्द्रमा के समान वह बालक दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा। उसका वर्ण पाजहंस के समान शुभ्र या तथा शरीर बसोस लक्षणों से युक्त था। पांच वर्ष के होने पर पूर्णसिंह को पढ़ने बैठा दिया गया। बालक कुशाग्र बुद्धि का पा इसलिये शोन हो उसने सभी ग्रन्थों का अध्ययन पर लिया। विद्यार्थी अवस्था में भी इनका प्रहंद भक्ति की प्रोर अधिक ध्यान रहता था तथा वे समा, सत्य, शौच एवं ब्रह्मचर्य प्रावि धर्मों को जोवन में उतारने का प्रयास करते रहते थे । गाहस्थ्य जोवन के प्रति विरक्ति देख कर माता-पिता ने उनका १४ वर्षको अवस्था में ही विवाह कर दिया, लेकिन विवाह बंधन में बांधने के पश्चात् भी उनका मन संसार में नहीं लगा और वे उदासीन रहने लगे। पुत्र को गतिविधियां देखकर माता-पिता ने उन्हें बहुत समझाया लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिलो। पुत्र एवं माता-पिता के मध्य बहुत दिनों तक वाद-विवाद चलता रहा। पूर्णसिंह के कुछ समझ में नहीं पाता और वे बार-बार साघु जीवन धारण करने को जनसे स्वीकृति मांगते रहते।
अन्त में पुत्र की विजय हुई और पूर्णसिंह ने २६ वें वर्ष में अपार सम्पत्ति को तिलांजलि देकर साघु जोवन अपना लिया। वे प्रात्म-कल्याण के साथ-साथ पत्कल्याण को मोर चल पड़े। "भट्टारक सकल कीति नु रास" के अनुसार उनकी इस समय केवल १८ वर्ष की प्राय यो। उस समय भट्टारक
१. हरषी सुणोय सुवाणि पालइ प्रम्य करि सुपर ।
भोऊद पिताल प्रमाणि पूरा दिन पुत्र जनमोउ ।। न्याति माहि मुहुतपंत हंड़ हरषि नमाणिइये । करमसिंह वितपन्न उपययंत इम काणीए ॥ ३॥ शाभित रस परवागि, भूलि सरीस्य सुन्दरीय । सील स्यगारित पगि पेख प्रत्यक्ष पुरंपरीम ॥४॥
-सफलफोति रास [ २२ ]