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________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३८४ ) कैसे क्षेत्र में मुनिराज निवास करते हैं- एकान्ते निर्जने स्यामेवं शग्मगुणवृद्धिषे । श्मशानाद्विगुहाव स शून्यगेहे बनादिषु ।। २५६५ ।। पशुस्त्रोक्लीष्टादिहीने शाम्ये शमप्रदे। क्षेत्रे वासं प्रकुर्वन्लिमुनयोध्यान सिद्धये ।। २५६६ ।। [ नवम अधिकार अर्थ- मुनि लोग अपने ध्यान की सिद्धि के लिये एकांत और निर्जन स्थानमें वैराग्य गुण को बढ़ाने वाले श्मशान पर्वत की गुफाएं सुने मकान और वन में अत्यन्त शांत और परिणामों को शांत करनेवाले तथा पशु स्त्री नपुंसक तथा दुष्ट जीवोंसे रहित क्षेत्र में निवास करते हैं ।। २५६५-२५६६॥ पुन: कैसे क्षेत्र में मुनि निवास नहीं करें मुपहीनं च यत्क्षेयत्र दुष्टो नृपो भवेत । यत्र स्त्रीवासराजा च तत्र वासो न युज्यते ।। २५६७ ॥ दीक्षाग्रहणशीलाश्च मत्रसन्ति न धर्ममकाः । हानयः संयमादीनां स्थातव्यं तत्र नोजितः ।। ६६ ।। अर्थ -- जिस क्षेत्र में कोई राजा न हो, जहां का राजा दुष्ट हो और जहांपर स्त्री राज्य करती हो अथवा बालक राजा राज्य करता हो वहां पर मुनियों को कभी निवास नहीं करना चाहिये। जहां पर वीक्षा ग्रहण करनेवाले लोग न हों, जहां पर धर्मात्मा लोग निवास न करते हों और जहां पर संयम की हानि होती हो ऐसे स्थानमें उत्कृष्ट मुनियों को कभी नहीं रहना चाहिये ।। २५६७-२५६८ ।। श्रयिका के निवास में मुनिराज को ठहरने का निषेध स्त्रीक्षान्तिका क्षरणमात्रं न कल्पते । यतीनां प्रासनस्थानस्वाध्यायप्रहरणादिभिः ।। ६६ ।। संसर्गगायिकास्त्रीयवहाराभिधा भुवि । जुगुप्सापरमार्थाभ्या जायते यमिनां व्रतम् ।। २५७० ।। अर्थ-मुनियों को बैठने कायोत्सर्ग करने लिये भी स्त्रियों के अथवा प्रजिकाओं के श्राश्रम में ratfe after वा स्त्रियों के संसर्ग से मुनियों को और लोकोत्तर जुगुप्सा भी प्रगट होती है ।। २५६६-२५७०।। अथवा स्वाध्याय ग्रहण करने के क्षरणमात्र भी नहीं ठहरना चाहिये । व्यवहार जुगुप्सा भी प्रगट होती है कैसे पुरुषों के संसर्ग से रत्नत्रय की वृद्धि एवं हानि होती है— जलकुम्भैषया पश्चसम्पर्करेण ध वर्द्धते । सुशोतत्वं सुगंधित्वं हीयतेऽनलसंगमात् ४२५७१।। तोत्तमाश्रमेणान सोषिद्धतेतराम् । श्रीयन्ते नवसंगेनगुणदोषाश्चयोगिताम् ।। २५७२ ॥ अर्थ - जिसप्रकार जलके घड़े में कमल के संसर्ग से उसका शीतलपना और सुगंधितपना गुण बढ़ता है तथा अग्नि के संयोग से ये दोनों गुण नष्ट हो जाते हैं उसी
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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