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________________ भूलाचार प्रदीप ] ( ३१५ ) [ नवम अधिकार प्रकार उत्तम पुरुषों के आश्रय से मुनियों का रत्नत्रय अत्यन्त बढ़ता है और नीच पुरुषों के आश्रय से रत्नत्रय गुण घटता है वा मलिन होता है ।। २५७१-२५७२॥ महान को पाखो मुनिका संगति का निबंध - प्रचण्डश्च पलो मन्दः पृष्टमांसादिभक्षकः । गुर्वादिमहुलोमूर्खोबुरायः सतां पतिः ।। २५७३ ॥ भान्वितमदोषाणां दोषो खूवनतत्परम् | मारणत्रास नो वटन वशीकररणाशयम् ।। २५७४ ।। वैद्यज्योतिष्क सावद्यारम्भाविपरिवर्तकम् । पिशुनं कुत्सिताचा रंमिश्रमाश्षोपनसंशयम् ।।२५७५ ।। लोकलोकोशराचाराजानन्तं स्वेच्छयायुतम् । चिरप्रवृजिसं चापीत्याद्यन्यदोष भाजनम् ।। २५७६ ।। संयतं वर्जयेद्द रसवाचारो महामुनिः । पापापवादिभीतात्मा तासं नाथषेत्स्यचित् ।। २५७७ ॥ अर्थ - जो मुनि नीच लोगों की संगति करता है वह क्रोधी, चंचल, मंद, पीठका मांस भक्षरण करनेवाला अर्थात् पीठ पीछे निंदा करनेवाला और मूर्ख होता है तथा वह अनेक गुरुयों का शिष्य होता है। जो मुनि पाखंडी है, निर्दोषों को भी दोषी कहने के लिये तत्पर रहता है, जो मारण, त्रासन, उच्चाटन, वशीकरण आदि करने की इच्छा रखता हैं, जो वैद्य ज्योतिष्क और पापरूप प्रारम्भों में प्रवृत्ति करता है, जो चुगलखोर है, जिसके श्राचरण निंदनीय हैं, जो मिथ्यादृष्टि है, मूर्ख हैं, जो लौकिक और लोकोत्तर श्राचरणों को नहीं जानता, जो अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति करता है और चिरकाल का दीक्षित होनेपर भी अन्य अनेक दोषों का भाजन है, ऐसे मुनि का दूर से ही त्याग कर देना चाहिये । जो सदाचारी महामुनि हैं और पाप तथा अपवाद से सदा भयभीत रहते हैं वे महामुनि ऊपर कहे हुए पांखडी मुनियों की संगति कभी नहीं करते हैं ।। २५७३-२५७७॥ कैसा पापी मुनि दुर्गति का पात्र है सुरेखा कुल मोका की भ्रमे विजेच्छया । उपदेशं न गृह्णाति पापश्रम एव सः ॥ २५७८|| यः शिष्यस्थमस्थान पूर्वस्वस्पाठाशयः । त्वरितः कर्तु माचार्यश्वं हिति मिच्छ्रया ।। २५७६॥ घोंघाचार्यः स एवोक्तो मत्तवन्तोव पापथः । निरंकुशो गुर्णहनः स्वान्यदुर्गतिकारकः ।। २५८०|| अर्थ- जो मुनि श्राचार्य के कुल को छोड़कर अपनी इच्छानुसार अकेला परिभ्रमण करता है तथा किसी का उपदेश नहीं मानता उसको पापी मुनि कहना चाहिये । जो मूर्ख पहले किसी श्राचार्य का शिष्य तो बनता नहीं और शीघ्र ही आचार्य पद धारण करने के लिये अपनी इच्छानुसार घूमता है उसको घोंघाचार्य वा दंभाचार्य समता चाहिये । वह पापी है और मदोन्मत्त हामी के सम्मान गुणों से रहित होकर
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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