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________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ३५२ ) [सप्तम अधिकार चतुरता से रहना चाहिये, धर्मध्यानमें लीन रहना चाहिये, अपने मन में कुल, कीति और भगवान जिनेन्द्र देवकी आशा की रक्षा करने में सवा तत्पर रहना चाहिये, उनको इतना तपश्चरण करना चाहिये जिससे उनका शरीर भी दुर्बल हो जाय । उन अजिकाओं को शे तीन वा अधिक इस बीस प्रादि अजिकाओं के साथ रहना चाहिये अर्थात् तीन से कम नहीं रहना चाहिये । इसप्रकार अपने हृदयको शुद्ध कर उन अजिकाओं को निवास करना चाहिये ॥२२६५-२२६७॥ अजिका कैसी वसत्तिका में निवास करेअसंयतजनातीतेगृहस्थपशुवजिते । एकान्तस्थेगुहेगडेमलोत्सर्गाहं भूयुसे ।।२२६८।। अर्थ-उन अजिकाओं को ऐसे एकांत और गूढ था छिपे हुए घर में रहना चाहिये जो असंयमी लोगों से दूर हो, गृहस्थ और पशुओं के स्थान से दूर हो और मलमूत्रके लिये पोग्य स्थान की जहां व्ययस्था हो ॥२२६८।। धर्म कायं बिना मुनि आदि के आश्रम में जाने का निषेधस्वासच सामुन्ति गायत: हर निलय वा कुलिन्यन्तसंयताश्रमम् ॥२२६६।। अर्थ-जिकात्रों को बिना अपने काम के न तो गृहस्थोंके घर जाना चाहिए न किसी कुलिगिनी के घर जाना चाहिए और न मुनियों के आश्रम में कभी जाना चाहिए ॥२२६६॥ धर्म वार्य के लिये भी आचार्याणी की आज्ञा लेकर २-३ आयिका के साथ जावेअवश्यंगमनेकायें सतिभिक्षादिगोचरे । सिद्धान्ताविपृच्छावोप्रायश्चितादियाचने ।।२३००।। प्रापृच्छयगणिनों नरवा संघाठकेनतद्गृहे । गन्तव्यमायिकाभिश्चधर्मकार्यायनान्यथा ॥२३०१।। अर्थ-भिक्षा लेने के लिये किसी शास्त्र के अर्थ आवि को पूछने के लिये वा प्रायश्चित्त लेने के लिये जाना आवश्यक हो तो अपनी आचार्याणी को पूछकर उनको नमस्कार कर दो घार अजिकाओं के साथ ही जाना चाहिये, सो भी धर्म कार्य के लिये हो जाना चाहिये, अन्य किसी काम के लिये कभी नहीं जाना चाहिये ।।२३००२३०१॥ निरंकुश घूमने में दोषया हो निरंकुशा नार्यो भ्रमन्तिस्वेच्छयाभुवि । गहियत्याधमादौ क्व तासांशीलशुभाक्रिया ॥ अर्थ-जो निरंकुश स्त्रियां अपनी इच्छानुसार गृहस्थों के घर वा मुनियों के
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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