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________________ मूलाचार प्रदीप ( ३४३ ) [ सप्तम अधिकार से दीक्षितों के गुण बढ़ाना ) करने में कुशल हों, गर्म पो मनाना नेनाले हों, सज्जनों में जिनकी कीति प्रसिद्ध हो, जो जिनसूत्रों के अर्थ कहने में निपुण हों, श्रेष्ठ क्रिया और पाचरणों के प्राधार हों, छत्तीस गुणोंसे विभूषित हों, समुद्रके समान गंभीर हों, परंतु जो कभी भी क्षुध न होते हों, क्षमा पुरसके कारण जो पृथ्वी के समान सर्वोस्कृष्ट हों, सौम्यता गुणसे जो चन्द्रमा के समान हों, निर्मल जलके समान अत्यन्त शांत वा शीतल हों, पंचेन्द्रिय रूपो शत्रुओं को जीतने में जो प्रत्यन्त शूरवीर हों, मिथ्यात्व रूपी शत्रुओं को घास करनेवाले हों, तथा और भी अनेक गुणों के प्राधार हों, तोनों लोकों का हित करनेवाले हों और जो किसी से भी नहीं जीते जा सकते हो, उनको प्राचार्य कहते हैं । वह शिष्य अपनी विद्या की प्राप्ति के लिये अनुक्रम से चलता हुमा ऐसे प्राचार्य के समीप पहुंचता है ।।२२३६-२२४१॥ पर संघ से पाये मुनि को देखकर संघ के मुनि किस प्रकार उसका विनय करेंपागम्छन्तनिवास्थानंप्रापूर्णकं सुसंपतम् । सं वीक्ष्यसहसासर्वसमुत्तिष्ठन्तिसंपताः ।।२२४२।। धात्सल्यहेतवेवसाजिनामापालनाय च । परस्परंप्रपामायास्मोपकरणाय वा ॥२२४३॥ अर्थ-उस शिष्यके यहां पहुंचनेपर उस संघके सब मुनि अपने स्थान में आए हुए उन अभ्यागत मुनि को देखकर अपना वात्सल्य दिखलाने के लिये, भगवान् जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का पालन करने के लिये उनके साथ परस्पर नमस्कार करने के लिये और उनको अपना बनाने के लिये एक साथ उठकर खड़े हो जाते हैं ॥२२४२२२४३।। ___ वन्दना प्रतिवन्दना योग्यता अनुसार करते हैंसत सप्तप्रदान्गस्था भरमा सरसन्मुखं च ते । प्रकुर्वन्तियथायोग्यं चंदनाप्रतिवदनाम् ।।२२४४।। अर्थ-तवनन्तर ये सब मुनि भक्तिपूर्वक सास पेंड तक उनके सन्मुख जाते हैं तथा अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार वेदना प्रथवा प्रतिपंदना करते हैं ।। २२४४।। तदनन्तर प्रागन्तुक मुनि की रत्नत्रय विशुद्धि पूछेयस्थागतस्य यत्कृत्यंकृत्यांनिमर्दनादितत् । रत्नत्रयपरिप्रश्नप्रीत्यायुस्तपोवना ।।२२४५।। अर्थ-फिर संघके वे सब मुनि उन आये हुए मुनिके पातमन (पर रावना) आदि करने योग्य कार्य करते हैं और फिर अपना प्रेम विखसाने के लिये रत्नत्रय को विशुद्धि पूछते हैं ॥२२४५।।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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