SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 541
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४६६ ) अन्य को लिखने लिखवाने का फल ये संखिन्ति सुधियः स्वयमेव वेयं ग्रन्थं धनेन मिनः खलुले खयन्ति । ते ज्ञानतीर्थपरमोद्धरणाद्धरियां तीर्थेश्वराः किल भवेयुरहो क्रमेर ।। ३२३६ ।। मूलाचार प्रदीप ] अर्थ - इसीप्रकार जो बुद्धिमान इस ग्रंथ को स्वयं लिखते हैं वा जो धनी घन खर्च कर लिखाते हैं वे इस पृथ्वीपर ज्ञानरूपी तीर्थ के परम उद्धार करनेवाले कहे जाते हैं और इसीलिये वे अनुक्रम से तीर्थकर पद को प्राप्त करते हैं ।। ३२३६ ।। [ द्वादश अधिकार ग्रन्थकर्त्ता (सकलकीर्ति) शास्त्र शुद्धि के लिये विशेष ज्ञानियों से प्रार्थना करते हैंरहिल सकलदोषा ज्ञानपूर्णा ऋषीन्द्रा स्त्रिभुवनपतिपूज्याः शोधयन्त्वे वयत्नात् । विशदसकलकर्त्यास्ये नवाचारशास्त्रमिदमिर रिनासंकीर्तितं धर्मसिद्धयं ।। ३२४० ॥ अर्थ -- यह श्राचारशास्त्र ग्रंथ धर्म की सिद्धि के लिये अत्यन्त प्रसिद्ध ऐसे आचार्य सकलफीति ने बनाया है । जो मुनिराज समस्त दोषों से रहित हों, ज्ञान से परिपूर्ण हों और तीनों लोकों के द्वारा पूज्य हों वे इस ग्रंथ को प्रयत्न पूर्वक शुद्ध करें । ॥३२४० ॥ समस्त गुणों की प्राप्ति हेतु तीर्थंकर देव की स्तुति - सतीर्थकरा: परार्थजनका लोकत्रयोद्योतका विश्वहिता भवहराधर्मार्थकामादिवाः । अन्तातीतगुणार्णवा निरुपमामुक्तिस्त्रियोबल्लभा, atest वोनिजगुणापत्यसन्तु नोषः स्तुताः ।। ३२४१ ॥ अर्थ - इस संसार में आज तक जितने तीर्थंकर हुए हैं वे सब मोक्ष रूप परम पुरुषार्थ को प्रगट करनेवाले, तीनों लोकों के पदार्थों को प्रकाशित करनेवाले, तीनों लोकों के द्वारा वंदनीय, समस्त जीवों का हित करनेवाले, संसार को नाश करनेवाले, धर्म, अर्थ, काम आदि पुरुषार्थी को देनेवाले, अनंत गुणों के समुद्र, उपमारहित मुक्तिस्त्री के स्वामी और इस लोक में बिना कारण सबका हित करनेवाले बंधु रूप हुए हैं । इसीलिये मैं उनकी स्तुति करता हूं। वे तीर्थंकर परमदेव मेरे लिये अपने समस्त गुण प्रदान करें || ३२४१ ॥ समस्त सिद्धि के लिये सिद्ध भगवान की स्तुति - सिद्धामुक्तिवसुसंग सुखिमोऽनंतास्त्रिलोकाप्रगा धोयास्तत्पवकांक्षिभिः मुनिवरैः प्रातीनामपि ।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy