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________________ . मूलाधार प्रदीप । प्रथम अधिकार को शुद्ध रखने के लिये इन पांचों भावनाओं का सदा चितवन करते रहना चाहिये। ॥२५८-२५६॥ ५ आकिंचन्य महावत की सफलतात्रिभुवनपलिपूज्यं, स्रोभतृष्णाविषन्न । दुरितति मिर सूर्य, श्री जिनेशादि सेव्यं ॥ शिवसुभगतिमार्ग, सौख्यखानि गुणाधि । अयत विब कहाकिन्चन्यसार प्रयत्नात् ॥२६॥ अर्थ-यह प्राचिन्य महान्त, तीनों लोकों के स्वामी तीर्थकर देयोंके द्वारा भी पूज्य है। लोभ, तृष्णा रूपी पर्वत को चर करने के लिये सूर्यके समान है। भगवान् जिनेन्द्र देव भी इसको सेवन करते हैं, यह मोक्ष और शुभगति का मार्ग है; सुख को खान है, गुणों का समुद्र है। इसलिये बुद्धिमानों को बड़े प्रयत्न से इस परिग्रह त्याग महावत को धारण करना चाहिये ।।२६०॥ महार्थ मोममेवाहो, या विलोकीपतेः पदम । साधयति महंडिया चरितानि जिनादिभिः ॥ महान्ति वा स्वयं यानि, महानतान्यतोधुर्घः । सायनामानि नान्यन, कोसितानि शिक्षाप्तये ॥ अर्थ-ये महावत सर्वोत्कृष्ट मोक्ष पुरुषार्थको सिद्ध करते हैं : इसलिये इनको 'महायत' कहते हैं अथवा तीर्थंकर प्रादि महापुरुष इनका पालन करते हैं इसलिये भी ये 'महावत' कहलाते हैं अथवा ये स्वयं ही महान हैं इसलिए भी इनको 'महावत' कहते हैं । इसप्रकार विद्वानों के द्वारा सार्थक नामको धारण करने वाले महावत मोक्ष प्राप्त करने के लिए ही मैंने यहां पर निरूपण किए हैं ॥२६१.२६२॥ प्रथम अध्याय का उपसंहारएतान्यत्र महावतानि महता, योग्यानि सारारिप ध । स्वर्मोक्षक निवन्धनानि विदुवा । ये पालयंत्यन्वहम् । ते संप्राप्य महत्सुखं त्रिभुवमे सर्वार्थ सिध्यादि । हत्या कभरिपून् प्रजन्मपिरतो मोक्ष मुशर्माकरम् ॥२६३॥ अर्थ-ये महावत महापुरुषों के ही योग्य हैं : सारभूत हैं: और स्वर्ग मोक्ष के कारण हैं; जो विद्वान इनको प्रति दिन पालन करते हैं वे तीनों लोकों में उत्पन्न होनेवाले सर्वार्थसिद्धि आदि के महा सुखों को पाकर फिर मनुष्य पर्याय में कर्मरूपी समस्त शत्रुओं को नाश कर, अनंत सुख देने वाले मोक्ष में शीघ्र हो जा बिराजमान होते हैं ।।२६३॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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