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________________ मुगाचार प्रदीप ] [पाठम अधिकार यह ध्यान निध कहलाता है । अशुभ करनेवाली संसार की अशुभ वस्तु हो इसका ध्येय है, सैकड़ों क्लेशों से व्याकुल हुमा और कषायों से कलुषित हुमा प्रात्मा ही इसका ध्याला है और समस्त क्लेशों से भरा हुमा तिगननि का साप्त होना ही इसका फल है । मिथ्याष्टियों के प्रत्यंत क्लेश से यह ध्यान होता है । तथा सम्यादृष्टियों के बिना क्लेशके होता है । यह आर्तध्यान कृष्ण, नील, कापोत इन तीन अशुभ लेश्याओं के बल से उत्पन्न होता है, अंतर्मुहूर्त इसका समय है, मनुष्यों के बिना ही यस्न के यह उत्पन्न होता है और बुःखाविक का होना ही इसका कारण है ।।२०१४-२०१७।। प्रार्तध्यान का स्वामी एवं उससे उत्पन्न दोष का वर्णन भायोपशमिको भावो दुष्प्रमावावलम्बनम् । दुध्यानानाममीषां स्थायभवभ्रमणकारिणाम् ॥१८॥ उत्कृष्टं ध्यानमेतद्गुणस्थाने प्रथमे मवेत् । प्रमत्ताल्ये जघन्यं च तयोर्मभ्येषुमध्यमम् ॥२०१६॥ निसर्गजनितं निद्य पूर्वसंस्कारयोगतः । विश्वदुःखाकरीसूत कृत्स्नपापनिबंधमम् ॥२०२०।। समाधि धर्मशुक्लादिहंह निमंजसा । त्यजन्तु दुस्त्य दक्षा धर्मध्यानवलात्सदा ॥२०२१॥ अर्थ--संसार में परिभ्रमण कराने वाले इन सम दुानों में क्षायोपशामिक भाव होता है और अशुभ प्रमाव ही इनका अवलंबन होता है । यह प्रातध्यान उत्कृष्टता से पहले गुणस्थान में होता है, प्रमत्त नामके छठे गुणस्थान में जघन्य होता है और भाती के गुणस्थानों में मध्यम होता है। यह प्रार्तध्यान पहले के संस्कारों के निमित्त से स्वभाव से ही उत्पन्न होता है, निथ हैं, समस्त दुःखों को खानि है और समस्त पापों का कारण है । यह प्रासंध्यान, अशुभध्यान है और समाधि, धर्मध्यान शुक्लध्यान को नाश करनेवाला है मतएव चतुर पुरुषों को धर्मध्यान के बल से इस कठिनता से छूटमे योग्स आर्तध्यान को सवा के लिये छोड़ देना चाहिये ॥२०१८-२०२१॥ रौद्रध्यान का स्वरूप एवं उसके भेदरौतध्यानमपिढेधा बाह्याध्यात्मिकमेवतः। रक्ताक्षनिष्ठुराकोशनिर्भत्सनादिलक्षणम् ॥२०२२॥ क्षपन्धाग्यपोडाविकर माहामनेकधा । अन्तर्मथनशील बसवेशाध्यास्मिकमतम् ।।२०२३॥ अर्थ-आर्तध्यान के समान रौद्रध्यान के भी बाह्य और आम्यंसर के भेद से से भेद हैं, लाल नेत्र होना, कठिन पचन कहना, किसी की निंदा करना, किसी का तिरस्कार करना, किसी को मारमा वा बांधना वा और भी किसी प्रकार की पीड़ा वेना बाह्य रीतध्यान है और वह अनेक प्रकार का है। जो अंतरंग में पीड़ा उत्पात करता रहे तथा किसी को मालूम न हो उसको अभ्यन्तर रौप्रध्यान कहते हैं।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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