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________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४७२ ) [ द्वादश अधिकार अर्थ-जिस रागद्वेषके कारण दुष्ट पुरुष धनादिक द्रव्यों में संतोष मनाते हैं और कुत्सित द्रव्य में द्वष करते हैं अथवा सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्र में द्वेष करते हैं, ऐसे अशुभ रागद्वेष को बार-बार धिक्कार हो । जिस मोह के कारण यह जीव श्रेष्ठ मार्ग को तो ग्रहण नहीं करता और कुमार्ग को बहुत अच्छा मानता है तथा जिस मोह इन्द्रियों के विषयों में ही सुख मानता है, ऐसे दोनों प्रकार के मोह को बार-बार धिषकार हो। जिन इन्द्रियों के कारण ये जीव चारों गतियों में परिभ्रमण कर बार बार तिरस्कृत होते हैं और अपने आत्मा के स्वरूप को नहीं जान सकते, ऐसी इन सज्जनों की इन्द्रियों का शीघ्र ही नाश हो। जिन आहारादिक संज्ञाओं के कारण ये समस्त जीव अत्यन्त पीड़ित वा दुःखी हो रहे हैं और महापाप उत्पन्न कर रहे हैं उन संज्ञाओं का भी अपने आप नाश हो । जिन गारव तथा अभिमानों से ये अज्ञानी जीव व्यर्थ ही महापाप उपार्जन कर नरक में जाते हैं उन अभिमानों का भी शीघ्र ही नाश हो । जिन कषायों है ऐ मौत को दो हि बांधफर सर में पड़ते हैं वे कषायरूपी शत्र शीघ्र ही नाश को प्राप्त हों । जिन चंचल योगों से ये जीव अपने आत्मा को कमरूपी बंधनों से बांधकर दुर्गति में गिर पड़ते हैं उन चंचल योगों को भी धिक्कार हो । ॥३०७५-३०८१॥ अल्प आसब भी संसार का ही कारण हैहिसार : पंचभि|रयरुपाात्रकिल्बिषम् । गच्छन्तियुधियःण प्रलयंयान्तु ते ॥३०८२॥ इत्या प्रत्ययःसर्वेः कस्त्रिवर्गले धुताः । भ्रमन्तोत्र शठाः नित्यं लभन्ते दुःखमुल्वरणम् ।३०८३॥ पावस्कर्भासयोस्पोपिकुर्वतामपि सत्तपः । न तावच्छाश्वतस्थान किन्तुसंसारएव हि ॥३०६४।। अर्थ-जिन हिंसादिक पांचों पापों से ये मूर्ख जीव घोर पापों का उपार्जन कर नरक में पड़ते हैं उन पांचों पापों का भी शीघ्र ही नाश हो । इसप्रकार कर्मालव के समस्त कारणों से जकड़े हुए मूर्ख प्राणी इस संसार में सदा परिभ्रमण किया करते हैं और घोर दुःखों का अनुभव किया करते हैं। श्रेष्ठ तपश्चरण करनेवाले मुनियों के भी जब तक थोड़े से कर्मों का भी प्रालय होता रहता है, तब तक उमको मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं होती किंतु उनका संसार ही बढ़ता रहता है ।।३०८२-३०८४॥ त्रियोग की शुद्धता पूर्वक आस्रव रोकने की प्ररणाइत्यास्रवमहादोषान् शास्थानिध्यप्रत्ययान् । योगशुद्धधात्रयान्विश्वान् निराकुर्वन्तुधोधनाः ।। अर्थ- इसप्रकार प्रास्त्राव के महा दोषों को समझकर बुद्धिमान मुनियों को
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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