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________________ मूलाधार प्रदीप] ( ४७३ ) [ द्वादश अधिकार मन-वचन-काय की शुद्धता से प्रास्रव के सब कारणों को रोक कर समस्त प्रास्रव को बंद कर देना चाहिये ।।३०८५॥ ___ संवर अनुप्रेक्षा का स्वरूपराग षाविपूर्वोक्तान निध्यात्रवकारणान् । कर्मानब निरोधे यः संबरः स शिवकरः ॥३०८६॥ अर्थ-पहले जो रागद्वेष आदि आस्रव के कारण बतलाये हैं उन समको रोक कर कर्मों के प्रास्त्रव का निरोध करना चाहिये । कर्मों के आस्रव का निरोध होना ही मोक्ष देनेवाला संवर है ।।३०८६॥ आसव को किसके द्वारा रोका जाता हैरागद्वेषौमिरुध्येतेसोवा ज्ञानमंत्रतः । दग्दत्तायांविधामोहो ष्यते दुष्टर तिवत ॥३०८७।। तपसेन्द्रियसंशानिरानियन्तेजितेन्द्रियः । गौरवाधिनयेनान्नस्यश्यन्ते वैरिणोयथा ॥३०६८।। निगृह्यन्तेकषायाधक्षमाशस्त्ररिवारयः । निरुध्यन्ते बलायोगागुप्तिपाशेन वा मगाः ॥३०८६॥ हिसादीनिनिवार्यन्सेसमितिवससंयमः । प्रशस्तव्यानलेश्याध कम्यतेसालास्त्रवः ॥३०६॥ अर्थ-ये रागढषरूपी सर्प ज्ञानरूपी मंत्र से रोके जाते हैं तथा सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र से दुष्ट हाथी के समान दोनों प्रकार का मोह रुक जाता है । जितेन्द्रिय पुरुष तपश्चरणके द्वारा इन्द्रिय और संज्ञाओं को रोकते हैं और गारवों वा अभिमानों को शत्रुओं के समान विनय से रोकते हैं। इसी प्रकार कषायरूपो शत्रुओं को क्षमा, मार्दव मादि शस्त्रों से वश में करते हैं, गुप्तिरूपी जाल से हिरणों के समान चंचल योगों को वश में कर लेते हैं । इसी प्रकार व्रत समिति और संयम से हिसादिक पांचों पापों को निवारण करते हैं और प्रशस्त ध्यान तथा शुक्ललेश्यासे समस्त प्रास्त्रव को रोक देते हैं ।।३०८७-३०६०॥ __ किसके निर्जरा के साथ मोक्ष की प्राप्ति होती हैइतियुश्त्यासुयोगाध निरुध्यनिखिलास्त्रवान् । ये कुयु : संवरं तेषां निर्वाणंनिर्जरायुतम् ।।३०६१॥ ___ अर्थ-इसप्रकार योग धारण कर युक्तिपूर्वक जो समस्त प्रास्रवों को रोक लेते हैं और संवर धारण कर लेते हैं, उनके कर्मों की निर्जरा के साथ ही मोक्ष की प्राप्ति होती है ।।३०६१॥ संवर की महिमा एवं उसे सिद्ध करने की प्रेरणासेन कर्मास्त्रवोल्टः संवरोयुक्तिभिः कृतः । तस्यवेष्टसिद्धिः स्यालेविनानिष्कलं तपः ॥३०६२।।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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