SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 516
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४७१ ) [ द्वादश अधिकार का भला क्या बन करना चाहिये । श्रर्थात् वै तो अत्यन्त अपवित्र हैं हो ।। ३०६३३०७० ॥ अपवित्र शरीर से पवित्र मोक्ष पद की सिद्धि की प्रेरणा इत्याद्यशुचिसम्पूर्णजगद्ज्ञात्वा विरागिणः । वपुषः शुचिना मोक्षं साधयन्तु शुचिप्रदम् ॥ ३०७१ ॥ अर्थ -- इसप्रकार समस्त जगत को अपवित्रस्य जानकर विरक्त पुरुषों को इस अपवित्र शरीर से अत्यन्त पवित्र ऐसी मोक्ष सिद्ध कर लेनी चाहिये ।।३०७१ ॥ कौन संसार समुद्र में डूबते हैं ? भयदुःखशताकीर्णे घोरेसंसारसागरे । कर्मास्त्र वै निमज्जन्ति घर्मो सातिगा जनाः ।।३०७२ ।। अर्थ - जिन मनुष्यों ने धर्मरूपी जहाज को छोड़ दिया है वे कर्मों के प्राव होते रहने से सैकड़ों भय और दुःखों से भरे हुए इस घोर संसार समुद्र में अवश्य डूबते हैं ।। ३०७२ ।। स्र के कारणों के त्यागने की प्रेरणा रागद्वेषद्विषामोहःखामि संज्ञाश्चतुः प्रमाः । गौरवारिकषायामश्वयोगहिंसावयोरणाम् ।।३०७३ ।। एते तकरीभूतावुस्त्याज्याः कालरांगिनाम् । स्याज्याः कर्मादिभीतः कृत्स्नकर्मास्त्र हेतवः ॥ ७४ ॥ अर्थ -- राग, द्वेष, दोनों प्रकार का मोह, इन्द्रियां, चारों प्रकार की संज्ञा, गौरव, कषाय, योग और हिंसादिक पाप ये सब मनुष्यों के अनेक अनर्थ उत्पन करने वाले हैं और कातर पुरुष बड़ी कठिनता से इसका त्याग कर सकते हैं इसलिये कर्मरूपी शत्रुनों से भयभीत रहनेवाले मनुष्यों को इन समस्त कर्मों के भाव के कारणों का अवश्य त्याग कर देना चाहिये ।। ३०७३-३०७४ ।। आव अनुक्षा का चितवन करनेवाला भव्यजीव रागद्वेष संज्ञादि की बार-बार निंदा करता हैयेनात्र तुष्यति द्रव्ये कुत्सिते द्वेष्टि दुर्जनः । दुग्वृत्तादोच तो रागद्वेषधिग्भवतोऽशुभौ ।। ३०७५।। येनावसे न सन्मार्ग कुमार्गमम्यते जमः । प्रामिषे सुख वेत्ति द्विधामोहोधिगस्तु सः ।।२०७६ ।। श्रभिभूता जीवा वारं वारं चतुर्गती । स्वं जानन्ति न येस्ता मिखा नियन्तुक्षयं सताम् ॥७७॥ संज्ञाभिर्याभिरत्यर्थंपी जिताजतवो खिलाः । भयन्ति महापापं ता यान्तु प्रलयं स्वतः ||३०७ गारवयलंडाः पापं घोरं गुरुतरं बुषा उपायं नरकं यान्ति मच्छन्तु नाशमाशु ते ।। ३०७९ ।। कषायरिपवस्तेय श्रजन्तुक्षयमंजसा । येर्बुष्कर्मस्थिति कृत्वा पतन्ति नरकेंगिनः ॥ ३०८० ॥ दुर्योगे निजात्मानं निबद्ध कर्मबन्धनैः । क्षयन्तियुचतों जीवास्तेविग्भवन्तु चंचलाः ॥ ३०८१ ॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy