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________________ मूलाचार प्रदीप] (२४) {লিশ দ্বিার करना चावलों की भूसी को कटने के समान केवल शरीर को क्लेश पहुंचाना है । जिस प्रकार युद्ध के लिये तैयार हुमा योद्धा युद्ध में बहुत से शत्रुनों को मार डालता है उसी प्रकार संवर को धारण करनेवाला मुनि अपने तपश्चरण के बल से बहुत से कर्मरूपी शत्रुओं को नाश कर डालता है। बिना संवर के मनुष्यों की जिनदीक्षा वा तपश्चरण आदि सब व्यर्थ है क्योंकि कम का आलय होने से लार की पसन्दरा दरायर बढ़ती माती है ॥५-७॥ भावसंवर की प्रेरणामत्वेनि धीधनः कार्यः संवरो मुक्तिकारकः । सर्व व्रताधिभियोग:प्रयत्नेनशिवाप्तये ।।८।। अर्थ-पही समझकर बुद्धिमान पुरुषों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये समस्त चारित्र तपश्चरण आदि धारण कर प्रयत्न पूर्वक मोक्ष देनेवाला कर्मों का संवर सदा ? करते रहना चाहिये ।। अशुभ कर्मों के संवर पश्चात ही शुभ संवर करने की प्रेरणाकर्तव्योमुनिभिः पूर्व संबरोधकर्मणाम् । स्वारमध्यानं ततः प्राप्यसिद्धयं र शुभकर्मणाम ॥६॥ अर्थ--मुनियों को सबसे पहले पापरूप अशुभ कर्मों का संबर करना चाहिये और फिर मोक्ष प्राप्त करने के लिये अपने आत्मध्यानमें लीन होकर शुभ कर्मों का भी संबर करना चाहिये ॥६॥ निजैरा का स्वरूप उसके भेद और स्वामीसविपाकाधिपाकाभ्यां कर्मणां निर्जरा द्विधा । सविणकात्र सर्वेषां सवा कर्मविपाकतः ॥१०॥ प्रविपाका मुनीनां सा केवलं जायतेतराम् । तपोभिदुष्करविश्वयंमा मुक्तिमातृका ॥११॥ अर्थ-कौके एक देश क्षय होने को निर्जरा कहते हैं उसके सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा के भेव से दो भेष हैं । उनमें से सविपाक निर्जरा समस्त संसारी जीवों के सदा होती रहती है क्योंकि संसारी जीवों के कमो का विपाक प्रति समय सबके होता रहता है । तथा अविपाक निर्जरा मोक्षको माता है और वह घोर तपश्चरण तथा समस्त यमों को धारण करने से केवल मुनियों के ही होती है ॥१०-११॥ अविपाक निर्जरा का दृष्टान्त उसका फल-- यहशमुफलाम्यपद्यन्ते हो बहूधमा । तरच कृत्स्नकर्माणितपस्तापमुनीश्वरः ।।१२।। यथाजीणंयतो होगीमनिर्भरणाद्भवेत् । महासुलोमुनिस्तारकर्मनिझरणा मि ॥१३॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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