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________________ मूलाधार प्रदीप ] ( २२७ ) [पंचम अधिकार अर्थ-कठिन बालू, पत्थर के गोल टुकड़े, वज्र (हीरा) बड़ी शिला, प्रवाल या मूगा, गोमेवमणि, पुलक मरिण (प्रवाल के समान) रुजक (राजवर्त मणि) स्फटिक मणि, पद्मरागमणि, वैडूर्यमणि, चन्द्रप्रभमणि, चन्वनमणि, जलकांतमणि, पुष्परागमणि, सूर्यकांतमणि, भरकतमणि, नीलमणि, विद्रमणि और रुचिरमणि । बुद्धिमानों को ये बीस मेव कठिन पृथ्वी के समझने चाहिये ।।७-६॥ स्थूल पृथ्वीकायिक जीवों के २६ भेद हैं सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव सर्वत्र हैमिात्स्युरिमे भेदाः स्थूलपृथ्व्यंगिना भुवि । सूक्ष्माः पृथ्व्यंगिनो ज्ञेयाः खे सर्वत्र जिनागमात् ।। अर्थ-ये छत्तीस भेव पृथ्वीकायिक स्थल जीवों के समझने चाहिये । तथा पृश्वीकायिक सूक्ष्म जीव आकाश में सब जगह फैले हुये हैं ऐसा जैन शास्त्रों में कहा है ॥१४१०॥ पाठों पृथ्वीकायिकादि कठोर पृथ्वी में ही गभितपृथ्स्यष्ट पंच मेर्वाधा पर्वतः सकला भुवि । द्वीप वेदी विमाना हि प्रतोली तोरणाश्च ये ||११॥ जम्बूशाल्मलि चैल्पद्रुमास्तूपभवनावयः । कल्पवृक्षाः स्वरा विश्वेहा तेष्वन्तर्भवन्ति ते ॥१२॥ अर्थ-पाठों पृथिवी पांचों मेरुपर्वत द्वीप वेदी विमान प्रतोली (गली) तोरण, जम्बू शाल्मलि, चैत्यवृक्ष, भवन कल्पवृक्ष प्रादि कठिन प्रकार की पृथ्यी सब इसी में अंतर्भूत समझनी चाहिये ॥११-१२।। पृथ्वीकायिक जीवों की विराधना का निषेत्रज्ञात्वेति पृथिवीकायान्खनना: शिवाथिभिः । तेषां मातु न कर्तध्या त्वेनान्येन विराधना ॥१३॥ अर्थ-यही समझकर मोक्ष की इच्छा करनेवाले पुरुषों को खोद पीट कर पृथिवीकायिक जीवों की विराधना न तो स्वयं करनी चाहिये और न किसी दूसरे से करानी चाहिये ॥१३॥ अपकायिक जीवों का स्वरूपअवश्यायजलं पश्चिमरात्रिपतितं हिमम् । महिकाव्यजलं धूमाकार हरज्जलं लता ॥१४॥ स्थूलबिन्दुपुतं वाणु जलं शुद्धोदकं तपा। चन्द्रकान्तभयं नीरं सामान्यं नीहाराविजम् ॥१५॥ धनोबकं घनाकार लवामिषघनवातनम् । पा मेघोद्धपमि त्याचा रेया प्रपकायिकांगिनः ।।१६।। सरित्सागरमेघोत्याः कूपनिर भूस्थिता। चन्द्रकान्ताविजा भवान्तर्भवाजलागिनः ॥१७॥ अर्थ-परफ का पानी, पिछली रातमें पड़ी हुई ओस, तुषार, भापका पानी,
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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