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________________ मूलाचार प्रदीप] ( २२८ ) पंचम अधिकार हरज्जल, बड़ी बूदें, छोटी बूदें, शुद्ध पानी, चन्द्रकांत मरिणसे उत्पन्न होनेवाला पानी जमाई हुई बरफ का पानी धनोदक, घनाकार, सरोवर समुद्र आदि का पानी घनवात का पानी, बादल से बरसा हुआ पानी आदि सब तरह का पानी अपकायिक जीवमय ही समझना चाहिये । नदी समुद्र का पानी, मेघोंका बरसा पानी, कुए वा निर्भरने का पाली, पृथ्वी के भीतर रहनेवाला पानी, चन्द्रकांत मणि से निकला हुआ पानी इनके जलकायिक जीव सब इन्हीं में अंतर्भूत समझना चाहिये ।।१४-१७॥ अपकायिक जीवों की विराधना का निषेधइति शास्वा सदाभीषा रक्षा कार्या प्रयत्नतः । पादादिक्षासनर्जातु न हिस्याः सर्वथा बुधः ॥१८॥ अर्थ-यही समझकर बुद्धिमान पुरुषों को प्रयत्न पूर्वक इनकी रक्षा करनी चाहिये और पदप्रक्षालन प्रादि के द्वारा इन जीवों की हिंसा कभी नहीं करनी चाहिये। ॥१४१८॥ अग्निकायिक जीवों का स्वरूपज्वालागारमथाचि मुरः शुद्धयाग्निसंज्ञकः । सूर्यकान्तादिजोग्निः सामान्य इत्यग्निकायिकः ।। नंदीश्वरादि चैत्यालय घूमकुंडिकानलाः । मुकटान्याचयो त्रैवान्तभवन्त्यग्निकायिका |॥२०॥ अर्थ-ज्वाला, अंगार, ज्याल का प्रकाश, बारीक कोयलों के फुलिगे, शुद्ध अग्नि, सूर्यकांतसे उत्पन्न हुई अग्नि इत्यादि सामान्य अग्नि अग्निकायिक जीव विशिष्ट है। नंदीश्वर द्वीपके चैत्यालयों में रखे हुए धूप कुडको अग्नि अग्निकुमार देवों के मुकुट की अग्नि में रहनेवाले अग्निकायिक जीव सब इसी में अंतर्भूत समझने चाहिये। ॥१६-२०॥ अग्निकायिक जीवों की हिंसा का निषेधइत्यग्निकायिकान शास्वा मीषारोगादिशान्तये । हिंसा चिन्न कार्या ज्वालनविध्यापनाविभिः ।। अर्थ- इसप्रकार अग्निकायिक जीवों को समझकर किसी रोगको शांत करने के लिये भी अग्निको जला कर वा बुझा कर अग्निकायिक जीवों की हिंसा नहीं करनी चाहिये ॥२१॥ __वायुकायिक जीवों का स्वरूपबात सामान्यरूपरचोभ्द्रमः ऊद्ध वजन् महत् । उस्कलिमंडलियुः पृथ्वीलग्नो भ्रमन् प्रजेत् ।। गुजामन्महावातो वृक्षावि भंगकारकः । घनवाताल तम्याथ्यो ध्यजनावि कृतोयका ।।२३।।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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