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________________ मूलाचार प्रदीप ] ( २६७ ) [ षष्ठम अधिकार अर्थ- इन महावतों की विशुद्धि के लिये रात्रि भोजन का त्याग कर देना चाहिये तथा मुनियों को आठ प्रवचन मातृका का पालन करना चाहिये । (तीन गुप्ति और पांच समितियों का पालन करना अष्ट प्रवचन मातृका कहलाती है) ॥१७०१॥ रायि चर्या के दोषरात्रिर्याटनेनैव सर्ववतपरिक्षयः । शीलभंगोपवावरच जायते यामिना वृत्तम् ॥११७०२।। रात्रिभिक्षाप्रविष्टानां चौरश्चारक्षकादिभिः । नाशः स्यान्महतीशंकासवंत्र व व्रताधिषु ।।१७०३।। अर्थ-मुनियों को रात्रि में चर्या करने से समस्त व्रतों का नाश हो जाता है, शील का भंग हो जाता है और सर्वत्र अपवाद वा निदा फैल जाती है । भिक्षाके लिये रात्रि में जाने से चोर डाफू आदि के द्वारा नाश होने का डर रहता है तथा व्रताविकों में सर्वत्र महा शंका बनी रहती हैं ।।१७०२-१७०३।। अयोग्य काल में प्राहार की बाञ्छा का निषेधविवित्वेति गते योग्यकाले जातु न भोजनम् । चिन्तनीय हवादी षष्ठाणुव्रतसिखये ।।१७०४। अर्थ-यही समझकर चतुर मुनियों को छठे रात्रिभोजन त्याग व्रत की रक्षा करने के लिये हृदयसे भी कभी अयोग्य कालमें आहार की वाँच्छा नहीं करनी चाहिये। ।।१७०४॥ समिति के भेदईभाषेषरणावान निक्षेपणसमाह्वया। उत्सत्यात्रपंचेमाः शुभाः समितयोमलाः ॥५।। मासासम्यक्पुराख्या लक्षणं विस्तरेण च । इतो वे न शिष्याणप्रियगौरववाड्यात् ।।६।। मर्थ-ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, प्रादान निक्षेपण समिति और उत्सर्ग समिति ये पनि शुभ समिति कहलाती हैं। शिष्यों के लिये विस्तारके साथ इनका वर्णन पहले अच्छी तरह कह चुके हैं । इसलिये अब ग्रन्थ के विस्तार के भय से यहां नहीं कहते हैं ॥५-६॥ गुप्ति के भेद और मनोगुप्ति का स्वरूपमनोगुप्तिश्च वाग्गुप्तिः कायगुप्तिरिमाः पराः । तिस्त्रोत्रगुप्तयोशेयाः सर्वानवनिरोधिकाः ॥७॥ पंचाक्षाविषयार्थेभ्यः समस्तबाह्यबस्तुषु । संकल्पेभ्यो विकल्पेभ्यः कषायाविभ्य एव च ॥८॥ गच्छन्मनोनिरुध्याशु ध्यानाध्ययनकर्मसु । परिस्परं क्रियते लीनं सा मनोगुप्तिरजाता॥ अर्थमनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति ये तीन गुप्तियां कहलाती हैं ये
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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