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________________ एकादशोधिकारः मंगलाचरण सर्व शीलगुणाधारान् विश्वातिशयभूषितान् । वन्देऽहं तहामुनत्रिजगच्छर्मकारकान् ।। २८३०॥ अर्थ- जो भगवान अरहंतदेव समस्त शील और समस्त गुणों के आधार है, जो समस्त अतिशयों से विभूषित हैं और इस लोक तथा परलोक में तीनों जगत के जीवों का कल्याण करनेवाले हैं उन भगवान् श्ररहंतदेव को मैं नमस्कार करता हूं । ।। २८३०।। शील एवं गुणों के कथन की प्रतिज्ञा प्रवक्ष्ये समासेनशीला निसकलान्यपि । गुरणांश्चनिखिलान्युक्त्या संख्ययोत्तमयोगिन१म् ॥ २८३१॥ अर्थ- - अब मैं उत्तम योगियों के लिये युक्ति और संख्या पूर्वक समस्त शोलों को कहता हूं और समस्त गुणों को कहता हूं ॥२६३१ ॥ शील के १८००० भेदों का निर्देश त्रियोगाः करणंत्रेघा चतुः संज्ञालपंच थे। दशपृष्वया विकायाश्चधर्माः क्षमादयो दश २८३२॥ श्रभ्योऽन्यं गुणिता एते योगाद्याः भुतकोविदः । भ्रष्टादशसहस्त्राणिशीलानि स्युर्महात्मनाम् ||३३|| अर्थ-तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, पांच इन्द्रियां, पृथ्वीकायिक आदि दश प्रकार के जीव और उत्तम क्षमादिक दशधर्म इन सब योगादिकों को परस्पर गुणा कर देने से अठारह हजार मेद हो जाते हैं, ये ही महात्माओं के शील हैं, ऐसा श्रुतज्ञान के विशारद गणधराबिक देव कहते हैं ।। २८३२-२८३३॥ & योगों के भेदों का कथन -- मनोयोगोवचोयोगः काययोगोऽशुभाश्रितः । योगानांया निपापादिक्रियाप्रवर्तकानि च ।। २८३४ ॥ तानित्रिकरणाम्यत्रो ध्यम्ले कर रणरोधनः । श्रभ्यस्तास्तेत्रयोगानवभेदा भवन्ति वै ।। २८३५ ।। अर्थ- शुभ मनोयोग, शुभ वचनयोग और शुभ काययोग ये तीन तो योग कहलाते हैं तथा उन योगों के द्वारा जो पुण्य पापरूप क्रिया होती है उनको यहां पर तोल करण कहते हैं । यदि उन मन-वचन-काय की होनेवाली क्रियाओं को, करणों को - feer जाय तो योगों के नौ सेव हो जाते हैं ।। २८३४-२८३५ ।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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