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________________ मूलाचार प्रदीप ] ( १०६ ) [ तृतीय अधिकार ऐसी इस जिह्वा इन्द्रिय को जो जीत लेता है उसके समस्त कार्य सिद्ध हो जाते हैं और वह समस्त इन्द्रियों को वश करनेवाला समझा जाता है ।। ६५४ || जिल्ला इन्द्रिय रूपी सर्पिणी पर विजय श्रावश्यक - जिह्वाहोमक्षमोयोत्र जेतु दोनोम वंचितः । स्मराधरीन् कथं हन्ति दुर्द्धरान् सोतिदुर्जयान् ॥ अर्थ- इन्द्रियों से ठगा हुआ जो दीन मनुष्य जिह्वा इन्द्रिय रूपी सर्पिणी को जीतने में असमर्थ है वह अत्यन्त दुर्जय और दुर्धर ऐसे कामादिक शत्रुओं को कैसे मार सकता है ।।६५५ ।। तो जिह्वापारकामाखाविवाच्यः इसकी लंपटता से कामादि की वृद्धि - पूर्वपर्याज्य घातिनः ।। ६५६ ।। - क्योंकि जिह्वा इन्द्रिय की लंपटता से धर्मके साम्राज्य को नष्ट करने वाले काम आदि इन्द्रिय शत्रु अत्यन्त उग्र रूप धारण कर लेते हैं ।। ६५६ ॥ मिष्ट रस की इच्छा करनेवाला मुनि निन्द्य है- भिक्षाचरत्वमासाद्य योद्ध दग्धशवा कृतिः । मिष्टं स ईहते नग्नः कथं लोके न लज्जते ।। ६५७।। अर्थ- आधे जले हुए मुर्दे की प्राकृति को धारण करनेवाला जो नग्न मुनि भिक्षा भोजन का नियम लेकर भी मिष्ट रसकी इच्छा करता है वह लोक में लज्जित क्यों नहीं होता ।। ६५७॥ द्रव्य देकर लाये हुए पदार्थ में भी क्रोध का निषेध क्रीतान्नं यदि द्रव्यैरानीतं स्याह्निरूपकम् । तत्र श्लाघ्यते रोषः संयतंश्व कृतो भुवि ।। अर्थ - यदि द्रव्य देकर खरीद कर लाया हुआ अन्न बिगड़ा हुआ हो तो क्रोध करना भी अच्छा लगता है परन्तु इस संसार में सुनियों को ऐसा समय वा कारण कब मिलता है ? अर्थात् कभी नहीं ||६५८ || भिक्षा वृत्ति से प्राप्त भोजन में क्रोध का अवसर नहीं - नोचेदेवं भुषालब्धं भिक्षयान शुभाशुभम् । तर्ह्यवरे भोक्तव्यं रोषस्यावसरः ववभोः । ६५६ ॥ अर्थ - यदि ऐसा नहीं है तो फिर भिक्षा वृत्ति से शुभ वा अशुभ ( इष्ट वा अनिष्ट) अन्नको ग्रहण करना व्यर्थ है । फिर तो आवर पूर्वक भोजन करना चाहिये । ऐसी अवस्था में भी क्रोध का अवसर कभी नहीं आ सकता ॥ ६५६ ॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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