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कौन मुनि मनको सरल रखता है-
ऋकारे यथा धसे ऋजु चेषु स्वचक्षुषा । तथेकाप्रत्वमापन्नंध्यानेष्यानी मिसनः ।। २५९३ ॥ अर्थ – जिसप्रकार बाण चलाने वाला भांख से देखकर अपना माण सीधा रखता है उसीप्रकार ध्यान करनेवाला मुनि अपने ध्यान में एकाग्रता को प्राप्त हुए अपने मनको सरल ही रखता है ।। २५६३॥
मूलाचार प्रदीप ]
[ नवम अधिकार
कैसे मुनि ध्यान से उत्पक्ष अमृत का पान करते हैं
अध्याक्षेत्रामो कालाद्भवाद्भावाद्भयेन्वहम्। विश्व खाकरे कस्यचिन्तयेत्परिननम् ।। २५९४ ।। महामोहाग्निनानित्यंदमामे जगत्त्रये । विरक्ताः स्वसुखाद्वीराः पिवन्तिध्यानामृतम् ।। २५६५।। अर्थ - यह समस्त संसार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव से प्रतिदिन दुःखों की खानि बना रहता है फिर भला ध्यान करनेवाला किसको बदल कर चितवन करे । ये तीनों लोक महा मोहरूपी अग्निसे जल रहे हैं, इसलिये जो धीर वीर मुनि अपने हुए अमृत का पान करते रहते हैं ।
के रिक्त हैं, वे ही
न
।। २५६४-२५६५॥
ध्यान पुरुष तृणादि के समान कषायों को निकाल देते हैं
यथा ने समुद्राचा सहन्तेन्तर्गलं स च । सुखादीनि तथा दक्षाः कषायाक्षसुखादिकान् ।। २५६६ ।। अर्थ --- जिसप्रकार नेत्र और समुद्र आदि पदार्थ अपने भीतर आए हुए तृणादिकों को सहन नहीं कर सकते हैं, बाहर निकाल कर फेंक देते हैं उसी प्रकार चतुर पुरुष भी कषाय और इन्द्रियों के सुखों को सहन नहीं करते बाहर निकाल कर फेंक देते हैं ।। २५६६ ।।
कैसे मुनि आत्मा का एकाचित्त से ध्यान करते हैं
केवल्यवर्शन ज्ञानमयं स्वात्मानमूर्जिसम् । प्रनादिनिधनं कर्मातिगं निश्वयवेदिनः ॥२४७॥ पृथकृत्वा शरीरादिपर्यायेभ्योमुमुक्षवः । ध्यायन्ति स्मेकचित्तेन निर्विकरूपपवाश्रिताः ।। २५९८६ ॥
अर्थ - जो मुनि मोक्षकी इच्छा करनेवाले हैं, निश्वयनयसै आत्माके स्वरूपको जानते हैं और जिन्होंने निधिकल्पक पदका प्रश्रय ले लिया है वे मुनि केवलदर्शनमय, heatre, प्रनादि अनिधन कर्मों से रहित श्रौर सर्वोत्कृष्ट ऐसे अपने आत्मा को शरीराविक पर्यायों से सर्वथा अलग समझते हैं और एकाग्रचिससे उस आत्माका ध्यान करते हैं ।। २५६७-२५६८ ।।